________________ तुम्हारी सहायता के बिना पूर्ण सफलता प्राप्त नहीं कर सकता (न, प्र+भू ) 'चाहे कितना ही यत्न क्यों न करू' / 4--* यह पहलवान दूसरे पहलवान से टक्कर ले सकता है (प्र+भू)। 5--* गंगा हिमालय से निकलती है (प्र+भू ) विष्णु चरण से निकलती है ऐसा पौराणिक कहते हैं। ६-पुत्र जन्म की अत्यधिक प्रसन्नता से वह फूले न समाया (प्र+भू)। ७-वे बड़ी बहादुरी से लड़े, पर हार गये (परा+भू ) / --निर्धनों का हर स्थान पर तिरस्कार किया जाता है (परि+भू कर्मणि)। ६–जब मैं उसके भाषण पर विचार करता हूँ (परि+भावि ) तो मुझे इसमें बहुत गुण दिखाई नहीं देते / १०--तुम्हारी युक्ति में मैं कोई दोष नहीं देखता हूँ (वि+भावि), तुम ठीक ही कह रहे हो / ११--हा, शेर का बच्चा हाथियों के सरदार से वशीभूत किया जा रहा है (अभि+भू)। १२--मंगलों के निवासस्थान, गुणों के निधान, तुम्हारे जैसे इस संसार में विरले ही जन्म लेते हैं ( सम् +भू ) / १३--तत्त्वज्ञानी ऋषि नाशवान् देह को त्याग देने पर ब्रह्म में लीन हो जाते हैं ( सम् +भू ) / १४-इस बर्तन में एक प्रस्थ चावल समा सकते हैं ( सम् +भू)। १५—ऐसे रूप की उत्पत्ति ( सम् +भू ) मनुष्य ( योनि ) में कैसे हो सकती है। १६–बिडालवृत्ति वाले धर्मध्वजी वेद को न जानने वाले ब्राह्मण का वाणी से भी सत्कार न करे ( सम् +भावि)। १७सब कष्ट निर्धनता से ही पैदा होते हैं ( उद्+भू)। १८-चन्द्रमा के निकलने पर (प्राविर +भू ) सब अन्धकार दूर हो गया / १६-सूर्य के छिपते ही जंगली जानवर अपना शिकार खोजने के लिये निकल पड़ते हैं (प्राविर+भू ) और प्रात: अन्धकार के साथ ही छुप जाते हैं (तिरो+भू)। संकेत-अभ्यास 36 से अभ्यास 50 तक प्रत्येक अभ्यास में एक ही क्रियापद का प्रयोग किया जाना चाहिये। एक एक क्रियापद के साथ कोष्ठकों में दिये गये भिन्न भिन्न उपसर्गों के प्रयोग से भिन्न भिन्न अर्थों का बोध होता है। इस प्रकार जहाँ विद्यार्थी अनेक धातुरों के अर्थ और रूपावली को कण्ठस्थ करने के मायास से बच जाते हैं, वहां उपसगों के योग से वाक्यों में सौष्ठव का ही प्रयोग व्यवहारानुगत है-अयं मल्लो मल्लान्तराय प्रभवति / कहीं कहीं विभक्ति विशेष की अपेक्षा नहीं होती-विश्वासात्प्रभवन्त्येते / ये लोग विश्वास से शक्तिमान् हो जाते हैं। 1-1 महान्तमपि यत्नं चेत्कुर्याम् /