________________ ( 107 ) 8-सुख और दुःख ( रथ के) पहिये के समान पाते जाते हैं (परि+ वृद)। १०-यह पाठ दोहराया जायगा (आ+वृत्+णिच् ) और विषम स्थल स्पष्ट किये जायेंगे / ११-मैं नहीं कह सकता कि वह घर से कब लौटता है। (मा+वृत्, प्रति+मा+वृत् ) / वह बहाना बनाने में बहुत चतुर है / १२-मैंने एक तापस कुमार को रुद्राक्ष की माला फेरते (आ+वृत्+ णिच् ) देखा। १३-रस्से बनाने वाला रस्सी बाँटता है (आ+वृत्+ णिच ) / १४-यह क्षत्रिय बालक सेनामों के विनाश से टल गया है (वि+ अप+वृत् ) / १५--वह इधर ही आ रहा है ( अभि+वृत्)। मैं इसके सामने होता हूँ। १६-इस अवसर पर यमुना के किनारे सारा देहात एकत्रित हो रहा है ( सम् + वृत् ) / १७-सांख्यमतावलम्बियो के अनुसार यह संसार प्रकृति से उत्पन्न हुआ है ( सम् + वृत् ) / १८–वेदान्तियों का मत है कि आदि और अन्त से रहित ब्रह्म इस संसार के प्रातिभासिक रूप में बदलता है (वि+वृत् ) / 16-* यह बकुलावलिका मालविका के पैरों को सजावट कर रही है (निर+वृत् णिच)। संकेत-३-का प्रवृत्ति: ? ( का वार्ता ? ) 'समाचार' इस अर्थ में अब प्रयोग होने लगा है। साहित्य में इस अर्थ में कहीं नहीं मिलता। १०आवर्तयिष्यते पाठः / विषमाणि च स्थलानि विवर्णयिष्यन्ते / यहाँ वृत् धातु णिच् के साथ प्रयुक्त हुई है। १२-अक्षवलयमावर्तयन्तं तापसकुमारमदर्शम् / प्रा+वृत् फिरने वा घमने के अर्थ में प्रयुक्त होता है / जैसे-"आवर्तोऽम्भसां भ्रमः" णिच् के साथ फिराने या घुमाने में भी इसका प्रयोग होता है और प्रौटाने और पिघलाने के अर्थ में भी-आवर्तयति पयः / सुवर्णमावर्तयति स्वर्णकारः / १३-रज्जुसृट् रज्जुमावर्तयति / १७–जगदिदं प्रकृतेः समवर्तत इति सांख्याः / अभ्यास-४८ (सद् = बठना) १-माता पिता अपने पुत्र के आज्ञा पालन से प्रसन्न होते हैं (प्र+ सद्)। २-शरद् ऋतु में नदियों का जल स्वच्छ हो जाता है (प्र४ सद्)। ३-वह आशा से पूर्व जलाशय पर पहुँच गया (प्रा=सद ) वह बहुत तेज दौड़नेवाला है / ४–परीक्षा सिर पर आ रही है (प्रति 4aa- सद् ) और 1-1 व्यपदेशचतुरः / 2-2 चरणालङ्कारं निवर्तयति / 3-3 जङ्घालो ह्यसौ।