________________ ( 14 ) इसमें पत्थर नहीं है। २–गुरु की ओर मुंह करके (अभिमुखम् )बेठ, विमुख होकर बैठना अनादर समझा जाता है / ३-वह अटक 2 कर ( सगद्गदम्, स्खलिताक्षरम् ) बोलता है, उसकी वाणी में यह स्वाभाविक दोष है। ४-तु ने ठीक ( युक्तम्, साधु ) व्यवहार नहीं किया, इस लिये तुम्हारी लोक में निन्दा हो रही है / ५-तुम व्याकरण पर्याप्त रूप से ( पर्याप्तम्, प्रकामम् ) नहीं जानते,अतः ग्रन्थकार का आशय समझने में कभी कभी भूल कर जाते हो। ६-नारद अपनी इच्छा से ( स्वरम् ) त्रिलोकी में घूमता था और सभी वृत्तान्त जानता था / ७-मैं बड़ी चाह से ( सोत्कण्ठम्, सोत्कलिकम् ) अपने भाई के घर लौटने की प्रतीक्षा कर रहा हूँ। ८-मैं आप से बलपूर्वक (साग्रहम् ) और ( नम्रम्, सप्रश्रयम् ) प्रार्थना करता हूँ कि आप इस संकट में मेरी सहायता करें। -पहले ( पूर्वम् ) हम दोनों एक दूसरे से बराबर होते हुए मिलते थे, अब आप अफसर हैं और मैं आपके नीचे नियुक्त हूँ। १०कृपया आप मुझे शान्ति से ( समाहितम् ) सुनें / मुझे आपके हित की कई एक बातें कहनी हैं। ११–बच्वा वहुत ही ( बलवत् ) डर गया है, अभी तक होश में नहीं आता है / १२-याप स्पष्टतर (निभिन्नार्थतरकम् ) कहिये / मुझे आपका कथन पूरी तरह (निरवशेषम् ) समझ नहीं आता। १३-शाबाश ( साधु, साधु ) देवदत्त, तुमने अपने कुल को बट्टा नहीं लगने दिया। संकेत-६-त्रिलोकी स्वरं समचरन्नारदः, सर्वं च लोकवृत्तमबोधत् / तृतीयान्तयुक्त होने पर सम्-चर् धातु आत्मनेपदी होती है, सो यहाँ आत्मनेपदी नहीं हुआ / ८-साग्रहं सप्रश्रयं चात्रभवन्तं प्रार्थयेऽत्रभवानत्ययेस्मिन्ममाभ्युपपत्ति सम्पादयतु (अत्रभवता संकटेस्मिन्साहायकं मे सम्पाद्यमिति ) / ६-अब आप अफसर... = त्वमीश्वरोऽसि, अहं च त्वदधिष्ठितो नियोज्यः / १०–समाहितं मां शृणुत / यहाँ कृपया, सकृपम् इत्यादि कहना व्यर्थ है, क्योंकि यह अर्थ प्रार्थना में आये हुए लोट् लकार से ही कह दिया गया है / १३-साधु देवदत्त साधु, रक्षितं त्वया कालुष्यात्कुल यशः / यहाँ 'साधु कृतम्' यह सम्पूर्ण वाक्य होता है। १-१इयमश्मवती न / 2-2 नाचरः, न व्यवाहरः / 3-3 भ्रमसि / पाशय समझने में.......कदाचिदाशयमन्यथा गृह्णासि / 4-4 गृहं प्रति भ्रातुः प्रत्यावृत्ति (भ्रातरमावतिष्यमाणम् ) सोत्कण्ठं प्रतीक्षे /