________________ ( 28 ) सकते हैं ? क्रिया को प्रधान रूप से (विधेय रूप से) तिङन्त पद ही कह सकते हैं, शत्रन्त या शाननन्त तो क्रिया-विशिष्ट कर्ता या कर्म को ही कहते हैं / इने गिने स्थलों में ही विधेय रूप से शत्रन्तों व शानजन्तों का प्रथमा समानाधिकरणता में प्रयोग मिलता है-मैत्रेयीति होवाच याज्ञवल्क्य उद्यास्यन्वा अरेऽहमस्मात्स्थानादस्मि / 'यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः' (मनु०)। शत्रन्त व शानजन्त जब विशेषण रूप से प्रयुक्त होते हैं तो प्रथमान्त के साथ समानाधिकरण भी हो सकते हैं। जैसे-उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचम् (ऋ०) / कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समाः (यजुः) / जीवन्नरो भद्रशतानि भुङ्क्ते / संकटेन मार्गेण यान्ति यानानि संघट्टन्ते (संकरे मार्ग से चलती हुई गाड़ियां टकरा जाती हैं)। पुरुषात्पुरुषान्तरं संक्रामन्तो रोगा बहुलीभवन्ति / जायमानो वै ब्राह्मणस्त्रिभिणैर्ऋणवा (ज्) जायते / इति चिन्तयन्नेव स गृहान्निर्ययो / विद्यमानाऽऽर्याणामवस्था नितान्तं शोच्या इत्यादि / शतृ व शानच् प्रत्यय लट् का आदेश होने से वर्तमान काल में तो प्रयुक्त होते ही हैं, पर बात्वर्थ के हेतुरूप व लक्षण रूप होने पर भी। जैसे-देवदत्तो विद्यामुपाददानः काश्यां वसति (विद्यामुपाददानः-विद्योपादानाय) / आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् न बिभेति कुतश्चन (तै० उ० 2 / 9) / प्रानन्दं विद्वान् =प्रानन्दज्ञानेन हेतुना / शयाना भुञ्जते यवनाः (यवन लोग लेटकर खाते हैं)। लेटकर खाना यवनों का लक्षण, परिचायक चिह्न है / इसी प्रकार 'फलन्ती वर्धते द्राक्षा पुष्प्यन्ती वर्धतेऽब्जिनी / शयाना वर्घते दूर्वा प्रासीनं वर्धते विसम् / / शयानो वर्धते शिशुः-यह हेत्वर्थ में उदाहरण है। तुमुन्नन्त-संस्कृत में हम तब तक तुमुन्नन्त का प्रयोग नहीं कर सकते, जब तक 'तुमुन्नन्त' का कर्ता और तिङन्त क्रिया का कर्ता एक न हो। *इस विषय के सप्रपञ्च निरूपण के लिए हमारी कृति शब्दापशब्दविवेक की भूमिका देखो। कुछ एक स्थलों में भिन्न्कर्तृ कता में भी तुमुन् देखा गया हैवाष्पश्च न ददात्येनां द्रष्टुं चित्रगतामपि (शकुन्तला 6 // 22 // ), स्मर्तु दिशन्ति न दिवः सुरसुन्दरीभ्यः (किरात 5 / 28 // ) / प्रथम वचन दुष्यन्त का है।