________________ ( 25 ) शैलादधिनदी यथा / न हि निम्बात्स्रवेत्वोद्रम् / सकर्मक-स्वरेण तस्याममृतस्र - तेव प्रजल्पितायामभिजातवाचि (कुमार) / कुञ्जरेण सवता मदम् (कथासरित्सागर)। न हि मलयचन्द नतरुः परशुप्रहतः स्रवत्पूयम् / क्षर् (अकर्मक)-तपः क्षरति विस्मयात् / तेनास्य तरति प्रज्ञा (मनु)। सकर्मक-आपश्चिदस्मै घृतमित्क्षरन्ति (अथर्व० 7 / 18 / 2 // ) / तस्य नित्यं जरत्येष पयो दधि घृतं मधु (मनु० 2 / 1071) / यो येनार्थी तस्य तत्प्रक्षरन्ती वाङ्मृत्तिर्मे देवता सन्निधत्ताम् (बालरामायण) / स्यन्दू (अकर्मक)-स्यन्दन्ते सरितः सागराय। तीवस्यन्दिष्यते मेघैः (जोर की वृष्टि होगी) / मत्स्या उदके स्यन्दन्ते / शिरामुखैः स्यन्दत एव रक्तम् (नागानन्द) / सकर्मक-सस्यन्दे शोपितं व्योम (भट्टि 14 / 18) / लकार-लकारों का प्रयोग यथास्थान संकेतों में दिखाया गया है। और उनकी सोदाहरण व्याख्या भी की गई है। यहाँ हम कुछ एक ऐसी विशेषताओं को दर्शाते हैं जिनका परिचय वहाँ नहीं दिया गया है। ___लट् लकार कभी-कभी लोट् के अर्थ में भी प्रयुक्त होता है। जैसे-कामत्र. भवतीमवगच्छामि / (शब्दार्थ:-श्रीमती को मैं कौन जानू-ग्राप कौन हैं / प्रश्न अर्थ होने से लोट् का विषय है / किं करोमि / क्व गच्छामि (मैं क्या करूं, मैं कहां जाऊँ)। अनुज्ञा मांगने में धातु मात्र से लट् भी पा सकता है (लोट वा लिङ्ग भी)-नन करोमि भोः क्या मैं करूँ / यहाँ प्रार्थना अर्थ में लोट प्राप्त था। 'अनुज्ञा' प्रार्थना का विषय है। लोट् लकार भी कभी-कभी लट् के स्थान में प्रयुक्त होता है / जैसे-तद् बत वत्साः किमितः प्रार्थयध्वं समागताः (कुमार 2 / 28 // / ब्रह्मपो वा एतद्विजये महीयध्वम् इति (केनोपनिषद् / अङ्ग कूज वृषल, इदानी ज्ञास्यसि जाल्म (हे शूद्र तू कुँ / करता है तुझे अभी पता लग जायगा)। लृट् लकार भी कभी-कभी लट् के अर्थ में प्रयुक्त होता है। जैसे-तमस्तपति धर्माशौ कथमाविभविष्यति / यहाँ भविष्य का कोई भाव नहीं, अन्यथा 'दृष्टान्त' और 'दान्तिक' दोनों की क्रियाओं की एककालिकता नष्ट हो जायगी। दान्तिक पर्ववाक्य 'कुतो धर्मक्रियाविघ्नः सतां रचितरि त्वयि' में 'अस्ति' क्रियापद का अध्याहार होता है (अस्तिर्भवन्तीपरः प्रथमपुरुषोऽप्रयुज्यमानोऽप्यस्ति)। सो यहाँ क्रिया वर्तमान काल में है / दृष्टान्त रूप उत्तर वाक्य में भविष्यत् काल में करो हमासकसीकेतानासा भविष्यति'भवान्दिरइसी प्रकार