________________ (101 ) प्रत्युज्जगाम ( प्रत्युद्ययो)। १४-आगमयस्व तावन्माणवक, मभित पागच्छन्ति गुरुचरणा: / आगमयस्व = कालं कञ्चित् क्षमस्व / 'मागमेः क्षमायाम्' से आत्मनेपद हुआ है / १७-अस्मद्गृहानोकोऽभ्यागतोऽभ्यागमत् / प्रस्मदगृहानद्य कश्चिदभ्यागात् / १८-अपीमं प्रस्तावमभ्युपगच्छसि (मभ्युपैषि ) ? ननु नाहमेनं विरुन्धे। अभ्यास-४३ (चर = चलना) १-जो धर्म का पालन करता है (चर् ) उसे धार्मिक कहते हैं / जो अधर्म करता है उसे पार्मिक कहते हैं और जो धर्म नहीं करता उसे अधार्मिक कहते हैं। 2-* जब तक पृथ्वी पर पर्वत स्थिर रहेंगे, और नदियां बहती रहेंगी, तब तक रामायण की कथा लोगों में प्रचलित रहेगी / ३-पार्वती प्रति दिन शिव की सेवा करती थी (उप+चर् ) यह जानती हुई भी कि शिव को पतिरूप में प्राप्त करना अत्यन्त दुष्कर है। 4-* यह बिलकुल ठीक है कि उसे महारानी की उपाधि से सम्मानित किया जाय ( उप+चर् ) / ५उस श्री का इलाज ( उपचार ) सावधानी से होने दो कदाचिद् स्वस्थ हो जाय / ६–जो कोई भी अपराध करेगा (अप+चर् ) उसे दण्ड दिया जायगा, पक्षपात नहीं होगा। ७–यदि तुम अपना भला चाहते हो तो सजनों का अनुसरण करो (अनु+चर् ) / ८–नौकर ने मालिक की देर तक सेवा की (परि+चर् ) और मालिक ने प्रसन्न होकर (परितुष्य, प्रसद्य ) उसे बहुत सा धन दिया। -नारद मुनि तीनों लोकों में भ्रमण किया करते थे ( सम् + चर् ) और लोकवृत्तान्त को स्वयं जान कर दूसरों को बताया करते थे। १०-इस सड़क से बहुत से लोग आते जाते हैं ( सम् +चर्)। कारखानों में जाने वालों के लिये यह प्रसिद्ध मार्ग है। ११-जो शिष्टाचार की सीमा लांघते हैं ( उद्+चर्-पा० ) वे निन्दित हो जाते हैं (अव+गे-कर्मणि ) / १२--किसी को खुले मैदान में मलमूत्रत्याग नहीं करना चाहिये ( उद्+चर)। १३-जिस प्रकार भाग से चिनगारियाँ निकलती हैं उसी प्रकार प्राणिमात्र ब्रह्म से उत्पन्न होते हैं (विउद्+चर ) / १४-लोगों को समाधि की विधि का उपदेश देता हुमा योगी १-कर्मान्त-पुं०। शिल्पिशाला-स्त्री। आवेशन-न। २स्फुलिङ्ग, अग्निकरण-पुं० /