________________ ( 20 ) परिहार यह है कि जातिविशिष्ट द्रव्य का क्रिया में सीधा अन्वय होने से 'उत्पल' ही विशेष्य (प्रधान) है / हाँ, गुण शब्दों, क्रिया शब्दों और गुण क्रिया शब्दों के परस सम्बन्ध में विशेषण-विशेष्य-भाव के विषय में कामचार है। समान रूप से गौ / अथवा प्रधान शब्दों का आपस में सम्बन्ध होता ही नहीं, इसलिये एक की गौषता विवक्षित होती है और दूसरे की प्रधानता / जो विशेषण माना जाता है उसकी उपसर्जन संज्ञा होने से उसका समास में पूर्वनिपात होता है / इस प्रकार हम-खाजकुब्जः, कुब्जखञ्जः, पाचकपाठकः, पाठकपाचकः, खजपाचकः, पाचकखञ्जः-इत्यादि उपसर्जन भेद से प्रयोग कर सकते हैं। विशेष्य विशेषण भाव का दिङ्मात्र निरूपण कर हम यह कहना चाहते हैं कि वाक्य में एक द्रव्य रूप विशेष्य के विशेषण परस्पर सम्बद्ध नहीं होते / यदि उनमें भी गुणप्रधान-भाव हो तो उनका विशेषणत्व ही नष्ट हो जाये। इसी बात को भाष्यकार ने इन शब्दों में कहा है न ह्य पाधेरुपाधिर्भवति, न विशेषणस्य विशेषणम् (पा० भा० 1 // 3 // 2 // ) इसलिये 'हमारे गुरु जी बड़े विद्वान् हैं' इसके संस्कृतानुवाद में 'अस्मद्गुरुचरणा महान्तो विद्वांसः सन्ति' ऐसा नहीं कह सकते। 'ये इतने सज्जन हैं कि अपने शत्रु पर भी दया करते हैं'-इस वाक्य की संस्कृत 'एत एतावन्तः साधवो यद् द्विषत्यपि दयां कुर्वन्ति' नहीं हो सकती। महान्तो विद्वांसः-के स्थान में 'महाविद्वांसः' कहने में भी वही दोष रहेगा। विद्वस् शब्द को भाव-प्रधान निर्देश मानकर समाधान हो सकता है, पर विद्वस् का वैदुष्य अर्थ अत्यन्त अप्रसिद्ध है / हाँ, महत् को क्रियाविशेषण मामकर 'सुप्सुपा' समास होने पर ‘महद् विद्वांसः' ऐसा कहने में कोई दोष न होगा / यहाँ पर अतिशयेन विद्वांसः अथवा विद्वत्तमाः कह सकते हैं। दूसरे वाक्य की रचना 'एते तथा साधवो यथा'......' इस प्रकार होनी चाहिये / - क्रिया-संस्कृत में क्रियापद रचना में सांयोगिक होता है। क्योंकि यह धातु प्रत्यय और विकरण से मिलकर बनता है। इसके अवयव वाक्य में स्पतन्त्रतया प्रयुक्त नहीं हो सकते / संस्कृत में क्रियापद के साथ कोई सहायक क्रियापद नहीं होता। इसमें तीन वाच्य हैं-कर्तृवाच्य, कर्मवाच्य, और भाववाच्य / भाववाच्य तभी होता है जब क्रिया अकर्मक हो, इस वाच्य में कर्ता तृतीयान्त होता है, और क्रिया केवल प्रथम पुरुष एक वचन में प्रयुक्त होती है। उदाहरणार्थ-ईश्वरेण भूयते, मनुष्यैम्रियते, तैस्तत्र संनिधीयते /