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तो एक बार वह स्वय मुझे उसे दिखाने के लिए ले गये गया था। कभी-कभी बहस भी हो जाते थे कारण
और बड़े सुन्दर ढग से उसकी बारीकियां मुझे कि वह जिस लगन और उत्साह से काम करना चाहते समझाई थी।
थे, उसमें बीमारी मागे मा जाती थी, लेकिन फिर भी मेरे यात्रा वृत्तान्त वह बड़े चाव से पढ़ते थे। लिखने कुल मिलाकर अपने जर्जर शरीर से उनने जो कार्य किया, के बाद बहुत सी घटनाएँ मैं भूल जाता हूँ, लेकिन बा. उससे मालूम होता है कि उनकी पात्मा प्रत्यन्त बलिष्ठ छोटेलाल जी की स्मरण शक्ति देखकर चकित रह जाता थी। उनमें जीने की लालसा थी, इसलिए नही कि उन्हें था। वह मिलने पर बहुत-सी घटनामों का मुझे स्मरण जीने से मोह था, बल्कि इसलिए कि वह देखते थे कि दिलाते थे और बार-बार भाग्रह करत पाक अपन यात्रा उनके चारों पोर इतना काम करने को पड़ा हुमा है । वह सम्बन्धी सारे लेखों को मैं पुस्तकाकार प्रकाशित करा दू। यह भी जानते थे कि वे प्राज के युग में राजनीति का वह मुझे हर प्रकार से प्रोत्साहन देने का प्रयास करते थे।
बोलबाला है। इतिहास धर्म. पुरातत्व, संस्कृति प्रादि यात्रा-सम्बन्धी मेरी शायद ही कोई ऐपी पुस्तक हो, जिसे
का स्थान गौण हो गया है ! इन क्षेत्रों में काम करने उन्होंने न पढ़ा हो।
वाली का उन्हे प्रभाव दिखाई देता था। इसलिए वह जब दिल्ली में वीर-सेवा-मन्दिर की स्थापना हुई और अपने हाथ से अधिक-से-अधिक काम करवाना चाहता थे। वे यहां पर अपना अधिकाश समय बिताने लगे तब तो
उनकी मृत्यु से कुछ ही समय पहले मैं कलकत्ता उनसे बार-बार मिलना हुमा। उनके सामने बहुत-सी गया था। वह घर पर थे और दमे से संघर्ष कर रहे थे। समस्याएँ वीं जिनकी वह मुझपे चर्चा किया करते थे। जब मैं उनसे जाकर मिला तो मुझे लगा कि अधिक बातमैं भी अपनी समस्याएँ उनके सामने रक्खा करता था। चीत करके मुझे उनपर जोर नही डालना चाहिये । प्रत. इस मादान-प्रदान ने हम दोनों को एक-दूसरे के बहुत ही थोडी देर रुककर जब मैंने उनसे विदा चाही तो वह नहीं निकट ला दिया था। मुझे कई ऐसे अवसर याद पाते हैं माने और मुझे काफी देर तक रोक कर विभिन्न विषयो जब उन्होंने मेरी विनम्र सलाह पर अपना बड़े-से-बड़ा पर चर्चा करते रहे । जब मैं चलने को हुआ तो उन्होने इरादा बदल दिया था। एक बड़े ही कटुप्रसग मे वह एक बड़े ही स्नेह-स्निग्ध स्वर में कहा कि जाने से पहले एक पुस्तिका छपवाने वर्धा गये थे। पुस्तिका छपकर तैयार बार मुझमे फिर मिल जाइये। मेरे पास समय की बडी हो गई। वह उसे इधर-उधर भेजने वाले थे। सयोग से सीधी फिर भी मान जातेजाजतो उसी दिन में वर्षा पहुँच गया। जब उन्होंने मेरे सामने बातचीत में उन्होने कहा कि तबियत थोड़ी सुधरते ही मै वह बात छेड़ी तो मैंने उनसे कहा कि आप इस पुस्तक दिल्ली मा जाऊँगा। मैंने प्राग्रह किया कि वह जरूर को कदापि किसी को न भेजे। उन्होने तत्काल अपना आवे, क्योंकि स्थान तथा जलवायु के परिवर्तन से उनके विचार छोड़ दिया और पुस्तक को उन्होंने किसी को भी स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ेगा। उन्होंने बड़ी प्रात्मीनही भेजा। मुझे मालम है कि ऐसा करने में उन्हे अपनी यता से मझे बिदाई दी। भावनामों पर वृहद् जोर डालना पडा, लेकिन यह उनका नहीं जानता था कि वह उनसे मेरी अन्तिम भेट बडप्पन था कि उन्होने अनुज जैसे मेरे वात्सल्य को मान होगी, उनके निधन से धर्म, इतिहास तथा पुरातत्व की दिया।
जो क्षति हुई है, वह तो हुई ही है, पर मैं व्यक्तिगत रूप वह स्वय सफल व्यवसायी रहे और जीवन की में बड़ी रिक्तता अनुभव करता हूँ । ऐसा लगता है, मेरे विभिन्न समस्यानो के सम्बन्ध में उनका अनुभव बडा दुख-दर्द में साथ देने वाले एक ऐसे बुजुर्ग चले गये. गहरा था। लेकिन छोटी-से-छोटी बात जब वह मुझसे जिनकी मुझे प्रावश्यकता थी और है। पूछते थे तब मेरा मन बड़ी धन्यता अनुभव करता था। मैं उनके उच्च व्यक्तित्व को बारबार अपनी श्रद्धा
वह वर्षों से दमे के रोगी थे, उनका शरीर जर्जर हो जलि अर्पित करता हूँ।*