________________ क्योंकि सोने (हेमन् नपुं०) का खरापन या खोटापन अग्नि में ही दीख पड़ता है / ७–यह ब्रह्मचारी ( वणिन् ) तेज (धामन् नपु०) में सूर्य (सहस्रधामन् पु० ) के समान है, गम्भीरता में समुद्र की तरह है और स्थिरता में हिमालय की तरह है।-* ब्रह्म उसे परे हटा देता है जो प्रात्मा से पृथक् ब्रह्म को जानता है / ६–ज्ञान की अग्नि से पाप (पाप्मन् पु०) ऐसे जल जाते हैं जैसे इषोका का तूल / 10 इस चारपाई को दौन ( दामन् नपु० ) ढीलो हो गई है / इसपर आराम से सोया नहीं जाता' / १५-यह लम्बा रास्ता(अध्वन् पू.) है / इसे हम कई दिन पड़ाव करते हुए चल कर तय कर सकेंगे। १२ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियों ( ब्रह्मन् नपुं० क्षत्र नपु.) में यदि सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो कुछ भी विरोध नहीं, प्रत्युत यह एक दूसरे की उपकारक ही नहीं, अलङ्कार भी हैं / १३-बिना क्षत्रिय जाति के ब्राह्मण जाति फलती फूलती नहीं। क्षत्रिय आततायियों के वध के लिये सदा सशस्त्र रहते हैं। १४-भारत से योरुप जाने के पहले दो मार्ग (वर्मन् नपु०) थे-स्थल मार्ग और जलमार्ग / अब तीसरा आकाश मार्ग भी है। १५–कोई परिहास (नर्मन् नपु०) में प्रसन्न होते हैं, कोई वक्रोक्ति में, कोई लक्ष्यार्थ में और कोई सीधे वाच्यार्थ में ही रस लेते हैं। यह स्वभाव-भेद के कारण है ।१६-अभिमानरूपी जलन से होने वाले ज्वर की गरमी (ऊष्मन् पु०) ठंढी चोजों के लगाने से दूर नहीं की जा सकती। संकेत-१--प्रार्जवेनाजीवः सम्पादनीयः, गर्धेन तु नात्मा पातनोयः / अयमेव सुपन्थाः, इतो विपरीतस्त्वपन्थाः / यहां पूजनात् (5 / 4 / 66 ) से समासान्त का निषेध हुअा है / अपन्थाः के स्थान में अपथम् भी कह सकते हैं / ११-दोर्योऽयमध्वा / एनं करपि प्रयाएकरतिक्रमिष्यामः / १२सूक्ष्मेक्षिकयालोच्यमाने ब्रह्मणः क्षत्रस्य च न विरोधः कश्चिद्विभाव्यते / अपि त्वन्योन्यस्योपकार्योपकारकभावो भूषणभूष्यभावश्च प्रतीयते / 13 नाक्षत्रं ब्रह्म वर्धते / आततायिवधे सततमुदायुधा राजन्याः / 1-1 सुखं शयितुन लभ्यते / 2-2 इदं प्रकृतिभेदनिबन्धनम् / इदं स्वभाववैचित्र्यप्रतिबद्धम् / प्र० क०-३