________________ ( 102 ) पृथ्वी पर खूब धूमा (वि+चर् ) / १५–जो स्त्री पतिव्रता धर्म के विरुद्ध माचरण करती है उसके लिये पुण्यमय लोक नहीं हैं। १६-यह एक अटल (अ+वि+अभि+च+णिच् ) नियम है / 17-* सुना है वहाँ विराध दनु कबन्ध राक्षस आदि अनर्थ कर रहे हैं ( अभि+चर्)। १८–पुत्र पिता के विरुद्ध आचरण करते थे और नारियाँ पति के विरुद्ध / संकेत–६–त्रिलोकी समचरन्नारदः / यहाँ परस्मैपदी धातु सं+चर् सकर्मक है / १०-भूयांसो जना मार्गेणानेन संचरन्ते / आवेशनानि यियासतामेष प्रख्यातः सञ्चरः / यहाँ ( सम् + चर्) अकर्मक है / यहाँ प्रात्मनेपद का प्रयोग भली प्रकार समझ लेनी चाहिये / ११-ये समुदाचारमुच्चरन्ते, तेऽवगीयन्ते / १२-प्रकाशेऽवकाशे नोच्चरेत् / १४-लोकं समाधिविधिमुपदिशन् भुवं विचचार (= बभ्राम) योगी। यहां द्वितीया के प्रयोग पर ध्यान देना चाहिये। १५-या पति व्यभिचरति, न तस्याः सन्ति लोकाः शुभाः / अभ्यास-४४ . (नीले जाना) १-रथ पास में लामो (उप+नी), जिससे मैं इसमें चढ़ सकू / २पामो, मैं तुम्हें उपनीत करूँगा ( उप+नी-पा० ), तू सत्य से विचलित नहीं हुआ। ३-अपने सदाचरण से इस कालिख को मिटाने का प्रयत्न करो (अप+नी)। ४-राजा मन की बताई गई (प्र+नी) विधि से अपनी प्रजा पर राज्य करे / ५-यह पुस्तक किसने बनाई है (प्र+नी)। 'इससे पहले बनाई गई पुस्तके इससे कहीं बढ़ चढ़ कर हैं। ६-नरों में श्रेष्ठ राम ने स्त्रियों के सभी गुणों से भूषित' जनकात्मजा सीता से विवाह किया (परि+ नी)। ७-कृपया मेरे लिये बाग में से कुछ गुलाब के फूल लामो (मा+ मो)। 8-* उस स्त्री ने अपने भीषण भ्रूभंग द्वारा अपने क्रोध का अभिनय किया है (अभि+नी)। ६-अपने क्रोध को रोको ( सम् +ह ), 'कोमल स्वभाव वाली बालिका पर दया करो' इस प्रकार देवताओं ने दुर्वासा से प्रार्थना की ( अनु+नी)। १०-तुम निस्सन्देह इस उजले चरित्र से अपने वंश को ऊँचा उठा दोगे ( उद्+नी ) / ११–यह समझना ( उद्+नी ) १-१-प्रणीतपूर्वाणि पुस्तकान्यतः सुदूरमुत्कृष्यन्ते / २-सर्वयोषिद्गुणालङ्गकृता / यहाँ 'योषित् सर्वगुणालङ्कृता' नहीं कह सकते / समास अधिकार में "विषय-प्रवेश" देखो। ३–दय भ्वा० आ० /