________________ ( 30 ) हो जाता है, और पदों के गुण-प्रधान-भाव में उलट-पुलट हो जाता है। 'जन्म यस्य पुरोवंशे युक्तरूपमिदं तव / ' इस वाक्य में 'पुरोर्वशे' के 'पुरु' शब्द की जो प्रधानता है, वह पुरुशब्द का वंश शब्द के साथ समास किये जाने में नहीं रहती। वाक्य में प्रयुक्त हुआ 2 पुरुशब्द 'पुरु' का वंश के साथ सम्बन्ध ही नहीं बताता, किन्तु उसके अतिरिक्त पर्याप्त भाव की ओर भी संकेत करता है। पुरुशब्द साभिप्राय विशेषण है। इससे यह भी व्यङ्गयार्थ मिलता है कि इस वंश का प्रवर्तक कोई साधारण व्यक्ति नहीं था। यह उस महामहिम पुरु का वंश था, जिसने अपने पिता ययाति के आदेश से उसके बुढ़ापे को स्वीकार किया और उसे अपना यौवन प्रदान किया / पुरु का यह उत्कर्ष 'व्यास' द्वारा प्रकट किया जा सकता है; न कि समास द्वारा / भाषामर्मज्ञों का कहना है 'सम्बन्धमात्रमर्थानां समासो ह्यवबोधयेत् / / नोत्कर्षमपकर्ष वा वाक्यात्त भयमप्यदः // (व्यक्तिविवेक)* कुछ एक भाव समास से ही प्रकट किये जा सकते हैं। जैसे-कृष्णसर्पः (काला विषैला साँप), त्रिफला (-हरीतकी, आमलकम्, विभीतकम्), त्रिकटु (-शुण्ठी, पिप्पली, और मरिचम्), अमृतसरसम्। (एक नगर का नाम), चतुष्पथम् (-चौराहा), चतुःशालम् (=चौक)। उपर्युक्त शब्द केवल समास के द्वारा ही किसी वस्तु विशेष को सूचित करते हैं / यदि हम 'कृष्णः सर्पः' कहें तो इससे किसी विशेष जाति के साँप का बोध नहीं होता। इसी प्रकार 'अमृतस्य सरः' का अर्थ अमृत का तालाब है, यदि हम उस स्थान के लिए जहाँ चार सड़कें परस्पर मिलती हैं, कोई एक शब्द चाहें तो हमें 'चतुष्पथम्' का ही प्रयोग करना होगा / हम कहीं भी 'चतुवां पथां समाहारः' प्रयोग नहीं करते, यह तो केवल व्याकरण की दृष्टि से की गई 'चतुष्पथम्' की निरुक्ति मात्र है / ये सब संज्ञाएँ हैं / संज्ञा का बोध वाक्य से हो नहीं सकता। अतः समास का प्राश्रय अवश्य लेना पड़ता है। कुछ शब्द ऐसे हैं, जो समास में उत्तर पद होकर ही प्रयुक्त हो सकते हैं, समास से बाहर नहीं / 'निभ, संनिभ, संकाश, नीकाश, प्रतीकाश, उपमा', ग्रादि शब्दों के विषय में ऐसा देखा जाता है। अमरकोष का 'स्युरुत्तरपदे * समास केवल अर्थों के सम्बन्ध को बताता है, उनकी उत्कृष्टता अथवा अपकृष्टता को नहीं / वाक्य से तो इन दोनों का बोध होता है। .. + यहां 'अनोऽश्मायस्सरसां जातिसंज्ञयोः'-इससे अच् समासान्त हुमा है।