Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 358
________________ सर्वासिद्धि और तरवावातिक पर बदसण्डागम का प्रभाव ३२५ त० सू० में चूंकि कर्मबन्ध के कारण मिथ्यादर्शन, गम के रूप में षट्खण्डागम-जीवस्थान के सत्प्ररूपअविरति, प्रमाद, कषाय मौर योग निर्दिष्ट किये गये हैं णादि ८ मनुयोगहारों में प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार का (सूत्र -१), प्रतएव उसकी टीका में वार्तिककार ने स्वयं नामोल्लेख भी किया है । (त. वा० १३० १२७) । मानवनिरोषस्वरूप संवर का उसी क्रम से उल्लेख किया एवं हि समयोऽवस्थितः, सत्प्ररूपणायां कायानुवादेहै। परन्तु कर्मप्रधान षट्खण्डागम में ज्ञानावरणादि के सा नाम द्वीन्द्रियादारभ्य मा प्रयोगकेवलिनः। क्रम से उनके साथ बंधनेवाली पन्यान्य प्रकृतियों का उसी क्रम से उल्लेख किया गया है। यह सूत्र षट्खण्डागम की सत्प्ररूपणा (पु. १. २७५) में इस प्रकार हैइसी प्रकार सूत्र ६-७ की व्याख्या में तत्त्वार्थवातिक तसकाइया बीइंदियप्पडि जाव प्रजोगिकेबलि कार के द्वारा जो मार्गणास्थान और गुणस्थानों की चर्चा त्ति ॥४॥ की गई है उसके प्राधार भी षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा दूसरा उल्लेख सूत्र २-४६ (पृ. १५३ पंक्ति २५-२७) प्रादि अनुयोगद्वार रहे हैं। में शंकाकार के मुख से इस प्रकार कराया गया हैषट्खण्डागम-सत्प्ररूपणा का नामोल्लेख तत्त्वार्थवातिक सूत्र २,१२,४-५ के व्याख्यान में शंकाकार माह चोदकः-जीवस्थाने योगभङ्ग सप्तविधकाय योगस्वामिप्ररूपणायाम् "मौदारिककाययोगः प्रौदारिकके द्वारा स्थावर जीवों के स्थानशील माने जाने पर वायु मिश्रकाययोगश्च तिर्यङ्मनुष्याणाम्, वैक्रियिककाययोगो कायिक और तेजस्कायिक जीवों के प्रस्थावरत्व का प्रसंग वैक्रियिकमिश्रकाययोगश्च देव-नारकाणाम् उक्तः", इह प्राप्त होता था। इस पर शंकाकार ने जब उसे अभीष्ट मानने की आशंका की तब उत्तर में तत्त्वार्थवातिककार ने तिर्यङ्मनुष्याणामपीत्युक्यते; तदिदमार्षविरुवमिति । उसकी भागमार्थविषयक अज्ञानता प्रगट करते हुए परमा उक्त सूत्र षट्खण्डागम-जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा में इस प्रकार पाया जाता है१. देखिये षट्खण्डागम पु० ८ सूत्र ५, ७, ९, ११, १३, मोरालियकायजोगो मोरालियमिस्सकायजोगो तिरि. १५ प्रादि। बख-मणुस्साणं ॥५७॥ वे उब्वियकायजोगो बेउब्वियमिस्स२. इसका कुछ निर्देश श्री पं० दरबारीलाल जी न्याया- कायजोगो देव-णेरड्याणां ॥ पु० ११० २९५-९६ चार्य ने अनेकान्त वर्ष ८ किरण २ में "संजद पद के इस प्रकार प्राचार्य पूज्यपाद के समान श्रीमद् भट्टासम्बन्ध में प्रकलंकदेव का महत्त्वपूर्ण अभिमत" कलंक देव ने भी अपनी अपनी व्याख्या में षट्खण्डागम के शीर्षक में भी किया है। अनेक प्रकरणों का यथास्थान प्राश्रय लिया है। क्या तुम महान् बनना चाहते हो? क्या तू महान् बनना चाहता है । यदि हां, तो अपनी माशा लतामों पर नियन्त्रण रख, उन्हे वे लगाम अश्व के समान मागे न बढ़ने दे। मानव की महत्ता इच्छामों के दमन में है, गुलाम बनने में नहीं। एक दिन भायेगा, जब तेरी इच्छाएँ ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगी। हम सबको अपने हाथ की पांचों अंगुलियों की तरह रहना चाहिए, हाथ की अगुलियां सब एकसी नही होती, कोई छोटी, कोई बड़ी, किन्तु जब हम हाथ से किसी वस्तु को उठाते हैं तब हमें पांचों ही अंगुलियां इकट्ठी होकर सहयोग देती हैं। -विनोबा

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