________________ ( 46 ) वहाँ देवता रमण करते हैं। जिन घरों को यिरस्कृत कुलाङ्गनायें शाप दे देती हैं वे ऐसे नष्ट हो जाते हैं मानो मारी से। १२-विदेश को जाते हुए पुत्र के सिर को माता चूमती है और स्नेहभरी आँखों से उसकी ओर एक टक देखती है। १३-महाराज युधिष्ठिर के अश्मेध यज्ञ में भगवान् श्री कृष्ण अतिथियों के चरण 'धोते हैं और खाना परोसते हैं। १४-गरमी की ऋतु में पहर भर का पका हुप्रा शाक पानी छोड़ देता है और खट्टा हो जाता है, कुछ दुर्गन्ध भी देने लगता है। १५--कुएँ को खोदने वाला कुएँ की मिट्टी से पहले लिप्त हो जाता है, पीछे वहां से निकाले हुए जल से शुद्ध हो जाता है / इसी प्रकार अपशब्द का प्रयोग करने वाला मनुष्य दोष का भागी बनता है / पर अनेक साधु शब्दों के प्रयोग से 'पवित्र हो जाता है / १६–बूढा गाड़ीवान कमजोर बेलों को पैनो से मार मार कर हाँक रहा है। बेचारे को अधिक काम के कारण पसीना आ रहा है। संकेत-४--येपि नाम भारत वर्ष नक्तन्दिवं श्राम्यन्ति तेऽनि दिनस्य द्विरुदरप्र ( उदरपूरं ) भोक्तु न लभन्ते / ६--ये व्यायच्छन्ते ते न मेदन्ते, न च रुज्यन्ते / रुज सकर्मक ( तुदादि ) धातु है, अतः यहाँ कर्मकर्ता अर्थ में प्रयोग किया गया है / ७-स नित्यं प्रातस्तरां जागति (महति प्रत्यूषे बुध्यते) / यहाँ लट् ही 'शील' को भी कह देता है, अतः 'तदस्य शीलम्' ऐसा कहने में कुछ प्रयोजन नहों। देखो-इमामुग्रातपवेलां प्रायेण लतावलयवत्सु मालिनीतीरेषु ससखीजना शकुन्तला गमयति (अभिज्ञानशाकुन्तल, तृतीय अङ्क)। उठते हो...... = संजिहान एवावश्यकं करोति, ततो दन्तान् धावित्वा स्वैरविहारम्' निर्याति / सम् पूर्वकहा (ङ) का अर्थ शय्या परित्याग है / यहाँ 'स्वरविहारम् द्वितीया भी व्यशहार के अनुकूल है। ६-शरदि शालयः पच्यन्ते, काशः पुष्प्यति, पङ्कजानि च विकसन्ति / सुधासूतिरपि किमपि कामनीयकं धत्ते / १२-विदेशं प्रति प्रस्थितमात्मजं शिरस्युपजिघ्रत्यम्बा / यहाँ आत्मज में द्वितीया और शिरश में सप्तमी ही शिष्ट व्यवहार के अनुगुण है / २३-शुचौ यातयामः श्राण: शाकः शुच्यति पूयते च कलया। २६-प्रवयाः प्राजिया प्राजनेनाभिघातमभिघातं मन्दानृषभान् ( ऋषभतरान् ) प्राजति / 1- निर्णेनेक्ति (निज जुहो० उ०),प्रक्षालयति, शुन्धति / २–परिवेविष्टे (विष जुहोo उभय०)। 3-3 दुष्यति / ४-४पूयते (पू क्रयादि उभय०) / ५-ऋषभतराः=भारवहने मन्दशक्तयोःनड्वाहः /