________________ ( 67 ) और चमत्कृति आ जाती है। तथा साधारण धातूमों के प्रयोग की अपेक्षा भाषा मँझी हुई वा परिष्कृत मालूम होती है / ५–हिमवतो गङ्गा प्रभवति (उद्गच्छति ) / ६-सुतजन्मजन्मा गुरुस्तस्य प्रह! नात्मनि प्रबभूव / ६-यदाहं तस्य भाषितं परिभावयामि तदा नात्र बहुगुणं विभावयामि / १०नाहं ते तर्के दोषं विभावयामि (उत्पश्यामि), अञ्जसा वक्षि / परि पूर्व चुरादि * भू का प्रयोग है-'भुवोऽवकल्कने'। इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि सम् पूर्वक भू 'मिलने' व धारण करने के अर्थ में सकर्मक है / मिलने के अर्थ में अकर्मक भी हैं / परा पूर्वक भू अकर्मक है / परि+भू नित्य ही सकर्मक है। १४-इदं भाजनं तण्डुलप्रस्थं संभवति / अभ्यास-४० (कृ% करना) भारतवासी दासों की तरह अंग्रेजों की भाषा, व्यवहार और वेषभूषा की नकल करते हैं (अनु+कृ ) / यह उनकी मन्दमति का लक्षण है / २-यह पुस्तक अच्छे ढंग से लिखी गई है, निश्चय से यह विद्यार्थियों के लिये बहुत लाभ की होगी ( उप+कृ)। ३-तुम्हें अपने शत्रु का भी अपकार नहीं करना चाहिये (अप-कृ), सजनों के प्रपकार की तो बात ही क्या / ४-अच्छों की संगति पाप को ऐसे दूर भगाती है ( अप = पा+कृ ) जैसे सूर्य अन्धेरे को / ५ब्राह्मण राजा की भेट (प्रतिग्रह) अस्वीकार करता है (परा+कृ), क्योंकि वह सोचता है कि इसकी स्वीकृति पापमय होगी। ६-जो रामायण की कथा करता है (प्र+कृ प्रा०) वह जनता की बहुत बड़ी सेवा करता है (उप+)। 7--- शास्त्र शूद्रों को वेदों को अध्ययनादि का अधिकार नहीं देता ( अधि+कृ)। ८-जो शारीरिक शत्रुओं को वश में कर लेते हैं ( अधि+कृ-पा० ) वे ही सच्चे विजेता हैं। ६-काम वासना मनमें विकार पैदा करती है, (वि+कृ-पर०)। १-प्र-भू का इस अर्थ में एक और शिष्टजुष्ट प्रकार है-मवत्संभावनोत्थाय परितोषाय मूर्छते / मूर्छति, मूर्छा आदि शब्दों में 'च्छ' लिखना प्रामादिक है। 'छ' ह्रस्व से परे नहीं,अतः तुक का प्रसंग ही नहीं / 'अपि व्याप्तदिगन्तानि नाङ्गानि प्रभवन्ति मे' / / यहाँ प्र-भू अलम् अर्थ में प्रयुक्त हुआ है / ( कुमार० 6 / 56 ) इस अर्थ को मा ( अदादि अकर्मक ) से भी कहा जा सकता है प्रबभूव = ममौ / २-दिवं वोषसं वा मिथन्येनया स्यामिति तां सम्बभूवश० श०।४।१॥ सम्भूयाम्भोधिमभ्येति महानद्या नागापगा-शिशु० 2 / 100 / / 3 तेऽसुरा हेलयो हेलय इति कुर्वन्तः परावभूवुः / महाभाष्य / प्र० क०-७