________________ ( 22 ) 'तुम थक रहे हो'-इन वाक्यों के अनुवाद करने में हमें तिङन्त क्रिया का ही प्रयोग करना चाहिए / 'स स्वपिति / अहं क्षुध्यामि / त्वं श्राम्यसि' / छात्रों में एक और प्रवृत्ति प्रायः देखी जाती है। वे मुख्य क्रिया को कहने वाली धातु से व्युत्पन्न (कृदन्त) द्वितीयान्त शब्द के साथ तिङन्त कृ का प्रयोग करते हैं / और व्युत्पन्न शब्द और कृ के स्थान में सीधा उसी धातु का ही प्रयोग नहीं करते / ऐसा करने का एक कारण तो यह है कि छात्र क्लिष्टतर क्रिया के रूपों से बचना चाहते हैं और साथ ही उन पर अपनी प्रांतीय भाषा का प्रभाव भी है, जिसके रंग में वे रंगे हुए हों। इस प्रकार कोई-कोई छात्र 'अहमद्य सायं महात्मानं द्रक्ष्यामि' के स्थान में 'अहमद्य सायं महात्मनो दर्शनं करिष्यामि' 'लज्जते' के स्थान में 'लज्जां करोति', 'स्नाति' के स्थान में 'स्नानं करोति', ‘भुङ्क्ते' के स्थान में 'भोजनं कुरुते' 'सेवते' के स्थान पर 'सेवां करोति' 'विद्यामर्जयति' के स्थान में 'विद्यार्जनं करोति' 'बिभेति' के स्थान में 'भयं करोति' इत्यादि का प्रयोग करते हैं / यहाँ 'लज्जां करोति' और 'भयं करोति' जिनका 'लज्जते' और 'बिभेति' के स्थान में प्रयोग किया गया है-प्रशुद्ध हैं, क्योंकि उनका ठीक अर्थ लज्जा अनुभव कराना, और भय पैदा करना ही है। (भयं करोतीति भयङ्करम् भीषणम्) | इनके स्थान में 'लज्जामनुभवति', 'भयमनुभवति' शुद्ध प्रयोग हैं / 'कृ' धातु का ऐसा प्रयोग लौकिक संस्कृत साहित्य में बहुत कम है / अतः इस प्रकार से इस धातु का बार-बार प्रयोग प्रशस्य नहीं / कुछ एक धातुओं के बारे में थोड़ा सा भ्रम फैला हुआ है / गम् और पत् गलती से अकर्मक समझे जाते हैं, परन्तु वास्तव में वे सकर्मक हैं। वस्तुतः इन दोनों धातुओं का अर्थ 'जाना' है। जैसे-'ग्रामं गच्छति, नरकं पतति / ' क्योंकि धातुओं के कई अर्थ होते हैं (अनेकार्था हि धातवः) इसलिए, अथवा प्रकरण के अनुसार पत् का प्रयोग 'उड़ने या गिरने' के अर्थ में भी होता है, साथ में उपसर्ग हो चाहे न हो। इन अर्थों में यह धातु प्रायः अकर्मक है। जैसे-पक्षिणः खे पतन्ति, (पक्षी आकाश में उड़ते हैं), ___* पर महाभारत (प्राश्वमेधिक पर्व 77 अध्याय) में 'न भयं चक्रिरे पार्थात्' ऐसा प्रयोग है / और सभापर्व (45 / 18) मे 'व्रीडां न कुरुषे कथम्' ऐसा भी। + दिशः पपात पत्रेण वेगनिष्कम्पकेतुना (रधु० 1584 / / ) / ग्राश्वीनानि शतं पतित्वा (काशिका)।