________________ (111) संकेत--द्वारं पिधेहि, पतिकासमागतास्ते मा प्रविक्षनिति / 'पपि' के 'म' का विकल्प से लोप हो जाता है / इसी प्रकार 'प्रव' के '' का भी लोप हो जाता है / जब कि 'मव' का भी 'पा' के पूर्व प्रयोग किया गया हो / 'एवं'-द्वारमपिषेहि-मी म्याकरण की दृष्टि से शुद्ध प्रयोग है। ६-गृहीतपर्याप्तपाथेयोऽहमवशिष्टं मदनं विश्वास्ये ग्रामवरिणजि निधास्यामि / 'परिणजि' में सप्तमी विभक्ति के प्रयोग पर ध्यान देना चाहिये / ७-बलीयसारिणा सन्दध्यात्. विगृह्णानो हि ध्रुवमुत्सोदेत् / १२-नाहं तेऽभिसन्धिमुन्नयामि, निभिन्नार्थतरकमुच्यताम् / (पतिशयेन निर्मिन्नार्थतरम्, तदेव निर्मिनार्थतरकम् ) / १५-विपरिषेहि वाससी, मलिने ते जाते / प्राचीन मार्यावर्त में बेष दो वनों का ही होता था, चाहे राजा हो चाहे रक। महाराज दशरय के विषय में 'भट्टिकाव्य' का "मनोरमे न व्यवसिष्ट वस्त्रे" यह वचन इसमें साक्षी है। ये दो बन्न एक प्रावरण ( उत्तरीय, चादर ) पौर दूसरा परिधानीय ( शाटिका ) होते थे। विवाह में वर को दो ही बत्र दिये जाते थे, जिन्हें "उद्गमनीय" इस एक नाम से पुकारा जाता था। १६-सो मुझे.."तन्मया साधी स्वं गृहमापातव्यम्भविष्यति / - •ष्टि भागुरियलोपमवाप्योरुपसर्गयोः / पाञ्कृवोस्तसिनह्योग बहुलत्वेन शौनकिः / / सोपसर्गक धातुमों के सविस्तर व्याख्यान के लिये हमारी कृति उपसर्ष-चन्द्रिका देखो।