________________ ( 42 ) द्वितीय अंश अभ्यास-१ ( लट् लकार ) १-सवृत्त छात्र जब भी अपने गुरु' से मिलता है, हाथ जोड़कर श्रद्धा से नमस्कार करता है और आसीस प्राप्त करता है। २-आप बहुत जल्दी बोल रहे हैं / मुझे समझ नहीं आता कि आप क्या कह रहे हैं। 3-* दण्ड ही प्रजाओं पर शासन करता है / दण्ड के भय से ही ये सुमार्ग पर चलती हैं, नहीं तो विमार्ग का आश्रयण' करती हैं। ४-बच्चा माता के दर्शन के लिये उत्कण्ठित है, इस कारण इसका मन न खेल में लग रहा है न खाने में | ५उसे सुरा पीने की लत पड़ गई है। इसके साथ ही वह आचार से गिर गया है / 6-* कुम्हारिन अपने बर्तन को सराहती है। इसमें पक्षपात ही कारण है, क्योंकि वह गुणदोष की निवेचना नहीं करतो / ७-माप देखते नहीं कि अपने वचन का पाप ही विरोध कर रहे हो। वचन विरोध उन्मत्त प्रलाप सा हो जाता है। यह आप जैसों को शोभा नहीं देता / ८-आश्चर्य है सुशिक्षितमन वाले ब्राह्मण भी ऐसा व्यवहार करते हैं। उनसे इसकी संभावना नहीं होनी चाहिये / ६-आप को पुत्र जन्म पर बधाई हो। 10-* तू दूसरों की आँख के तिनके को तो देखता है, पर अपनी आँख के शहतीर को नहीं। 11-* अनाड़ी कारीगर जब एक अंग को जोड़ने लगता है सो दूसरा बिगड़ जाता है। 12-* अन्न से भरपेट विद्यार्थी ऊधम मचाते हैं / १३-सूर्य के चले जाने पर निश्चय ही कमल अपनी शोभा धारण नहीं करता / 14---- प्रातः से लेकर मेंह बरस रहा है और थमने में नहीं आता / इससे घर से बाहिर निकलना भी कठिन हो गया है। १५-माता अपने बच्चे के लिये जब चपाती बनाती है तो उसके बनाने में उसे नह आनन्द आता है जो बच्चे को उसके खाने में नहीं। १६-पक्षी आकाश में ऐसे निःशंक होकर उड़ रहे हैं मानो वे इस अनन्त अन्तरिक्ष के स्वामी हैं। 17 - * मूर्ख बकवास कर 1--1 गुरुणा समापद्यते (संगच्छते) / 2 पा श्रि भ्वा० उ०, आस्थाभ्वा० व० / 3-3 न विविक्ते / विच रुधा० उ० / ४वि रम् भ्वा०प० / 5 रन्धयति / रथ् णिच् / रन्धयति / रथ् दिवादि परस्मैपदी है।