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अनेकान्त
२४. अल्पबहुत्य-इस अनुयोगद्वार में नागहस्ती इसके पश्चात् वहां पूर्व प्ररूपित लेश्या मादि अनुभट्टारक सत्कर्मका अन्वेषण करते हैं, यह निर्देश करते हुए योगद्वारों के पाश्रय से क्रमशः कुछ विशेष प्ररूपणा करते उनके उपदेश को प्राचार्यपरम्परागत बतलाया गया है। हुए अन्त में यह कहा गया है कि महावाचक क्षमाधमण तद्नुसार सत्कर्म की प्ररूपणा करते हुए उसके प्रकति- इस मल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सत्कर्म का मार्गण करते सत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म हैं। तदनुसार यहां उत्तरप्रकृतिसत्कर्म के प्राथय से इन चार भेदों का निर्देश करके उनके स्वामी प्रादि की विविध दण्डक किये गये हैं। पृथक पृथक् प्ररूपणा की गई है।
१. धवला पु० १६१०५२२-६३ ।
समय और साधना
साध्वीश्री राजीमतोजी
समय साधना का मूल तो नही किन्तु मूल की सकता है कि दोनों ममय लेकर पकते है किन्तु एक पकने सहायक सामग्री अवश्य है। जो समय का मूर्ख है वह सदा के बाद खत्म होता है और एक बनता है। दरिद्र रहता है; क्योकि साधना, अभूत कलपना नही, शास्त्रीय भाषा मे स्थिति पाक ही स्थायी तथा वास्तविक धरती का स्पर्श है । स्पर्श के लिए चाहिए अह चमत्कारिक निष्पत्तियों का कारण है। क्या समय और की दुर्भय दीवार को तोड़कर स्व प्रवेश (बाहर और संकल्प को संसार की महानता उपलब्धियों का कारण भीतर) यह प्रवेश पौर निर्गमन अभ्यास-काल में समय इसी आधार पर नहीं माना गया है ? हर सफलता के मापेक्ष होता है। स्वाध्याय के बाद ध्यान होता है, किन्तु पीछे समय की शर्त है । शिशु-शरीर का जिस मन्थर गति ध्यान के बाद स्वाध्याय नहीं क्रिया से प्राचार शिथिल से विकास होता है, उसी मूक्ष्म गति से वाणी और होता है, किन्तु समय अनियत्रितता और उसके लंघन से चिन्तन मे स्फूरणा पाती है। इसके बिना न नवीनता है एक क्षण के बाद पाने वाले सुपरिणाम को कई वर्ष लग न प्राचीनता और न ह्रास के लिए विकाम है और न जाते हैं। उचित काल, विचारो की कुण्ठा, शारीरिक विकासके लिए ह्रास है। मानव जीवन को समग्र सामथ्र्यपालश्य तथा मानसिक अरुचि पर गहरा प्रभाव डालना शक्ति सम्भावनायो की साधिका काल की कृपा है। सारा है। जैनाचार्यों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नही माना, चराचर जगत इसी कालचक्र की परिक्रमा किए चलता क्योंकि इसमें स्वत. प्राप्त द्रव्यत्व-नहीं है। इसकी द्रव्य है। संख्या में परिगणना 'उपकारकं द्रव्यं' इस आधार पर हुई महाबीर साधक थे। उन्होंने बारह वर्ष और तेरह है। निष्कर्ष यह हुआ कि काल हमारा उपकार करता है पक्ष तक साधना की। इस लम्बी अवधि के बाद उन्हें और अकाल अपकार । कच्ची औषधि, कच्चा पारा और अात्म साक्षात हुमा जैन पागम पाचाराग में श्रमण के कच्चा फोड़ा स्वयं मे कितना भयकर होता है। यह लिए समयण्णे और कालण्णे दो विशेषण प्रयुक्त हुए है। अनुभव प्रसिद्ध है। साधना, चैतन्य जागरण का नाम है, जिनका अर्थ है समाधि के लिए समय की पाबन्दी काल जिसे लम्बी थपथपी के बाद ही जगाया जा सकता है। शब्द समाधि के अर्थ-मे प्रयुक्त होता है। जैसे "कालस्स कच्चे फल और कच्ची साधना में इतना ही अन्तर हो कंखाए विहरेज मेहावी"-मुनि समाधि के लिए विहरण