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मध्य भारत का बैन पुरातत्व
विक्रमशाह, रामसाह, शालिवाहन और इनके दो पुत्र हुपा था। उस समय अनेक जैन राजकीय उच्चपदों पर (श्यामसाह और मित्रसेन१) हैं। लगभग दो सौ वर्ष के सेवा कार्य करते थे। जो राज्य के संरक्षण पर सदा दृष्टि इस राज्यकाल में जैनधर्म को फलने, फूलने का अच्छा रखते थे। वर्तमान में भी जैनियों की वहां मच्छी अवसर मिला है। इन सभी राजानों की सहानुभूति जैन- सख्या है।
न साधुनों और जैनाचार पर रही है। राजा डूगर खासकर राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह के शासनसिंह और कीतिसिंह की आस्था जैनधर्म पर पूर्ण रूप से काल में (वि० सं० १४८१ से स० १५३६ तक) ५५ वर्ष रही है । तत्कालीन विद्वान् भट्टारको का प्रभाव इन पर पर्यन्त किले में जैन मूर्तियों की खुदाई का कार्य चला है। अकित रहा है। यद्यपि तोमरवशके पूर्व भी, कछवाहा और
पिता और पुत्र दोनों ने ही बड़ी पास्था से उसमें सहयोग प्रतिहार वंश के राजारों के राज्यकाल मे भी ग्वालियर
दिया था। अनेक प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न किये थे। दोनों के और पाश्ववर्ती इलाको मे जैनधर्म का सूर्य चमक रहा
राज्यकाल में प्रतिष्ठित मूर्तियाँ ग्वालियर मे प्रत्यधिक था; परन्तु तोमर वंश के समय जैनधर्म की विशेष अभि
पाई जाती हैं। जिनमें सं० १४६७ से १५२५ तक के वृद्धि हुई। राजा विक्रमसिंह या वीरमदेव के समय जैस
लेख भी अंकित मिलते है। अथ रचना भी उस समय वाल वशी सेठ कुशराज उनके मत्री थे, जो जैनधर्म के
अधिक हई है। देवभक्ति के साथ श्रुतभक्ति का पर्याप्त अनुयायी और श्रावक के व्रतो का अनुष्ठान करते थे।
प्रचार रहा है । वहाँ के एक सेठ पसिंह ने जहां अनेक इनकी प्रेरणा और भट्टारक गुणकीति के आदेश से पद्म
जिनालयों, मूर्तियों का निर्माण एवं प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न नाभ कायस्थने, जो जैनधर्म पर श्रद्धा रखता था, 'यशो
कराया था। उसने ही जिन भक्तिसे प्रेरित होकर एक लक्ष घरचरित' की रचना की थी।
ग्रंथ लिखवाकर तत्कालीन जैन साधुप्रो और जैन मन्दिरों ग्वालियर और उसके पास-पास के जैन पुरातत्त्व ।
के शास्त्र भडारों को प्रदान किये थे। ऐसा मादि पुगणऔर विद्वान भट्रारको तथा कवियों की प्रथ रचनामो का की सं० १५२१ की एक लिपि प्रशस्ति से जाना जाता अवलोकन करने से स्पष्ट पता चलता है कि वहा जैनधर्म है। इन सब कार्यो से उस समय की धार्मिक जनता के उक्त समय मे खुब पल्लवित रहा । ग्वालियर उस समय प्राचार-विचारों का और सामाजिक प्रवत्तियों का महल उसका केन्द्र स्थल बना हुआ था। वहाँ ३६ जातियो का ही परिज्ञान हो जाता है। उस समय के कवि रहध ने निवास था, पर परस्पर मे कोई विरोध नही था। जैन अपने पावपुराण की प्राद्यन्त प्रशस्ति मे उस समय के जनता अपनी धामिक परिणति, उदारता, कर्तव्यपरा. जैनियो की सामाजिक और धार्मिक परिणति का सुन्दर यणता, देवगुरु-शास्त्र की भक्ति और दानधर्मादि कार्यों मे चित्रण किया है। सोमाह भाग लेती थी। उसी का प्रभाव था कि जैनधर्म
सन १५३६ के बाद दुर्ग पर इब्राहीम लोदी का और उसकी अनुयायी जनता पर सबका वात्सल्य बना
अधिकार हो गया। मुसलमानो ने अपने शासनकाल में १. यह मित्रसेन शाह जलालुद्दीन के समकालीन थे। उक्त किले को कैदखाना ही बनाकर रक्खा । पश्चात दुर्ग
इनका वि०म० १६८८ का एक शिलालेख बगाल पर मुगलों का अधिकार हो गया। जब बाबर उस दग एशियाटिक सोसाइटी के जनरल भाग ८ पृ. ६६५ का
न को देखने के लिये गया, तब उसने उरवाही द्वार के दोनों में रोहतास दुर्ग के कोथेटिय फाटक के ऊपर की
पोर चट्टानों पर उत्कीर्ण की हुई उन नग्न दिगम्बर जैन परिया पर तोमर मित्रसेन का शिलालेख, जिसे मूर्तियों के विनाश करने की माज्ञा दे दी। यह उसका कृष्णदेव के पुत्र शिवदेव ने सकलित किया था।
कार्य कितना नृशंस एवं घृणापूर्ण था, इसे बतलाने की २. देखो, 'यशोधरचरित और पद्यानाभकायस्थ' नामक
मावश्यकता नहीं। लेख, भनेकान्त वर्ष १० कि०४,५
१. देखो, बाबर का आत्मचरित ।