________________ (56 ) मैं उसका कृतज्ञ हूँ। १७-हमने ऋषि से 'नम्र निवेदन किया कि आप हमें धर्म का व्याख्यान करें / १८-उन्होंने वीरता दिखाई और शत्रु को हरा दिया / १६-यदि तुम प्रासानी से परीक्षा में उत्तीर्ण हो सकते थे, तो तुमने शिक्षक क्यों रखा / २०-यदि वह सारा का सारा रुपया दे सकता था, तो उसने दिवाला क्यों दे दिया। संकेत-शाङ्करं धनुरानमग्य रामो जनकात्मजां सीतां पर्यणयत (उदवहत्, उपायच्छत) / २-विदेशं प्रस्थितोऽसौ निर्भरं सुहृदः कण्ठ माश्लिष्यत् / यहाँ 'सुहृदः' द्वितीया बहु० है / 'कण्ठे' सप्तमी एक० / ३-माधिकरणिकोऽभियुक्तानां षडन्दान् कारावासमादिशत् / ४–देवा असुरानास्पर्धन्त (देवानसुरा अस्पर्धन्त, मस्पर्धन्त) स्पर्ध धातु सकर्मक और अकर्मक भी है। दोनों प्रकार के शिष्टप्रयोग देखे जाते हैं। ७-यशसि तेऽसुभ्यन्, परं तनाप्नुवन् / लुम् 4 50, पृथ् 450 अकर्मक हैं, अत: 'ते यशोऽलुभ्यन्' (मध्यन् ) प्रशुद्ध प्रयोग है। १०-ते कीलकेश्वं ( शिवके तुरङ्गमं ) बद्ध्वा विश्रमितुमयुः / यहाँ 'कोलकेन' प्रयोग व्यवहार विरुद्ध है / प्रयुः प्रयान् / वैकल्पिक रूप है 'लङः शाकटायनस्य'। ११-सर्वे तेषां पाप्मानोऽपूयन्त सद्भिः सङ्गेन / १२क्रमेणाजीर्याम करणवेकल्यं चायाम / १४-यदृच्छया गृहं गच्छस्तेनाहं मार्गऽमिलम् / यह स्मरण रखना चाहिये कि मिल प्रकर्मक है, अतः 'तमहममिलम्' अशुद्ध है। इस 14 वें वाक्य का इस प्रकार भी अनुवाद किया जा सकता है-गच्छन्नह पथि तेन समापद्य अथवा गृहं गच्छता मया स पथि समापत्त्या दृष्टः / 15 ते मां बलादिमं प्रदेशमत्याजयन् / एयन्त त्याजि मौर पाहि धातुओं की दिकर्मकता भी शिष्ट-संमत है / 'प्रदेशं त्यक्तुमबाधन्त माम्' यह संस्कारहीन होने के कारण त्याज्य है। १६–स वैद्यकाध्ययनाय मां प्राचोदयत् / यहाँ 'वैद्यकमध्येतुम्' अशुद्ध होगा। 18 ते पराक्रमन्त द्विषतश्च पराजयन्त / १६–यदि त्वया परीक्षा सुप्रतरा ( सहेलं शक्योत्तरीतुम् ) तदा किमर्थ शिक्षकमयुङकथाः / 1-1 वि जप / २-अनु+शास, वि+मा ख्या, वि+मा कृ / 3-3 ऋणशोधनाक्षमतां किमिति राजद्वारे न्यवेदयत् / निर्धनत्वं कथमुदघोषयत्, अकिंचनत्वं किमिति व्यानक (वि अज-लङ ) / ४–यहां 'उपपराभ्याम्' से 'उत्साह अर्थ में मात्मनेपद हुआ है।