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मानन्द भमणोपासक
प्रवमत कर प्रानन्द गृहपति भी गया। उसने तीन प्रदक्षिणा प्रकार से-मन-वचन-काय से न करूंगा और न करा. देकर वंदनापूर्वक श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार ऊगा" इस प्रकार से प्रत्याख्यान किया। इसी क्रम से किया। भगवान् ने मानन्द गृहपति और अतिशय महती उसने स्थूल मृषावाद और स्थूल प्रदत्तादान का भी प्रत्यापरिषद् को धर्मकथा कही। परिषद् वापिस चली गई, ख्यान क्यिा। तत्पश्चात् "एक शिवनन्दा भार्या को छोड़ राजा जितशत्रु भी चला गया।
कर अन्य सब स्त्रियों के साथ मैथुनविधि का प्रत्याख्यान पश्चात् प्रानन्द गृहपति श्रमण महावीर के पास धर्म करता हैं। इस प्रकार से स्वदारसन्तोषता का प्रमाण को सुनकर अतिशय सन्तुष्ट होता हुआ इस प्रकार बोला- किया। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मुझे श्रद्धा है, मैं निर्ग्रन्थ तत्पश्चात् इच्छाविधि (परिग्रह) का प्रमाण करते प्रवचन को जानता हूँ, और उसके विषय मे मुझे रुचि भी हुए उसने हिरण्य-मुवर्णविधि, चतुष्पदविधि, क्षेत्र-वास्तुहै। वह यथार्थ व सत्य है । वह मुझे इच्छित, प्रतीच्छित- विधि, शकट (गाडी प्रादि) विधि और वाहनविधि का विशेषरूप से इच्छित-और इच्छित-प्रतीच्छित है। परन्तु प्रत्याख्यान किया३।। भगवन् ! आपके धर्मोपदेश को सुनकर जिस प्रकार कितने
तत्पश्चात् उपभोग-परिभोगविधि का प्रत्याख्यान ही राजा प्रादि प्रापके समक्ष दीक्षित होकर गृहवास से करते हए उसने उल्लणिया-गमछा व तोलिया मादि, पानगारिक अवस्था को प्राप्त हुए है इस प्रकार में दीक्षित दन्तवन (दातीन) विधि, फलविधि, अभ्यंगविधि (मालिश होकर सन्यास लेने के लिए समर्थ नही हूँ। अतएव में मादि), उबटनविधि, स्नानविधि, वस्त्रविधि, विलेपनपापके समक्ष पाच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत स्वरूप विधि, पुष्पविधि, प्राभरणविधि और धूपनविषि का प्रत्याबारह प्रकार के गहिधर्म को स्वीकार करूंगा। पाप इसमें स्थान किया। प्रतिबन्ध न करे।
भोजनविधि का प्रमाण करते हुए उसने पेयविधि, इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् मानन्द गृहपति
भक्ष्यविधि, प्रोदनविधि, सूप (दाल) विधि, घृतविधि, ने श्रमण भगवान् महावीरके समक्ष प्रथमत स्थूल प्राणाति
शाकविधि, माधुर (मधुर-रसयुक्त वस्तु) विधि, जेमनविधि पात (हिंसा) का "मैं यावज्जीवन दो प्रकार तीन
और मुखवास (सुपाड़ी-इलायची मादि) का प्रत्याख्यान १. तए ण से पाणदे गाहावई समणस्म भगवनो महा- किया५ । पश्चात् उसने अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित,
वीरस्स अन्तिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट-तुट्ठ जाव हिनप्रदान और पापोपदेश; इन चार अनर्थदण्डों का एवं वयासी-"सदहामि णं भन्ते निग्गन्थ पावयण, प्रत्याख्यान किया। पत्तियामि ण भन्ते निग्गन्थ पावयण, रोएमि णं भन्ते इस बीच श्रमण महावीर उस पानन्द गृहपति को निग्गन्थं पावयण, एवमेय भन्ते, तहमेय भन्ते, अवि- सम्बोधित करते हुए इस प्रकार बोले-इस प्रकार की तहमेय भन्ते, इच्छियमेयं भन्ते, पडिच्छियमेय भन्ते, प्रत्याख्यानविधि ठीक है। साथ ही श्रमणोपासक को इच्छिय-पडिच्छियमेय भन्ते, से जहेय तुम्भे वयह त्ति जीवाजीव तत्त्वो को जानकर अतिक्रमणीय से रहित होते कट्ट जहा ण देवाणुप्पियाणं मन्तिए बहवे राईसर- 1
२. तए णं से प्राणन्दे गाहावई समणस्स भगवनो महा. तलवर-माइबिय-कोडुम्बिय- सेटि-सत्थवाहप्पभिइया
वीरस्स अन्तिए तप्पढमयाए धूलगं पाणाइवाय पच्च. मुण्डा भवित्ता भगारामो प्रणगारिय पब्वइया, नो
क्खाइ-"जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमिन खलु ग्रह तहा संचाएमि मुण्डे जाव पव्वइत्तए। प्रह
कारवेमि मणसा वचसा कायसा"। णं देवाणुप्पियाणं मन्तिए पञ्चाणुब्वइयं सत्तसिक्खा
उवासगदसामो १,१३. वइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिबज्जिस्सामि ।" ३. उवा...१८-२१ महासुहं देवाणुप्पिया, मा पडिबन्धं करेह ।
४. उवा० १, २२-३२ उवासगदसामो १, १२ ५. उवा० १,३३-४२