Book Title: Anekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Author(s): A N Upadhye
Publisher: Veer Seva Mandir Trust
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Page #1 --------------------------------------------------------------------------  Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का दैमासिक मुखपत्र 3ীকান WHAiss ST 5.6--08 EVA-KARTAINMFNAXRRC छोटेलाल जैन स्मृति अंक इम प्रकक सम्पावक जैनेन्द्रकुमार यशपाल जैन अक्षयकुमार जैन महकारी परमानन्द शास्त्री वर्ष १६ वार्षिक मूल्य ६) [ अंक १-२ इस प्रकका ४) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व० बा० छोटेलालजी के उद्गार .संसार में अपने और पराये का जो व्यवहार चल रहा है वह अर्थहीन है। यहां न कोई अपना है, न पराया। यह कोई नहीं जानता कि संसार के इस महासमुद्र के प्रवाह में पड़कर कौन कहां से बहता हुमा प्रा जाता है और कौन बहकर दूर चला जाता है। बहु परिग्रह के भीतर जीवन तुच्छ होने लगता है, दुःख दैन्य और प्रभाव में से गजर कर मनुष्य का चरित्र महान और सत्य हो जाता है। जीवनकी बहुतसी बड़ी बातो को हम तब पहचान पाते है जब उन्हे खो देते है। .त्याग और विमर्जन की दीक्षामे सिद्धि प्राप्त करना ही हमारी सबसे बड़ी सफलता है। इसी मार्ग का अवलम्बन लेकर हमारी कितनी ही विधवा बहनें जीवन की सर्वोत्तम सार्थकता का अनुभव कर गई हैं। .प्रत्येक मनुष्य की दृष्टि के सामने एक लक्ष्य तो रहना ही चाहिए। लक्ष्य प्राप्ति की चेष्टा जीवन को सयत बनाती है। उदारता मनुष्य की महानता है, परन्तु उदारता ममत्व का बलिदान करने पर ही पा सकती है। ममत्व प्राणो के समान प्यारा है। इस भावना का अनुभव किसे नहीं है कि जो मेरा है वह मेरा रहकर ही-पूरा पूरा मेरा रहकर ही-दूसरों का हो सकता है। हमारी जो विश्व वेदना है, इसे मनुष्य जीत सकता है। उपाय केवल एक ही है। सभी बातो और घटनाओं को दूसरो को प्रांखो से देखना छोड़ कर अपनी आँखों से देखना सीखे। आ सकती है। प्यारा है । नहीं है कि Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन्होने अपने जीवन से जैन समाज को प्रबुद्ध तथा अपने कर्तृत्व से जैन धर्म, साहित्य, कला एवं पुरातत्व को समृद्ध ___ करने का अहर्निश प्रयत्न किया, उन । स्व० बाब छोटेलालजी जैन की पावन स्मृति में Page #5 --------------------------------------------------------------------------  Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय जैनधर्म ग्रोर जैन संस्कृति के अनन्य प्रेमी, प्रमुख थे। वे सेवाकाय मे जीवन खपा देने वाले उदार व्यक्ति समाज सुधारक और वीरसेवा मन्दिर के अध्यक्ष बाबू थे। वीरसेवा मन्दिर के भवन-निर्माण में उन्होने जो छोटेलालजी का ७० वर्ष की अवस्था मे २६ जनवरी मन् कठोर श्रम किया, वह उनकी निःस्वार्थ सेवा-वृत्ति का ६६ को कलकत्ता में प्रात काल स्वर्गवास हो गया। इस परिचायक है। इसके माध्यम से उन्होने अनेक लोकोपसमाचार से वीरसेवा मन्दिर परिवार में शोक की लहर योगी प्रवृत्तियो का मचालन किया और आर्थिक सहयोग दौड़ गई। ता० ३० जनवरी की शाम को साढे सात बजे स्वय देकर तथा दिलवाकर उसे प्रागे बढ़ाने का प्रयत्न वीरसेवा मन्दिर भवन में जनसमाज के मणमान्य व्यक्तियो किया। उनकी मस्था के प्रति जितनी उच्च भावना थी की शोक मभा हुई, जिसमे वावूजी की सेवाग्रो, जैनधर्म और जैसा वे चाहते थे, वैसा साधन-सामग्री के प्रभाव में और जैन साहित्योद्धार की भावना एव वीरसेवा मन्दिर का दर्भाग्य से नदी कर ले। लोकोपयोगी प्रवृत्तियो पर प्रकाश डालते हुए श्रद्धाजलिया "अनेकान्त' पत्र के प्रति उनकी अपूर्व सेवाएं है । उसके अपित की गई तथा उनके परिवार के प्रति मम्वेदना व्यक्त करते हुए एक शोक प्रस्ताव पास करके भेजा गया। मचालन का श्रेय भी उन्ही को है। उनके ही प्रयत्न से सन् १९६२ मे 'अनेकान्त' बराबर द्वैमामिक रूप मे साथ ही यह विचार किया गया कि वीरसेवा मन्दिर निकल रहा है। उनके निधन मे अनेकान्त को बडी क्षति के प्रति उनकी अपूर्व सेवाग्रो के उपलक्ष्य में 'अनेकान्त' पहुँची है । अनेकान्त का यह 'छोटेलाल जैन स्मति अव' का लगभग २०० पृष्ठ का एक स्मृति-अङ्क प्रकाशित उनकी मेवायो का प्रतीक है। इसमे सम्पादक-मण्डल न किया जाय । भारत के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री जैनेन्द्र प्रयत्न किया है कि बाव छोटेलालजी के व्यक्तित्व तथा कुमारजी, श्री यशपाल जैन, श्री अक्षयकुमार जैन ने केवल कृतित्व पर तो प्रकाश पडे ही, माथ ही वे विषय भी प्रा उममे मत्रिय योग देने का आश्वासन ही नहीं दिया, अपितु जायें, जिनमे उनकी गहरी अभिरुनि थी। उमक मम्पादन का भी दायित्व अपने ऊपर ले लिया। बावू छोटेलालजी जैन समाज के उन इने-गिने मम्पादक-मण्डल ने इसके लिए रडा परिश्रम किया है, व्यक्तियो मे में थे, जिन्होने अपने जीवन के बहत से वप । जिसके लिए मै उन्हें धन्यवाद देता हूं और आशा करता हैं मेवा में व्यतीत किये थे। वे इतिहाम और पुगतत्व के कि उनका सहयोग हमेशा इसी प्रकार मिलता रहेगा। विद्वान ही न थे, बल्कि उनके सवर्धन मे पर्याप्त रुचि -प्रेमचन्द जैन रखते थे और तदनुकल सामग्री के मचय में संलग्न रहने प्रकाशक-'अनेकान्त' वीर-सेवा-मन्दिर की श्रद्धांजलि वोर-सेवा-मन्दिर की यह ग्राम सभा जैन-धर्म और जैन समाज के अनन्य सेवी तथा पुरातत्व के विद्वान बाबू छोटेलालजी जंन के निधन पर गहरा शोक प्रकट करती है। बाब छोटेलालजी उन इने-गिन व्यक्तियों मे से थे, जिन्होंने अपने जीवन के बहुत से वर्ष सेवा में व्यतीत किये। वोर-सेवा-मदिर को वर्तमान रूप देने का श्रेय मुख्यतः उन्हीं को है। इस संस्थान के द्वारा उन्होंने अनेक लोकोपयोगी प्रवृत्तियों का संचालन किया। बाबू छोटेलालजी के निधन से जन-समाज की विशेषकर वोर-सेवा-मन्दिर को जो क्षति हुई है उसकी पूर्ति कदापि नहीं हो सकती। यह सभा दिवंगत प्रात्मा के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करती है और प्रभु से प्रार्थना करती है कि उनकी प्रात्मा शान्त उच्चापद प्राप्त करे । उनके परिवार के साथ यह मभा सहानभति प्रकट करती है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय 'अनेकान्त' का विशेषाक प्रस्तुत करते हुए हमें जहाँ बड़ी तीव्रता से चलता है। हमने अनेक महानुभावो को हर्ष का अनुभव हो रहा है वहाँ गहरे विषाद का भी। पत्र लिखे। हमे यह कहते हए परम प्रसन्नता होती है मई इसलिए कि पाठकों को अनेक विद्वान लेखकों की कि बहुत से विद्वान लेखकों ने अपनी-अपनी रचनाएँ रचनाएं इस प्रक में पढ़ने को मिलेंगी। विषाद इसलिए भेजी, लेकिन कुछ लोग अपनी व्यस्तता के कारण हमारे कि इस विशेषांक को हम एक ऐसे विशेष व्यक्ति की प्रमुरोध को स्वीकार करके भी लेख नही भेज सके। स्मति में प्रकाशित कर रहे हैं, जिन्हे प्रभी बहुत समय जिन्होने रचनाएँ भेजी है, उनके तो हम आभारी है ही, तक जीना था और अनेक लोकोपयोगी कार्य करने थे। लेकिन जो नही भेज सके, उनको भी हम धन्यवाद दिये विविध क्षेत्रों में उन्होंने जो सेवाएँ की, उन पर विस्तार बिना नहीं रह सकते। इस अनुष्ठान में सभी हमारे साथ से विभिन्न लेखो मे प्रकाश डाला गया है । यह निविवाद थे। इससे स्पष्ट है कि बाब छोटेलालजी के प्रति सभी सत्य है कि बाबू छोटेलालजी व्यक्ति नही, एक संस्था थे व्यक्तियों के हृदय मे बड़ा स्नेह और प्रादर था। और अपने जीवन-काल मे उन्होने इतना कार्य किया, विधिवत रूप से विभिन्न विभागों का विभाजन न जितना एक विशाल संस्था भी नही कर सकती थी। कर पाने पर भी हमने इस प्रक में अधिक-से-अधिक अनेकान्त' तथा वीर-सेवा-मन्दिर के साथ छोटेलाल- विचार-प्रेरक एव ज्ञान-वर्द्धक सामग्री देने का प्रयत्न किया जी का कितना गहरा सबध था, यह बताने की मावश्य- है। इसमे बाबू छोटेलालजी के व्यक्तित्व तथा कृतित्व कता नही है। वस्तुत. अनेकान्त मौर वीर-सेवा-मन्दिर पर जहाँ ममस्पर्शी सस्मरण पढने को मिलेगे. वहा जैन छोटेलालजी के पर्यायवाची बन गये थे। अपने जीवन के दर्शन, साहित्य, कला तथा पुरातत्व पर भी सार गभित अतिम क्षण तक उन्हे इन दोनो की चिन्ता रही। उनकी रचनाएँ पाठको को प्राप्त होगी। इच्छा थी कि 'भनेकान्त' भारत की प्रमुख शोध-पत्रिकाम्रो हमे इस बात का बडा दुःख है कि स्थानाभाव के कारण कई लेखो का चाहते हए भी हम उपयोग नहीं मे से एक हो और 'वीर-सेवा-मन्दिर' सक्रिय रूप में कर सके। उनमे से चुने हुए लेखो को हम 'अनेकान्त' के समाज और राष्ट्र की सेवा करे। लेकिन प्राय. देखने । आगामी अंको मे निकालने का प्रयत्न करेगे। मे पाता है कि मनुष्य सोचता कुछ है, होता कुछ है। बाबू छोटेलालजी के स्वप्न पूरे नही हो सके और अब विशेषाक कैसा बन पडा है, इसका निर्णय तो स्वय उनको पुरे करने का दायित्व उन महानुभावो पर है, जो पाठक ही करेंगे । हम इतना ही निवेदन कर देना चाहते छोटेलालजी के स्नेहभाजन थे और जो इन सस्थाप्रो के है कि इसकी सामग्री के सकलन तथा प्रकाशन मे हमने साथ अभिन्न रूप में आज भी जुड़े हुए है। यथासामर्थ्य परिश्रम तथा ईमानदारी से काम लिया है। जिस समय 'अनेकान्त' का विशेषाक निकलने की याद इसमे कोई अच्छाई है तो उसका श्रेय वि कल्पना की गई थी, यह सोचा गया था कि इसके कुछ लखका को है पीर यदि इसम कोई त्रुटिया या कमिया पृष्ठो में छोटेलालजी के संस्मरण रहें और कुछ में उनके है तो उनके लिए हमारी जिम्मेदारी है। कृतित्व पर प्रकाश डाला जाय, लेकिन अधिकाश पष्ठो में हमे विश्वास है कि पाठक इस विशेषाक को सुपाठ्य साहित्य, जैन दर्शन, जैन पुरातत्व, जैन कला तथा जैन तथा सग्रहणीय पायगे । सस्कृति पर विद्वानों के सारगभित लेख रहे। विशेषाक मे २०० पृष्ठसे ऊपर सामग्री दी गई है मौर हमे खेद है कि हमारी यह योजना पूरी नहीं हो मार्ट पेपर पर दो दर्जन से भी अधिक चित्र दिये गये हैं। सकी। प्राज का युग व्यस्तता का युग है। घटना-चक -सम्पादक Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ पृष्ठ १ सम्यग्दृष्टि का स्तवन (कविता)-बनारसीदास १ २४ उनकी अपूर्व सेवाएँ-पन्नाल अग्रवाल २ उदारमना स्व० बाबू छोटेलालजी २५ राजघाट की जैन प्रतिमाएँ-श्री नीरज जैन ४६ -१० बशीधर शास्त्री २ २६ सतुलन-अपना व्यवहार-मुनि श्री कन्हैयालाल ५. ३ कल्याणमित्र-डा० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ८ २७ जसहर चरिउ की एक कलात्मक सचित्र पांडुलिपि ४ अनासक्त कर्मयोगी-प०कलाशचन्द जैने -डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल ५ वे क्या नही थे-श्री नीरज जैन १२ (२८ मध्य भारत का जैन पुरातत्व-परमानन्द शा० ५४ ६ नाम बडे दर्शन सुखकारी-अमरचन्द जैन २६ प्राश्रम पत्तन ही केशोराय पट्टन है ७ उनके मानवीय गुण-अक्षयकुमार जैन -डा० दशरथ शर्मा ८ मूक सेवक-प्रो० भागचन्द जैन ३० वृपभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ ६ सच्चा जन-डा० दशरथ शर्मा -डा० राजकुमार जैन १० ज्ञान तपस्वी गुणिजनानुरागी ३१ तलघर में प्राप्त १६० प्रतिमाएं -रतननलाल कटारिया -श्री अगरचन्द नाहटा ११ एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व-भवरलाल नाहटा २७ ३२ अपभ्रंश चरित काव्य-डा. देवेन्द्रकुमार शा० ८४ १२ व्यक्तित्व के धनी-यशपाल जैन ३३ बौद्ध साहित्य मे जैनधर्म-प्रो० भागचन्द जैन १० ३४ विदर्भ के दो हिन्दी काव्य १३ मूक जनसेवक बाबूजी-प्रभुलाल प्रेमी -डा० विद्याधर जोहरापुर कर १४ पुरानी यादे-डा. गोकुलचन्द जैन ३२. ३५ क्रोध पर क्रोध१५ एक अकेला प्रादमी-मुनि कान्तिसागर ३६ महाकवि रइधूकृत सावयचरिउ १६ स्व. बाबू छोटेलालजी का वंशवृक्ष -डा० राजाराम जैन -श्री नीरज जैन १७ ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धासहित प्रणाम ३७ प्रचलपुर के राजा योपाल ईल (कविता)-कल्याणकुमार शशि -नेमचन्द धन्नूसाजैन ३८ मस्कृत जन प्रबन्ध काव्यो मे प्रतिपादित १८ वयाना जैन समाज को बाबूजी का योगदान -कपूरचन्द नरपत्येला शिक्षा पद्धति-डा नमिचन्द्र शास्त्री १९ जीवनसगिनी की समाधि पर सकल्प के मुमन ३६ चातुर्मास योग-40 मिनापचन्द्र कटारिया ११७ -(स्व० बाबूजी को डायरी का एक पृष्ठ) ३६ ४० मुजानमल की काव्य-साधना-गागम गर्ष १२० २० देश और समाज के गौरव ___४१ धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल -प० गोपीलाल अमर २१ श्रद्धाजलि (कविता)-अनूपचन्द न्यायतीर्थ ४४ ४२ प्राचार्य मक्लीनि और उनकी हिन्दी सेवा २२ तीन दिन का प्रातिथ्य-डा० नेमिचन्द शास्त्री ४५ -१० कुन्दनलाल जैन २३ धर्म और संस्कृति के अनन्य प्रेमी ४३ गयावल और जैन मूर्तियाँ-एम. पी गुप्ता - के. भुजवली शास्त्री ४ और बी. एन. शर्मा १०० १०५ १०६ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ { विपय ४जनकया माहित्य की विशेपठाएँ -डा० नरंग मानावत ५ स्थाबी सुध और शान्ति का उपाय -प.ठाकुरदासजन ४६ पमयसम्बन्धी बन परम्परा -डा. ज्योतिप्रसाद जैन ४७ जन मूर्तिकला का प्रारम्भि स्वरूप -रमेशचन्द शर्मा ४ इम्पसबहकर्ता और टीकाकार के समर पर विचार-परमानन्दन शास्त्री vt वोग्नन्दी पौर उनका चन्द्रप्रम परित -अमृतलाल शास्त्री ५. गजस्थान का जैन पुगतत्व -डा. कैलाशचन्द्र जैन ५१बन-बौद्ध-वर्णन-पो. उदयचन्द्र जैन ५२ स्याहार का ब्यावहारिक जीवन में उपयोग -प.नमुपदाम म्यायनीर्थ १३ जनदर्शन और वेदान्त-मुनिश्री नथमल विपय ५४ पानिक विज्ञान और जनदशन -पदमचन्द जैन ५ प्राकृत वैयाकरखोकी पाश्चात्य मासा का विहगावलोकन-डा. सन्यरजन बनर्जी १७५ ५६ मनेकान्त मोरबीरसेवामन्दिर के प्रेमी १३९ श्री बा. छोटेलाल जी-जुगलकिशोर मु. १८१ ५७ एक मिष्ठावान मापक-बैनेन्द्रकुमार जैन १७ १४२ ५८ विचारवान एक महदय व्यक्ति (एक सस्मरण) -पन्नालाल साहित्याचार्य ५६ एक मस्मरण-डा. ज्योनिप्रमाद न ६. मस्मरण-हीरालाल सिद्वान्त-शास्त्री ६१ विनम्र श्रद्धाजलि-कपूरचन्द वरैया ६२ प्रभिनन्दन-पत्र १३ अभिनन्दन-पत्र ६४ धर्मप्रेमी बाबू छोटेलालजी-विशनचन्द जैन १९७ ६५ श्रद्धाजनि-प्रेमचन्द जैन १९० ६६ दो सस्मरण-'स्वतन्त्र'न ६७ वे महान् -प्रकाश हितपी शास्त्री १६७ साहित्य समीक्षा-पग्मानन्द १९. ૨૨ १४६ १९४ १६६ १५३ १६५ २०० २०१ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबू छोटेलाल जो जैन जैन-समाज जिनका चिर ऋरणी रहेगा जन्म : १६ फरवरी १८६६ मृत्यु : २६ जनवरी १९६६ Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम पहन अनेकान्त परमागमम्य बीजं निषिद्ध जात्यन्धसिन्धुरविधानम् । मकलनयविलसिताना विरोधमथनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ । वर्ष १६ किरण १-२, वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निवाण सवत् २४९२, वि०म० २०२३ (प्रल और जून । सन् १९६६ सम्यग्दृष्टि का स्तवन कविवर बनारसीदास भेद विज्ञान जग्यो जिनके घट, शीतल चित्त भयो जिम चंदन, केलि कर शिवमारग में, जगमांहि जिनेश्वर के लघु नंदन । सत्य स्वरूप सदा जिन्हके, प्रगढ्यो प्रवदात मिथ्यात निकंदन, सांत दशा तिन्हको पहिचान, कर करजोरि बनारसि वंदन ॥ ******************* ****************** मम्यकवंत सदा उर अंतर, ज्ञान विराग उभै गुन धार, जासु प्रभाव लख निज लक्षन, जीव प्रजीव दशा निरवार। मातम को अनुभौ करि हथिर, प्रापु तर अरु औरनि तार, साधि सुदर्व लहै शिव सर्म, सुकर्म उपाधि व्यथा वमि डार ॥ -नाटक समयसार Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारमना स्व. बाबू छोटेलालजी वंशीधर शास्त्री गत २६ जनवरी को प्रात. श्री छोटेलालजी जैन जैसे आपने व्यवसाय से सन् १९५२ के दिसम्बर मे ही मूक सेवक, पुरातत्त्व संस्कृत के प्रेमी तथा निर्भीक कार्य. निवृत्ति ले ली थो, तब से पाप अपना पूर्ण समय सस्कृति कर्ता का देहावान हो गया है । इन जैसा उदारमना तथा के उत्थान मे देने लगे। जब किसी असहाय जैनी के बीमार निर्भीक व्यक्तित्व वाला पुरुप सहज सुलभ नहीं होगा। होने का समाचार मिलता तो आपके पिताजी स्वयं जा उन जैसे विविध प्रवृत्तियों में लीन व्यक्ति को कर उसकी सेवा-शुश्रूषा की व्यवस्था करते थे, वे अपने जीवन-गाथा पाने वाली पीढियों के लिए हमेशा प्रेरणा- अन्य पुत्रो के माथ प्रापको भी रोगी के पास ले जाने स्पद रहेगी, जो व्यापार व्यवसाय मे रहते हुए भी पुरा- थे। प्रापकी नि.स्वार्थ सेवा से रोगी अपनी बीमारी के तत्त्व, शिक्षा, साहित्य, संस्कृति, समाज सुधार एवं सारे दु ख भूल जाता था, पाप बीमार के मल-मूत्र साफ संगठन तथा प्रभावग्रस्त एवं पीड़ित मानवों की सेवा करने में भी नहीं हिचकते थे। पादि में अपना महत्वपूर्ण योगदान देते रहे, जो चिर इस प्रकार की परिचर्या पाप केवल सम्बन्धी या अविस्मरणीय होगे। परिचित की ही करते हो, ऐसा नहीं था । सन् १९१८ आपका जन्म ७० वर्ष पूर्व १६ फरवरी १८६६ दिगम्बर में कलकता मे हुए इन्फ्ल्यूएन्जा के ममय बडा फाल्गुन शुक्ला २ वि०म० १६५२ को हया था। मापके बाजार में गरीबो को ढ ढ-ढूंढकर पाप उनकी चिकित्मा, पिता श्री गमजीवनदासजी सरावगी कलकत्ता जनसमाज पथ्य आदि की व्यवस्था करवाते थे। उन्होने कलकना के प्रतिष्टित व्यक्तियो मे से थे। पाप बचपन से ही कारपोरेशन से लिखा-पढी कर एक चिकित्मक की व्य अपने पिताजी के अधिक सम्पर्क में रहे थे। पिताजी के वस्था कराई। इस प्रकार रोगाकान्त मानवो.को मेवा मे पास पाने वाले व्यापारियो एवं विद्वानो की चर्चा ग्राप आप एक माह तक लगे रहे। रुचिपूर्वक मना करते थे एवं कभी-कभी आप चर्चा मे आप प्रारम्भ से ही सेठ पनराजजी रानीवालो के भाग भी लेते थे । इन सब का परिणाम यह हुमा है कि मम्पर्क में आये । उनके पिता सेठ फूलचन्दजी से आपके पाप प्रारम्भ से हो सार्वजनिक व सामाजिक क्षेत्र मे पिताजी का घनिष्ट सम्बन्ध था, इसीलिये मापका उनके अभिरचि लेने लगे । इस अभिरुचि ने ही इन्हें मूक सेवक यहाँ बरावर आना-जाना बना रहता था। आप उनकी बनने की प्रेरणा दी। ममाज सुधार एवं राजनैतिक विचारधारा से बहन प्रापकी प्रारम्भिक शिक्षा स्थानीय दिगम्बर जैन प्रभावित थे। पारा के श्री सिद्धान भवन के बाबू करोडी पाठशाला में हुई। प्रापने मैट्रिक परीक्षा श्री विशुद्धानन्द चन्दजी कलकत्ता पाते रहते थे, वे रानीवालों के यहाँ सरस्वती विद्यालय से पास को। तत्पश्चात् कालेज में ठहरते थे । अतः बाबूजी का भी उनमे परिचय हुप्रा । पढना जारी किया, किन्तु कुछ विशेष कारणों के कारण जो आगे चलकर घनिष्ठना में परिवर्तित हुअा, पापकी पाप अध्ययन छोडकर गनि व हैसियन के व्यापार में लग पुरातत्त्व, साहित्य के प्रति रुचि जागृत करने में श्री गये, जहाँ पारने अपने बुद्धि-कौशल से धनोपार्जन के साथ करोडोचन्दजी का बहुत बडा हाय रहा। यह रुचि पापक साथ अपने सहज निर्मल व्यवहार से प्रतिष्ठा भी अजित जीवन का मुख्य प्रग बन गई। की। आप कलकत्ता जैन समाज की ही नहीं, अपितु अन्य Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारमना स्व. बाबू छोटेलालजी अनेक सार्वजनिक संस्थानों में सक्रिय भाग लेते रहे थे, अपनी सगृहीत बहुमूल्य पुस्तके दी थी। समिति की पोर जिनमें कुछ का संक्षिन्त वर्णन इस प्रकार है से सन् १९२१ मे 'जैन विजय' नामक पत्र प्रकाशित हुमा स्थानीय महावीर दि० जैन विद्यालय के मन्त्री २५. था, उसमे पाप सहायक सम्पादक नियुक्त किये गये थे। ३० वर्ष तक रहे। आप अपने कार्यकाल में बच्चों की सन् १९२२ मे बाढ-पीड़ितों की सहायता के लिए चन्दा धार्मिक शिक्षा एव सस्कागे पर विशेष जोर देते थे। हुआ, उसके लिए भी आपने प्रयत्न किया था। जैन बच्चो के लिए धार्मिक विषय में सफल होना अनि- सन् १९१७ मे सेठ पद्यराजजी रानीवालों एवं प्राप वार्य रखते थे, जिसका यह परिणाम हुआ कि उस कालके के प्रयत्नों से जैन समाजो की एकता व उन्नति के लिए विद्यालयो के विद्यार्थियो मे धामिक रुचि अधिक बढो श्री महावीर जैन समिति की स्थापना की गई, जिसके थी। सभापति रानी वाले एव पाप मन्त्री रहे थे । समिति की अपने पिता श्री के ट्रस्टी होने के कारण आप भी अोर से मासिक सभा करवाने तथा विशेषतः स्त्री-जाति प्रारम्भ हो से दिगम्बर जैन मन्दिरो की व्यवस्था प्रादि में विद्या प्रचार करना प्रादि तय किया गया। समिति में सक्रिय भाग लेते रहे । पाप भी वर्षो मे दिगम्बर जैन की मोर मे १९१७ मे जैनधर्म भूषण स्व०७शीतल. मन्दिरो के ट्रस्टी एव रथयात्रा कमेटी के भी ट्रस्टी रहे। प्रसादजी के सभापतित्व में भारत जैन महामण्डल का अधि जैन भवन के निर्माण में प्रमुख भाग लेते रहे है। वेशन प्रा. जिसमे प्राय सभी प्रान्तों के प्रतिनिधियों ने अहिसा प्रचार समिति के संस्थापको में से है एवं भाग लिया था। समिति की ओर से काग्रेस अधिवेशन के इसके निर्माण एवं सवर्द्धन में सक्रिय भाग लेते रहे हैं। समय २७-१२-१७ को All India Jain Association कलकत्ता मे सन् १९४४ मे वीर शासन जयन्ती व Political Jain Conference का भी आयोजन महोत्सव विशाल स्तर पर मनाया गया, उस समय वीर- किया गया था, जिसमे लोकमान्य बाल गगाधर तिलक व शासन सघ एवं वित् परिषद की स्थापना कराई। देश-पूज्य खापर्डे भी सम्मिशित हुए थे। श्री खापर्डे जैन अाप कलकता में श्वेताम्बर दिगम्बर समाजो को पोलिटिकल कान्मन्स के सभापति थे। मयुक्त रूप से महावीर जयन्ती मनाने के पक्ष में प्रारम्भ समिति १९१७ मे कांग्रेस-Affiliate हो गई थी से रहे है। पाप जैन समाज के सभी सम्प्रदायो मे ऐक्य और समिति को प्रतिनिधि भेजने का अधिकार मिल गया चाहते थे। जैसे प्राप दिगम्बर समाज मे प्रिय एवं था। बाबूजी भी अनेक वर्षों तक कांग्रेस के प्रतिनिधि सम्मानित थे वैसे ही श्वेताम्बर समाज मे भी थे। आप होते रहे हैं। जैन समाज की एकता की प्रतीक श्री जैन सभा मे कार्य बगाल, बिहार, उड़ीसा दिगम्बर जैन तीर्थ क्षेत्र करते रहे हैं । आप १९४७-४८ में इसके सभापति चुने कमेटी के अनेक वर्षों तक मन्त्री रहे। बिहार प्रान्तीय गये थे। अापके कार्यकाल में सभा की प्रोर से महावीर दिगम्बर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के एवं अखिल भारतीय जयन्ती उत्मव मनाया गया, जिसमे दोनों समाजों व इतर दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी की प्रबन्धकारिणियों मे अनेक ममाजो के उच्च कोटि के विद्वान सम्मिलित हए थे। वर्षों वे सम्मानित सदस्य के रूप मे रहे थे। पाप उसके बाद में मभा की कार्यसमिति में बराबर रहते आपने खण्डगिरि, उदयगिरि का इतिहास समाज के आये हैं । मापने सदैव जैन समाज की सभी शाखामो को सामने रखा । भ० महावीर के फूफा जितारी का निर्वाण एकता पर बल दिया। म्थल सिद्ध कर इसे मिद्ध-क्षेत्र घोषित किया। इस क्षेत्र 'श्री दिगम्बर जैन युवक समिति' कलकत्ता की एक को प्रमिद्धि में लाने का श्रेय प्रापको ही है। महत्वपूर्ण संस्था है। इसके स्थापन एवं प्रारम्भिक कार्यों आप कलकत्ता के गनी ट्रेडस एसोसिएशन के स्थामे आपका विशेष हाय रहा है। इस समिति की पोर से पनकाल (सन् १९२५) से ही सक्रिय कार्यकर्ता रहे है। महावीर पुस्तकालय संचालित होता है, उसमें प्रापने पाप ३२ वर्ष तक इसकी कार्यकारिणी समिति के सदस्य Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त रहे, दस वर्ष तक अवैतनिक संयुक्त मन्त्री पद को सुशो- माह शातिप्रसाद जी ने साहित्यिक विकास उन्नयन भित करते रहे हैं। तीन वर्ष तक आप एसोसिएशन के एवं सास्कृतिक अनुसन्धान तथा प्रकाशन के उद्देश्य से सन् उप-प्रधान एव दो वर्ष तक प्रधान पद पर भी आसीन १९४४ मे भारतीय ज्ञान-पीठ की स्थापना की। इसकी रहे थे। अपनी निष्पक्षता के प्राधार पर प्रापने जो स्थापना की प्रेरणा मे पापका प्रमुख हाथ रहा है। प्राप ख्याति प्राप्त कर ली थी, उसके कारण प्रापका निर्णय इसके ट्रस्टी एवं मचालन समिति के सदस्य रहे थे। प्राप सहर्ष स्वीकार होता था। आपके मन्त्रित्व काल मे एमो- इसके जैन प्रकाशनों के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण सुझाव देते सिएशन को व्यापारिक कार्यों के अतिरिक्त जनकल्याण रहते थे । स्वर्गीय प० नाथूरामजी प्रेमी के अनुरोध पर मे भी प्रवृत्त किया गया, जिसमे लगभग पांच लाख रुपये आपने माणिकचन्द अन्यमाला का कार्यभार ज्ञानपीठ को खर्च किये गये । माप इस एसोसिएशन की ओर से अनेक स्वीकार करने की प्रेरणा दी थी। व्यापारिक संस्थानो के प्रतिनिधि भी रहे थे। आप स्वामी सत्यभक्तजी एव व शीतलप्रसादजी से प्राप जैन सस्कृति की सुरक्षा एवं उत्थान के लिए बहुत प्रभावित थे। आपने सत्यभक्तजी के आश्रम के हमेशा अग्रसर रहते थे। पाप प० जुगलकिशोरजी मुख्तार सचालन एव माहित्य प्रकाशन के लिए हजारो रुपया दान की लेखनी से प्रभावित हुए उनके कार्यों को प्रकाशन आदि दिया था। पाप गीतलप्रमादजी की धर्म-प्रचार-भावना के लिए हजारों रपये दान में देते रहे। वीर सेवा मन्दिर एवं माहिन्य-सृजन की अथक वृत्ति से बहुत प्रभावित थे। को सरसावा जैसी छोटी जगह से लाकर देहली जैसे आप उन्हे हर प्रकार का सहयोग देते रहते थे । केन्द्रीय स्थान में लाने का श्रेय पाप ही को है। आपने ग्राप जैन मस्कृति के पुरातत्व विभाग मे प्रेम रखते हजारो रुपया स्वय व औरों से दिलाकर स्थायित्व प्रदान थे इसलिए जन मामग्री की खोज में विभिन्न स्थानो पर किया । मन्दिर का अपना भवन बना जो पानेवाली पीढी जाते रहते थे। आप वहा मे सामग्री एकत्रित करते थे। के लिए प्रेरणा स्रोत एव जैन इतिहास व संस्कृति के अापके पाम पुरातत्व की दुर्लभ सामग्री के अनेक बहुमूल्य विद्यार्थियो के लिये महत्वपूर्ण केन्द्र सिद्ध होगा। आपने चित्र थे. जिनको विस्तृत कराकर स्थानीय बेलगछिया सस्था की पोर से प्रकाशित 'अनेकान्त' पत्र को महत्व. उपवन के हाल में सर्वमाधारण के प्रदर्शनार्थ, रख दिया पूर्ण सहयोग दिया । अपनी रुग्णावस्था में भी पाप इम गया है। मापके पास २५००-३००० के लगभग बहुमूल्य पत्र के लिए चिन्तित रहते थे एवं इसके समय पर निकलने म एव इसक समय पर निकलने पुस्तके थी। अापका पूरातत्व विशेषज्ञो एक अधिकारियों की पावश्यक व्यवस्था भी करते थे। लेखादि के लिए से घनिष्ट सम्पर्क था । अाप यथावसर जैन पुरातत्व पर विद्वानों को प्रेरणा करते थे । लेख भी लिखते थे। आपने कलकता के जैन मन्दिरो की ___आपको शिक्षा से प्रेम अपने पिता श्री के संस्कारो से मतियो और यन्त्रो के लेखों को भी पुस्तकाकार प्रकाशित मिला था। माप स्याद्वाद विद्यालय, वाराणसी के बहुत कराया था। आपने जैन विवियोलोजी का प्रथम भाग समय से सदस्य थे साथ ही ट्रस्टी एवं उप-सभापति भी प्रकाशित कराया था। आप दूसरा भाग तैयार कर रहे थे। इस मंस्था का सम्मेदशिखरजी मे १९५६ मे स्वर्ण थे जो लगभग प्राय. पूर्ण हो चुका था, किन्तु सापकी जयन्ती महोत्सव मनाया गया था, जिसके मूल प्रेरक एव निरन्तर बीमारी के कारण प्रकाशित नही हो सका। आयोजक प्राप ही थे । इस अवसर पर संस्था के लिए आशा है अब वह प्रकाशित हो सकेगा। एक अच्छी धन-राशि एकत्रित की गई थी। आप एव आप रायल एसियाटिक सोसायटी के सम्मानिन आपकी प्रेरणा पर परिवार के अन्य सदस्यों की ओर से मदस्य थे । प्राप इसक प्रतिनिधि के रूप मे हिस्ट्री काग्रेम सस्था को अब तक लगभग ५० हजार रुपया दिया जा में भी कई बार गये थे । माप विदुपी चन्दाबाईजी के 'जन चुका है । प्रापको विद्यालय की उन्नति तथा खर्चे की पूर्ति बाला-विश्राम' प्रारा से भी सम्बन्धित रहे है । आप वहा एवं यथायोग्य संचालन का सदा ध्यान रहता था। की व्यवस्था, शिक्षा प्रादि से बहुत प्रभावित थे। किसी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वारममा स्व. बाबूलालजी भी कन्या की पढ़ाई का भिक माने पर पाप उसे पारा बन मित्र के हीरक जयन्ती उत्सव का २ अप्रैल को भिजवाने का परामर्श देते थे। मापने उद्घाटन किया। पाप पाल इण्डिया ए मैनिटेरियन लोग मागरा की मापने अपने उदघाटन भाषण में 'जैनमि' का इतिप्रबन्यकारिणी कमेटी के उपसभापति व सदस्य अनेक वर्षों हास सक्षिप्त में प्रस्तुत कर दिया था। श्रीन सिद्धान्त भवन पारा के २५-१२-१३को अपराधियो की देखभाल कर उन्हें सुमार्ग मे लाने हुए हीरक जयन्ती महोत्सव के प्राप स्वागताध्यक्ष थे। बाली Bengal-after-care Association कमेटी के पाप इस अवसर पर जैन साहित्य एव पुरातत्त्व के सेवकों को साम्य रहे है, इस सस्था के प्रधान सरक्षक भारत के 'सिद्धान्ताचार्य' उपाधि देकर सम्मान दिया गया था, राष्ट्रपति एव बगाल के अनेक मुम्माधिकारी इसके उमकी मून प्रेरणा में प्रापका भी हाथ था। सदस्य रहने थे। __ पापको जैन पुरातत्व से बहुत रुचि थी। पापका मार मन् ४३ मे भारतीय जैन परिषद् कलकत्ता के पुरातत्त्व विशेषको यथा-डा. बी. मी. छाबग M. मक्रिप मन्त्री चुने गये थे । इम सस्था का मुख्य उद्देश्य जन A. M.02 श्री एच. एल. श्रीवास्तव, पण्डित माषोमाहित्य मोर सस्कृति का प्रचार व प्रमार करना था। स्वरूप यन्म, अशोककुमार भट्टाचार्य श्री शिवराम मूर्ति, इसके नवावधान में मनक विद्वानों के सानाहिक, मामिक श्री टी.एन. रामचन्द्रन पादि से बहन मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध मभामो मे भाषण होते थे, जिन्हें प्रकाशित भी कराते रहे है। ये मन पुरातत्त्व विभाग में उच्च पदो पर पामीन Jan System of Education और Theory of पं। इन मबके जरिये पाप जैन सामग्री प्राप्त करने के Nhn-Absolusion नामक संग्रह प्रकाषित किये गये थे। लिए हमेशा प्रयत्नशील रहते थे। पापने पुरातत्त्व-प्रेम के पाप पाल इण्डिया दिगम्बर जैन परिषद् की प्रबन्ध वशीभूत होकर जन पुगतन अवशेषो की बोज के लिए कारिणी ममिति के मदस्य रहे है। भारत के विभिन्न प्रदेशो की मनेक बार यात्राएं की थी। पाप माल इणिया म्यूजिक काम, कलकत्ता के पापको पुगतत्त्व की अभिरूचि एवं सेवामो के सम्मानार्थ उप-मभापति रहे है। भारत मग्कार ने पापको मन १९५२ मे पुरातत्व विभाग पाप Indian Association of Mental Hygiene का अवैतनिक Correspondent बनाया था। के १६ मे ७ तक कोपाध्यक्ष रहे है। पाप पुरातत्त्व सम्बन्धी विषयो पर पनक लेख १९ मे इण्डियन रिसर्च इन्स्टीट्यूट के सदस्य प्रकाणित कगते थे। मापने अपनी विभिन्न यात्रामो में जैन पुरातत्त्व सम्बन्धी बहुत-सी सामग्री एकत्रित की थी, पाप सन् ५० से ५७ तक प्राकृत टेक्टम् सोमाइटी जिनमें प्राचीन मस्कृति के अनेक सुन्दर-सुन्दर कलापूर्ण के सदस्य रहे है। इस स्था के सरक्षक डा. राजेन दुर्लभ चित्र भी है, जिनमें कुछ स्थानीय बेलगछिया उपवन प्रसादजी थे, उन्होने इम मस्या के लिए बहुत प्रयत्न किये के एक हाल मै सुन्दर ढग से लगाये गये है। प्रापकी थे । इम सस्था का कार्य करते हुए बाबूजी गजेन्द्र बाबू इच्छा थी कि पूरे हाम में मे चित्र नगा दिये जावें वो सम्पर्क मे पाये। इसे पाप कलकत्ता की मारवाडी वर्णनापियो को न मस्कृति के प्राचीन गौरव से परिचित रिलीफ सोसाइटी, पिपरापोल सोमाइटी मादि सर्व-हिन- करावे । किन्तु वह इच्छा पूर्ण नही हो सकी। रुग्ण कारी अनेक संस्थामो के सदस्य रहे है। कलकत्ता दि० शय्या से भी बराबर इसके लिए अपनी प्रेरणा देते जन ममाज की प्राय मभी मस्यामो के महत्वपूर्ण प्रायो- रहने थे। अनी में प्रापका योगदान किसी-न-किमी रूप में अवश्य पापने बगिरि-नयगिरि पर एक भोजपूर्ण पुस्तक रहना पा। लिखी। मापन काकता जैन मूति-यन्त्र गग्रह भी सन श्री दिगम्बर जैन प्रान्तीम समा बम्बई के मुख्य पत्र १९२३ मे प्रकाशित किया था, तत्पश्चात् जन विविलियो Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राफीका प्रथम मान सन् ४५ में प्रकाशित किया था। में पीड़ित अभावग्रस्त गरीबों की सहायता करते थे। माप इसके दूसरे भाग के लिए भी अपनी रुग्णावस्था में एमोसियेशन की तरफ से मारवाडी रिलीफ सोसाइटी के सामग्री संकलित करते रहते थे, किन्तु मापकी निरन्तर तत्वावधान में बंगाल के मोपासाली काण्ड के समय कग्णता के कारण वह सामग्री प्रकाश मे नही पा पाई। हिन्दुओं की सहायता वही गये । वहां महीनों रहकर प्राप देश-विदेश के जैन-प्रजन विद्वानो को जैन असहाय प्रत्न संसकों की हर प्रकार से सहायता करते साहित्य एव सस्कृति सम्बन्धी महत्वपूर्ण सामग्री देते रहे। वे निर्मीक होकर मुसलमानी मुहल्लों व गाँवो मे रहते थे एवं उन्हे जैन विषयों को प्रकाश में लाने की पहुंच जाते थे, एवं असहाय पौर लीगी नादिरशाही के प्रेरणा भी करते रहते थे। डा. विन्टर निटज, हा शिकार मल्लसंख्यकों की सहायता एव रक्षा करके कतग्लासिनव, थी पार.डी.बनर्जी, राय बहादुर पार० कृत्य होत थे। पी.बनर्जी, श्री एन. जी. मामदार, श्री के० एन० पाप जैसे दीन दुखी सेवको के कारण जैन समाजही दीक्षित, पमूल्यचन्द्र विद्याभूपण, डा. विभूतिभूषण दत्त, नही अपितु प्रत्येक भारतीय का सिर गर्व से ऊंचा हो म.ए.पार बनजी, डा. ए. पार. भट्टाचार्य, डा. उठता है और ऐसे निःस्वार्थ सेवक की याद हमेशा बनी काग्निवाम नाग मावि अनेक विद्वान जैन विषयो पर मापसे रहेगी। जानकारी प्राप्त करते रहे हैं। लभाषिक दान देकर, धनी होते हुए भी पाप अपनी पाप का जैन विद्वानों में तो बहुत ही निकट का विज्ञापनबाजी से हमेशा दूर रहे है। पाप हमेशा कृत्य सम्बन्ध रहता था। माप उनकी सेवा एवं सम्मान का को प्रधानता देते थे, अपने नाम की कमी चिन्ता नही कोई अवसर हाथ मे नहीं जाने देते थे। पापका पं. करते थे। मापने कभी पान प्रचार की भावना मे नही मापलाल जी प्रेमी, पण्डित जुगलकिशोर जी मुमार दिया था, क्योंकि पाप मानते थे कि 'परिग्रह पाप है म शीतलप्रसाद जी, बैरिस्टर बम्पतराय बी, पणित पाप का प्रायश्चित दान है किन्तु यह दान ख्याति लाभ महेनाकुमारवी न्यायाचार्य,डा.हीगलाल जी जैन, ग. पूजा के लिए नहीं होना चाहिए प्रायश्चित की दृष्टि अपने ए.एन. उपाध्याय, प्रो. चक्रवर्ती, पण्डित लाशवन्द पाप का सशोधन पषवा अपराध का परिमार्जन करके बी, पण्डित नमुख दास जी न्यायतीर्ष मावि से पापका मात्मशुद्धि करने की मोर होती है। नियमित एव मधुर सम्पर्कमा पाप नई पीडी के विद्वानों पाप अनेक सस्मामो में विभिन्न पदों पर रहे है, को भी जैन विषयो पर अध्ययन एवं लिबने की प्रेरणा प्रापका सभी प्रकार के बर्यो से नियमित सम्पर्क रहता देते थे। पावश्यकता पड़ने पर भाषिक महयोग भी वाकिन्तु पापने अपने स्वाभिमान को हमेशा प्रमुखता दी। पाप स्पष्टवादिता में भी अपूर्व थे। पापका चाहे माप पुरातत्व, मस्कृति और शिक्षा के प्रेमी वहा कोई कितना ही निकट का क्यो न हो, पाप उसके दोप दीन दुखिों के दुबो से जल्दी ही द्रवित हो जाने। देखने पर उभे कहने में नहीं हिचकते थे। अपने मतभेद धनी होते हुए भी वे उनके दुखो और प्रभावो की अनु- को प्रकट करने में संकोच नही करते थे, इसी कारण कई भूति पपने अन्तमंन से करते थे इसलिए वे हमेशा उनके पति इनसे सन्तुष्ट नही रह पाते। ये अपने विरोधी दुखों को दूर करने के लिए तन, मन, धन से तलर रहते को भी मावश्यकता पड़ने पर सहयोग देने में मानाकानी ये। उन्होंने मनी एसोसियेशन से व्यापारिक सगठन नही करते थे। को भी ऐसे कार्यों में लगा दिया था। मापके कार्यकालमाप प्रेमीजी एव मुमार सा मे परीक्षा प्रधानी में इन मानवीय सेवा कार्यों में एसोसिएशन ने लाबों साहित्यान्वेपियो के मतयो से परिचित थे इसलिए पार रुपया व्यय किया था। प्रत्येक क्रिया की भूमिका, पापार का पूरा अध्ययन कर पाप सब बंगाल के प्रसियसन ४२-४३मकाल ही उनकी विषयता या पविषेषता स्वीकार करते थे। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उदारमना स्व. बाबू छोटेलालजी माप कभी गलतरूढि को स्वीकार नहीं करते थे । जो भी ऐसे मूक सेवक, निराभिमानी दानी, उदारमना गलत रूढ़ि या अन्ध श्रद्धा जनित मूर्खतापूर्ण कार्य करता, सरावगी जी को अपनी श्रद्धांजलि देते हुए कामना करता उसका पाप विरोध करते थे । पाप कभी दूसरों के मत हूँ कि वे कालातर में श्रेयस सुख की प्राप्ति करें। की खातिर अपने सिद्धान्त की बलि नही करते थे। आपने माप गत ७-८ वर्षों से निरतर बीमार रहते थे फिर जैन समाज के सुधारकों की यथा सभव सहायता कर , भी सास्कृतिक व सामाजिक कार्यों के लिए अपना बराबर सुधार का मार्ग प्रशस्त किया था। योगदान देते रहते थे। प्राप नवयुवकों का हमेशा पथ प्रदर्शन करते थे। गत नवम्बर दिसम्बर माह में पाप विशेष रूप से किसी भी नवयुवक को सुमार्ग में लगाने, उसे व्यवसाय पीडित रहे। दिसम्बर के द्वितीय सप्ताह मे स्थानीय माधन जुटाने मे हमेशा महायता करते थे। आप विद्याथियों एव विद्वानो को अध्ययन की प्रेरणा देते रहते थे। मारवाडी रिलीफ सोमाइटी के अस्पताल में प्रापको भर्ती वे म्बय इस रुग्णावस्था में भी थोडी सी शाति होने पर कराया गया था। आप इतनी भयकर बीमारी में भी अध्ययन मे लग जाते थे । आपने कितने ही व्यक्तियो को सास्कृतिक व साहित्य की चर्चा में रुचि लेते थे। मापने नव साहित्य मजन की प्रेरणा दी है उसके प्रकाशन प्रादि इस रुग्णशय्या पर रहते हुए भी 'वीरशासनसंघ' की व्यवस्था करा देते थे। से प्रकाशित होने वाली जैन निबन्ध रत्नावली का प्रकाश कीय वक्तव्य लिखवाया जो पापका अन्तिम वक्तव्य कहा आपको जैन संस्कृति के सरक्षण एवं विकास की जा सकता है। हमेशा चिता बनी रहती थी। विद्वानो से, नेतानो से, दम रुग्ण श य्या पर ही आपने श्री अगरचन्दजी ममाज के कार्यकर्तामो मे अपनी चिता व्यक्त करते रहते ये इसके लिए उन्होंने अपने ढग से अनेक कार्य किए। नाहटा के निबन्धो को प्रकागित करने की योजना बनाई आप पुरातत्व सामग्री का स्लाइडलेम्प मे प्रदर्शन भी थी, काश वह पूरी नहीं हुई। यथावमर करते थे। आपने कलकत्ता देहली प्रादि केन्द्रीय आप अपने अभिनन्दन विज्ञापन प्रादि से दूर रहते थे। स्थानो पर जैन कला एवं सस्कृति की प्रदर्शनियाँ भी जब कभी पापसे आपके अभिनन्दन की चर्चा की, आपने लगाई थी। जिसकी प्रशमा सभी ने मुक्त कठ में की थी। हमेशा विरोध ही किया। आपके कार्यों का पूरा लेखा ऐमे निर्भीक समाज सेवी का अभिनन्दन करने की जोखा प्रस्तुत नही किया जा रहा है, क्योंकि तत्सबन्धी योजना चल ही रही थी कि कराल काल ने उन्हें हमेशा सा . सामग्री नहीं मिल मकी। के लिए छीन लिया । वे हमेशा अभिनन्दन का विरोध जो कुछ सामग्री मिली है उसी में मन्तोप करते हुए करते रहते थे। उन्होने कहा कि हमने जो कुछ भी किया प्रापके प्रति अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ और माशा है मेवा व कर्तव्य ममझ कर किया है उसके लिए सम्मान करता हैं कि उनके द्वाग सपादित एवं सकेतिक कार्य या अभिनन्दन कैसा? समाज के लिये हमेशा प्रकाश-स्तम्भ का कार्य करेंगे।* प्रसंग की बात खण्डगिरि उदयगिरिमें जन हितार्थ एक औषधालय खुलवाने का प्रयास बाबुजी बहुत समय से कर रहे थे। इसके लिए पर्याप्त सहयोग भी उन्होंने दिया और '६६ के गणतंत्र दिवस पर प्रातःकाल इस खारवेल औषधालय का शुभारम्भ हो गया। जब उधर इस औषधालय का उद्घाटन हो रहा था तभी इधर बाबू जी की अर्थी सजाई जा रही थी। उसी प्रभात में उनका देहावसान हुमा । -नीरज Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण मित्र डा० प्रादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये २६ जनवरी १९६६ की प्रात.कालीन पुण्यवेला मे सतत् और स्थायी रुचि थी। जैन साहित्य और भारतीय शान्तिपूर्वक धार्मिक क्रियाएँ करते हुए श्रीमान् बाबू इतिहास के क्षेत्र में काम करने वाले विद्वानो की अोर वे छोटेलाल जी का ७० वर्ष की आयु मे देहावसान हो जाने महज ही पाकृष्ट हो जाते थे और उन्हे उनके अध्ययन से एक उदार व्यक्तित्व की समाप्ति हो गई है। मे मदद करने के लिए सदैव तत्पर रहते थे । वे भारतीय श्रीमान् छोटेलाल जी सत्प्रवृत्तियो के उल्लेखनीय इतिहास परिषद् और अखिल भारतीय प्राच्य परिपद् के भंडार, अध्ययनशील स्वभाव एवं उदारचेता व्यक्ति थे। सदस्य थे, तथा इनके अधिवेशनों में उपस्थित होने का जैन माहित्य और सस्कृति के विकास के लिए वे अत्यधिक अपनी शक्ति भर पूर्ण प्रयन्न किया करते थे। उनका उत्सुक रहते थे, जैन दर्शन, भारतीय प्राचीन इतिहास, विद्वत्समागम बड़ा विस्तृत एव सम्पूर्ण भारतवर्ष मे फैला कला और पुरातत्व के क्षेत्र में काम करने वाले अनेको हुआ था यहाँ तक कि विदेशों में भी उनके माहित्यिक विद्वानों के साथ उनका निकटतम मंबंध था। मित्र थे, जो भारतीयता के अध्ययन मे तल्लीन रहते थे। ___ जो लोग श्रीमान् छोटेलाल जी के तनिक भी सम्पर्क श्री छोटेखाल जी का विश्वास था कि जैनधर्म एक मे पाये उन्होने पाया कि एक दुर्बल एवं जर्जर काया के बडा महत्वपूर्ण धर्म है व जैन साहित्य विविधतामय, समद्ध पीछे उनमे चारित्रवान सबल व्यक्तित्व, उच्चकोटि का एक विस्तृत और विशाल है तथा जन इतिहास और चिन्तन, अध्ययन के लिए तीव्रानुगग, और सबसे अधिक पुरातत्व अध्ययन के पवित्र क्षेत्र है, साथ ही वे अनुभव भारतीय पुरातत्व के ज्ञान के लिए, अतृप्त तपा विद्यमान करते थे कि अध्ययन की इन शाखाप्रो की ओर पर्याप्त ध्यान नही दिया जाता है, यदि इनका पूर्ण अध्ययन हो डा. एम. विन्टरनिन्ज ने अपने "भारतीय साहित्य जाय तो भारत की सम्पूर्ण विरासत (वपौती) पूर्णतया का इतिहास" भाग २ को भूमिका मे छोटेलाल जी का समद्ध और शानदार हो सकती है। जैन साहित्य की नाम बड़े प्रादर पूर्वक उल्लेख किया है। यह ग्रन्थ सन विभिन्न शाखामों में काम करने वाले विद्वान् सहज ही १९३३ मे कलकता विश्वविद्यालय मे अग्रेजी में प्रकाशित उनकी ओर आकृष्ट हो जाते थे और वह उनके लिए हा था। मैं ऐसा मानता है कि यदि बा० छोटेलाल जी यथार्थ ही कल्याण मित्र थे। का सहयोग न मिलता तो डा० विन्टरनिरज अपने इति- श्री छोटेलाल जी की सासारिक पाकाक्षाए कुछ भी हास मे जैन साहित्य का इतना विशाल और गम्भीर न थी उनकी एक मात्र पाकाक्षा यही थी कि जैनत्व का सर्वेक्षण प्रस्तुत न कर पाते। जिन्होंने डा. विन्टरनित्ज अध्ययन भारतीय अध्ययन की अन्य शाखाओ के साथके "भारतीय साहित्य का इतिहास भाग २" का अध्ययन साथ प्रगति करता रहे। उन्हे कीति या प्रतिष्ठा का किया है वे सहज हो कल्पना कर सकते हैं कि श्रीछोटेलाल तनिक भी लोभ न था, जो कुछ उन्हें प्राप्त हुप्रा वह वृक्ष जी ने जैन साहित्यिक सामग्री के संग्रह मे डा० विन्टरनिज पर पत्तो की भांति स्वाभाविक रूप से ही प्राप्त हुआ पर को अनन्य सहयोग देकर शोधार्थी विद्वानो को पोडी पर बहुधा वे उसे टालते ही रहे मौर मूक भाव से निविरोधकितना बड़ा उपकार एवं वरदान प्रस्तुत किया है। पूर्वक अपनी शक्ति भर सभी संस्थाओं तथा व्यक्तियों की श्री छोटेलाल जी उदार दृष्टिकोण वाले व्यक्ति थे तथा मदद ही करते रहे जिससे उनका कार्य निर्बाध रूप से जैनदर्शन, साहित्य और पुरातत्व की शोषो में उनकी प्रागे बढता रहे। Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कल्याण मित्र श्रीमान छोटेलाल जी का परिवार दयालुता एव प्रगति का मूल साधन मानते थे और इसीलिए शोध खोज उदारता के लिए सर्व-प्रसिद्ध है। वीरसेवामदिर दिल्ली करने वाले विद्वानों के साथ वे बन्धुत्व और स्नेह का तथा इसका प्रमुख शोधपत्र 'अनेकान्त' बाबूजी के जैनत्व सबध स्थापित करते थे, पर भारतीय इतिहास और जैनके अध्ययन के प्रति अनुराग के प्रतीक (स्मृति चिह्न) हैं। धर्म के क्षेत्र में काम करने वालों के प्रति तो विशिष्ट जैन व जनेतर समाज की अनेकों संस्थाए बाबू छोटेलाल रूप से प्रगाढ स्नेह रखते थे। वे अपने पास संकलित शोध जी तथा उनके परिवार द्वारा संरक्षित हुई पर प्रतिदान सामग्री मे से दूसरों, विद्वानों को सूचनाएं तथा पूर्वापर में उन्होने कोई मासारिक लाभ अथवा ख्याति एव प्रतिष्ठा संदर्भ आदि बताने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते थे। की आशा नहीं की। श्री छौटेलाल जी का दृष्टिकोण शोध एवं अध्ययन हमारा उनके साथ गत २५ वर्षों से बडा घनिष्ठ पूर्ण था, और वे यथार्थ में जानते थे कि कौन सा कार्य सबर संबध है। हमने अनेको बार जैनत्व संबंधी कई महत्वपूर्ण अध्ययन को प्रगतिशील बना सकता है। उनकी "जंन विषयों पर विवेचन एवं पत्र व्यवहार किया है। बिबलोग्राफी" (कलकत्ता १९४५), जिसकी वे आधुनिक पनिक भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन की कार्यकारिणी समिति पुनरावृत्ति प्रकाशित कराना चाहते थे, उनके जनस्व के के सदस्य के नाते उन्होंने सांस्कृतिक कार्यों में बड़ी तीव्र अध्ययन के प्रति विशाल एवं स्थायी रुचि की प्रतीक है। उत्सुकता एवं रुचि प्रकट की थी। उन्होने वीरसेवातथा बताती है कि उनका कितना विशाल अध्ययन था। मंदिर के निर्माण में बड़ा संघर्ष किया तथा वे इसे उच्च श्री छोटेलाल जैन पाडु लिपियों के सरक्षण के लिए अ अध्ययन का प्रमुख केन्द्र बनाना चाहते थे। यद्यपि वे विशेष रूप से उत्कठित थे तथा उनके प्रकाशन और उनके कलकता रहते थे पर उनका हृदय वीर सेवा मदिर दिल्ली विभिन्न भाषामो मे अनुदन व्याख्या विवंचन आदि। मे लगा रहता था। अाधुनिक ढंग से कराने में विशेष रूप से रुचिवान थे, वे वे मच्चे श्रावक की भांति उदार एव धार्मिक शब्दो प्राकृत टेक्स्ट सोमायटी के सस्थापक सदस्य, वीरशासन- मे सच्चे दाता थे। उनके साथ हमारे बडे घनिष्ठ सवध मघ के मंत्री, भारतीय ज्ञानपीठ की कार्य कारिणी के थे। अत. वे प्रायः मुझे कुछ लोगों के दो चार कृतघ्नता मदस्य तथा वीरसेवामदिर के अध्यक्ष प्रादि भी वे थे। पूर्ण कटु व्यवहार सुनाया करते थे फिर भी कृतघ्न लोगों इनसे उनके महत्वपूर्ण कार्यों का पता चलता है। उन्होने के प्रति उनके मन में कोई मलीनता न थी और में उनके तीर्थक्षेत्र कमेटी के सदस्य की हैसियत से भी बड़ा प्रति सदैव मृदु मुस्कान एव उदार सहानुभूति रखते थे। महत्त्वपूर्ण कार्य किया था उन्होने जैनधर्म और समाज के यद्यपि ऐसे कृतघ्नतापूर्ण कटु व्यवहार कभी-कभी उन्हे लिए जो कुछ किया वह चिरस्थाई और बहुमूल्य है, उन क्षण भर को विचलित कर देते थे पर वे इतने अधिक की निस्वार्थ सेवाएं इन क्षेत्रो के उत्साही कार्य कर्तामो महान् थे कि ऐसी बुराईया स्वयमेव नष्ट हो जाती थी द्वारा सदैव स्मरण की जाती रहेगी। तथा उन लोगो के प्रति सदैव उदारता और सद्भाव प्रकट गत कई वर्षों से उनका स्वास्थ ठीक नही रहता था करत रहत थे। फिर भी अध्ययन के प्रति उनकी स्पर्धा अटूट और अतुल्य उनकी तीव्र अभिलापा थी कि मेरी प्रकाशित रचनाए थी। वे इतने अधिक उदार, प्रतिभाशाली मृदु स्वभावी एक जगह मलित होकर अथ रूप में हिन्दी अग्रेजी में एवं अध्ययन के प्रति तीवानुगगी थे कि जो कोई भी प्रकाशित कराई जावे, पर मैंने उनसे अनुरोध किया था उनके सम्पर्क में माता था उसमें भी वे इन सद्गुणो की कि प्रकाशित रचनामो पर धन व्यय करने की अपेक्षा उन ज्योति प्रकाशित कर देते थे। शोध पूर्ण रचनामो को प्रकाशित किया जावे जो अब तक श्री छोटेलाल जी उन थोड़े से व्यक्तियों में एक थे मर्वथा अप्रकाशित हैं, क्योंकि शोधार्थी विद्वान प्रकाशित जो शोध के प्रति तीव्रानुरागी थे, तथा उसे ही ज्ञान की रचनामों का उपयोग तो कर ही लेगे भले ही वे किसी Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भी भाषा में हों अतः अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित लगभग दो मास पूर्व ही संपादन कर कलकत्ता भेज दिया करना चाहिए। था। इनमें कई श्रेष्ठ एवं प्रसिद्ध लेखकों के बहुत से बहुमेरी अपनी कठिनाईया है फिर भी उन्होंने मुझे वीर- मूल्य लेख हैं अतः उनका प्रकाशित हो जाना निश्चय ही सेवामदिर के कार्यों में रुचि लेने के लिए प्रेरित किया। श्री छोटेलाल जी का उपयुक्त स्मृति चिह्न होगा। श्री यह उनकी ही प्रार्थना कहिए अथवा प्राज्ञा जो कुछ भी छोटेलाल जी अपने अन्तिम दिनों में अपनी "जैन बिबलोहो मैं "अनेकान्त" के सपादकत्व का भार सभालने के ग्राफी" का संशोधन एव परिवर्तन कर रहे थे प्रतः यह लिए सहमत हो गया। उनके अनुरोध इतने प्रेरणाप्रद देखना और अधिक प्रत्यावश्यक हो गया है कि वे "जैन एव निस्वार्थ थे कि उनका निषेध करना मुझे बड़ा ही बिबलोग्राफी" को किस दशा में छोड गये हैं ! इसके कठिन प्रतीत हुमा । प० जुगलकिशोर जी सदैव अत्यधिक प्रकाशन से जैन साहित्य के अध्ययन में विशेष योग एवं उन्सुक रहते थे कि मैं उनके प्रकाशनो को भूमिका लिखू, लाभ प्राप्त होगा! कुछ की भूमिका मैंने लिखी भी है। उनकी तीन अभि. श्रीमान् छोटेलाल जी अब इस संसार मे नही हैं पर लाषा थी कि उनके 'सन्मतिसूत्र" नामक विस्तृत निबध मुझे तनिक भी सदेह नही कि उनकी दयालु प्रात्मा वहाँ का मैं अग्रेजी अनुवाद कर दूं और मैंने वह अनुवाद मदेव झूलती रहेगी जहां जनत्व का अध्ययन सच्चे विद्वत्ता किया भी पर इस संदर्भ मे श्री छोटेलाल जी ही एक ऐसे पूर्ण ढग से होता होगा। व्यक्ति थे जिनकी सहायता और प्रेरणा से हिन्दी के कुछ श्री छोटेलाल जी ने जैन समाज, जैन साहित्य और क्लिष्ट वाक्यो का लेखक से व्यक्तिगत विवेचन कर जैन पुरातत्व के क्षेत्र में अपनी बहुमूल्य सेवाए समर्पित अग्रेजी में उचित अनुवाद किया जा सका। ऐसी गहन को है, और यह सब उन्होने विभिन्न क्षेत्रों में अपनी रुचि थी बाब छोटेलाल जी की जैनत्व सबधी अध्ययन के महत्ता को प्रकट किये बिना ही प्राप्त किया है। उन्होने क्षेत्र मे ! स्वय को छिपाकर दूसरों को उत्साहित करना, मदद बड़ा खेद है ! कि श्री छोटेलाल जी का अभिनन्दन करना, तथा उनमे स्थित थोड़े से भी गुणो की प्रशसा करने ग्रन्थ उनके जीवनमे प्रकाशित न किया जा सका, यद्यपि वे का अद्भुत कौशल प्राप्त किया हुमा था, यथार्थ मे श्री ऐसे सम्मान के सर्वथा विरोधी थे अत. ऐसा लगता है कि छोटेलाल जी वह श्रेष्ठ पुण्यात्मा हैं जिनके विषय मे सभवतः उनकी इच्छा सर्वथा परिपूर्ण हो गई है, मुझे भर्तृहरि ने कहा हैविश्वास है कि व्यवस्थापक गण श्री छोटेलाल जी का पर गुण परमाणून पर्वतीकृत्यलोके । अभिनन्दन ग्रंथ प्रवश्य ही प्रकाशित करेगे। इस अभिनन्दन निजहृदि विकसन्तः सन्ति सन्तः कियन्तः ? ग्रंथ का अंग्रेजी भाग तो मैंने उनकी दुखद मृत्यु के अनु०-कुन्दनलाल जैन एम. ए. अनासक्त कर्मयोगी पं० कैलाशचन्दजी सिद्धान्त शास्त्री सन २६ मे मैं कलकत्ता रथयात्रा के अवसर पर नावा था। शरीर से दुर्बल पहले से ही थे किन्तु काम गया था। उस समय मैंने बाबू छोटेलालजी को प्रथम बार करने की उमग अद्भुत थी। जिस काम को करने का देखा था। वही कालो गोल टोपी, सफेद धुला हुआ बीड़ा उठा लेते थे उसे करके ही छोड़ते थे। 'शरीरं वा मलमल का कुर्ता और धोती। यही उनका स्थायी पहि- पातयामि कार्य वा साधयामि' यही उनका जीवन Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनासक्त कर्मयोगी मंत्र था। निर्माण का श्रेय बाबू छोटेलाल जी को है और इसके मूल सन् ४४ में पहले राजगृही में वीर शासन महोत्सव में है श्री जगलकिशोर जी मुख्तार के प्रति प्रारम्भ से हुप्रा । पीछे कलकत्ता मे तो बहुत ही धूमधाम से हुमा। ही उनकी प्रादर भावना। दोनो में भक्त और भगवान इसका श्रेय बाबू छोटेलाल जी को है। उस समय उनकी जैसा सम्बन्ध था एक बार मैं उनसे मुख्तार साहब की कार्यतत्परता देखते बनती थी। गला बैठ गया था, कठ बगई करने लगा तो तुरन्त बोले पं० जी, उनका दिल से आवाज नही निकलती थी, शरीर अस्वस्थ था, किन्तु रखने वाला भी तो कोई एक होना चाहिए। तो वीरफिरकी की तरह घूमते फिरते थे। सेवा मन्दिर बा. छोटेलाल जी की मुख्तार साहब के जब यह विचार हमा कि स्यावाद महाविद्यालय की प्रति जो भक्ति थी उसका एक प्रतीक है । खेद है कि वह स्वर्णजयन्ती पूज्यवर्णी जी के सान्निध्य में ईसरी मे मनाई' भक्ति प्रभवित में परिणत हो गई। बा० छोटेलाल जी जावे तो सबसे प्रथम इसका समर्थन करने वाले बाबू तो चले गये किन्तु मुख्तार सा० अभी वर्तमान हैं। और छोटेलाल जी ही थे। उस मायोजन में जो कुछ सफलता इसलिये उन पर एक विशेष उत्तरदायित्व प्रा गया है। मिली उसका पूर्ण श्रेय उन्हे ही है। उन्होने मुझे दश- उसे निवहना उनका कर्तव्य है। लाक्षिणी में कलकत्ता आमत्रित कराया और मेरे माथ जाकर बीस हजार का चिट्ठा लिखाया। उन्हे स्वर्ण वीरसेवामन्दिर केबल प्रायका साधन नहीं होना जयन्ती महोत्सव को स्वागतकारिणी ममिति का मत्री चाहिए । उस प्राय के व्यय का भी प्रबन्ध होना चाहिये। बनाया गया था। शीतऋतु, सम्मेदशिखर का जलवायु, यदि प्राय जमा होती रही तो वीर सेवा मन्दिर साहित्यकों यात्रियों की भीड। और बाबू छोटेलाल जी सुबह से की दृष्टि का केन्द्र न रहकर धनाथियों की दृष्टि का उठकर दिन भर खडे खडे डेरे खडे कराते थे। केन्द्र बन जायेगा । प्रत उसे ऐसे हाथो में सौंपना चाहिए किमसे कब किम तरह से काम लेना चाहिए, इम जो धन में अधिक साहित्य के अनुगगी हैं | बा. छोटेलाल कला मे वह विशेष निपुण थे। स्वभाव के तीखे भी थे जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है उस उद्देश्य की पति जिम और मधुर भी। विद्वानो के प्रति उनकी बडी प्रास्था उद्देश्य से वीरमवामन्दिर का भवन देहली में बनवाया थी। उन्हें देखकर बडे प्रसन्न होते थे और उनकी मेवा गया था। प्रस्तु, में लग जाते थे। उनके श्रद्धास्पद व्यक्ति और सस्थाए चुनी हुई थी। विद्वानों और त्यागियो में वह पूज्यवर्णी जी वा. छोटेलाल जा विद्या और माहित्य के अनुरागी के अनन्या उनके प्रति समोरेलाल थे। उन्होंने अपनी माता का धन तो वीरसेवामन्दिर जी ने वर्णी जी का सिर डाना नही छोडा। मदा उनके की जमीन में लगा दिया और अपने दो भाइयो के धन से पास बैठे हुए उनकी पीछे से मक्खिया उडाया करते थे। चालीम हजार रुपया स्याद्वाद महाविद्यालय को दिलवाया। और इस बात का ध्यान रखते थे कि वर्णी जी को किसी और अपने पास जो कुछ था वह सब भी ट्रस्ट द्वारा के द्वारा जरा भी असुविधा न हो। साहित्यिक कार्यों को प्रदान कर गये । श्रेष्ठियो मे साहू शान्तिप्रसाद जी के प्रति उनका धनी मारवाडी परिवार में जन्म लेकर विद्या और बडा अनुराग था और सदा उनको उदारता की चर्चा माहित्य के प्रति ऐमा अनुराग बहुत विग्ल देखा जाता करते रहते थे। है। वह व्यक्ति था जिसने कभी नाम नही चाहा, प्रशसा सस्थानों में वीरसेवामन्दिर देहली, स्यावाद महा नही चाही, केवल काम करना चाहा। गीता के शब्दो में विद्यालय काशी और जैन बाला विधाय मारा उनके वह अनासक्त कर्मयोगी थे जिन्होने फल की इच्छा नहीं स्नेह भाजन थे। दिहली मे वीरसेवामन्दिर के भवन की और जीवन भर कर्तव्य कर्म करते रहे।* Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे क्या नहीं थे ? श्री नीरज जैन "जा मरने से जग उर, मोरे मन मानन्द । जैन भजन संस्थानों के अध्यक्ष मत्री और सदस्य रहे है। मरन से ही पाइये पूरण परमानन्द ॥" परिग्रह के प्रायश्चित की भावना मे लाखों रुपयों का दान ये हैं वे पंक्तियां जिनमे स्वर्गीय बाबू छोटेलाल जी भी प्रापने अपने जीवन मे किया था। का जीवन दर्शन सक्षेप मे उजागर हमा है। जीवन के काम तो बाबू जी को सदा प्यारा रहा परन्तु नाम प्रारम्भ से लेकर मरण काल तक एक अनोखी निभीकता, और प्रसिद्धि से वे सदैव दूर भागते रहे। यहाँ तक कि जो उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग बन गई थी, उनके अपनी जन्म तिथि भी उन्होने यत्नपूर्वक छिपाकर रखी। चरित्र की विशेषता रही है। उसी विशेपता को प्रकट चुपचाप काम करने की पद्धति मे ही उनकी आस्था थी। करने वाला यह दोहा उन्हें बहुत प्रिय था और प्राय जाने कहाँ कहाँ में, कौन-कौन लोग आवश्यकता पड़ने पर उनके मुंह से सुनाई दे जाता था। कई जगह इसे उन्होने सहायता के लिए उन्हें लिखते थे। उत्तर में वे अावश्यक लिख भी रखा था। द्रव्य भेज देते और कभी किसी मे उसकी चर्चा तक न श्रद्धेय बाबू जी से मेरा परिचय पाठ नौ वर्ष का ही करते थे। उनकी डायरियो आदि से पता चलता है कि था, किन्तु इस अल्पकाल के सम्पर्क में ही उनके बहुमुखी- एक-एक व्यक्ति को दस दस बीस बीस हजार रुपयो तक प्रतिमा-सम्पन्न, स्नेह-सिक्त और प्रभावशाली व्यक्तित्त्व की सहायता इस प्रकार उन्होने दी है। संस्थानो को तो को गहराई तक जानने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ। उनका प्रमून्य सहयोग सदा मिलता ही रहता था। उनके अवसान के उपरान्त तो कलकत्ते में उनकी सामग्री की सार-सम्हार करते हुए बाबूजी के गत जीवन की भनेक अनव अनवरत अध्येताछोटी-बड़ी घटनाओं विशेष प्रसगों और उनके द्वारा किये बाबूजी मे ज्ञान की प्रतृप्त पिपासा जीवन के प्रारम्भ गए समाज सेवा के अनेक कार्यों का भी पर्याप्त परिचय से ही रही है। भारतीय इतिहास, और विशेष कर जैन मुझे प्राप्त हुना। इतिहास के प्रजात तथा अप्रसिद्ध प्रकरणों और पुरातत्त्व इस श्रद्धाजलि लेख मे मुझे यह लिखना चाहिए था के स्थानों तथा अवशेषो के शोध की भावना भी उनमें कि “बाबू छोटेलाल जी क्या थे?" पर आज जब लेखनी बडी बलवती रही है । सन् १९२१ मे रायलएसियाटिक लेकर बैठा हूँ और बाबू जी के व्यक्तित्त्व तथा कृतित्त्व सोसाइटी लायब्रगे का प्रावेदनपत्र प्रस्तुत करते हुए पर विचार कर रहा हूँ तब समझ में नहीं पाता कि उन्होंने अपने आपको अनुसधित्सु-(Research Scholer) उनके किस रूप में उन्हे यहाँ स्मरण करूं? इसीलिए लिखा था । बास्तव में यही उनका सही परिचय था। 'वे क्या थे' यह कहने के बजाय यह कहना आज मुझे उनका शेष सारा जीवन भी इसी परिभाषा का सही अधिक पासान लग रहा है कि "वे क्या नही थे ?" उदाहरण बनकर रहा। तब से अन्त तक वे रायल बाबू छोटे लाल जी ने विगत ५०-५५ वर्ष में सामा- एसियाटिक सोसाइटी के सम्मान्य सदस्य रहे । समयजिक धार्मिक, राजनैतिक, शैक्षणिक, और साहित्यिक क्षेत्र समय पर सोसाइटी में उनके भाषणो का भी प्रायोजन मे अनेक मूक सेवाएँ की हैं । जैन समाज का तो बच्चा- होता था। अन्त समय (जनवरी ६६ मे) जब उन्हें बच्चा पापके उपकारों से उपकृत है ही, जैनेतर समाज में मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी अस्पताल ले जाया गया भी आपकी अच्छी प्रतिष्ठा रही है । आप अनेक सुप्रसिद्ध तब भी इस लायब्रेरी के दो ग्रन्थ उनके साथ थे जिन्हे Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे क्या नहीं ? समय निकालकर पढ़ने का उनका मन था। ये ग्रन्थ के प्रकृति-परिवर्तनों का ही यह फल पा। एक दो स्थलों उनके मरणोपरान्त ग्रन्थागार को लौटाये गये । उत्कृष्ट पर ऐसी भी माशा हुई जैसे मूर्ति के पाषाण में दरार पौर प्रचुर साहित्य का उनका अपना जो पुस्तकालय था मा रही हो। समाचार पाते ही बाबूजी चिन्तित हो उठे। वह उनकी अध्ययन और मनन की प्रवृत्ति का परिचायक न जाने किस-किसके पास लिखा-पढ़ी करके और प्रबल है। वेलगछिया में यह संग्रह प्रब एक नियमित, सार्व- प्रेरणा देकर, दिल्ली और मद्रास के पुरातत्व अधिकारियों जनिक पुस्तकालय के रूप मे खोल दिया गया है। को वहाँ एकत्र किया। प्रतिमा के प्रकृति प्रभावित स्थलों अध्ययन तक ही उनकी रुचि सीमित रही हो ऐसी के अनेक चित्र लेकर तथा अन्य प्रकार से परीक्षण कराबात नहीं थी, सत्साहित्य के सम्पादन, प्रकाशन और कर उसकी सुरक्षा का उचित प्रबन्ध जब तक नहीं हो प्रचार में भी उनकी खासी लगन थी। वीरशासन-सघ गया तब तक वे चैन से नहीं बैठे। और यह सब किया तो उनकी संस्थापित सस्था है ही जिसमे कतिपय उपयोगी उन्होने अपनी रुग्णावस्था में। प्रकाशन हुए है। दिल्ली मे वीरसंवामन्दिर को उनका अपने उत्कट पुरातत्त्व प्रेम और शोध प्रवृत्ति के बहुमूल्य माथिक और क्रियात्मक सहयोग प्राप्त हुआ। कारण देश के पुरातत्व विशारदों मे मापका नाम बड़े भारतीय ज्ञानपीठ के मचालन में उनका प्राजोवन योग- सम्मान के साथ लिया जाता था। अपने जमाने में सर्वश्री. दान भी इसी प्रवृत्ति का प्रमाण है। डा. विन्टर निटज, डा. ग्लासिनव, रायबहादुर प्रार.पी. सतत शोधक चन्द्रा, श्री राख.लनास बनर्जी, ननिगोपाल मजुमदार, ____कला और पुरातत्त्व को शोध का कार्य तो बाबूजी गधाकमल बनर्जी, राधाकुमुद बनर्जी. के. एन दीक्षित, का जीवनव्रत ही बन गया था। अन्तिम सास तक उन्होने अमूल्यचन्द्र विद्याभूषण, विभूतिभूषण दत्त, डा. ए. आर. अपने इस उद्देश्य की मिद्धि के लिए तन, मन और धन भट्टाचार्य, डा. एस. पार. बनर्जी, मुनि कान्तिसागर, लगाकर जो भी किया जा सकता था वह किया। इतना डा० कामताप्रसाद जैन, श्री जुगलकिशोर मुख्तार, श्री ही नही, अपने बाद भी लगभग पांच लाख रुपये के नाथूराम प्रेमी, टी. एन. रामचन्द्रन, डा. कालिदास नाग, जिस जैन ट्रस्ट की स्थापना वे अपने द्रव्य से कर गये है सी. शिवराम मूर्ति, कृष्णदत्त बाजपेयी, पी. आर. श्री उसका उपयोग भी इसी लक्ष्य की पूर्ति में किया जाय निवासन, बालचन्द्र जैन प्रादि शतशः स्वनामधन्य विद्वानों ऐसी उनकी इच्छा रही है। से अच्छी मैत्री रही। इनमे से अनेक विद्वानों ने तो जैन उन्होने लगभग दो तिहाई भारत का भ्रमण करके इतिहास तथा पुरातत्व की शोध मे बाबूजी को बड़ा सहजैन कला, इतिहास, साहित्य और पुरातत्त्व सम्बन्धी जो योग दिया है । अनेकों ने उनके द्वारा मामग्री, सूचनाएं, महत्त्वपूर्ण शोधकार्य किया उसका सही मूल्याकन करने सहयोग और निदेश पाकर इन विषयो पर प्रचुर साहित्य के लिए तो हमे बहुत बडे अध्यवसाय और प्रयास की रचना भी की है। इस दिशा में आपकी सूचनामो भौर मावश्यकता पड़ेगी, परन्तु जिन विलुप्त और विम्मत दिग्दर्शन का महत्व स्वीकार करते हुए भारत सरकार के प्राय निधियो को उन्होने अपने परिश्रम प्रभाव से प्रकाश पुरातत्व-शोध विभाग ने प्रापको अपना आनरेरी कारमे ला दिया उनकी सूची भी बहुत बड़ी है और अपना स्पाण्डेण्ट भी नियुक्त किया था। भारत के प्रथम महमत्री महत्त्व रखती है। इन निधियो की रक्षा और व्यवस्था सरदार वल्लभ भाई पटेल की "सोमनाथ जीर्णोद्धार के प्रति भी वे बहुत चितित रहते थे। इस प्रसग मे उनकी योजना" मे भी बाबूजी की प्रेरणा पौर सहयोग से ही तत्परता और कार्य प्रणाली का एक उदाहरण मुझे स्मरण कलकत्ते मे लाखों रुपया एकत्र हुआ था। मा रहा है। बाबू छोटेलाल जी की लेखनी से भी इस विषय की कुछ समय पूर्व श्रवणबेलगोला की गोम्मटेश्वर सामग्री, प्रचुर मात्रा में समाज को प्राप्त हुई है। सर्वप्रतिमा पर कुछ लोना लगना प्रारम्भ हुमा । सैकड़ों वर्ष प्रथम १९२३ में "कलकत्ता जैन मूर्ति-यन्त्र सग्रह" नामक Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त १४ छोटा-सा संकलन उन्होंने प्रकाशित किया। बाद में तो खण्डगिरि उदयगिरि के उद्धारक छोटी छोटी पुस्तिकामों, स्फुट लेखो और शोष-निबन्धों पुरातत्व सम्बन्धी जो अनेकों कार्य, अनेकों स्थानों के द्वारा अपने अनुभव का निचोड़ उन्होंने समय समय पर पर उन्होंने किये हैं, वे यदि न भी कर पाते तो केवल समाज में वितरित किया। खण्डगिरि पर उनकी लेख खण्डगिरि उदयगिरि के प्रति किया गया उनका अकूत माला, बंगीय जैन पुरावृत्त, नोभाखाली का यात्रा वृतांत परिश्रम बाबू छोटेलाल जी की स्मृति दीर्घकाल तक हमारे जमिन गुफा-मन्दिर प्रादि अनेक निबन्धों में बहुत मन में बनाये रखने के लिए पर्याप्त था। यदि यह कहा उपयोगी सामग्री का संकलन हुमा है। जाय कि दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व की इन जैन गुफामो उनका यह लेखनकार्य भी सदा बिलकूल निस्पृह भौर को भारतीय पुरातत्व के नक्शे पर लाने का श्रेय उन्ही निरपेक्ष रहा है। स्फुट लेखों प्रादि के पारिश्रमिक स्वरूप को है तो भी यह कोई प्रत्युक्ति न होगी। अनेक पत्रोने उन्हें समय समय पर जो बैंक चैक भेजे उन्हें उन्होने खण्डगिरि उदयगिरि का दर्शन मर्व प्रथम बाबूजी ने सदा संग्रह किया, कभी भुनाया नही। उनके . १९१२ मे सेठ पदमराज जी रानी वालो के साथ किया । कागजों में ऐसे अनेक पुराने चैक मैंने देखे हैं। उम समय तक यह स्थान बिलकुल अप्रकट तथा प्रज्ञात - देश-विदेश के लेखका, विचारको मार सन्तान जन- था। सम्राट् खारवेल द्वारा निर्मित इन अनमोल जैन धर्म के विषय में कब, कहाँ, क्या कहा या लिखा है, गूफानों को अनेक प्रज्ञातनामा देवी देवताओं का प्रावास इसका महत्वपूर्ण संकलन करके 'जैन बिबलियोग्राफी' नाम बताकर जबरदस्त पण्डो-पूजारियों ने इन गुफामी पर ४५ में उन्होने प्रकाशित किया था। यह नि सन्देह अधिकार कर रखा था। इतना ही नही, वीतराग के इन ही उनके जीवन की एक बड़ी उपलब्धि थी। इस प्रन्थ मन्दिगे को नाना प्रकार के प्रनाचारो और अनैतिक व्याका दूसरा अप-टु-डेट सस्करण तैयार करने मे उन्होने । पारो का अड्डा बना रखा था। बाबू जी ने तत्कालीन जीवन के अन्तिम दस वर्षों मे अथक परिश्रम किया। इस । पुरातत्व-विशारदों, विशेषकर श्री टी० एन० रामचन्द्रन का अनमोल ग्रन्थ की पाण्डुलिपि प्रकाशन के लिये तैयार है। सहयोग प्राप्त कर खण्डगिरि का महत्वपूर्ण शिलालेख यथा शीघ्र यह ग्रन्थ पाठकों के हाथ मे पहुँच जावेगा पढ़वाया और इस स्थान की निविवाद तथा प्रामाणिक ऐसी प्राशा की जा सकती है। ऐतिहामिकता प्रकाशित को । श्री गमचन्द्रन की ही महादिगम्बर जैन वाङ्मय के अनुपम और अनमोल यता और प० श्रीलाल जी की सतर्कता से इन गुफाओं सिद्धान्त ग्रन्थों, धवला और जय-धवला की मूल प्रतियों पर जैन समाज का पूजाधिकार तथा पुरातत्व विभाग का के छायाचित्र तयार कराकर संग्रहालयो मे रवाने की अधिकार स्थापित हो सका। श्री रामचन्द्रन के ही सहउनकी उत्कट अभिलाषा थी जो अनेक कारणों से पूरी योग से इस स्थान की एक परिचय पुस्तिका (Guide नहीं होने पा रही थी। देवात् जब इस कार्य का सुयोग Book) भी बाबू जी ने तैयार की और उसे अपने 'वीर लगा तब वे अस्वस्थ थे और इतना श्रम करने के योग्य शासन संघ' में प्रकाशित किया। नही थे। परन्तु अपनी लगन के कारण, स्वास्थ्य की चिन्ता न करते हुए उन्होने अवसर का उपयोग करना बाद मे तो जैसे जैसे इस स्थान का महत्व लोगो की स्थिर किया । तत्काल दिल्ली जाकर पावश्यक उपकरणों समझ मे प्राता गया वैसे ही वैसे उसकी प्रसिद्धि बढ़ती और सहयोगियों की व्यवस्था करके वे सुदूर दक्षिण की गई; पर उसके प्रचार और सुरक्षा में बाबू जी का महत्व"सिद्धान्त-सति का' पहुँच गए। अपने सामने लगभग पूर्ण सहयोग सदा बना रहा। सन् १९२० मे बगाल, साढ़े छ: हजार पृष्ठों के ताडपत्रीय साहित्य के छाया विहार, उडीसा के तत्कालीन गवर्नर लार्ड सिन्हा को वे चित्र उन्होंने तयार कराये । ये दुर्लभ चित्र भी बेलगछिया खण्डगिरि लाने में सफल हुए । सन् १९४७ में भारत के के उनके संकलन मे प्रदर्शन हेतु रखे गए हैं। तत्कालीन वायसराय लार्ड माउण्ट बैटन की सपरिवार Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या नहीं? खण्डगिरि यात्रा में भी उनकी पर्याप्त प्रेरणा रही । देश- उसी वर्ष क्लकत्ते में इन्फ्लुएन्जा का भीषण प्रकोप रत्न डा. राजेन्द्र प्रसाद ने भी यहां की यात्रा की और हमा। इस मापत्काल में बाबूजी ने पीडितों के लिए फल पंडित जवाहरलाल नेहरू तो दो बार यहा पधारे । अन्य दूध, दवा, भोजन प्रादि उपलब्ध कराने की सराहनीय गण्य मान्य व्यक्ति भी समय-समय पर यहा पधारते रहे व्यवस्था की। १९४३ के बंगाल के भयानक दुभिक्ष में भी जिनके स्वागत और यात्रा व्यवस्था के लिए बाबू जी सदा बाबूजी ने प्रकाल प्रस्त क्षत्रों में घूम धूमकर विपन्न पौर तत्पर रहते । इस प्रकार प्रचार होते होते इस स्थान का बुभुक्षित मानवों की महत्वपूर्ण सेवा की। इसी प्रकार नाम देश के महत्वपूर्ण पुरातत्व स्थलों में बहुत शीघ्र १९४६/४७ मे नोमाखाली के ऐतिहासिक नर संहार के प्रा गया। समय पपने प्राणों की परवाह न करते हुए बाबूजी ने ___ निकट से देखने पर पता लगता है कि प्रचार और दंगाग्रस्त क्षेत्रों में घूम घूमकर रिलीफ केम्पों का संचालन प्रसार की उनकी प्रणाली बहुत वैज्ञानिक और इसी कारण किया। इसी समय गनी ट्रेडर्स एसोसिएशन द्वारा लाखों प्रभावक भी थी। मैंने उनके कागजो मे देखा है कि खण्ड- रुपयों की सहायता कराकर उसका नोपाखाली में सदुगिरि मे डाकघर खुलवाने का जो प्रस्ताव उन्होने विभा- पयोग किया । कलकत्ते के हिन्दू-मुस्लिम दंगों के समय गीय अधिकारियों को भेजा था वह कितना टिप-टाप और तो उन्हें हमेशा भेद-भाव से ऊपर, पीडित मानवता की विक था। भासपास के पचास साठ माल क्षत्र का सेवा में तत्पर देखा गया। गनी ट्रेडर्स एसोसिएशन के नक्शा तैयार कराकर उसमे वर्तमान डाक घरों की स्थिति, बडे-बडे पापारिक विवादों को सुलझाने में पाप अद्वितीय जनमख्या से उसका सम्बन्ध, सडको की सुविधा प्रादि प्रतिष्ठा वाले पच थे। प्रापका व्यक्तित्व इस क्षेत्र मे दिखाते हुए हर प्रकार से खण्डगिरि में नया डाक घर निर्मल दर्पण की तरह प्रभावकारी सिद्ध होता था और खोलने की उपयोगिता और प्रावश्यकता को सिद्ध किया अापके समक्ष वादी प्रतिवादी दोनों अद्भुत विश्वास के गया था। साथ अपनी सही स्थिति प्रकट कर देते थे पोर माप खण्डगिरि मे सम्राट् खारबेल के नाम पर एक लाखों नहीं, करोडो तक के विवाद बड़ी प्रासानी से धर्मार्थ प्रौषधालय खोलने की योजना, इस स्थान के लिए, निष्पक्षता पूर्वक निपटा देते थे । इस दिशा में जो सम्मान उनकी प्रतिम योजना थी। यह केवल प्रसग की बात है अापने अजित किया था वह माज तक कोई अन्य व्यक्ति कि २६ जनवरी १९६६ को प्रात काल जब कलकत्ते मे न कर सका । इसी कारण गनी ट्रेडर्स एसोसिएशन ने बाबू जी की प्ररथी सजाई जा रही थी ठीक उसी समय कलकत में अपनी परम्परा तोड़कर पापको मान पत्र खण्डगिरि मे इस प्रौपधालय का शुभारम्भ हो रहा था। समर्पित किया। बाबूजी को तो यह सम्मान एक बोझ इस प्रकार खण्डगिरि-उदयगिरि की सुरक्षा, प्रचार और ही था परन्तु गनी ट्रेडर्स एसोसिएशन स्वयं इस सम्मान प्रभावना के लिए जीवन के अन्तिम क्षणो तक आपने से सम्मानित हुआ। अथक प्रयास किये और अपनी अनेक योजनामो को अपने प्रयास किय ार अपना अनक याजनामा का अपन प्रास्थावान-श्रावक सामने सफल होते भी देखा । परम अहिंसामय जैनधर्म पर गहन और प्रचल जन-सेवक प्रास्था तो बाबूजी को विरासत मे ही मिली थी। सराजन-सेवा के जिस कठोर व्रत का पालन बाबू जी ने वगी शब्द ही श्रावक का अपभ्रंश है। आपके माता पिता पाजीवन किया उसकी साधना में उनके धीरज और धन धार्मिक प्रवृत्ति के सच्चे श्रावक थे । इस सुयोग के साथ का पर्याप्त उपयोग हमा। इसकी शुरुवात (१९१७) ही साथ जीवन की दो घटनामों ने भापकी विचारधारा मे तब हुई जब वे अपनी २१ वर्ष की अवस्था मे काग्रेस के को असाधारण रूप से उदार और परहितकारी बना दिया सक्रिय सदस्य बने तथा उन्होने कलकत्त में जैन राष्ट्रीय था। एक पोर जीवन में संतान के प्रभाव ने जहा आपको कान्फन्स का सफल प्रायोजन किया। "वसुधैव कुटुम्बकम्" का पाठ पढ़ाया वही दूसरी भोर Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त चवालीस वर्ष की मध्य प्रायु में ही सती साध्वी जीवन भी उनका र वहार मदा गहरी प्रात्मीयता से भरा और मंगिनी का वियोग प्रापके समक्ष संसार की क्षणभगुरता स्नेह पूर्ण रहा। मित्रों और गुणज्ञो के लिए तो उनके मन और एकत्व भावना का प्रतीक बनकर पा खड़ा हुआ। मे बडी ममता थी। बड़े और छोटे का व्यवधान भेंटकर साधारण मनुष्य को पागल बनाकर विचलित कर देने हम लोगों से भी वे ऐसा स्नेह पूर्ण व्यवहार करते थे कि वाले इस मर्मातक प्रसग का विवेकवान वाबू जी ने दूसरा जो कोई एक बार भी उनके सम्पर्क में पाया वह हमेशा ही उपयोग किया। उन्होंने इसे जीवन की सबसे बड़ी हमेशा के लिये उनका हो गया। चुनौती मानकर अपनी शेप प्रायु को सत्सग, साधुसेवा, समाज सेवा, शोध और साहित्य-साधना मे लगा देने का चिरसगी एक्जिमा की मौतक वेदना और दमा के नित्य प्रति के प्राक्रमग से भी वे कभी विचलित या अधीर दृढ निश्चय कर लिया। पत्नी के नाम पर पुप्कल द्रव्य का दान करके उसकी स्मृति को अमर बनाया और उसी नही हुए । एक सच्चे दार्शनिक की तरह रोग के हर क्षण से उस प्रकथ, अथक और मूक साधना में वे लीन उत्पाद को पूर्वोजित असाता कर्म का उदय-उपहार हो गये जिससे उन्हें विमुख करा सकने मे न रोग जन्य मानकर वे अत्यन्त समता पूर्वक भोगते रहे। उनकी सेवा पीडा कामयाब हुई, न बुढ़ापा ही सक्षम सिद्ध हुआ। मे रत भाई अमरचन्द जी ने मुझे उनकी मृत्यु के कुछ ही दिन पूर्व लिखा था कि "भीषण वेदना में भी उनके मुख केवल मृत्यु ही उनकी उस लगन को तोड़ पाई। से 'उफ' या 'पाह' नही निकलती तथा समता भाव उनका समाज उत्थान के लिए सदैव चितित बाबू छोटेलाल बगबर साथ दे रहा है। जी मन्दिरों, मूर्तियों और तीर्थ क्षेत्रों की व्यवस्था, सुरक्षा मृत्यु की कल्पना ने कभी उन्हें भयभीत या अधीर संचालन के लिये तो प्रहनिशि प्रहरी की तरह तत्पर, नहीं किया। बहुत पहिले से वे मृत्यु का स्वागत करने के सतर्क और सन्नद्ध रहते थे। हर तीर्थ क्षेत्र की प्राय हर लिए तैयार बैठे गुनगुनाया करते थेसमस्या का ज्ञान उन्हें रहता था। समाधान का यथा संभव उपाय भी वे करते थे। समस्या जब तक बनी रहती "जा मरने से जग इरं, मोरे मन प्रानन्द । तब तक उसकी चिंता भी उन्हें बराबर बनी रहती थी। मरने से हो पाइए, पूरण परमानन्द ॥" पूज्य श्री गणेशप्रसाद जी वर्णी महाराज के वे परम इस प्रकार मेरा अनुभव है कि स्वर्गीय वाबू जी अपने अनुरागी भक्त थे। उनके भाई श्री नन्दलाल जी पाज भी आप में एक बड़ी सस्था थे । बडे स्नेही पौर हितैपी मित्र व-स्मारक की योजना मे दत्त चित्त होकर लगे है। थे। उनके कार्यों का सही मूल्याकन तो सभवत. अगली वर्णी जी के अन्त समय मे बाबू छोटेलाल जी ने उनकी शताब्दी मे ही हो सकेगा, पर इतना अाज भी कहा जा सेवा-सम्हार जिस भक्ति-भाव-पर्वक, जैसी एकाग्रता से की सकता है कि शोध के क्षेत्र मे उन्होने अपने जीवन से जो है वह देखने वालों के लिए भी गुरुभक्ति का एक आदर्श प्रेरणा दी है वह पाने वाली पीढियो के लिए सीढियो उपस्थित करती है। का काम करेगी। प्राज उनकी पुण्य स्मृति में नत मस्तक म कवल यहा अनुभव कर रहा है किदानवीर धावक शिरोमणि साह शान्ति प्रसाद जी जानरूर जीवन मरण का प्रथ पर बाबू जी का बड़ा स्नेह रहा । बाबू जी के सत्परामर्प मे साह जी ने लाखो रुपयों का दान समाज हित के कार्यों क्षण नहीं खोये जिन्होंने व्यथ । कोति उनकी नष्ट करने हेतुमें किया। साहुजी के अन्तरग और निस्वार्थ हितकारी मार्ग दर्शकों में उनका स्थान प्रमुख था। कुटुम्ब के प्रति मत्यु बेचारौ रही असमर्थ ॥ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त FAMILM AmitaliSNELAIMERAMARPALGA कोतिस्तम्भ भरतकुण्ड पटवारी इस कीर्तिस्तम्भ में पट्टावली दीई है, और उसमें प्राचार्यों तथा भट्टारकों की मूर्तिया अंकित है। सन् १९५० में बाबु छोटेलालजी उस पट्टावली के सम्बन्ध में नोट ले रहे हैं। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त mmm. PRAVESH Jun SINESS .कृष्णास्वामी भवण बेत्गोल के मठ के प्रबर भट्रारकजी, बा.छोटेलाल जैन, और बी सुपरिन्टेन्डेन्ट पुरातत्व विभाग, दक्षिण क्षेत्र sax २ -- म A V pnacsien ipreet -year Apps NA Aarty E-Ne . AAAAAAmar श्रीकानजी स्वामी के अभिनन्दन के समय बोरसेवामन्दिर में लिए गये चित्र में बाबू छोटेलालजी जैन कानजी स्वामी के पीछे और श्री प्रेमचन्दजी के साथ खड़े हुए हैं। Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम बड़े, दर्शन सुखकारी अमरचन्द जैन कलकत्ते में जब वीरशासन जयन्ती महोत्सव मनाया झांकी का रसास्वादन ही करने चला पाया है। परन्तु गया था, तब मैं बनारस में अध्ययन करता था। एक बाबूजी का स्नेह और कृपा सब के लिए सदा उपलब्ध छात्र की हैसियत से इस महोत्सव में सम्मिलित होने का रहती थी। उनकी परिमित बातचीत और बीच-बीच में सौभाग्य मुझे प्राप्त हुना। इस महोत्सव में प्रत्यन्त एक संयत-सी मुस्कान से सुखी प्रादमी समझता कि बाबू साधारण सा दिखाई देने वाले एक पतले-दबले व्यक्ति को जी उसके ठहाकों का साथ दे रहे हैं और दुखी को लगता प्रायः हर समय, हर मोर्चे पर सक्रिय देखा। अद्भुत कि उसके घाव पर मरहम लगाया जा रहा है। हर घंटे कार्यक्षमता, अत्यन्त स्नेहिल विनम्र व्यवहार और सरल. पर कुछ न कुछ खाने पीने का, नाश्ते या फलाहार का तम व्यक्तित्व के स्वामी इस अपरिचित व्यक्निके लिए उमी प्रबन्ध रहता और जो इममें टाल-टूल करता उसे अपने समय मन मे श्रद्धा का अकुर फूट पाया जो शीघ्र ही एक हिस्से के साथ साथ एक मीठी डांट भी खानी पड़ती। हिस्स क साथ र बड़े वृक्ष के रूप में फैल गया। परिचय के प्रयास से ज्ञात दमे के कारण वे कुछ अधिक खाते-पीते नही थे इम इमा कि यही प्ररूपात समाजसेवी बाब बोरेलालजीका कारण शायद खाने से अधिक ग्रानन्द का अनुभव खिलाने मेरे पूज्य पिता प० जगन्मोहनलालजी पर बाबूजी का मकर लत थे। अत्यन्त स्नेह रहा । स्नेह की इस धारा ने छलक-छलककर बाबूजी के चले जाने से कलकत्ता समाज का एक मुझे भी सराबोर कर लिया और जब मैं कलकत्ते मे ही बडा स्तम्भ गिर गया। यद्यपि बहुत समय से वे व्यापार पहुँच गया तो पिछले दस वर्ष तक बाबूजी का बड़ा निकट से निवृत्त होकर समाज सेवा और साहित्य, इतिहास तथा सम्पर्क प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे मिला। पुरावृत्त की शोध मे ही मंलग्न रहते थे; पर कलकत्तं की 'सन्वेषु मैत्री" शायद उनका सबसे प्रिय प्रादर्श वाक्य व्यापारिक समाज मे भी पापको पद्वितीय सम्मान प्राप्त था। किसी भी देशी विदेशी विद्वान के प्रागमन की बात होता था। मापकी महानता का प्रमाण यही है कि करोड़ों जानकर उसका स्वागत, सत्कार और सहायता करने मे वे रुपयों के व्यापारिक विवादों में भी दोनों पक्ष पापको अग्रणी रहने थे। उनकी बैठक की महफिल सदा पावाद एकमेव पच बनाकर अपना निर्णय करा लेते थे। रहती थी और वहा इतिहास, पुरातत्व, साहित्य मादि बाबूजी स्वयं के प्रचार से सदा दूर रहे। कोई भी की चचो हमेशा चला करती थी। जब भी मैं बेलगछिया अमुविधा हो, चुपचाप स्वय सह लेगे पर दूसरे को उसका' जाता था सदैव उनके साथ किसी न किसी विद्वान को आभास तक न होने देंगे। यह मात्म गौपन उनका विशिष्ट बैठे देखता था । या तो किमी सामाजिक समस्या का गुण था । लाखों रुपयों का दान कर दिया पर कभी निराकरण हो रहा है, या इतिहास की कोई गुत्थी मुल. उमका उल्लेख भी पसन्द नही करते थे । दान को हमेशा भाई जा रही है। कोई विद्वान् प्रपनी किसी रचना का "परिग्रह के पाप का परिमार्जन" कहा करते थे। परिचय अथवा किसी नई स्थापना का औचित्य बखान उन्हें वर्णीजी महाराज पर अगाध श्रद्धा थी। वर्णीकर रहा है या फिर कोई जिज्ञासु स्नातक प्रश्नोतरों द्वारा स्मारक उनके अकेले की प्रबल प्रेरणा और अथक श्रम अपने शोध ग्रन्थ के लिए दिशा निर्देश ले रहा है। कभी का फल है । गहरी व्यस्तता में अपने पापको डुबाकर कोई अपनी पारिवारिक समस्या से उबरने के लिए सहा- रखना उनका लक्ष्य होता था तथा परचिता, परदुख यता प्राप्त कर रहा है या कोई उसके लिए भूमिका बाध कातरता और परोपकार उनका स्वभाव था। उनके रहा है। कोई अपने भाई या पुत्र के लिए नौकरी की चरणों मे विनम्र श्रद्धांजलि अर्पण करके मैं अपने पापको सिफारिश चाहता है और कोई हम लोगों की तरह इस गौरवान्वित अनुभव करता हूँ। Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनके मानवीय गुण प्रक्षय कुमार जैन " दुबले-पतले गेहुधा रंग, शुभ्र मलमल का कुर्ता, बारीक धोती, सिर पर काली टोपी और भांखों पर लगी ऐनक इस रूप का एक संभ्रान्त व्यक्ति माज से कोई १५ वर्ष पहले जब दिल्ली में हुई दिगम्बर जैन परिषद के कार्यकर्ताों की एक बैठक में प्राया तब साहू शान्ति प्रसादजी ने मुझसे परिचय कराते हुए कहा- "ये हैं बाबू छोटेलालजी, जिनके दिल में जैन वाङ्मय और जैन संस्कृति की धारा बहती है। पुरातत्व मे इनकी गहरी पैठ है। आप इनसे अब तक नहीं मिले हैं क्या ?" - नाम बाबू छोटेलालजी का अपने छुटपन से ही सुन रखा था। पिता जी के साथ समाज के सम्बन्ध मे उनका पत्र-व्यवहार होता था । उसे देखा था और पिताजी से उनके सम्बन्ध मे सुना भी। पर मेरे मन मे बाबू छोटे लाल जी का जो चित्र मा निश्चय ही यह इससे भिन्न था। मैं समझता था कि वे लम्बे-चौड़े, स्वस्थ पुरुष होगे । उनसे मिलकर एकाएक मुझे लगा "इतने विद्वान और यह वपु ।" --- इसके बाद बाबूजी का दिल्ली में काफी प्राना-जाना और रहना हुधा "बीरसेवामन्दिर" तथा "अनेकान्त" के सम्बन्ध मे जब भी मिलना हुआ तो वे समाज के विभिन्न मुद्दों पर बात करते थे। दमे के मरीज होते हुए भी सामाजिक कार्यों में उनकी इतनी रुचि थी कि प स्वास्थ्य के मूल्य पर भी वे सेवा कार्य करते थे । समाज के श्रीमानों में उनका स्थान था और श्रीमानों में उनकी बड़ी प्रतिष्ठा भी थी । दिसम्बर, १९६१ का वह समय में कभी नहीं भूल सकता जबकि दिल्ली में ही मेरे पूज्य पिताजी का अकस्मात् देहान्त हो गया था। घर में सबसे बड़ा होने के कारण मुझ पर उस यच प्रहार के बावजूद पर मे सबको धैर्य बँधाने का गुरुतर दायित्व श्रा पड़ा । उन दिनों घण्टों-घण्टों मेरे पास बैठकर बाबू छोटेलाल जी ढाढ़स दिया करते और नैतिक साहस बँधाते । बाबूजी को विचारपूर्ण बातों से मुझे सम्बल मिला और मैं अपना कर्तव्य निभाने में सफल हुआ। अत्यन्त निकट ग्रात्मीय की तरह दमे के रोगी होते हुए भी तीन मजिले मकान पर चढकर प्राते और काफी समय बैठे रहते । घर में सब लोगों को साग्रह भोजन यादि कराना तो उन्होने अपना कर्तव्य ही मान लिया था। सकट का हमारा वह समय उनकी सान्त्वना से निकल गया । इसके बाद भी जब-जब उनसे मिलना हुम्रा बुजुर्ग जैसी सलाह, मित्र जैसा परामर्श और भाई जैसा स्नेह ही प्राप्त होता रहा । हम लोग इस यत्न मे थ कि उनके सम्मान में एक अभिनन्दन ग्रन्थ सग्रह किया जाय किन्तु अब ऐसा लगता है कि अभिनन्दन ग्रथ "स्मृति ग्रथ" ही हो सकेगा । बाबु छोटेलालजी साहित्य धौर संस्कृति के किसने बडे ममेश मे यह बहुत कम लोग जानते होगे । यदि उन्होंने स्वयं साहित्य सृजन किया होता तो ग्राम देश के श्रेष्ठ साहित्यकारो मे उनका स्थान होता। दूसरे को आगे बढाना धौर वड़ों जैसा ग्राशीर्वाद का हाथ सदैव कधे पर रखना उनका स्वभाव था । वह अपने समाज मे ही नहीं अपितु भारतीय समाज में समादृत हुए और उनके मानवीय गुण वर्षों तक याद किये जाते रहेंगे। उनकी काया माज भले ही न हो किन्तु मानस पटल पर उनकी छाया अनन्त काल तक स्थापित रहेगी, यही मेरी बिनम्र बढांजलि है। श्रद्धांजलि Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूक सेवक प्रो० भागचन्द्र जैन पुरातत्ववेत्ता और मूक समाज तथा देश-सेवक बाबू एन्टमेन्ट दूसरी जगह था। इसीलिए बाबूजी से फिर छोटेलाल जी के सन्दर्भ में पूज्य वर्णी जी का १९६१ का मिलने का वचन लेकर लोट पड़ा। लौटा तो लौटा ही। ईसरी चातुर्मास मेरे लिए पविस्मरणीय रहेगा। ग्राश्रम फिर दुबारा भेंट नहीं हो सकी। का सुहावना वातावरण शान्त और निस्तब्ध तपोवन जैसा यह भेट थी तो अल्पकालिक, परन्तु उसने मुझे काफी था । वीसवीं शती के महान प्राध्यात्मिक सन्त बाबाजी से प्रभावित किया । बाबू जी की निश्छल, निःस्वार्थ व कर्मठ प्रेरणा पाने के लिए पाश्रम एक प्रबल सम्बल बन गया कार्यशीलता उनके प्रत्येक शब्द से फूट रही थी। और मैं था। चारो ओर से धर्मप्रेमी बन्धु इस सुन्दर समागम के उसमें उनके द्वारा किए गये सामाजिक व देशिक कार्यों लिए खिचे हुए से चले आते थे। मैं भी यह मब देखने को स्मरण के माध्यम से झांक रहा था। निःसन्देह उन्होंसुनने का लोभ सवरण न कर सका । उन दिनों में स्या- ने तन-मन-धन से समाज व देश की मूक-सेवा की, वह द्वाद महाविद्यालय वाराणसी में था। किसी भी स्थिति में भुलाई नही जा सकती। उनकी बाबूजी के नाम से परिचित होने की तो कोई बात प्रेरक और अनुकरणात्मक भावनाएँ तथा कार्य प्राज भी ही नही । परन्तु उनसे साक्षात्कार करने का प्रवसर ईसरी हमारे समक्ष वैसी ही स्थिति में मौन खड़े हैं और मे ही मिल पाया था। उनके पतले-छरहरे बदन पर धोती निमन्त्रण दे रहे हैं उन्हें समुचित ढंग से समझने का तथा कुर्ता तथा गौरवर्ण चेहरे पर कलकतिया टोपी बडी भली मागे बढाने का। लगती थी । इम वेष में इस महामना का प्रभावक और इधर सीलोन (श्री लंका) से वापिस पाये हुए मुझे कुछेक माह ही हुए थे। एक दिन नागपुर विश्वविद्यालय उदार-चिन्तक व्यक्तित्व स्पष्टत झलकता था और झलकता था उममे उनका समाज तथा धर्म की सेवा के । के पुस्तकालय मे अनेकान्त की एक प्रति हाथ में पा गई। प्रति कर्तव्यशीलता। देखा तो उसमे बाबूजी को अभिनन्दन ग्रन्थ भेंट करने की योजना का जिक्र था। साथ ही उनके सम्बन्ध में संस्मरणों मै देहली के प्रारकिलाजिकल स्कूल के विषय में जान- तथा जैनधर्म व दर्शन विषयक शोध निबन्धों का पाह्वान कारी प्राप्त करने के निमित्त बाबूजी से मिला था। इसी भी था। योजना पढ़कर तो अत्यन्त प्रसन्नता हुई, पर मन सिलमिले में बातचीत करते करते वे सामाजिक कर्तव्यों में उसी समय प्रतिक्रिया स्वरूप विचार पाया कि समाज की ओर इंगित करने लगे और कहने लगे कि हमारे नव- ने बाबूजी के स्वागत करने में इतनी देर क्यों की? प्रस्तु युवको को प्राचीनतम इस जैनधर्म का पुरातात्विक, मैंने योजना के सयोजक डा. कस्तूरचन्द जी कासलीवाल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक अव्ययन कर-कराकर उसे को लिखा और पूछा कि इस योजना के लिए काफी समय विश्वधर्म के रूप में जनता के समक्ष उपस्थित करना निकल चुका है। क्या अभी भी कोई संस्मरण, लेखादि चाहिए । दोनो नई और पुरानी पीढ़ी को इस उद्देश्य- स्वीकार किया जा सकता है। चन्द दिनों बाद ही उनका प्राप्ति के लिए कन्धे से कन्धा मिलाकर तन-मन-धन से उत्तर मिला कि अभिनन्दनीय व्यक्तित्व का भौतिक शरीर काम करना होगा । त्याग किये बिना कुछ भी होने-जाने काल-कवलित हो गया, कुछ समय पूर्व ही। यह दुखद का नहीं। समाचार जानकर मैं तो स्तब्ध-सा रह गया। लगा मानों बात कुछ देर तक चलती, परन्तु संयोगवशात् उसी समाज पर वजपात हो गया हो। है ही। काश ! समय उनके कुछ चिरपरिचित मित्र मा गये । मेरा भी 'यमस्य करुणा नास्ति' से वे बच निकलते । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त बाबूजी की समनी स्मृति को स्थायी बनाने के लिए की। हमारा अमूल्य जैन साहित्य प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी इस सन्दर्भ में समाज से मेरा एक निवेदन है। माज तथा माधुनिक अन्य प्रान्तीय भाषामों में निबद्ध पडा है समाज के पास उनके प्रति श्रद्धा-व्यक्त करने के लिए दो और आज भी शोधकों तथा उदारमना व्यक्तियों की पोर रूप हैं । उनका वह भली भांति उपयोग किया जा सकता दयनीय दृष्टि से निहार रहा है। इस दिशा मे हमारे है । प्राकृत और जैनधर्म के अध्ययन-अध्यापन के प्रति ममाज का कर्तव्य है कि वह आगे पाने वालों को उत्साछोटेलाल जी का जो ममत्व था उसे कार्यरूप में परिणत हित करें और पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा प्रादि जैसे अपेक्षाकिया जाना चाहिए। यही उनके लिये पुष्पार्पण होगा कत कम महत्वपूर्ण कार्यों में व्यय कम कर उक्त प्रवृत्तियो पौर होगी यथार्थ श्रद्धांजलि । को विकसित करने में सहयोग दे। इस दृष्टि से मेरे कुछ ऐसे अवसर पर यह एक विचारणीय तथ्य है कि मुझाव है। कितना अच्छा होगा यदि समाज उन पर देश के इतने विश्वविद्यालयों में प्राकृत पोर जैनधर्म की गहराई और उदारतापूर्वक विचार करे और जैनधर्म के शिक्षा-व्यवस्था कुछेक विश्वविद्यालयों में ही है। वहाँ भी प्रचार प्रस्तर कार्य मे पागे बढ़े। अपेक्षित साधनों के अभाव में एतद्विषयक अध्ययन की (१) प्राकृत और जैनधर्म का अध्ययन करने वाले प्रवृत्ति कुण्ठित-सी होती जा रही है। मैं स्वयं नागपूर स्नातकीय और स्नातकोत्तरीय छात्रों को अधिक-से-अधिक विश्वविद्यालय के पालि-प्राकृत विभाग में हूँ और इस छात्रवृत्तियाँ दी जाय । स्थिति से भली भांति परिचित हैं। छात्रों की सदैव कमी (२) दिल्ली, मद्रास, मैसूर, नागपुर, कलकत्ता, बनी रहती है। यदि कुछ छात्रवृत्तियाँ प्राकृत व जैनधर्म बम्बई जैसे प्रमुख नगरो मे जैन शोधपीठ सस्थान प्रस्थ. के अध्ययन के निमित्त हमारे श्रीमान देने को तैयार हो पित किये जाय । जावें तो इसमें कोई सन्देह नही कि विभाग पर्याप्त प्रगति इन शोधपीठ सस्थानों के तत्वावधान में अप्रकाशित कर सकता है। जैन ग्रन्थो का आधुनिक ढग से प्रकाशन और प्रकाशित दूसरी बात है-जैन साहित्य प्रकाशन व्यवस्था ग्रन्थों का पालोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया जाय । "सच्चा जैन" डा० दशरथ शर्मा मैं उन व्यक्तियों में से नहीं हूँ जो बाबू छोटेलाल जी जैन विलियोग्राफी'२ को सूत्र रूप में ग्रहण कर ही मैं से बदत प्रधिक सम्पर्क का दावा कर सकें । मैं तो केवल उस विषय पर कळ विशेष लिख सका है। उस वर्ग मे से है जिन्होंने उनके सौजन्य से अनेकश लाभ कर्मण्यता को मैं जैनधर्म की मुख्य विशेषता मानता उठाया है और जिन पर उनकी सदा कृपा दृष्टि रही है। है। मनुष्य के लिए सैद्धान्तिक ज्ञान ही पर्याप्त नहीं है। उनकी प्रात्मीयता की परिधि विशाल थी। सर्वथा अपरि. उसका आचरण भी तदनुकूल होना चाहिए। इस दृष्टि चित होने पर भी जब मैंने पाठवी से बारहवीं शती तक से मैंने बाबू जी को सदा मच्चा जैन पाया है। १९१७ के राजस्थानी दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के विषय में उनगे के इ फ्लुएन्जा के भीषण प्रकोप, १९४३ के बगाल के पूछताछ की तो उन्होंने सविस्तर उत्तर देने की कृपा भीषण अकाल और नोग्राखाली के साम्प्रदायिक, अत्याकी थी। इसी तरह जब कभी मैंने कोई प्रश्न किया तो । चार के दिनो मे जो व्यक्ति डटकर काम कर सका उसे बाबू जी ने मेरी जिज्ञासा की निवृत्ति की। कभी-कभी "सच्चा जैन" कौन न कहेगा? ऐसी प्रात्मा शतशः धन्य अपरोक्ष रूप में भी उनके ज्ञान से मैंने लाभ उठाया है। है। उसके लिए अन्ततः वह स्थान निश्चित -- राजस्थान का इतिहास लिखते समय में प्राथम-पतन की जत्थ ण जरा ण मच्चू ण वाहिणो व सम्बदुबखाई। स्थिति से परिचित हो चुका था । किन्तु बाबू जी की १. देखें 'राजस्थान प्रदी एजेज' खण्ड १, पृ०७२४ २. पाटग केशोराय पर टिप्पणी देखें। Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञान तपस्वी गुणिजनानुरागी रतनलाल कटारिया "जैन सन्देश" प्रादि पत्रों में प्रकाशित हमारे लेखों महान् प्रात्मा ने इस नश्वर देह का परित्याग कर दियासे प्रभावित हो बाबू छोटेलालजी ने हमें ता० २२-२-६२ एक ज्ञान-ज्योति इम लोकसे तिरोहित हो गई । श्रीसम्मेद के अपने एक पत्र में लिखा कि शिखरजी की यात्रा को जाने हुए जब हमने जयपुर में पं. "वीरसेवामन्दिर की कार्यकारिणी कमेटी में प्रवर चैनमुखदासजी से बाबू सा. के स्वर्ग-प्रयाण के 'अनेकान' का द्वैमासिक प्रकाशन और सम्पादकों मे पाप समाचार मुने तो बहुत ही सताप हुमा। यात्रा प्रारम्भ का भी नाम स्वीकृत हपा है अत. पाप 'अनेकान्त' के करते वक्त सोचा था कलकत्ता पहुँचने पर बार साहब से लिए लेख जटाने का प्रयत्न करे पौर स्वय भी लेख लिखे मिलेगे किन्तु वह सब स्वप्न हो गया। आपके पूज्य पिताजी का भी एक लेख अवश्य ही प्रयम उन विद्याप्रेमी गुणिजनानुरागी का स्मरण कर हमें अक मे रहना चाहिए उससे पत्र की प्रभावना होगी बरबम एक कवि का यह श्लोक याद माता हैमेरी ओर से सविनय निवेदन करें। उन जैसे प्रामाणिक, अद्य धाग निराधारा निरालबा सरस्वती। गम्भीर और मौलिक लेख बहुत ही कम देखने में पाते पडिता खडिताः सर्वे भोजराजे दिवगते ।। है, बडा भाग अध्ययन उन्होने किया है। 'अनेकान्त' मे (राजा भोज के दिवगत होते ही धारानगरी स्वामितो वमे ही लेख रहे तभी महत्व है।" हीन हो गई, सरस्वती पाश्रयहीन हो गई और पण्डित उनकी प्राज्ञा को स्वीकार कर हमने और पूज्य पिता मब खण्डित हो गये) जी मा० ने ४-५ लेख 'अनेकान्त' में लिखे उन सबसे बाबू सा० भी महानगरी कलकत्ता के माधुनिक भोज बाबू मा० बहुत ही प्रभावित हुए । इसके सिवा जैनसदेश ही थे। वे भी विद्वानो के परम सहायक थे और स्वयं शोधाक २० मे "जैनधर्म और हवन" शीर्षक पिताजी सा० विद्याप्रेमी तथा साहित्य रसिक थे एत्र साथ ही सुयोग्य के लेख से तो और भी अधिक प्राकृष्ट होकर बाबू मा. लेखक--'अनेकान्त' में प्रकाशित पुरातत्व सम्बन्धी उनके ने हमे बार बार लिखा कि लेख उनकी मूक्ष्मान्वेषण बुद्धि के परिचायक है इसी तरह "पापके और आपके पिताजी सा. के अब तक के 'महावीर जयन्ती स्मारिका' सन् ६२ में-प्रकाशित श्री प्रकाशित लेखो का संग्रह हम पुस्तकाकार रूप से प्रकाशित वत्स विह' शीर्षक सचित्र लेख तथा सन् ६३ को स्मारिका करना चाहते हैं पाप पुन. सम्पादन कर उन्हें बनारस में प्रकाशित 'छत्रत्रय' शीर्षक सवित्र ले स्वभी बड़ेही रोचक भेज दें,हमने कागज भेज दिया है।" और खोजपूर्ण है । लाखों रुपया उन्होने साहि य के उद्धार उनकी आज्ञा का हमने सहर्ष परिपालन किया, परि- और प्रकाशन मे एव विद्वानो की सहायता में व्यय किये णाम स्वरूप सन् ६५ के अन्त में 'जैन निबन्ध रत्नावली' थे एक तरह से उन्होने अपना सारा ही जीवन और धन के नाम से उन लेखों का ५०० पृष्ठों का प्रथम भाग छप सरस्वती के पुनीत चरणो में ही समर्पित कर दिया था कर तैयार हो गया- उन्हीं दिनों बाबू सा० गहरी रुग्णा- जैसे जौहरी रत्नों के परीक्षक होते हैं वैसे ही वे विद्वानों वस्था मे हो गए फिर भी उन्होने रोगशय्या पर पड़े-पड़े के पारखी थे-ता. २२-२-६२ के पत्र में उन्होंने लिखा ही 'रत्नावली' के लिए अपना प्रकाशकीय वक्तव्य लिख- थावाया और २६ जनवरी ६६ के प्रात.काल उन कर्मनिष्ठ 'अनेकान्त' के सम्पादक मण्डल में एक नाम डा. Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ अनेकान्त प्रेमसागर जी जैन M.A. Ph-D. का भी रखने का की इच्छा होती है पर उसके लिये द्रव्य चाहिए, समाज विचार है इन्होंने 'भक्ति काव्यों में जैनों की देन' विषयक को कार्य दिखाये बिना समाज से द्रव्य मिल नहीं सकता सुन्दर और खोजपूर्ण ग्रन्थ लिखा है। आजकल हिन्दी और है मैं भी अपना प्रभाव कहाँ तक डाल सकता हूँ-काम अपभ्रंश की मोर हिन्दी संसार का ध्यान विशेष माकृष्ट दिखा कर ही द्रव्य प्राप्त कर सकता हूँ-इस समय मंदिर हो रहा है प्रत. पावश्यक है कि प्रजैन हिन्दी विद्वानों में में केवल एक ही काम करवाना है, वह है-"जैन जैन साहित्य का प्रचार किया जाय इस कार्य के लिए मैं लक्षणावली" का । मैं चाहता था कि केवल इसका प्रथम समझता है प्रेमसागर जी उपयुक्त हैं स्वभाव भी अच्छा है, भाग स्वरभाग ही निकल जाय तो समाजपर इसकी उपपरिश्रमी है। बड़ौत दि. जैन कालेज में प्रोफेसर है।' योगिता प्रगट होगी और आगे के व्यंजन भाग के लिए पं० श्री जुगलकिशोर जी मुख्तार, डा. श्री ए. एन. सहायता मिल सकेगी। उपाध्ये जी, प० चैनसुखदासजी, ५० कैलाशचन्दजी, प. वर्तमान में लक्षणावली के प्रथम भाग का कार्य इतना जगम्मोहनलालजी, १० पन्नालालजी (साहित्याचार्य).५० ही है किफूलचन्दजी, प० वशीधरजी M. A. विद्वानों पर उन्हे (क) संकलित लक्षणों को मूल प्रतियों से मिलान काफी श्रद्धा थी। इन विद्वानों को अच्छा प्रामाणिक मानते करना । नये ग्रन्थ निकले है उनमें के लक्षणों को भी थे-हमारे पास प्रागत उनके पत्रों से यह जाहिर है। सम्मिलित करना। इसके सिवा उन पत्रों से उनकी माहित्य-सेवा की उत्कट (ख) विभिन्न शताब्दियों के लक्षणों को काल-क्रमालगन का भी पता चलता है, नीचे दो पत्रो से कुछ प्रश नुसार लगाना । इसके लिए सब प्रावश्यक दिगम्बर व उद्धृत किये जाते है श्वेताम्बर ग्रन्थों की समय-सूची बनी हुई है कही कुछ (१) ता. २२-२-६२ के पत्र मे उन्होने लिखा था मतभेद हो तो उसके कालक्रम को अपनी दि. मान्यताअनेकान्त को भली प्रकार चलाने के लिए एक-एक नुसार ही देना। विषय के एक-एक विद्वान् पर भार डालने से ही सुविधा (ग) प्रत्येक लक्षण का मूलानुगामी हिन्दी अनुहोगी और पत्र भली भाँति चल सकेगा। इसलिए अभी __वाद तैयार करना। दो एक विद्वान् अपने को और भी सम्पादक मण्डल में हाँ यह आवश्यक है कि जहाँ जहाँ लक्षणों में परिरखना होगा । जैसे पुरातत्व-इतिहास-कला के लिए एक ___ वर्तन हुए हैं उन पर व्याख्या होनी चाहिये-यह कार्य सम्पादक । साहित्य के लिये दूसरा सम्पादक । प्रारम्भ मे बहुत सोच-विचार, मनन और अध्ययन का है तथा वह बिना दो तीन विद्वानों के सम्पन्न होना कठिन है। जहां बहुत परिश्रम करना होगा कठिनाइयाँ भी होंगी पर दो चार प्रक निकल जाने के बाद सरल हो जायगा अभी तो जहाँ लक्षणों में परिवर्तन-परिवर्धन हुए है उन पर देश अनेकान्त को द्वैमासिक ही निकालना है जब पत्र चलने काल भाव के अनुसार विचार करना होगा इसके लिए जैन सिद्धान्त का भी काफी ज्ञान होना आवश्यक है इसलगेगा तो मासिक कर लिया जायेगा। किन्तु प्रथम अंक लिए अभी वैसे सम्पादन के कार्य को तब तक के लिए शीघ्र निकल जाना चाहिए ताकि वीर जयन्ती के समय स्थगित रखा गया है जब तक कि उपर्युक्त तीन कार्य ग्राहक बनाने में सुविधा हो। अर्थात् मूल प्रति से मिलान, नये लक्षणों का सम्मिलन, (२) ता. २१-३-६२ के पत्र में उन्होंने लिखा था काल-क्रमानुसार लक्षण-व्यवस्था और हिन्दी अनुवाद न "अब एक बात आपसे अपने हृदय की लिख रहा हो जाय। यह पूरा होने पर आपके पिताजी के पास है-पाप जानते हैं वीरसेवामन्दिर समाज की सस्था तयार प्रति भेजकर उनकी राय ली जायगी कि सम्पादन है, एक पैसे की भी प्राय नहीं है जो कुछ समाज से किससे करवाया जाय..." । मिलता है सब खर्च हो जाता है, दिन-दिन काम बढ़ाने इस सबसे स्पष्ट है कि बाबूजी सदा रोगी रहते हुए Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम तीच इच्छाएं भी सरस्वती की सेवा में कितने संलग्न रहते थे। पूर्ण कर दें तो बाबू सा. की कर्मनिष्ठ दिवंगत मारमा लनामावली के कार्य के लिए बाबूजी ने पं. दीपचन्द बहुत सन्तुष्ट हो और समाज भी उनकी प्राभारी होजी पाण्डचा को नियुक्त किया था किन्तु कुछ लक्षणों का इसके लिए मैं पण्डितवर्य वंशीधरजी शास्त्री एम. ए., हिन्दी अनुवादादि ही हो पाया और अब वह सब विशाल पं० जगन्मोहनलालजी के सुपुत्र श्री अमरचन्दजी कलकत्ता कार्य यों ही पड़ा है-अनेक विद्वानो ने पहिले भी वर्षों से प्रेरणा करता हूँ कि वे इस मोर अपना बहुमूल्य समय तक इस कार्य पर अलग अलग श्रम किया है। इस तरह प्रदान कर यशस्वी बन, साथ हो बाबू सा. के भाई मानमस्था का काफी रुपया इसमे लग चुका है किन्तु न जाने नीय नन्दलालजी सा० से भी निवेदन करता है कि वे भी किम मुहूर्त में इस कार्य का प्रारम्भ हुआ है कि यह कभी सब तरह से अपना पूर्ण सहयोग दें। पूरा ही नही हो पा रहा है । कोई माई के लाल इस कार्य अन्त में मैं कर्तव्यनिष्ठ, उदार-हृदय, जनसेवक, को पूर्ण सम्पन्न कर दे तो यह जैन साहित्य की बहुत बड़ी कर्मठनेता, महान् दानी, विद्वानों के परम सहायक, महान् सेवा होगी और विद्वद् समाज इसके लिए उनकी सदा इतिहासज्ञ, पुरातत्ववेत्ता, सरस्वती-उपासक, समाज-विभूति ऋणी रहेगी। महामना बाबू साथी छोटेलालजी के अनेक सद्गुणो से इसके सिवा बाबू सा. के ऐसे बहुत से महत्वपूर्ण प्रभावित हो उन्हे सादर श्रद्धाजलि समर्पण करता है और महान् धर्म-प्रभावक कार्य हैं जो अधूरे पड़े हुए हैं। अगर कामना करता हूँ कि उन महान् भारमा को सद्गति उनके श्रद्धालु प्रेमीजन और पारिवारिक-जन उन्हें मिलकर प्राप्त हो।* अन्तिम तीव्र इच्छाएँ डा०प्रेमसागर जैन बाबू छोटेलाल जी के साथ मेरा परिचय लम्बा नही प्रवाधगति में कोई बाधा नही पाई । स्नेह भीने और प्रेम है । मन् १९६१ के जून में, मैंने सर्वप्रथम उनके दर्शन रञ्जित वे पत्र मेरे लिए बहुत बड़े सम्बल है। उन पत्रों में वीर-मेबा-मन्दिर, दिल्ली में किये । तब से उनका जो सहस्रो बाते है। उनमें बावजी के स्वस्थ विचार हैं, स्नेह मिला, सतत बढता गया, जो विश्वास मिला, घनी. योजनाएं है, उनकी अपनी अभिलापाएँ और इच्छाएं हैं। भूत होता गया। सन् १९६२ की मई मे वे कलकत्ता चले दिवावसान के ८ दिन पूर्व लिम्वा उनका एक ऐसा पत्र गये । मुझे बुलाकर कहा कि ग्रीष्मावकाश मे तुम यहाँ जिसमे उन्होंने तीन तीव्र इच्छाएँ अभिव्यक्त की थीं। रहो और वीर-सेवा-मन्दिर के साहित्यिक काम तुम्हें करने इस सम्बन्ध में वे पहले भी अनेक बार लिख चुके थे। होगे, जो मैं करता है। वीर-सेवा-मन्दिर को तत्कालीन मैं समझता हूँ कि वे अवश्य ही सम्पन्न होनी चाहिए। परिस्थितियो में मैं उन कामों को कर सका, इसका पूरा मभी जानते है कि बाबूजी का एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ श्रेय बाबूजी को ही है। मैं उनका ऐसा कुछ Jain vibliography' सन् १९४५ में, भारती जैन परिनिजी विश्वास प्राप्त कर सका था । इसके षद्, कलकना से प्रकाशित हुमा था। गयल एशियाटिक अतिरिक्त कलकत्ता से बाबूजी का प्रत्येक पाठवे दिन पत्र सोसाइटी के सदस्यों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की। पाता था। ७ जुलाई १९६२ को मैं बड़ीत चला पाया। विदेशों में भी उसकी ख्याति फैली। इसी ग्रन्थ का दूसरा ग्रीष्मावकाश समाप्त हो चुका था। किन्तु उनके पत्रो की खण्ड बाबूजी ने तैयार किया था, किन्तु वह रफ पेपर्स Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २४ परा। यह सब कार्य उन्होंने नितांत अकेले किया था। १९६१ के जून में उन्होंने मुझ से वीर-सेवा मन्दिर को किसी क्लर्क की भी सहायता न ली। वे अपनी देख-रेख एक 'Research Institute' बनाने के सम्बन्ध मे बातें में उसे एक सुव्यवस्थित रूप देना चाहते थे। कोई अंग्रेजी की थी। मुझसे एक रूपरेखा तैयार करवाई थी। मैंने भाषा का ऐसा जानकार चाहिए था, जो बाबूजी का दिल्ली विश्वविद्यालय के कतिपय मूर्धन्य विद्वानों के लिखा पढ़ सकता और उनके आदेशानुसार कार्य कर परामर्श के साथ एक रूपरेखा बनाकर बाबूजी को दे दी सकता । उन्होने मुझे लिखा कि ऐसा आदमी तलाश थी। कुछ दिनो बाद बाबूजीने मुझे बताया कि वीर-सेवा करूं। १५०) रु. पर कोई व्यक्ति कलकत्ता जाकर रहने मन्दिर को पार्श्वनाथ विद्याश्रम-जैसा रूप दिया जा सकता को तैयार नही हुया। उधर उनका स्वास्थ्य निरन्तर है । धनाभाव के कारण पूर्ण रूपरेखा' न खप बिगड़ता गया। वे स्वय ध्यान भी न दे सके। उन्होंने पायेगी। यदि अब खप सके तो वीर-सेवा-मन्दिर एक अन्त में मुझे बेचैनी के साथ लिखा कि यह कार्य पूरा हो, ख्याति प्राप्त शोध सस्शन के रूप में शीघ्राति शीघ्र ऐसा मैं चाहता हूँ। कतिपय दिनो बाद उनके निधन का परिणत किया जा सकता है। किसी-न-किसी विश्वविद्यासमाचार मिला। लय से सम्बद्ध भी हो सकता है। विश्वविद्यालय जो शर्ते रखते है, वह वीर-सेवा-मन्दिर में पहले से ही हैं। यदि बाबुजी उसका कोई प्रबन्ध कर गये हो, तब , सम्बद्ध होने के पश्चात् उसे 'यूनीवर्सिटी ग्रान्ट्स कमीशन तो ठीक है, अन्यथा उनके भाई नन्दलाल जी उसके । प्रकाशन का प्रबन्ध अवश्य करे। बाबजी की प्रात्मा को से लाखों रुपया अनुदान के रूप मे मिल सकता है। यदि इससे शान्ति प्राप्त होगी। बाबजी ने मुझे विदेशी विद्वानो ऐसा हो सका तो स्वर्गीय बाबजी की प्रात्मा को शान्ति के वे पत्र दिखाये थे, जिनमें उन्होंने इस प्रथ के शीघ्र प्राप्त होगी। केवल किसी एक के कदम उठाने की मावप्रकाशित होने की प्रतीक्षा की थी। बाबूजी चाहते थे कि श्यकता है । श्रीमान साहजी बाब छोटेलालजी के अभिन्न विगत 'International oriental conference' के समय थे । यदि वे चाहे तो वीर-सेवा-मन्दिर को सहायता देकर यह प्रय प्रकाश में प्रा जाये। दिल्ली से कलकत्ता जाने मेरे उपर्युक्त सुझाव को पूरा कर सकते है। का उनका एक उद्देश्य यह भी था। जाते समय उन्होंने मुझसे कहा था कि वहा बैठकर मैं सबसे पहले 'Jain सभी को विदित है कि बाबू छोटेलाल जी भारतीय vibliography' का काम पूरा करूँगा। वे न कर सके, पुरातत्व के विशेषज्ञ थे। गुफा, चैत्य, मन्दिर, मूर्ति, स्वास्थ्य ने साथ नहीं दिया। हर इंसान की हर इच्छा स्तम्भ, शिलालेखों के सम्बन्ध में उनका ज्ञान अप्रतिम पूरी नहीं होती। उनका अधूरा यह महत्वपूर्ण कार्य, था। भारत के तीन प्रसिद्ध पुरातत्वज्ञ श्री टी० रामचन्द्रन, यदि अब भी पूरा हो सके, तो जैन साहित्य गौरवान्वित डा. शिवराम मूर्ति और डा. मोतीचन्द्र जैन उनके ही होगा। वीर-सेवा-मन्दिर इस कार्य को अपने कार ले तो वह बाबूजी के प्रति एक सही श्रद्धांजलि होगी। अनन्य भक्त थे। मैंने उन्हें पुरातात्विक समस्यामी के सन्दर्भ में बाबूजी से परामर्श करते देखा है। बाबूजीको जनकी दूसरी प्रबल इच्छा थी-वीर-सेवा-मन्दिर के भारत के जैन तीर्थ क्षेत्रो की ऐतिहासिक और पुरातात्विक काम को ठीक करने को। वीर-सेवा-मन्दिर उन्हें अपने जानकारी की थी। यह केवल प्राचीन जैन ग्रन्थो पर जीवन से भी अधिक ग्यारा था। कुछ उलझने थी, कुछ प्राधत नहीं थी, अपितु उन्होने स्वयं यात्राएं की थी, और विवशताएं थी, उन्हे बेचन किये रहती थीं। किन्तु इधर तीयों के प्रत्येक पुरातात्विक स्थल के चित्र लिये थे, फिर वर्ष-दो वर्ष मे परिस्थितियां तेजी से बदली थी। अब इनका टेक्नीकल ज्ञान के आधार पर अध्ययन किया था। उन्हें पूर्ण विश्वास हो गया था कि यदि वे एक बार प्रतः उनकी यह जानकारी जितनी प्रामाणिक थी उतनी दिल्ली पा सकें तो सब कुछ ठीक हो जायगा। सन् ही गौरवपूर्ण भी। यदि वह एक अन्यके रूपमें संजोयी जा Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्तिम तीव्र इच्छाएं पाती तो न जाने कितने देशी-विदेशी इतिहासकों की ग्रहम्मन्यता धूल धूसरित हो जाती । निःसन्देह उनकी यह देन मौलिक होती धौर भारतीय इतिहास मे नये प्रध्यायों का सृजन करती । । उनके संगृहीत चित्रों निगेटिव्स नोट्स आदि की प्रदर्शिनी की बात भाई नीरज जैन ने की है । बाबुजी के जीवनकाल में ही यह कार्य कलकत्ता के बेलगडिया मन्दिर मे प्रारम्भ हो गया था। समूचे भारत मे हो, यह मैं भी चाहता हूँ । किन्तु प्रदर्शिनी एक प्रचार का माध्यम हो सकती है, उसे हम ठोस जमीन पर मजबूत कदम नहीं कह सकते । एक बार बाबूजी ने इस सम्बन्ध मे मुझे लिखा था कि "इस सामग्री के आवार पर ग्रंथ लिखने का विचार था किन्तु मन तबियत ही ठीक नहीं रहती। क्या किया जाये।" सामग्री इतनी अधिक है कि उस आधार पर एक दो नहीं चार ग्रथ तैयार हो सकते है । किन्तु मुझे जंन समाज मे ऐसे मनस्वी, लगनशील युवा विद्वानों का प्रभाव दिखाई देता है । कोई ठोस काम नहीं करना चाहता । सब हलके-फुलके कार्यों के द्वारा स्पाति के उत्तुगशिखर पर बैठने के अभिलाषी है। जरा सी० पी-एच० डी० ले लो तो अपने को विद्वानो का शिरमौर समझने लगे। मेरी दृष्टि मे पी एच० डी० शोध का प्रारम्भ है अन्त नही । ऐसे-ऐसे जैन ग्रंथ और जैन विषय अधूरे पड़े है, जिन पर जैन युवा विद्वानों को खप जाना होगा। यदि वे चाहते हैं कि जैनधर्म, साहित्य दर्शन और इतिहास आदि के सम्बन्ध मे व्याप्त भ्रान्त धारणाओं का पुष्ट आधार पर निराकरण हो, तो उन्हें अपना जीवन देना होगा। इससे यह विदित हो सकेगा कि भारत राष्ट्र । को जैनों को देन कितनी अमूल्य है । बा० छोटेलाल जी के समूचे कार्य ठोस थे। उनकी विद्वत्ता ठोस थी। उनकी लगनशीलता ठोस आधार पर टिकी थी। उनके द्वारा सगृहीत जैन तीर्थों की सामग्री भी ठोस है क्या कोई इतिहास और पुरातत्व से सम्बन्धित विद्वान इस कार्य में सलग्न हो सकेगा। उसे समूचे भारतीय इतिहास पर पुरातत्व का अध्ययन करना होगा। उसे परिप्रेक्ष्य में जैन इतिहास के इस पहलू के मौलिदान का मूल्यांक जब । , २५ किया जायेगा, दो इतिहास के अनुसन्धित्यु तक अपने हो देश के एक गरिमामय दृश्य को देख प्रातितो होंगे ही, प्रसन्नता भी कम न मिलेगी। कभी न सुनी थी। 1 इसी सन्दर्भ में शिखरजी का उल्लेख अप्रासंगिक न होगा। बाबू छोटेलाल जी ने इस तीर्थ की अनेक बार यात्रा की, कभी धार्मिक दृष्टि से धीर कभी अध्ययन की हौस और सूक्ष्मान्वेषण की ललक लेकर एक बार बीरसेवा मन्दिर मे बाबू जी ने मुझे शिखर जी के विषय मे बताना प्रारम्भ किया तो प्राध घंटे तक लगातार बोलते रहे, और यदि लांसी का दौरा न पड़ता तो शायद प्राथ घण्टा हो और बोल सकते थे। मैं जैसे कोई कहानी सुन रहा हूँ। ऐसी कहानी जो सत्य की नीव पर खड़ी हो और अनुभूतियों में सजी हो। मैंने सुनाने वाला गद्गद् था और सुनने वाला भी बिना सच्चे ज्ञान के ऐसा नहीं हो पाता। विगत महीनों मे शिखर जी को लेकर जो दुखद घटनाएँ पटित हुई, उनसे उन तथाकथित प्रयासों पर जबरदस्त प्राघात पहुँचा ओ दिगम्बर और श्वेताम्बर एकता के सन्दर्भ में रखे जा रहे थे। इससे बाबू छोटेलाल जी का मानस प्रपीड़ित हो उठा । उनकी यह पीड़ा समूचे दिगम्बर समाज की वेदना थी । न जाने कब नियति के किस दुदंसनीय प्रहार सं अध्यात्म का पुरातन और सजग प्रहरी दो भागों में फट गया था। आज तक कोई ऐसी दिव्यशक्ति उत्पन्न नही हुई जो इन्हें जोड़ पाती। जब जब प्रयत्न हुए हैं, कुछ-नकुछ अवरोधों ने उन्हे अवरुद्ध कर दिया है। काश ऐसा हो पाता अन्तिम दिनो में बा० छोटेलाल जी का । मस्तिष्क इस दिशा में तीव्र गति से दौड़ उठा था। उनकी भावनाए निर्मल थी, उनके विचार सुलझे हुए थे । । वीर-सेवा-मन्दिर की भांति ही धनेकान्त भी उन्हें अत्यधिक प्रिय था एक लम्बे व्यवधान के उपरान्त उन्होंने सन् १९६२ में अनेकान्त के पुनः संचालन और प्रकारे का बीड़ा उठाया। उस समय उनका शरीर भले ही जज हो गया हो, किन्तु मन पहले जैसा ही मजबूत और पक्का विचार था कि दर्द था। कुछ लोगों का Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त भावजीने पत्र के प्रारम्भ में जिस अदम्य उत्साह और सज्जा, रूप रेखा, कागज, छपाई, प्रफ रीडिंग मादि ऊँचे लमनका परिचय दिया, वह माज के युवामों की शक्ति दर्जे के हों। उसके संचालन के लिए समुचित स्टाफ हो। को एक चुनौती है। भर्य का प्रबन्ध, सामग्री का संकलन, यदि कभी विचार का अवसर मिला तो अपने पूर्ण सुझाव सम्पादन, प्रकाशन, प्रूफ-रीडिंग और यथास्थान भेजना और उनके साथ बा. छोटेलाल जी का स्वीकृति पत्र मादि । उन्होंने कुछ स्थायी प्राहक बनाये। एक या दो प्रस्तुत कर सकूँगा। वैसे इस समय अनेकांत को विद्वानों अंक उपरान्त मुझे बुलाया और अनेकान्त का कार्यभार का जैसा सहयोग मिलता रहा है, मिलता रहेगा, ऐसा सौंप दियो । सब कुछ समझा दिया। उनकी पकड़ पैनी मुझे विश्वास है । प्राज प्रत्येक शोध पत्रिका के मार्ग में थी विदत्ता के क्षेत्र में सूक्ष्म पेठ थी। सम्पादन करते आर्थिक बाधा सब से बड़ी है। उसके ग्राहक गिने-चुने समय बड़े-बड़े विद्वानों की कमियाँ देख लेना, समीक्षा होते हैं । दु.ख तो इस बात का है कि जो उसमें रुचि करना, टिप्पण लगाना मादि सब कुछ वे गम्भीर विवेचन रखते हैं, वे भी उसे खरीदना नहीं चाहते। यह एक रोग मौर विचार के उपरान्त ही करते थे। उन्होंने समय-समय है, जो जैन समाज में ही नही, भारतीय जनमानस में पर मुझे ममूल्य सम्मतिया दी, जिनसे अनेकांत उनके बिना व्याप्त है। क्या यह सच नही कि इंगलैण्ड का कोई व्यक्ति सका पौर चल रहा है। विद्ववर्ग और भारतीय एक-दूसरे से उधार मांगकर अखबार नहीं पढ़ता, जबकि विश्वविद्यालयों के शोष विभागों में इसकी मान्यता है। भारत का धनी व्यक्ति भी अखबार मे पैसा खर्च करना अपव्यय मानता है। इससे प्रमाणित है कि भारतराष्ट्र का फिर भी बाबूजी इससे सन्तुष्ट नहीं थे। वे इसे एक बुद्धि जीवी अभी उस स्वस्थ स्तर तक नहीं पहुँच सका प्रत्युत्तम शोष पत्रिका के रूप में देखना चाहते थे। मैंने है, जहाँ तक उसे पहुँचना चाहिए। शोध और शोध उन्हें कुछ सुझाव दिये थे, जिनसे वे पूर्णत: सहमत थे। पत्रो मे रुचि लेने वालो को यदि हम ऊँचे दर्जे का बुद्धि उन्होंने वीर-सेवा-मन्दिर के तत्कालीन मन्त्री बा. जय जीवी मानें तो अनुपयुक्त न होगा। किन्तु वे शोध-पत्रो भगवान जी को लिखा भी था कि डा. प्रेमसागर के साथ के ग्राहक नहीं बनना चाहते । यह खेद का विषय है। विचार-विमर्श कर अनेकांत को एक श्रेष्ठ पत्रिका का रूप प्रत धन एक समस्या है जो इन शोध-पत्रो के साथ जकड़ी दें। उसी समयके लगभग बा. जयभगवानजीके दिवावमान हुई है। बा० छोटेलाल जी उसे अपने ढग से सुलझा लेते से कार्य सम्पन्न न हो सका। फिर बाबूजी स्वयं दिल्ली थे। अब कोई उस ढग को अपनाकर सुलझाले. मुझे माने की बात लिखते रहे। दिल्ली प्राने की उनकी तीव्र विश्वास नहीं होता। अब भी अनेकात के स्थायी ग्राहकों अभिलाषा थी। इस बीच, काल का निमंत्रण मा पहुँचा। में श्रद्धालुप्रो की संख्या ही अधिक है। अत: अब मुझे मैं चाहता हूँ कि भनेकांत त्रैमासिक शोष पत्रिका हो, सोचना पड़ता है कि अनेकांत जिस रूप मे चल रहा है, जिसमें कम-से-कम २० फर्मे का मेटर रहे । उसकी साज- चलता रहे, वह भी एक बहुत बड़ी बात होगी।* प्रसंग की बात कलकतंकी मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी अस्पताल में, अपनी दिवंगता धर्मपत्नी स्व. मंगाबाई की स्मृति में, एक का निर्माण हेतु बाबूछोटेलाल जी ने ७-८-१९४१ को पांच हजार रुपए की राशि प्रदान की थी। पच्चीस वर्ष उपरान्त उसी अस्पताल के एक कक्ष में बाबूजी ने अन्तिम सांस ली। -नीरजन Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व भवरलाल नाहटा बाबू छोटेलालजी कलकत्ते के जैन समाज में एक स्थित हो जाते। हमें जब कभी एशियाटिक सोसायटी से विशिष्ट कार्यकर्ता थे। नवीन और पुराने विचारों का पाण्डुलिपि या फोटो लेने की प्रावश्यकता होती तो पापको सम्मिलन होने के कारण वृद्ध और युवक सभी व्यक्तियों कहते ही स्वयं माकर या पत्र द्वारा वह कार्य तुरन्त से प्रापका मेल-जोल था। समन्वय और संगठन प्रेमी होने करवा देते थे। के साथ साथ विचार और दूरदशित्व के कारण सब जैन समाज में एकता और संगठन के पक्षपाती होने लोगों में आपका पादर था। मैं लगभग पचीस तीस वर्षों के नाते वे श्वेतामार, दिगम्बर प्राविभेद भावों से ऊपर से उनके सम्पर्क में माता रहा हैं। वे न केवल जैनधर्म उठे रहते और सबसे अपनत्व का व्यवहार रखते थे। पौर समाज के कार्यों में ही रुचि रखते थे, सार्वजनिक जैन सभा के प्राप समापनि भी रहे और सभी जैन कार्यों में भी वे बरावर सेवाएं देते रहते थे। सभा सोसा सम्प्रदामों को एक प्लेटफार्म पर देखकर आप सुखका इटियों में जाते प्रात, एशियाटिक सोसाइटी के सदस्य अनुभव करते थे। श्री पूरणचन्द्रजी नाहर, बहादुरसिंहमी बहुत पहले से थे। कलकत्ता के हैसियन और गनी बेग्ज सिंधी, मोतीचन्दजी नरवत, रायकुमारसिंहनी मुकीम, ऐसोसिएशन के माप वर्षों तक अध्यक्षादि पदों पर रहे लक्ष्मीचन्दजी सेठ, गणेशकान्तजी नाहटा, रूपचन्दनी बढेर एव नाना प्रकार के झमेले पड़ जाने पर प्रापको पंच मुकर्रर किया जाता और उन मामलों को बड़ी सूझ-बूझ विजयसिंहजी नाहर प्रादि श्वेताम्बर समाज के सभी से निपटा देते थे। नेतामों-व्यक्तियों के साथ मापका पात्मीय सम्बन्ध था। बहुत वर्ष पूर्व जब इन्स्टीटयूट हाल में महावीर जयन्ती जैनधर्म के प्रचार की आपके हृदय मे बड़ी तमन्ना का सम्मिलित समारोह मनाया गया तब बहादुरसिंह जी थी। पुरातत्व का उन्हें जबर्दस्त शौक था । दक्षिण भारत सिंधी प्रादि के साथ प्रापका भा पूर्ण सहयोग था। वीर मे बिखरे हुए जैन अवशेषों का मापने बारीकी से अध्ययन शासन जयन्ती के अवसर पर प्रापने जैन साहित्योबार के किया था। ऊन, खण्डगिरि-उदयगिरि प्रादि विस्मृत लिए प्रयत्न करके एक बड़ा फरकायम किया जिसमें सवं स्थानों को प्रकाश में लाकर तीर्थरूप देने में आपका प्रबल प्रथम एकमुश्त बड़ी रकम देकर मापने 'चैरिटी फोमहोम' हाय था। जैनधर्म के सम्बन्ध में कोई भी विद्वान् कुछ की कहावत चरितार्थ की थी। जानना चाहता तो सर्वप्रथम वह आपके सम्पर्क मे पाता। बहुत से बगाली और विदेशी विद्वान् अापके यहाँ सतत जैन पुरातत्व का उन्हें इतना शौक था कि कहीं कोई प्राया करते थे। पुरातत्व-विभाग मे भापका बहुत प्रभाव पुरातत्वावशेषों की बात सुनते तो उसकी विशेष शोय था और सेण्ट्रल और बगाल के अधिकारी वर्ग से मापका करने के लिए प्रयत्नशील हो जाते। पासाम के पुरातत्व घनिष्ठ सम्बन्ध था। उनके यहाँ जाने पर अक्सर किसी सम्बन्धी बात चलने पर मैंने तत्रस्थ गवालपाड़ा जिले के न किसी विद्वान् से साक्षात्कार हो ही जाता था। जिज्ञासु सूर्य पहाड़ की जैन मूर्तियों की सूचना दी तो उनके दर्शन विद्वान् को आवश्यक जानकारी देने के लिए वे उसे उप- के लिए प्रति उत्सुक हो गये । कई बार उन्होंने मुझे वहाँ युक्त व्यक्ति से मिला देते एवं अपेक्षित साहित्य प्रस्तुत का फोटो लाने के लिए कहा। मैंने दो तीन बार फोटो कर दिया करते थे। कभी किसी विषय में आवश्यकता करवाये भी, पर वह स्थान जंगल, पहाड़ों के बीच था होने पर टेलीफोन द्वारा या स्वयं ही गद्दी में माकर उप- एवं गुफा में अन्धकार के कारण पोश लाइट के प्रभाव में Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ठीक से फोटो न मा सका । मैंने २५ वर्ष पूर्व वहाँ के मैंने उन्हें लेख लिखकर दिया जिसे उन्होने सचित्र प्रकाशसम्बन्ध में एक लेख 'जैन सत्य प्रकाश' में प्रकाशित किया नार्य मम्भवतः अनेकान्त मे भेज दिया । था । उस लेख की जानकारी मिलने पर उन्होंने स्वयं वर्तमान में उच्चकोटि के जैन सन्त योगिराज श्री प्रासाम जाकर फोटो लाने की इच्छा प्रकट की, ताकि महजानन्दघन जी महाराज के खण्डगिरि चातुर्मास कर पुरातत्व विभाग को उस विषय में विशेष प्रकाश डालने कलकत्ता पधारने पर उनके सम्पर्क में आकर बाबू के लिए अनुरोध किया जा सके। छोटेलाल जी बहुत प्रभावित हुए। तीन चार दिन बेलबाब छोटेलालजी हिस्ट्री कान्फ्रेंस में भाग लिया गछिया विराजने पर उन्होंने महाराज श्री की दिनचर्या करते थे। तीन चार वर्ष पूर्व जब गौहाटी में अधिवेशन का बारीकी से अध्ययन किया और पूज्य सहजानन्दघनजी हमा तो उन्होंने मुझे कहा कि मैं गोहाटी से प्रापके वहां को सम्प्रदायातीत प्रात्मार्थी महापुरुष ज्ञात कर अक्सर वे गवालपाडा जाऊँगा प्रतः वहां से सूर्यपहाड़ जाकर जैन उनकी दो तीन विशेषतानों की प्रशंसा करते रहते थे। प्रतिमानों व अभिलेखादि के फोटो लाने की व्यवस्था वे कहते पाजकल वनवासी मुनिवृन्द भी शहरों की ओर ने के लिए माप अपनी दुकान वाला का लिख द। प्राकष्ट हो रहे हैं और ये महात्मन् शहरों से दूर गिरि मैंने तुरन्त उनके साथ पत्र दे दिया एवं गवालपाड़ा दुकान में TEAT GRE के मुनीम को भी उनके वहाँ पधारने पर सारी व्यवस्था में रस लोलुपता का सर्वथा प्रभाव केवल दूध मौर केले माप से कर देने का निर्देश कर दिया। गोहाटी का प्राहार कर ठाम-चौविहार कर लेना अर्थात् उसी अधिवेशन शेष होने पर जब उन्होंने सूर्यपहाड़ के पुरातत्व समय पानी लेकर चारों पाहार का त्याग कर देना। की खोज में गवालपाड़ा जाने का विचार प्रकट किया तो अवस्थिति में निर्दोष स्थंडिल भूमि के प्रभाव में दूध का किसी ने कह दिया कि सूर्यपहाड़ के लिये गवालपाडा तक भी लेना बन्द । सर्वाधिक विशेषता प्रखण्ड प्रात्म-जागृति न जाकर रास्ते से ही परबारा वहां जा सकते हैं। वे की देखी गई जो साधारण व्यक्ति के रूपाल में प्राने की टैक्सी भाडे करके सीधे सूर्यपहाड़ जा भी पहुंचे किन्तु वहाँ वस्तु नही थी । श्वेताम्बर-दिगम्बर समाज की एकता मे पर जानकारी के अभाव में घूम फिर कर जिन प्रतिमामों। ऐसे महापुरुप को नितान्त आवश्यकता है, ऐमा छोटेलाल का दर्शन किये बिना ही लौटकर गौहाटी चले गये । व्यथं , जी कहा करते थे। में सौ रुपये टेक्सी भाड़े के लग गए और दो सौ मील की। कलकता जैन श्वे. पचायती मन्दिर की प्रतिष्टा को लम्बी यात्रा की परेशानी भी उठाना पड़ा। उधर १५० वर्ष पूर्ण हो जाने पर माद्ध-शताब्दी महोत्सव का गवालपाड़े वाले उनकी प्रतीक्षा ही करते रह गये। , प्रायोजन किया गया जिसे सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए और कलकत्ता माने पर उन्होंने मुझे कहा कि दूसरे की सलाह कहा कि मैं थोड़ा भी स्वस्थ-याने योग्य हो गया तो वहां मानकर चलने से मैं सूर्यपहाड़ को जैन गुफा को भी न अवश्य उपस्थित होकर उत्सव में सक्रिय भाग लूंगा। मैने खोज मका और गवालपाड़ा के पार्श्वनाथ जिनालय के उनमे मन्दिर जी के स्मारक-ग्रन्थ में योगदान करने के दर्शनों से भी वंचित रह गया । अब की बार प्राप प्रासाम लिये कहा तो उन्होंने वेलगछिया मन्दिर का ब्लाक तथा जाने पर वहा के फोटो लाना न भूले। बगाल का गुप्तकालीन ताम्रशामन नामक अपना लेख और गत वर्ष जब मैं करीमगंज मे जिनालय की नीव देने नाक तो दिया हो, साथ ही साथ श्री दुलीचन्द जैन, के लिए पासाम गया तो लौटते समय भाई हजारीमल मुगावली (जो उस समय अमेरिका में थे) का 'जैन बांठिया के साथ गवालपाड़ा गया और फोटोग्राफर की सिद्धान्त मे पुद्गल द्रव्य और परमाणु सिद्धान्त' लेख भी व्यवस्था करके वहां के फोटो लाया और उन्हें दे दिया। तत्काल दे दिया। 'स्मृति ग्रन्थ' प्रकाशित हो जाने पर वे उन्होंने वहां के सम्बन्ध में एक लेख लिख देने का अनु- आगन्तुक सज्जनो को दिखाते । उन्होने उम प्रथ को मंगा रोध किया और बार-बार उसके लिए तकाजा करने लगे। कर कई लोगों को अपनी ओर से भेट भी किया। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्तित्व के बनी २६ मैं महीने में एक दो बार उनकी रुग्णावस्था के समय रूप में निकालने की निश्चित योजना बना चुके थे, पर जाकर मिल पाता था। दमे मादि की शिकायत और स्वर्गवास हो जाने से वे यह कार्य सम्पन्न नहीं करवा सके। कमजोरी के बावजूद भी वार्तालाप के लिए घंटे दो घंटे जैन बिग्लियोग्राफी का नवीन संस्करण तैयार करने के बैठा ही लेते । उनका वात्सल्य तो इतना था कि भोजन लिए वे बडे बेचैन थे पर उपयुक्त व्यक्ति के प्रभाव में वह किया हुमा रहने पर भी कुछ न कुछ तो लेना ही पड़ता। कार्य नहीं करवा सके। एक दो भादमी को काम में वे शरीर को नाशवान मानते थे अत: वेदनीय कर्म उन्हे जटाया भी पर योग्य सहकारी के प्रभाव से यह कार्य पूरा पगम्न न कर सका। मात्तं-रौद्र ध्यान को वे पास में ही न कर सके । एशियाटिक सोसायटी से तो पापका सम्पर्क न फटकने देते और शान्तिपूर्वक अपनी प्रात्मा का ही था ही, फिर भी कोई नवीन अन्य प्रकाशित होता तो वे ख्याल रखते थे। उसे मंगवा लेते। इस प्रकार उनकी बैठक मे पुस्तकों से काकाजी अगरचन्द जी को वे बराबर पत्र देते रहते अलमारियां भरी रहनी थी। अपने यहा तरतीबवार और मेरे द्वारा भी समाचार लिखाते रहते थे। उनके पेटियों में बन्द सामग्री का समुचित उपयोग वे अपनी कलकत्ता पाने पर दो चार बार मुलाकात करना तो अस्वस्थता और योग्य सहकारी के प्रभाव में न कर सके मनिवार्य ही था। वे उनके लेखों व शोधकार्यों से बड़े जिसका पूरा उपयोग करके जैन समाज को उनकी अक्षुण्ण प्रभावित थे । वे उनके लेखों का उपयोगी संग्रह अन्य स्मृति कायम करनी चाहिए। व्यक्तित्व के धनी यशपाल जैन बा० छोटेलाल जी से पहली बार कब मिलना हुमा, परिश्रमशीलता मे उन्हे मागे बढाया । उनमे प्रतिभा थी इसका पाज ठीक-ठीक - ध्यान नहीं है। लेकिन इतना और उनकी पैनी प्राख धर्म, इतिहास, पुरातत्व प्रादि नये. स्मरण है कि सन् १९४० के पास-पास जब पूज्य महात्मा नये क्षेत्र खोजती रहती थी। उत्कल के मुविख्यात पुराभगवानदीन जी, श्रद्धेय मामाजी (श्री जैनेन्द्र कुमार जी) तत्व-केन्द्र उदयगिरि-खण्डगिरि को प्रकाश में लाने का तथा मैं पर्वृषणपर्व के अवसर पर कलकत्ता गये थे तो श्रेय मुख्यत उन्ही को है, दासीन पाश्रम मे वर्णीजी का वहा उनसे मिलने और बातचीत करने का अवसर मिला स्मारक भी उन्ही के प्रयत्न का फल है । इसके अतिरिक्त था। बाद के वर्षों में तो मुझे उनकी गहरी प्रात्मीयता दक्षिण के न जाने कितने पुगतन्व-स्थलों को उन्होंने प्राप्त हुई। इसे मैं निश्चय ही अपना परम सौभाग्य वाणी प्रदान की। इतिहास-परिषद् के वार्षिक अधिवेशन मानता हूँ। क्योंकि बा० छोटेलाल जी उन विरल व्यक्तियों कही भी हो, निकट या दूर, हो नहीं सकता था कि बा. मे से थे, जो आज के युग मे दुर्लभ हैं । वह घनिक थे पर छोटेलालजी उनमें सम्मिलित न हों । वस्तुतः वह केवल धन का उनमे गुमान नहीं था, वह विद्वान थे, लेकिन एक दर्शक के नाते ही वहा नही जाते थे, बल्कि एक विद्वत्ता का दम उनमे नही था। इन्सान तो वह बहत सजग व्यक्ति की मूझ बूझ, अध्ययन शीलता तथा समी. ऊँचे दर्जे के थे। उनके इन तथा अन्य गुणों का स्मरण क्षक की दृष्टि में अपनी महत्वपूर्ण देन भी देते थे। करता हूँ तो मन बड़ा गद्गद् हो जाता है। बेलगछिया (कलकत्ता) के जैन मन्दिर मे कला पौर दुबला-पतला शरीर, गेग से सदा प्राकान्त पर फिर पुगनन्द का जो अद्भुत समन्वय दिखाई देता है वह उन्हीं भी बा. छोटेलाल जी कर्म में सदैव रत जाने कितने के पुरातत्व-प्रेम तथा परिबम का द्योतक है। मुझे याद लोकोपयोगी कार्य उन्होने उठाये और अपनी लगन तथा है कि जब वह मन्दिर वर्तमान रूप में तैयार हो गया था Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तो एक बार वह स्वय मुझे उसे दिखाने के लिए ले गये गया था। कभी-कभी बहस भी हो जाते थे कारण और बड़े सुन्दर ढग से उसकी बारीकियां मुझे कि वह जिस लगन और उत्साह से काम करना चाहते समझाई थी। थे, उसमें बीमारी मागे मा जाती थी, लेकिन फिर भी मेरे यात्रा वृत्तान्त वह बड़े चाव से पढ़ते थे। लिखने कुल मिलाकर अपने जर्जर शरीर से उनने जो कार्य किया, के बाद बहुत सी घटनाएँ मैं भूल जाता हूँ, लेकिन बा. उससे मालूम होता है कि उनकी पात्मा प्रत्यन्त बलिष्ठ छोटेलाल जी की स्मरण शक्ति देखकर चकित रह जाता थी। उनमें जीने की लालसा थी, इसलिए नही कि उन्हें था। वह मिलने पर बहुत-सी घटनामों का मुझे स्मरण जीने से मोह था, बल्कि इसलिए कि वह देखते थे कि दिलाते थे और बार-बार भाग्रह करत पाक अपन यात्रा उनके चारों पोर इतना काम करने को पड़ा हुमा है । वह सम्बन्धी सारे लेखों को मैं पुस्तकाकार प्रकाशित करा दू। यह भी जानते थे कि वे प्राज के युग में राजनीति का वह मुझे हर प्रकार से प्रोत्साहन देने का प्रयास करते थे। बोलबाला है। इतिहास धर्म. पुरातत्व, संस्कृति प्रादि यात्रा-सम्बन्धी मेरी शायद ही कोई ऐपी पुस्तक हो, जिसे का स्थान गौण हो गया है ! इन क्षेत्रों में काम करने उन्होंने न पढ़ा हो। वाली का उन्हे प्रभाव दिखाई देता था। इसलिए वह जब दिल्ली में वीर-सेवा-मन्दिर की स्थापना हुई और अपने हाथ से अधिक-से-अधिक काम करवाना चाहता थे। वे यहां पर अपना अधिकाश समय बिताने लगे तब तो उनकी मृत्यु से कुछ ही समय पहले मैं कलकत्ता उनसे बार-बार मिलना हुमा। उनके सामने बहुत-सी गया था। वह घर पर थे और दमे से संघर्ष कर रहे थे। समस्याएँ वीं जिनकी वह मुझपे चर्चा किया करते थे। जब मैं उनसे जाकर मिला तो मुझे लगा कि अधिक बातमैं भी अपनी समस्याएँ उनके सामने रक्खा करता था। चीत करके मुझे उनपर जोर नही डालना चाहिये । प्रत. इस मादान-प्रदान ने हम दोनों को एक-दूसरे के बहुत ही थोडी देर रुककर जब मैंने उनसे विदा चाही तो वह नहीं निकट ला दिया था। मुझे कई ऐसे अवसर याद पाते हैं माने और मुझे काफी देर तक रोक कर विभिन्न विषयो जब उन्होंने मेरी विनम्र सलाह पर अपना बड़े-से-बड़ा पर चर्चा करते रहे । जब मैं चलने को हुआ तो उन्होने इरादा बदल दिया था। एक बड़े ही कटुप्रसग मे वह एक बड़े ही स्नेह-स्निग्ध स्वर में कहा कि जाने से पहले एक पुस्तिका छपवाने वर्धा गये थे। पुस्तिका छपकर तैयार बार मुझमे फिर मिल जाइये। मेरे पास समय की बडी हो गई। वह उसे इधर-उधर भेजने वाले थे। सयोग से सीधी फिर भी मान जातेजाजतो उसी दिन में वर्षा पहुँच गया। जब उन्होंने मेरे सामने बातचीत में उन्होने कहा कि तबियत थोड़ी सुधरते ही मै वह बात छेड़ी तो मैंने उनसे कहा कि आप इस पुस्तक दिल्ली मा जाऊँगा। मैंने प्राग्रह किया कि वह जरूर को कदापि किसी को न भेजे। उन्होने तत्काल अपना आवे, क्योंकि स्थान तथा जलवायु के परिवर्तन से उनके विचार छोड़ दिया और पुस्तक को उन्होंने किसी को भी स्वास्थ्य पर अच्छा असर पड़ेगा। उन्होंने बड़ी प्रात्मीनही भेजा। मुझे मालम है कि ऐसा करने में उन्हे अपनी यता से मझे बिदाई दी। भावनामों पर वृहद् जोर डालना पडा, लेकिन यह उनका नहीं जानता था कि वह उनसे मेरी अन्तिम भेट बडप्पन था कि उन्होने अनुज जैसे मेरे वात्सल्य को मान होगी, उनके निधन से धर्म, इतिहास तथा पुरातत्व की दिया। जो क्षति हुई है, वह तो हुई ही है, पर मैं व्यक्तिगत रूप वह स्वय सफल व्यवसायी रहे और जीवन की में बड़ी रिक्तता अनुभव करता हूँ । ऐसा लगता है, मेरे विभिन्न समस्यानो के सम्बन्ध में उनका अनुभव बडा दुख-दर्द में साथ देने वाले एक ऐसे बुजुर्ग चले गये. गहरा था। लेकिन छोटी-से-छोटी बात जब वह मुझसे जिनकी मुझे प्रावश्यकता थी और है। पूछते थे तब मेरा मन बड़ी धन्यता अनुभव करता था। मैं उनके उच्च व्यक्तित्व को बारबार अपनी श्रद्धा वह वर्षों से दमे के रोगी थे, उनका शरीर जर्जर हो जलि अर्पित करता हूँ।* Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूक जनसेवक बाबूजी प्रभुलाल "प्रेम" कलकत्ता में सन् १९४४ में अखिल भारतीय स्तर पर हैं। ऐसा पूछने पर उसी कार्यरत व्यक्ति ने मेरा परिचय वीर द्विसहस्राब्धि महोत्सव मनाने की योजना परमादर- पूछा । मेरा नाम और मुख्तार साहब ने मुझे बाबूजी की णीय श्रद्धास्पद जुगलकिशोर जी मुख्तार ने श्री बाबू सेवा में भेजा है, इतना सुनते ही वह कुरसी पर से उठे, छोटेलाल जी के अनुरोध पूर्वक प्रेरणात्मक सहयोग से मेरा सामान अपने ही हाथों से उठाकर पास वाले कमरे बनाई । महोत्सव के अध्यक्ष पद को रावराजा सरसेठ में रक्खा । मुझे दो गिलास ठडा पानी पिलाया। रसोइया श्रीमंत हुकमचन्द जी ने सुशोभित किया। खाद्यान्न के को मावाज लगाई कि पण्डितजी भोजन करेंगे। बहिन कठोर नियन्त्रण काल में स्वागताध्यक्ष का परम उत्तर- मुशीला को बुलाकर मेरा परिचय दिया। बहिनजी को दायित्वपूर्ण, काटों का कठोर ताज श्रेष्ठिकुल भूषण, जिन- परिचय देते हुए, मुझे ज्ञात हुमा कि मेरी कल्पना से कुलदिवाकर दानवीर साहू शान्तिप्रसाद जी ने अपने सिर सर्वथा भिन्न यही कर्मठवीर, सेवाव्रती श्री बाबू छोटेलाल पर बांधा। महोत्सव को सर्वाङ्गीण सफल बनाना यह जी है । कुछ क्षणों के लिए मैं निस्तब्ध-सा रह गया। उतरदायित्व स्वर्गीय बाबूजी का था। बाबुजी ने श्री मैं संकोच के भार से दब गया। मेरे मन मन्दिर में धन्य मुख्तार साहब से पत्र द्वारा एक सहयोगी की याचना की है भारत वसुधा को, और धन्य है उस माता को जिसने जो उनको महोत्सव व्यवस्था में सब प्रकार योग दे सके। ऐसे वीर रत्न को प्रसव कर कुल गौरवान्वित किया है, परमादरणीय मुख्तार साहब जिनका मेरे जैसे र सहसा ही यह विचारधारा उठने लगी। ही अकिचन समाज सेवक पर सदैव पुत्रवत वात्सल्य व मुझे स्वर्गीय बाबूजी के साथ कलकत्ता मे उन्चास मुझ स्वगाय बाबूजा क साथ कल विश्वास रहा है, ने मुझे दिल्ली सेवा में उपस्थित होने का दिन सहने का सौभाग्य प्राप्त हुमा। मेरा सारा समय आदेश दिया। आदेश प्राप्त होते ही मैं सेवा में उपस्थित बाबूजी के साथ ही बीतता था । साथ ही भोजन साथ ही हुप्रा । मुझे प्राज्ञा दी गई कि मैं कलकत्ता पहुँच कर कार्य और एक ही कमरे मे शयन । अतः बाजी के गुणों बाबूजी को योग हूँ। मेरे हृदय में सेवा को उमगें थी, और वृत्तियों को प्रत्यन्त निकट से केवल जानने और आज्ञा शिरोधार्य की, और १८ सितम्बर को १० बजे मैं देखने का ही नही उनसे बहुत कुछ सीखने का भी सौभाग्य उनके निवास स्थान १७४ चितरंजन ऐवेन्यु कलकत्ता प्राप्त हुमा । बा जी को निरन्तर कार्यरत रहने से प्रायः पहुँच गया । सामान प्रवेश-द्वार पर ही रख कर, बाबूजी थकावट मा जाती थी और शरीर का तापक्रम बंट जाता की तलाश में भीतर बैठक में प्रवेश किया। बैठक में एक था। ऐसी स्थिति मे मैं उन्हें जाकभी विश्राम लेने को व्यक्ति दुबली-पतली देह वाला केवल घोती और बनियान कहता तो उत्तर देते भया शरीर धारण करने का अर्थ पहिने हुए एकाग्र चित्त से निस्पृह योगी की भांति कार्य ही कर्तव्य-रत होना है। संलग्न था। बाबूजी मनसा, वाचा, कर्मणा कर्तव्यनिष्ठ, धर्ममेरे हृदय में कलकत्ता की चकाचौध, निवास स्थान परायण, सदगुण सम्पन्न, निरभिमानी, विनम्र और गुणके सौन्दर्य, सेठ वर्ग के रहन-सहन और उस पर भी रईसों ग्राही थे। वे धनी और निधन छोटे और बड़े जैन और के वैभव ठाटबाट के माधार पर, वाबजी कमे होंगे इसका प्रजन सबके मित्र थे। किसी भी समाज, धर्म या वर्गका एक काल्पनिक धुंधला-सा भिन्न चित्र था। बाबूजी कहाँ उत्सव हो, बा जी का परामर्श और उपस्थिति सर्वथा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त अपेक्षित थी। सामाजिक व्यापारिक, धार्मिक और राज- मेरी तो ऐसी मान्यता है। नैतिक सभी क्षेत्रों में उनकी प्रतिष्ठा थी। उनकी निस्पृह उनका जीवन सादा तथा पवित्र था। समाज-सेवा सेवावति और कठोर साधना से सभी प्रभावित थे। की अमिट भावनाएँ और अटूट लग्न भापकी रग-रग में भारत के विभिन्न भागों से जो भी भाई कलकत्ता पहुँचते कलकत्ता पहुचत समाई थी। पाप बड़े ही धार्मिक, परोपकारी, उदार थे, बा. जी उन्हें सरक्षक, सहायक मौर परामर्शदाता के और महत्वाकांक्षी थे। पाप नाम की चाह और नेतागिरी रूप में सदैव सहायता देते थे। उनका जीवन पारिवारिक से कोसों दूर रहते थे। वे आज की तरह उपाधिधारी न पोषण की मंकीर्ण विचारधारामों से परे सार्वजनिक नक होते हुए भी हिन्दी, बगला, अंग्रेजी, संस्कृत आदि अनेक जीवन था । प्रत. उन्हें सर्वहितैषी दीनबन्धु और प्रजात भाषामो के ज्ञाता थे। वे बड़े ही जागरूक थे, माथ ही शत्रु कहना अतिशयोक्ति न होगी। 'वसुधैव कुटुम्बकम्' के कर्तव्य विमुख और प्रमादी व्यक्तियो के लिए वे कठोर वे परम पोषक थे। उनका कार्यक्रम 'कार्यम् वा साधयेयम्, शामक भी थे। यदि आज हम उनके मानव साफल्योपयोगी शरीरम् वा पातयेयम्' के सिद्धान्तानुकूल ही संचालित गुणों से सीखने और अनुकरण करने का प्रयत्न करे, तभी होता था। हम उन्हें अपनी सच्ची श्रद्धांजलि समर्पित करने के अधिबा० जी ने धर्मोन्नति, शिक्षा-प्रचार, पुरातत्वानुवेषण कारी बन सकेगे। हम उनकी स्वर्गीय पात्मा को शान्ति तीर्थ रक्षा प्रादि कार्यो मे जो भी योगदान दिया, वह तभी पहुँचा सकेंगे। समाज के ऐसे मूक सेवक के प्रति समाज के भावी इतिहास में स्वर्णाक्षरो में लिखे जाने श्रद्धा, भक्ति और विश्वास की त्रिवेणी मे गोता लगाने पर योग्य है । बाबजी, बाजी नही, समाज के बापूजी थे। ही हम उनके पाशीर्वाद और प्रेरणा के पात्र बन सकेगे। पुरानी यादें डा० गोकुलचन्द्र जैन (बा. छोटेलाल जी से मैं पहली बार १९६० मे जीवन भर उसने तन, मन और धन से धर्म, समाज और मिला था और तब लिखा था यह सस्मरण जो नये शीर्षक देश की मेवा की है । और आज अस्वस्थ अवस्था मे भी मे प्राज भी उतना ही नया है। उसके मन मे वही लगन है, वही उत्साह है। भगवान -लेखक) उसे चिरायु रखे। यू हैव नाट डन फुल जस्टिम् विथ जैनिज्म ।। __लोग उसे बा० छोटेलाल जी कलकत्ता वालों के नाम एक नवयुवक ने प्रसिद्ध जर्मन स्कालर विन्टरनित्ज से जानते है । पिछले ७ अगस्त (१९६०) को पहली बार से कहा । स्कालर तिलमिला उठा नवयुवक के इस माक्षेर उनसे मेरी भेट हुई। दो दिन तक साथ-साथ रहने से से । पर दूसरे दिन नवयुवक ने जब सैकडों जैन प्रथ अनेक महत्वपूर्ण विषयो पर उनसे बातचीत हुई। उसी विन्टरनिरज के सामने लाकर रख दिये तो उसका स्कालर प्रसग मे उन्होने विन्टर निस्ज की भारत यात्रा से लेकर शान्त पड गया । शायद वह सोच रहा था-दि यंग मैन माज तक के जीवन की अनेक घटनाएँ सुनायी। वाज राइट। जब विन्टरनिरज भारत प्राये बात बहुत पुरानी है। पाज वह नवयुवक अपने जब विन्टरनित्ज भारत यात्रा के प्रसंग में कलकत्ता जीवन के महानतम ७० वर्ष व्यतीत कर चुका । सारे पाए थे तब मैंने अपने यहाँ उनका निमन्त्रण किया था। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरानी बा · उमकी 'ए हिस्ट्री भाव इण्डियन लिटरेचर' के सम्बन्ध मे बातचीत करते वक्त मैंने कहा था-मिस्टर विन्टरनित्ज • यू हैव नाट डन फुल जस्टिस विथ जैनिज्म । तो उनका चेहरा लाम हो गया। उस समय मेरी अवस्था बहुत छोटी थी। शायद उसे एक नवयुवक का यह प्राप अच्छा नहीं लगा। उसे यह प्राक्षेप सह्य हो उठा फिर भी वह बात को पी गया। दूसरे दिन जब मैंने उनके सामने सैकडों जैन ग्रंथ लाकर रखे तो वह हतप्रभ सा रह गया और तब उसे लगा कि मैंने जो प्राक्षेप किया था वह वास्तव में गलत नही था । उन्होने कहा। वे कहे जा रहे थे " सही बान को बड़े-से-बड़े व्यक्ति के सामने कहने का साहन प्रत्येक व्यक्ति मे होना चाहिए। लोग जानते हुए भी सही बात तक कहने में हिचकिचाते है । श्रीर यहां कारण है कि अनेक तथ्य सामने नही ना पाते । जैन साहित्य मे अमूल्य सामग्री बिखरी पडी है किन्तु उसका कोई ढंग से उपयोग नही हो रहा है। जो कुछ हो भी रहा है वह इतना कम और अपूर्ण है कि उसे न के बराबर ही कहना चाहिए। जैन विद्वान् स्वय इम और उत्साह नही देते दिखलाते कुछ व्यक्ति काम कर भी रहे हैं तो उनसे क्या होता है जो जैन विद्वान स्वयं काम नहीं कर सकते या नही करते, वे कम-से-कम इतना तो कर ही सकते है कि काम करने वालो को उनके काम मे मदद पहुँचाएँ । नई प्रतिभाओं की जिम्मेदारी पुरातत्व सम्बन्धी अनुसन्धान की चर्चा के प्रसंग में छोटेलाल जी ने बताया कि किस तरह वे जंगलों मे अपनी जीप लिए घूमा करते थे कैसे उन्होंने का पता लगाया था। वे कह रहे थे बाज युग जिस गति से धाने बढ रहा है उस धनुपात में हम भी बहुत पीछे है हमे अपने काम मे तीव्र | गति लाने की आवश्यक्ता है। और यह काम तभी सम्भव है जब आपके उत्साही नवयुवक अपनी पूरी शक्ति लगाकर इस काम मे जुट जाए। अन्यथा ऐसे सैकड़ो प्रसंग हैं जिन पर सैकड़ो वर्षों बाद तक भी किमी का ध्यान नही जाने वाला। उदाहरण के तौर पर बुतावतार कथा के प्रसंग में जैन साहित्य में पाया है कि भगवान महावीर के निर्वाण के ६६३ वर्ष, वर्ष नांव fifoनगर (सौराष्ट्र) की चन्द्रगुफा में रहने वाले भाचार्य घरसेन के मन में बतान को लिपिवद्ध करने का विचार श्रुतज्ञान भाया धौर उन्होंने उस काम के लिए दलिय भारत से पुष्पदन्त और भूतबलि नामक दो सुनियों को ना बुलाया हम लोग इसका एक साधारण कथा जैसा मूल्यांकन करते हैं किन्तु इसमें एक बहुत बड़ा तथ्य छिपा हुआ हैं । ये पुष्पदन्त धौर भूतबलि दक्षिण से किस रास्ते होकर सौराट्र गये, यह एक स्वतन्त्र रूप से धनुसन्धान का विषय है। इसके पता लगने से एक बहुत बड़े ऐतिहांसिक तथ्य का पता लगता है और वह यह कि उस समय जहां जहां से होकर ये मुनि गये होंगे वहां वहां जैन परिवार अवश्य रहे होंगे । क्योंकि जैन मुनियों के पाहारों की एक विशेष विधि होती है। साधारण व्यक्ति तो उसे जा समझ भी नहीं सकता । दक्षिण से सौराष्ट्र तक पहुँचने मे महीनों का समय लगा होगा। इतनी लम्बी यात्रा बिना आहार किये तो सम्भव नही लगती। जिन-जिन गाँवों और नगरी में ठहर कर उन मुनियों ने माहार किये होगे वहाँ जंग धाउको को अस्तिव अवश्य रही होंगी। इस तरह सौराष्ट्र के मार्ग का पता लगने पर ७वीं शती मे जनधर्म के विस्तार का पता लगता है। इसी तरह का एक दूसरा भी प्रसंग है। इतिहास साक्षी है कि जिस समय उत्तर भारत में बारह वर्ष का अकाल पड़ा उस समय हजारों जैन मुनि दक्षिण भारत चले गये और वहा उनका भव्य स्वागत हुआ। इतिहासकारों का कहना है कि दक्षिण भारत मे जैनध समय से हुमा, किन्तु हजारों मुनियों का एक साथ पहुंचता ही इस बात को स्पष्ट रूप से सिद्ध करता है कि इतः पूर्व वहा जैन गृहस्थ परिवार पनेकों की कथा में संख्या वर्तमान के जैन मुनियों की बाहार थे। इतनी विधि कठिन है कि उसे जैन श्रावक ही समझ सकता है। हजारों के लिए धनुद्दिष्ट आहार का प्रबन्ध करना बिना हजारों से अधिक गृहस्य परिवारों के सम्भव नहीं था । "दक्षिण भारत में जन-धर्म" विषय पर खोज करने वाला व्यक्ति जब इस साक्ष्य के प्रकाश में देखेगा तो Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेका उसके सामने और भी अनेक बाते चित्रपट की तरह स्पष्ट कर देने के बाद भी कभी-कभी केवल अपयशा ही हाथ होती जाएंगी। लगता है। सामाजिक कार्यकर्ता में इतनी क्षमता होना दक्षिण भारत होकर बैन-धर्म किस तरह लंका तक चाहिए कि वह यह सब बर्दाश्त कर सके। उन्होंने अपन पहुंचा, यह अनुसन्धान का एक स्वतन्त्र विषय है। बौद्ध बीवन की एक लम्बी दास्तान सुनायी जिसका यहां लिखा साहित्य भी इस बात की साक्षी देता है कि लंका में बौद्ध जाना बहुत पावश्यक नहीं लगता, इतनी छोटी सी जगह धर्म के पहुंचने के पूर्व ही वहाँ न-धर्म विद्यमान था। में लिखा जाना सम्भव भी नहीं, किन्तु उनके उस सारे अशोक के पुत्र पौर पुत्री-महेन्द्र और संघमित्रा जब कथन का तात्पर्य यही था कि सामाजिक क्षेत्र में कार्य नका में धर्म प्रचारार्थ गये तो वहां उन्होने अपने से पूर्व करने के लिए व्यक्ति में एक महान मानसिक तैयारी स्थापित निर्ग्रन्थ-सघ को पाया। होना जरूरी है। समाज के अनेक प्रकार के माक्षेपों को झेलता हुमा भी व्यक्ति अपने काम में जुटा रहे, इतनी ऐसे ही और भी अनेक प्रसग हैं जिन पर प्रकाश क्षमता उसमें जरूरी है। अन्यथा वह कार्य कर ही नहीं डाला जाना नितान्त आवश्यक है। यह काम तभी सम्भव सकता । सामाजिक कार्यकर्ता का पहला संघर्ष समाज के है जब अनेक नई प्रतिभाएं अपनी सारी शक्ति लगाकर मानस में कूट-कूट कर भरी हुई संकीणं भावना से होता इस कार्य में जुट जाएं। है, जिससे ऊपर उठकर उसको काम करना है। यदि सामाजिक कार्य और मानसिक तैयारी कार्यकर्ता यहीं फिसल गया तो समझना चाहिए कि वह सामाजिक जीवन से व्यक्तिगत जीवन और व्यक्ति- सामाजिक कार्य के योग्य नहीं । नवयुवकों को सामाजिक गत जीवन से सामाजिक जीवन पर जब बात चली तो क्षेत्र में प्रवेश करने के पहले ही अपनी मानसिक स्थिति बाबू छोटेलाल जी ने अपने जीवन के अनेक मधुर और इतनी दृढ़ बना लेना चाहिए कि कितनी ही बड़ी कठिनाई कटु अनुभव सुनाये। वे कह रहे थे उनके कार्य में क्यों न पाए वे उसका सामना करते हप समाज के लिए सारा जीवन, तन, मन, धन अर्पण काम में जुटे रहें । एक अकेला आदमी मुनि कांतिसागर सारे समाज में जब तक पुरातत्व अन्वेषण को शुषा जैन को ही देखा जो न पुरातत्व विशेषतः खण्डगिरि जाप्रत नहीं होती तब तक मच्छे भविष्य की कल्पना कम उदयगिरि तथा राजगृही प्रावि जंन प्राचीन स्थानों की से कम मैं तो नहीं कर सकता। अतीत को जानने की सगाई और अन्वेषण के लिए तड़पते रहते हैं। वे स्वयं प्रबल माकांक्षा को ही मैं अनागत काल का उन्नत रूप भी न केवल पुरातत्व के प्रेमी है अपितु विद्वान भी हैं। मानता हूँ। देवों से स्वप्न देखते पाये हैं कि कब जैन पुरातत्व का संक्षिप्त इतिहास तयार हो। बौड़ते भी वे खूब है। पर कलकत्ता के बिहार में मैंने केवल बाबू छोटेलालबी एक अकेला मादमी कर ही क्या सकता है। Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. बाबू छोटेलालजी का वंश वृक्ष अग्रवाल वश-गर्ग गोत्र श्री सेठ चूडमल जी श्री सेठ सुखानन्द जी श्री सेठ रामजीवन दास जी (निधन ६-१२-१९१८) (धर्मपत्नी का निधन १-१२-१९४६) नन्दलाल जी शिखरचन्द जी फूलचन्द जी गुलजारीलाल जी दीनानाथ जी छोटेलाल जी २६ वर्ष में ५३ वर्ष में ६० वर्ष में ६० वर्ष में ७० वर्ष में (१९०४ में निधन) १९४१ में निधन १९५० में निधन १९५१ में निधन निवन २६१-६६ X (पत्नी वियोग चिरंजीलाल जी बाबूलाल १६-८-४०) जीजन्म १९१८ जन्म १९१२ लालचन्द जी दुलीचन्द जी ५५ वर्ष में १७ वर्ष में १९५३ में निवन १९१९ में निधन ८-८-१८६७ x x श्री शान्तिनाथ श्री निर्मलकुमार देवेन्द्रकुमार, महेन्द्र कुमार, हीरालाल, । सरोजकुमार, राजकुमार, हेमन्तकुमार, योगेशकुमार, मनोजकुमार श्रीगौरी. राजेन्द्र विमल महावीर शंकर, कुमार, कुमार, प्रसाद, प्रेषक-नीरजन Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम कल्याणकुमार 'शशि' बिया राष्ट्र सेवामों को, बहुचचित हादिक योग, बने रहे साहित्योन्नति में, हितकारी संयोग, गौण समझते रहे, स्वयम का शारीरिक सुख योग, भोकल रक्षा वृष्टि से, फल की इच्छा का विनियोग। अपने श्रम से दिया निरन्तर प्रौरों को विश्राम ! ऐसे उपकारी जीवन को, भद्धा सहित प्रणाम ! बड़ी बड़ी बाधामों से भी हुए नहीं भयभीत ! कर्मठता से भरा पुरा, उपकारी रहा प्रतीत ! जो बहुजन हिताय हो, था वह ऐसा प्राण पुनीत, हित चिन्तन के दृष्टिकोण से, जीवन किया व्यतीत । करते रहे, समस्यानों से जीवन भर संग्राम ! ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रमाम! हर सुधार आन्दोलन में बढ़ता पा उनका हाथ । बढ़ते रहे सवा उनके पग, नई प्रगति के साथ ! ऊपर 'छोटे' अन्तरग में, उज्ज्वल उन्नत माथ। यहां ! "ज्ञान को भटके जीवन", बनते रहे सनाथ । जीवन वह है, जो कि प्रकारण प्राये सब के काम ! ऐसे उपकारी जीवन को, श्रवा सहित प्रणाम ! उनके द्वारा पुरातत्व का बड़ा निरन्तर मान । पुरातत्व ही संस्कृतियों का निर्मल गौरव मान । शोष कार्य में किया इस तरह, अपना योग प्रदानजिसके धारा बढ़ा सका पग, मूतन अनुसन्धान । जीवन वह है, जिस जीवन में गर्मित शुभ परिणाम ! ऐसे उपकारी जीवन को श्रद्धा सहित प्रणाम ! Xxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बयाना जैन समाज को बाबूजी का योगदान कपूरचन्द नरपत्येला सन १९२८ में बयाना जैन समाज दि० ६.१२-२८ से हुई थी। ले०६-१२-२८ तक जैन रथोत्सव मेला करने की भरतपुर अब क्या था हम श्रीमान् बा.छोटेलालजी कलकता सरकार से स्वीकृति प्राप्त कर चुका था। मेले की समस्त के इस प्रसाधारण बल और सहयोग को पाकर मुकदमा तैयारियां बड़े समारोह और धूम-धाम से की जा चुकी लडने में पूर्णरूप से जुट पड़े। थी कि यकायक ही अजैन जनता के विरोध करने से यह कलकत्ता और बयाना के बीच बड़ा फासला है मगर जैन रथोत्सव मेला न हो सका। बाबू जी ने इस फासले को मिटा दिया। उनके और मेला न होने से हमारे पांवों तले की जमीन खिसक हमारे बीच प्रतिदिन तारों-पत्रो, रजिस्टर्डपत्रों, पार्सलों गई। हम कि कर्तव्य विमूढ हो गये, हमारा समस्त और समाचार-पत्रों द्वारा वार्तालाप होता था। हमें यही उत्साह एक उफान की तरह थोडी ही देर में ठंडा हो मालूम न पड़ा कि बा. जी हमारे पास न होकर कलकत्ता गया। हमें चारों ओर घोर अन्धकार ही अन्धकार दिखाई में रह रहे हैं। मापने अपने सहयोग के बल पर हमें यह देने लगा। हमें यह घोर अपमान सहन करना असह्य हो पूर्ण विश्वास दिला दिया था कि यह विपत्ति मानो हम नया जैनधर्म और जैन-समाज पर लगे हुए इस कलङ्क को पर न पाकर स्वयं बाबू जी ही पर पाई है। धोना प्रसभव प्रतीत होने लगा। उस समय हमें कुछ न हम अपने साथ ऐसे उदार-त्यागी-कर्मठ सेवाभावी पर सूझा और हम अजैन समाजसे मुकदमा लड़ बैठे । मुकदमा दुखहर्ता, परम विद्वान् धर्मात्मा-कर्मवीर और महान दायर करने के पश्चात् हमे मालूम पड़ा कि हमारी परि- उत्साही व्यक्ति को पाकर निहाल हो गये। स्थिति बड़ी ही दयनीय और कमजोर है। हमें इन लोगों प्रापने इस मुकदमे के मम्बन्ध मे हमे जो सहायता के सन्मुख मफलता मिलना पाकाश-कुसुम तोड़ना है। दी वह निम्न प्रकार हैजैसे मुख के अन्दर बत्तीस दांतों से घिरी हुई जीभ रहनी १-दुख पौर निराशा के भयंकर गर्त से हमें निकल है उसी प्रकार इन अजैनों के साथ हमारा रहना था । कर आपने समय-समय पर हमारा उत्साह-वर्धन किया हम अपने कमजोर पैरों को देखकर बुरी तरह घबड़ा एव हमे अपनी प्रमूल्य सम्मति देते रहने को महान कृपा उठे। आखिर हमने समस्त जैन समाज के कर्णधारों से की। अपनी दुखभरी अपील की। समाज से सहयोग देने की २-मापने जैन एवं प्रजन श्रीमानों, धीमानों, मांग की। लेकिन बिगड़ी में कौन किसका साथी होता नेतामों, पदाधिकारियों, वकील-बैरिस्टरों और सम्पादकों है, हमे कहीं से भी सहयोग न मिला। इस समय हमे जो से हमारा सम्बन्ध स्थापित कराके उन्हें हमें सहयोग देने मर्मान्तक पीड़ा हो रही थी उसे हम ही जान रहे थे कि को बाध्य किया। अचानक ही डूबते को तिनके के सहारे समान बङ्गाल- ३-भरतपुर राज्य के दीवान साहब की सेवा में विहार-उड़ीसा दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के मन्त्री श्रीमान् जैन-प्रजनों की तरफ से काफी संख्या में स्थान-स्थान से बा० छोटेलालजी जन कलकत्ता का तन-मन-धन से पूर्ण तार एवं महत्वपूर्ण पत्र भिजवाये। सहयोग देने का आश्वासन प्राप्त हुआ। इस माश्वासन ४-हिन्दी, उर्दू और इंगलिश के भनेको पत्रों मे के प्राप्त होते ही हम लोगों में उसी प्रकार शक्ति जागृत प्रापन जैन रथोत्सव को विरोधियों द्वारा रोके जाने पर हो गई जैसे कि लक्ष्मण जी में विशल्या के स्पर्श से इसके विरोध में अनेकों लेख प्रकाशित कराये तथा भनेकों Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकात जैन पर्जन विद्वानों, नेतामों एवं पदाधिकारियों द्वारा भी करने से जन जीवन पर यह घोर कलंक दूर हो सकता है। मेखादि प्रकाशित कराये। दिनांक २०१।२६-प्रताप कानपुर, नमित्र, कृष्ण ५-हिन्दू महासभा के कार्यकर्तामों से सम्पर्क सन्देश प्रादि-आदि पत्रों में प्रथम लेख प्रकाशित कराया स्थापित करके प्रापने हमारे इस रथोत्सव के सम्बन्ध में गया है। हम आपके सहयोग से और प्रबल भान्दोलन कर एक महत्यपूर्ण पोर उपयोगी प्रस्ताव हिन्दू महासभा के सकेंगे। इस सम्बन्ध में कौन ऐसा जैनी होगा जिसका सूरत अधिवेशन में पास कराया। हृदय दुख से न भरा हो । इस राष्ट्रीयता और संगठनवाद ६-हजारों की संख्या में 'बयाना काण्ड' नामक एक के युग में जैन जनता पर यह अत्याचार यदि दूर करने में महान महत्वपूर्ण और सफलताप्रद ऐक्ट छपवा कर ढोल की जायगी तो भारी अप्रभावना का कारण होगा। विरोधियों में बंटवाया। मामला केवल बयाना का नहीं किन्तु सारी भरतपुर स्टेट ७-भरतपुर राज्य के दीवान साहब से मिलने के और अन्य द्वेषभरे स्थानों में जैन जाति के धार्मिक स्वत्वों लिये जैन समाज के श्रीमन्तों व विद्वान बैरिस्टरों का एक की रक्षा से सम्बन्ध रखता है। यह कलंक बयाना के शिष्टमंडल तैयार कराया। सिर पर न रहे इसके लिए माप चिन्ताशील हैं यह -हमारे इस मुकदमे सम्बन्धी समस्त कागजात जानकर सन्तोष है। इस सम्बन्ध में हम सब प्रकार की श्रीमान प्रजितप्रसादजी वकील लखनऊ एवं विद्यावारिधि शक्ति भर सेवा करने को तैयार हैं। जैनदर्शन दिवाकर वैरिस्टर चम्पतराय जी साहब के पास दिनांक ९३२६-मैं आपको विश्वास दिलाना भिजवाये। जिनको देखकर दोनों महानुभावों ने हमे चाहता हूँ कि हमारी कमेटी और हमारी समाज तन-मन मुकदमा लड़ने के बारे में उचित परामर्श दिया। धन से इस कार्य में सहायता करने के लिए तैयार है। ६-हजारों की संख्या में प्रभावशाली पैम्पलेट छपवा पाप लोग यहां का पूरा भरोसा रखें। साथ ही साथ कर विरोधियों में समय-समय पर वितरण कराये। माप लोग भी पूरी तरह कटिबद्ध रहें तो ससार की कोई १०-श्रीमान् बैरिस्टर चम्पतराय जी, श्री राम भी शक्ति हमारी पवित्र यात्रा को नहीं रोक सकेगी। स्वरूप जी भारतीय एवं अन्य नेताओं के साथ स्वयं पाप लोगों की गय पहिले जोर से आन्दोलन करने की भरतपुर एव बयाना प्राये और इस मुकदमे के सम्बन्ध में नहीं थी और ठीक भी था, नहीं तो मैं इतने जोर से समस्त जानकारी प्राप्त की। आन्दोलन उठाता कि सारे भारत में हलचल मच जाती। मापने हमारे यहाँ के जैन रथोत्सब निकलवाने के हिन्दी-उर्दू अखबारों में तो खुब लिखा गया है पर अभी सम्बन्ध में जो प्रयत्न किये व परिश्रम किया एव हमें तन । अंग्रेजी अखबारों में मैंने कुछ भी नहीं लिखा है। भाज मन धन से जो सहयोग दिया वह कहने और लिखने में बाबू अजितप्रसाद जी की राय मैगा रहा हूँ फिर जोरों से पाने वाली बात नहीं है । समय-समय पर भापके हमें अनेकों इसकी तैयारी की जायगी। दीवान साहब के पास अंग्रेजी पत्र प्राप्त हुये, जिनमे से कुछ पत्रों का संक्षिप्त सार में की चिट्टियां सारे भारतवर्ष से पहुँचाने का प्रबन्ध कर इसलिए दे रहा हूँ कि माज हमारी समस्त जैन समाज यह जान जाय कि पापका जैनधर्म व जैन समाज के प्रति रहा है। साथ ही साथ जहां जहां से ऐसी चिट्ठियां कितना अगाध प्रेम व सेवाभाव था, मैंने ऊपर जो कुछभी जायंगी उनकी सूचना प्रापको भेज दी जायगी। लिखा है वह कहां तक प्रमाणित है? दिनांक १७।३।२६-हिन्दू नेताओं के पास जो पत्र दिनांक १६२९ के पत्र में पाप हमें लिखते हैं भेजे गये हैं, एक मेरी तरफ से दूसरा बाबू अजितप्रसाद ' रथोत्सव स्थगित होने के मर्मभेदी समाचारों के बारे जी तरफ से । उनकी नकल कल पापको भेज दी जायगी। में मैंने मापसे प्रावश्यक बातें पूछी थीं। निहायत खेद की इनका जबाब माने से पत्रों में प्रकाशित किया जायगा बात है कि अभी तक मापका किसी प्रकार का उत्तर नहीं पोर पापको सूचित कर दिया जायगा। मिला है। कई पत्रों में लेख निकल चुके है और प्रयत्न दिनाक २७७२२९-माज रायबहादुर सेठ चंपालाल Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन संगिनी की समाधि पर संकल्प के समन श्री रामस्वरूप बी ब्यावर रा. ब. सेठ टीकमचन्द सोनी जल्दी से जल्दी पहुंचा दें। अजमेर और सर सैठ हुकुमचन्द जी इन्दौर को पत्र लिख दिनांक २०२६-२०० कापियाँ कल दिन रजि. दिये गये हैं। हम इसी प्रयत्न की विशेष चेष्टा में है कि स्टर्ड पार्सल से पौर भेजी हैं। हमने काफी संख्या में छपाई किसी तरह रथयात्रा निकल जाय । हैं । सो अच्छी तरह बोटियेगा। एक भी विरोधी ऐसा __ दिनांक २६-हिन्दू महासभा के प्रधान मन्त्री न रहना चाहिए जिस तक इसकी प्रति न पहुंचे। ने दीवान साहब, जुडीशल सेक्रेटरी साहब और पुलिस दिनांक २२।८२६-पाज बुक-पोस्ट से २०० सुपरि० साहब को जो खत रवाना किये हैं उनकी नकल विज्ञापन भेजे हैं। ट्रैक्ट पापने बटवा दिये होंगे। न पापकी सेवा मे भेजी जाती है। बटवाये हों तो तुरन्त बटवा दीजिये और उनके बट जाने दिनांक १०२६-कृपा कर २७ तारीख तक १०-१२ घटे बाद यह नोटिस भी जरूर भिजवा दें। रोजाना एक लिफाफा भेजते रहिये जिसमे नित्य का प्रमिद्ध पत्र इगलिशमैन ने भी हाल छापा है कटिंग समाचार मालूम होता रहे। भेजते हैं। दिनांक १७४।२६-माज बुकपोस्ट से २५ वा दिनांक ६६२६-श्री चांदकरण जी शारदा को मनरजिस्टर्ड पार्सल से १०० ट्रक्ट रवाना किये जाते हैं। पत्र डाल दिया गया है और माशा है उसमें भी अपने को खास-खास विरोधियो के घरों में दुकानों में जहाँ मिलें सफलता मिलेगी। जीवन संगिनी की समाधि पर संकल्प के सुमन (स्वर्गीय बाबूजी की डायरी का एक पृष्ठ) [बाबू जी बहुत भावुक थे। उनकी धर्मपत्नी के के पुनरुद्धार की दिशा मे जो बहुमूल्य कार्य के कर गये असामयिक अवसान ने उन्हें बड़ा भाषात पहुँचाया था। वह शोध के मार्ग पर, माने वाली पीढ़ियों को सीढ़ियों इस घटना से उन्हें गहरा मानसिक क्लेश तो हुमा ही का काम देगा इसमें कोई सन्देह नहीं है। था, शरीर में भी प्रत्यन्त क्षीणता पा गई थी। एक माह के भीतर उनका भार वाईस पौड घट कर, ९१ पौण्ड रह उन दिनों बाबूजी नियमित डायरी लिखा करते थे। गया था ऐसा एक स्थान पर उन्होने लिखा है। चिर वियोग की उस श्याम प्रमा को उन्होंने जो शब्द लिखे उनमे उनका अन्तःकरण उजागर हो उठा है। उन ऐसी प्रशान्त और अस्थिर मनोदशा मे ही उन्होंने थोडे से शब्दों में एक ओर जहां उनके मन की पीड़ा का अपने भविष्य की रूपरेखा बनाते हुए शेष जीवन का एक पारावार हिलोरें लेता दिखाई देता है, वहीं दूसरी पार उद्देश्य बनाया था। प्रीङ्गिनी के प्रभाव को भूलने के अपनी कमजोरियों को मद्देनजर रखते हुए, तथा संसार . लिए उन्होने गहन व्यस्तता को माध्यम बनाया । इस की दशा पर विचार करते हए, भविष्य के कालयापन के जीवन-व्यापिनी व्यस्तता ने उन्हें पीड़ा के विस्मरण में लिए एक विवेकपूर्ण और दृढ़ सङ्कल्प भी उसमें कलकता सहयोग दिया या नहीं, यह तो हम नहीं जानते पर जीवन है। डायरी का यह भाग एक पृथक् पुस्तिका मे लिखा की अन्तिम घड़ी तक उन्होंने जो मूक पौर अनवरत हुपा उनको सामग्री से प्राप्त हुपा है जिस यहां अविकल साधना की, उसके फलस्वरूप साहित्य, संस्कृति और कला रूप से प्रस्तुत किया जा रहा है। -मीरखन] Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-मेरा स्वभाव अत्यन्त Sensitive (सवेदनशील) प्रति सोच-विचार करते करते अब दिमाग भी पहले जैसा और Irritable (शीघ्र कुद्ध होने वाला) हो गया है, नहीं रहा । धारणा-शक्ति कम होती जाती है। किसी और जरा जरा-सी बात के लिए चिन्तित हो जाता है। प्रकार का शारीरिक या मानसिक कष्ट प्रब बर्दास्त नहीं शासकर किंचित भी दु.खजनित कार्य में तो मैं इतना होता । स्वभाव भी दीर्घसूत्री और मालसी बन गया है। मधिक विचारयुक्त हो जाता है कि यदि उसे "तिल का अर्थ-सचय और धन-वृद्धि करने की लालसा बनी हुई है। ताई' बनाना कहा जाय तो अनुचित न होगा। मामूली मन में यह धारणा हो गई है कि संसार में प्रर्य विहीन बात को भी एक बार मैं बहुत बड़ी मान बैठता है। जीवन निकम्मा है । बिना 'अर्थ' के कुछ नहीं हो सकता। किन्तु यह सब होते हुए भी. यह सब कष्ट या दुख या अर्थ भी बहुत अधिक होना चाहिए । चिन्ता, मैं केवल अपने ऊपर ही लेता हुअा, मन ही मन इस वर्ष (१९४०) के प्रारम्भ होने के दो तीन मास दुखित होता रहता हूँ। कारण दूर होते ही उनको इतनी पूर्व से ही कई ऐसी बातें हुई-व्यापारिक, पार्थिक, जल्दी भूल जाता है कि जैसे कुछ हुआ ही नहीं। विस्मरण गृहस्थी की, शारीरिक, पारिवारिक तथा सामाजिकऐसा होता है कि कुछ स्मृति ही नहीं रहती। कि जिससे बहुत दुखित हो गया । तारीख २२-४-४० को - अपने वैयक्तिक गृहस्थी के काय या भार से सदा दूर जब से मेरी धर्मपत्नी की डाक्टरी परीक्षा में क्षय रोग रहने की चेष्टा करता रहता है। जहाँ तक बना दूर ही बताया गया, तब से दिन दिन दुख बढ़ता ही गया। रहा और टाल करता रहा, जैसे-गृहस्थी के खाने-पीने, तारीख ७.८-४० को, जब उसकी द्वितीय बार एक्सरे वस्त्राभूषण, नौकर-चाकर, लेन-देन प्रादि के कार्यों को परीक्षा हुई और डाक्टरों ने कह दिया कि "क्षयरोग करने में हिचकिचाहट या बुगपन महसूस करता रहा घातक हो चुका है और प्रब बचने की किचित भी प्राशा पौर उन्हें भाररूप एक मझट ही समझता रहा है। भले नहीं है।" उस दिन से मेरी चिन्ताग्रो का, दुख और ही यह पालसी स्वभाव का द्योतक है और कमण्य-भीरुता अशान्ति का ठिकाना नही रहा । मन बहुत ही अधीर हो है । यह सब वैराग्य से नही था। काई इस प्रकार की उठा । मैं कि कर्तव्य-विमूढ़ हो गया और अनुभव करने झझट जब सिर पर भाती थी तो बड़ी बूरी लगती थी। लगा कि मेरे ऊपर दुःख का हिमालय टूटने वाला है। झझट मत्थे देने वाला भी बड़ा बुरा लगता था। बनी मेरा क्या होगा? कैसे मेरा जीवन निर्वाह होगा? बनाई खाने की आदत हो गई थी। इस पर भी यह नही कल तारीख १९-८-४० सोमवार को सन्ध्या के 'कहा जा सकता कि मैं कुछ करता ही नही था, तबियत करीब ६.४० पर उसका देहान्त हुमा मौर मैं यह अनुभव से नही करता था-पर करना पड़ता था तब कभी कभी करने लगा कि समुद्र के बीच में पड़ गया है और मारे करता भी था। अतिथि-सत्कार के अवसर पर इसका चिन्ताग्रो के जला जाता हूँ कि 'अब क्या होगा?' इस ठीक उल्टा होता था, अर्थात् बड़ी लगन से यह सब समय मन में अनेक तरगें उठती हैं। बहुत उथल-पुथल करता था। हो रही है। मन स्थिर नहीं हो रहा । 'अब मैं क्या करूं?' शारीरिक कष्ट सदा ही कुछ-न-कुछ गत दस-बारह यह एक जटिल समस्या उपस्थित हो गई है। मार्ग वर्षों में बना रहता है जिससे किसी भी तरह चंन नही दिखाई नहीं पड़ रहा । सैकड़ों लोग सामाजिक नियमारहती। जब से एग्जिमा हुमा है तब से जीवन बहुत नुसार समवेदना प्रकट करने को पा रहे हैं। नाना प्रकार दुग्वित हो गया है। चिन्ता भी बढ़ गई है और कभी-कभी की बाते कहकर चले जाते हैं। उनकी समवेदना के साथ तो इस बीमारी से तग पा जाता हूँ। ही हृदय में उथल-पुथल होती रहती है। चारित्र मेरा सदा ही सुन्दर रहा है। फिजूलखर्च में इस समय मेरे लिए कई बातें विचारणीय हैकदापि नही रहा और जहाँ तक बना है मितव्ययी रहा १. माता जी प्रति वृद्ध हो गई हैं, तो भी उनमे है। बीमारी के कारण, चिन्तायुक्त स्वभाव के कारण, अभी Energy (शक्ति) है जिससे उनमें अभी जीवन है। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन सगिनी की समाधि पर संकल्प के सुमन मेरे हृदय में यह विचार होता है कि इनकी सेवा कभी बीमारी हो जाय । माथे के कार बड़ा भार-सा मालूम नहीं की, अब समय पाया है जब इनको मेरी सेवा की होता है। (बाबूजी की यह प्राशंका निर्मूल नहीं थी। पावश्यकता होगी और मेरा कर्तव्य भी कहता है कि ये पंक्तियां लिखे जाने के थोड़े समय बाद ही दमा की माता का शेष जीवन ठीक से बीत जाय । यद्यपि अन्य बीमागे उन्हें हो गई थी और एग्जिमा तथा दमा की इस मेरे पांच भाई हैं, वे किसी भी प्रकार की कमी न रखेंगे, जोडी ने फिर अन्त समय तक उनका साथ नहीं छोड़ा। पर अपना कर्तव्य भी तो कुछ होता है। -नीरज) २. दूसरा प्रश्न है व्यापारिक पोर प्राधिक दायित्व जीवन एक भयंकर बोझा मालूम हो रहा है। जिस जो मेरे समक्ष उपस्थित है। किसी के पास जाने या रहने की इच्छा होती है, सामने ३. तीसरा प्रश्न है शारीरिक अस्वस्थता और शरीर आर्थिक प्रश्न पाता है। बिना मार्थिक व्यवस्था के कोई की प्रतिपालना का | प्रवशिष्ट जीवन निर्वाह किस प्रकार मेरी क्यों परवाह करेगा? लोक-व्यवहार के लिए कुछ होगा? कौन मेरी चिन्ता करेगा कि मुझे कष्ट न हो? करेगे भी तो वह अस्थायी होगी। यद्यपि सभी जगह ऐसे ग्वाना-पीना समय पर मिलता रहे । मैं बीमार हो जाऊं लोग नहीं हैं, तो भी विशेषता प्राजकल ऐसे ही लोगों की नो मुझे हर तरह सम्हाले । है । यह बताने की मावश्यकता इसलिए है कि हर काम ४. विवाह करने का तो मैं स्वप्न में भी विचार नहीं मे हर जगह प्रचुर धन की मावश्यकता है। कोई सज्जन कर रहा हूँ और पाज निश्चय करता हूँ कि मैं दूसरा स्वार्थ के लिए धन की अभिलाषा नहीं करेंगे उन्हें अपनी विवाह नहीं करूंगा। जो झंझटे लगी है, प्राखिर उन झझटों का भी तो निर्वाह ५. अब सामने दो मार्ग है करना है। (अ) घर में रहते हुए जीवन बिताना । ____ मैं इतना ज्ञानी नहीं हूँ कि एकाकी जीवन को ज्ञान (ब) घर से बाहर सत्संग में जीवन बिताना। के पासरे सुखपूर्वक व्यतीत कर सकू। प्रारम्भ से जीवन अभिलाषा यह है कि प्रग किस प्रकार जीवन सुधार ऐसा बीता है कि कभी भी, एक दो दिन के लिए भी, कर अपना कल्याण करूं ? बार बार भविष्य का विचार अकेले रहने का अवसर मुझे नही प्राप्त हुमा । पर इससे उपस्थित होता है । मुझे कौन सहायता करेगा? साथ ही क्या ? अब तो मैं एक दो दिन के लिए नहीं, सारे जीवन माथ अपनी पत्नी की स्मृति से मेरे परिणामों मे अधीरता के लिए एकाकी हो गया हूँ। एकदम एकाकी । नितान्त और हृदय मे पीड़ा का अनुभव होता है। मैं उसे भूलने अकेला। की चेष्टा करता हूँ पर न जाने कैसे वह बार बार याद पर इस एकाकीपन से मैं हारूँगा नहीं। इस रिक्तता पाती है । उसके जीवनकाल मे मुझे न उससे इतना मोह को मैं अपने ढम से भरूंगा। अब पुस्तके मेरा सहारा था और न ही मैं ऐसा समझना था कि उसका कभी होगी और व्यस्तता मेरी चिरसंगिनी । मैं क्या कर सकूँगा वियोग होगा तथा उसके प्रभाव की मुझे इतनी वेदनापूर्ण और क्या नहीं कर सकूँगा यह मैं नहीं जानता, पर सत्संग, अनुभूति होगी। स्वाध्याय और शोध की दिशा में ही प्रब मन की समस्त अब प्रश्न यह है कि मैं क्या उपाय करू' जिससे सुख, वृत्तियों को बांधना है। शरीर को भी इसी साधना मे गाति, सन्तोष पौर निराकूलतापूर्वक मेरा शेप जीवन खपाना है । गहन व्यस्तता ही इस वेदना से उबार कर व्यतीत हो जाय। मुझे जीवन-यापन का सहारा दे सकेगी। अभी तुरन्त रह-रहकर मेरा दम घुटने लगता है और इच्छा होती कुछ कार्यों के करने की प्रावश्यकता हैहै कि एकदम खुली जगह और प्रति प्रकाशयुक्त जगह मे १. जितना परिग्रह वह छोड़ गई है, तथा जो एकरहूं। अन्धकारयुक्त या छोटी जगह में, या कमरे में मेरा त्रित हो रहा है, कपड़ा तथा अन्य वस्तुएं, उन्हें हटाना दम घुटने लगता है। बहुत सम्भव है इससे मुझे दमा की और कम करना । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनेकान्त २. व्यापारिक और भाविक दायित्वों की व्यवस्था करना । ३. शरीर कमजोर हो गया है तथा अस्वस्थ है, इसे सुधारना । ४. शान्ति को दूर करना । लगातार गत ३०-३५ वर्षों तक बा० छोटेलाल जी ने नमाज का प्रत्येक दिशा में जो कुशल नेतृत्व किया वह इतिहास में सदा स्मरणीय रहेगा। उनका व्यक्तित्व एवं उनकी सूम-बूम दोनों ही घडी यो यद्यपि नाम में वे । छोटेलाल थे लेकिन अपने कार्यों में वे महान् थे | सामाजिक, धार्मिक, साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में उनका प्रच्छा प्रवेश था और ऐसे अवसरो पर उनमे अच्छा निर्देशन मिलता था। प्रारम्भ में उन्होंने प्रपना जीवन एक व्यापारी के रूप मे प्रारम्भ किया और उसमे उन्होंने जो प्राप्त किया वह भी बड़े-से-बड़े व्यवसायी के लिए ईर्ष्या का विषय था लेकिन कुछ ही वर्षो बाद सभी व्यापार को छोड़कर समाज सेवा एवं सरस्वती का व्यापार करने लगे। उनके हृदय में समाज एव साहित्य सेवा की जो चुभन थी वैसी बहुत कम व्यक्तियों में देखने को मिलती है। उन्होंने अपने जीवन का मापा भाग मा भारती की सेवा में लगा दिया तथा समाज सेवा करते-करते उन्हें स्वास्थ्य का भी व्यान नहीं रहा । समाज के दुर्भाग्य में उन्हें अच्छा स्वास्थ्य नहीं मिला लेकिन स्वस्थ रहते हुए भी उन्होंने समाज की जो सेवा की है उसकी कहानी युवकों में ही नहीं किन्तु वृद्धो में भी मान संचार करने वाली है। है उसकी रूप रेखा तैयार करना तथा उसका प्रयोग, परीक्षा, अनुभव आदि प्रारम्भ करते हुए देखना कि मैं उसमें किस प्रकार और कहां तक सफलता प्राप्त कर सकता हूँ । ५. भविष्य के लिए जो मार्ग निश्चित किया है उद्धार की ओर लगता है।★ देश और समाज के गौरव डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल बा० छोटेलालजी का प्रमुख निवास स्थान कलकता था लेकिन देहली धारा, वाराणसी आदि स्थानों में चलने बाली संस्थाओं के संचालन में उनका प्रमुख योग रहता था । विद्वानों एवं साहित्यिकों का वे बड़ा सम्मान करते थे र प्रावश्यकता पड़ने पर उन्हें प्रार्थिक सहायता भी मैं लगभग ४४ वर्ष का हो चुका हूँ। मुझे अव अपने । दिया करते थे । समाज में वे बड़े ही सरल थे लेकिन अनुशासन के नायक थे वे अपने अधीनस्थ कार्यकताओं से खूब काम लेते थे लेकिन दुख दर्द के अवसर पर उनकी अच्छी सहायता करते थे। बाबू जी का नाम तो मैंने काफी समय से सुन रखा या धौर सन् १९४८ मैंने साहित्यिक क्षेत्र में कार्य करना प्रारम्भ किया तो उनसे कितनी ही बार पत्र व्यवहार भी हुआ लेकिन उनके दर्शन का अवसर मुझे सन् १९५१ मे ही मिला। उस वर्ष कार्तिक महोत्सव पर वहाँ के युवकों ने एक साहित्य प्रदशिनी का आयोजन किया था और उसमें सम्मिलित होने मुझे भी वहाँ जाना पड़ा। कलकता पहुंचने के दूसरे ही दिन मैं अपने साथी के साथ उनके बेलगछिया वाले मकान पर पहुँचा। मकान के सदर ने की स्वीकृति मिलते ही जब मैं उनके कमरे प्रविष्ट हुआ तो देखा कि वे किसी पुस्तक के पृष्ठो को बटोर रहे है । पहिचानने में देर नहीं लगी और नाम 1 लाने के पश्चात् सर्व प्रथम उन्होंने यही प्रश्न किया कि हम लोग उनके मकान पर क्यो नही टहरे। काफी देर तक यानें होती रही और मुझे ऐसा लगने लगा कि जैसे हम अपने घनिष्ठ परिचित के सामने बैठे है । हम लोग कलकत्ते मे ४-५ दिन रहे हमें अपनी ही कार मे म्युजियम, कोटनिक्म गार्डन आदि स्थानो पर ले गये तथा वहाँ की महत्वपूर्ण सामग्री का परिचय कराया। यद्यपि उनका स्वास्थ्य उस समय भी अच्छा नही था लेकिन उन्होंने बड़े ही प्रेम से अपने पास रखा। यह मेरा और उनका प्रथम साक्षात्कार था। इस प्रथम Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देश एवं समाज के गौरव साक्षात्कार में उनके महान एवं महानशाली यक्तित्व के मुझे भी जयपुर से जैन साहित्य की विभिन्न कला कृतियों दर्शन मिले । मैंने देखा कि कलकता जैन समाज पर को प्रदर्शित करने के लिए जाना पड़ा था । बा० छोटेलाल उनका एक दम नेतृत्व था और बड़े बड़े बंगालियों पर जी का इस प्रायोजन में प्रमुख हाथ था और उनका वीरभी उनकी विद्वत्ता एवं सेवा का गहरा असर था। वे सेवामन्दिर विद्वानों के प्रावास का प्रमुख केन्द्र था। जहाँ भी गये वहीं के अधिकारी ने उनका प्रच्छे ढंग से बाबजी भी उसी में ठहरे थे। इस प्रदर्शनी में बाबूजी ने स्वागत किया और उनसे मिलने पर समन्धता व्यक्त कलाकृतियों के खूब चित्र लिये। उनका सदैव प्राचीन की। मैंने देखा की कलकता समाज के प्रतिष्ठित व्यक्ति कलाकृतियों के चित्रों के संग्रह की घोर ध्यान रहता था। भी उनमे निर्देशन लेने के लिए उनके पास पहुँचने इस अवसर पर भी उनके निकट रहने का अवसर मिला और काफी समय तक समाज की स्थिति पर विचार और मैंने देखा कि बाबू जी के दिशा निर्देशन की भोर विनिमय किया करते। सभी का ध्यान है और समाज के उच्चस्तरीय नेता भी उसके पश्चात् वे स्वय जयपुर पाये । मैं उन्हे लिवाने उनकी बात सब ध्यान से सुनते थे। के लिए स्टेशन पहुँचा और उन्हें स्व० सेठ बधी वन्द जी हुचा भार उन्हें स्व० सठ वधी वन्द जी बावजी से चौथा और अन्तिम साक्षात्कार प्रभी गगवाल के निवास स्थान पर ठहराया। वे उस मकान करीब तीन वर्ष पूर्व पारा में जैन सिद्धान्त भवन की स्वर्ण मे ८-१० दिन रहे । उन दिनों में इतना अधिक जयन्ती के अवसर पर हुपा था। बाबूजी के प्रायोजन घनिष्ट सम्बन्ध हो गया कि मैं उन्हें अपने पिता तुल्य के स्वागताध्यक्ष थे। वे जैन बाला विश्राम में ठहरे हुए ममझने लगा । यहाँ पर उन्होंने कितने ही कलापूर्ण मन्दिरों में अपने अन्य साथियों के साथ जब उनसे मिलने के चित्र लिये । सस्थानों का निरीक्षण किया और उनमे गया तो देखा कि बाबूजी एक कमरे में एक पाराम कुर्सी काफी पार्थिक सहायता भी दी, इस मकान में उनका पर लेटे हुए हैं। स्वांम एवं खांसी से भयंकर रूप से स्वास्थ्य ठीक था । इसीलिए पुरातत्व एवं जैन साहित्य पीड़ित है तथा बोलने मे भी तकलीफ होती है लेकिन के किनने हो गहन तथ्यों की उनमे जानकारी प्राप्त हो जब हम लोग उनके पास जाकर बैठ गये तो फिर उन्होने मकी । पुरातत्व के सम्बन्ध मे उनका विशाल अध्ययन ल अध्ययन अपने रोग की भी परवाह नहीं की और प्रत्येक विद्वान था और उसे पागे विकसित करने के लिए ही वे कितने मेंबडे ही प्रेम से बातचीत की। मेरे में उन्होंने यही ही म्यानों पर भ्रमण किया करते थे। उनकी यही हार्दिक त थ । उनको यही हादिक प्रश्न किया कि माजकल मेरी कौन सी पुस्तक छप रही इच्छा रहती थी कि वे अपने जीवन में जैन मूर्तिकला एव है तथा शोध कार्य किस गति से भागे बढ़ रहा है। बाबू स्थापत्यकला पर विस्तृत प्रकाश डाल सके जिसमें विद्वानो जी का स्वास्थ्य खराब होने के कारण प्रत्येक को यह को उनके महत्व के सम्बन्ध में जानकारी मिल सके। भय था कि इसके प्रायोजन में वे कैसे अपना स्वागत तीसरा साक्षात्कार उनसे देहली में हुमा । यह कोई भापण पढ सकेगे लेकिन जब उन्होंने बिना किसी रुकावट सन् १९५६ की घटना है । उस समय देहली में एक जैन के अपना भाषण पढ़ा तो सभी परिचित प्राश्चर्य में पड़ सेमिनार का आयोजन हुमा था। इसी प्रवसर पर यहाँ गये और बाबजी की लगन एवं कार्य करने की शक्ति की विज्ञान भवन के बाहर पर एक विशाल साहित्य एव मत कण्ठ से प्रशंसा करने लगे। यही मेरी उनसे पन्तिम कला प्रदर्शनी भी लगी थी। इतना सुन्दर एव विशान मुलाकात थी। किसे मालूम था कि वे थोड़ेही समयके और प्रायोजन देहली मे ही नहीं किन्तु संभवत भारत में ही मेहमान है और फिर सदा सदाके लिए बिछुड़ने वाले हैं। प्रथम बार हुपा था। इस प्रदर्शनी में साहित्य एवं कला मैं इस अवसर पर अपनी प्रसीम भावना से श्रद्धाजलि की विभिन्न कलाकृतियाँ प्रदर्शित की गयी थी। इस अर्पित करता हूँ और भगवान से प्रार्थना करता हूँ कि प्रायोजन में भाग लेने के लिए समाज के अच्छे-अच्छे वे फिर इसी समाज में जन्म लेकर उसकी पहिले से भी कार्यकर्ता, विद्वान् एवं साहित्यसेवी सम्मिलित हुए थे। अधिक सेवा कर सकें।* Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धाञ्जलि अनूपचन्द न्यायतीर्थ 'साहित्यरत्न' श्रीमान् तुम्हारा अभिनन्दन कर लेते होता हमें हर्ष। पर देख सका ना देव इसे प्रो छोना तुमको इसी वर्ष ॥ युग परिवर्तन के साथ साथ छोड़ा था तुमने रूढिवाद । नूतन प्राचीन विचारों का सम्मिश्रण तुममें निविवाद ॥ (४) बालकपन से ही संस्कार सेवा के तुममें गए पेठ । सीधा प्रौ सच्चा जीवन था न पायो तुममें कभी ऐंठ॥ तन मन से उज्ज्वल मुट्ठी भर सेवा भावी वानी उवार । 'अनेकांत' के पथवशंक श्रो पुरातत्व-प्रेमी अपार ॥ बड़े बच्चे नवयुवकों में ना समझा तुमने कभी भेद । मतलब की सबसे सुनने में नाटुमा कभी भी तुम्हें खंद । छोड़ी जीवन को सुविधाएं जब पड़ा बंग भीषण अकाल नोग्राखाली के दगों में दिखलाया सेवा कर कमाल। (८) लाये युवको को प्रागे तुम कर धर्म और सेवा समाज । साहित्य-प्रेम को ज्योति जगा तुम बने सुधारक पूर्ण प्राज ॥ टेडा सेवा का काम किन्तु तुमने 'रिलीफ' में किया काम । निस्वार्थ भाव तन मन धन से 'छोटे' से ऊंचा किया नाम ॥ लग रहा तुम्हारा जो कुछ है सब देश जाति-हित सदा काल । कितनी संस्थाएँ सचालित हो चुको तुम्हीं से नौनिहाल ॥ जीवन को तुमने खपा दिया संस्कृति-रक्षा हित गुणनिधान । तुम विज्ञ ब्वेिको दृढ़प्रतिज्ञ थे मक राष्ट्र-सेवक महान ।। (१२) नवजीवन की मिलती तुमसे नित नयी प्रेरणा प्रौ प्रकाश । "सेवा का अनुपम पथ पकड़ो मत होमो जीवन में निराश ॥" जैसा भी चाहा कर डाला सब जगह तुम्हारा था प्रभाव । सम्मान तुम्हारा सब करते यह देख देख सीधा स्वभाव ॥ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन दिन का आतिथ्य डा० नेमिचन्द्र शास्त्री स्व. श्री बाबू बाबू छोटेलालजी अतिथि-सत्कार के उसका पुराना परिचय हो। हम लोग बाबूजी के प्राग्रह लिए प्रसिद्ध थे। लब्धप्रतिष्ठ और प्रकाण्ड विद्वान् ही से उनके अतिथि बन गये ! नलिन की उनसे विशेप पटने उनके यहाँ पाश्रय नही प्राप्त करते थे, बल्कि मुझ जैसे लगी, दोनों की गापे होने लगीं। उसकी बालसुलभ अल्पज्ञ नवयुवक पण्डित भी। कालेज का ग्रीष्मावकाश हो चेष्टानों ने बाबूजी के हृदय को जीत लिया। जाने पर मेरे परिवार के सदस्यों की इच्छा कलकत्ता मध्याह्नोत्तर भोजन के उपरान्त हम लोग बेलूर मठ परिभ्रमण की हुई। २ जून १९५६ की सन्ध्या को हम देखने गये। माथ में बाबजी भी थे। बाबूजी ने वहां के प्रस्थान कर तीन जून के प्रात:काल एशिया के इस बड़े विद्वान सन्यासी मे मेरा परिचय कराया, पुस्तकालय भी नगर में पहुँच गये । पूर्व व्यवस्था के अनुसार अलीपुर से दिखलाया तथा उनके पलभ्य ग्रन्थों की जानकारी भी दी। श्री साह शीतलप्रसाद जी के यहाँ से गाड़ी स्टेशन पर या मठ की स्थापत्य कला के सम्बन्ध में बाबूजी ने विस्तार गई थी और हम लोग उन्हीं के यहाँ ठहर गये थे। दो- से ज्ञातव्य बाते बतलाई। वापस लौट पाने पर उन्होंने तीन दिनो तक इधर-उधर के दर्शनीय स्थानो को देखने नलिन की प्रतिभा की परीक्षा ली और मुझसे बोलेके उपरान्त हम लोग वेलगछिया मे श्री पाश्वनाथ दि० 'इस बच्चे की शिक्षा की आप पूरी व्यवस्था कीजिए यह जैन मन्दिर के दर्शन करने गये । मन्दिर से बाहर निकलते .बहत होनहार है। उन्होंने उसे खिलौनों के साथ हिन्दी ही थी बा० छोटेलाल जी से भी साक्षात्कार हुमा । कुशल और अंग्रेजी की कई छोटी-छोटी पुस्तके भी दी। क्षेम के अनन्तर जब उन्हे यह मालूम हुमा कि मैं सपरि- रात्रि के पाठ बजे मेरी बाबूजी से चची होने लगी। वार पाया हूँ तो उन्होंने आदेश के स्वर में उलाहना देते मैंने देखा कि कुछ क्षण पहले वह खामी से परेशान थे, हर कहा-"पाप मुझे अपना नहीं समझते, इसीलिए तो किन्तु अत्र चर्चा प्रारम्भ होते ही उनकी खासी शान्त हो अलीपुर में इतनी दूर ठहरे हुए है। अब आप जा नही गई। पूरानव के सम्बन्ध में कई प्रावश्यक बातें बतलाते सकते है, यहीं ठहरना होगा । पाप तो कभी-कभी पा भी हुए उन्होंने कहा-पाप जानते हैं, चैत्यालय का विकास जाते है, पर ये लोग कब आयेंगे? मेग घर विद्वानो के कैमे हुआ ? मुनिये--त्य शब्द 'ची' धातु से निष्पन्न है, हरने के लिए सुनिश्चित अतिथिशाला है। आप लोगों जिसका अर्थ चयन करके गशि-ढेर करना, एक के को घूमने के लिए यही से मैं गाडी की व्यवस्था कर आर एक को लादना है। इसी धातु मे चित्य बना है, डेंगा। विश्वास कीजिए-प्रापको यहाँ तनिक भी कष्ट जिसका अर्थ वेदी है। गनैः शनै इसका सम्बन्ध प्राचार्यों, नही होगा। दर्शनीय स्थानो को दिखाने के लिए मैं पुण्य व्यक्तियो एव पुजनीय महान व्यक्तियो के स्मारक ग्रादमी भी आपको दूंगा। अभी आपको जितने दिन में जुड गया। प्रारम्भ मे चैत्य का सम्बन्ध शवसमाधि से रहना है, मेरे साथ रहिए । पाप से साहित्यिक चर्चा कर रहा है। जवो दुबइल द्वारा अन्वेषण की गई मालावार लेने में मुझे वडी प्रसन्नता होगी। मेरा और आपका की चट्टान में ग्वदी मृतक ममाधि इसी प्रकार का चैत्य मम्बन्ध पाज नया नही है । पुनः हंसकर कहा-आपके है। एशिया माइनर के दक्षिणी समुद्र तट पर लीडिया के प्रिय रसगुल्ले यहाँ भी मिल जायेंगे। इतना कह कर पिनारा और जैयस में जो चट्टानी शवसमाधिया निमित उन्होने मेरे बच्चे नलिनकुमार को गोद में उठा लिया है, वे भारतीय चंत्यों का प्रतिरूप हैं। अतः प्रारम्भ में और उसमे बातें करने लगे। नलिन कुछ ही क्षणो में चैत्य महापुरुपो के अस्थिसचायक समाधि का सूचक था। वेलगच्छिया की वाटिका में उनके साथ घूम पाया और धमणो के मम्पर्क से चत्य शब्द के अर्थ में परिवर्तन इतने ही अल्प समय में इतना घुल-मिल गया, जैसे हुमा और शनैः शनैः यह शब्द पूजागृह के अर्थ में प्रयुक्त Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकाम्स होने लगा। इस गृह में कोई प्रतीक अथवा प्रतिमा मध्य के भित्तिचित्र केवल धार्मिक ही नहीं हैं. अपितु उनमें कला में रहती थी। इसके बीच में स्तूर रहता था तथा इस की रमणीयता और मसूणता पायी जाती है। कमल और स्तूप के चारों पोर प्रदक्षिणा भूमि रहती थी। जब श्रमण हस अनेक चित्रों में प्रतीक रूप में अंकित है। कमल संघ मे किसी विषय पर चर्चा होती थी, तब विचार- प्रात्मा की स्वच्छता, निर्मलता और उत्क्रान्ति का प्रतीक विनिमय के लिए विभिन्न स्थानों के मनि एकत्र होते थे। है। जहां कमलनाल का प्रयोग प्राता है, वहां प्रात्मा के मतः इस परिस्थिति का परिणाम यह निकला कि मुनियों विभाव राग-द्वेष भी चित्रित रहते हैं। कषाय और के प्रावास के लिए चैत्यगृह निर्मित होने लगे। इस योगवश प्रात्मा कर्मबन्धन से युक्त होती है और कमल युग-ई०पू० ३०० के लगभग जो चैत्यगृह निर्मित हुए तन्तु के समान जन्म-मरण की परम्परा चलती है। इस हैं, उनकी छत गुवजनुमा है, छत के नीचे स्तूप या कमलनाल द्वारा चित्रकारों ने प्रात्मा की बद्धावस्था और सामान्य वैदिका है। हैदराबाद के बाल्द्रुग जिले मे तेर केवल कमल-पदम के प्रकन से उसकी मुक्तावस्था चित्रित नामक स्थान में इस प्रकार का चैत्यगृह मिला है। यह की है। कमलनाल और कमल दोनों ही संसारी और ईट और पलस्तर का बना है, पूर्व की ओर द्वार है, उसके मुक्त प्रात्मानों के प्रतीक है। हस-सिद्धावस्था का प्रतीक ऊपर खिड़की है, जिससे सूर्य का प्रकाश पाता है। इसका है। जलचर जन्तुषों में तीन ही जन्तु विशेष ध्यान देने प्रांगण मण्डप के आकार का है। वर्तमान चैत्यालय का योग्य है-मत्स्य, जक और दादुर । विकास इसी चैत्य से हुमा है। प्राचीन कई जैन मन्दिर चैत्यगहोके समान उपलब्ध होते है। गुम्बज, वैदिका और मत्स्य-सांसारिक तृष्णामों, वासनामों एवं लौकिक - एपणामों का प्रतीक है। जैन चित्रकार सरोवर को संसार प्रदक्षिणा स्थान प्राजभी पुराने चैत्यगृहो के समान ही हैं।. ५ का प्रतीक मानते है और मत्स्य इस संसार की सतत अगले दिन रात्रि को पुनः चित्रकला पर चर्चा हुई। परम्परा को बनाये रखने के लिए तृष्णाओं का प्रतीक बाबूजी ने जैन चित्रकला की विशेषता पर प्रकाश डालते है। दार्शनिक दृष्टि से इसे मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का हुए बताया-"ई. ६००-६२५ के पल्लववशी राजा प्रतीक कहा जा सकता है । कषायों की दृष्टि से इसे लोभ महेन्द्रवर्मन् के द्वारा निर्मित पदुकोटा स्थित सित्तन्न कषाय का प्रतीक माना जायगा। बक को माया कषाय वासल्लीय गुहा चित्र जन कला के अद्भुत निदर्शन है। का प्रतीक माना गया है। संसार सरोवर में अनन्त लहरे यहा के चित्रों में भाव पाश्चर्य ढग से स्फुट हुए है और इस बक-माया के कारण ही उत्पन्न होती है । मायाचार प्राकृतिया बिल्कुल सजीव मालूम पड़ती है। समस्त गुफा मात्म परिणामों को कलुषित कर व्यक्ति को प्रवो गति कमलों से अलकृत है। सामने के खम्भों को आपस मे की भोर ले जाता है। दादुर-मेढक को-मान कपाय गुथी हुई कमलनाल की लतामों से सजाया गया है। छत का प्रतीक माना गया है । जैन चित्रकला में अनेक स्थानों पर तालाब का दृश्य अंकित है, उसमें हाथियो, जलविहं. पर सुन्दर प्रतीकों का प्रयोग हुमा है । प्रद्यावधि जैनकला गमो, मछलियों, कुमुदिनी और पदमों की शोभा निगली के प्रतीको का अध्ययन नहीं हो सका है। मूडविद्री के है । तालाब में स्नान करते हुए दो व्यक्ति-एक गौरवर्ण चन्द्रनाथ चैत्यालय में स्तम्भों पर जो जो प्राकृतिक चित्र और दूसग श्याम वर्ण के चित्रित किये गये है। इसी अकित किये गये हैं, उनमें भी कई प्रतीक है। इनमे गुफा के एक स्तम्भ पर एक नर्तकी का सुन्दर चित्र है, बाह्य माकर्षण, प्रकृति का सादृश्य रमणीयता, कम्पन और इस चित्र में चित्रित नर्तकी की भाव-भंगिमा देखकर नैसर्गिक प्रवाहके साथ प्रतीक-गत भावनाओं का वैशिष्टय लोगों को पाश्चर्यान्वित होना पड़ता है। नर्तकी के भी है। कला की जीवटपना रग, रेखाओं और प्राकृनिकमनीय अगों का सग्निवेश चित्रकार ने बड़ी खूबी के मंकनके साथ प्रतीकोमे पाया जाता है। स्वस्तिक का चिह्न साथ किया है। यह मडोदक चित्र है। सित्तनवासल की स्वयं एक प्रतीक है, चित्रकार जिन रेखामों की वक्राकृति चित्रकारी अजन्ता के समान सुन्दर और अपूर्व है। जैनों प्रस्तुत करता है, उनमे भी कई प्रतीक निहित रहते है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन दिन का प्रातिथ्य प्रतीक चर्चा के उपरान्त मैंने बाबूजी से पूछा-"कृपया उसे अभिव्यक्त करने के लिए चित्रांकन किया जाता है। यह बतलाइये कि जैन चित्रकला में कला की दृष्टि से दूसरी प्रणाली में ग्रन्थ के विषय से बाह्य चित्र दिये गये क्या विशेषता है ?' मेरा अभिगय उन सवित्र पाण्डु. है। इन पच पर हैं। इन चित्रों का विषय से कोई सम्बन्ध नही है। लिपियों से है, जिनमे गुजगत और राजपूत कलम का सौन्दर्य वृद्धि के लिए या अन्य हृदयगत भावनामों के सान्दय वृद्धि क लिए मिश्रण पाया जाता है। क्या कला क्षेत्र में भी जैन स्पष्टीकरण के लिए चित्रो का प्रकन किया गया। बौद्ध और हिन्दू इस प्रकार की चौकापन्थी सभव है ? अधिकांश पाण्डुलिपियों के चित्रों में माधुर्य, पोज और मेरा ऐसा विश्वास है कि भारतीय चित्रकला अखण्ड और सजीवता पायी जाती है। वस्तु को दृष्टि से जैन चित्रों एक है। चित्रांकन की दृष्टि से कुछ भी अन्तर नही है। को एक पृथक वर्ष में रखना होगा, क्योंकि इन चित्रों की अन्तर है वस्तु के प्रकाशन मे या वर्ण्यवस्तु मे। अभि. विषयवस्तु और भावाभिव्यञ्जना अन्यत्र नहीं मिलती। व्यञ्जना की दृष्टि से कला एक है। प्रतः कला में मानव हा, टकानक क क्षत्र म ये चित्र कुछ प्रशों में । के शाश्वत राग-द्वेष, प्रेम-कलह, हास-विलास एव रखते हैं। कल्पमूत्र के चित्रों में गुजराती कलम, जिसकी अनुराग-विराग समान रूप से अभिव्यक्त होते हैं।" प्रधान विशेषता बादाम के समान नेत्रों की है, पायी जाती है। प्रतः इतना मानना पड़ेगा कि जैन चित्रकला श्री बाबू छोटेलालजी ने गम्भीर भाव से उत्तर देते में कुछ ऐसी बाते हैं, जो दूसरे धर्म की कलामों में नहीं हए कहा- 'जनचित्र पालीवन की दृष्टि से भी महत्त्व पायी जाती। धर्माश्रय होने के कारण धर्म की पृष्ठभूमि पूर्ण है। यद्यपि सुरुचि, परिष्कार, तूलिका स्पर्श की भी कला में निहित रहती है। अतः अग्यण्ड कला में भी कोमलता एवं हसिए की कसीदाकारी कुछ ही चित्रों में भेद संभव है। चित्रों की प्रात्मा भिन्न होने से उनकी पायी जाती है, तो भी गुजराती, मुगल और राजपूत टेकनिक में भी अन्तर है।" कला का मिश्रण होने से प्राकृतियों की विविधता प्राकषित मैं सपरिवार बाबुजी के यहाँ तीन दिनों तक रहा। करती है । नगरों, महलों, साधारण घरो, वनो, सरोवरों भोजन के समय बाबूजी स्वयं उपस्थित रहते। हम लोगों के दश्य जीवन के सभी रूपों में प्रकट हुए हैं। विराग की प्रत्येक सुविधा का ध्यान रखते थे और प्राग्रह पूर्वक और त्याग के चित्रों में भी स्वस्थ जीवन का अकन हुअा रसगुल्ले खिलाते थे। याज बाबूजी नहीं है पर उनका है। मचित्र जैन ग्रन्थों की दो प्रणालियां हैं। पहली में वह प्रातिथ्य तथा कलाममशता मेरे मानम पटल पर धर्मकाथा के विषय को चित्रों द्वारा समझाने का प्रयाम अंकित है ! बाबूजी के और भी कई मस्मरण है, जिन्हें किया गया है। एक पृष्ठ पर जितना कथा रहता है, यथा समय पत्रों में प्रकाशित करने का प्रयास करूगा। निरभिमानी बाबूजो लक्ष्मीनारायण छावड़ा स्वर्गीय बाबू छोटेलालजी जैन कलकत्ता समाज के उक्त कमेटी के मेरे सात वर्ष के कार्यकाल में उनक प्रमुन्व कार्यकर्तामो मे से थे, उनमे मेरा सम्पर्क सन् १९२६ पूग सहयोग सत्परामशं मिलता रहा, जिसको मैं कभी से रहा है। जब वे बगाल विहार उड़ीसा तीर्थक्षेत्र कमेटी भुना नहीं सकता । प्राप सरल स्वभावी निरभिमानी एवं के सेक्रेटरी थे तब से ही उनके साथ मुझे भी सामाजिक उत्साही समाजसेवी थे और समाज के गौरव थे। कार्यों में भाग लेने का सुअवसर प्राप्त हुआ था, हर कार्य उनके स्वर्गवास में समाज को काफी क्षति पहुंची है में उनका पूर्ण सहयोग मिला था। सन् १९३६ मे जब मैं जिसकी पूर्ति होना असम्भव है। बंगाल बिहार उड़ीसा दि. जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी का अन्त में अपने परम सहयोगी के प्रति श्रद्धाजलि सेक्रेटरी नियुक्त होकर कार्य करने लगा उस समय बाबूजी अर्पित करता हुआ स्वर्गीय प्रात्मा को पूर्ण शान्ति प्राप्त उक्त कमेटी के सदस्य थे उनके पुराने अनुभवों के कारण होने के लिए भगवान महावीर से प्रार्थना करता हूँ। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्म और संकृति के अनन्य प्रेमी श्री पं० के० भुजबली शास्त्री बाबू छोटेलालजी जैनधर्म धौर जैन संस्कृति के अनन्य प्रेमी थे, प्रमुख समाज सुधारक, पुरातत्व, इतिहास तथा साहित्य के विशेषज्ञ, वीरसेवामन्दिर, जैन सिद्धान्त भवन जैन बाला विश्राम, भारतीय ज्ञानपीठ और स्याद्वाद महाविद्यालय श्रादि प्रमुख संस्थानों के हितचितक एवं अनेक बहुमूल्य रचनाओं के रचयिता थे । आपकी कृतियों में खासकर 'विब्लियोग्राफी' सबसे महत्वपूर्ण कृति है । बाबू जी का एक व्यापारी कुल में जन्म होने पर भी वे सरस्वती के सच्चे आराधक रहे | आप पुरातत्त्व के मर्मज्ञ विद्वान मद्रास के श्री टी. एन. रामचन्द्रन से कोई महत्वपूर्ण ग्रन्थ तैयार करा रहे थे, उसका पता लगाना चाहिये । बा० छोटेलालजी से मेरा सम्बन्ध १९२४ से था, वह भी घनिष्ठ । प्राप मुझे बहुत मानते रहे, अपने पत्रों में मुझे सदा श्राप 'प्रिय वन्धु' शब्द से हो सम्बोधित करते रहे । बा०जी का विशेष सम्पर्क मुझे बारा मे हुप्रा । जैन सिद्धान्त भवन प्रारा के प्राप बड़े प्रेमी थे। साथ ही साथ स्वर्गीय बा० निर्मलकुमार जी का परिवार आपको बहुत मानता था । वहाँ के शुभकार्य में भाप नियम से सम्मिलित होते थे। उन दिनों हम लोगों को दो-चार रोज एक साथ रहना हो जाता और वार्तालाप करने का शुभ अपसर मिल जाता था । जब कभी कलकत्ता जाना होता तब बा०जी से मिलना श्रवश्य होता था और भोजन भी उन्हीं के यहाँ होता था । श्रारा छोड़कर मेरे मूडबिद्री आने पर वे मूडबिद्री कई बार प्राए, कारकल वेणूर आदि के बाहुबली मस्तकाभिषेक पर। खासकर धवन आदि ग्रन्थो के ताड़पत्रीय फोटो लेने के लिए आये और उस कार्य को उन्होने बड़े परिश्रम से पूर्ण कराया। विद्वानों पर उनका बड़ा प्रेम था । • छोटेलाल जी से मैं बहुत समय से परिचित हूँ । धर्मात्मा साहित्य प्रेमी, पुरातत्व ममंश, गुणीजनों के भक्त और उदार पुरुष थे । श्राप मुझे 'गुरुभाई कहकर सम्बोधित करते थे । आप अच्छे लेखक थे । पुरातत्व की प्रोर उनका विशेष श्राकर्षण था । उन्होंने मेरे पुत्र चि० मोतीराम असिस्टेन्ट फोटू ग्राफीसर फोटू डिबीजन पब्लिकेशन डिवीजन देहली को प्रेरितकर, जयपुर, आमेर, सांगानेर, देवगढ़, खण्डगिरि उदयगिरि, और मूडबिद्री के सिद्धान्तवसदि मन्दिर से धवलादि ग्रन्थों के फोटो उतरवाए थे । उनका विचार एक सुन्दर एल्बम बनाने का आपका अन्तिम दर्शन मुझे सन् १९६४ में आरा मे हुआ था, जब वे जैनसिद्धान्त भवन के स्वर्ण जयन्ती उत्सव पर पधारे थे । अन्त में मैं स्वर्गीय आत्मा के लिए अपनी श्रद्धाजलि अर्पण करता हूँ, परलोक मे सुखशान्ति की कामना करता हूँ । उनकी पूर्व सेवाएं पन्नालाल जैन अग्रवाल था, परन्तु वे शारीरिक अस्वस्थता वश उसे पूरा न कर सके। उन्होने वीरसेवामन्दिर की ओर से धवलादि ग्रन्थों का जीर्णोद्धार कराने मे सहयोग दिया था । मेरे पास उनके पत्र सुरक्षित है। वीरसेवामन्दिर चाहे तो उन्हे प्रकाशित कर सकता है। राजगृही श्रीर कलकत्ता मे वीरशासन जयन्ती मनाना उनके ही पुरुषार्थ का कार्य था । उनकी जैन ग्रन्थ सन्दर्भ सूची (जैन विब्लिोग्राफी) महावपूर्ण कृति है । आपकी सेवाएं अपूर्व हैं। मैं अपनी श्रद्धांजलि अर्पण करता हुद्रा परलोक में उनकी श्रात्मा को शान्ति की कामना करता हूँ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारत कला-भवन बनारस में संग्रहीत राजघाट की जैन प्रतिमाएँ श्री नीरज जैन राजघाट से प्राप्त जैन पुरातत्त्व की जो सामग्री है, यक्ष के हाथों में पुष्प और कमण्डलु है। काशी के भारत कला भवन में सकलित की गई है उसमें वृक्ष के ऊपर धर्मचक्र सहित सिंहासन है और उस लगभग पन्द्रह शिल्पावशेष उल्लेखनीय हैं। राजघाट में पर कमल की पीठिका पर विराजमान सौम्य मख. सस्मित किसी समय जो विपुल सामग्री रही होगी,माज यद्यपि वदन, २३वें तीर्थंकर भगवान पारसनाथ की पचासन उसका शताश भी उपलब्ध नहीं है तथापि इस सामग्री छवि अंकित है। इस मूर्ति की मुद्रा अपनी मनोहरता में पर से स्थान की प्राचीनता तथा सास्कृतिक समृद्धि का गुप्त कालीन कला का स्मरण दिलाती है। भामण्डल भी भलीभांति अन्दाज लगाया जा सकता है। वैसा ही सादा और सरल है। छत्र तथा इन्द्र मौर विद्या___इस सचित सामग्री से हमें यह भी ज्ञात होता है कि धरों का प्रकन भी यथाविधि पाया जाता है। जिनेन्द्रमूर्तियों के परिकर में प्रभामण्डल, छत्र, इन्द्र, यद्यपि इस मूर्ति पर कोई चिह्न नहीं है पर नीचे के विद्याधर, सिंहासन, धर्मचक्र, शासन देवियां, उनके परिकर और शासन देवता से ज्ञात होता है कि यह विभिन्न मायुध तथा वाहन प्रादिकों का अंकन राजघाट पारसनाथ पारसनाथ ही हैं। में भी पर्याप्त हुमा है। कल्पवृक्ष के ऊपर विराजमान तीर्थकर तथा उसी वृक्ष के नीचे खड़े हुए शासन देव और - चतुर्मुख स्तम्भ का अवशेष क० २६४ देवी संभवत. यही की विशेषता है। इसी प्रकार एक इस स्तम्भ के एक प्रोर खड़गासन पारसनाथ की चतुर्मुख स्तम्भ मे एक पोर ऋषभदेव; दूसरी ओर साधारण मूर्ति है । उनका चिह्न फणधर पीठिका से उठ अम्बिका; तीसरी पोर पारसनाथ तथा चौथी पोर इन्द्र- कर उनके पीछे कुण्डली मारता ऊपर की मोर दिखाया सभा का अंकन है जो इस समूचे संग्रह में अलग ही गया है । इस भोर मस्तक का भाग खण्डित है प्रतः फणाअपनी विशेषता उत्पन्न करता है। इन शिल्पावशेषों का वलि भी ट्टी हुई हैं। विवरण इस प्रकार है दूसरी मोर नेमिनाथ की शासन सेविका देवी पम्बिका कल्पवृक्ष पर कमलासीन तीर्थकर को सिंह पर ललित प्रासन विराजमान दिखाया गया है। देवी की गोद में एक बालक है क्रमांक २१२ की यह प्रतिमा अत्यन्त सानुपातिक और दूसरा बालक पार्श्व में खड़ा है। ऊपर का भाग यद्यपि खण्डित है परन्तु और मनोहर तो है ही, इसका संयोजन भी तात्कालिक शिल्प में एक नवीनता का समावेष करता है। प्राम्र वृक्ष का प्रकन एक दम स्पष्ट है। . नीचे पीठिका पर संभवत: प्रतिष्ठापक गृहस्थ युगल तीसरी ओर मादि तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की को मर्चन्त रत बैठे हुए प्रकित किया गया है। वृक्ष के प्रतिमा भी जो लगभग पूरी तरह नष्ट हो गई है। तने से लगे हुए शासन देवताओं के सेवक खड़े हैं, तथा स्तम्भ की चौथी पोर इन्द्र सभा का दृश्य अंकित वृक्ष के नीचे गौरवपूर्ण त्रिभग मुद्रा में यक्ष धरणेन्द्र और है। इन्द्र और इन्द्राणी को सुन्दर वेषभूषा में खड़े हुए यक्षी पद्मावती को प्रसन्नमुख खड़े हुए दिखाया गया है। अंकित किया गया है। इन्द्र के पादमूल में उसका वाहन देवी के हाथ में कमल पुष्प है और प्रक में एक बालक ऐरावत अंकित है। भासपास और भी अनेक देव, किन्नर, Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . गन्धर्व भादि अंकित है, किन्तु ऊपर का भाग इस पोर तीर्थंकरों की मूर्तियां है जो प्रायः खंडित और कला की भी अधूरा है। संभव है ऊपर किसी माराध्य तीर्थकर की दृष्टि से साधारण हैं। प्रतिमा रही हो या फिर यह पाण्डक शिला की भोर क्रमांक १९७ पांच फणों से युक्त एक शीर्ष भाग है। भगवान की यात्रा का दृश्य हो सकता है। ३१३ भी एक तीर्थकर मूर्ति का मस्तक है जो अपनी कला की दृष्टि से साधारण होकर भी इस खण्ड का भाव प्रवण मुद्रा और स्मिति के कारण मन में बस जाता अभिप्राय की दृष्टि से विशेष महत्त्व है। है। क्रमांक २६४ एक अन्य तीर्थकर प्रतिमा का शीर्ष कमांक ६१, १७६ तथा २५५ भाग है। उसके दोनों ओर हाथ में पुष्प माल लिए तीनों पचासन तीर्थकर प्रतिमाएं हैं। १६१ में चिह्न विद्याधर और उसकी विद्याधरी को उड़ते हुए अंकित नहीं है और सिंहासन के सिंहों के पार्श्व में भी बैठे हुए किया गया है । भामण्डल का इस मूर्ति में प्रभाव है। तीर्थकर इस मूर्ति की विशेषता हैं । १७६ आदिनाथ की छत्र भी परम्परागत नही बनाए गए है। छत्र के स्थान मूर्ति है और इसके सिंहासन में एक मनोहर धर्मचक्र पर एक हरा भरा और फलों से युक्त पाम्र वृक्ष बड़ी ही तथा एक पक्ति का शिलालेख है। गोमुख, चक्रेश्वरी सरुचि पूर्वक प्रकित किया गया है । हो सकता है यह और वृषभ यथा स्थान हैं । २५५ पारसनाथ का केवल प्रतिमा २२वें तीर्थकर नेमिनाथ भगवान की हो और यह सिहासन है पर सिंहासन का नाग और कमल बहुत सुन्दर प्रान वक्ष देवी अम्बिका के प्रतीक रूप में इनके साथ बने हैं । क्रमांक ८५, १७९ मोर २७४ कायोत्सर्ग प्रासन अकित हुमा हो। सन्तुलन अपना व्यवहार मुनि श्री कन्हैयालाल जी सुख और दुःख, जीवन रूप सिक्के के दो पहलू हैं: बन्धूवर ! इस संसार में कोई भी किसी का मित्र सुख के पीछे दुःख और दुःख के पीछे सुख का क्रम चलता नहीं है और न कोई किसी का शत्रु भी है। अपना सद्ही रहता है। फूल खिलता भी है, मुरझाता भी है। प्रसद् व्यवहार ही मित्रता और शत्रुता का कारण बनता दीपक जलता भी है, बुझता भी है। दिनकर उदित भी है। होता है, अस्त भी होता है। संसार का ऐसा प्रवाह यदि तुम्हारा व्यवहार मधुर है, हृदय में सरलता है, अनादिकाल से चलता पा रहा है। उदय और प्रस्त में वाणी मे अमृत है तो ससार मे कोई तुम्हारा शत्रु नहीं सूर्य अपने स्वभाव को नही बदलता । दोनों ही अवस्था मे रहेगा, सभी तुम्हारे मित्र बन जाएँगे। तुम्हें कोई प्रयास रक्त रहता है। यही उसकी महानता का अभिसूचक है। भी नही करना पड़ेगा। महापुरुषों में उसी की गणना होती है जो सुख और दुःख में समवृत्ति होता हैं । सुख में फलना और दुःख मे सन . मित्र बनाने से नहीं बनते, अपने व्यवहारों से बनते घबराना मानव की सबसे बड़ी दुर्बलता है। कष्टोके हैं। यदि तुम्हारा व्यवहार बुरा है, हृदय में कुटिलता है, अपरिमित भूचालों के प्रागमन पर भी जिसका हृदय व वाणी में जहर है तो सारा संसार तुम्हारा पात्र बन विचलित नहीं होता, समग्र साधन सामग्री प्राप्त हो जायेगा। लाख प्रयत्न करने पर भी कोई तुम्हें मित्र भी जो गुब्बारे की तरह फूलता नहीं, अपने निर्णीत लक्ष्य फलता नहीं. अपने नियत दृष्टिगत नहीं होगा। पर की भोर सन्तुलन से बढ़ता जाता है, वही प्राणी इस सबसे पहले अपने व्यवहारों को सुधारने का प्रयत्न मर्त्यलोक का अद्वितीय रत्न व चमकता हा एक उज्ज्वल करो । अपना व्यवहार ही शत्रु और अपना व्यवहार ही नक्षत्र है। मित्र है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जसहर चरिउ' की एक कलात्मक सचित्र पाण्डुलिपि डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल एम. ए. पी-एच. डी. राजस्थान के 'जैन ग्रन्थ संग्रहालय' साहित्य एवं कला खूब लिखा है और अच्छा लिखा है। अपभ्रंश में इनके के महत्वपूर्ण भण्डार हैं। जो कुछ भारतीय साहित्य' जीवन पर सर्व प्रथम लिखने वाले 'महाकवि पुष्पदन्न' थे एवं विशेषतः जैन साहित्य सुरक्षित रह सका है। जो दसवीं शताब्दी के विद्वान थे। 'पुष्पदन्त' ने 'जसहर उसमें राजस्थान के इन संग्रहालयों का विशेष चरित' लिखकर यशोधर के जीवन को पौर भी लोकप्रिय योग है। इस प्रदेश की भूमि साहित्य सेवियों को बनाने में योग दिया। कवि की यह कृति भी अत्यधिक जन्म देने में सदा उर्वरक रही है। आज भी इस जनप्रिय रही और यही कारण है कि राजस्थान के जैन प्रदेश में १५० से भी अधिक जैन ग्रन्थ भण्डार है, ग्रन्थ भण्डारों में इसकी पचासों प्रतियाँ उपलब्ध होती जिनमे प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी एवं राजस्थानी हैं। भाषा की महत्वपूर्ण एवं प्राचीनतम पाण्डुलिपियो का 'जसहर चरिउ' एक खण्डकाव्य है-जो चार सन्धियों संग्रह उपलब्ध है। ये सभी भण्डार साहित्यकारों के लिए में विभक्त है। कवि ने इसे अपभ्रंश के सर्वाधिक प्रिय हैं। जिनकी यात्रा किये बिना कोई भी विद्वान जैन कड़वक एवं पत्ता छन्दों में निबद्ध किया है। संधि के साहित्य के अन्तस्तल तक नहीं पहुंच सकता। वास्तव में इन अनुसार काव्य में इन छन्दों की संख्या निम्न प्रकार हैग्रन्थ-भण्डारी में साहित्य की अमूल्य निधियां निहित है। प्रथम सन्धि-२६ कड़वक । साहित्यिक पाण्डुलिपियो के अतिरिक्त इन भण्डारी द्वितीय संधि-३७ कड़वक-महाराज यशोधर के में कलात्मक एवं सचित्र प्रतियों का भी अच्छा संग्रह है। भवांतरों का वर्णन । श्रावक एवं साधुवर्ग दोनों ने ही सचित्र प्रन्थों को लिखने तृतीय संधि-४१ कड़वक महाराज यशोधर के लिखवाने एवं संग्रह करने में अपनी विशेष रुचि दिखलायी मनुष्य जन्म का वर्णन। है। ये लोग चित्रकला के अच्छे पारखी रहे हैं। इसलिए चतुर्थ संधि-३० कड़वक । भारतीय चित्रकला की विविध शैलियों के चित्र राजस्थान प्रस्तुत काव्य का नायक 'यशोधर' है। जो प्रभय. के इन जैन भण्डारों में देखने को मिलेंगे। इनके अध्ययन रुचि के रूप मे स्टेज पर माते है। वे जैन सन्त हैं। गांवके प्राचार पर भारतीय चित्रकला के विकास पर अच्छा गांव में विहार करके स्व-पर कल्याण करना ही जिनका प्रकाश डाला जा सकता है। प्रस्तुत लेख मे 'महाकवि प्रमुख है। जब वे राजा मारिदत्त के सिपाहियों द्वारा पुष्पदन्त' विरचित 'जसहर चरिउ' की एक कलात्मक पकड़ कर राजा के सामने लाये जाते हैं तो उनकी भव्य सचित्र पाण्डुलिपि पर प्रकाश डाला जा रहा है- माकृति को देख कर स्वय राजा भी मुग्ध हो उठता है जन-साधारण में 'महाराज यशोधर' का जीवन-चरित्र और उनसे जगत मे इस रूप में विचरण करने का कारण इतना अधिक लोकप्रिय रहा है कि प्रत्येक भारतीय भाषा जानना चाहता है। और इसी प्रसंग में 'अभयरुचि' अपने में उनके जीवन पर काव्य, चरित, कथा, रास आदि के पूर्व भवो की पूरी कथा कहता है। यह कथा 'यशोधर रूप में रचनाएँ उपलब्ध होती हैं। राजस्थान के किसी- राजा' के भव से प्रारम्भ होती है और प्रभय रुचि' तक भण्डार में तो 'यशोधर चरित' की १५ से भी अधिक प्राकर समाप्त हो जाती है। अन्तिम सन्धि में राजा प्रतियां मिल जाती हैं। यही नही संस्कृत, अपभ्रंश एवं मारिदत्त एवं भैरवानन्द की भी पूर्व जन्म कथा का भी हिन्दी-राजस्थानी में विभिन्न विद्वानों ने इनके जीवन पर वर्णन है, जो उनको हिसामयी मार्ग से छुड़ाने के लिए Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कही गयी है। 'यशोधर परित' अहिंसाके प्रखरतम माहात्म्य मौजमाबाद के ही कवि थे। उन्होंने अपनी होली की कथा को बताने वाली कृति है। "किसी जीव का वध एक में इस ग्राम का निम्न प्रकार का वर्णन किया हैजघन्यतम अपराध है और वह यदि भाव वध हो तो भी यहीं के बाजार वाले मन्दिर में शास्त्र-भण्डार है. उसका उतना ही कुफल मिलता है।'-यही बतलाना जिसमें करीब २५० हस्तलिखित ग्रन्थों का संग्रह है। इन इस कृति का मुख्य उद्देश्य है। अन्यो में हिन्दी एवं सस्कृत के ग्रन्थों की अधिक संख्या यद्यपि महाकवि की यह एक लघु रचना है किन्तु है। कुछ एक तो काफी महत्वपूर्ण हैं, जिनमे प्रा. कुन्दउसमें सरसता प्रवाह एवं लालित्य सभी गुण उपलब्ध कुन्द का प्रवचनसार, जिनेंद्रव्याकरण, अमरकीति की होते हैं। भाषा में वेग है। राजा मारिदत्त की सुन्दरता षट् कर्मोपदेशमाला, माशाधर का त्रिषष्ठिस्मृति शास्त्र का एक वर्णन देखिए एवं अमितिगति का योगसार आदि के नाम उल्लेखनीय चाएण कण्णु विहवेण इंदु, स्वेण काम केतीए चंदु। हैं। इसी भण्डार में लाख चारण विरचित 'कृष्ण रुक्मिणी बजे जमविण्ण पर्यड घाउ, पर दुम बलम वलेग वा॥ वेलि' की हिन्दी गद्य टीका भी है। सुरकरि फर थोर पर बाह, महाकवि पुष्पदन्त कृत इस सचित्र पाण्डुलिपि में १४ पच्चंत जिवह मणि विष्ण बाहु । पृष्ठ हैं। पृष्ठों का प्राकार ११॥४४-३/४" है। पाण्डुभसल उल णील पम्मिल्ल सोह, लिपि संवत १६४७ (सन् १५९०) मे महाराजा जयसिंह सुसमस्य भव्ह गोहाण गोह। के शासनकाल में पामेर नगर के नेमिनाथ चैत्यालय में मोउर कबाडमा विउल वच्छ, लिखी गई थी। उस समय श्री चन्द्रकीति देव मंडलाचार्य सत्तितप पालणु बोहरच्छ। थे। इसकी प्रतिलिपि खण्डेलवालान्वयी गोधा गोत्र वाले लक्मण लमबंकित गुण समुद्धः 'साह ठाकुर' ने करवायी थी। सुपसण्ण मुत्ति षण गहिर सदु ॥ "संवत् १६४७ वर्षे ज्येष्ठ सुदि तृतियायो भू(भी)मइसी काव्य की एक सचित्र पाण्डुलिपि मौजमावाद वामरे पुनर्वसु नक्षत्र श्रीनेमिनाथ जिन चैत्यालये अंबावती (राजस्थान के शास्त्र-भण्डार में संग्रहीत है, जिसका परि वास्तव्ये महाराजाधिराज श्री मानसिंघ राज्य प्रवत्तैमाने चय इस लेख में दिया जा रहा है। श्री मूलसचे नंद्याम्नाये बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे कंद'मौजमाबाद' १७वीं शताब्दी में साहित्यिक एव कंदाचार्यान्वये भ. श्री प्रभाचन्द्र देवा तस्सिष्य भ. श्री सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रसिद्ध केन्द्र रहा था। संवत् घर्मचद्रदेवातस्सिध्य भ. श्री ललितकीति देवा तस्सिष्य १६६४ में महाराजा मानसिंह के अमात्य नानू गोधा ने मं० श्री चन्द्रकीत्ति देवाम्नाये खडेलवालान्वये गोषा यहां एक विशाल प्रतिष्ठा महोत्सव कराया था। इस गोत्रे सा० ठाकूर तद्भायें दे प्र. डी ही द्वि० लाछि दयो प्रतिष्ठा में राजस्थान से ही नहीं किन्तु देश के दूर-दूर पत्राः सप्त प्र. सा.श्री तेजपाल तदभार्ये उ. प्र. त्रिभुभाग से लोग पाये थे। यही कारण है कि राजस्थान के वन दे द्वि०.........." बहुत से मन्दिरों में इस समय में प्रतिष्ठित मूर्तियां मिलती -इस प्रति के प्रारम्भ के ५ पत्र वाद के लिखे हुए है। स्वयं मौजमाबाद के बड़े मन्दिर में अधिकांश मूर्तियां है। सब मिलाकर इसमें ७१ चित्र है। ये चित्र समान इसी समय की है। सभी मूर्तियां विशाल एवं मनोज्ञ हैं। प्राकार वाले नही हैं। किन्तु कितनेही पूरे पृष्ठ पर हैं, कितने माज भी यहां का मन्दिर एवं उसका भौंहरा खूब प्रसिद्ध हैं ही पाये पृष्ठ पर तथा अन्य पृष्ठ के एक भाग पर दिये पौर श्रावक गण उनके दर्शनार्थ माते रहते हैं। मन्दिर के हए हैं। चित्रों की भूमि लाल रंग की है, और उस पर तीन उत्तुंग शिखर दूर से भगवान जिनेन्द्र का मानों जय- विभिन्न चित्र अंकित हैं। घोष करते रहते हैं। शिखर पूर्णत. कलात्मक है जो बहतोली: ये चित्र सामान्यतः राजस्थानी शैली के हैं ही कम स्थानों पर देखने को मिलेंगे। 'छीतर ठोलिया' और विशेष रूप से पामेर शैली के चित्र हैं। स्त्रियां पांवों Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RA अनेकान्ततोडावणEMAध्येयातिवियालियफायड शिवारमहरापाविरवहाँदइयरालयदायमानस collection HTwitwanonianimomsonilesaway N भी An Arkes __ . CARMA OM TAMAN A RAN H alwa Stage । जगिजगदरिमावास्यवसरिपडिदारंवशएंकण्यमयदडमोडयकरासारयत । नडमामतमतिावरखनमाजगिजाब्दकित्रिगण्यनुलणाविमऊगरवशमनडमाका. I SARAapilma ntula REC S महाराज यशोधर को सभा का एक दृश्य, देखो, पृ० ५१ FORMS पिककरायंकररायधिसाकुर गरसनाएाणिमासकाहजिकंटा - भाई याभरावरणहाडाचकमकदकांडार अडियहियायलछियातिपदिर माजीविरलकविलमा HARA what ANSa 5 0 : MAN IJRAwestNANINorrentreye --14 Namwaliwsindiyani महाराज यशोवर की पत्नी एक कोढ़ी के चरणों में गिरकर क्षमा मांगती हुई। महाराज यशोधर हाथ में तलवार लिए हुए पीछे खड़े हैं । देखो, पृ० ५१ हलिग्कादानगिविणवाणिनिहिगुरुपरममदयधमालकोवालयस्य विजय |शाणालरकाणचचियगारव्हलियनतकयकरपतापकयणिताजियापयतिसयधिर श्रीकालिमलरतमासनंदयसंवतंदरुणामुराण TEEसुकीजियमयरइंसानिमाकोरुदियाघर HERMIRAgीमालयनवतादिदममलीलगिएकमतीवियस नारहियरिखमाकोशीपापरणकन्या मलित - महतार . परमादीसह गव्दामादसवाक्के नाम साचियक्षिलपमहियलतिलयेदेवाणिलयोबारयते मलावधयानादावारणमगाय-कर्ममारित - FARHदबाव विमानन् Euroasarawaistia ne राजा मारिदत्त के दो सैनिक, क्षुल्लक एवं अल्लिका को वषस्थान की मोर ले जाते हुए, देखो, ५० ५१ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ग्वालियर किले की जंन मूर्तियां (To पुरातत्व विभाग बिल्ली के सौजन्य से ) 수 जनमन्दिर देवगढ़ नं० १२ (ग० पुरातत्व विभाग दिल्ली के सौजन्य से ) भ० शान्तिनाथ की प्रतिमा (खजुराहो ) Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'जसहरचरित' की एक कलात्मक सवित्र पालिपि ५३ में कड़े पहिने हुए हैं। उनके बदन पर चोली तथा कमर रहे हैं। सिपाहियों के हाथों में ढाल तलवार है। में लहंगा है। माथे की चोटी काफी बड़ी है। उनके अभयरुचि के एक हाथ में कमण्डलु है लेकिन उसका ललाट पर बोरला हैं जो राजस्थानी वेश-भूषा का पकड़ने वाला भाग ही चित्रित किया गया है। प्रभयमति प्रधान मंग है! सिर पर रंगीन प्रोदनी है। हाथों में के हाथ में सम्भवतः पिच्छिका है। चूड़ियों के अतिरिक्त एक लटकता हुमा प्राभूषण भी है। चित्र न०४ (पत्र सं० २४ पर)-महागज यशोधर उनके पेट का निचला भाग खुला है। और वह दिखाई शयनकक्ष मे है। दो सन्तरी तलवार लिए पहरा दे रहे देता है। प्रत्येक की नाक लम्बी एवं नोकदार है तथा हैं। महाराज बारीक मंगरखी पहिने हुए हैं। शेष वही मांखें अपभ्रंश शैली की हैं। वस्त्र झीने न होकर कुछ वेश-भूषा है । पलंग के पास पहिगन रखा हुआ है। मोटे हैं, जिनसे उनका वदन नही दिखाई देता। गले में चित्र नं०५ (पत्र सं० २५ पर)-यह चित्र कृति बजर बट्टी पहिने हुए हैं और कानों में कुण्डल है। मे रोमाञ्चकारी चित्र है-जिसमें महाराज यशोधर की पुरुषों की वेश-भूषा में ज्यादा विभिन्नता नहीं है। राणी एक कुष्ठी के पांव पड़ी हुई है। और वह कुष्ठी उनका प्रायः नंगा वदन एव उस पर रंगीन दुपट्टा दिखाई उसकी चोटी पकड़े हुए है। रानी अपने पूरे श्रृंगार में पड़ता है। गले में, हाथों में व बाहों में गहना पहिने हुए है। उसी के पीछे महाराज यशोधर तलवार लिए हुए खड़े हैं । कानों में कुण्डल लटके हुए हैं। वे तीन लांग की हैं। कोढ़ी का रंग नीला एवं डरावना है। एवं उसका धोती पहिने हुए हैं। चित्रों की कलम स्पष्ट एवं बारीक नग्न वदन है । वह एक चबूतरे पर बैठा हुमा है। है। किसी अच्छे कलाकार ने इनको बड़ी मेहनत से चित्र नं.६ (पत्र सं० २९ पर)-नृत्य मण्डली बनाया है। पाण्डुलिपि मे पाये हुए चित्रों में से पाठ राजकुमार के समक्ष नाचती हुई एक नतिका । एक नर्तक चित्रों का परिचय निम्न प्रकार है: के हाथ में ढोलक एवं एक के हाथ में मंजीरे हैं। नतिका चित्र नं. १ (पत्र ६ पर)-राजा मारिदत्त का राज की वेणी इतनी लम्बी है कि वह मांगन तक पहुँच रही हैं। दरबार लगा हुमा है व नृत्य हो रहा है। इसमे नर्तिका चित्र न. ७ (पत्र सं० ३७ पर)-यज्ञ में पाटे के सहित सभी नर्तक झीने वस्त्र पहिने हुए हैं। सिर पर बने हुए पुरुष के पुतलों का होम करते हुए। जयपुरी पगडियां है। बाकी पाभूषण एवं वेशभूषा वही चित्र नं०८ (पत्र सं० ७२ पर)-मुनि के धर्मोपहै जो ऊपर लिखी हुई है। चित्र 81२॥" माकार देश के लिए जाते हुए राज सवारी। सबसे मागे एक सनिक है उसके पश्चात् महावत सहित हाथी । मध्य में चित्र नं. २ (पत्र पर)-चंडमारि देवि का चार पौंजस में राजा-रानी बैठे हुए हैं। पीजस को दो पुरुष हाथों वाला चित्र है। नर-मुण्ड की माला चारों ओर कंधे पर लिए जा रहे हैं। पीछे एक हाथी और घोड़ा है। पड़ी हुई है। वह सिंहासन पर बैठी है। सिंह का वाहन चित्र अच्छा है। है। सामने दो भक्त पुरुष हाथ जोड़े खड़े हैं । इस प्रकार 'जसहर चरिउ की प्रस्तुत प्रति कला की चित्र नं. ३ (पत्र १० पर)-सिपाही क्षुल्लक- एक अनूठी कृति है, भारतीय चित्रकला की दृष्टि से क्षुल्लिका श्री अभयरुचि एवं अभयमति को लिए हुए जा उसके विस्तृत अध्ययन की प्रावश्यकता है। Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का जैन पुरातत्व परमानन्द जैन शास्त्री श्रमण संस्कृति का प्रतीक जैनधर्म प्रागैतिहासिक जैसे कंकाली टीला मथुरा से मिले हैं। ये सभी प्रलंकरण काल से चला पा रहा है, वह बौद्ध धर्म से प्रत्यन्त प्राचीन भारतीय पुसतत्त्व की अमूल्य देन हैं। और एक स्वतंत्र धर्म है। वेदों और भागवत प्रादि हिन्दू मध्यप्रदेश के पुरातत्त्व पर दृष्टि डालने से ज्ञात होता धर्म-ग्रन्थों में उपलब्ध जैन धर्म सम्बन्धी विवरणों के है कि वहां पधिक प्राचीन स्थापत्य तो नहीं मिलते; परन्तु सम्यक परिशीलन से विद्वानों ने उक्त कथन का समर्थन कलचुरी और चंदेलकालीन सौन्दर्याभिव्यंजक मलकरण किया है। प्राचीन काल में भारत की दो संस्कृतियों के प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। उससे पूर्व की सामग्री बिरल अस्तित्व का पता चलता है। श्रमण संस्कृति और वैदिक रूप में पाई जाती है, उस काल की सामग्री प्रायः नष्ट संस्कृति । मोहनजोदारों में समुपलब्ध ध्यानस्थ योगियों की मतियो की प्राप्ति से जैनधर्म की प्राचीनता निर्विवाद हो चकी है, और कुछ भूमिसात् हो गई है। बौद्धों के सिद्ध होती है। वैदिक युग में प्रात्यों और श्रमणों की सांची स्तूप और तद्गत सामग्री पुरानी है। विदिशा की परम्परा का प्रतिनिधित्व जैनधर्म ने ही किया था। इस उदयगिरि की २०वी गुफा में जैनियों के तेवीसवें तीर्थकर यग में जैन धर्म के पादि प्रवर्तक मादि ब्रह्मा, प्रजापति पाश्र्वनाथ की प्रतिमा सछत्र अवस्थित थी; परन्तु वहां प्रादिनाथ थे, जो 'नाभिरायके पुत्र' के नाम से प्रसिद्ध हैं। अब केवल फण ही भवशिष्ट है१, मूर्ति का कोई पता नहीं जिनकी स्तुति वेदों में की गई है। इन्हीं आदिनाथ के पुत्र चलता कि कहां गई। परन्तु प्राचीन सामग्री के संकेत भरत चक्रवर्ती थे जिनके नामसे इस देश का नाम भारतवर्ष अवश्य मिलते हैं, जिनसे जाना जाता है कि वहां मौर्य पड़ा है, जैनधर्म के दर्शन, साहित्य, कला, संस्कृति पौर और गुप्त काल के अवशेष मिलने चाहिये। कितनी ही पुरातत्त्व प्रादि का भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान पुरातन सामग्री भूगर्भ में दबी पडी है और कुछ खण्डहरों रहा है। इतिहास में पुरातत्त्व का कितना महत्व है, यह मे परिणित हुई सिसकियां ले रही है, किन्तु हमारा ध्यान पुरातत्त्वज्ञ भलीभाति जानते हैं। भारतीय इतिहास में अभी तक उसके समुद्धरण को पोर नहीं गया। मध्यप्रदेश का जैन पुरातत्व भी कम महत्व का नहीं है। जबलपुर के हनुमान ताल के दिगम्बर जैन मन्दिर मे वहां पर अवस्थित जैन स्थापत्य, कलात्मक मलकरण, स्थित एक कलात्मक मूर्ति शिल्प की दृष्टि मे अत्यन्त मन्दिर, मूर्तियां, शिलालेख, ताम्रपत्र और प्रशस्तियों सुन्दर और मूल्यवान है। वैसी मूर्तियां महाकौशल में प्रादि में जैनियों की महत्त्वपूर्ण सामग्री का अंकन मिलता बहत ही कम उपलब्ध होंगी। उसमें कला की सूक्ष्मभावना, है। यद्यपि भारत में हिन्दुनों, बौद्धो और जैनो के पुरातत्त्व उदात्त एवं गम्भीर विचार और बारीक छैनी का पाभ स की प्रचुरता दृष्टिगोचर होती है और ये सभी प्रलंकरण उम के प्रत्येक प्रग से परिलक्षित होता है। इसी तरह अपनी-अपनी धामिकता के लिये प्रसिद्ध है। परन्तु उन देवगढ़ का विष्णु मन्दिर भी गुप्तकालीन कला का सुन्दर सब में कुछ ऐसे कलात्मक प्रलंकरण भी उपलब्ध होते हैं, प्रतीक है. और भी अनेक कलात्मक अलंकरणो का यत्रजो अपने अपने धर्म की खास मौलिकता को लिये हुए हैं। सकेत मिलता है। जो तत्कालीन कला की मौलिक जैनों और बौडों में स्तूप और प्रयागपट भी मिलते हैं। रेन है। इस तरह उक्त तीनों ही सम्प्रदायों की अनेक जैन स्तूप गल्ती से बौद्ध बतला दिये गये हैं। प्रयाग पट भी अपनी खास विशेषता को लिये हुए मिलते हैं, १. इंडियन एण्टीक्वेरी जि० ११ पृ. ३१० Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का जैन पुरातत्त्व पुरातात्विक सामग्री का अस्तित्व जरूर रहा है; परन्तु जो प्रवशिष्ट बच पाई है उसका संरक्षण भी दूभर हो गया वर्तमान में वह विरल ही है। है। और बाद में उन स्थानों में वैसा मजबूत संगठन नहीं मध्यप्रदेश के पुरातात्विक स्थान और उनका बन सका है, जिससे जैन संस्कृति और उसकी महत्वपूर्ण संक्षिप्त परिचय सामग्री का संकलन और संरक्षण किया जा सकता। मध्यप्रदेश के खजुराहा, महोवा, देवगढ़, प्रहार, सबुराहो-यह रन्देल कालीन उत्कृष्ट शिल्पकला मदनपुर, बाणपुर, जतारा, रायपुर, सतना, नवागढ़, का प्रतीक है। यहां खजूर का वृक्ष होने के कारण 'खजूर मिलमा, भोजपुर, मऊ, धारा, बडवानी, ऊन और उज्जैन पुर' नाम पाया जाता है । खजुराहो जाने के दो मार्ग हैं। प्रादि पुरातत्त्व की सामग्री के केन्द्र स्थान हैं। इन स्थानों एक मार्ग झांसी-मानिकपुर रेलवे लाइन पर हरपालपुर या की कलात्मक वस्तुएं चन्देल और कलचूरी कला का या महोबा से छतरपुर जाना पड़ता है। और दूसरा मार्ग निदर्शन करा रही हैं। यद्यपि मध्यप्रदेश मे जैन शास्त्र झांसी से बीना सागर होते हुए मोटर द्वारा छतरपुर जाया भडारो के सकलन की विरलता रही है, ५-७ स्थान ही जाता है और छतरपुर से सतना जाने वाली सड़क पर से ऐसे मिलते हैं जहां प्रच्छे शास्त्र भंडार पाये जाते हैं। बीस मील दूर वमीठा मे एक पुलिस थाना है, वहां से यद्यपि प्रत्येक मन्दिर मे थोड़े बहुत ग्रन्थ अवश्य पाये राजनगर को जो दस मील मार्ग जाता है, उसके वें मील जाते हैं पर अच्छा संकलन नहीं मिलता। इसका कारण पर खजुराहो अवस्थित है। मोटर हरपाल पुर से तीस यह है कि वहां भट्टारकीय परम्परा का प्रभाव अधिक नहीं मील छतरपुर भोर वहां से खजुराहो होती हुई राजनगर हो पाया है। जहा-जहां भट्टारकीय गद्दियां और उनके जाती है। विहार की सुविधा रही है वहा वहां अच्छा संग्रह पाया यहां भारत की उत्कृष्ट सांस्कृतिक स्थापत्व और वास्तुजाता है। प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थों का संकलन राज- कला के क्षेत्र में चन्देल समय की देदीप्यमान कला अपना स्थान, गुजरात, दक्षिण भारत तथा पंजाब के कुछ स्थानों स्थिर प्रभाव अंकित किये हुए है। चन्देल राजामो की मे पाया जाता है। वैसा मध्यप्रदेश में नहीं मिलता। हां भारत को यह असाधारण देन है। इन राजामों के समय उत्तर प्रदेश के कुछ स्थानों मे-मागरा, मैनपुरी मेरठ, में हिन्दु-संस्कृति को भी फलने-फूलने का पर्याप्त अवसर सहारनपुर, खतौली, मुजफ्फरनगर और तिस्सा प्रादि मे- मिला है। उस काल मे सास्कृतिक कला और साहित्य के ग्रंथ संग्रह पाया जाता है। और दिल्ली के तो जैन शास्त्र विकास को प्रश्रय मिला जान पड़ता है, यही कारण है कि भंडार प्रसिद्ध ही हैं। मध्य प्रदेश के जिन कतिपय स्थानो उस काल के कला-प्रतीकों का यदि सकलन किया जाय, का उल्लेख किया गया है उनमें से कुछ स्थानो का यहा जो यत्र-तत्र बिखरा पड़ा है। उससे न केवल प्राचीन कला सक्षिप्त परिचय देना ही इस लेख का विषय है यद्यपि की रक्षा होगी बल्कि उस काल का कला के महत्व पर मालव प्रान्त भी किसी समय जैनधर्म का केन्द्र स्थल रहा भी प्रकाश पड़ेगा और प्राचीन कला के प्रति जनता का है, और वहां अनेक साधु-सन्तों पौर विद्वानों का जमघट अभिनव प्राकर्षण भी होगा; क्योकि कला कलाकार के रहा है। खास कर विक्रम की १०वी शताब्दी से १३वी जीवन का सजीव चित्रण है। उसकी प्रात्म-साधना कठोर शताब्दी तक वहां दि० जैन साधुनों मादि का प्रध्ययन, छनी और तत् स्वरूप के निखारने का दायित्व ही अध्यापन तथा विहार होता रहा है, और वहां अनेक ग्रंथों उसकी कर्तव्यनिष्ठा एवं एकाग्रता का प्रतीक है। भावों की की रचना की गई है। साथ ही, अनेक प्राचीन उत्तुग अभिव्यंजना ही कलाकार के जीवन का मौलिक रूप है। मन्दिर और मूर्तियों का निर्माण भी हुमा है। परन्तु राज्य उससे ही जीवन में स्फूति और पाकर्षण शक्ति की जागृति विप्लवादि और साम्प्रदायिक व्यामोह मादि से उनका होती है। उच्चतम कला के विकास से तत्कालीन इतिहास संरक्षण नहीं हो सका है। अतः कितनी ही महत्व की के निर्माण में पर्याप्त सहायता मिलती है। बुन्देलखण्ड में ऐतिहासिक पोर सांस्कृतिक सामग्री विलुप्त हो गई है। चन्देल और कलचुरिमादि राजापो के शासनकाल में Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनधर्म का प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो रहा था। मोर उस का मन्दिर कहा जाता है । इस मन्दिर की शोभा अपूर्व समय अनेक कलापूर्ण मूतियां तथा सैकड़ो मन्दिरों का है। इसमें प्रध-मण्डप, महामण्डप, अन्तराल और गर्भगृह निर्माण भी हुपा है। खजुराहो की कला तो इतिहास में समाविष्ट थे। एक सांझा प्रदक्षिणा पथ भी था जिसकी अपना विशिष्ट स्थान रखती ही है। यद्यपि खजुराहो में कितनी ही खण्डित मूर्तियां पाई जाती हैं, जो साम्प्रदायिक बाहिरी दीवार नष्ट हो चुकी है। विष का परिणाम जान पड़ती हैं। दूसरा मन्दिर मादिनाथ का है। यह घण्टाई मन्दिर यहाँ मन्दिरों के तीन विभाग हैं। पश्चिमी समूह, के हाते में दक्षिण-उत्तर पूर्व की भोर अवस्थित है। यह २-पर्क समह, ३ तथा दक्षिणी समूह। पश्चिमी समूह मन्दिर भी रमणीय और दर्शनीय है। इस मन्दिर में शिव विष्णु, चौसठ योगिनियाँ, जगदम्बा, कन्दारिया __ पहले जो मूलनायक की मूर्ति स्थापित थी, वह कहाँ गई, मन्दिर, विश्वनाथ मोर नन्दी मन्दिर मंगलेश्वर का है। इनमे महादेव का मन्दिर ही सबसे ही प्रधान है, और यह कुछ ज्ञात नहीं होता। तीसरा मन्दिर पाश्र्वनाथ का उत्तरी समूह मे भी विष्णु के छोटे-बड़े मन्दिर हैं । दक्षिणी है। यह मन्दिर सब मन्दिरों से विशाल है। इसमें पहले आदिनाथ की मूर्ति स्थापित थी, उसके गायब हो जाने पूर्वी भाग जैन मन्दिरों के समूह से अलंकृत है। यहाँ महादेव जी की एक विशाल मूर्ति ८ फुट ऊंची और तीन पर इसमे पार्श्वनाथ की मूर्ति स्थापित की गई है। गर्भ गृह की बाहिरी दीवारों पर बनी हुई अप्सराएं मूर्तिकला फुट से अधिक मोटी होगी। वराह अवतार भी प्रतीव के उत्कृष्ट उदाहरण एवं संगतराशी के फन मे सुन्दर है। उसकी ऊंचाई सम्भवतः तीन हाथ होगी। अलौकिक लालित्य की परिचायक है। इस मन्दिर मंगलेश्वर मन्दिरभी सुन्दर और उन्नत है। कालीका मंदिर की दीवालों के अलंकरणों मे वैदिक देवताओं की भी रमणीय है। पर मूर्ति मे मां की ममता का अभाव मणि भीती अभाव मूर्तियाँ भी उत्कीर्णित हैं। यह मन्दिर अत्यन्त दर्शनीय है दृष्टिगोचर होता है । उसे भयंकरता से प्राच्छादित जो कर कर और सम्भवतः दसवी शताब्दी का बना हुमा है। इसके दिया है, जिससे उसमें जगदम्बा की कल्पना का वह पास ही शान्तिनाथ का मन्दिर है। इन सब मन्दिरों के मातृत्व रूप नहीं रहा और न दया, क्षमा को ही कोई शिखर नागर-शैली के बने हुए है और भी जहाँ तहाँ स्थान प्राप्त है, जो मानव जीवन के खास अग है। यहाँ बुन्देलखण्ड में मन्दिरो के शिखर नागरशैली के बने हुए के हिन्दू मन्दिर पर जो निरावर ण देवियो चित्र उत्कीर्ण मिलते हैं। ये मन्दिर अपनी स्थापत्यकला, नूतनता और देखे जाते है उनसे ज्ञात होता है कि उस समय विलास विचित्रता के कारण प्राकर्षक है। यहाँ की मूर्तिकला, प्रियता का अत्यधिक प्रवाह बह रहा था, इसी से शिल्पियो अलंकरण और अतुल रूपराशि मानव-कल्पना को पाश्चर्य की कला में भी उसे यथेष्ट प्रश्रय मिला है। खजुराहो की में डाल देती है। इन अलंकरणों एवं स्थापत्यकला के नन्दी मूर्ति दक्षिण भारत के मन्दिरो मे भकित नन्दी नमूनों में मन्दिरों का बाह्य और अन्तर्भाव विभूषित है। मूर्तियो से बहुत कुछ साम्य रखती है। यद्यपि दक्षिण की जहाँ कल्पना में सजीवता, भावना मे विचित्रता तथा मूर्तियाँ आकार-प्रकार में कहीं उससे बड़ी हैं । विचारों का चित्रण, इन तीनों का एकत्र संचित समूह ही वर्तमान में यहाँ मन्दिर तो कई हैं किन्तु उनमें सर्व मूर्तिकला के प्रादों का नमूना है। जिननाथ मन्दिर के श्रेष्ठ तीन हिन्दू मन्दिर और तीन ही जैन मन्दिर हैं। बाह्य द्वार पर संवत् १०११ का शिलालेख अंकित है । जिससे पहले इनकी अधिक संख्या रही है। उनमें सबसे प्रथम ज्ञात होता है कि यह मन्दिर चन्देल राजा धंग के राज्यमन्दिर घटाई का है । यह मन्दिर खजुराहो ग्राम की ओर काल से पूर्व बना है। उस समय मुनि वासवचन्द के दक्षिण पूर्व में अवस्थित है। इसके स्तम्भों में घंटा और समय में पाहलवंश के एक व्यक्ति पाहल ने, जो धंग राजा जंजीर के अलंकरण उत्कोणित हैं। इसीसे इसे घण्टाई के द्वारा मान्य था, उसने मन्दिर को एक बाग भेंट किया Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का पुरातत्व था, जिसमें अनेक वाटिकाएँ बनी हुई थीं। इस मन्दिर है:-"सं०-१०८५ धीमान् प्राचार्य पुत्र श्रीठाकुर देवकद्वार पर दाहिनी भोर के उक्त शिलालेख के ऊपर बाई धर सुत श्री शिव श्रीचन्द्रपदेवाः श्रीशान्तिनाथस्य प्रतिमा मोर एक चौतीसा' यंत्र उत्कीर्णित है, जो गृहस्थोपयोगी कारितेति ।" . है, जब किसी गर्भवती स्त्री को प्रसव वेदना हो, तो इस खजराहोकी खण्डित मूर्तियों में से कुछ लेख निम्न यंत्र को केसर से कांसे की थाली में लिखकर शुद्ध पानी प्रकार है:-'सं. ११४२ श्री प्रादिनाथाय प्रतिष्ठाकारक में घोलकर पिला देने से प्रसव शीघ्र हो जाता है। इसी श्रेष्ठी बीवनशाह भार्या सेठानी पपावती।' तरह बालकों के पेट-दर्द में भी उपयोग किया जाता है । इसके ऊपर देवचन्द्र शिष्य कुमुदचना अंकित है। . . ___चौथे न० को वेदी में कृष्ण पाषाण की हथेली पौर नासिका से खण्डित जैनियों के बीसवें तीर्थकर मुनि शान्तिनाथ का मन्दिर-इस मन्दिर में एक विशाल सुव्रतनाथ की एक मूर्ति है। उसके लेख से मालूम होता, मूर्ति जैनियों के १६वें तीर्थंकर भगवान शान्तिनाय की है कि यह मूर्ति विक्रम की १३वीं शताब्दी के प्रारम्भ में है, जो १४ फुट ऊंची है । यह मूर्ति शान्ति का प्रतीक है, प्रतिष्ठित हुई है । लेख में मूल संघ देशीयगण के पंडित इसकी कला देखते ही बनती है। मूर्ति सांगोपांग अपने नागनन्दी के शिष्य पं० भानुकीर्ति और मायिका मेरुश्री दिव्य प्रशान्त रूप में स्थित है और ऐसी ज्ञात होती है द्वारा प्रतिष्ठित कराये जाने का उल्लेख किया गया है, कि शिल्पी ने अभी ही बनाकर तैयार की हो । मूर्ति वह लेख इस प्रकार है.-'सं० १२१५ माष सुदी ५ कितनी चित्ताकर्षक है यह लेखनी से परे की बात है। शिल्पी को बारीक छनी से मूर्ति का निखरा हुमा वह रवी देशोयगणे पंडित नाह (ग) नन्दी तच्छिष्य, पंडित श्री भानुकीर्ति माविका मेरु श्री प्रति नन्दतुः ।" इस तरह कलात्मक रूप दर्शक को आश्चर्य मे डाल देता है. और वह खजुराहो स्थापत्यकला की दृष्टि से अत्यन्त दर्शनीय है। उसे अपनी ओर आकृष्ट करता हुआ देखने का बार-बार उत्कण्ठा उत्पन्न कर रहा है। मूर्ति के प्रगल बगल मैं महोबा-इसका प्राचीन नाम काकपुर, पाटमपुर, अनेक सुन्दर मूर्तियाँ विराजित हैं जिनकी संख्या अनु और महोत्सव या महोत्सवपुर था। इस राज्य का सस्थान मानत. २५ से कम नहीं जान पड़ती। यहां सहस्त्रों पक चदेल वंशी राजा चन्द्रवर्मा था जो सभवतः सन् मूर्तियां खण्डित हैं, सहस्रकूट चैत्यालय का निर्माण बहुत ८०० मे हुमा है। इस राज्य के दो राजामों के नाम बारीकी के साथ किया गया है। भगवान शान्तिनाथ की खब प्रसिद्ध रहे हैं। उनका नाम कीतिवर्मा और मदन इस मूर्ति के नीचे निम्न लेख अकित है, जिससे स्पष्ट है कि वर्मा था, ई. सन् ९०० के लगभग राजधानी खजुराहो यह मूर्ति विक्रम की ११वीं शताब्दी के अन्तिम चरण की से महोबा में स्थापित हो गई थी। कनिंघम ने अपनी १. प्रो (IIX) मवत् १०११ समये । निजकुलघवलोयं a रिपोर्ट में इसका नाम 'जंजाहूति' दिया है। चीनी यात्री र दिव्यमूर्तिस्व (शी)ल: स (श) मदमगुणयुक्त. सर्वसत्वा हुनत्सोग ने अपने यात्रा विवरण में 'जेजाभुक्ति' का नुकपी (IX)सुजनः जनिततोषो धंगराजेन मान्यः प्रण- उल्लेख किया है जिझौती या जेजाकभुक्ति समस्त प्रदेश मति जिननाथ भव्व (व्य) पाहिल (ल्ल) नामा का नाम है। यहाँ की झीलें प्रसिद्ध है। यहां नगर में (II) १॥ पाहिल वाटिका १ चन्द्रवाटिका २ लघ हिन्दू और मुसलमानों के स्मारक भी मिलते हैं। जैन चन्द्रवाटिका ३ स (श) कर वाटिका ४ पंचाइतल संस्कृति की प्रतीक जैन मूर्तियां भी यत्र-तत्र छितरी हुई बाटिका ५ पाम्रवाटिका ६ घ (घ)गवाड़ी ७ (IIX) मिलती हैं। कुछ समय पहले खुदाई करने पर यहाँ बहुतपाहिलवसे (शे) तु क्षये क्षीणे अपरवंशो यः कोपि सी जैन मूर्तियां मिली थीं, जो संभवतः सं० १२०० के तिष्ठति (IX) तस्य दासस्य दासोयं मम दत्तिस्तु लगभग थीं। उनमें से एक ललितपुर क्षेत्रपाल में और पालयेत् ।। महाराज गुरु स्त्री (श्री) वासवचन्द्रः । शेष बांदा में विराजमान हैं। (IIx) (शा)वसा(ख) सुदि ७ सोमदिने। यहाँ एक २० फुट ऊँचा टीला है। वहां से अनेक Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ समित जैन मूर्तियां मिली है। महोबा के पासपास के भग्न तोरण द्वार मिलता है। जिसे कुजदार भी कहते हैं। ग्रामों और नगरों में भी अनेक बस्त जैन मन्दिर और यह पर्वत की परिधि को बेढ़े हुए कोट का द्वार है। यह मूर्तियाँ उपलब्ध होती हैं। उन खण्डित मूर्तियों के पासनों द्वार प्रवेश द्वार भी कहा जाता है। इसके बाद दो जीर्ण पर छोटे-छोटे से मिले हैं, उनमें से कुछ लेखो का सार कोटद्वार भोर भी मिलते हैं। वे दोनों कोट जैन मन्दिरों निम्न प्रकार है: को घेरे हुए हैं। इनके अन्दर देवालय होने से इसे देवगढ़ १-संवत् ११६६ राजा जयवर्मा, २-सं० १२०३, कहा जाने लगा है। क्योंकि यह देवों का गढ़ था; परन्तु ३-श्रीमदनवर्मा देव राज्ये सं० १२११ प्राषाढ ०३ यह इसका प्राचीन नाम नहीं है। इसका प्राचीन नाम शनी देवी नेमिनाथ, रूपकार लक्ष्मण, ४-समतिनाथ 'लुमच्छगिरि' या 'लच्छगिरि' था, जैसाकि शान्तिनाथ स. १२१३ माष सु० दूज गुरो१।५-सं०१२२० जेठ मन्दिर के सामने वाले हाल के एक स्तम्भ पर शक सं. सुदी ८ रवी साधुदेव गण तस्य पुत्र रत्नपाल प्रणमति ७८४ (वि० सं० ११९) में उत्कीर्ण हुए गुर्जर प्रतिहार नित्यं । ६-..."तत्पुत्राः साधु श्री रत्नपाल तस्य वत्सराज पाम के प्रपौत्र और नागभट्ट द्वितीय या नागाभार्या साध्वी पुत्र कीतिपाल, अजयपाल, वस्तुपाल तथा वलोक के पौत्र महाराजाधिराज परमेश्वर राजा भोजदेव त्रिभुवनपाल अजित नाथाय प्रणमति नित्यं'२ एक लेख में के शिलालेख से स्पष्ट है। उस समय यह स्थान भोजदेव जो, सं० १२२४ पासाङ सुदी २ रवी, काल पाराधियोति के शासन में था। इस लेख में बतलाया है कि-शान्तिश्रीमत् परमदिदेव पाद नाम प्रवर्द्धमान कल्याण विजय नाथ मन्दिर के समीप श्री कमलदेव नाम के प्राचार्य के राज्ये' नामका परमदिदेव के राज्य काल का है, उसमें शिष्य श्रीदेव ने इस स्तम्भ को बनवाया था। यह वि. चंदेल पंश के राजामों के नाम दिये हुए हैं, और श्रावको सं० ६१९ प्राश्विन सुदि १४ वृहस्पतिवार के दिन भाद्रके नाम पर दिये गये हैं, जो ऐतिहासिक दृष्टि से महत्व पद नक्षत्र के योग में बनाया गया था। पूर्ण हैं। इन सब उल्लेखों से महोबा जैन संस्कृति का विक्रम की १२वीं शताब्दी के मध्य में इसका नाम कभी केन्द्र रहा था, इसका मामास सहज ही हो जाता है। 'कीर्तिगिरि' रक्खा गया था। पर्वत के दक्षिण की मोर दो सीढ़ियाँ हैं । जिन्हें राजघाटी और नाहर घाटी के देवगढ़ का इतिहास नाम से पुकारा जाता है। वर्षा का सब पानी इन्हीं में देवगढ़-दिल्ली से बम्बई जाने वाली रेलवे लाइन चला जाता है। ये घाटियाँ चट्टान से खोदी गई है, पर जाखलौन स्टेशन से १ मील की दूरी पर इस - नामका एक छोटा-सा उजड़ग्राम भी है। इस ग्राम मे १. १-(भों) परमभट्टारक, महाराजाधिराज परमेश्वर भाबादी बहुत थोड़ी-सी है । वह वेत्रवती (वेतवा) नदी श्री भोके मुहाने पर नीची जगहमें बसा हुमा है। वहाँ से तीन सौ २- देव महीप्रबर्द्धमान-कल्याण विजय राज्ये । फुट की ऊंचाई पर करनाली दुर्ग है। जिसके पश्चिम की ३-तत्प्रदत्त-पच महाशब्द-महासामन्त श्री पोर वेतवा नदी कलकल निनाद करती हुई वह रही है। विष्णु । पर्वत की ऊँचाई साधारण और सीधी है, पहाड़ पर जाने ४ (र) म परिभुज्य या (के) लुमच्छगिरे श्री के लिए पश्चिम को मोर एक मार्ग बना हुमा है, प्राचीन शान्त्यायत (न) सरोवर को पार करने के बाद पाषाण निर्मित एक चौड़ी ५ (सं) निषे श्री कमलदेवाचार्य शिष्येण श्रीदेवेन सड़क मिलती है जिसके दोनों भोर खदिर (खैर) और कारा ६-पितं इदं स्तम्भं ॥ सं० ११९ मस्व (श्व) साल के सघन छायादार वृक्ष मिलते हैं। इसके बाद एक बुज० शुक्ल । 1. A Cauningham, Reports XXI, P. 73 A. ७-पक्ष चतुर्दश्यां वृहस्पति दिने उत्तर भाद्रप२. देखो, कनिषम सर्वरिपोर्ट २१ पृ०७३, ७४. ८-दा नक्षत्र इदं स्तम्भ षटितमिति ॥०॥ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का बैन पुरातत्व जिन पर खुदाई की कारीगरी पाई जाती हैं। राजपाटी के किनारे पाठ पंक्तियों का छोटा सा सं० ११५४ का एक लेख उत्कीर्ण है? जिसे चंदेल वंशी राजा कीर्ति वर्मा के प्रधान प्रमात्य वत्सराज ने खुदवाया था । यह बड़ा विद्वान् और पराक्रमी था, इसने अपने शत्रुओं से इस प्रदेश-मंडल को जीता था और इस दुर्ग का नाम 'कातिगिरि रक्खा था । कीर्तिवर्मा चंदेल वंश का प्रतापी शासक था मौर यात्रु कुल को दलित करने वाला योद्धा था, जैसा कि प्रबोधचन्द्रोदय नाटक के निम्न पद्म से प्रकट है : नीता क्षयं क्षितिभुजो नृपतेविपक्षा रक्षावती मितिरमतिरमार्थ । साम्राज्य मध्य विहितं शितिपालमौलि मालाचितं भूविषथे निधि मेलाम् ॥३ दूसरी नाहर घाटी के किनारे भी एक छोटा ७ पंक्तियों का अभिलेख अंकित है। यहाँ एक गुफा है, जिसे सिद्ध गुफा कहा जाता है । यह भी पहाड़ में खुदी हुई है, जिसका मार्ग पगढ़ पर से नीचे जाता है, इसके तीन २. चांदेल्लवश कुमुदेन्दु विशालकीर्तिः, स्पातो बभ्रुव नृपसंचनतांघ्रिपद्यः विद्याधरो नरपति: कमला निवासो, जातस्ततो विजयपालनृपो भूपेन्द्रः ॥ सरमाढमं परः श्रीमान् कीर्तिवर्मनृपोऽभवत् । यस्य कीर्तिसुधा शुभ्रत्रैलोक्यं सौधतामगात् ॥ धगदं नूतनं विष्णुमाविर्भूनमवाप्ययम् । नृपाधि तस्समाकृष्टा श्रीरस्थंयंप्रमार्जयत् ॥ राजो मध्यगतचन्द्रनिभस्य यम्य, नूनं युधिष्ठिर सदा "शिव रामचन्द्र । एते प्रसन्न गुणरत्ननिधौ निविष्टा, यत्तद् गुण प्रकर रत्नमये शरीरे ॥ तदीयामात्यमन्त्रीन्द्रो रमणीपूरविनिर्गतः । वत्सराजेति विख्यातः श्रीमान्महीधरात्मजः ॥ ख्यातो बभूवकिल मन्त्र पर्दकमात्रे, वाचस्पतिस्तदिह मन्त्रमुर्णरुभःस्याम् ॥ योऽयं समस्तमपिमन्डलमाशुशत्रोराज्य कीर्तिगिरिदुर्गमिद व्यपत्त ॥ श्री वत्सराज घट्टोयं नूनं ते नात्र कारितः । ब्रह्माण्डमुज्वलं कीति प्रारोहयतु मात्मनः ।। सं० १९९४ दि २पी (देवगढ़ शिलालेख) 22 द्वार है" दो बंगों पर छत भी प्रचस्थित है इस गुफा के अन्दर भी गुप्त समय का छोटा-सा लेख अंकित है, जो सं० २०८ सन् ५५२ का बतलाया जाता है। इसमें सूर्य वंशी स्वामी भट्ट का उल्लेख है । यह लेख गुप्त कालीन है। एक दूसरा भी लेख है जिसमें लिखा है कि राजा वीर मे सं० १३४२ में कुरार को जीता था। इस सब कथन पर से जाना जाता है कि इसका देवगढ़ नाम विक्रम की १२वीं शताब्दी के अन्त में या १३वीं के प्रारम्भ में किसी समय हुआ है । यह स्थल अनेक राजाओं के राज्यकाल में प्रबस्थित रहा है। इस प्रान्तमें पहले सहरियों का राज्य था। पश्चात् गौड़ राजाच ने अधिकार कर लिया था। गोडों को पराजित कर देवगढ़ पर गुप्तवंशीय राजाओंों का अधिकार हो गया, इस वंश के स्कन्दगुप्त आदि कई राजाओं के शिलालेख अब तक देवगढ़ में पाये जाते हैं। इनके बाद कन्नौज के भोजयंती राजाधों ने इस प्रान्त को विजित किया था। इसके पश्चात् चंदेलवशी राजाओं का इस पर स्वामित्व रहा । सन् १२९४ ई० में यह विशाल नगर था । उस समय यह बहुत सुन्दर और सूर्य के प्रकाश के समान देदीम्यमान था। इसी वंश ने दतिया के किले का निर्माण कराया था । ललितपुर के पास-पास इस वंश के घनेक लेख उपलब्ध होते हैं। इस वंश को राजधानी महोबा थी । इनके समय जंनधर्म को पल्लवित होने का प्रच्छा प्रव सर मिला था । इस वंश के शासन- समय की अनेक कलाकृतियाँ, मन्दिर भोर जंन मूर्तियाँ महोबा, महार, टीकमगढ़, मदनपुर, नावई और जलोरा मादि स्थानों पर पाई जाती हैं। महाराजा सिम्बिया की ओर से कर्नल बैपटिस्टी फ़िलोज ने सन् २०११ में देवगढ़ पर चढ़ाई की थी। उसने तीन दिन बराबर लड़कर उस पर अधिकार कर लिया। चंदेरी के बदले में महाराज सिन्धिया ने देवगढ़ हिन्द-सरकार को दे दिया था। हो सकता है कि किले की दीवार चंदेल वंशी राजाओं ने बनवाई हो, परन्तु यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता। उसकी मोटाई १५ फुट की है जो बिना सीमेन्ट के केवल पाषाण से बनी हुई है। नदी की घोर की हद बंदी की दीवाल बनी होगी, तो वह गिर गई होगी, या फिर बनवाई ही नहीं Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गई। परन्तु ऊंचाई कहीं भी २० फुट से अधिक नहीं है। देदीप्यमान प्रतीकों, तीर्थकर पार्श्वनाथ की विशालकाय उत्तरी पश्चिमी कोने से एक दोवार ११ फुट मोटी है, मूर्तियों और प्रगणित अर्हन्तों की विचार प्रेरक मुद्रामों जो ६०० फुट तक पहाड़ी के किनारे चली गई है। वाले प्रतिबिम्ब उस वनस्थली की स्तब्ध शान्ति के मूक संभवतः यह दीवार दूसरे किले की हो, जो पब स्वर मे मानन्द-विभोर दिखाई देते हैं और कहीं चक्रेश्वरी, विनष्ट हो चुका है। पद्मावती, ज्वालामालिनी, सरस्वती प्रादि जिन शासनदेवगढ का यह स्थान कितना सुरम्य और चित्ता- रक्षिका देवियो की मुद्राएँ, अद्भुत भावप्रेरक भनेक देवियो कर्षक है, इसे बतलाने की आवश्यकता नहीं। वेत्रवती के अलकृत अवयव अपनी भाव-भंगियो से मानो सुषमा नदी के किनारे-किनारे दाहिनी तरफ मैदान अत्यन्त ढालू ही उड़ेल रहे हैं। हो गया है। पहाड़ की विकट घाटी में उक्त सरिता गुप्तकालीन मन्दिर सहसा पश्चिम की पोर मुड़ जाती है। वहाँ की प्राकृतिक किले के दक्षिण-पश्चिमी कोने पर वराह का प्राचीन सुषमा और कलात्मक सौन्दर्य दोनो ही अपनी अनुपम मन्दिर खडितावास्था में मौजूद है। उसके निर्माण के छटा प्रदर्शित करते हैं। वहाँ दर्शकों को वैभव की असा- सम्बन्ध मे निश्चित कुछ भी नहीं कहा जा सकता। रता के स्पष्ट दर्शन होते हैं, जो स्पष्ट सूचित कर रहे हैं नीचे के मैदान में गुप्तकालीन विष्णु मन्दिर बना हुआ कि-हे पामर नर ! तू वैभव के महकार मे इतना क्यो है, यह पूर्णरूप से सुरक्षित है । भारतीय कलाविद इसके इठला रहा है ? एक समय था जब हम भी गर्व मे इठला कारण ही देवगढ से परिचित है। यह मन्दिर गुप्तकाल रहे थे। उस समय हमे भावी परिवर्तनो का कोई प्राभास के बाद किसी समय बना है । कहा जाता है कि गुप्तकाल नही था, किन्तु दुर्दैव के कारण हमारी यह अवनत में मन्दिरो के शिखर नही बनाये जाते थे, परन्तु इसमे अवस्था हुई है। प्रतः तू अब भी समझ और साव- शिखर होने के चिह्न मौजूद हैं। मालूम होता है कि धान हो। इसका शिखर खण्डित हो गया है। यह मदिर जिन विन्ध्य पर्वत माला की सघन वनाच्छादित सुरम्य पाषाण खण्डो से बना है, वे अत्यन्त कलापूर्ण और सुन्दर उपस्थली में यह पुण्य क्षेत्र जीवन दायिनी सलिला वेत्र हैं । इस मन्दिर की कला के सम्बन्ध में प्रसिद्ध ऐतिबती से सटी हुई डेढ़-दो मील लम्बी पहाड़ी के ऊपर एक हासिक विद्वान् स्मिथ साहब कहते हैं कि देवगढ़ में गुप्तचौकोर लम्बे मैदान के भाग में फैला हुमा पग-पग पर काल का सबसे अधिक महत्वपूर्ण और प्राकर्षक स्थापत्य मनुपम सास्कृतिक जीवन-कला की विभूनियों के मन न है वह देवगढ़ के पत्थर का बना हुमा एक छोटा-सा मदिर मोहक दृश्य उपस्थित करता है। जिसमे तल्लीन होकर : है, यह ईसा की छठी अथवा पाचवी शताब्दी का बना हमा एक बार दर्शक हर्ष विषाद, सूख-दु.ख, मोह-मत्सर, और है। इस मन्दिर की दीवारों पर जो प्रस्तर फलक लगे हैं काम प्रादि के संस्कार रूपी बन्धनों से मुक्त होकर प्रकृति उनमे भारतीय मूर्तिकला के कुछ बहुत ही बढ़िया नमूने की गोद में विलीन सा हो जाता है, और अपने सारे अंकित है। अहंकारमय ऐहिक अस्तित्व को भूलकर अपने आपको १, देखो, भारतीय पुरातत्व की रिपोट दयाराम साहनी न्यूनतम से न्यूनतम रजकण से भी तुच्छ पाता है। 2. The most important and interesting store अशान्त मूर्तियां, वेदिका, स्तम्भ, तोरण, दीवारे और temple of Gupta age is one of moderate अन्य कलात्मक अलकरण, जो यशस्वी शिल्पियों द्वारा dimensions at Deogarh. Which may be चमत्कारपूर्ण सामग्री निर्मित की गई है वह अपनी मूक assigned to the first half of Sixth or प्रेरणा द्वारा भिन्न-भिन्न विचार-मुद्रामों में प्राध्यात्मिक Perhaps to the fifth century. The Panels जीवन की झांकी का सन्देश प्रस्तुत करती है। कहीं of the walls contain some of the finest चमत्कारिक मूर्ति-निर्माणकला के छिटकते हुए सौन्दर्य से Specimens of Indian Sculpture. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का जन पुरातत्व इस मन्दिर की खुदाई के समय जो मतियां मिली महत्वपूर्ण है। इन सब कारणों से यह मन्दिर अपनी उनमें से एक में पंचवटी का वह दृश्य प्रकित है जहाँ सानी नही रखता । लक्ष्मण ने रावण की बहन सूर्पनखा की नाक काटी थी। देवगढ़ के जैन मन्दिरों का निर्माण, उत्तर भारत में अन्य एक पाषाण में राम और सुग्रीव के परस्पर मिलन विकमित पार्य नागर शैली मे हमा है। यह दक्षिण की का अपूर्व दृश्य अकित है। एक अन्य पत्थर में राम द्रविड शैली से अत्यन्त भिन्न है, नागर शैली का विकास लक्ष्मण का शबरी के पाश्रम में जाने का दृश्य दिखाया गुप्तकाल में हुमा है । देवगढ़ मे तो उक्त शैली का विकास गया है। इसी तरह के अन्य दृश्य भी रहे होगे। रामायण पाया ही जाता है किन्तु खजुराहो मादि के जैन मन्दिरों की कथा के यह दृश्य अन्यत्र मेरे अवलोकन मे नही पाये, में भी. इसी कला का विकास देखा जाता है। यह कला ही यही पर नारायण की मूर्ति है और एक पत्थर में गजेन्द्र पूर्णरूप से भारतीय है भोर प्राग्मुस्लिम कालीन है, इतमा मोक्ष का दृश्य भी उत्कीणित है। दक्षिण की पोर दीवार ही नहीं किन्तु समस्त मध्यप्रान्त की कला इसी नागर मे शेषशायी विष्णु की मूर्ति है, जो बड़े प्राकार के लालन शैली से प्रोत-प्रोत है । इस कला को गुप्त, गुर्जर, प्रति. पत्थर में खोदी गई है। इससे यह मन्दिर भी अपना हार और चन्देलवशी राजामों के राज्यकाल में पल्लवित विशेष महत्व रखता है। पौर विकसित होने का अवसर मिला है। जैन मन्दिर और मूर्तिकला देवगढ़ की मूर्तियों में दो प्रकार की कला देखी जाती देवगढ में इस समय ३१ जैन मन्दिर हैं जिनकी है, प्रथम प्रकार की कला में कलाकृतियां अपने परिकरों स्थापत्यकला मध्य भारत की अपूर्व देन है। इसमे से न० से अकित देखी जाती हैं । जैसे चमरधारी यक्ष-यक्षणियां, ४ के मन्दिर मे तीर्थकर की माता सोती हई स्वप्नावस्था सम्पूर्ण प्रस्तराकार कृति में नीचे तीर्थकर का विस्तृत में विचारमग्न-मुद्रायुक्त दिखलाई गई है। नं.५ का मन्दिर प्रासन और दोनो पाश्वों में यक्षादि अभिषेक-कलश लिए सहस्रकूट चैत्यालय है जिसकी कलापूर्ण मूर्तियाँ अपूर्व दृश्य हुए दिखलाये गये है, किन्तु दूसरे प्रकार की कला मुख्य दिखलाती हैं । इस मन्दिर के चारो ओर १.०५ प्रतिमाएँ मूर्ति पर ही प्रकित है, उसमे अन्य अलंकरण पोर कलाखुदी है। बाहर सं० ११२० का लेख भी उत्कीणित है। कृतियाँ गौण हो गई हैं। मालूम होता है इस युग में जो सम्भवतः इस मन्दिर के निर्माण काल का ही द्योतक साम्प्रदायिक विद्वेष नही था। और न धर्मान्धता ही थी, है। न० ११ के मन्दिर मे दो शिलानों पर चौबीस इसी से इस युग में भारतीय कला का विकास जैनों, तीर्थकरों की बारह-बारह प्रतिमाएँ अकित है। ये सभी बैष्णवों और शंवों मे निविरोध हुमा है। प्रस्तुत देवगढ़ मूर्तियां प्रशान्त मुद्रा को लिए हुए हैं। जैन और हिन्दू संस्कृति का सन्धिस्थल रहा है। तीर्थकर इन सब मन्दिरों में सबसे विशाल मन्दिर नं०१२ मूतिया, सरस्वती की मूर्ति, पंचपरमेष्ठी की मतियां. शामिना महिना पमित जिरे कलापूर्ण मानस्तम्भ, अनेक शिलालेख और पौराणिक चारों ओर अनेक कलाकृतियाँ और चित्र अंकित हैं। दृश्य प्रकित हैं, साथ ही वराह का मन्दिर, गुफा में शिवइनमे शान्तिनाथ भगवान की १२ फुट उत्तुग प्रतिमा लिंग, सूर्य भगवान् की मुद्रा, गणेशमूर्ति, भारत के लग विराजमान है, जो दर्शक को अपनी ओर माकृष्ट करती पौराणिक दृश्य, गजेन्द्रमोक्ष प्रादि कलात्मक सामग्री है पौर चारों कोनो पर अम्बिकादेवी की चार मूतियां है, देवगढ़ की महत्ता की द्योतक है। जो मूर्तिकला के गुणों से समन्वित हैं। इस मन्दिर की भारतीय पुरातत्व विभाग को देवगढ़ से २०० शिलाबाहरी दीवार पर जो २४ यक्ष यक्षिणियों की सुन्दर कला लेख मिले हैं, जो जैन मन्दिरों, मूतियों और गुफामों कृतियाँ बनी हुई है। जिनकी प्राकृतियों से भव्यता टपकती मादि में अंकित हैं। इनमें साठ शिलालेख ऐसे है जिनमे है । साथ ही १८ लिपियों वाला लेख भी बरामदे मे समय का उल्लेख दिया हुआ है। ये शिलालेख स०६०६ उत्कीर्णित है, जो भाषा साहित्य के विकास की दृष्टि से से १८७६ तक के उपलब्ध हैं। इनमे सं० ६०६ सन् Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ५५२ का लेख नाहर घाटी से प्राप्त इमा था, इसमें सूर्य के प्राचार-विचारों से परिपूर्ण रहा है। क्योंकि यहाँ वि. वंशी स्वामी भट्ट का उल्लेख हैं। सं० ११९ का शिला- सं० ११२३ भौर ११९९ से लेकर वि. स. १९६८ तक लेख जन संस्कृति की दृष्टि से प्राचीन है। इस लेख में की प्राचीन मूर्तियाँ और लेख उपलब्ध होते हैं। ये सब मोजदेव के समय पंच महाशब्द प्राप्त महा सामन्त विष्ण- लेख ऐतिहासिक तथ्यों से परिपूर्ण हैं और प्रतीत के गौरव राम के शासन में इस लुप्रच्छगिरि के शान्तिनाथ मन्दिर की अपूर्व झांकी प्रस्तुत करते हैं । यदि यहाँ खुदाई कराई के निकट गोष्ठिक वजमा द्वारा निर्मित मानस्तम्भ भाचार्य जाय तो संभवतः और भी पुरातन जैन संस्कृति के प्रवकमलदेव के शिष्य प्राचार्य श्रीदेव द्वारा वि० सं० ११९ शेष प्राप्त हो सकते हैं । इन लेखो में सबसे अधिक लेख माश्विन १४ बृहस्पतिवार के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र जैसवालों और गोलापूर्वो के पाये जाते हैं, उनसे उन में प्रतिष्ठित किया गया था, इसी तरह अन्य छोटे-छोटे जातियों के धर्म-प्रेम की झलक मिलती है। लेख भी जैन संस्कृति की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस तरह सं० १२१३ के एक लेख मे भट्टारक मणिक्यदेव तथा देवगढ़ मध्यप्रदेश की अपूर्व देन है। गुण्यदेवका नाम उत्कीर्ण हुमा है। और मं० १२१६ के लेख महार क्षेत्र मे श्रीसागरसेन सैद्धान्तिक, आर्यिका जयश्री पौर चेली बुन्देलखण्ड में खजुराहो की तरह महार क्षेत्र भी रतनश्री का उल्लेख है। स० १२१६ के एक दूसरे लेख मे एक ऐतिहासिक स्थान है। देवगढ की तरह यहाँ प्राचीन कुटकान्वयी पडित लक्ष्मणदेव शिष्य पार्यदेव पार्यिका मूर्तिया और लेख पाये जाते हैं। उपलब्ध मूर्तियों के लक्ष्मश्री चेली चारित्र श्री और भ्राता लिम्बदेव का नाम शिलालेखों से जान पडता है कि विक्रम की ११वीं से अकित है। सं० १२१६ के एक तीसरे लेखमें कुटकान्वय के १३वीं शताब्दी तक के लेखों में प्रहार की प्राचीन बस्ती पडित मगलदेव और उनके शिष्य भ० पदमदेव का नामाका नाम 'मदनेशसागरपुर' था और उसके शासक श्री कन है। सं० १५४८ के लेख में भद्रारक "जिनचन्द्र' और मदनवर्मा थे, जो पदेलवश के यशस्वी नक्षत्र थे। इस शाह जीवराज पापडीवाल का नामोल्लेख है । सं० १५७२ नगर के पास जो विशाल सरोवर बना हुआ है वह वर्त- के एक लेख में भ० गुणकीर्ति के पट्टधर मलयकीर्ति के मान में 'मदनसागर' नाम से प्रसिद्ध है। इसके किनारे अनेक द्वारा प्रतिष्ठा कराने का भी उल्लेख पाया जाता है। प्रतिष्ठा महोत्सव सम्पन्न हुए हैं। मदनवर्मा का शासन इसी तरह अन्य अनेक लेखों में जो विद्वानो. भट्टारको या वि० की ११वीं शताब्दी में विद्यमान था, उसके बाद ही श्रावक श्राविकानों के नामों का प्रकन मिलता है, वह किसी समय इसका नाम 'महार' प्रसिद्ध हुमा होगा। इतिहास की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। यहाँ के उपलब्ध मूर्तिलेखों में खण्डेलवाल, जैसवाल, प्रहार क्षेत्र मे भगवान शातिनाथ की प्रतिष्ठा कराने मेवा, लमेच, पौरपाट (परवार) गृहपति, गोलापूर्व, वाला गृहपति वंश जैन धर्म का अनुयायी था जैन धर्म की बोलाराड, अवधपुरिया और गर्गराट् प्रादि अनेक उप- परम्परा उसके वंश में पहले से चली आ रही थी, क्योकि जातियों के उल्लेख मिलते हैं, जो उनकी धार्मिक रुचि के इस वंश के देवपाल ने 'बाणपूर' के सहस्रकूट चैत्यालय का द्योतक हैं। उनसे यह भी स्पष्ट जाना जाता है कि उस निर्माण कराया था। ऐसा शान्तिनाय की मूर्ति के संवत् काल में यह खूब सम्पन्न रहा होगा, क्योंकि वहाँ विविध १२३७ के लेख के प्रथम पद्य से प्रकट है२ । वाणपुर का उपजातियों के जन जन रहते थे और गृहस्थोचित षट्कर्मो उक्त जिनालय कब बना यह निश्चित नहीं है किन्तु मं. का पालन करते थे। ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात अत्यन्त - महत्वपूर्ण है कि यह स्थान ७०० वर्षों तक जैन संस्कृति १. देखो, अनेकान्त वर्ष, ९ कि. १० तथा वर्ष १० किरण १.२.३ प्रादि में प्रकाशित प्रहार के लेख । १. सं० १२०८ पौर १२३७ के लेखों में मदनेश सागर .. ग्रहपतिवंश सरोकह-सहस्ररश्मि सहस्रकटं यः। पुर का नामांकन हुमा है, देखो, अनेकान्त वर्ष ६, बाणपुरे व्यषितासीत श्रीमानिहि देवपाल कृति ॥ कि० १०० ३८५-६ । शान्तिनाथ मूर्तिलेख, महार Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का जैन पुरातत्व १२३७ के लेख में उल्लेख है उससे पहले बना है। लेख में प्रयुक्त देवपाल, रत्नपाल, रल्हण, गल्हूण, जाहण और उदयचन्द का नाम प्राता है। गल्हण ने शान्तिनाथ का चैत्यालय बनवाया था और दूसरा चैत्यालय मदनसागरपुर मे निर्माण कराया था और इनके पुत्र जाहड और उदयचन्द्र ने इस मूर्ति का निर्माण कराया है। इससे इस कुटुम्ब की धार्मिक परिणति का कितना ही ग्राभास मिलता है और यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि इस कुटुम्ब मे मन्दिर निर्माण आदि का कार्य परम्परागत था । प्रस्तुत मदनसागरपुर का नाम घहार क्यों पौर कैसे पड़ा, यह विचारणीय है। बहार के उक्त मूर्ति-लेखों मे पाणा साह का कोई उल्लेख नहीं है । फिर यह कैसे कहा जा सकता है कि मन्दिरादि का निर्माण उनके द्वारा हुमा है और मुनि को बाहार देने से इसका नाम 'महार' हुधा है। इस सम्बन्ध मे ऐतिहासिक प्रमाणों का अन्वेषण करना जरूरी है । जिससे तथ्य प्रकाश में ना सकें। इस तरह मदनेश सागरपुर धौर महार जैन सस्कृति के केन्द्र रहे हैं। बानपुर प्रहार क्षेत्र से ३-४ मील की दूरी पर अवस्थित है। यह भी एक प्राचीन स्थान है । जतारा ग्राम भी १२-१३वी सदी के गौरव से उद्दीपित है, वहाँ भी जैनधर्म की विशेष प्रतिष्ठा रही है। 1 मदनपुर नगर भी उक्त चन्देलवशी राजा मदन वर्मा ने सन् १०५५ (वि० स० १११२ ) में बसाया था । मदन वर्मा महोबा या जेजाकभुक्ति का शासक था । इस नगर मे छह मन्दिर हैं जिनमे तीन वैष्णव और तीन ही जैन मन्दिर हैं दो वैन मन्दिर मदनपुर भील के उत्तरपश्चिम में है घौर छडा मन्दिर तीन के उत्तर-पूर्वी किनारे से कुछ फासले पर बना हुआ है। सबसे बड़ा जैन मन्दिर, जो ३० फुट ८ इंच लम्बा और १४ फुट २ इंच चौड़ा है। सन् १०५५ (वि० सं० १११२) का बना हुआ है। यह मन्दिर शान्तिनाथ के नाम से प्रसिद्ध है । इस मन्दिर में 1 फीट की एक विशाल खड्गासन अत्यन्त मनोज्ञ प्रतिमा विराजमान है, जिसकी चमकदार पालिश धाम भी प्राचीनता का जयघोष कर रही है। मन्दिर के गर्भालय के प्रवेश द्वार के ऊपर मध्य में एक तीर्थंकर प्रतिमा अंकित है और उसके दोनों घोर दाएँ बाएँ दो मूर्तियाँ घोर प्रतिष्ठित हैं। जिनमें बाईं ओर की मूर्ति स० १२१३ की और दाईं मोर की १७वीं सदी की जान पड़ती है। मूलनायक प्रतिमा इससे प्राचीन रही होगी और उस पर लेख भी होगा किन्तु उसके आगे एक पाषाणखण्ड लगा देने से वह लेख उसे उठवाए बिना नहीं पढ़ा जा सकता । दूसरा मन्दिर भी नागरवीली का बना हुआ है। नागवंश का राज्य उत्तर भारत में गंगा और यमुना के मध्य में रहा है। नागों द्वारा निर्माणित शैली नागरशैली कहलाती है। इस मन्दिर की चौखट वही सुन्दर तोरणद्वारों से अलंकृत है। पोवट के ऊपर तोरण पर तीन तीर्थंकर पद्मासन मूर्तियां विराजमान हैं। इस तोरण के फलक के ऊपर नवग्रह की मूर्तियों के मध्य में अम्बिका और अन्य शासनदेवियाँ अंकित हैं। यह सब मंकन शिल्पी की चतुराई का अद्भुत नमूना है। इस मन्दिर में प्रादिनाथ, चन्द्रप्रभ और सम्भवनाथ की मूर्तियाँ हैं : इसमें पंक्तियों का एक लेख भी है, जिसमें स० १२०६ वैशाख सुदी १० भौमे स्वस्ति श्रीमदन वर्मा प्रादि लेख उत्कीर्णित है। इसके गर्भगृह में कुम्यनाथ, शान्तिनाथ धीर धरनाथ की तीन खड्गासन मूर्तियाँ विराजमान हैं। शान्तिनाथ की मूर्ति १ फुट और बगल वाली दोनों मूर्तियाँ ७ फुट की ऊंचाई को लिए हुए हैं। इनके पादमूल मे प्रतिष्ठापक गृहस्यो का श्रद्धावत अंकन है । सभामण्डप में पुष्पमाल सहित विद्याधर और कलशाभिषेक करते हुए गजों का सुन्दर चित्रण है। तीसरा मन्दिर १७वीं शताब्दी का है। " जैन मन्दिरोंकी विशेषता है कि इसके बारहदरी के दो खम्भों पर एक लेख सं० १२३६ का उत्कीरिंगत है१, जिसमे चौहानशी धणराज के पौत्र और सोमेश्वर के पुत्र पृथ्वीराज द्वारा जेजाकभुक्ति नरेश परमार्थी को पराजित करने का उल्लेख किया गया हैं । १. श्री बाहुमान वंशे २. न पृथ्वीराज बखूब ३. भुज परमार्थी नरेन्द्र ४. स्या देशोय मुदवश्यते X X X Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अनेकान्त ग्वालियर का इतिहास होती है। पर स्थित जैन साहित्य में वर्तमान ग्वालियर का उल्लेख गोपायलु, गोपाद्रि, गोपगिरि, गोपाचल गोयलगढ़ आदि नामों से किया गया है, ग्वालियर की इस प्रसिद्धि का कारण जहाँ उसका पुरातन दुर्ग ( किला ) है । वहाँ भारतीय ( हिन्दू बौद्ध और जैनियों के पुरातत्व की प्राचीन एवं विपुल सामग्री की उपलब्धि भी है। भारतीय इतिहास मे ग्वालियर का स्थान बहुत ही महत्वपूर्ण है। वहाँ पर प्राचीन अवशेषों की कमी नही है । उसके प्रसिद्ध सूबों और किलों में इतिहास की महत्वपूर्ण सामग्री उपलब्ध ग्वालियर का यह किला पहाड़ की एक चट्टान है, यह पहाड़ डेढ़ मील लम्बा और ३०० गज चौड़ा है । इसके ऊपर बसुधा-पत्थर की चट्टाने हैं उनकी नुकीली चोटियाँ निकली हुई हैं, जिनसे किले को प्राकृतिक दीवार बन गई है। कहा जाता है कि इसे सूरज सेन नाम के राजा ने बनवाया था । वहाँ 'ग्वालिय' नामका एक साधु रहता था, जिसने राजा सूरमेन के कुष्ट रोग को दूर किया था। अतः उसकी स्मृति मे ही ग्वालियर नाम प्रसिद्धि को प्राप्त हुआ है, पर इसमे कोई सन्देह नहीं कि ग्वालियर के इस किले का अस्तित्व वि० की छठी शताब्दी मे था क्योंकि ग्वालियर की पहाडी पर स्थित 'urrear' द्वारा निर्माणित सूर्यमन्दिर के शिलालेख में उक्त दुर्ग का उल्लेख पाया जाना है। दूसरे किलं मे स्थित चतुर्भुज मन्दिर के वि० स० ६३२-३३ के दो शिलावाक्यों में भी उक्त दुर्ग का उल्लेख पाया जाता है। हाँ, शिलालेखों से इस बात का पता जरूर चलता है कि उत्तर भारत के प्रतिहार राजा मिहिर भोजने जीत कर इसे अपने राज्य कन्नौज मे शामिल कर लिया था । और उसे वि० की ११वीं शताब्दी के प्रारम्भ मे कच्छपघाट या कछवाहा वश के वज्रदामन् नाम के राजा ने, जिसका राज्यशासन १००७-१०३७ तक रहा है ग्वालियर को जीत १. प्रो अरुणो राजास्य पौत्रेण श्री २. सामेश्वर सूनुना जेजा २. भुक्ति वेशोयं पृथ्वीराजेन ४. सुनीय सं० १२३९, देखो कनियम रिपोट १०,१.१० * कर उसे पर अपना अधिकार कर लिया था । भौर जो जैन धर्म का श्रद्धालु था, उसने स० १०,३४ में एक जैनमूर्ति की प्रतिष्ठा भी करवाई थी। उस मूर्ति की पीठ पर जो लेख १. अंकित है उससे उसकी जैनधर्ममे प्रास्याका होना प्रमाणित है । इस वंश के अन्य राजामों ने जैनधर्म के सरक्षण, प्रचार एवं प्रसार करनेमें क्या कुछ सहयोग दिया, यह बात अवश्य विचारणीय है और अन्वेषणीय है। इस वंश के मगलराज. कीर्तिराज, भुवनपाल, देवपाल पद्मपाल, सूर्यपाल, महीपाल, भुवनपाल और मधुसूदनादि अन्य राजाओ ने ग्वालियर पर लगभग दो सौ वर्ष तक अपना शासन किया है; किन्तु पुनः प्रतिहार वंश की द्वितीय शाला के राजाधो का उस पर अधिकार हो गया था। परन्तु वि० सं० १२४६ में दिल्ली के शासक अल्तमश ने ग्वालियर पर घेरा डाल कर दुर्ग का विनाश किया। उस समय राप्तों ने अपने शौर्य का परिचय दिया, परन्तु मुठ्ठी भर राजपूत उस विशाल सेना से कब तक लोहा लेते ? प्राखिर राजपूतों ने अपनी धान की रक्षा के हित युद्ध में मरजाना ही श्रेष्ठ समझा और राजपूतनियों ने 'जोहर' द्वारा अपने सतीत्व का परिचय दिया। वे अग्नि की विशाल ज्वाला मे भस्म हो गई और राजपूत अपनी वीरता का परिचय देते हुए वीरगति को प्राप्त हुए किले पर अल्तमश का अधिकार हो गया । सन् १३६८ ( वि० स० १४५५ ) मे तैमूरलंग ने भारत पर जब श्राक्रमण किया। तब अवसर पाकर तोमर वशी वीरसिंह नाम के एक सरदार ने ग्वालियर पर अधिकार कर लिया और वह उक्त वंश के प्राधीन सन् १५३६ ( वि० सं० १५९३ ) तक रहा । तोमर नामक क्षत्रिय वंश के अनेक राजाओं ने (सन् १३१० से १५३६ तक) ग्वालियर पर शासन किया है, उनके नाम वीरसिंह, उद्धरणदेव विषमदेव ( वीरमदेव) गणपतिदेव दूगरसिंह कीर्तिसिंह, कल्याणमन, मानसिंह, १. स १०३४ श्री वज्जदाम महाराजाधिराज वइसाख वदि पाचमि | देखो, जनरल एशियाटिक सोसाइटी ग्राफ बंगाल पृ० ४१०-५११ 1 Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का बैन पुरातत्व विक्रमशाह, रामसाह, शालिवाहन और इनके दो पुत्र हुपा था। उस समय अनेक जैन राजकीय उच्चपदों पर (श्यामसाह और मित्रसेन१) हैं। लगभग दो सौ वर्ष के सेवा कार्य करते थे। जो राज्य के संरक्षण पर सदा दृष्टि इस राज्यकाल में जैनधर्म को फलने, फूलने का अच्छा रखते थे। वर्तमान में भी जैनियों की वहां मच्छी अवसर मिला है। इन सभी राजानों की सहानुभूति जैन- सख्या है। न साधुनों और जैनाचार पर रही है। राजा डूगर खासकर राजा डूंगरसिंह और कीर्तिसिंह के शासनसिंह और कीतिसिंह की आस्था जैनधर्म पर पूर्ण रूप से काल में (वि० सं० १४८१ से स० १५३६ तक) ५५ वर्ष रही है । तत्कालीन विद्वान् भट्टारको का प्रभाव इन पर पर्यन्त किले में जैन मूर्तियों की खुदाई का कार्य चला है। अकित रहा है। यद्यपि तोमरवशके पूर्व भी, कछवाहा और पिता और पुत्र दोनों ने ही बड़ी पास्था से उसमें सहयोग प्रतिहार वंश के राजारों के राज्यकाल मे भी ग्वालियर दिया था। अनेक प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न किये थे। दोनों के और पाश्ववर्ती इलाको मे जैनधर्म का सूर्य चमक रहा राज्यकाल में प्रतिष्ठित मूर्तियाँ ग्वालियर मे प्रत्यधिक था; परन्तु तोमर वंश के समय जैनधर्म की विशेष अभि पाई जाती हैं। जिनमें सं० १४६७ से १५२५ तक के वृद्धि हुई। राजा विक्रमसिंह या वीरमदेव के समय जैस लेख भी अंकित मिलते है। अथ रचना भी उस समय वाल वशी सेठ कुशराज उनके मत्री थे, जो जैनधर्म के अधिक हई है। देवभक्ति के साथ श्रुतभक्ति का पर्याप्त अनुयायी और श्रावक के व्रतो का अनुष्ठान करते थे। प्रचार रहा है । वहाँ के एक सेठ पसिंह ने जहां अनेक इनकी प्रेरणा और भट्टारक गुणकीति के आदेश से पद्म जिनालयों, मूर्तियों का निर्माण एवं प्रतिष्ठोत्सव सम्पन्न नाभ कायस्थने, जो जैनधर्म पर श्रद्धा रखता था, 'यशो कराया था। उसने ही जिन भक्तिसे प्रेरित होकर एक लक्ष घरचरित' की रचना की थी। ग्रंथ लिखवाकर तत्कालीन जैन साधुप्रो और जैन मन्दिरों ग्वालियर और उसके पास-पास के जैन पुरातत्त्व । के शास्त्र भडारों को प्रदान किये थे। ऐसा मादि पुगणऔर विद्वान भट्रारको तथा कवियों की प्रथ रचनामो का की सं० १५२१ की एक लिपि प्रशस्ति से जाना जाता अवलोकन करने से स्पष्ट पता चलता है कि वहा जैनधर्म है। इन सब कार्यो से उस समय की धार्मिक जनता के उक्त समय मे खुब पल्लवित रहा । ग्वालियर उस समय प्राचार-विचारों का और सामाजिक प्रवत्तियों का महल उसका केन्द्र स्थल बना हुआ था। वहाँ ३६ जातियो का ही परिज्ञान हो जाता है। उस समय के कवि रहध ने निवास था, पर परस्पर मे कोई विरोध नही था। जैन अपने पावपुराण की प्राद्यन्त प्रशस्ति मे उस समय के जनता अपनी धामिक परिणति, उदारता, कर्तव्यपरा. जैनियो की सामाजिक और धार्मिक परिणति का सुन्दर यणता, देवगुरु-शास्त्र की भक्ति और दानधर्मादि कार्यों मे चित्रण किया है। सोमाह भाग लेती थी। उसी का प्रभाव था कि जैनधर्म सन १५३६ के बाद दुर्ग पर इब्राहीम लोदी का और उसकी अनुयायी जनता पर सबका वात्सल्य बना अधिकार हो गया। मुसलमानो ने अपने शासनकाल में १. यह मित्रसेन शाह जलालुद्दीन के समकालीन थे। उक्त किले को कैदखाना ही बनाकर रक्खा । पश्चात दुर्ग इनका वि०म० १६८८ का एक शिलालेख बगाल पर मुगलों का अधिकार हो गया। जब बाबर उस दग एशियाटिक सोसाइटी के जनरल भाग ८ पृ. ६६५ का न को देखने के लिये गया, तब उसने उरवाही द्वार के दोनों में रोहतास दुर्ग के कोथेटिय फाटक के ऊपर की पोर चट्टानों पर उत्कीर्ण की हुई उन नग्न दिगम्बर जैन परिया पर तोमर मित्रसेन का शिलालेख, जिसे मूर्तियों के विनाश करने की माज्ञा दे दी। यह उसका कृष्णदेव के पुत्र शिवदेव ने सकलित किया था। कार्य कितना नृशंस एवं घृणापूर्ण था, इसे बतलाने की २. देखो, 'यशोधरचरित और पद्यानाभकायस्थ' नामक मावश्यकता नहीं। लेख, भनेकान्त वर्ष १० कि०४,५ १. देखो, बाबर का आत्मचरित । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ अनेकान्त खण्डित मूर्तियों की बाद में सरकार की भोर से मरम्मत करा दी गई है फिर भी उनमें अधिकांश मूर्तियों स ण्डित मौजूद हैं। बाबा बावड़ी और जैन मूर्तियां है ग्वालियर से लश्कर जाते समय बीच में एक मील के फासले पर 'बाबा बावडी' के नाम से प्रसिद्ध एक स्थान पढ़ने पर किले के नीचे पहाड़ की विशाल चट्टानो को सबक से करीब डेढ़ फर्लाङ्ग चमने धौर कुछ ऊँचाई काटकर बहुत-सी पद्मासन तथा कायोत्सगं मूर्तियाँ उत्कीर्ण की गई है। ये मूर्तियाँ स्थापत्यकला की दृष्टि से अनमोल हैं। इतनी बड़ी पद्मासन मूर्तियाँ मेरे देखने मे अन्यत्र नहीं धाई। बावड़ी के बगल में दाहिनी ओर एक विशाल खड्गासन मूर्ति है। उसके नीचे एक विशाल शिलालेख भी लगा हुआ है, जिससे मालूम होता है कि इस मूर्ति की प्रतिष्ठा वि० सं० १५२५ मे तोमरवशीय राजा डूंगर सिंह के पुत्र कीर्तिसिंह के राज्यकाल में हुई है । खेद है कि इन सभी मूर्तियो के मुख प्रायः खण्डित है। यह मुस्लिम युग के धार्मिक विद्वेष का परिणाम जान पड़ता है इन मूर्तियो की केवल मुखाकृति को ही नहीं बिगाड़ा गया किन्तु किसी किसी मूर्ति के हाथ-पैर भी खण्डित कर दिए गये है । इतना ही नहीं किन्तु विद्वे षियों ने कितनी ही मूर्तियो को गारा-मिट्टी से भी चिनत्रा दिया था और सामने की विशाल मूर्ति को गारा-मिट्टी से छाप कर उसे एक कद्र का रूप भी दे दिया था, परन्तु सितम्बर सन् १९४७ के दगे के समय उनसे उक्त स्थान की प्राप्ति हुई। संग्रहालय सन् १८९१ में दुर्ग पर मराठों का अधिकार हो गया । तब से उन्ही का शासन रहा और अब स्वतन्त्र भारत में मध्यप्रदेश का शासन चल रहा है। जैन मन्दिर और मूर्तियां किले में कई जगह जंग मूर्तियां खुदी हुई है। किता कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण है, इस किले मे से शहर के लिये एक सड़क जाती है। इस सड़क के किनारे दोनों और विशाल बट्टानो पर उत्कीर्ण की हुई कुछ जैन मूर्तियां अकित हैं। ये सब मूर्तियाँ पाषाणों की कर्कश चट्टानो को खोदकर बनाई गई हैं । किले में हाथी दरवाजा और सासबहू के मन्दिरों के मध्य मे एक जैन मन्दिर है जिसे मुगल शासनकाल मे एक मस्जिद के रूप मे बदल दिया गया था । खुदाई करने पर नीचे एक कमरा मिला है जिसमे कई नग्न जैन मूर्तियाँ हैं और एक लेख भी सन् १९०८ (वि० सं० १९६५) का है, ये मूर्तियां कायोत्सर्ग तथा पद्मासन दोनो प्रकार की है। उत्तर की वेदी मे सात फणसहित 'भगवान श्री पार्श्वनाथ की सुन्दर पद्मासन मूर्ति है। दक्षिण की भीत पर भी पाच वेदिया है जिनमे से दो के स्थान रिक्त हैं। जान पड़ता है कि उनकी मूर्तियां विनष्ट कर दी गई है। उत्तर की वेदी मे दो नग्न कायोत्सर्ग मूर्तियां अभी भी मौजूद है, और मध्य मे ६ फुट ८ इंच लम्बा प्रसन एक जंन मूर्ति का है । दक्षिणी वेदी पर भी दो पद्मासन नग्न मूर्तियां विराजमान है। दुर्ग के उरवाही द्वार की मूर्तियो में भगवान् श्रादिनाथ की मूर्ति सबसे विशाल है, उसके पैरो की लम्बाई नौ फुट है और इस तरह पैरों से तीन चार गुनी ऊँची है मूर्ति की कुल ऊंचाई ५७ फीट से कम नहीं है। श्वेताम्बरीय विद्वान् मुनि शीलविजय और सौभाग्य विजय ने अपनी अपनी सीमाला मे इस मूर्ति का प्रमाण बावनगज बतलाया है१ । जो किसी तरह भो सम्भव नहीं हैं । और बाबर ने श्रात्मचरित मे इस मूर्ति को करीब ४० फीट ऊँचा बतलाया है, वह भी ठीक नही है । कुछ १. वाचन गज प्रतिमा दीसती, गढ़ ग्यालेरि सदा सोमती | ३॥ गढ़ शीलविजयतीर्थमाला पृ० ११२ गढ़ ग्वालेर बावनगज प्रतिमा बदू ऋॠषभरंगरोलीजी ॥ सौभाग्यविजय तीर्थमाला १४२, पृ० १८ " ग्वालियर के किले मे एक अच्छा संग्रहालय है जिसमें हिन्दू, जैन और बौद्धो के प्राचीन अवशेषो मूर्तियों, शिला लेखों और सिक्कों प्रादि का संग्रह किया गया है। इससे जैनियों की गुप्तकालीन खड्गासन मूर्ति भी रक्खी हुई है, जो कलात्मक है और दर्शक को अपनी ओर प्राकृष्ट बिमालेख भी है। करती है, इसी में स० १३१६ का भीमपुर का महत्वपूर्ण ग्वालियर के आस-पास उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री खूबकुण्ड के शिलालेल - दूबकुण्ड का दूसरा नाभ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का बन पुरातत्व 'चडोम' है। यह स्थान किसी समय जैन संस्कृति का घात (कछवाहा) वंशके राजा विजयपालके पुत्र विक्रमसिंह 'महत्वपूर्ण स्थान था। यहां कच्छपघाट (कछवाहा) वंश के राज्य में यह लेख लिखा गया है । डा. कीलहानके मताके शासकों के समय में भी जैन मन्दिर मौजूद थे और नुसार यह विजयपाल वही हैं जिनका वर्णन बयाना के वि. नूतन मन्दिरों का भी निर्माण हुआ था। साथ ही शिला- सं० ११०० के शिलालेखमें किया गया है। बयाना दूबकुण्ड लेख में उल्लिखित लाड-बागडगण के देवसेन कुलभूषण, से ८० मील उत्तर में है। इस लेख में जैन व्यापारी दुर्लभसेन, प्रबरसेन और शान्तिषण इन पांच दिगम्बर ऋषि और दाहड़ की वंशावली दी है। जायस वंश में सूर्य जैनाचार्यों का समुल्लेख पाया जाता है जो उक्त प्रशस्ति के समान प्रसिद्ध धनिक सेठ जासूक था, जो सम्यग्दृष्टि के लेम्बक एवं शान्तिषेण के शिष्य विजयकीर्ति के पूर्ववर्ती था, जिनेन्द्र पूजक था। चार प्रकार के पात्रों को श्रद्धाहैं । यदि इन पांचों प्राचार्यों का समय १२५ वर्ष मान पूर्वक दान देता था। उसका पुत्र जयदेव था, वह भी लिया जाय, जो अधिक नही है, तो उसे ११४५ में से जिनेन्द्र भक्त और निर्मल चरित्र का धारक था। उसकी घटाने पर देवसेन का समय १०२० के लगभग आ जाता यशोमती नामक पत्नी से ऋषि और दाहड़ दो पुत्र हए है। ये देवसेन अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान थे और लाड थे। ये दोनों ही धनोपार्जन में कुशल थे। इनमें ज्येष्ठ बागडगण के उन्नत रोहणादि ये विशुद्ध रत्नत्रय के धारक पुत्र ऋषि को राजा विक्रम ने श्रेष्ठी पद प्रदान किया था, थे और समस्त प्राचार्य इनकी आज्ञा को नतमस्तक हो और दाहड़ ने उच्च शिखर वाला यह सुन्दर मन्दिर हृदय मे धारण करते थे१। उक्त दूबकुण्ड में एक जैन बनवाया था। जिसमें कूकेक, सूर्यट, देवधर और महीचंद्र स्तूप पर सं० ११५२ का एक और शिलालेख अकित है मादि विवेकी चतुर श्रावकों ने सहयोग दिया था। और जिसमे स० ११५२ की वैशाख सुदी ५ को काष्ठामंघ के राजा विक्रमसिंह ने जिनमन्दिर के सरक्षण पूजन और महान् प्राचार्य देवसेन की पादुका-युगल उत्कीर्ण है। जीर्णोद्धार के लिए दान दिया था। । यह लेख जैसवाल यह शिलालेख तीन पंक्तियो मे विभक्त है । इसी स्तूप के जाति के लिए महत्वपूर्ण है। नीचे एक भग्नमूर्ति उत्कीर्ण है जिस पर 'श्रीदेव' लिखा है, ग्वालियर स्टेट के ऐसे बहुत से स्थान हैं जिसमें जो अधूरा नाम मालूम होता है पूरा नाम श्रीदेवसेन रहा जैनियो और बौद्धो तथा हिन्दुनो की पुरातन सामग्री पाई होगा, दूसरी पक्ति से बह पूरा नाम देवसेन हो जाता है। जाती है । भेलसा (विदिशा) वेसनगर, उदयगिरि, बडोह ग्वालियर मे भट्टारकों की प्राचीन गद्दी रही है और उसमे वरो (वडनगर) मन्दसौर, नरवर, ग्यारसपुर सुहानियाँ, देवसेन, विमलसेन, भावसेन, सहस्रकीति, गुणकीति, गूडर, भीमपुर, पद्मावती, जोरा, चदेरी, मुरार, उज्जैन, यश कीति, मलयकीति और गुणभद्रादि अनेक भट्टारक और शिवपुरी आदि अनेक स्थान हैं। इनमें से यहाँ हुए है। इनमे देवसेन, यश.कीर्ति, गुणभद्र ने अपभ्रंश उदयगिरि नरवर और सुहानियों के सम्बन्ध में संक्षिप्त भाषा मे अनेक ग्रन्थों की रचना की है। प्रकाश डाला गया है। दूबकुण्डका यह शिलालेख ३ बड़े महत्व का है । कच्छप- उदयगिरि १. प्रासीद्विशुद्धतरवोधचरित्रदृष्टिः भेलसा जिले मे उदयगिरि नाम का एक प्राचीन नि.शेषमूरिनतमस्तकधारिताज्ञः । स्थान है। भेलसा से ४ मील दूर पहाड़ी में कटे हुए श्रीलाटवागडगणोन्नतरोहणाद्रि मन्दिर हैं। पहाडी में पौन मील के करीब लम्बी और माणिक्यभूत चरितो गुरु देवसेनः । ३०० फुट की ऊंचाई को लिए हुए है। यहाँ गुफाएं हैं, जिनमे प्रथम और २०वें नम्बर की गुफा जैनियो की है। २. मं० ११५२ वैशाख सुदि पञ्चम्यां श्री काष्ठासंघ २०वीं गुफा में जैनियों के तेईसवें तीर्थकर श्री पाश्र्वनाथ महाचार्यवर्य श्री देवसेन पादुका युगलम् । ३. See Archaeological Survey of India Vol. की मूर्ति थी जो अब वहाँ नही है। उसमें सन् ४२५-४२६ 2,.P. 102 ४. एपिग्राफिका इन्डिका जिल्द २ पृष्ठ २३२-४० Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त का गुप्तकालीन एक अभिलेख है, जो बहुत ही महत्त्व- 'नलगिरि' और 'नलपुर' भी कहा जाता था। इसका पूर्ण है। इतिवृत्त ग्वालियर दुर्ग के साथ सम्बन्धित रहा है । वि. "सिद्धो को नमस्कार, श्री संयुक्त गुणसमुद्र गुप्तान्वय की १०वीं शताब्दी के अन्त में दोनों दुर्ग कछवाहा राजके श्रेष्ठ राजामों के वर्तमान राज्य शासन के १०६ वें पूतों के अधिकार में चले गये थे। वि.सं. ११८६ में वर्ष और कातिक महीने की कृष्ण पंचमी के दिन गुहाद्वार उस पर प्रतिहारों का अधिकार हो गया था। लगभग में विस्तृत सर्पफण से युक्त शत्रुओं को जीतने वाले जिन एक शताब्दी शासन करने के बाद सन् १२३२ मे अल्तश्रेष्ठ पार्श्वनाथ जिन की मूर्ति शम-दमवान् शंकर ने मश ने ग्वालियर को जीत लिया । तब प्रतिहारों ने नरवर बनवायी, जो आर्य भद्र के अन्वय का भूषण और के दुर्ग मे शरण ली। वि० को १३वीं शताब्दी के अन्त मार्य कुलोत्पन्न प्राचार्य गोशर्म मुनि का शिष्य तथा दूसरों में दुर्ग को चाहडदेव ने प्रतिहारो से जीत लिया, जो नरद्वारा अजेय रिपुध्न मानी अश्वपतिभट सधिल और वर के राजपूत कहलाते थे। भीमपुर के वि० सं० १३१६ पद्मावती के पुत्र शकर इस नाम से लोक मे विश्रुत तथा के अभिलेख में इस वंश के सम्बन्ध मे कुछ सूचनाएँ की शस्त्रोक्त यतिमार्ग में स्थित था और वह उत्तर कुरुवो के हैं। और उसका यज्वपाल नाम सार्थक बतलाया है। सदृश उत्तर दिशा के श्रेष्ठ देश में उत्पन्न हना था, उसके तथा कचेरी के सं० १३३६ के शिलालेख में जयपाल से इस पावन कार्य में जो पुण्य हुमा हो वह सब कर्म रूपी उदभुत होने से इस वश को 'जज्जयेल' लिखा है। नरवर शत्रु-समूह के क्षय के लिए हो", वह मूल लेख इस प्रकार और उसके पास-पास के उपलब्ध शिलालेखों और सिक्कों से ज्ञात होता है कि चाहड़देव के वश में चार १. नमः सिद्धभ्यः [u] श्री संयुतानां गुणतोयधीनां राजा हुए हैं। चाहड़देव, नरवर्मदेव, भासल्लदेव, और ___गुप्तान्वयानां नृपसत्तमानाम् । गणपति देव । चाहडदेव ने नलगिरि और अन्य बड़े पुर २. राज्ये कुलस्याधि विवर्द्धमाने षड्भियुतवर्षशतेथमासे शत्रुषों से जीत लिये थे। नरवर में इसके जो सिक्के (1) सुकार्तिके बहुल दिनेथ पचमे । मिले हैं उनमे स० १३०३ से १३११ तक की तिथि ३. गुहामुखे स्फट विकटोत्कटामिमां, जितद्विषो जिनवर मिलती है । चाहड़ के नाम का एक लेख स. १३०० पाश्वसजिका, जिनाकृति शम-दमवान । का उदयेश्वर मन्दिर की पूर्वी महराब पर मिलता है. ४. चीकरत् (1) प्राचार्यभद्रान्वयभूषणस्य शिष्यो उसमे उसके दान का उल्लेख है। नरवमं देव भी बड़ा ह्यसावार्य कुलो द्वतस्य, प्राचार्य गोश । प्रतापी और राजनीतिज्ञ राजा था, जैसाकि उसके निम्न ५. र्म मुनेस्सुतस्तु पद्मावताश्वपतेन्र्भटस्य (1) परै - रजेयस्य रिपुघ्न मानिनस्ससघिल । १. प्रस्य प्रताप कनकैरमलयंशोभि६. स्येतित्यभिविश्रुतो भुवि स्वसज्ञया शकर नाम शब्दितो मुक्ताफलैरखिलभूषण विभ्रमाया। विधान युक्त यतिमार्गमस्थित. (u)। पादोनलक्ष विषयक्षिति पक्ष्मलाक्ष्या, ७. सउत्तराणां सदृशे कुरूणा उद्ग दिशा देशवरे प्रसूत. । मास्ते पुरं नलपुरं तिलकायमानम् ॥ ८. क्षयाय कारि गणस्य धीमान् यदत्र पुण्यं तद पास -भीमपुर शिलालेख १४ सर्ज (1) 'नलगिरि' का उल्लेख कचेरीवाले प्रभिलेख मे -फ्लीट, गुप्तप्रभिलेख पृ०२५८ मिलता है, यथाइस लेख में उल्लिखित प्राचार्यभद्र और उनके अन्वय 'तत्रा भवन्नृपतिरुपतरप्रतापः में प्रसिद्ध मुनि गोशर्म, कहाँ के निवासी थे और उनकी श्रीचाहडस्त्रिभुवन प्रथमानकीतिः । गुरु परम्परा क्या है? यह कुछ मालूम नहीं हो सका। दोर्दण्डचडिमभरेण पुरः परेभ्यो येनाहृता नलगिरि प्रमुखागरिष्ठाः ।।' यह एक प्राचीन ऐतिहासिक स्थान हैं। नरवर को -देखो, कचेरी अभिलेख सं० १३३९ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मध्य भारत का जैन पुरातत्व वाक्य से प्रकट है : खडित मूर्तियों की संख्या अधिक पाई जाती है। नगर में 'तस्मादनेकविधविक्रमलब्धकीतिः पुण्यश्रुति. समभव- भी अच्छा मन्दिर है पौर जैनिपों की बस्ती भी हैं । परवर्मदेवः । नगर के पास-पास के ग्रामों प्रादि में भी जैन अवशेष वि० स०१३३८ के एक शिलालेख से ज्ञात होता है पाये जाते हैं जिससे वहाँ जैनियों के प्रतीत गौरव का कि नरवर्मदेव ने धार (धारा नगरी) के राजा से चौथ पता चलता है। वसूल की थी। यद्यपि इस वंश की परमारो से अनेक नरवर से ३ मील की दूरी पर 'भीमपुर' नाम का छेड-छाड़ होती रहती थी, किन्तु उसमे नरवमं देव ने एक ग्राम है । जहां जज्जयेल वंशी राजा प्रासल्लदेव के सफलता प्राप्त की थी। नरवर्मदेव के बाद इसका पुत्र एक जैन सामन्त जैत्रसिंह रहते थे। उन्होंने जिन भक्ति प्रासल्लदेव गद्दी पर बैठा। इसके राज्य समय के दो से प्ररित होकर वहाँ एक विशाल जैन मन्दिर बनवाया शिलालेख वि० स० १३१८ और १३२७ के मिलते है। था। और उस पर २३ पंक्त्यात्मक करीब ६०-७० श्लोको पासल्लदेव के समय उसके सामन्त जैसिंह ने भीमपुर में के परिमाण को लिये हुए विशाल शिलालेख लगवाया एक जिन मन्दिर का निर्माण कराया था। इस मन्दिर की था, जो अब ग्वालियर पुरातत्त्व विभाग के संग्रहालय में प्रतिष्ठा स. १३१६ मे नागदेव द्वारा सम्पन्न हुई थी। मौजूद है। इस लेख में उक्त वंश के राजामों का उल्लेख इसके समय मे भी जैनधर्म को पनपने मे अच्छा सहयाग है। जैत्रसिंह की धार्मिक परिणति का भी वर्णन है, और मिला था। सिंह जैनधर्म का सपालक और श्रावक के नागदेव द्वारा उसकी प्रतिष्ठा सम्पन्न होने का उल्लेख ब्रतों का अनुष्ठाता था। पासल्लदेव का पुत्र गोपालदेव है। स० १३१६ का यह शिलालेख अभी तक पूरा प्रकाथा। इसके राज्य का प्रारम्भ स. १३३६ के बाद माना शित नहीं हया । यह लेख जैनियों के लिये महत्त्वपूर्ण है। जाता हैं। इसका चदेल वशी वीरवर्मन् क साथ युद्ध हुमा पर ऐसे कार्यों मे जैन समाज का योगदान नगण्य है। था, जिसमे इसके अनेक वीर योद्धा मारे गये थे। सुहानियां गणपतिदेव के राज्य का उल्लेख स० १३५० मे यह स्थान भी पुरातनकाल में जैन संस्कृति का केन्द्र मिलता है। यह स. १३४८ के बाद ही किसी समय रहा है और वह ग्वालियर से उत्तर की ओर २० मील, राज्याधिकारी हुमा होगा । सं० १३५५ के अभिलेख से . तथा कटवर से १४ मील उत्तर-पूर्व में महसन नदी के ज्ञात होता है कि इसने चन्देरी के दुर्ग पर विजय प्राप्त उत्तरीय तट पर स्थित है । कहा जाता है कि यह नगर की थी, क्योकि स० १३५६-५७ के सती स्तम्भो मे इसके पहले खूब समृद्ध था और बारह कोश जितने विस्तृत राज्य का उल्लेख है । जान पड़ता है कि मुसलमानो की मार ह कि मुसलमाना का मैदान मे प्राबाद था। इसके चार फाटक थे, जिनके विजयवाहिनी से चाहड़देव का बंश समाप्त हो गया। चिह्न आज भी उपलब्ध होते हैं । सुना जाता है कि इस जैनत्व की दृष्टि से नरवर के किले मे अनेक जैन नगर को राजा सूरसेन के पूर्वजों ने बसाया था। कनिंघम मूर्तियाँ खडित-प्रखडित अवस्था में प्राप्त हैं। किले मे साहब को यहाँ वि० स० १०१३, १०३४ और १४६७ के इस समय ४ मूर्तियाँ अखंडित है जिन पर स० १२१३ से मूर्ति लेख प्राप्त हुए थे। १३४८ तक के लेख पाये जाते हैं। इस लेख में मध्य भारत के कुछ स्थानों के जंन पुरा१-स० १२१३ असाढ़ सुदि ६, २-स. १३१६ तत्त्व का दिग्दर्शन मात्र कराया गया है। उज्जैनी, धारा ज्येष्ठ वदी ५ सोमे, ३-सं० १३४० वैशाखवदी ७ सोमे, नगरी और इनके मध्यवर्ती भूभाग अर्थात् समूचे मालव ४-स० १३४८ वैशाख सुदी १५ शनो।' प्रदेश का जो जैन सस्कृति का महत्वपूर्ण केन्द्र रहा है, ये सब मूर्तियाँ सफेद संगमर्मर पाषाण की हैं। पूरा परिचय देने मे एक बड़ा अथ बन जायगा। Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आश्रमपत्तन ही केशोराय पट्टन है डा० दशरथ शर्मा एम. ए. डी. लिट. श्री परमानन्द जी जैन शास्त्री ने कुछ महीने पूर्व तो सर्वविदित ही है कि चित्तौड़ पर भोज का अधिकार पाश्रम पत्तन या पाश्रमक को ठीक तरह पहचानने की था; और अपने दौर्बल्य के दिनो में भी चम्बल के पाससमस्या मेरे सामने रखी थी। साथ ही मापने बृहद् द्रव्य पास के प्रदेश पर अधिकार जमाए रखने के लिए ये संग्रह पर ब्रह्मादेव की टीका भी मुझे दी। उसके उल्लेखा- रणथभोर के चौहानो से बहुत समय तक झड़प करते 'नसार प्राश्रम नगर मण्डलेश्वर श्रीपाल के अधिकार में रहे। इसलिए स्वयं भोज के समय चम्बल नदी पर स्थित था जो मालवदेश में स्थित 'धारानगरी के माधीश कलि- किसी नगर पर एक परमार मण्डलेश्वर का अधिकार काल चक्रवर्ती भोजदेव का सम्बन्धी था।' इमी नगर में कोई पाश्चर्य की बात न थी। मुनिसुव्रत तीर्थकर के चैत्यालय की स्थिति भी इस टीका इसी विचार से प्रेरित होकर मैं संस्कृत साहित्य की से निश्चित है। मैंने पाश्रम नाम के कुछ प्राचीन स्थान ओर मुड़ा। नयचन्द्र सूरि के हम्मीर महाकाव्य की मैंने ढूंढ निकाले । परमार शिलालेखों से ज्ञात हुआ कि अनेक प्रावृत्तिया की है। पाण्डया जी के लेख के पढने के पाश्रम स्थान ब्राह्मणों की अच्छी बस्ती थी। नागोद बाद मुझे सहसा स्मरण हुआ कि उसमे चर्मण्वती नदी पर रियासत के 'पाश्रम' के विषय में भी पढा । संस्कृत स्थित प्राथम-पत्तन नाम के एक तीर्थ का वर्णन वर्तमान साहित्य में भी कुछ उल्लेख मिले जिनका निर्देश यथा- है। रणथभोर के राजा, हठीले हम्मीर के पिता, जत्रसिंह स्थान किया जाएगा। परन्तु मेरा विचार उस समय तक ने पुत्र को राज्य देकर पाश्रम पत्तन के पवित्र तीर्थ के अनिश्चयात्मक स्थिति में था जब मुझे वीरवागी के इस लिए प्रयाण किया था - वर्ष के स्मारिका में थी दीपचन्द पाण्डया का, "क्या दत्त्वेति शिक्षा शुभबद्धसरव्या, पाटण केशोराय ही प्राचीन पाश्रम नगर है ?" नाम का गेहे च देहे च निरीहचित्तः । लेख पढने का सुअवसर प्राप्त हुमा। इस प्रश्न के उत्तर जंत्र प्रभुः स्वात्महितं चिकीर्षन्, मे मुझे जो सामग्री प्राप्त है उसके आधार पर यह निश्चित श्री प्राश्रम-पत्तनमन्वचालीत् ॥१०६॥ रूप से कहा जा सकता है, "हाँ, प्राचीन पाश्रम-पत्तन ही शिवापि जम्बूपयसार्थवाही, वर्तमान केशोराय पटन हैं।" - विराजते यत्र शिवः स्वयम्भूः । अब पाटन केशोराय राजस्थान में है ? किन्तु चिर- यो ध्यातमात्रोप्यरुभक्तिमार्जा, काल तक चर्मण्वती (चम्बल) नदी के दोनो ओर की दत्ते न कि भुक्तिमिवाशु मुक्तिम् ॥१०॥ भूमि परमार साम्राज्य के अन्तर्गत रही थी। अवन्ति में मज्जच्छचीदृगयुगलीकुवेलजाकर बसने वाली और उस प्रदेश को मालव सज्ञा देने विष्वग्गलत्कज्जलमेचकाम्बु । वाली वीर मालव जाति इसी भूखण्ड से होती हुई चर्मण्वती यत्र सरिद वहन्ती, प्रवन्ति में पहुंची थी। मालव या विक्रम सम्वत् के पुण्यधियो वेणुरिवावभाति ॥१०॥ प्राचीनतम प्रयोग भी दक्षिण-पूर्व राजस्थान में ही मिले (अष्टम सर्प) है। महाराजाधिराज भोज परमार के यशस्वी छोटे भाई किन्तु जैत्रसिंह पाश्रम-पत्तन पहुँच न पाया। उसका रास्ते उदयादित्य के समय का शिलालेख शेरगढ़ (कोटा राज्य) में पल्ली पुरी में देहावसान हो गया। से मिला है। इसका प्राचीन नाम कोशवर्धन दुर्ग था। यह . अब विचार एक निश्चित दिशा में प्रवृत्त हो चुका Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माश्रमपत्तन ही केशीराय पट्टन है या। विशेष खोज के लिए अकबरकालीन गौड़-कवि (२) ब्राह्मण सम्प्रदाय के तीर्थों में चर्मण्वती नदी चन्द्रशेखर का 'सुर्जन चरित' उठाकर देखा तो मुझे इस पर स्थित मृत्युजय महादेव सबसे अधिक प्रसिद्ध थे। तीर्थ के महत्त्व का और अधिक भान हुमा। रणथभारेश्वर इनका विशिष्ट नाम अम्बुपथसार्थवाही या जम्बुमार्ग था। हम्मीर ने राजधानी मे यज्ञ न कर इसी महान् तीर्थ में (३) व्यापार की दृष्टि से भी यह नगर महत्वपूर्ण 'कोटिमख' किया था। किन्तु प्रतीत होता है कि सोलहवीं रहा होगा। हम्मीर महाकाव्य ने इसे पत्तन की सज्ञा दी शताब्दी की जनता इसे प्राश्रम-पत्तन न कह कर केवल है और सुर्जन चरित ने पुटभेदन की। जल और स्थल पत्तन या पट्टन कहने लगी थी। तथापि चम्बल के किनारे मार्गों से व्यापार करने वाले नदी किनारे स्थित नगर को उसकी अवस्थिति और पाश्रम-पत्तन की तरह पट्टन में भी पटभेदन कहते हैं । पत्तन शब्द मुख्यतः बन्दरगाह के लिए 'जम्बू मार्ग मृत्युञ्जय' के मन्दिर का अवस्थान इस विचार है चाहे वह मम तट पर दो या नदी तट पर । को दृढ़ करने के जिए पर्याप्त थे कि हम्मीर महाकाव्य का आश्रम नगर के लिए दोनो शब्द उपयुक्त हैं। पाश्रम-पत्तन और सुर्जन चरित का पट्टन वास्तव मे एक (४) रणथंभोर और पाश्रम-पत्तन या पट्टन के बीच ही स्थान है। में पल्ली, तिलद्रोणी नदी, पारियात्र गिरि पर स्थित सुर्जन चरित के पट्रन सम्बन्धी वृत निम्नलिखित हैं : विल्वेश्वर महादेव और षट्पुर आदि स्थान थे। पुरोहितेन न स्वपुरो हितेन, पुरस्कृतभूमिसुरैः परीतः। अब ये नाम कुछ बदल गये हैं। मुझे अपने भतीजे नृपः प्रतस्थे सह पट्टराज्ञा, स पट्टनाख्य पुटभेवनं यत् ॥२२॥ दिवाकर शर्मा, एम० ए० से ज्ञात हुआ कि तिलद्रोणी नवी तिलद्रोणिमदीन सत्वः, स तां जगाहे गहनप्रवाहाम्। अब तिलर्जुनी के नाम से ज्ञात है । इस नदी के पास-पास श्रियं वधान भगुपाद जातां, हिरण्यगर्भ वषत तथान्तः।२६ इन काव्यो मे वणित अन्य स्थान हैं। 'पल्ली' विल्वेश्वर विलोकयामास स पारियात्रं, गिरि पुरारातिमिवावनीशः। महादेव से अढाई मील दूर है। इसे पालाई भी कहा जाता स भूभतं भूमिभतां वरीयान, निषेवितं नाकसदा निकायः३० है। षटपुर को आजकल खटकड़ कहा जाता है। यह मेज बभ्राम बिभ्राणमनल्पतोत्र, तणेजुषां पावनपूर्णशालाः ।३४ नदी पर स्थित है । तिलद्रोगी मेज नदी की सहायक नदी तस्यान्तरे शान्तरजाः स राजा, सुदुर्लभालोकनमन्यलोक। है । और खटकड़ के पास ही मेज नदी मे मिलली है। ब्यलोकय विल्वपलाशिमले, विल्वेश्वरं वल्लभमीश्वराया।३५ यहाँ पर तीन नदियो का सगम होने के कारण इसे ततः पाशाविससोनिकारक त्रिवेणी के नाम से भी पुकारते है। विल्वेश्वर महादेव ___का मन्दिर भी यही पहाड़ की चोटी पर स्थित है। इस स पट्टनात्यं नगरं पटीयः, फलप्रकर्षे विहित क्रियाणाम् । मन्दिर पर शिवरात्रि को मेला लगता है। प्रलचकाराश हृतान्तरायः, सुनीतिवमेव मनः प्रसादः ।३६ उपर्युक्त तथ्यों में परमानन्द जी और दरबारीलाल सुराङ्गनाजित पारिजात-प्रसूनपर्याप्ततरङ्गशोभा। चर्मण्वती शर्ममयप्रवीणा प्रवीणयामास यशांसि यस्य । ०। जी कोठिया प्रादि विद्वानो द्वारा निर्दिष्ट मदनकीर्ति चतुस्त्रिशिका, ब्रह्मदेव रचित बृहद् द्रव्य संग्रह की टीका, चर्मण्वतोवारिणि धर्मपल्या सम समाप्याभिषव सवीरः।। प्राकृत निर्वाणकाण्ड, और उदयकीर्ति कृत अपभ्रश निर्वाण तं जम्युमार्ग विमलोपचारं-रान मृत्युञ्जयमञ्जमूतिम् ।४१ भक्ति आदि जनप्रथों के उल्लेखो को जोड़कर हम यह भी (एकादश सर्ग; मेरी हस्तलिखित प्रति से) कह सकते है कि पाश्रम पत्तन में नदी (चम्बल) के इन दो काव्यग्रंथों के अवलोकन से ये बातें निश्चित किनारे मुनि सुव्रत तीर्थकर का प्रख्यात जिनालय भी हो गई: पर्याप्त प्राचीनकाल से वर्तमान रहा है । चतुस्विशिका के (१) माश्रम-पत्तन नगर किसी समय अत्यन्त पवित्र उल्लेख के आधार पर यह कहना सम्भवतः असंगत न तीर्थ रूप में विख्यात था। राजा यहाँ अपने महान यज्ञ होगा कि ब्राह्मणो से कुछ संघर्ष के बाद ही श्री सुव्रत करते । यहाँ मृत्यु भी परमार्थदायिनी समझी जाती। तीर्थकर की यह प्रतिमा स्थापित हो चुकी थी। Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त इन सब प्रमाणों की उपस्थिति मेरे इस स्वार्थानुमिति के अन्दर एक प्राचीन प्रस्तर के शिवलिंग का प्रवशिष्टांश" को दढ करने के लिए पर्याप्त थी कि प्राथम-पत्तन पौर है। इस पर पूरी तरह फिट बैठने वाला पीतल का पटन (जो प्रापेक्षिक दृष्टया अर्वाचीन केशोराय के प्राच्छादन है, जिस पर चार मुख बने हैं। बिचले देव मन्दिर के कारण अब केशोराय पट्टन नाम से प्रसिद्ध है) स्थान के द्वार की सरदल पर से आगे निकले हुए पत्थर दोनो वास्तव में एक थे। किन्तु अनेकान्त के विज्ञ पाठक. पर बीच में विष्णु की मूर्ति हैं और उसके बाई ओर, वर्ग के लिए इसी तथ्य की ओर सुस्पष्ट करने के लिए दाहिनी ओर शिव और ब्रह्मा हैं। गर्भगह में एक शिवमैंने राष्ट्रीय संग्रहालय के श्री व्रजेन्द्रनाथ शर्मा, एम. ए. लिंग है। इस पर अनेक छोटे-छोटे लिंग उत्कीर्ण होने के सपनरोध किया कि वे केशोराय पाटण के विषय में कारण इसे 'सहस्रलिंग' कहते हैं। इन देवस्थानों के द्वार प्रापिलोजिकल सर्वे माफ इण्डिया की १६०४-५ की वा शैली के हैं। स्तम्भो के कोण झिरीदार हैं, और प्रोग्रेस रिपोर्ट के आधार पर एक टिप्पणी तैयार करे। और इनकी तलना अटरूम मति के स्तम्भों में किन्त श्री शर्मा ने मुझे रिपोर्ट का अंग्रेजी अवतरण ही की जा सकती है। किन्तु प्लस्तर की मोटी तह के कारण भेज दिया है। इसका हिन्दी रूपान्तर निम्नलिखित है- मूर्तियों की कुराई की शोभा बहुत कुछ खराब हो कोटा से उत्तर-पूर्व की ओर लगभग नौ मील की चुकी है। हरीपर बदी राज्य का केशोराय पाटण नगर चम्बल पर इसी नगर मे अन्य प्राचीनकालीन स्थान एक मन्दिर मवस्थित है। यही नदी कोटा राज्य की भूमि को बूंदी से है जिसे पृथ्वीतल से नीचे होने के कारण जनता "भई अलग करती है। नगर का नामकरण विष्णु के विग्रह देवरा" कहती है। पाठ स्तम्भों पर प्राधारित खली गोराय के नाम से हरा है। इनके ऊंचे मन्दिर मे चबल चौरी के मध्य भाग मे जमीन मे नीचे की ओर जाने के दिखाई पड़ती है। दृश्य प्रत्यन्त भव्य है । मन्दिर के उच्च लिए एक सीढी हैं जिसमे तीन से कम विश्राम स्थान प्राचीर से जल तक सीढियाँ चली गई है। किन्तु मन्दिर नही है । या कहना ठीक होगा कि ये एक सीढी से दूसरी को इमारत पर्वाचीन है; इसे सन् १६०१ मे महाराव सीढी पर पहुँचने के ये तीन मार्ग हैं। सीढियो मे प्रवेश राजा शत्रसाल जी ने बनवाया था। प्रतिष्ठा सम्बन्धी के लिए लगे द्वार बारीकी से चित्रित है। वही काले प्रस्तर पर गणपति की मूर्ति है, जिससे प्रतीत होता है कि पत्थर से बनी एक या दो जिन मूर्तियाँ भी है। दूसरी प्राधनिक काल मे भी वैष्णव मन्दिर के द्वार पर गगपति ओर अन्तिम सीढी को पार कर हम अटरू शैली के चौदह की मूर्ति बनती रही है। स्तम्भों पर आधारित एक बन्द मण्डप या बडे कमरे मे मन्दिर के सन्निकट-एक स्थान है जिसे स्थानीय प्रवेश करते हैं। मण्डप के मध्य का बर्गाकार भूमिभाग जनता जम्बद्वीप नाम से अभिहित करती है। इसमें तीन चार स्तम्भों मे घिरा है; और ठीक इसके सन्मुख के प्राचीन देवस्थान हैं। यहाँ प्रतिवर्ष माघ शिवरात्रि के देवस्थान में मनुष्य के परिमाण से कुछ बड़ी काले पत्थर दिन यात्री बडी संख्या में एकत्रित होते हैं। मन्दिर पर की जिनमूर्ति है। इसकी कुराई भव्य है। सिर के चारों सफेदी कर दी जाती है। इसके फलस्वरूप देवस्थान के ओर प्रभामण्डल है।" दारो पर की मूर्तियों पर इतनी सफेदी चढ़ गई है कि पाश्रम-पत्तन और केशोराय पट्टन का एकत्व सिद्ध उन्हें पहचानना कठिन है । इसी लिए यह कहना असम्भव करने वाली युक्तिशृखला की यह रिपोर्ट अन्तिम कड़ी है कि घसते ही दाहिनी मोर के देवस्थान की चौखट के कही जा सकती है । स्थान का प्राचीन नाम केशोराय सरदल पर किन देवताओं की मूर्तियां है और वे किस पट्टन न होकर सन् १६४१ से कुछ पूर्व पट्टन मात्र था किस स्थान पर उत्कीर्ण है । दूसरी पोर के देवस्थान के और उससे पूर्व कम से कम हम्मीर के समय तक आश्रम द्वार की सरदल पर बाई ओर ब्रह्मा की मूर्ति पहचानी पतन यहाँ ब्राह्मण सम्प्रदाय का मुख्य देवमन्दिर मृत्युञ्जय जा सकती हैं। किन्तु दूसरी मूर्तियाँ अस्पष्ट है । देवस्थान महादेव का स्थान था जो हम्मीर के समय 'जम्बुपथ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानमपतन ही केशोराय पट्टन है सार्थवाही । और अकबर के समय 'जम्बुमार्ग' के नाम से कुछ अधिक नहीं है । केवल साम्प्रदायिक संघर्ष का कुछ प्रख्यात थे, प्रोग्रेस रिपोर्ट में वर्णित है कि केशोराय के अनुमान अवश्य सम्भव है। विषय अनुसन्धेय है। मन्दिर के अत्यन्त सन्निकट "जम्बुद्वीप' नाम का स्थान हैं। यहाँ माघ महीने मे शिवरात्रि के दिन अब भी निसर्गरमणीय यह प्रदेश पाश्रमभूमि के उपयुक्त होने मेला लगता है। इसमे मिद्ध हैं कि जम्बुपथ सार्थवाही के कारण वास्तव में प्राश्रमस्थान होने का अधिकारी भगवान् मृत्युञ्जय का स्थान यही था। अब भी वहाँ दो था। चम्बल नदी के किनारे उपयुक्त स्थान पर स्थिति ने शिवलिंग वर्तमान है। किन्तु कालान्तर में राज्याश्रय के इसे पुटभेदन और पत्तन बनाया था। सौम्य प्रकृति ने कारण वैष्णव सम्प्रदाय के बलवान् होने पर इस स्थान इसे विविध-तीर्थत्व प्रदान किया था। 'जम्बुद्वीप' के की महता प्रापेक्षिक दृष्टया कम हो गई होगी। लोग प्राचीन देवस्थानों से यहां किसी विष्णु-मूर्ति की प्रवस्थिति अब 'जम्बुद्वीप' मात्र को जानते हैं। उन्हें यह ज्ञात नहीं अनुमित की जा सकती है। शायद मुख्य मन्दिर के इधरहै इसी स्थान पर जम्बुपथसार्थवाही महादेव का भारत- उधर ब्रह्मा और विष्णु के स्थान रहे हों। नयचन्द्र सूरि प्रख्यात स्थान था । यहाँ अन्य मूर्तियाँ भी वर्तमान है। के शब्दों में शैव तो यह मानते ही रहे हैं कि 'जम्बुपथ. जिनकी पहचान प्रयत्नशील अनुसन्धाता के लिए शायद सार्थवाही स्वयम्भू शम्भु का ध्यान मात्र केवल मुक्ति अब भी असम्भव न हो। रिपोर्ट अब से ६२ वर्ष पूर्व को ही नही, मुक्ति को भी प्रदान करता है। यहीं सपलिखी गई थी वर्षा और वायु की चपेट खाती हुई और स्नीक हम्मीर ने चर्मण्वती (चम्बल) नदी में स्नान कर वर्षानुवर्ष सफेदी मे पुनः पुनः प्रावृत्त जम्बूद्वीप की मूर्तियाँ जम्बुमार्ग मृत्युञ्जय का अर्चन किया था। पाण्ड्याजी के सम्भव है कि इस समय बहुत अच्छी अवस्था मे न हों। कथनानुसार जैन अब भी तीर्थकर मुनि का पर्चनकर 'भुईदेवरा' तो स्पाटत मनिसवत तीर्थकर का मनोरथ-पूर्ति के लिए यहाँ गणभोज भी किया करते हैं। जिनालय है । मुनि उदयकीर्ति, मदनकीर्ति, और प्राकृत- रल प्रान क बाद इसका व्यापारिक महत्त्व पूर्ववत् नहा निर्वाणकाण्ड आदि ने पाश्रम मे ही इसकी प्रस्थिति रहा है। प्राबादी भी घटी होगी। किन्तु इसकी नैसर्गिक वतलाई है सम्भवतः प्रतिमा का भूमिग्रह मे स्थापन भी - रमणीयता अब भी पूर्ववत् है; और जगत् के माधुनिक रमणा अपना इतिहास रखता है। मुनि मदनकीर्ति की चतस्त्रि- प्रशान्त वातावरण में भी अन्त शान्ति का इच्छुक भव्य से इस विषय पर कुछ प्रकाश पडता है। किन्त वह जीव इसकी पोर पाकृष्ट हुए बिना नहीं रहता। न्यायी सम्राट ईरान का बावशाह नौशेरवां न्यायौ और कर्तव्य-परायण था। एक बार वह शिकार खेलने के लिए निकला। भोजन की सामग्री साथ थी। एक गांव के किनारे विश्राम किया गया। रसोइये ने भोजन बनाना शुरू किया। "जहांपनाह ! नमक नहीं है", भोजन पकाते-पकाते रसोइये ने कहा। बादशाह ने आदेश दिया-"पाय के गांव से ले मा। लेकिन पंसा देना मत भूलना, यदि बिना पैसे लायगा तो सारा गांव उजड़ जायेगा।" "थोड़ा-सा नमक बिना पैसे लाने से गांव से उजड़ जायेगा?" रसोइए के इस प्रश्न पर बावशाह ने कहा-"यदि मैं बिना पैसे नमक लंगा तो दूसरे राज कर्मचारी रुपयों की बड़ीबड़ीलियां भी लेने में संकोच का अनुभव नहीं करेंगे। Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएँ डा० राजकुमार जैन एम० ए० पी-एच० डी० ___ (वर्ष १८ कि० ६ से प्रागे) रामायण में रुद्र के अत्यधिक विकसित स्वरूप के जा सकता है। अनेक स्थानों पर प्रणु के लिये प्रयुक्त दर्शन होते हैं। यहां उन्हें मुख्यत. 'शिव' कहा जाता है। की गई योगेश्वर की उपाधि इस तथ्य की द्योतक है महादेव, महेश्वर, शंकर तथा व्यम्बक नामों का अधिक कि विष्णु की उपासना में भी योगाभ्यात का समावेश हो उल्लेख मिलता है । यहाँ उन्हे देवताओं में सर्वश्रेष्ठ देव- गया , और कोई भी मत इसके वर्धमान महत्व को देव कहा गया है ।१ और अमर लोक में भी उनकी उपा- उपेक्षा नहीं कर सकता था। मना विहित दिखलाई गई है ।२ एक अन्यस्थल पर उन्हे महाभारत मे शिव के एक अन्य नवीन रूप के दर्शन अमर, अक्षर और अव्यय भी माना गया है। एक स्थान होते हैं और वह है उनका 'कापालिक' स्वरूप। यह पर उन्हें हिमालय मे योगाभ्यास करते हुए दिखलाया स्वरूप मृत्यु देवता वैदिक रुद्र का विकसित रूप मालूम देता है।४ रामायण मे शिव के साथ देवी की उपासना भी है। यहाँ उनकी प्राकृति भक्तिकाल के प्राराध्य देव शिव भक्त-जन करते हैं। इन दोनों को लेकर जिस उपासना की सौम्य प्राकृति के सर्वथा विपरीत एव भयावह है। पद्धति का जन्म हुआ, वेदोत्तर काल में वही शैव धर्म का वह हाथ मे कपाल लिये है १० और लोक वजित श्मशान मर्वाधिक प्रचलित रूप बना। रामायण में शिव की 'हर'५ प्रदेश उनका प्रिय प्रावास है, जहाँ वह राक्षसो, वेतालों, तथा 'वृषभ वज'६ इन दो नवीन उपाधियो का भी पिशाचो और इसी प्रकार के अन्य जीवो के साथ विहार उल्लेख मिलता है। करते है ।११ उनके गण को 'नक्तचर' तथा 'पिशिताशन' महाभारत मे शिव को परमब्रह्म, अमीम, अचिन्त्य, कहा गया है१२ । एक स्थल पर स्वयं शिव को मास भक्षण विश्वस्रष्टा, महाभूनों का एक मात्र उद्गम, नित्य और करत हुए तथा रक्त एव मज करते हुए तथा रक्त एवं मज्जा का पान करते हुए अव्यक्त प्रादि कहा गया है। एक स्थल पर उन्हे सांख्य उल्लिखित किया गया है१३ ।। के नाम मे अभिहित कियागया है और अन्यत्र योगियों के अश्वघोष के बुद्ध चरित में शिव का 'वृषध्वज' तथा 'भव' के रूप में उल्लेख हुअा है १४, भारतीय नाट्य शास्त्र परम पुरुष नाम से७ वह स्वय महायोगी हैं और ग्रात्मा मे शिव को 'परमेश्वर' कहा गया है१५ । उनकी 'त्रिनेत्र' के योग तथा समस्त तपस्याओं के ज्ञाता है। एक स्थान ' 'वषांक' तथा 'नटराज' उपाधियो की चर्चा है१६ । वह पर लिखा है कि शिव को तप और भक्ति द्वारा ही पाया नत्य-कला के महान् आचार्य है और उन्होने ही नाटय१. रामायण, बालकाण्ड : ४५, २२-२६, ६६, ११-१२, ८. वही अनुशासन १८,८, २२ ६. अनुशासन वही : ६८, ७४ आदि २. वही १३, २१ १०. वनपर्व वही : १८८, ५० आदि ३. वही ४, २६ ११. वनपर्व वही : ८३, ३० ४. वही ३६, २६ १२. द्रोणपर्व : ५०, ४६ ५. रामायण, बालकाण्ड ४३, ६ उत्तरकाण्ड : ४,३२, १३. वही अनुशासन पर्व : १५१, ७ १६, २७,८७, ११ १४. बुद्धचरित - १०, ३, १, ६३ ६. बही युद्धकाण्ड : ११७,३ उत्तरकाण्ड १६,३५,८७,१२ १५. नाटयशास्त्र : १,१ ७. महाभारत द्रोण '७४, ५६, ६१, १६६, २९ १६. वही १, ४५, २४, ५, १० Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कला को 'ताण्डव' दिया। वह इस समय तक एक महान् योगाचार्य के रूप में ख्यात हो चुके थे तथा इसमें कहा गया है कि उन्होंने ही 'भरत-पुत्रो' को सिद्धि सिखाई१ । अन्त में शिव के त्रिपुर ध्वस का भी उल्लेख किया गया है और बतलाया गया है कि ब्रह्मा के प्रादेश से भरत ने 'त्रिपुरदाह' नामक एक 'डिम' (रूवक का एक प्रकार ) भी रचा था और भगवान् शिव के समक्ष उसका अभिनय हुआ था२ ॥ वृषभवेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं । पुराणों में शिव का पद बडा ही महत्वपूर्ण है यहाँ वह दार्शनिकों के ब्रह्म है, मात्मा है, और शाश्वत हैं३ । वह एक आदि पुरुष हैं परम सत्य है तथा उपनिषदो एव वेदान्त में उनकी ही महिमा का गान किया गया है४ बुद्धिमान् और मोक्षाभिलाषी इन्ही का ध्यान करने हैं५ । वह सर्वज्ञ है, विश्व व्यापी है, चराचर के स्वामी है तथा समस्त प्राणियों मे प्रात्मरूप से वमने है६ । वह एक स्वयंभू हैं तथा विश्व की सृजन, पालन एवं सहार करने के कारण तीन रूप धारण करते है। उन्हे 'महायोगी तथा योगविद्या का प्रमुख प्राचार्य माना जाता है । मौर १० तथा वायुपुराण ११ मे शिव की एक विशेष योगिक उपासना विधि का नाम माहेश्वर योग है। इन्हें इस रूप मे 'यती' १२ 'ब्रात्म ९. वही १, ६०, ६५ २. यही ४, ५, १० हो गया असीम है ३. लिंगपुराण भाग २ २१ ४२ वायुपुराण ५५, ३ गरुडपुराण १६, ६, ७ . ४. सौरपुराण २६, ३१ महापुराण १२३, १६६ ५. वही २ ८३ ब्रह्मपुराण ११०, १०० ६. वायुपुराण ३०, २८३, ८४ ७. वही : ६६, १०८ लिंगपुराण भाग १, ११ ८. वही : २४, १५६ इत्यादि ९. ब्रह्मवैवर्त पुराण भाग १, ३, २०, ६, ४ १०. सौरपुराण अध्याय १२ ११ वायुपुराण अध्याय १० १२. मत्स्य पुराण ४७, १३० वायुपुराण १७, १६६ संयमी' 'ब्रह्मचारी' १३ तथा 'ऊर्ध्वरेता' १४ भी कहा गया है। शिव पुराग में शिव का प्रादितीर्थंकर वृषभदेव के रूप में अवतार लेने का उल्लेख है १५ । प्रभास पुराण में भी ऐसा ही उल्लेख उपलब्ध होता है१६ । विमल सूरि के 'पउमचरिउ' के मंगलाचरण के प्रसंग में एक 'जिनेन्द्र रुद्राष्टक' का उल्लेख हुआ है। यद्यपि इसे अष्टक कहा गया है, परन्तु पद्य सात ही है। इसमें जिनेन्द्र भगवान का रुद्र के रूप मे स्तवन किया गया है, बताया गया है कि जिनेन्द्र रुद्र पाप रूपी अन्धकासुर के विनाशक हैं काम, लोभ एवं मोहरूपी त्रिपुर के वाहक है, उनका शरीर तप रूपी भस्म से विभूषित है, संम रूपी वृषभ पर वह आरूढ़ है, संसार रूपी करि (हाथी) को विदीर्ण करने वाले है, निर्मल बुद्धि रूपी चन्द्र रेखा से अलंकृत हैं, शुद्ध भाव रूपी कपाल से सम्पन्न है, व्रत रूपी स्थिर पर्वत (कैलाश) पर निवास करने वाले है, गुग-गण रूपी मानव-मुण्डो के मालाधारी है, दश धर्म रूपी खट्वाग से युक्त है। तप कीतिरूपी गौरी से मण्डित है सातभयरूपी उद्याम डमरू को बजाने वाले है, अर्थात् वह सर्वथा भीति रहित है, मनोगुप्तिरूनी सर्व परिकर से वेष्टित है, निरन्तर सत्य वाणी रूपी विकट जटा-कलाप से मंडित है तथा हुकार मात्र से भय का विनाश करने वाले है१७ । १३. वही ४७, १३० २६ वायुपुराण २४, १५२ १४. मत्स्यपुराण १२६, ५ सौरपु० ७, १०.३०,१,३०, १४ १५. इत्थ प्रभाव ऋषभोऽवतारः शंकरस्य मे । सता गतिर्दोनबन्धुर्नवमः कथितवस्तव । ऋषभस्य चरित्र हि परमं पावन महत् । स्वर्ग्य यशस्यमायुध्य श्रोतव्यं च प्रयत्नत ॥ -- शिवपुराण ४, ४७-४८ १६. कैलाशे मिले रम्ये वृषभोऽय जिनेश्वरः । चकार स्ववतार च सर्वज्ञः सर्वगः शिव ॥ -प्रभासपुराण ४६ १७. पापान्धक निर्णाय मकरध्वज-लोभ-मोहपुर दहनम् । तपोभरम भूषितागं जिनेन्द्ररुद्रं सदा बन्दे ||१|| सममवृषभारूढ तप उग्रमत तीक्ष्णशूलधरम् । संसार करिविदार जिनेन्द्र सदा बन्दे ॥२॥ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्राचार्य वीरसेन स्वामी ने धवला टीका में महन्तों में करके अपनी परम्परागत रुद्र-भक्ति का परिचय दिया । का पौराणिक शिव के रूप में उल्लेख किया है और कहा वीरसेन स्वामी द्वारा महंन्तों का पौराणिक शिव के रूप है कि महन्त परमेष्ठी वे हैं जिन्होंने मोह-रूपी वृक्ष को में किया गया चित्रण भी इसी तथ्य की ओर इंगित जला दिया है, जो विशाल प्रज्ञान रूपी पारावार से करता है। उत्तीर्ण हो चुके हैं, जिन्होंने विघ्नों के समूह को नष्ट कर दिया है। जो सम्पूर्ण बाधामों से निर्मुक्त हैं, जो अचल हैं, स्वयं महाकवि पुष्पदन्त ने भी अपने महापुराण मे जिन्होंने कामदेव के प्रभाव को दलित कर दिया है, एक स्थल पर भगवान् वृषभदेव के लिए रुद्र की ब्रह्माजिन्होंने त्रिपुर अर्थात् मोह, गग, देष को अच्छी तरह से विष्णु-महेश रूपी त्रिमूति से सम्बन्धित अनेक विशेषणो भस्म कर दिया है, जो दिगम्बर मुनिव्रती अथवा मुनियों का प्रयोग किया है । भगवान् का यह एक स्तवन है जिसे के पति अर्थात् ईश्वर हैं जिन्होंने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, उनके केवल ज्ञान होने के पश्चात् सौधर्म तथा ईशान सम्यक् चरित्र रूपी त्रिशूल को धारण करके मोह रूपी इन्द्र ने प्रस्तुत किया है। स्तवन में भगवान् की जय मनाते अंधकासुर के कबन्ध वृन्द का हरण कर लिया है तथा हुए कहा गया है कि वह दुर्मथ कामदेव का मन्थन करने जिन्होंने सम्पूर्ण प्रात्म-स्वरूप को प्राप्त कर लिया है और वाले हैं, दोष-रोष रूपी मांस के लिये अग्नि के समान हैं। दुर्नय का अन्त कर दिया है। सम्पूर्ण विशुद्ध केवलज्ञान के प्रावास हैं, और मिथ्या-मार्ग पउमचरिउ में उल्लिखित 'रुद्राष्टक' इस तथ्य का से सन्मार्ग प्राप्ति के विचारक हैं । वह३ ककाल, त्रिशूल, द्योतक है कि इस रचना के समय तक वैदिक कालीन रुद्र ने कापालिक एवं पौराणिक युग के लोक प्रचलित २. दुम्मह वम्मह णिम्महण दोस-रोस-पशु-पास-सिहि, स्वरूप को अंगीकार कर लिया था, जिसका जैन परम्परा जय सयल विमल केवल णिलय रूपी समन्वय उक्त 'अष्टक' के रचयिता ने अपनी रचना हरण-करण-उद्धरण विहि । ३. जय सुकइ कहियणीसेसणाम, विमलमति चन्द्ररेखविरचित सिल शुद्धभाव कपालम् । भोमथण णिय रिउवग्ग भीम । व्रताचल शैलनिलयं जिनेन्द्र रुद्रं सदा बन्दे ॥३॥ वामा विमुक्क ससारवाम, गुणगणनरशिरमालं दशध्वजोद्भूत खट्वाङ्गम् । जय तिउरहारि हरहीर धाम । तपःकीति गौरिरचितं जिनेन्द्ररुद्रं सदा बन्दे ॥४॥ जय पयडिय धुस सयंभु भाव, सप्तभयडाम डमरूकवाचं अनवरत प्रकटसंदोहम् । जय जय सयभू परिगणिय भाव । मनोबद्ध सर्पपरिकरं जिनेन्द्र रुद्रं सदा बन्दे ॥५॥ जय संकर संकर विहियसति, अनवरतसत्यवाचा विकटजटामुकुट कृतशोभम् । जय ससहर कुवलय दिण्णकति । हुकार भयविनाशं जिनेन्द्र रुद्र सदा वन्दे ।।६।। जय रुद्दर उद्दतवग्गगामि, ईशानशयनरचितं जिनेन्द्र रुद्राष्टकं ललितं मे । जय जय भवसामि भवोवसामि । भावं च यः पठति भावशुद्धस्तस्य भवेज्जगति ससिद्धिः ।७ मह एव महागुणगणजसाल, १. णिशद्ध मोहतरुणो वित्थिण्णणाण-सायरुत्तिण्णा । महकाल पलय कालुग्ग काल । णिहय-णिय-विग्ध-वग्गा बहुवाहविणिग्गया प्रयला । जय जय गणेस गणवइ जणेर, दलिय-मयण धायावा तिकाल विसएहिं तीहिणयणेहिं । जय बभपसाहिय बभचेर। दिट्ठ सयलठ्ठ सारा सुरतिउण मुणिव्वइणो॥ वेयंगवाई जय कमलजोरिण, तिरयण तिसूलधारिय मोहंधासुर-कबन्ध-विन्दहरा । भाई बराह उद्धरिय खोणि । सिखसयलप्परूवा परहन्ता दुण्णयकयंता ॥ सहिरण्ण विट्टि पडिवण्ण गन्भ, -धवला टीका-१, पृष्ठ ४५-४६ जय दुग्णय णिहण हिरण्णगम्भ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं मनुष्य कपाल, विषधर तथा स्त्री से रहित हैं, शान्त हैं, हैं-भगवान् को संसार में केशव कहा जाता है जो रागी शिव हैं, अहिंसक हैं, राजन्यवर्ग उनके चरणों को पूजा हो [यः के शेषु रागवान् स 'केशवः'२, जो केशों मे अनुकरता है, परोपकारी है, भीति दूर करने वाले हैं, परन्तु रागी हो उसे केशव कहते हैं] परन्तु तुम तो वीतरागी अपने अन्तरग रिपु वर्ग के लिए भयकर है, वामा वियुक्त हो, अतः तुम्हारे अन्दर वह केशवत्व कसे पा सकता है ? (स्त्री रहित) है, परन्तु स्वयं संसार के लिए वाम (प्रति- 'केशव'३ के अन्य प्रश्न मूलक शाब्दिक तात्पर्य को लेकर कूल) हैं, त्रिपुरहारी (जन्म जरा मृत्यु) अथवा मिथ्या- इन्द्र कहते हैं-भगवन् वास्तव में वे ही जड़ हैं जो दर्शन, ज्ञान, चरित्र रूपी त्रिपुर के विनाशक हैं, हर हैं, तुम्हारा उपहास करते है और ऐसे जन का नरक-वास ही धैर्यशाली हैं, निर्मल स्वयं बुद्ध रूप से सम्पन्न हैं, स्वयंभू निश्चित है, भगवान् ! तुम काश्यप हो, जड़ प्राचार से है, सर्वज्ञ है, सुख तथा शान्तिकारी शकर है, चन्द्रधर है, विहीन हो, एकाग्र चिन्ता निरधि पूर्वक ध्यानी हो, आकाश सूर्य है, रुद्र है, उग्र तपस्वियों में अग्रगामी हैं, ससार के अग्नि, चन्द्र, सूर्य, यजमान, पृथ्वी, पवन सलिल-इन स्वामी है तथा उसे उपशान्त करने वाले है, महान् गुणगणों पाठ शरीरो से युक्त महेश्वर हो, परमौदारिक शरीर से से यशस्वी है, महाकाल है, प्रलयकाल के लिए उग्रकाल युक्त हो, कलिकाल के समस्त पाप-पक से मुक्त४ हो, है, गणेश (गणधरो के स्वामी) हैं, गणपतियो (वृषभसेन सिद्ध हो, बुद्ध हो, शुद्धोदनि हो, सुगत हो, कुमार्ग नाशक आदि गणधरो) के जनक है, ब्रह्मा हैं, ब्रह्मचारी हैं, - वेदांगवादी (सिद्धान्तवादी) हैं, कमल योनि हैं, पृथ्वी का २. देखिये, महापुराण १०,५ की टिप्पणी र उद्धार करने वाले प्रादि वराह है, सुवर्ण वृष्टि के साथ ३. केसव ते सब जे पइ हसंति, गर्भ मे अवतीर्ण हुए हैं, दुर्भय के निवारक हैं, हिरण्यगर्भ जड पावपिंड रउरवि वसंति । है, [युग सृष्टा है] परमानन्द चतुष्टय (अनन्त-दर्शन. जय वासव का सव विहि तुमम्मि, अनन्त-ज्ञान, अनन्त-सुख तथा अनन्त-वीर्य) से सुशोभित रंतरू चित्ति णिरोह जम्मि । है, प्रज्ञानान्धकार-हारी है, दिवसनाथ हैं, यज्ञ पुरुष है। जय गयण हुयासण चद रवि, पशु-यज्ञ के विनाशक है, ऋपि सम्मत अहिंसा धर्म के जीवय महि मारुय सलिल । प्रकाशक है१। माधव (अन्तरंग बहिरंग लक्ष्मी के स्वामी) अट्ठङ्ग महेसर जय सयल, है, त्रिभुवन के माधवेश है, मद्य-रूपी मधु को दूपित करने पक्खालिय कलिमल कलिल । वाले मधुसूदन है, लोक दृष्टा परमात्मा है, गोवर्द्धन -महापुराण १०,५ (ज्ञानवर्धक) है, केशव है और परमहंस हैं, इन्द्र कहते तुलना कीजिये: या सृष्टि सृष्य राद्या वहति विधिहुतं या हविर्या च जय परमाणेत चउक्क सोह, होत्री । ये द्वे सन्ध्ये विधत्त श्रुतिविषयगुणा या स्थिता भावंधसारहर दिवसलाह । व्याप्य विश्व । यामाहु 'सर्वबीज प्रकृतिरिति यया जय जण्ण पुरिस पसु जण्णणासि, प्राणिन. प्राणवन्त.। प्रत्यक्षाभि 'प्रपन्नस्तनुभिरवतु रिसि संस अहिंसाधम्मभासि ।। वस्ताभिरष्टाभिरीशः। १. जय माहव तिहुवण माहवेस, -अभिज्ञान शाकुन्तल १, १ तथा मालविकाग्निमित्र ___ महसूयण दूसिय महु विसेस । जय लोयणि पोइय परमहंस, ४. जय जय सिद्ध बुद्ध सुद्धोयणि, गोवद्धण केसव परमहंस। सुगय कुमग्गणासणा। जगि सो केसउ जो रापवंत, जय वइकुण्ठ विठ्ठ दामोयर, तुह णीरायहु, कहिं केसवत्त । हय परवाइ वासणा ॥ -महापुराण १०, ५ -महापुराण १०, Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त हो, वैकुण्ठ-वासी विष्णु हो, दामोदर हो तथा परवादियों भगवान् ऋषभदेव ने मष्टापद (कैलाश) से जिस की वासना को नष्ट करने वाले हो। दिन शिव-गति प्राप्त की उस दिन समस्त साधु-संघ ने महाकवि पुष्पदन्त के उल्लिखित संस्तवन के अध्ययन दिन को उपवास तथा रात्रि को जागरण करके शिव-गति से प्रतीत होता है कि भगवान् वृषभदेव के रूप में ही प्राप्त भगवान की पाराधना की, जिसके फलस्वरूप यह शिव के त्रिमूर्ति रूप तथा बुद्ध रूप को भी समन्वित कर तिथि-रात्रि 'शिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध हुई। लिया गया है । यद्यपि समन्वय क्रिया पुष्पदन्त द्वारा जैन उत्तर प्रान्तीय जैनेतर वर्ग में प्रस्तुत शिवरात्रि पर्व दृष्टि को सम्मुख रख कर की गई है । परन्तु प्रतीत होता फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को माना जाता है। उत्तर तथा है कि तत्कालीन लोक-प्रचलित शिव के एकेश्वरत्वने भी दक्षिण देशीय पंचांगों में मौलिक भेद ही इसका मूल अंशतः उनके मस्तिष्क पर अवश्य प्रभाव डाला है, पुष्प कारण है। उत्तर प्रान्त में मास का प्रारम्भ कृष्ण-पक्ष से दन्त का युग जैन-धर्म के उत्कर्ष तथा धामिक सहिष्णुता माना जाता है और दक्षिण में शुक्ल पक्ष से । प्राचीन मान्यता का युग था। खजुराहो के १००० ईस्वी के शिलालेख भी यही है । जनेतर साहित्य मे चतुर्दशी के दिन ही शिवनम्बर पाँच मे शिव का 'एकेश्वर' रूप में तथा "विष्णु' रात्रिका उल्लेख मिलता है। ईशान४ सहिता में लिखा है। 'बुद्ध' और 'जिन' का उन्ही के अवतारों के रूप में उल्लेख माधे कृष्णा चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । किया जाना इसी तथ्य को पुष्ट करता है। यद्यपि इससे शिव-लिगतयोद्भुतः कोटि सूर्यसमप्रभः । पूर्व पौराणिक काल में धार्मिक संघर्ष ने उग्र रूप धारण तत्काल व्यापिनी प्राहा शिवरात्रि वते तिथिः । किया और चार्वाक, कौल तथा कापालिकों के साथ बौद्ध प्रस्तुत उद्धरण मे जहाँ इस तथ्य का सकेत है कि और जैनों को भी विधर्मी माना गया । माघ-कृष्णा चतुर्दशी को ही शिवरात्रि मान्य किया जाना वषभ तया शिव-ऐक्य के अन्य साक्ष्य : चाहिये, वहाँ उसकी मान्यता मूलक ऐतिहासिक कारण का कतिपय अन्य लोक मान्य साक्ष्य भी वृषभ तथा । भी निर्देश है कि उक्त तिथि को महानिशा में कोटि-सूर्य शिव-दोनो के ऐक्य के समर्थक हैं जो निम्न प्रकार है। प्रभोपम भगवान् प्रादिदेव (वृपभनाथ), शिवगति प्राप्त शिव रात्रि तथा कैलाश : हो जाने से 'शिव' इस लिंग (चिह्न) से प्रकट हुएवैदिक मान्यता के अनुसार शिव कैलाशवासी है और अर्थात जो शिवपद प्राप्त होने से पहले 'पादिदेव' कहे उनसे सम्बन्धित शिवरात्रि पर्व का वहाँ बड़ा महत्व है। जाते थे। वे अब शिवपद प्राप्त हो जाने से 'शिव' कहजैन परम्परा के अनुसार भगवान ऋपभदेव ने सर्वज्ञ होने से के पश्चात् प्रार्यावर्त के समस्त देशों में विहार किया, भव्य उत्तर तथा दक्षिण प्रान्त को यह विभिन्नता केवल जीवोंको धामिक देशना दी और आयु के अन्त में अप्टा कृष्ण पक्ष में ही रहती है, पर शुक्ल पक्ष के सम्बन्ध में पद (कैलाश पर्वत) पहुँचे । वहाँ पहुँच कर योग दोनों ही एक मत हैं। जब उत्तर भारत मे फाल्गुन कृष्ण निरोध किया और शेष कर्मों का क्षय करके माघकृष्णा पक्ष चालू होगा तब दक्षिण भारत का वह माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन अक्षय शिवगति (मोक्ष) प्राप्त की। पक्ष कहा जायगा। जैन पुराणो के प्रणेता प्राय. दक्षिण १. एपिग्राफिका इण्डिका भाग १, पृ० स० १४८ भारतीय जैनाचार्य रहे है, अत: उनके द्वारा उल्लिखित २. सौर पुराण · ३८, ५४ माघ कृष्ण चतुर्दशी उत्तर भारतीय जन की फाल्गुन कृष्णा ३. माघस्स किण्हि चोद्दसि पुवण्णहे णियय जम्मणक्खत्ते। चतुर्दशी ही हो जाती है ! कालमाधवीयनागर खण्ड में (क) 'अट्ठावयम्मि उसहो प्रजुदेण समं गोज्जोमि।- प्रस्तुत मास वैषम्य का निम्न प्रकार समन्वय किया तिलोयपण्णत्ती (ख)........."घणतुहिण कणाउलि माह मासि। . सूरग्गमि कसण चउदसीहि णिवह तित्थंकरि ४. ईशान संहिता । पुरिससीहि । -महापुराण : ३, ३ ५. कालमाधवीयनागर खण्ड । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं माघ मासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गणस्य च । प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी प्रस्तुत कृष्णा चतुर्दशी सातु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता।' गंगावतरण की घटना का निम्न प्रकार चित्रण किया है ।२ अर्थात् दक्षिणात्य जन के माघ मास के शेप अथवा सिरिगिहसीसटिठ व्यंज कम्णिय सिंहासणं जामएणं । अन्तिम पक्ष की ओर उत्तर प्रान्तीय जन के फाल्गुन के जिणमभिसित्त मणा वा प्रोविण्या मत्थए गंगा ॥ प्रथम मास की कृष्णा चतुर्दशी 'शिवरात्रि' कही गई है। __अर्थात श्रीदेवी के गह के शीर्ष पर स्थित कमल की गंगावतरण कणिका के ऊपर सिंहासन पर विराजमान जो जटा रूप उत्तर वैदिक मान्यता के अनुसार जब गगा आकाश मुकुट वाली जिन मूर्ति है, उसका अभिषेक करने के लिए से अवतीर्ण हुई तो दीर्घ काल तक शिवजी के जटा-जूट में ही मानो गंगा उस मूर्ति के मस्तक पर हिमवान् पर्वत से भ्रमण करती रही और उसके पश्चात् वह भूतल पर अवतीर्ण हुई है। अवतरित हुई, यह एक रूपक है, जिसका वास्तविक रहस्य यह है कि जब शिव अर्थात् भगवान् ऋषभदेव को त्रिशूल असर्वज्ञ दशा में जिस स्वसवित्तिरूपी ज्ञान-गगा की प्राप्ति वैदिक परम्परा में शिव को त्रिशूलधारी बतलाया हुई उसकी धारा दीर्घ काल तक उनके मस्तिष्क में प्रवा- गया है तथा त्रिशलाकित शिव मूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हित होती रही और उनके सर्वश होने के पश्चात वही है। जैन परम्परा में भी पहन की मूर्तियों को रत्नत्रय धाग उनकी दिव्य वाणी के मार्ग में प्रकट होकर ससार (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान. सम्यक् चारित्र) के प्रतीकात्मक के उद्धार के लिए बाहर पाई तथा इस प्रकार समस्त विशूनांकित त्रिशूल मे सम्पन्न दिखलाया गया है। प्राचार्य आर्यावर्त को पवित्र एवं प्राप्लाबित कर दिया। गगा- वीरसेन ने एक गाथा में त्रिशूलाकित प्रहन्तों को नमस्कार वतरण जैन परम्परानुसार एक अन्य घटना का भी किया है३, मिन्धु उपत्यका से प्राप्त मुद्रामो पर भी ऐसे स्मारक है। वह यह है कि जैन भौगोलिक मान्यता मे योगियों की मूतियाँ अकित हैं जो दिगम्बर है । जिनके गगा नदी हिमवान पर्वत के पद्म नामक सरोवर से निक- सिर पर त्रिशल है और कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानावस्थित लती है । वहाँ से निकलकर वह कुछ दूर तक तो ऊपर है। कुछ मूर्तियाँ वृषभ चिह्न से प्रकित हैं। मूर्तियों के ये ही पूर्व दिशा की ओर बहती है, फिर दक्षिण की ओर दोनो रूप महान योगी वृपभदेव से सम्बन्धित है। इसके मुडकर जहाँ भूतल पर अवतीर्ण होती है, वहाँ पर नीचे अतिरिक्त खण्डगिरि की जैन गुफापो (ईसा पूर्व द्वितीय गंगा कूट मे एक विस्तृत चबूतरे पर आदि जिनेन्द्र शताब्दी) मे तथा मथुरा के कुशानकालीन जैन प्रायागवृपभनाथ की जटा-जूट वाली अनेक वज्रमयी प्रतिमाएं पट्ट आदि में भी त्रिशूल चिह्न का उल्लेख मिलता है।। अवस्थित हैं, जिन पर हिमवान पर्वत के ऊपर से गगा २. त्रिलोकसार . ५९०, गाथा संख्या। की धाग गिरती है। विक्रमकी चतुर्थ शताब्दी के महान् ३. तिरयण तिसूलधारिय....."धवला टीका, १,४५,४६ जैन प्राचार्य यति वृषभ ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति में१ प्रस्तुत गंगावतरण का इस प्रकार वर्णन किया है : ४. (a) Kurtshe, list of ancient monuments 'पादि जिणप्पडिमानो ताम्रो जड-मउड-सेहरिल्लामो। protected under Act VII of 1904 पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तमणा व सा पडदि।' (Arch, Survey of India New imperial अर्थात् गंगाकूट के ऊपर जटारूप मुकट से शोभित serics vol, 4) Trisula in Anant Gumpha प्रादि जिनेन्द्र (वृषभनाथ भगवान) की प्रतिमाएं हैं। P. 273 and in Trisula Gumpha P.280: प्रतीत होता है कि उन प्रतिमाओं का अभिषेक करने की प्रभिलाषा से ही गंगा उनके ऊपर गिरती है। (b) Smith Jain stupa and other Antiquities of Mathura Ayegapeta tablets Pls. IX, १. त्रिलोक प्रज्ञप्ति : ४, २३० । xand XII Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० अनेकान्त डा० रोठ ने इस त्रिशूल चिह्न तथा मोहनजोदडो की मुद्रानों पर अंकित त्रिशूल में श्रात्यन्तिक सादृश्य दिखलाया है । ब्राह्मी लिपि तथा माहेश्वर सूत्र जैसी कि जैन मान्यता है तथा पहले हमने महापुराण को पाँचवीं सन्धि में देखा कि भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत आदि को सम्पूर्ण कलाओं में पारंगत किया और अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपिविद्या ( अक्षर विद्या) तथा सुन्दरी को श्रंकविद्या सिखलाई। भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी लिपि है। जैन परम्परा में तथा उपनिषद् में भी भगवान ऋषभदेव को श्रादि ब्रह्मा कहा गया है१ । अतः ब्रह्मा से ग्राई हुई लिपि ब्राह्मी कहलाई जा सकती है २ तथा बी से सम्बन्धित लिपि का नाम भी ब्राह्मी हो सकता है। दूसरी ओर पाणिनि ने अ इ उ ण् आदि सूत्रों (सूत्र बड वर्णमाला) को 'माहेश्वर' बतलाया है, जिसका अर्थ है महेश्वर से प्राये हुए वैदिक परम्परा में जहाँ शिव को महेश्वर कहा गया है४, वहाँ जैन परम्परा मे भगवान ऋषभदेव ही महेश्वर अथवा ब्रह्मा (प्रजापति) है। इस १. ब्रह्मदेवाना प्रथम संवभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता । ...... मुण्डकोपनिषद. १, १ २. ब्रह्मणभागता (ब्रह्मा ने भाई हुई इस चर्च में व्याकरण शास्त्र द्वारा ब्रह्मी शब्द की निष्पत्ति होती है। ३. इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादि सज्ञार्थानि । सिद्धान्तकौमुदी, प्र० सं० २ ४. अथर्ववेद १६, ४२, ४, १९, ४३ सूक्त यजुर्वेद ४०, ४६ ऋग्वेद ४, १८ प्रकार वृषभदेव द्वारा ब्राह्मी पुत्री को सिखाई गई प्राह्मी लिपि की अक्षर विद्या तथा माहेश्वर सूत्रबद्ध वर्णमाला दोनों में जहाँ स्वरूपतः ऐक्य है, वहाँ यह ऐक्य ही दोनों के प्रवर्तक सम्बन्धी ऐक्य को इङ्गित करता है । वृषभ (बैल) का योग वैदिक परम्परा में शिव का वाहन वृषभ (बैल) बतलाया गया है । जैन मान्यतानुसार भगवान् वृषभदेव का चिह्न बैल है । गर्भ में अवतरित होने के समय इनकी माता मरुदेवी ने स्वप्न में एक वरिष्ठ वृषभ को अपने मुख- कमल में प्रवेश करते हुए देखा था । अतः इनका नाम वृषभ रक्खा गया। सिन्धु घाटी मे प्राप्त वृषभांकित मूर्तियुक्त मुद्राएँ तथा वैदिक युक्तियाँ भी वृषभाकित वृषभ देव के अस्तित्व की समर्थक है। इस प्रकार वृषभ का योग भी शिव तथा वृषभदेव के ऐक्य को संपुष्ट करता है । भगवान वृषभदेव तथा शिव दोनों का जटाजूटयुक्त ५ तथा कपर्दी रूप चित्रण भी इनके ऐक्य का समर्थक है । भगवान वृषभदेव के दीक्षा लेने के पश्चात् तथा ग्राहार लेने के पूर्व एक वर्ष के साथक-जीवन में उनके देश बहुत बढ़ गये६ । फलतः उनके इस तपस्वी जीवन की स्मृति मे ही जटाजूटयुक्त मूर्तियों का निर्माण प्रचलित हुया । ५. वत्ती सुवएस मुणीसरहं कुडिला उंचिकेसं । महापुराण ३७, १७ तथा यजुर्वेद १६, ५६ ६. संस्कार विरहात् केशा 'जटी 'भूतास्तदा विभो' नून तेऽपि तम. क्लेश मनुसोढ तथा स्थिताः । मुनेर्मून्धिजटा दूरं प्रससुः पवनोद्धता, ध्यानाग्निनेव तप्तस्य जीवस्वर्णस्य कालिका । आदि पुराण: १८, ७५-७६ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AN KENA Pri . 1 KARO D - URL: % 335 उत्तर भारत के गोमटेश्वर शान्तिनाव का नव निर्मित मन्दिर, प्रहार (छाया-नीरज जैन) Road Haled तीर्थकर मूर्ति देवय कल्पवृक्ष पर कमलासीन तीर्थंकर रामघाट, बनारस (छाया-नीरज ) Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ. महावीर की एक मनोहर छवि मन्दिर नं २१ बेवगढ़ (१०-११वीं शती) छाया-नीरज जैन पल्लू ग्राम की जन सरस्वती . FOR - - - बाजुराहो के जग प्रसिद्ध पारसनाथ मन्दिर को कलशयोजना का एक इश्य (१०-११वीं शताम्दी) (छापा-नीरज जैन) Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलधर में प्राप्त १६० जिन प्रतिमाएँ श्री मगरचन्द नाहटा जिन प्रतिमानों का निर्माण कब मे हुमा-यह काफी पुराना होना चाहिये। गुप्तकाल.की कुछ सुन्दर निश्चयपूर्वक बतलाना कठिन है। क्योकि प्राचीन जैन- प्रतिमाएं मिलती हैं पर अधिकांश प्रतिमाएं मध्यकाल की मागमों में नदीश्वर द्वीप एवं स्वर्ग विमान प्रादि मे जिन- ही मिलती है। प्रतिमाएं होने का उल्लेख मिलता है और उन्हें शाश्वत मध्यप्रदेश में जैन पुरातत्व बहुत अधिक बिखरा पड़ा माना गया है । इस अपेक्षा से तो जिन-प्रतिमा के निर्माण है। गुप्तकाल से लेकर १६वीं शताब्दी के बीच की हजारों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन सिद्ध होती है। पर भारत जैन-प्रतिमाएं व भनेक मन्दिर माज भी प्राप्त हैं। उनमें में अब तक जितनी भी प्रतिमाएं प्राप्त हुई है वे मौर्यकाल से अधिकांश मन्दिर मूर्तिये खडित व भग्न-रूप में ही हमें से पहले की नही है यद्यपि खारवेल के शिलालेख से नद- मिलती है। देवगढ़ का जैन शिल्प तो विशेष रूप से काल मे भी जिन-प्रतिमाएँ पूजी जाती थीं; ज्ञात होता है उल्लेखनीय है । ११वी शताब्दी से १६वी शताब्दी के बीच अनेक स्थानो की चमत्कारी मूर्तियों के सम्बन्ध मे जो जैनधर्म का मध्यप्रदेश में बड़ा भारी प्रभाव रहा है। प्रवाद प्रचलित है और पूर्ववर्ती ग्रन्थों में जो उल्लेख महाराजा भोज और नरवर्म प्रादि बहुत से नपतिगण मिलते हैं उनसे तो ऐसा लगता है कि भगवान ऋषभदेव जैनाचायों से प्रभावित थे। अनेक स्थानों की जैन मूर्तियाँ के समय से ही जिनमूर्ति स्थापित होने लगीं। भगवान इधर कुछ वर्षों में ही जैनों और पुरातत्व विभाग की ऋषभदेव के पुत्र भरत ने प्रष्टापद पर्वत-जहाँ भगवान उपेक्षा से खडित हो गई हैं। अभी-अभी नरवर के एक ऋषभदेव का निर्वाण हमा था, एक जिनालय का निर्माण तलघर से प्राप्त १६० जिन-प्रतिमानों की जानकारी किया था। भगवान ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र बाहुबलि ने "मध्यप्रदेश संदेश" के ता. १९ मार्च ६६ के प्रक में भी छपस्थकाल में, भगवान ऋषभदेव उनकी राजधानी प्रकाशित हुई है। श्री कुरेशिया के "जिला पुरातत्व के पास या बाहर पधारे थे और बाहुबलि बड़े ठाट-बाट संग्रहालय, शिवपुरी" नामक लेख से विदित होता है कि के साथ दूसरे दिन जब ऋषभदेव को वन्दन करने के लिए वे प्रतिमाएं अभी शिवपुरी में स्थापित नवीन संग्रहालय उस स्थान पर पहुंचे तब तक भगवान अन्यत्र विहार कर में रखी हुई हैं। १३वी से १६वी शताब्दी के लेख उन चके थे इसलिए बाहुबलि को देरी से पाने के कारण प्रतिमानो पर खुदे हुए हैं। प्रतिमा लेखों की पूरी नकल भगवान के दर्शन न हो सके, इसका बड़ा खेद रहा । जहाँ मिलने से सम्भव है जैन इतिहास की कुछ अज्ञात बातें भगवान ऋषभदेव के पद-चिह्न उन्हे दिखाई दिये वहाँ प्रकाश मे पायेंगी। उनकी पादुकाएं स्थापित की गई—ऐसा भी प्रवाद है। "मध्यप्रदेश सन्देश" में नरवर से प्राप्त १६० जिनवर्तमान में प्राप्त कई मूर्तियों के सम्बन्ध में यह कहा प्रतिमानों सम्बन्धी जानकारी इस प्रकार हैजाता है कि वे भगवान पार्श्वनाथ, नेमिनाथ मादि प्राचीन "नरवर में एक तलघर था जिसमें १६० जिन-प्रतितीथंकरों के समय की हैं। पर उन मूर्तियों पर कोई लेख माएँ सुरक्षा हेतु रखी हुई थीं। ऐसा ज्ञात होता है कि नही मिलता और न पुरातत्व की दृष्टि से वे इतनी शत्रुमो के पाक्रमणों के कारण किसी जैन साधु ने मन्दिर प्राचीन सिद्ध की जा सकती है। के तलघर मे सारी जैन प्रतिमाएँ सुरक्षा हेतु छिपा कर उपलब्ध जिन-प्रतिमामो मे मौर्यकाल की जिनप्रतिमा बन्द कर दी हों। सम्भव है कि वे व्यक्ति जिनको इन पटना म्यूजियम में है जो लोहानुपुर से प्राप्त हुई है। प्रतिमामोकी जानकारी थी, माक्रमण मे वीरगति को प्राप्त उसके बाद की तो मथुरा मादि अन्य स्थानो मे भी मिली हो गए हों और इस तलघरकी जानकारी भी उनके साथही हैं। मथुरा में सुपाश्वनाथ व पार्श्वनाथ स्तूप पाश्चात्य चली गई हो । यहाँ तक हुमा एक मकानका निर्माण इस विद्वानों की राय में भी देव-निर्मित माने जाने के कारण तलघर के ऊपर हो गया जो कि वर्तमान में भी स्थित है। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ अनेकान्त सन् १९३६ में एक ऐसी घटना घटी जिसके कारण प्रतिमाएँ छिपाकर रखी गई थीं। उसी लड़ाई के कारण उनका पता साधारण व्यक्ति को चला है । दो बैल लड़ रहे थे, जिसमें से एक बैल एक गड्ढे में गिर पड़ा। बैल निकालने के लिए गड्ढे को बड़ा किया गया और तलधर का पता साधारण जनता को हो गया । इस प्रकार इन द्वितीय मनोरम कलाकृतियो की जानकारी जन साधारण को प्राप्त हुई। ग्वालियर राज्य के पुरातत्व विभाग ने छानबीन कर इन प्रतिमाओं की सूची तैयार की। इन प्रतिमामों को उस ततपर से बाहर निकालने की धनेक योजनाएँ बनी किन्तु दुर्भाग्यवश कोई भी कार्य सम्पन्न नहीं हो सका। "कला क प्रेमियों ने इन प्रतिमाथी की जो दुर्दशा की है वह प्रवणनीय है, जिसके कारण प्राज १६० प्रतिमाम्रो मे प्राय सभी प्रतिमाएँ खण्डित है। अधिकतर प्रतिमाओं के सिर काटकर ले जाए गए हैं जो कला-प्रेमियों को बेच दिए जाते थे।" वे उनको अपने निवास स्थान मे रखकर घर की शोभा बढ़ाते हैं। इस प्रकार के कला-प्रेमियों के कारण देश मे अनेकों अनुपम कलाकृतिया खण्डित हुई और इस प्रकार कार्य करने वाल व्यक्ति उनको यह नीच कार्य करने के लिये उत्साहित करते रहे। जिसके फलस्वरूप अनुपम कलाकृतियाँ खण्डित अवस्था में मिलती है। सन् १९५९ में एक चोर रगे हाथों पकड़ा गया। जिसका मामला न्यायालय में चलता रहा तथा उस व्यक्तिको कुछ मास का कारावास भोगना पड़ा । इस पर शासन ने उन प्रतिमानों को तलघर से बाहर निकालने के आदेश देकर पुरातत्व तथा कला की बड़ी सुरक्षा की। इस प्रकार वे समस्त प्रतिमाएँ वहाँ से निकाल कर शिवपुरी में जिलाधीश महोदय के कार्यालय के समीप एक पुराने सायकिल स्टैंड में संग्रहीत की गई। इन प्रतिमाओं को वहाँ से लाने तथा घर से बाहर निकालने के कारण बहुत-सी प्रतिमाएँ खण्डित भी हो गई है। फिर भी उन प्रतिमाओं को तल पर से बाहर निकालने के बाद शिवपुरी मे रखने का एक सराहनीय कार्य है। इस प्रकार शिवपुरी संग्रहालय प्रारम्भ हुआ । इस संग्रहालय में जैन प्रतिमाओं का ऐसा पद्वितीय संग्रह होना किसी भी 'देश के संग्रहालय में सम्भव नहीं है।' यह भी जिला जा सकता है कि 'ससार के किसी संग्रहालय में इतनी उत्तम जैन प्रतिमानों का संग्रह नहीं मिल सकता।' जिससे शिवपुरी संग्रहालय देश का एक प्रमुख जैन सग्रहालय बन जावेगा । २४ तीर्थकरों मे लगभग १४ तीर्थकरों की प्रतिमाएँ दीर्घा मे सुचारु रूप से प्रदर्शित की गई हैं। शेष तीर्थंकरो की प्रतिमाएं मध्यकाल की कला के धनुपम नमूने हैं। जिनकी पालिश भाज भी ऐसी चमकता है जैसे भाका गई हो। भवन के मुख्य द्वार में प्रवेश करने पर एक जैन की चौकी पर प्रदक्षित का गई है। इस प्रतिमा पर एक तीर्थकर का प्रतिमा ध्यानमुद्रा में मद्धचन्द्राकार लकड़ी चमकदार पालिश की हुई है जिसको देलकर ऐसा प्रतीत हाता है । कि यह पालिश अभी की गई है । उसके उपरान्त दीर्घा क्रमाक १ भाती है । इस दीर्घा मे १४ तीर्थकर प्रतिमाए प्रदर्शित की गई है और ये प्रतिमाएँ प्रायः कायोत्सग मुद्रा मे हूं तथा दो-तीन प्रतिमाएँ ध्यान मुद्रा है किन्तु सारी प्रतिमाए देखने योग्य है, साथ ही कला मे अपना विशेष स्थान रखती हैं। इस दीर्घा के उपरान्त बरामदा माता है । इस बरामदे में लाल पत्थर की एक पार्श्वनाथ की प्रतिमा ध्यान मुद्रा मे प्रर्द्धचन्द्राकार लकड़ी की चौकी पर प्रदर्शित की हुई है। यहाँ पर लाल रंग के पत्थर की प्रतिमाएँ अधिकतर नहीं मिलती है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह विशेष प्रकार का पत्थर अन्यत्र कही से लाया गया होगा। इसके बाद दीर्घा क्रमाक २ घाती है। इस दीर्घा मे कुछ सति प्रतिमाएं बिना चौकी के प्रदर्शित की हुई है तथा पांच बड़े बड़े शो-केसों को भी बनवाया गया है । इस दीर्धा के बाहर एक भव्य पार्श्वनाथ की प्रतिमा ध्यान-मुदा मेघ-चन्द्राकार लकड़ी की चौकी पर प्रदर्शित की हुई है। इस प्रतिमा पर अच्छी चमकदार पालिश की हुई है। इसके उपरान्त भवन के पिछले भाग में खंडित प्रतिमाएँ तथा चौकियों प्रदर्शित की हुई हैं। कुछ चौकियाँ अत्यन्त सुन्दर है। इन चौकियों में सिंह तथा हाथी अंकित किये गये हैं। एक चौकी में पंक्तियों का एक संस्कृत लोक उत्कीर्ण है । जिसमें संवत् १२४२ दिया गया है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तलपर में प्राप्त १६० दिन प्रतिमाएं संग्रहालय भवन के पीछे एक स्तम्भ भूमि में गाड़कर से कवि ने वर्णन किया हैप्रदर्शित किया गया है। यह स्तम्भ भी इन्हीं प्रतिमामों ध्रम देश मण्डोवर महा. बलसर राजा सोहए। के साथ नरबर में स्थित तलघर से ही प्राप्त हमा है। तिहा गाम एक प्रमेक पालक, पंधांणी मन मोडm दूषलारे नाम तलाव बहरत, इसके चारों तरफ जैन साधु प्रकित हैं। क्योंकि जैनधर्म तसु पूठा रेसोलाइमामक हर। में साधुनों को विशेष स्थान एवं महत्व दिया जाता रहा तसु पाईरेसिणंता प्रगटयर मुंहरी, है। इस जैन चौमुख स्तम्भ पर यह लेख संस्कृत भाषा परियागत रे जाण निधान प्रगट्यो सरर । में अंकित हैं, "मबत् १५१७ श्री नभ भीतराठा श्री कष्ट प्रगट्यउपर हरउ, तिण माहि प्रतिमा पति भली। सप्तया......।" इस प्रकार और अन्य जैन प्रतिमाएँ जंठ सुबी इग्यारस सोल बासठ, विब प्रगट्यर मारली। जो कि नरवर से प्राप्त हुई हैं उनमें १२४२, १२४३ तथा केतली प्रतिमा केहनी बलि, किण भराण्यउ भावसुं। १५१७ सवत् मिलता है। इन तिथियों से यह स्पष्ट हो एकउण नगरी किण प्रतिष्ठी, ते कई प्रस्ताव॥२॥ जाता है कि सारी जैन प्रतिमाएँ जो नरवर से प्राप्त हुई ते सगली रे पैंसठ प्रतिमा जागिया, हैं वे मध्यकालीन है । उस समय यहाँ पर जैन धर्म का जिम शिवमी रे सगली विगत बबाणिया। अधिक प्रचार था।" समय-समय पर जैन मूर्तियों की रक्षा के लिये भूमि- मलनायक रेश्री पद प्रभू पास जी, इक चौमुख रे चौवीसट सुविलास जी। गृहो प्रादि मे रखा जाता था और कही-कही तो खड्ढा सुविलास प्रतिमा पास केरी, बीजी पणी ते वीसए। खोदकर या बालू के धोरों आदि के नीचे भी मूर्तियाँ ते माहि काउसग्गिया बिहुँ विशि, बंउ सुन्दर बीसए॥ छिपाकर रखी जाती थी-ऐसी बहुत-सी मूर्तिया उदय वीतरागनी चवीस प्रतिमा, बली बीजी सुन्दरू। काल पाकर प्रकट होती रही हैं। उन मूर्तियों के प्रति सगली मिली ने जैन प्रतिमा, संतालीस मनोहरू ॥३॥ लोगों की विशेष श्रद्धा होना स्वाभाविक है। १७वीं इन ब्रह्मा रे ईसर रूप चश्वरी, शताब्दी से २०वीं शताब्दी तक मूर्तियो के प्रकट होने की इकविका रेकालिका प्रई नारेश्वरी। अनेकों घटनाएं सुनी जाती है। कइयो के सम्बन्ध में तो विन्यायक रेजोगणी शासन देवता, समकालीन उल्लेख भी मिलते हैं। महोपाध्याय समय पासे रहा रेश्री जिनवर पाय सेवता॥ सुन्दरजी के घघाणी व सेत्रावा मे मूर्तियों के प्रकट होने सेविता प्रतिमा जिण भरावी, पाच पृथ्वीपाल ए। चनगुप्त सम्प्रति बिन्दुसार, अशोकचनकृणाल ए। सम्बन्धी दो स्तवन प्राप्त होते हैं। उन स्तनों के कति. कंसाल जोडी धूप पाणी, दीप सब भूगार ए। पय पद्य नीचे दिये जा रहे हैं। त्रिसठिया मोटा तवा काल ना, एह परिकर सार ए॥४॥ (१) सवत् १६५५ के फाल्गृण सुदि रविवार को मलनायक प्रतिमा भली परिकर अभिराम । सेवाबा मे ५ मूर्तियां प्रकट हुई जिनका उल्लेख करते सुन्दर रूप सुहामणउ, श्री पत्र प्रभु स्वाम ॥१॥ हुए कवि ने लिखा हैसंवत सोल पंचावन, फागण सुदि रविवार । इसी तरह खींवसर गांव में १७वीं शताब्दी में जैन प्रगट पई प्रतिमा घणी, सेत्रावा सिणगार ॥२॥ मूर्तियां प्रकट हुई थीं उनके सम्बन्ध में एक अन्य कवि का ऋषभ शीतल शांति वीरजी, श्रीवासुपूज्य अनूप । रचा हुमा स्तवन प्राप्त है। सं० २०१३ में बीकानेर से सकल सुकोमल शोभती, प्रतिमा पाँचे सरूप ॥३॥ ७० मील अमरसर गांव में बालू के टीबे में १६ प्रतिमाएं श्री संघ रंग बधामणा, मानव अंगन माय । निकली थीं जिनमे से २ पाषाण और १४ धातुमय है। भाव भगति करि भेटियो, प्रथम जिलेसर राय ॥४॥ जिनमें से १२ जिन-प्रतिमाएं और २ देवियों की प्रतिमाएं (२) पंचाणी के डुपला तालाब के खोखर नामक हैं। १० प्रतिमानों पर लेख खुदे हुए हैं जो सवत् १०६३ देहरे के भूमिगृह मे सवत् १६६२ के जे० सुदि ११ को से १२३२ के हैं। ये प्रतिमा लेख हमारे "बीकानेर जन बहुत-सी प्रतिमाएं प्रकट हुई थी जिनके विषय में विस्तार लेख संग्रह" के पृ०४०६ मे छप चुके हैं। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रश-चरित-काव्य ग० देवेन्द्रकुमार शास्त्री अपभ्रंश नव्य भारतीय मार्य भाषाओं की पुरो- थे। योन्यन्तरी भाषा जंगली बोली कही जाती थी, जो गामिनी भाषा है। बोली तथा भाषा रूप में ही नही गांव, जगल तथा वन में उत्पन्न होने वाले पशुओं की बोली साहित्य में प्रतिष्ठित हो जाने पर भी लोक जीवन से थी। सामान्यतः लोकनाट्य मे स्त्री तथा नीच जातिके लोग इसका बराबर सम्बन्ध बना रहा है। इसलिए इस भाषा प्राकृत का ही प्रयोग करते थे। इससे स्पष्ट है कि लोकका लिखा हुमा साहित्य जन-साहित्य तथा संस्कृति का परम्परा से विकसित प्राकृतो की उत्तरकालीन अवस्था पुरस्कर्ता है । यदि अपभ्रंश अहीरों, मछुमों, धीवरों मादि अपभ्रंश है; न कि अहीर मछुमा मादि को बोली। निम्न जाति के लोगों की ही बोली होती तो उनकी जातीय इसका मूल रूप माज भी वैदिक और अवेस्ता की भाषा मे प्रवृत्तियों का तथा प्राचार-विचार प्रधान विशिष्ट सस्कारो लक्षित होता है। का लेखा-जोखा अवश्य ही इस साहित्य में मिलता, परन्तु अपन श का आधकाश उपलब्ध साहित्य जन मोर उनकी रीति-नीति भाषा तथा जातीय संस्कारों की किसी __ बौद्ध साहित्य है । रासो तथा मुक्तक रचनाये ही जनेतर प्रकार की भी छाप इस साहित्य पर लक्षित नहीं होती। साहित्य की साक्ष्य के लिए प्रमाण हैं। किन्तु इसका यह यद्यपि उत्तर वैदिक काल से लोक-नाट्य का प्रचलन हो अर्थ नहीं है कि अन्य साहित्य इसमे लिखा नहीं गया। गया था, लेकिन उसमे प्राकृत भाषा का ही प्रयोग किया मेरा अनुमान है कि सभी जाति के लोगो ने सभी जाता था, क्योंकि वह जातिभाषा थी। भरतमनि ने प्रकार का साहित्य लिखा होगा, परन्तु मध्यकालीन नाट्यशास्त्र में चार प्रकार की भाषाप्रोका उल्लेख किया उथल-पुथल में अधिकतर साहित्यकाल के गर्भ मे समा गया है-प्रति भाषा, प्रार्य भाषा, जाति भाषा और योन्यन्तरी अथवा किन्ही काल-कोठरियो के अन्धकार की रक्षा करते भाषा । वस्तुतः भाषा सस्कृत ही थी। भाषामों के नाम करते उनके साथ विलीन हो गया है । कारण जो भी रहा पर प्रर्चालत अन्य बोलियां थीं। जिस भाषा मे वैदिक शब्दो हो । यह निश्चित है कि अपभ्रंश के जैन साहित्य की रक्षा की बहुलता थी, जो देव जाति की भाषा थी उसे प्रति- तथा दखभाल करन का श्रय जन भण्डारा की है। पोर भाषा कहते थे। राजा तथा शिष्ट लोगों की भाषा प्रार्य- यह साहित्य भारतवष क यह साहित्य भारतवर्ष के सभी भागो में विविध काव्यभाषा कही जाती थी। यह भाषा सवारी जा चुकी थी . रूपों में लिखा हुआ मिलता है। ५ और साहित्य मे भलीभांति प्रतिष्ठित हो चकी थी इसलिए कथा और चरितकाव्यइसे "संस्कृत" कहा जाने लगा था।जाति भाषा दो प्रकार .. कथा में जीवन की किन्हों घटनामो विशेष का माकलन कोथी-एक तो उन लोगों को भाषा थी जो मले" होता है और चरितकाव्य मे किसी महापुरुष या नायक का शब्द से व्यवहत होते थे और परे जो भारतवर्ष में रहने सम्पूर्ण जीवन वणित रहता है । नायकके समग्र जीवन का १ सस्कृत प्राकृत चैव यत्र पाठ्यं प्रयुज्यते । तथा जीवन की विभिन्न घटनामों और संघर्षों का मुख्य प्रतिभाषार्यभाषा च जातिभाषा तथव च ॥ रूप से वर्णन होने के कारण प्राचार्य प्रानन्दवर्धन ने इसे नाट्यशास्त्र, १७, २७, "सकलकथा" कहा है । और प्राचार्य हेमचन्द्र सकलकथा तथा योन्यन्तरी चैव भाषा नाट्ये प्रकीर्तिता। को ही चरितकाव्य कहते है। उदाहरण के लिए-पा. प्रतिभाषा तु देवनामार्यभाषा तु भूभुजाम् ।। २ "सकलकथेति चरितमित्यर्थः ।"-काव्यानुशासन, वही, १७, .८ ८,८ की वृत्ति। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपनश-चरितकाम्य हरिभद्रसरि विरचित "णेमिणाहचरित" चरितकाव्य है। की संख्या अधिक है। सामान्यतया कथाकाव्य उपन्यास परन्तु उसके अन्तर्गत वणित सनत्कुमार की कथा कथाकाव्य की भांति रोचक तथा कुतूहल वर्मक शैली में लिखे गये हैं। है जिसे खण्डकथा भी कहा जा सकता है१ । कथाकाव्य सभी कथाकाव्य पद्यबद्ध हैं । इनमें वर्णित कथावस्तु लोकवह प्रबन्ध-रचना है जिसमें निजन्धरी की कथा महाकाव्य कथा एवं कल्पित है जो विस्मय, प्रौत्सुक्य, कुतूहल तथा की भांति उदात्त शैली में तथा सन्धिबद्ध एव पद्यबद्ध रूप भावनातिरेक से अनुरंजित लक्षित होती है । कथाकाव्य के में वर्णित रहती है। परन्तु चरितकाव्य मे किसी एक महा- नायक लोकजीवन के जाने-माने पौर पहिचाने हुए साधापुरुष का चरित प्रायः पौराणिक शैली में वर्णित होता है। रण पुरुष होते हैं जो सुख-दुख से मनुपाणित पाशा-निराशा, अतएव किसी भी रचना के पीछे "चरिउ", "कहा", धीरज-अधीरता, हर्ष-विषाद और भय एव साहस के हिंडोलों पुराणु या "कव्व" शब्द जुडा होने से वह चरित, कथा, मे झूलते हुए दिखाई पड़ते हैं। जहां उनके जीवन में पुराण या काव्य वाचक नही हो सकती । क्योकि अपभ्रंश अन्धकार है वही प्रकाश की उज्ज्वल किरने मुस्कराती हुई के कवि जिस रचना को कथा कहते हैं उसी को चरित भी। लक्षित होती हैं और अनुराग से रजित प्रकृति सहानुभात वे रामकथा या रामचरित अथवा भविष्यदत्तकथा और प्रकट करती हुई जान पड़ती है। अधिकांश चरितकाव्यों भविष्यदत्तचरित में अन्तर मान कर नही चलते । परन्तु मे पादर्श की प्रधानता है और कथाकाव्यों मे यथार्थ की। अर्थप्रकृतियाँ, कार्यावस्थाए, नाटकीय सन्धिया, कार्यान्विति यद्यपि दोनों में ही नायक या नायिका के प्रसाधारण कार्यों तथा कथा-तत्वो की सयोजना में इन दोनों में अन्तर का वर्णन रहता है परन्तु एक में वह देवी सयोग, और दिखाई पड़ता है । यथार्थ मे चरित लोक मे देखा जाता है, धार्मिक विश्वासों से सम्बद्ध होता है और दूसरे में काव्य में तो वस्तु ही प्रधान होती है। लेकिन चरितकाव्य (चरितकाव्य मे) प्रतिलौकिक एव असंभव घटनामों से मे मूल चेतना कथा न होकर कार्य-व्यापार होती, जिसमे अनुविद्ध । यही कारण है कि चरितकाव्यों में प्रादशं चरित्रों नायक का प्रभावशाली चरित्र चित्रित किया जाता है। की प्रधानता रहती है और उनके जीवन की सिद्धि तथा डा. शम्भूनाथसिंह ने अपभ्रश काव्यो की दो शैलियां पूर्णता का वर्णन किया जाता है। निश्चय ही परितकाव्य मानी है-पौराणिक और रोमाचक। इन दोनो शलियो मे का नायक लौकिक जीवन की सीमानों में कार असाधारण लिखे गये काव्यो को चरितकाव्य कहा गया है । संस्कृत के गुण, शक्ति, ज्ञान प्रादि से समन्वित पूर्ण पुरुष के रूप में चरितकाव्य चारों शैलियो (शास्त्रीय, पौराणिक, रोमाचक, चित्रित किया जाता है। परन्तु कथाकाव्य में वे यथार्थ के ऐतिहासिक) मे तथा प्राकृत के तीन शैलियो मे लिखे गये अधिक निकट हैं । यथार्थ मे चरितकाध पुराणों है२ । परन्तु तथ्य यह है कि अपभ्रश के चरितकाव्य से विकसित हुए हैं इसलिए पाख्यान तथा इतिवृत्त के मधिकतर पौराणिक शैली में लिखे गये हैं और कथाकाव्य साथ साथ ही पौराणिक पुरुष के रूप मे उनका प्रसभव तथा रोमाचक शैली मे । "विलासवईकहा" रोमांचक शैली मे अकल्लित रूप भी वणित रहता है । कथाकाव्य में भले ही लिखा हुमा उत्कृष्ट कथाकाव्य है। यद्यपि ही भेदकरेखा प्रादर्श पुरुष का जीवन विन्यस्त हुमा हो, परन्तु पूर्ण पुरुष नहीं मानी जा सकती परन्तु कहीं-कही शैलीगत यह अन्तर के रूप में उसका चित्रण नहीं किया जाता। और फिर, अवश्य मिलता है। अपभ्रंश के अधिकतर काव्य पौराणिक चरितकाव्य की वस्तु अधिकतर पुराणो से अधिग्रहीत होती शैली में लिखे गये है। इसलिए कथाकाव्यो से चरितकाव्यों है किन्तु कथाकाव्य की कथावस्तु लोक-जीवन तथा लोक तत्त्वों से समन्वित होती है। १ ग्रन्थान्तरप्रसिद्ध यस्यामितिवृत्तमुच्यते विबुधैः। अपभ्रंश-कथाकाव्यों में जहाँ सामाजिक यथार्थता मध्यादुपान्ततो वा सा खण्डकथा यथेन्दुमती ॥ वही लक्षित होती है वहीं धार्मिक वातावरण तथा इतिहास के २ हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप विकास-डा०शम्भूनाथ परिप्रेक्ष्य मे जातीयता और परम्परा का भी बोधन होता सिंह, पृ० १७४ है। उपन्यास की भांति इनमें भी तथ्य, कल्पना, यथार्थता Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त पौर घटनामों का सजीव वर्णन मिलता है। परन्तु परि- काव्य मे विषय का विस्तार होता है तथा सन्धियों की स्थिति जन्य धार्मिक रूढिबद्धता और विवेकशीलता के बहुलता । और चरितकाव्य में विषय संक्षिप्त तथा मर्यामभिव्यक्तिकरण में कहीं-कही कथानक दब सा गया है। दित रहता है । सस्कृत-साहित्य में पुराणों की एक लम्बी और अधिकतर यह वृत्ति कथा के उत्सराई में लक्षित होती परम्परा दिखाई पड़ती है। पुराणों में केवल दन्तकथाएं है। वस्तुत: घटनाए जीवन के सम्पूर्ण चित्र प्रतिबिम्बित या प्रचलित लोक कथानों का ही वर्णन नहीं रहता है करने के लिए चित्रित की गई हैं और भावनामो तथा परन्तु वे भारतीय संस्कृति, समाज तथा इतिहास के पुरविचारों के अनुसार नायक के जीवन-क्रम में उनका सकोच स्कर्ता हैं जो अनुश्रुतियों के रूप मे युग-युगों से ख्यात हैं। पौर विस्तार हुआ है। अधिकतर पात्र-वर्ग विशेष का पुराणों का मुख्य स्वरूप हैं-पंच लक्षणों का समाहार । प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए वे स्थान-स्थान पर धार्मिक सष्टि की उत्पत्ति से लेकर विकास तथा विनाश तक की मान्यतामो एव लोक-विश्वासो को प्रकट करते हैं। कथा का समे वर्णन रहता है। और वशावली तण जिस प्रकार से हीरोहक पोइट्री के नायक युद्ध तथा गज्यस्थिति एवं कालक्रम का विस्तृत वर्णन किया जाता संकट काल मे अदम्य साहसिक प्रवृत्तियो तथा कार्यों का है। प्राचार्य जिनसेन रचित "पादिपुराण" इसी कोटि का परिचय देते दिखलाई पड़ते हैं उसी प्रकार अपभ्रश के काव्य है जिसमे कुलकरों का वर्णन, सष्टि रचना, समाज. कथाकाव्यो के नायक भी अदम्य साहस का परिचय देते व्यवस्था, कृ.पि, शिल्प, वाणिज्य-व्यवसाय शस्त्र-शास्त्र हुए चित्रित किये गये हैं। और इसलिए जहा उनमे शूर- प्रादि ज्ञान-विज्ञान की उत्पत्ति तथा विकास और वशवीरता है वहीं दया, क्षमा, वात्सल्य, स्नेह आदि मानवीय वशान्तरो का अत्यन्त विस्तृत वर्णन है । कथा या वस्तु की गुणों की भी प्रतिष्ठा हुई है। उनका जीवन मानव से दृष्टि से पुराण में कई कथानो की संयोजना की जाती देवता बनने का एक अद्भुत उपक्रम है जिसमे वे अन्ततः है। प्राख्यानों की विविधता तथा भरमार होने के कारण सफल होते हैं । इस प्रकार गायक का जीवन संघर्ष-विषणों ही महाभारत को महाकाव्य के भीतर महाकाब्य कहा का जीवन है जिसमे सचाई और ईमानदारी तथा उपकार जाता है। की भावना उन्हें सामान्य जीवन से ऊँचे उठाने में सहायक यद्यपि चरितकाव्य का विकास पुराणों से हमा प्रतीत सिद्ध होती हैं। होता है । क्योंकि पुराणों की भांति प्रतिलौकिक घटनाओं परितकाव्य का स्वरूप को अतिरंजना कही-कहीं इनमें भी दिखाई पड़ती है परन्तु शैली की दष्टि से अपभ्रंश-साहित्य मुख्य रूप से तीन कई बातो में ये पुराणो से भिन्न हैं। सामान्यतः निम्नप्रकार की काव्यात्मक विधामों में लिखा हुआ मिलता है- लिखित बातों में भेद हैपुराणकाव्य, कथाकाव्य और चरितकाव्य । यद्यपि अपभ्रंश (१) पुराण में कई प्रादर्श चरित्रों तथा कथाओं का कवियों ने अपनी रचनानी के मबध मे कोई स्थिर मत अदभुत सम्मिश्रण रहता है। शास्त्रीय महाकाव्य की अपेक्षा नहीं दिया है और इसीलिए वे जिस काव्य को "कहाकव्व" अतिरंजित कल्पनाओं तथा घटनामो की भरमार रहती या कथाकाव्य कहते हैं उसी को “चरिउ" या चरितकाव्य है। यथार्थ जीवन का भी अतिशयोक्ति पूर्ण वर्णन भी कहते हैं। और इसी प्रकार से वस्तु की दृष्टि से जो रहता है। पुराण सज्ञक काव्य हैं वे ही चरितमूलक भी। ऐसी स्थिति (२) अधिकतर पुराणों का उद्देश्य प्रत या कथा के मे किसी काव्य का स्वरूप निर्धारण करना कठिन अवश्य माध्यम से उपदेश देना है। धार्मिक उद्देश्य को ही लेकर ही हो जाता है परन्तु काव्य की शैली के अनुसार उसका प्रायः पुराण लिखे गये है जिनमे धार्मिक विश्वास, परम्परारूप बहुत कुछ अंशो में निश्चित हो जाता है। गत मान्यता तथा श्रद्धा से अनुरजित भावों की ही प्रधानता डा. भायाणी के अनुसार स्वरूप की दृष्टि से पौरा रहती है। णिक तथा चरितकाव्य में अधिक अन्तर नही है। पौराणिक १-"पउमसिरि चरिउ" की प्रासगिक भूमिका, पृ०१५। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपश-चरितकाग्य (३) प्राकार में यह महाकाव्य से वृहत् होता है। जन्म से लेकर हरिवंश के अन्त तक का सम्पूर्ण विवरण दर्शन, धर्मशास्त्र, विज्ञान प्रादि विभिन्न विषयों के समाहार दिया है । इससे भी बड़ा काव्य पुष्पदन्त का "महापुराण" से जहां अध्याय या सगं विस्तृत एव वृहत् मिलते हैं वहीं है जिसमें १०२ सन्धियां हैं। प्रन्थ लगभग बीस हजार परिमाण में बहुत बड़ा होता है। कहीं-कही तो वर्णनों की श्लोक प्रमाण है । इसमें चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, ही प्रमुखता दिखाई पड़ती है। नौ नारायण, नौ प्रतिनारायण और नौ बलदेव-सठ (४) पुराण में साहित्य के प्रायः सभी तस्वों की जलाका पुरुषों का कथानक वणित है। रामायण मौर समन्विति रहती है। नाटक की पच-सन्धियों, गीति. महाभारत दानों को इसमे संक्षिप्त कथाएं संकलिन हैं। मातिप्राकृतिक तथा अलौकिक घटनामों, सर्ग-विभाजन इसके अतिरिक्त कई प्रवान्तर कथायें और पूर्वभवों के इतिविभिन्न-रस, छन्द तथा अलंकारों का समावेश रहता है। वृत्त इस पौराणिक महाकाव्य में वर्णित हैं। अपभ्रश में (५) कथा चमत्कार पूर्ण तथा प्रतिलोकिक तत्वो इस प्रकार के कई पौराणिक महाकाव्य मिलते हैं जिनमें से (सुपरनेचरल एलीमेन्ट्स) से अनुरजित रहती है। ऐसी कुछ निम्नलिखित हैअसम्भव से असम्भव बातो का पुराणों मे वर्णन मिलता (१) हरिवंशपुराण-धवल-११२ सन्धियांहै जिसका कि साधारण पाठक अनुमान भी नहीं कर कौरव पाण्डव एवं श्रीकृष्ण मादि महापुरुषों का जीवनसकता। और कहीं-कही ऐसी कल्पनामो का पाश्रय लिया चरित्र । जाता है कि पढ़ने वाले को वस्तु कपोल-कल्पित प्रतीत होन (२) पाण्डवपुराण-यशःकीति-३४ सन्धियालगती है। पांच पाण्डवों की जीवन-गाथा । (६) कार्यान्विति की शिथिलता तथा घटनाग्रो के (३) हरिवंशपुराण-पं० रइयू-१४ सन्धियाँ -- संगुफन की प्रवृत्ति विशेष होती है। इसलिए कथा मे से ऋषभचरित, हरिवंशोत्पत्ति. वसुदेव, बलभद्र, नेमिनाय कथा निकलती जाती है और कथा-सूत्र इस ढग से मागे मोर पाण्डव प्रादि का वणन । बढना जाता है जिस प्रकार से मकड़ी के जाले का प्रसार ) हरिवशपुराण-यज्ञ कीर्ति-१३ सन्धियांहोता जाता है। और इसीलिए उसमे जटिलता अधिक हरिवश उत्पत्ति प्रादि वर्णन । होती है। (५) हरिवंशपुराण-श्रुतकीति-४४ सन्धियां-- (७) सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित कौरवपाण्डव मादि का वणन । के साथ विभिन्न विषयों का समावेश रहता है। इतिहास (६) प्रादिपुराण-पं० रइधू-अनुपलब्ध-पादि तथा जीवन क्रम का पूर्ण विवरण इसमे रहता है। प्रतएव तीर्थकर तथा वंशानुक्रम युक्त । कालान्तर में लिखे जाने वाले महाकाव्यो की कथा पुराणों वस्तुतः संधियो की दृष्टि से पुराग और चरितकाव्य से ली गई है। का अन्तर बिलकुल स्पष्ट नहीं किया जा सकता है। क्यों उपर्युक्त विशेषताओं के अनुसार अपभ्रंश के महाकवि कि ग्यारह या तेरह संधियों से लेकर लगभग सवा सौस्वयम्भूद्वारा रचित "पउमचरिउ" एक पोगणिक महा- सन्धियो तक के पुराणकाव्य उपलब्ध होते हैं। फिर भी, काव्य है जिसमे विविध राजवशों का कीर्तन करते हुए साधारणतया चरितकाव्य में-चार सन्धियों से लेकर कवि ने ऐतिहासिक वंशावली का पूर्ण विवरण दिया है। बीस-बाईस सन्धियो तक की रचनाएं ही मिलती हैं। इस महाकाव्य में नब्बे सन्धिया तथा पांच काण्ड (विद्या- पुराणकाव्य प्राकार में निश्चय ही चरितकाव्य बहत् से धर, अयोध्या, सुन्दर, युद्ध और उत्तर काण्ड) हैं। इससे होते हैं। भौ बृहत्रचना महाकवि स्वयम्भू कृत "हरिवंश पुराण" चरितकाव्य में मुख्य रूप से किसी महापुरुष या सठ है । इसमें एक सौ बारह सन्धियां हैं जो चार काण्डों में शलाका के किसी पुरुष का जीवन-चरित वणित होता हैं। विभक्त हैं । इस विशालकाय ग्रन्थ में कवि ने श्रीकृष्ण के महापुराणों में स्पष्ट ही सठ शलाका के पुरुषों के संपूर्ण Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोकान्त जीवन के साथ ही उनके पूर्व भवों, प्रासंगिक विभिन्न उसकी मूल चेतना कथा न होकर कार्य-व्यापार होता है, घटनाओं, प्रधान्तर कथानों तथा जीवन से सम्बद्ध विभिन्न जिसमें नायक का प्रभावशाली चरित गुम्फित रहता है। कार्य व्यापारों का प्रतिशयोक्ति पूर्वक वर्णन रहता है। परन्तु चरितकाव्य में किसी एक महापुरुष का चरित डा. शम्भूनाथ सिंहने अपभ्रश काव्यों की दो शैलियाँ पौराणिक शैली में या अन्य किसी शैली में वर्णित रहता मानी हैं-पौगणिक और रोमाचक । इन दोनों शलियों है। चरितकाव्य मे नायक के सम्पूर्ण जीवन की विभिन्न मे लिखे गये काव्यों को चरितकाव्य कहा गया है। संस्कृत घटनाग्रो तथा संघर्षों का वर्णन होता है। इसलिए प्राचार्य के चरितकाव्य चारो शंलियों (शास्त्रीय, पौराणिक, रोमां । मानन्दबद्धन ने इसे सकलकथा कहा है और प्राचार्य चक एतिहासिक) मे तथा प्राकृत के तीन शैलियो में हेमचन्द्र सकलकथा को ही चरितकाव्य कहते हैं। प्रा० परन्तु तथ्य यह है कि अपभ्रश के चरितकाव्य आधिकतर हरिभद्र सूरि रचित "णेमिणाहचरित" चरितकाव्य है। पौराणिक शैली में लिखे गये है और कथाकाध्य रोमांचक किन्तु उसके अन्तर्गत वणित सनत्कुमार की कथा-कथा है बोली मे । "विलासबई कहा" रोमाचक शैली में लिखा जिसे खण्डकथा कहा जा सकता है। प्रतएव किसी भी हुमा उत्कृष्ट काव्य है। यद्यपि शैली ही भेदक-रेखा नहीं रचना के पीछे 'चरिउ", "कहा", "पुराणु" या "कम्ब" मानी जा सकती है पर कही कही शैलीगत यह भन्तर जडा होने से वह उस कोटि की रचना नही मानी जा पवश्य मिलता है। अपभ्रंश के अधिकतर काव्य पौराणिक शैली में ही लिखे गये हैं । इसलिए कथाकाव्यो के चरितसकती है। और इसलिए पुराण नाम से प्रचलित कुछ कान्यो की सख्या अधिक है। संक्षेप में, चरितकाव्य मे काव्य ग्रन्थों को चरितकाव्य ही माना जाना चाहिए; किसी महापुरुष के सम्पूर्ण जीवन का विस्तृत वर्णन रहता पौराणिक नहीं। उदाहरण के लिए-कवि पपकीति है। जब कि कथाकाव्य का नायक या नायिका कोई भी विरचित "पार्श्व पुराण" अठारह सन्धियों में निबद्ध होने साधारण पुरुष या नारी हो सकती है। चरितकाध्य में पर भी केवल एक महापुरुष तीर्थकर पार्श्वनाथ का चरित प्रादर्श की प्रधानता रहती है और कथाकाव्य में यथार्थ वणित होने के कारण चरितकाव्य ही कहा जायगा । इसी की । यद्यपि दोनों में ही नायक या नायिका के असाधारण प्रकार जयमित्र हल्ल के "वडढमाण कच्च" और "मरिल कार्यों का वर्णन मिलता है परन्तु एक मे वह देवी संयोग मा'कब" काध्य सज्ञक होने पर भी चरितकाव्य है। और और धार्मिक विश्वास से सम्बद्ध होता है और दूसरे मे 'पउमसिरिचरिउ" के पीछे चरित शब्द जुड़ा हुमा होने प्रतिलौकिक एव असंभव घटनाभों से सबंधित। इसलिए से वह चरितकाव्य न होकर कथाकाव्य है। वस्तुत: । वस्तुतः परितकाव्यों को वस्तु पौर नायक मे प्रादर्श चरित्रो की पराणकाम्य की भांति कथा पौर चरित तथा कथाकाव्य प्रधानता रहती है। और उनके जीवन की सिद्धि तथा और चरितकाव्य में कई बातों में अन्तर है। अर्थ पूर्णता का वर्णन किया जाता है। प्रतएव चरितकाव्य का प्रकृतियाँ, कार्यावस्थाएं, नाटकीय सन्धियां, कार्यान्विति नायक लौकिक जीवन की सीमाओं से ऊपर असाधारण तथा कथा-तत्त्वों के संयोजन मे इन दोनों मे बहत भेद गुण, शक्ति, ज्ञान प्रादि से समन्वित पूर्ण पुरुष के रूप में मिलता है। यथार्थ में तो चरित लोक में देखा जाता है, चित्रित किया जाता है। वास्तव में चरितकाव्य पुराणकाव्य में तो वस्तु ही प्रधान होती है परन्तु चरितकाव्य मे काव्य से विकसित हुआ है इसलिए पौराणिक पुरुष के रूप में उमका सम्भावित तथा प्रकल्पित रूप भी वणित १. "सकलकथेति चरितमित्यर्षः ।" काव्यानुशासन ८, रहता है । कथाका व्य मे भले ही भादर्श पुरुष का जीवनकी वृत्ति। वर्णन हो; परन्तु पूर्ण पुरुष के रूप में उसका चित्रण नहीं २. ग्रन्थान्तरप्रसिद्ध यस्यामितिवृत्तमुच्यते विबुधः । होता। और फिर चरितकाव्य की कथा भी अधिकतर मध्यादुपान्ततो वा सा खण्डकथा यथेन्दुमती । वही . ३.विशेष दृष्टव्य है-"भविष्यत्तकहा और मपभ्रंश- ४. हिन्दी महाकाव्य का स्वरूप विकास-डा.शम्भूनाथ कथाकाव्य" शीर्षक लेखक का शोध-प्रबन्ध । सिंह, पृ० १७४ । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश-चरितकाव्य पुराणों से अधिग्रहीत होती है। कथाकाव्य की वस्तु प्रणंगचरित (दिनकरसेन), महावीरचरिउ (अमरलोक-जीवन तथा लोक-कथाम्रो से अनुप्राणित देखी जाती कीर्ति), सातिणाहचरिउ (कवि देवदत्त), चदप्पहचरिउ हैं। इसलिए उनमे कथानक कहिया, लोक जीवन का (कवि श्रीधर), चदप्पहचरिउ [मुनि विष्णुसेन) मौर सजीव चित्रण और कथाभिप्रायो का अद्भुत सामजस्य सातिणाहचरिउ (कवि श्रीधर) आदि । देखा जाता है। अपभ्रश के चरितकाव्य लगभग इन सभी चरितकाव्यों का प्रारम्भ पौराणिक अपभ्रश के चरितकाव्यो मे पौराणिक महापुरुष या शैली से हुआ है। कथानायक का जीवन बचपन से ही प्रेसठ इलाका पुरुषो का जीवन-चरित्र वर्णित है। जीवन असाधारण वरिणत है। तीर्थकरों का जीवन-चरित्र प्रतिके विभिन्न चरितो का विस्तृत प्रकन है। पूर्व भवो तथा लौकिक तथा धार्मिक बातों से अनुरजित एवं अनुप्राणित अन्य प्रवान्तर कथानों से जहाँ काव्य रोचक तथा सौन्दर्य है। पूर्व भवान्तरों की प्रवान्तर कथानों से सभी चरितगरिमा से मण्डित हैं वही कथानक कही-कही जटिल तथा काव्यों का कलेवर वृद्धिंगत हुमा है। महत् तथा प्रादर्श दुहरे हो गये हैं। कथाकाव्यों में यह बात नही है। चरित्रों से जहाँ काव्य में प्रतिलौकिक रंजना हुई है वही अपभ्रंश के प्रमुख चरितकाव्य निम्नलिखित हैं कल्पना की प्रचुरता मे काव्य-कला की छटा भी विकीर्ण णेमिणाहचरिउ (भमरकीति गणि), पज्जण्णचरिउ हो गई है। कुल मिलाकर जन-जीवन से ऊँचे उठकर एक (सिंह),पासणाहचरिउ (देवदत्त), णेमिणाहचरिउ (लक्ष्मण) असाधारण भूमिका पर इन चरित-काव्यो का निर्माण णेमिणाहचरिउ, (दामोदर) बाहुबलि चरिउ (घनपाल), हुआ है जिन पर कवि तथा लेखकों की श्रद्धा एवं अवस्था चदपहचरिउ (भ. यश.कीर्ति), पासणाहचरिउ (श्रीधर),संभ- का छाप लगा मिलती है । तथा धर्म सम्बन्धी सिद्धान्तों और नियमो का भी विशेष रूप से स्थान-स्थान पर प्रतिवणाहचरिउ, (तेजपाल), सुकमालचरिउ (मुनि पूर्णभद्र), सन्मतिजिनचरित्र (प० रइधू), सनत्कुमारचरित्र (हरि- पादन हुमा ह। भद्रसूरि), जम्बूस्वामीचरित्र (सागरदत्तसूरि), शान्ति ऐतिहासिक दृष्टि से अपभ्रंश का यह काव्य-साहित्य नाथचरित्र (शुभकीति), पासणाहचरिउ (पद्मकीति), पासणाहचरिउ (असवाल), पासणाहचरिउ (देवचंद), मध्यकालीन उस थारा को प्रतिष्ठित एवं प्रवाहित करने सातिणाहचरिउ महिन्द्र), श्रीपालचरिउ चंदप्पहचरिउ वाला है जो हिन्दी-साहित्य में भक्तिकाल के नाम से (दामोदर), चदप्पहचरिउ (श्रीचन्द) और पासणाहचरिउ विश्रुत है। क्योंकि इनमे रास या लीला प्रथवा चरित तथा वड्ढमाणचरिउ (कवि श्रीधर) इत्यादि । इनके का कीर्तन न हो कर जीवन को समस्त भाव-भूमियो का अतिरिक्त हरिसेणचरिउ (कवि वीर), सांतिणाहचरिउ आकलन किया गया है और अध्यात्म के उस सोपान पर (कवि शाहठाकुर) रचनाए भी उपलब्ध हुई है। कुछ नायकों का जीवन चित्रित किया गया है जो, परमहस या अनुपलब्ध रचनाएं इस प्रकार है: मुक्त दशा के निकट पहुँच चुके थे या पहुंचने वाले थे। प्रतएव लौकिक अभ्युदय के साथ उनका अलौकिक अभ्युदय १. जन-ग्रन्थ-प्रशस्ति-संग्रह : द्वितीय भाग (पं० परमानन्द विशेष रूप से इनमे वर्णित है।* शास्त्री), पृ० १४४ । गुण-परीक्षा गुणी ही गुण की परीक्षा कर सकता है पर गुणहीन मानव कभी भी ऐसा नहीं कर सकता। कांच और रत्न की परख जोहरी ही कर सकता है। भील नहीं, क्षीर और नीर का विवेक हस हो कर सकता है, बगुला नहीं। वसन्त ऋतु का लाभ कोकिल ही पा सकती हैं, कौमा नहीं। सिंह के पराक्रम को हाथी ही पहिचान सकता है, अन्य नहीं। ज्ञान की कीमत विद्वान ही प्रांक सकते हैं, प्रजानी नहीं। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध साहित्य में जैनधर्म प्रो० भागचन्द्र जैन एम. ए. प्राचार्य जैन धनुश्रुति के अनुसार जैनधर्म अनादि और अनन्त है। मानवतावाद का पक्ष जितना अधिक जैनधर्म और । दर्शन ने ग्रहण किया है, उतना शायद न किसी प्राचीन और न किसी अर्वाचीन पर्व ने इस दृष्टि से जैन सिद्धान्त की उपर्युक्त धनुवृति का हम सहसा पला नही कर सकते । वैदिक साहित्य में उपलब्ध उल्लेखों प्रौर मोहनजोदडो तथा हडप्पा की खुदाई मे प्राप्त प्रवशेषों, मूर्तियो व सीलो आदि के आधार पर प्रत्येक निष्पक्ष विद्वान् जैनधर्म को पूर्व वैदिककालीन माने बिना नही रह सकता । इन सभी प्रमाणो के आधार पर यह भी स्वीकार करना होगा कि ब्राह्मण संस्कृति की अपेक्षा धमण संस्कृति प्राचीनतर है, भले ही किसी समय विशेष मे ब्राह्मण सरकृति का प्रभाव अधिकतम हो गया हो । बुद्ध के समकालीन तीर्थकृतों के जीवन इतिहास को देखने से इतना पता तो निश्चित ही चलता है कि जैनधर्म भगवान पार्श्वनाथ धौर महावीर के समय प्रत्यधिक प्रभावकारी बना था१ । बौद्ध साहित्य भी जैन साहित्य की तरह विशाल है । मोटे रूप मे वः पालि साहित्य और बौद्ध संस्कृत साहित्य के रूप से दो भागो में विभाजित किया जाता है। नागरी लिपि मे पालि त्रिपिटक का प्रकाशन तो हो चुका, पर उसकी पटकथाओं और टीकाधो मादि का प्रकाशन भी मी बाकी है। बौद्ध संस्कृत साहित्य मे से भी सभी थोड़ा ही साहित्य प्रकाश में मा पाया है। चीनी, तिब्बती, वर्मी, सिंहली, प्रादि भाषाओं में अभी भी इसका विपुल भाग अनुवाद के रूप मे सुरक्षित है जिसका भी प्रकाशन आधुनिक भारतीय भाषाओ में होना अत्यावश्यक है । १. विशेष विवरण के लिये देखिये, मेरा निबन्ध --- Antiquity of Jainism. इन दोनो प्रकार के साहित्य में से मैंने जैन व दर्शन विषयक कुछ उद्धरणो को एकत्रित किया है जिनको प्रस्तुत निबन्ध मे बिना मीमांसा किये सक्षेप मे प्रस्तुत करने का यह प्रयास है । १. ऐतिहासिक पृष्ठभूमि - (क) श्रमण संस्कृति की प्राचीनता, छठी पाती ६० पु० में दोनों वैदिक पौर श्रमण संस्कृतिया जनता को प्रभावित करने में व्यस्त थीं । एक ओर जहाँ यज्ञादि द्वारा वैदिक मन्त्रो के प्रति आस्था और भक्ति प्रदर्शित की जाती थी और बाद मे जहाँ बहुदेवतावाद र एकदेवतावाद मे सक्रमण करते हुए भाय-विषयक दार्शनिक मन्तब्यो के प्रति झुकाव दिखाई देता था । वहाँ दूसरी ओर एक ऐसी भी संस्कृति का अस्तित्व था, जो उक्त सिद्धान्तो का विरोध करने मे लगी हुई थी । यही है श्रमण संस्कृति जिमका प्राधारभूत सिद्धान्त है— जीव कर्मों के अनुसार सुख दुःख पाता है । सभी जीव बराबर हैं । जाति भेद से कोई छोटा-बड़ा नही । श्रमण संस्कृति की उत्पत्ति के विषय मे अनेक मत है। डा० देव का मत है कि क्षत्रिय जाति का प्रान्दोलन, ब्राह्मण सन्यासी के नियमों का अनुकरण आदि ऐसी बाते है जिन्होने श्रमण संस्कृति को उत्पन्न करने मे सहायता दी । ३ परन्तु वस्तुतः बात यह नही है । वैदिक सस्कृति से भी पूर्व प्रात्य लोगों के अस्तित्व का पता चलता है जिन्हे जैनधर्म का पोषक कहा जाता है४ | सुत्तनिपात मे श्रमण चार प्रकार के बताये गये हैमग्गजिन, मग्गदेसक, अथवा मग्गदेसिन, मग्गजीविन और २. दामगुप्ता - A History of Indian Philosophy. Vol. 1. p. 22, २. ४. History of Jain Monachism, p. 56. देखिये, अथर्ववेद १५-१-४ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मसिन १ इसी पुस्तक में श्रमणों को वान्दसील रहकर तीन भागों में विभाजित किया है- तित्थिय, ग्राजीवक और निगण्ठ२ । ठाणाङ्ग में ५. भेट दिये है-निगण्ठ, साक्य (बीड), तावस, मेरिय, चौर बाजी | वेदों की मान्यता को स्वीकार करना, जाति-भेद जन्मना नहीं कर्मणा मानना आदि वृछ ऐसी विशेषताएं थी जिन्हें प्रत्येक श्रमण-शाखा स्वीकार करनी थी। बौद्ध साहित्य मे तपस्वियों को समण कहा गया है । की उनको तिथिय, परिब्याजक, पचनक, मुण्डसावक, तेदण्डिक, मागन्डिक, प्रविरुद्धक, जटिलक गोतमक, मादेसिन मासिन चादि भी कहा गया है। समय वाद तो यहाँ बहुत अधिक प्रचलित है। बुद्ध को महाममण कहा गया है और उनके अनुयायियो को शाक्यपुनीय समण५ । निगण्ठ नातपुत्त को 'समण निगण्ठा' अथवा "निगष्ठा नाम समण जाति का" कहा है६ । 'सम' - ब्राह्मण' और ब्राह्मण समण जसे शब्द भी मिलते है। जहाँ भ्रमण और श्रमणेतर विचारों का प्रतिनिधित्व रहा करता है । बौद्ध साहित्य मे श्रमण संस्कृति के पोषक ताथको का उल्लेख मिलता है। वे है-पुराण कस्सप मक्खन गोसाल, अजित केमकम्बलि, पकुध कच्चापन, सज्जय बेलपित्त और निगष्ठ नातपुत्त । इनके विवरण के लिए दीघनिकाय का सामानफ्लसुत्त दृष्टव्य है, पर वहाँ पर इन सीकि के सिद्धान्तो की सही जानकारी नहीं मिलती। निगष्ठ नातपुन का निद्धान्त तो जिसमे बिल्कुल स्पष्ट है उक्त तीर्थको की मंद्धान्तिक और जीवनी विषयक पृष्ठभूमि देखने पर उन्हे हम दो भागो में विभाजित कर सकते हैं . १. सुत्तनिपात ५४, १५१, ७८६ २. बही ३०१ बौद्ध साहित्य में मंगव ३. ठाणाङ्ग, पृ० ६४६, ४. प० एन० ग्रापस्वामी शास्त्री, Sramana and Nou-Brahmanical sect, The cultural Heri - tage of India. Vol. 1. p. 386ff. ५. सुत्तनिपात, सेलसुत्त, ६. प्रगुत्तरनिकाय, पृ० २०६ (i) आजीविक सम्प्रदाय जो पुराण कस्सप, मनखलि गोसाल और पकुच कच्चायन द्वारा चलाया गया। ९१ (ii) जो पानाथ और महावीर ने प्रचलित किया। इनमे प्रजीवक सम्प्रदाय का प्रतिष्ठापक मक्खलि गोसाल मूलत जैनधर्मानुयायी था । अन्य तीर्थिकों के भी जनधर्मानुयायी होने के उल्लेख मिलते हैं। १४वीं शताब्दी तक आजीवक सम्प्रदाय का अस्तित्व मिलता है, बाद में कहा जाता है कि वह दिगम्बर सम्प्रदाय में अन्त हित हो गया। इस प्रकार वर्तमान मे श्रमण संस्कति की कुल दो शाखाएँ जीवित है-जैन और बौद्ध (ख) जैनधर्म और उसका साहित्य बोड साहित्य मे जैनधर्म की प्राचीना विषयक उद्धरण मिलते है । एक समय था जबकि बवर जंसे विद्वानो ने जैनधर्म को बौद्धधमं की शाखा बताया था । परन्तु पालि साहित्य के अध्ययन से जेकोबीने इसका खन किया और प्रतिपादित किया कि पार्श्वनाथ ही ऐतिहासिक व्यक्ति होना चाहिए। सच पूछा जाय तो धमके सिद्धान्तो का तारजन सिद्धान्त ही रहे है और इसीलिए जैन से सर्वाधिक प्रभावित जान पडता है। ऋषभदेव का उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलता है१० । और फिर यदि हम बौद्धपमं में स्वीकृत बुद्धां और प्रत्येक बुद्धो के नामो की मोर देखे तो अनेक नाम हमे जैन तीर्थंकरो के नामो का अनुकरण करते हुए दिखाई देते है । उदाहरणार्थ- प्रजित, सुलिय पदम या पद्म, चन्द, विमल धम्म । श्रग्नेमि को छ. तीर्थकग में एक माना है ११ । दृढनेमि नामके एक चक्रवती का उल्लेख है और इसी तरह अरिनेमि नाम के एक राजा और यक्ष का भी १२ । 9. Encyclopaedia of Buddhism, P. 332 Weber, Indische Studian, XVI. 210 Indian Antiquery, Vol. IX, p. 163 The Dictionary of chinese Buddhist Terms. ८. e. १०. p. 184. ११. गुनर, ३,३७३ १२. दीपनिका ३,२०१ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२. । सच्चक, इसके अतिरिक्त पार्श्वनाथ को अंगुत्तर निकाय में पुरिसाजानीय कहा है। उनके चातुर्यामसंबर सिद्धान्त का स्पष्ट उल्लेख मिलता है२ वप्प ( ० २,१६६), उपालि (म० १,१०१) समय (म० १,३९२), अग्निवेस्सायन [was ( म० १,२३७ ) दीघतपस्सी (म० १३०१) प्रादि पार्श्वनाथ सम्प्रदाय के अनुपायी रहे हैं। महावीर को वहाँ निगड नातपुत कहा गया है। पावा मे महावीर की मृत्यु का भी उल्लेख है ३ । सम्प्रदाय भेद की भी इसी प्रसग मे चर्चा की गई है । पालि साहित्य में निगण्ड नातपुत्त के विचारों का ही उल्लेख अधिक मिलता है। जैन साहित्य और उसके माचायों तथा बौद्ध साहित्य और उसके प्राचार्य एक दूसरे से पर्याप्त प्रभावित रहे है। जैन भागम साहित्य को बौद्ध भागम साहित्य-त्रिपिटक से और जैन स्वाय साहित्य को बौद्ध न्याय साहित्य से तुलना करने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है । "यहाँ यह भी उल्लेखनीय है कि बुद्ध काल मे जैनधर्म कां केन्द्र मगध४ रहा है या दूसरे शब्द] म कहे तो उत्तर भारत । कोसल५, सावत्था ६, कपिलवत्थु ७ देवदह, प वेसाली, ६ पावा, १० आदि स्थानो पर जैनधर्म अधिक प्रचलित था। बाद मे उत्तर में शिशुनाग नन्द, मौय, खारवेल, गुप्त, प्रतिहार परमार, चन्दन, कच्छपट, प्रादि राजाओ ने जंनधम को प्रश्रय दिया। गुजरात, १. अंगुत्तर. १,२६० २. दीघनिकाय, सामफलत अनेकान्त ३. दीपनिकाय, १,४७ ३,११९ मज्झिम, २,२४४ ४. मज्झिम १,३१,३०० र १,२२० उपानि, प्रभवराज कुमार गामिनी की घटनाएँ यही हुई। ५ सयुक्त, १,६८ मज्झिम, १२०५ आदि । ६. धम्मपद घटुकथा, १,३५७० २,२५ ७. मज्झिम, १,६१ ८. मज्झिम, २,२३४ १,२२०, विनय, २३३, मगुत्तर ४,१०८ १० मक्किम २,२४३ काठियावाड़, तथा दक्षिण मे विदर्भ, महाराष्ट्र, कोकड़ मान्ध, कर्णाटक, तमिल, तेलगू और मलयालम सभी प्रदेशो मे भी जंनथम का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण रहा। यही से जैनधर्म बोसका मे पहुँचा जहाँ लगभग श्रीलंका वीं शती तक उसका अस्तित्व बना रहा११ जैनधर्म के नाम पर कुछ भी नहीं है। रहकर वहाँ स्वयं देखा और अध्ययन किया है। (ग) बौद्धधर्म और उसका साहित्य । वर्तमान में वहाँ यह मैंने दो वर्ष । बौद्धधर्म के संस्थापक भगवान बुद्ध निःसन्देह इतिहास पुरुष रहे है। जन्मतः उनमे महापुरुष-लक्षण अभिव्यक्त हुए थे राजकुल में जन्मजात इस लोकोत्तर व्यक्ति के हृदय में सासारिक विषय-वासनाओं के प्रति तीव्र घृपा घर कर गई थी । फलतः अभिनिष्क्रमरण कर छः वर्ष तक कठोर तपस्या की और तत्कालीन प्रचलित सभी सम्प्रदायो मे दीक्षित होकर ज्ञान प्राप्ति की चेष्टा की विफल होकर मध्यममार्गी बन चतुरायं सत्य-ज्ञान पाया और नये धर्म की स्थापना की । यहाँ यह उल्लेखनीय है कि दर्शनसार [६-६] के अनुसार बुद्ध ने कुछ समय तक जैन दीक्षा ली थी। उस समय उनका नाम पिहितास्रव था । कालान्तर मे मास भक्षण करने से वे पदच्युत हो गये जौर बौद्धधर्म की स्थापना की। इसके अनुसार उनके माता-पिता का पार्श्वनाथ धनुयायी होना अनुमानित है। कुछ भी हो, बौद्धधर्म के सिद्धान्तो की जैन सिद्धान्तों से तुलना करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि बुद्ध निगष्ठ नात पुत्त से अधिक प्रभावित रहे। जहा कहीं उन्होंने निगष्ठ नात पुस को अन्य तीर्थको की अपेक्षा अधिक आदर भी व्यक्त किया है । १२३४ मक्किम ० १,४५०, गुलर, ११. महावंस, १०, १००-११ ३२४३-४४ १३.७१ महावश टीका, पृ० ४४४ १२. मज्झिम० २.१३२,२१४ बौद्ध साहित्य मुख्यतया दो भागो मे विभाजित है१२ । १-पालि साहित्य (क) पिटक साहित्य, (ख) अनुपक साहित्य, (ग) पिटकेतर साहित्य, २ बोड सस्कृत-साहित्य हीनयान और महायान । पिटक साहित्य श्रीलका मे मौखिक परम्परा के अध्ययन से ८४ ई० पू० तक सुरक्षित Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीड-साहित्य में जनधर्म रहा । वहीं बलगम्ब राजा के राज्य में उसका लेखन कार्य तथा पोट्रावाद सुत्ता में वरिणत मात्मा विषयक सिद्धान्त हुना। यह निश्चित है कि इतने अन्तराल मे पिटक में जैन सिद्धान्त प्रासानी से खोजा जा सकता है । निश्चयसाहित्य में अनेक बातें जोड़ दी गई होगी और उसमे से नय और व्यवहार नय का यदि माश्रय लें तो एतद्विषयक कुछ पृथक भी कर दी गई होगी। अनेक उद्धरण मिल जाते है। बुदघोष ने जैन सिद्धान्त के पालि साहित्य में सुत्त पिटक और विनय पिटक अनुसार प्रात्मा को भरूपी बताया है५ । विज्ञप्ति मात्र से जैन सिद्धान्तों को खोजने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। सिद्धि (पृ०७), तत्वसमह६ तथा हेतुविन्दु टीका में इस कुछ अट्ठकथाए भी प्रस्तुत अध्ययन के लिए देखना आवश्यक सिद्धान्त की पालोचना की गई है । हो जाता है । अभिधम्म पिटक मे जैन उल्लेख मेरे देखने मे मज्झिम निकाय (१.३७३) और अंगुत्तर निकाय नही पाये। (२.१६६) से त्रियोग अथवा त्रिदण्ड का उल्लेख है, पर ___ बौद्ध संस्कृत साहित्य मे नागार्जुन की माध्यमिक पालोचनात्मक बनाने के लिए उसकी जैन दृष्टिकोण से कारिका, प्रार्यदेव का चतु शतक, धर्मकीति का प्रमाण- प्रतिकूल व्याख्या की गई है। अगुतर निकाय (४.१८२) वार्तिक, अर्चट की हेतुविन्दुटीका, प्रज्ञाकरगुप्त का प्रमाण- मे निगण्ठनात पुत्त को क्रियावादी कहा गया है। मज्झिम वार्तिकाल कार, शान्तरक्षित का तत्त्वसग्रह मादि विशेष निकाय मे बताया है कि जनो के अनुसार कठोर तपस्या महत्व के हैं, जहा जैन सिद्धान्तों का खण्डन किया गया से कर्मों की निर्जरा की जा सकती है और मोक्ष प्राप्त है । इन प्राचार्यों ने स्याद्वादको अपना टारगेट बनाया और किया जा सकता है। पूर्वोपार्जित कर्मों के अनुसार हमे उल्टा-सीधा पूर्वपक्ष स्थापित कर उसे अस्वीकारात्मक सुख दुख मिलता है। यह दृष्टिकोण महाबोधि जातक स्थिति मे लाये। और अगुत्तर निकाय (१.१७४) मे भी देखा जा सकता बहुत सा बौद्ध साहित्य चीनी, तिब्बती प्रादि लिपियो है। अगतर निकाय मे पूरण काश्यप के नाम से वरिणत में प्रकाशित है। उमे मैं नही देख सका। नागरी, सिहल छणिक जातियों का उल्लेख है, जिनमें पड्लश्याप्रो के व रोमन लिपि में प्रकाशित साहित्य में से जो भी उपलब्ध दर्शन होते है। हो सा, उसे देखने का प्रयत्न किया है। वहा प्राप्य पालि-साहित्य मे अनेक स्थानों पर जगत् की प्रकृतिजैन उद्धरणो को विषयानुसार संक्षेप में इस तरह विभा- विषयक विचारों का पालेखन है। स्याद्वाद सिद्धान्तो के जित किया जा सकता है प्राधार पर उनमे जैन सिद्धान्त स्पष्ट नज़र पाता है१०। १. जैन दर्शन-Jaina Philosophy. शान्तरक्षित ने इस विषय में मूरि (शायद पात्रकेमरि) २. जैन प्रमाण-विचार-Jaina Epistemology. के नाम कुछ उल्लेख किये है जहाँ जगत को अणुमों का ३. जैन प्राचार-Jaina Ethics. समूह बताया गया है११। तत्त्वसग्रहमे 'पुद्गलो दिगम्बरः' ४. अनेकान्तवाद-The Theory of Non Ab ४. दीघनिकाय, १,१८६-७ sotulism. (१) जैन दर्शन ५. सुमगलविलासिनी, पृ० ११० मज्झिम निकाय १ के एक उल्लेख में जैन सिद्धान्त के ६. तत्त्वसग्रह, ३११.३७। सप्त तत्वो के उल्लेख की झलक मिलती है। ब्रह्मजाल ७. हेतुविन्दुटीका, पृ० १०४-७ सुत्तर में उल्लिखित वासठ मिथ्याष्टियो तथा उदान३ ८. मज्झिम १,६३; २.३१. २११६ : अंगुत्तर १२२० ६. अगुत्तर ३.३८३, तुलना करिये-दीघनिकाय अट्टकथा माज्झम० १,६३:२,३१, २१४ : अंगुत्तर २,३१,२१४ १.१६२ : सयुक्तः ३.२१०, दीघ. ३.२५०. २. दीघनिकाय, १,३२ १०. दीघ. १.२३, मुमगलविलामिनी १.११५ ३. उदान, पृ० ६७ ११. तत्वसंग्रह १११-२, १९८०.८३ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त कहकर जनोंका शब्द-विषयक सिद्धान्त भी उल्लिखित है। पालोचनात्मक उल्लेख पाये हैं१० । धर्मकीति और उनके वहीं आकाश को निरवय भी बताया है । व्याख्याकार प्रज्ञाकर गुप्त११ ने भी जनों के सर्वज्ञवाद की ___कटु आलोचना की है। मालोचना करते समय वे सिद्धान्त २. जैन प्रमारण-विचार-(Jain Epistemology) को ठीक तरह से समझे हुए नहीं दिखाई देते । बुद्ध ने तार्किक विवादो के फलस्वरूप प्रमाण विद्या के सिद्धांत यद्यपि अपने मे सतंजता होने का जोरदार विरोध किया निर्मित किए गये। पालि साहित्य मे ऐसे विवादो को था, परन्तु षभिजा के विकमित रूप ने पाखिर उनको वादक था और वितडा४ तथा ताकिको को तक्की५ व सर्वज्ञ बना ही दिया१२। तविकका कहा गया है। जनो ने इन विवादो में भी सत्य परोक्ष प्रमाणों में अनुमान विषयक उल्लेख अधिक और अहिंसा का प्राधार लिया है। सच्चक (म.१.२२७) स्पष्ट मिलते है । शान्तरक्षित ने पात्रकेसरि के हेतु प्रकार अभय (म. १.२३४) और असिवन्धकपुत्त गामिनि (म. का खण्डन किया है (तत्वमग्रह, १३७२-१३७६) । इसी ४.३२३) विषयक उद्धरण इस कथन के प्रमाण हैं। प्रमग मे उन्होंने उनकी "अन्यथानुपपन्नत्वे" प्रादि प्रसिद्ध कारिका कुछ दूसरे रूप में प्रस्तुत की है । हेतुविन्दु टीका बुद्ध ने अपने पूर्वकालीन प्राचार्यो-सम्प्रदायो को तीन __ मे जैनो को प्रमाणसमलववादी कहा है१३ । भागो मे विभाजित किया है-अनुस्साविका, त्क्की और ३. जंनाचार (Jaina Ethics) अननुस्सविका। जिन्होंने स्वय के अनुभव से विशेष ज्ञान जैनाचार को श्रावकाचार और अनगाराचार मे प्राप्त किया है उनको उन्होन अननुस्साविका के अन्तर्गत विभाजित किया जाता है। सामफलसुत्तमे निगण्ठनातरखा है। इस दृष्टि से जैन और बौद्ध धर्म इस श्रेणी मे पुत्त के नाम से चातुर्याम सवर का उल्लेख है जो अस्पष्ट मा जाते है । निगण्ट नातपुत्त ने ज्ञान पर ही अधिक है और पाश्वनाथ पाम्नाय का है१४ । सयुत्तनिकाय में जोर दिया है। निगण्ठनातपत्त के नाम से वार व्रतो का उल्लेख है. जब अगत्तर निकाय (४.४२६) मे उनको ज्ञानवादा कहा कि पांच होना चाहिए१५ । प्रगत्तर निकाय मे अवश्य है। ज्ञान दो भागो में विभाजित किए जा सकते है पञ्चाचा का उल्लेख है पर उनका क्र। और वर्णन मात्मज्ञान, जिसम पाँच प्रकार के ज्ञान प्रति है । दार्शनिक ठीक नही १६ । अप्रासुक जल मे कीटाणु होते है । इसका ज्ञान जिममे प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से दो प्रमाण माते जैन सिद्धान्त का उल्लेख मज्झिम निकाय (१.३७७) मे है । शान्तक्षित न प्राचार्य मुमति के सिद्धान्त का वण्डन है । वही निगण्ठनातपुत्त के अनुमार कायदण्ड को सर्वाधिक किया है। उनके अनुसार दोनो, मविकल्पक और निवि पापकारी और हीन बनाया है पर उसी व्याख्या समित कल्पक प्रत्यक्ष प्रमाण माने जाने चाहिए । पालि साहित्य ढंग से नही की गई१७ । मे निगण्ट नातपुत्त की सर्वज्ञता के विषय मे एकाधिक बार १०. मज्झिम १.५२६, २.३१ : धम्मपदठुकथा भाग २९, १. तत्त्वसग्रह २३१० पृ०७४ मज्झिम २.२१४, १.६२, सयुत्त ४३६८, २. वही, २५५७ प्रगुत्तर ३७४ ३. सुनिपात ७६६, ८६२, ६१२ ११.प्रमाणवातिकालकार ४.६१, ८.६-७ ४. वही, ८२५ १२ तत्त्वसग्रह ३६२८ ५. दीघ १.१६ १३ हेतुविन्दु टीका पृ० ३७ ६ उदान ७३ १४. दीघनिकाय ४१ ५. मज्झिम २.२११ १५ सयुत्त ४.३१७ ८. वही, १९२-३ १६. प्रगुत्तर ३,२७६,७ ६. तत्त्वसत्रह पञ्जिका पृ० ३६४ १७. मज्झिम १,३७२ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बौद्ध-साहित्य में जनधर्म अंगुतर निकाय१ गुणवतों और शिक्षाव्रतों से परि- तपस्यामों का वर्णन दीघनिकाय (१,१६६) में मिलता चित है। वहां विशाखाके प्रजान मे दिग्बत और देशवत का है। बुद्ध ने भी प्रथम छह वर्षों के तपोकाल मे इनका विवेचन है । दीर्घनिकाय मे कण्डक-मसुक के नाम से उद्ध- अभ्यास किया था११। आजीवकों के द्वारा भी इनका रित प्रतिज्ञाप्रोमे भी इन व्रतो को खोजा जा सकता है। अभ्यास किया जाना बताया है१२ । कुछ इनमें जैन मुनियों मज्झिम निकायमे ३ सामाजिक और अगुत्तर मे४ प्रोषधोप- के आहार-दोष है। कही उनकी पाहार-पद्धति की मालोवास का वर्णन देखा जा सकता है। इन्ही उद्धरणों में चना है और कहीं प्राहार-ग्रहण के पूर्व ग्रहीत प्रतिज्ञानों एकादश प्रतिमायो के विषय में भा कुछ विवेचन मिल का वर्णन है। निगण्ठ नातपुत्त के द्वारा ऋद्धि के प्रभाव से जाता है। पाहार लेने के उपक्रम का भी उल्लेख है १३ । मुनि-प्राचार विषयक उद्धरण भी पर्याप्त मिलते है। जैन साधुग्रो की दैनन्दनी की भी यहां चर्चा है। उनके मंघी, गणी पौर गणग्यि होने के उल्लेख प्राप्त पञ्चमहाव्रतो के विषय में ऊपर हम लिख ही चुके हैं । हैं५ । वे गण, कुल, और गच्छो मे विभक्त थे । जैन मुनियो पञ्चसमितियो मे भाषासमिति १४ का पौर षडावश्यको मे के वर्षावास के अनुकरण पर ही बौद्ध साधुनो मे वर्षावास कायोत्सर्ग का भी उल्लेख है१५ । इसके अतिरिक्त केशलुका नियम निर्धारित किया गया। पालि साहित्य में ञ्चन,१६ अचेलकत्व,१७ पौर त्रिगुप्ति १८ के भी उल्लेख जैन मुनियो को 'निगण्ठा' कहकर पुकारा गया है जो प्राप्त है। दिगम्बरत्व का सूचक है । (अम्हाक गन्थानक्लेसो (४) अनेकान्त दर्शन पलिवज्झनक्लेसो नत्थि क्लेस गन्थियरहितामय ति एव अनेकान्त दर्शन के बीज वेदों१६, उपनिषदो२० मादि वादिताय लद्धिनामक्सेन निगण्ठा७ ।) यही बुद्धधीप ने मे अन्वेषणीय है। पालि साहित्य में भी इसके कुछ विकश्वेतवस्त्रधारी निगण्ठो को दिगम्बर निगण्ठो से अच्छा सिन रूप के दर्शन होते हैं२१ । बुद्धघोष ने निगण्ठ नातपुत्त बताया है। जो जैन सम्प्रदाय मे लगभग पञ्चम शताब्दी के सिद्धान्तो को उच्छेदवाद और शाश्वतवाद का समन्वय मे मस्थापित श्वेताम्बरो के विषय में उल्लेख जान पडता रूप समझा है२२ । त्रयात्मवाद और अर्थक्रियावाद के है । जैन साधुग्रो की नग्नता पर भी धम्मपद अट्टकथा विषय में दुर्वकामधन स्याद्वादकेशरी (अकलकदेव) के मे परिहास किया गया है। यहा एक अन्य कथा का सिद्धान्त का उपस्थापन किया और खण्डन किया है २३ । उल्लेख है जिसमे लिखा है कि जैन साधुनो की मर्वज्ञता का परीक्षण किया गया और उनके असफल होन पर उन्हे ११. मज्झिम १,७७ खूब ताडना दी गई .. १२. वही १,२३८ अचेल कस्सप के नाम पर लगभग बीस प्रकार की १३. Book of Discipline, vol. 5. P. 151 १४. मज्झिमनिकाय अभयराजकुमारसुत्त १. अगुत्तर १,२०६ १५. मज्झिम १,६३, २,३१, २१४ २. दीघ ३,६ १६. वही १,७७ ३. मज्झिम १,३७२ १७. वही ४. अगुत्तर १,२०६ १८. वही १,३७२ ५. दीघ १,४९ १६. ऋग्वेद १०,१२६ ६. विनय १.१३७ २०. मैत्रेय ११,७ छान्दोग्य ३,१६१ ७. मज्झिम निकाय अट्ठकथा १,४२३ २१. अगुत्तर २,४६ ८. धम्मपद अट्ठकथा ३,४८६ २२. दीघनिकाय अट्ठकथा २,९०६,७ ६. वही १,२,४०० मज्झिम अट्ठकथा २,८३१ १०. Budolthist Legend 29,74 २३. हेतुविन्दुटीका लोक पृ० ३७४ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीकान्त शान्तरक्षित ने क्षणभगवाद की आलोचना के कुछ (स्यात्) शब्द का प्रयोग मिलता भी है। यहाँ यह उल्लेखतत्वों का उल्लेख किया है जो जैनाचार्यों के द्वारा की गई नीय हैं कि जिन प्रग विषयक मतों का ऊपर उल्लेख किया मालोचना का स्मरण दिलाते हैं । वस्तु के सामान्य- गया है वे सभी जैन सिद्धान्त के अनुयायी रह चुके थे। विशेषात्मक स्वरूप की उपस्थापना और उसकी मालचोना इसलिए उनके सिद्धान्त जैनधर्म से प्रभावित स्वभावतः भी की है। इस प्रसगमे बौद्धाचार्य परम्परागत स्वर्णपात्रका होगे ही। उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। उत्तरकालीन बौद्धाचार्यों ने स्यावाद की तीव्र पालोपालि साहित्य मे नयहेतु को बुद्ध ने कथनशैलियों मे चना की है। नागार्जुन, धर्मकीति,१० प्रज्ञाकरगुप्त,११ एक माना है।३ ये ही नयवाद के बीज हैं। सम्मुनिसच्च प्रचंट१२ शान्तरक्षित और कमलशील,१३ कर्णकर पौर परमत्थसच्च जनोंके पर्यायाथिक और द्रव्याथिक नयके जितारी १५ प्राचार्य इस विषय में उल्लेखनीय है । सभी ने अनुकरण पर उपस्थित किये गये हैं।४ सूत्तनिपात (६८, प्राय' एक जैसी मालोचना की है। इस आलोचना का २१६) मिलिन्दपन्ह (पृ० १६८) मादि में भी इनके उत्तर जनाचाया ने दिया है ।१६ वास्तविक बात तो यह है उदाहरण मिलते हैं। कि बौद्धाचार्यों ने स्याद्वाद को पूर्णतः समझने का प्रयत्न ब्रह्मजाल सुत्त में प्रमराविवेपवादियों के चार नहीं किया जिससे वे स्वय "दूषकोऽपि विदूषक" हो गये। सम्प्रदायों का उल्लेख है। उनमें चौथे सम्प्रदाय का पोषक इस प्रकार हमने बौद्ध साहित्य में प्रागत कुछ जैन सञ्जयलद्विपुत्र कहा जाता है। वह निषेधात्मक ढग से विषयक उल्लेखो को देखा जिनके माधार अनेक निष्कर्ष वस्तु के विषय में चार प्रकार से उत्तर देता है । जिन्हें निकाले जा सकते है। प्रस्तुत विषय (Jainism in स्याद्वाद के प्रथम चार अगो के समकक्ष रख सकते हैं। Buddhist Literature) पर मैंने अपना प्रबन्ध विद्योदय मक्खलि गोसाल का राशिक सिद्धान्त स्याद्वाद के प्रथम विश्वविद्यालय कोलम्बो सीलोन (श्रीलका) में प्रस्तुत तीन अंगों पर 'माधारित है। बुद्ध ताकिक प्रश्नो का किया है । अक्टूबर १९६३ में मैं वहाँ कामनवेल्थ स्कालउत्तर चार प्रकार से देते थे, जिन्हें स्याद्वाद के प्रथम चार शिप पर Ph. D. करने गया था और अभी जुलाई १९६५ रूप कहे जा सकते हैं। में वापिस पाया हूँ। वहाँ रहकर जो कुछ बौद्ध साहित्य पाश्र्वनाथ सम्प्रदाय के अनुयायी सच्चक के कथन में७ के अध्ययन करने का अवसर मिला है, उससे मैं इस पौर निगण्ठ नातपुत्त तथा चित्र गृहपतिके सवाद मे स्याद्वाद निष्कर्ष पर पहुंचा हुँ कि यदि विद्वान जैन और बौद्ध के दर्शन होते हैं। मज्झिमनिकाय के दीघतर व सुत्त मे साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन करने की भोर कदम दीघनख परिवाज़क के मृत की आलोचना की गई है। बढायें तो निश्चित ही अनेक नये तथ्य हमारे समक्ष मा जहाँ वह तीन प्रकार से प्रश्नो का उत्तर देता था। वे सकेंगे। तीनो प्रकार भी मप्तभंगी के प्रथम तीन भगों के अनुरूप है। मज्झिम निकाय के चूल राहुलांवाद सुत्तन्त मे सिय ६. माध्यमिक कारिका ४५-४६ १०. प्रमाणवातिक १,१८३-५ १. तत्त्वसंग्रह ३५२ ११. प्रमाणवार्तिकालंकार पृ० १४२ २. प्रमाणवातिक ४,६, प्रमाणवातिकालंकार, पृ० ३३३, १२. हेतुविन्दुटीका पृ०२३३ हेतुविन्दुटीका, पृ० १,६८, तत्वसग्रह ३१३-३१५ १३. तत्त्वसंग्रह १७२३-३५, पृ० ४८१ ३. प्रगुत्तर, २,१६१-६३, नयेन नेति-सयुक्त २,५० १४. प्रमाणवार्तिक स्ववृत्तिटीका पृ० १०६ ४. माध्यमिक कारिका, असत्य परीक्षा ८ १५. अनेकान्तवादनिरास ५. दीघ १,२४-२५ - ६. नन्दि टीका १.३ १६. न्यायविनिश्चय ११७,८, न्यायविनिश्चय विवरण ७. मज्झिम २.२ १०८७, न्यायकुमुदचंद्र पृ० ३६९, सिद्धि विनिश्चय ८. संयुक्त,४६८ ६,३७ मादि Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदर्भ के दो हिन्दी काव्य ग० विद्याधर जोहरापुरकर १. प्रास्ताविक-वर्तमान महाराष्ट्र राज्य के पूर्व चरित के प्रणेता महाकवि स्वयभूदेव पौर धवला-जयभाग के माठ जिले विदर्भ के नाम से पुरातन समय से धवला टीकाग्रो के निर्माता स्वामी वीरसेन जिनसेन इसी प्रसिद्ध हैं। मध्ययुग में यह प्रदेश बराट, वैराट, वहाड़ वाटग्राम से सम्बद्ध रहे थे (जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह भा० (या अंग्रेजी प्रभाव के कारण बरार) भी कहलाता था। २ पृ. २७) । इस प्रदेश से जैन समाज के सम्बन्ध भी पुरातन हैं। २. विवों में हिन्दी साहित्य रचना-विदर्भ के इन पौराणिक परम्परा के अनुसार भगवान ऋषभदेव मोर पुरातन सम्बन्धों में पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी में एक चक्रवर्ती भरत के राज्य में यह प्रदेश समाविष्ट था। नया मोड़ भाया । इस समय राजस्थान के कई जैन (हरिवंशपुराण सं० ११ श्लो० ६६; महापुराण २६ जातियों के बहुत से परिवार अपना मूल प्रदेश छोड़कर श्लो० ४०); इस प्रदेश की राजधानी कुण्डिनपुर वरदा दक्षिण में पाए और विदर्भ, महाराष्ट्र और कर्णाटक में नदी के किनारे थी जिसकी स्थापना हरिवश के राजा बस गए । यद्यपि लौकिक व्यवहार के लिए इन लोगों ने ऐलेय के पुत्र कुणम ने की थी (हरिवंशपुराण सं० १७ स्थानीय भाषाएं मराठी और कन्नड-अपना ली तथापि श्लो० २३); इसी कुण्डिनपर में भगवान धर्मनाथ का धार्मिक और साहित्यिक कार्यों के लिए वे अपनी पुरातन विवाह सम्पन्न हुआ था (धर्मशर्माभ्युदय सर्ग १६) तथा भाषा हिन्दी का भी प्रयोग करते रहे। विदर्भ में इस प्रकार श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न का ससुगल भी यही था। (उत्तर- जो हिन्दी साहित्य लिखा गया वह यद्यपि विस्तार की पुराण पर्व ७१, हरिवंश पुराण स० ४२ तथा ४०)। दृष्टि से महत्व का नहीं है तथापि वह इस बातका प्रमाण ऐतिहासिक दृष्टि से भी इस प्रदेश के जैन परम्परा सम्बंधी है कि पुरातन समय में भी हिन्दी भाषा का प्रयोग अहिन्दी उल्लेख महत्त्वपूर्ण है। यहा के प्रसिद्ध नगर प्रचलपुर के भाषी क्षेत्रों में भी हुमा करता था। अब तक हमें इस ब्रह्मद्वीप नामक स्थान से सम्बद्ध ब्रह्मदीपिक शाखा जैन वैदर्भीय हिन्दी की जिन रचनामों का परिचय मिला है साधुमों में प्रसिद्ध थी, इसकी स्थापना सन् पूर्व दूसरी उनमें कुछ इस प्रकार है-अभयपडित की रविवत कथा शताब्दी में पार्य ववस्वामी के मामा मार्य शमित ने की (मोलहवीं शताब्दी) छत्रसेन का द्रौपदीहरण (सत्रहवीं थी (परिशिष्टपर्व सं० १२) । ई०सन् की तीसरी शताब्दी शताब्दी), हीरापडित का प्रनिरुद्धहरण (सत्रहवीं शताब्दी), के मायसिंह भी इसी शाखा के विद्वान माचार्य थे (नन्दी- गंगादास की प्रादित्यव्रतकथा (सत्रहवीं शताब्दी), वृषभ सूत्र स्थविरावली गा० ३६) । पडित हरिषेण ने अपभ्रश की रविव्रतकथा (अठारहवी शताब्दी), ज्ञानसागर की धर्मपरीक्षा ग्रंथ की रचना सन् १८८ मे प्रचलपुर मे ही अक्षरबावनी (मत्रहवीं शताब्दी) तथा पूनासाह की पुरकी थी। दसवीं शताब्दी में इस नगर में राजा एल (पर न्दरव्रतकथा। इसी परम्परा के दो विशिष्ट कवि पामो नाम श्रीपाल) का शासन रहा, जो श्रीपुर के अन्तरिक्ष और धनसागर की दो रचनाओं का परिचय हम इस लेख पाश्वनाथ मन्दिर के निर्माण के कारण विशेष प्रसिद्ध हुए मे दे रहे हैं। थे । विदर्भ के मध्यभाग में स्थित वाटग्राम पाठवीं-नौवीं ३. कवि पामो-इनकी दो ही रचनाएँ प्राप्त हुई शताब्दी मे जैन साहित्य का महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा था। हैं-भरतभुजबलिचरित्र और प्रष्टद्रा पूजा छप्पय । द्विसन्धान महाकाव्य, नाममाला तथा विषापहारस्तोत्र के दूसरी रचना से कवि का केवल नाम ही मालूम होता है। रचयिता महाकवि धनंजय, पउमचरिउ और रिद्वनेमि- किन्तु भरतभुजबलिबग्त्रि में कुछ अधिक जानकारी Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलती है। इसकी रचना फाल्गुन शु०४ शक १६१४ लिए संघपति पूंजा ने भाग्रह किया था। इस विषय के के दिन कारंजा के चन्द्रनाथ मन्दिर में पूर्ण हुई थी। मूल पद्य इस प्रकार हैंकवि के गुरु काष्ठासंघ-नन्दीतटगच्छ के भट्टारक सुरेन्द्र- काष्ठासंघ प्रसिद्ध गच्छ नन्दीतट नायक। कीति ३१ तथा इस काव्य की रचना उन्होने सघपति विद्यागण गंभीरसकल विद्या गुण ग्यायक ।। भोज के प्राग्रह से की थी। इस सम्बन्ध के मूल पद्य इस रामसेन माम्नाय इंद्रभूषण भट्टारक। प्रकार हैं तत्पट्टोडर पौर सुतकीर्ति सुखकारक। पुन्नाट संजक गच्छ स्वच्छ पुष्करगण राणो। तवन विनिर्गत अमृतसम सदुपवेश वाणी सुनी। विनयंधर सूरीश ईश तवंशे मानो॥ पश्चरण पासजिनवरतणा जोड्या धनसागर गुणी ॥१४॥ प्रतापकोति भट्टारक तशिरोमणि धामह । देश बराड़ मझार नगर कारंजा सोहे। तत्पट्ट प्रतिसुहन भुवनकीति अभिरामह ॥ चंद्रनाथ जिनचंत्य मूलनायक मन मोहे । गच्छ नन्दीतट विद्यागण सुरेनकीर्ति नितवंदिये। काष्ठासंघ सुगच्छ लाडबागड बड़भागी। तस्य शिष्य पामो कहे दुखदाति निकरिये ॥२१॥ बघेरवाल विख्यात न्यात श्रावक गणरागी। शाक बोडश शत चौव बुद्ध फाल्गुन सुव पक्षह। जिनपरमी जमुनासंघपति सुत पूजा संघपति वचन । चतुर्यि दिन चरित परित पूरण करि बक्षह ।। चितमे परि प्रत्याग्रह पकी करी सुधनसागर रचन ।१४ । कारंजो जिन चंद्र इंद्रवंवित नमि स्वार्थे । षोडश मात एकवीस शालिवाहन शक जाणो। संघवी भोजनी प्रीत तेहना पठनार्थे । रस भुज भुज भुज प्रमित वीरजिनशाक बखाणो । पलि सकल श्रीसंघने येषि सहू वाछित मले। विक्रम शाक विविक्त बरस सत्रासे बीते। चक्रि काम नामे करी पामो कहे सुरता फले ॥२१॥ कृत मंगल मगलवार दिन मंगल मंगलतेरसी। नागपुर के श्रीपाश्र्वप्रभु बड़े मन्दिर में स्थित पपा घनसागर पासजिनेस का षटपद् वचन कहे रसी। १६॥ वती-मूर्ति का लेख प्रकाशित हुमा है (भट्टारक सप्रदाय पृ० २८२)। यह मूर्ति बघेर वाल ज्ञाति के बोरखंड्या धनसागर की अन्य रचनाएँ इस प्रकार हैं-नवकार गोत्र के साह भावा के पुत्र पामा ने शक १५६१ में काष्ठा- पचीसी (सं० १७५१), विहरमान तीर्थकर स्तुति (सं. संघ-नन्दीतटगच्छ के भ० लक्ष्मीसेन द्वारा प्रतिष्ठित कराई १७५३), दानशीलतपभावना छप्पय (केवलपूर्वार्ध) रचना थी। हमारा अनुमान है कि ये साह पामा ही प्रस्तुन कवि समय प्रज्ञात)। पामो हैं । यद्यपि इस मूर्तिप्रतिष्ठा और प्रस्तुत काव्य ५. कवियों के प्रेरणास्रोत संघपति भोज-कवि पामो रचना में ५३ वर्षों का अन्तर है तथापि वह एक व्यक्ति ने अपनी काव्यरचना के प्रेरणादाता के रूप मे जिन के जीवन के लिए असभव नहीं है। सघपति भोज का उल्लेख किया है वे अपने समय के ..कवि बनसागर-इन्होने कारंजा में ही शक प्रथितयश श्रीमान थे। कवि धनसागर ने भी सरस्वती१६२१ की माश्विन व० १३ को पार्श्वनाथ पुराण की लक्ष्मीसवाद में उनकी बहुत प्रशसा की है जिसके मूल पद्य रचना पूर्ण की थी। धनसागर भी काष्ठासंघ-सन्दीतटगच्छ इस प्रकार हैंके भ. सुरेन्द्रकीति के शिष्य थे। उनकी काव्यरचना के दक्षण देश मझार खंड वैराड विपंतो। १. परिवार की परम्परा से कवि काष्टासघ के लाडबागड बघेरवाल बर न्यात धर्म तहाँ जेन जयंतो॥ (पुन्नाट) गच्छ के श्रावक थे किन्तु उस समय इस मनि करे चौमास प्रास ते सहकी पूरे। गच्छ के कोई भट्टारक मौजूद नही थे अत. वे नन्दी गनियन गहरे लोक कर्म ते कठन महि चूरे ॥ तटगच्छ के भटटारकों को गुरु मानकर धर्मकार्य इनमें विसेस मुनिराजको प्रेमप्यार इक बारणो। सम्पन्न कराने थे। संघवीय भोज धनराजको कद कवित्त तस कारणो ॥॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विदर्भ के हिन्दी काव्य सम्बर ताकी मोपमा कीरत देसविरेस। प्रतीत होती है । कन्नड़ कवि रत्नाकर ने अपने मरतेशभोजराजसौं भाषिये संघई भोज विशेष ॥५॥ वैभव में जिस प्रकार चक्रवर्ती भरत के चरित्र का उदासीतत्कालीन श्वेताम्बर साधु शीलविजय ने अपनी तीर्थ- करण किया है वैसा पामो ने नहीं किया। इस प्रकार माला मे भोज संधपति की प्रशंसा में पद्य लिखे हैं प्रपदंश कवि परकीति के पार्श्वपुराण में भगवान पार्वजिनका सारांश इस प्रकार है१-बघरवाल वश के भूषण- नाथ के यवनराज के साथ युद्ध का जो वर्णन है उससे भूत संघवी भोज उदार हैं, सम्यक्त्व धारण करते हैं, धनसागर अपरिचित प्रतीत होते हैं। फिर भी दोनों जिनदेव को नमस्कार करते हैं, अन्य धर्म में रुचि नहीं कवियों की रचनामों में अपने विशिष्ट गुण हैं। पामो रखते, उनके कुल में उत्तम पाचार है, रात्रिभोजन का की शैली अपेक्षाकृत सरल किन्तु प्रभावशाली है। चक्रत्याग है, सदा पूजामहोत्सव होते हैं, जिनेन्द्रदेव के प्रागे वर्ती भरत के अभिमान का उनका वर्णन दर्शनीय है। मोतियों से चौक पूरते हैं, उनका व्यापार कर्णाटक, कोंकण (पच ७०)गुजरात, मालवा, मेवाड़ तक चलता है, वे लोगों को नित्य पुनरपि बोले चकिवक मुझनचाले। मन्नदान देते हैं, सं० १७०७ में गिरनार की यात्रा में तेहने देऊरचंड कोहने नहि हाले । उन्होंने एक लक्ष मुद्राएं व्यय कर पुण्य उपार्जन किया। सूर्यतनो विमान जाण बोलतो तोड़। अर्जुन, पदारथ और शीतल ये उनके तीन पुत्र हैं। व्यंतरना विश्राम घाम तारानो मोडू॥ संघवी भोज द्वारा स्थापित कई जिनमूर्तियाँ कारजा इत्याविक मवि गणू तो बाहुबली किम पुरे। के काष्ठासंघ-मंदिर में और नागपुर के सेनगण मन्दिर में मुझसू सुन सेनापति वृषभसेनाविक कि करे। विद्यमान हैं । इनके लेखों से२ उनके वंश का परिचय इसी प्रकार भरत के वैभव के प्रति बाहुबली का इस प्रकार मिलता है उपेक्षाभाव भी सुन्दर ढंग से अकित हुमा है (पद्य ११७)सं० बापू-यमुनाई तुझ प्रभुना प्रचंड खर षट क्षेत्र समानह । मुझ पुरना छे जाण स्थान बलि देश बताणह॥ लहु वेग सम चाहु दाउ शुभ नव निषानह । पद्माई-सं० भोज स० पदाजी-तानाई लेखू शकटह तुल्य मूल्य वर रत्ननो तानह ।। काचोपम मनमा गणू सुन्दर तेह कामिनी। सकाई प्रजुन पदाजी शीतल स. जमना हांसबाई' छन्नति सहन मुझ नाटकशाला भामिनी ।। धनसागर की रचना अधिक प्रालंकारिक है। प्रारम्भ तवना सं० पूजा देवकु मे ही कवि और जार का उनका श्लिष्ट वर्णन उल्लेखइस समय कारजा मे तो इस घराने के कोई परिवार नीय है (पद्य ४)-- नही है किन्तु अंजनगाव (जिला अमरावती) में हैं। वृत्तभंग अपरीति रीतिमारग नवि देखे। मनलंकार उद्योत होत प्रपशम्बन लेखे। ६.काव्यों की शैली-पामो और धनसागर दोनों के अवगुण में उल्लसत नसत निज पर्यन पेले। काव्यों की कथा पुरातन और सुप्रसिद्ध है तथा प्रायः तरल तरंग मभंग भंग नहि खेद विशेषे ॥ प्राचार्य जिनसेन-गुणभद्र के महापुराण पर प्राधारित माड़ गृह रस मूढ़ मति गति कोय न उत्तम गहे। १. जैन साहित्य और इतिहास पृ० ४५५ कवि जार समान सुनो सजन बनसागर कविजन कहे। २. ये लेख जैन सिद्धान्त भास्कर वर्ष १३ कि०४ तथा भगवान के गर्भस्थ होते हुए माता को सवा करन जनशिलालेख संग्रह भा० ४ पृ. ४०६-४१० पर वाली दिव्य कुमारी की बधाई को उन्होंने निरोग्ठय पछ प्रकाशित हुए हैं। में प्रकित किया है (पच ५५) Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकात मिरसत संग तरंग निखिल जनता हित बायक। पठनीय हुए हैं। यवाड्यात पाचरण दलित भषलांछनसायक। ७. उपसंहार-मध्ययुग की भारतीय भाषामों के व्यापार जगदीश सकल कल्याण निधायक। जैन साहित्य का अध्ययन अब तक कुछ उपेक्षित-सा रहा मिहत कठिन कषाय चरण मत निर्जरनायक ॥ है। बम्बई के जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय से पं० पन्नासचिबनिता ते दश तनय जे देखत चित चल्लए । लालजी बाकलीवाल और पं. नाथूरामजी प्रेमी ने कई घनसागर कृत षटचरण यह कहत अपर नहि हल्लए । वर्ष पहले हिन्दी साहित्य के कुछ अथ प्रकाशित किये थे। दुर्भाग्य से वह परमारा जारी नहीं रह सकी। वस्तुतः इसके साथ-साथ सरल शैली का भी उन्होंने यथा हिन्दी-मराठी-गुजराती आदि भाषाओं के साहित्य का स्थान प्रयोग किया है। पामो और धनसागर दोनों ने महत्त्व भी संस्कृत-प्राकृत साहित्य के समान समझा जाना भगवान के समवशरण की विस्तृत प्रशंसा की है। पामो चाहिए; क्योकि मध्ययुगीन इतिहास के लिए उनकी उपचक्रवर्ती भरत के राज्यविस्तार मे और धनसागर ने योगिता नि.सन्दिग्ध है। इस दृष्टि से प्रस्तुत काव्यों का भगवान पार्श्वनाथ के विहारक्षेत्र में भारतवर्ष के विभिन्न प्रकाशन उपयोगी सिद्ध होगा। अब तक का प्रकाशित प्रदेशों की लम्बी नामावलियां दी हैं। भरत द्वारा बाहु हिन्दी जैन साहित्य मुख्यतः प्रागरा-जयपुर क्षेत्र के बली के यहाँ भेजे गये दूत के वर्णन में पामो ने दूत के लेखकों का है। हिन्दीतर क्षेत्रों में लिखित हिन्दी काव्यों गुणों का सुन्दर वर्णन किया है। भगवान के धर्मोपदेश में के रूप में भी प्रस्तुत काव्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान होगा। धनसागर ने विविध धर्मशास्त्रीय विपयों की सूची प्रस्तुत हमें आशा है कि शीघ्र ही हम इन दोनो काव्यों को की है । इस प्रकार के विभिन्न वर्णनों से दोनों काव्य सम्पूर्ण रूप से विद्वत् समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकेगे। क्रोध पर क्रोध अपकुर्वति कोपश्चेत् किन कोपाय कुप्पसि मेरा अपराध किया, वही तो मेरा शत्रु है। लोक हे भाई! जब तेरी दृष्टि किसी दुश्मन पर पड़ती है मे अपकारकर्ता ही शत्रु कहा जाता है, उस पर ही मुझे तब सहसा तेरे अन्तर मानस में रोष उभरता हमा नजर क्रोध पाया है। पर अन्तर शत्रु तो प्रात्मा का अपकार माता है, नेत्रों से रक्त की धाराएं बहने लग जाती है। करने वाला क्रोध ही है जिसने मुझे स्वरूप से विमुख भृकुटि चढ़ जाती हैं. प्रोट डसने लग जाते है अधराव में किया, मेरे धर्म अर्थ काम मे विघ्न उपस्थित किया। कम्पन बढ़ जाता है। तन मे एक प्रकार की गति होने इस अन्तर शत्रु ने ही तेरी ज्ञान निधि का अपहरण लगती है। दबले पतले इस शरीर मे भी बल बढ़ जाता किया है। बैर-विरोध को बढ़ावा दिया है, फिर भी न है, जमे कोई पिशाच तेरे शरीर के अन्दर प्रविष्ट हो उस अपकारी क्रोध पर क्रोध नहीं कर रहा है उस पर गया हो। क्रोध की प्रागः। संतप्त हुमा तू अपने अप- विजय पाने का कोई यत्न भी नहीं कर रहा, यही नेगे राधकर्ता दुश्मन को संतापित करने के लिए कचहरी के भूल है। दरवाजों को भी खटखटाने लगता है, उसे दबाने या मारने का भी यत्न करने लगता है, और मुह से अपशब्दों की ____ वस्तुत. कोव ही तेरा दुश्मन है। क्षमारूप प्रसि से बोछार छोड़ने लगता है, यह सब क्रियाएँ तेरी दुर्बलता यदि तू उसका निपात कर दे, तो फिर ससार में तेरा मोर मज्ञनना की सूचक हैं। कोई शत्रु नहीं रहेगा । सभी मित्र बन जाएंगे। उस समय पर भाई ! तूने गहराई से कभी इस पर विचार भी तुझे स्वास्मानन्द की जो सरस अनुभूति होगी, वह विवेक किया है, कि वास्तव में मेरा शत्र कौन है? जिसने मोर समता से परिपूर्ण सुख का मास्वादन करायेगी। Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि रइधूकृत सावयचरिउ डा० राजाराम जैन सरस्वती के जिन तप पूत वरदपुत्रो ने अपनी प्रथक मौर अनवरत साधनाओं से भारतीय वाङ्मय के उन्नयन में 'महान योगदान किया है। उनमें महाकवि रद्दधू का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है । प्रन्वेषणों के आधार पर उनकी पच्चीस से अधिक रचनाओं का पता चला हैं, जो प्राख्यान, चरित, धर्म, दर्शन मनोविज्ञान प्रादि विविध विषयों के साथ मध्यकालीन भारतीय संस्कृति एवं इतिहास का सुन्दर विवेचन करती है। इन्ही रचनाओं में से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित रचना "सावयचरिउ" भी है जो सन्धिकालीन अपभ्रंश भाषा मे लिखित प्राचार एवं धर्माख्यान सम्बन्धी कृति है, जिसमे आठ कथाएं वर्णित है । कथाओंों का प्रमुख विषय सम्यक्त्व है । किसे किस प्रकार सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई उसी के अनुभव एवं संस्मरण के रूप में पात्रों के माध्यम से लेखक ने कथाएं प्रस्तुत की है। उक्त कृति में छह सन्धियां एवं (१३+२२+२९+१६+१६+२७ इस प्रकार कुल मिलाकर) १२५ कडवक है। रचना का प्रतिलिपिकाल वि० सं० १६६४ की श्रापाढ़ कृष्णा तृतीया है। इसकी लिपि प्राचीन किन्तु पठनीय है। जीर्ण-शीर्ण होने के कारण प्रति के कुछ पृष्ठ गल गये हैं । एकाध जगह पृष्ठो के परस्पर चिपक जाने से उसके कुछ अक्षर घुमले भी हो गये हैं। कुछ पृष्ठ जैसे ८ ख, क, ३० ख, ३१ क, ३२ क, ख एवं ३३ क अनुपलब्ध है। प्रति पृष्ठ εपक्तियां तथा प्रति पक्ति लगभग 8 छोटे वडे शब्द है । वर्णमाला मे 'ख' के स्थान पर 'प' जैसे सुवण्णखुरु रूवखुरु के स्थान पर सुवर्णबर, रूवर के प्रयोग मिलते है। इसी प्रकार 'क्ख' के स्थान १. विस्तृत परिचय के लिए "मिक्षु स्मृति ग्रन्थ ' ( कलकत्ता १९६१ ) मे प्रकाशित मेरा विस्तृत निबन्ध "सन्धिकालीन प्रपत्र श-भाषा के महाकवि रघू" शीर्षक निबन्ध देखिये पृ० द्वि० स० १०० ११५ । २. नाहर संग्रहालय कलकत्ता में सुरक्षित प्रति । में रक, तथा 'क्ष' एवं 'हव' के स्थान में 'कछ' एवं 'छ' के प्रयोग उपलब्ध हैं । महाकवि रद्दधू ने 'सावयचरिउ' में अपना परिचय देते हुए अपने को भट्टारक कमलकीर्ति (वि० सं० १५०६१५१० ) का शिष्य संघवी हरिसिंह का पुत्र तथा उदयराज का पिता कहा है ३ । इससे यह स्पष्ट ही विदित होता है कि रघू भट्टारकीय परम्परा के एक सद्गृहस्थ पण्डित कवि थे । प्रसंगवश उन्होंने अपने नामके साथ "कविवर "४ प्रप्पमिद्गुण५, सकइत्तमहागुणमंडिएण६ श्रादि विशेषणों का प्रयोग किया है जिनसे कवि की साहित्यिक प्रतिभा का स्पष्ट भान हो जाता है । गार्हस्थिक समस्याओंों से जूझते हुए भी कवि का विशाल साहित्य उसके प्रपरिमित यं साहस एवं प्रगाध पाण्डित्य का प्रतीक है । कवि "सावयचरिउ" के पूर्व त्रेसठ शलाका, महापुरुष चरित गाथाबन्ध सिद्धान्तार्थसार, पुण्यःश्रवकथा मेघेश्वर चरित एवं यशोधर चरित जैसे ग्रन्थो की रचना कर चुका था७ भ्रतः "सावयचरिउ" के प्रणयन के समय तक उसकी लेखनी काफी गंज चुकी थी । महाकवि रद्दषू की लगभग १६ रचनाओंों का मैंने अध्ययन किया है, उन सभी मे उन्होंने माथुरगच्छ, पुष्करगण के भट्टारकों तथा अग्रवालों के गौरवपूर्ण कार्यों के बृहद उल्लेख किये हैं किन्तु प्रस्तुत कृति की प्रशस्ति में कवि ने मूलसंघ के प्राचार्य पद्मनन्दि तथा उनके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र प्रौर नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ के प्राचार्य जिनचन्द्र की वन्दना की है। इन उल्लेखों से ३. सावयचरिउ १२६७६ ४. सावय० १।२।१६ | ५. साबय० ६ / २४/१० *. सावय० ६/२७/७ ७. सावय० १ / ३ ८. वही० १/२ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त विदित होता है कि रइबू किसी विशेष जाति अथवा Minister) कहा है। । उक्त उल्लेखों से यही प्रतीत होता माम्नाय के ही होकर नहीं रहे बल्कि गुणग्रहण की प्रवृत्ति है कि गोलालारे जाति में उत्पन्न यह परिवार धर्म, तथा हृदय की विशालता वा उदारता के कारण वे प्राम्ना- साहित्य एवं कला के कार्यों में जितना अनुराग रखता था येतर अन्य मनोपियों के भी थद्धालु रहे थे। इसी प्रकार राजनीति में उसी प्रकार की कुशल सूझ-बूझ भी। "सावयचरिउ" का प्राश्रयदाता भी मरवाल न होकर 'सावयचरिउ' का प्रणयन तोमरवंशी राजा कीतिसिंह गोलाराड कुलोत्पन्न कुशराज है। गोलाराड जाति के के समय मे हुमा । कीर्तिसिंह का परिचय देते हुए कवि ने उल्लेख ११-१२वी सदी के मूर्तिलेखों में पर्याप्त रूप से उसे कलिचक्रवत्ति,७ महीपति प्रधान, शत्रुरूपी हाथियों उपलब्ध है जिनसे प्रतीत होता है कि उस समय यह जाति के लिए सिंह के समान जैसे कई विशेषणों से विभूषित काफी सुशिक्षित विशाल एवं समृद्ध थी। मध्य प्रदेश, किया है । कीतिसिंह का कार्यकाल वि० सं० १५१०-३६ उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में इसकी सर्वत्र धूम थी। माना गया है १० । ग्वालियर-दुर्ग की प्रगणित जैन-मूतियों बुन्देलखण्ड का एक गोलागड कुलोत्पन्न ब्यक्ति मध्यकाल के निर्माण में अपने पिता राजा डंगरसिंह के समान ही के अन्तिम चरण में कलिंगदेश मे बम ही नहीं गया था। इनका भी बड़ा भारी हाय रहा है११ । ग्वालियर दुर्ग में अपितु वहां का एक प्रमुख मत्ताधारी व्यक्ति भी बन गया १३-१४वीं सदी से अमरण-सस्कृति, साहित्य एव कला के था। उसका वंशज आज भी वहा अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान संरक्षण की तोमरवशी राजामों की परम्परा को भी राजा रखता है। वर्तमान में उक्त जाति 'गोलालारे' के नाम से कत्तिसिंह ने अक्षुण्ण रखा था। प्रसिद्ध है तथा मध्यप्रदेश एवं उतर प्रदेश के कुछ स्थानों प्रस्तुत रचना के मूल प्रेरक श्री टेक्कणिसाह थे। में छिन्न-भिन्न रूप में ही रह गई है। कवि ने स्वयं लिखा है:मूर्तिलेखों एब रइधू के उल्लेखो से यह विदित होता प्रायमचरिउ पुराण वियाणे । टक्कणिसाहुगुणेण पहाणे॥ है कि यह जाति साहित्य एवं कला को बड़ी प्रेमी थी। पंडितच्छतेणं विणतउ। करमउलेप्पिणु वियसिय बत्त। पतिशय क्षेत्र महार२ एवं ग्वालियर दुर्ग की जैनमूर्तिया पत्ता तथा "सावयचरिउ" आदि कृतिया इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भो भो कइयणवर दुक्किय रयहर पदकात भववाहिउ सिरि। है । कवि ने अपने प्राथयदाता श्री कुशराज की पूर्व-पीढ़ियों णिसुणहि हिम्मल मणरजिय बहयण सम्बसुहायर सच्चगिरि का परिचय देते हुए उसके बड़े भाई प्रसपति साह के (सावय० ११२०१७-२०) सम्बन्ध में कहा है कि वह सघाधिप था, जिन बिम्बों की ...... । तह साबइचरिउ भणेहुन्छ । प्रतिष्ठा कराने वाला था तथा ग्वालियर दुर्ग में उसने (सावय० १॥३॥१-४) चन्द्रप्रभ जिनकी मूर्ति का निर्माण कराया था३ । कवि ने कवि ने टेक्कणिसाहु का कोई भी परिचय नही दिया पुन. प्रसपति का परिचय देते हुए उसे तत्कालीन राजा कि वे कौन एव कहां के थे? किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कीतिसिह का मंत्री भी बताया है४ एवं कुशराज कि वे एक स्वाध्यायप्रेमी एवं साहित्य रसिक सज्जनये प्रार्षिक का राज्यकुशल५ और उसके पिता श्री सेऊ शाहु को राजा दृष्टि से कुछ कमजोर होनेके कारण वे सम्भवत. सधू को डूगरसिंह का भडारी (Food and Civil Supply माश्रय न दे सके थे, मत. उन्होंने गोपगिरि के श्री कुशराज १. वही० १/३-४ २. दे.अनेकान्त १०/३-५ ३. सावय०/६२६/६-८ ४. सावय० १/४/५-६ ५. बही० १/४/8 ६. वही० ६/२५/८ ७-८. वही• १/३/१२ ९. वही०६/२५/३ १०-११. मानसिंह एवं मान कुतूहल (ग्वालियर, वि.सं. २०१०) पृ०१० Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महासपिरासायचारिक का परिचय कवि को दिया। इतना ही नहीं, वे स्वयं बहन नकधी तथा कापालिक की; द्वितीय परनी चना कुवराज को अपने साथ लेकर गये और उनके पूर्वजों तक ने सोमा एवं धूतं रुद्रदत्त को; तृतीय पत्नी विष्णुश्री ने का परिचय कवि को देकर उनसे कुशराज के निमित्त उन्ही सन्मतिमंत्री; चौथी पत्नी नागधी ने राजकुमारी मुण्डी; के माश्रय में "सावयचरित' के लिखने का प्राग्रह किया। पांचवीं पत्नी पद्मलता ने धूर्त बुडदास; छटवी पत्नी कवि भी उनके भाग्रह तथा कुशराज की विनम्र-प्रार्थना कनकलता ने समुद्रदत्त नामक व्यापारी तथा धूत राजा पर अन्य प्रणयन की तैयारी प्रारम्भ करता है। मह, एवं सातवी पत्नी विद्युल्लता ने अशोक नामक एक __ "सावयचरित" का मूल स्रोत संस्कृत भाषा निबद्ध घोडों के व्यापारी, सेठ वृषभसेन पौर एक धूतं ब्रह्मचारी सम्यक्त्व-कौमुदी है। इसमें अन्तर केवल इतना ही है कि की सुन्दर कथाएँ सम्यक्त्व प्राप्ति के संस्मरण के रूप में उक्त सम्यक्त्व-कौमुदी के प्रारम्भ में राजा उदितोदय एवं प्रस्तुत की हैं । कथानकों के माध्यम से एक मोर जहाँ राजा सुयोधन की विस्तृत कथानों के बाद मूल कथानक के धम की मोट म लखक न माया-फरवा। रूप में सेठ प्रहंदास एवं उनकी माठ रानियों में से सात घूत्तों के चरित्रों का पर्दाफाश किया है तो दूसरी मोर रानिया की कथाएँ प्रारम्भ होती हैं। रइप ने राजा सुपात्रो के चरितो के माध्यम से जीवन की समृद्धि हेतु उदितोदय एवं सुयोधन की विस्तत कथाएं न देकर मात्र सुन्दर-सुन्दर प्रादर्शो को अथित किया है । लेखक ने कापा४-६ पंक्तियों में ही उनका सामान्य नामोल्लेख करके मूल लिक का प्रसंग उपस्थित कर वालिको एवं कौलिककथानक सम्यकक्त्व-कौमुदी के समान ही प्रारम्भ किया है, सम्प्रदाय तथा बुद्धदास के माध्यम से बौद्ध सम्प्रदाय के जो निम्न प्रकार है : पाखण्डों का अच्छा भण्डाफोड़ किया है। ये कथानक ___उत्तर मथुरा के राजा उदितोदय ने कार्तिक शुक्ला सांसारिक झंझटो के दुःखो को उभाड़कर मानव को पूर्णमासी के दिन "कौमुदी महोत्सव" का प्रायोजन कर शाश्वत सुखप्राप्ति की और उन्मुग्म करते हैं, साथ ही नगरभेरी पिटवाई तथा सभी महिलामों को नगर के बाहर भौतिक जगत में रमने वाले मानव-समाज को मानवउद्यान में जाकर क्रीड़ा विनोद एवं पुरुषो को अपने-अपने मनोविज्ञान का पाठ पढाकर सहकमियो के ऊपर सहमा घरों में ही रहकर धर्मध्यान करने का कड़ा आदेश दिया। विश्वास न कर उनके अन्तरात्मा को ध्यान से परखने की अष्टान्हिका-पर्व होने के कारण सेठ प्रहंदास एव उनकी पोर पागाह भी करते है। प्रथम सात रानियों को इससे धर्मसाधन मे बड़ी बाधा प्रस्तुत कृति की छह सन्धियो में से प्रथम चार सन्धियो उत्पन्न हुई। सबसे छोटी रानी जो कि धर्म की अनुरागिणी में उक्त कथानक ही विस्तृत है । अन्तिम ५-६ सान्धया म न थी, के विरोध करने पर भी सेठ महहास ने राजा से लेखक ने श्रावक धर्म एवं ग्यारह प्रतिमानो का विशद् अनुनय-विनय कर अपने लिए तथा अपनी रानियो के लिए वर्णन किया है जिसका मूलाधार उमास्वाति वृत तत्त्वाथविशेष अवकाश ले लिया तथा अपने घर के चौत्यालय में मत्र है। ही भजन पूजनादि प्रारम्भ कर दिया। रात्रि-जागरण का व्रत सफल बनाने एवं समय व्यतीत करने के लिये इसी 'सावयचरिउ" मे एक प्रधान उल्लेख "कौमुदी महोअवसर पर सेठ प्रहंदास सर्वप्रथम अपने सम्यक्त्व-प्राप्ति त्मव३ सम्बन्धी उपलब्ध है। अपभ्रश साहित्यमे इस महोके संस्मरणस्वरूप रूपखुर चोर की कहानी अपनी रानियों त्सव का नामोल्लेख मुझे, अन्यत्र देखने को नहीं मिला। को सुनाता है, जिसे समीप ही छिपे हुए राजा मंत्री सस्कृत साहित्य को देखने में ऐमा प्रतीत होता है कि सुवणखुर चोर भी सुनते हैं। उसके बाद सबसे वही रानी भारतवर्ष मे वर्ष के दो प्रधान उत्मव थे, एक तो वमन्नमित्र श्री ने सेठ वृषभदास, उमकी पन्नी जिनदत्ता. अपनी कालीन उत्सव जो कि वमन्त ऋतु में होने के कारण "वसन्तोत्सव" के नाम से प्रसिद्ध है और दूमग था भर. १. सावय. १/४/१३-१६ २. सावय० १/५/१-८ ३. सावय०१/१० Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालोन उत्मव जो कि पारत्कालीन पूर्णमासी की रात्रि यथास्थान प्रस्तुत की है। को मनाया जाता था। यही धारत्कालीन उत्सव "कौमुदी महाकवि रइभू के साहित्य में लोकल्पानों के साथमहोत्सव" के नाम से विख्यात है। प्राचीन साहित्य से साथ लोक प्रचलित शब्दों तथा कहावतों की कमी नहीं है। अवगत होता है कि यह कौमुदी महोत्सव मगधदेश प्रमुख- प्रस्तुत "सावयचरिउ" में उसने मद्र, टक्कर, टिंह (जुए तया पाटलिपुत्र में राष्ट्रीय पर्व के रूप में प्रचलित था। का अड्डा) रसोइ, परिसिउ (परोसना) कंकड़ प्रादि नन्द एवं गुप्त कालीन साहित्य मे इसके प्रचुर उल्लेख शब्दों का प्रयोग बड़े ही ठाट के साथ किया है । इसी मिलते हैं। सम्राट अकबर का "मीनाबाजार" भी "कौमुदी प्रकार "णिय सुह पक्खालहि इमि भासियउ (अपना मुह महोत्सव" का ही सम्भवतः एक परिष्कृत एवं संशोधित धो लो तब बात करो) जैसी कई लोकोक्तियों का भी मध्यकालीन संस्करण प्रतीत होता है। पटना सिटी के प्रसंगानुकूल प्रयोग किया है। प्रक्षेत्र मे बाज भी कौमुदी महोत्सव की परम्परा किसी न बर्णन प्रसयों की दष्टि से भी "सावयचरिउ" एक किसी रूप में दृष्टिगोचर होती है। उत्तम कोटि की रचना है। उसमे सावयचरिउ की महिमा महाकवि रइधू ने "कौमुदी महोत्सव" का वर्णन करते अन्याय का फल, पुत्र महिमा, सौतियाडाह, कौलिक-सम्प्रहुए राजा के आदेश के माध्यम से कहा है कि कौमुदी- दाय, बौद्धाचार, मिट्टी भक्षण के दोष, कामान्धावस्था यात्रा के समय नगर के बाहर नन्दनवन उद्यान में रात्रि के प्रादि के वर्णन बड़े ही मार्मिक बन पड़े हैं । 'सावयचरित" समय समस्त महिलाएं क्रीड़ा करने जावेंगी। सभी मनुष्यों (श्रावक चरित) की महिमा स्वय कवि के ही शब्दों मे को चाहिए कि वे जिन भवन मे एकान्त रूप से जिनपूजादि देखिये:में रत रहे । जो कोई भी उस वन मे अपनी महिला के भणेमि समासये सावयेवितु । साथ क्रीड़ाएं करेगा अथवा क्रीड़ा करने की इच्छा करेगा, विसोहिवि किज्जहु भन्न पवित्त ॥ उसकी बोटी-बोटी काट कर फेंक दी जावेगी। मेरा राज- जहा विण चंद विहावरि किण्ण । पुत्र भी अपराधी होने पर ऐसा ही दण्ड प्राप्त करेगा: महा विणु रायह वाहिणी गिव्ह ।। सुहरमंतु बाहिर गंवणणे। जहा बलहद विहूण मुरारि। रतिहि महिलर वरता वरिषणे॥ जहा पिय संगम बज्जिय गारि ॥ विविह विणोयहि गयरिम्भंतरि। बहा विणु खंतिह उग्गतवंतु । सपलवि पर धवलहरे जिरंतरि॥ जहा विणु जुत्ता जाउ जवंतु ।। जिणु झाइम्मलु जिणु पुग्मज्ज। जहा विणु मूलहि ठाणु सुमेह । जिम बोतिजहु जिण पणविज्जह ॥ जहा विण अंत्त पसार सबेह॥ जो को वणि पइसेप्पिणु महिलहं। जहा विणु कंचण जोवण ररत। सहु कोलेसह कोलण सोलह ॥ तहा विण सण संजम हुई। सो जाउ तिल तिल खबर। सावय० १/ जह पुत्त वितो माहि समन्बर ॥ महाकवि रइधूने प्रस्तुत रचना के तीन नामों का उल्लेख सावय० २(११/३-७ किया है-(१) सावयचरिउ (२) समत्त कउमुह एवं (३) "सावयचरिउ" की एक अन्य विशेषता छन्द-वैविध्य कोमई कहा। ये सभी नाम सार्थक हैं । इनमें किसी भी की है। कवि ने वर्णन-प्रमंगों को पूर्ण भावाभिव्यक्ति के प्रकार का अन्तविरोध नहीं है । ५-६ सन्धि में श्रावक हेतु प्रसंगानुकूल मधुभारछन्द, समानिकाछन्द, विभगीछन्द चरित्र का विशद् वर्णन होने तथा प्रारम्भ में श्रावकों की भुजंगप्रयात्तछन्द एव मोतियदाम प्रभृति छन्दों का प्रयोग कथापों के वर्णन होने से "सावयचरिउ" समग्र कथामों किया है ! कवि ने कुछ छन्दों की संक्षिप्त परिभाषाएं भी एवं प्राचार वर्णन का सीधा सम्बन्ध सम्यक्त्व तथा कयामों Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तीर्थकर मूर्तिया देवगढ़ मन्दिर न० १२ (गवर्नमेन्ट पुरातत्व विभाग बिल्ली के सौजन्य से) - 5.. S Pya . . .. ... . . Jagati -PAR. 3. . MasRGAR - - .. M . ! "Sar-12 ऋषभनेव मन्दिर, पुलेव (केशरिया जी) गधावल की अम्बिका देवी और तीर्थकर मति पृ० १३० (पूरातत्व विभाग भोपाल म०प्र०के सौजन्य से) Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N कुषाणकालीन श्रीवत्स चिन्हांकित प्राचीन मूति Com . 4 मालियर का किला मध्य भारत का पुरातत्व सेवा देतो, ५०५४ Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अचलपुर के राजा श्रीपाल ईल नेमचन्द पन्नूसा जैन न्यायतीर्थ अनेकान्त की गत ८-९ किरणो में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ग्वालश्रीपुर तथा एलिचपूर (अचलपुर) के राजा श्रीपाल ईल ताको है कछु माजउपाय, योनीबमयों हिनाय। (एल) के बारे मे विवरण प्रसिद्ध हुए है । श्रीपुर पार्श्व- सो सब प्रगट बतामो हाल, तुम हो मुनिवर बीमवाल।। नाथ की प्रसिद्धि अनेक साहित्यिक उल्लेखों से ज्ञात होती मुनिहै। वैमे ईल राजा के बारे में कम ही साहित्यिक उल्लेख मिथ्यामति पार्य नहीं कोय, ताको देहबोभावकही। उपलब्ध हैं जिनसे उसके जीवन पर पूरा प्रकाश नही खालपडता । अगस्त १९६४ के अनेकान्त में ईल राजा के पहले मुहि अपनो कर लेब, ता पोछे भुमिवर करे। जीवन पर थोड़ा प्रकाश डालने की मैंने चेष्टा की तब मुनि ने उसको प्रष्ट मुल गुणों का उपदेश दिया थी। पौर वहाँ उल्लेख भी किया था कि श्रीभक्तामर मौर श्रावक की सब किया उसे समझा दी। और श्री यत्र-मत्र-कथाकोष के पृ. ६५ तथा ११७ पर श्लोक भक्तामरणी के ३०४ ३१वें काव्य तथा विधि समझा न०३९ तथा ३९ की जो कथा दी है उस पर से भी ईल दिया और कहाराजा के जीवन पर थोडा प्रकाश पड़ सकता है । देखिए डिा प्रकाश पड़ सकता ह । दालए- जाह बन्छ यह जपो तुरन्त, शासन प्रासुक एकंत । गोपाल ग्वाल को संक्षिप्त कपा-वच्छ देश में रक्त वस्त्र माल बाल, बोषिक प्राठोत्तर ला॥ श्रीपुर नाम का नगर था, वहाँ राजा रिपुपाल रहते थे, मौन सहित माशा दगम्यान, मनवचकाय विविध परवान। उनके चार गनियां थी। उनके यहा एक ग्वाल रहता पिरचितराणि विसरिमतिकाय, था, एक दिन वह ग्वाल जगल में गया और उसको परम बीसबीसे पदियो चितलाय ॥ बीतगगी मुनि महाराज के दर्शन हुए। ग्वाल ने महात्मा ग्वाल मुनिराज को नमस्कार करके चल दिया जी की बडी भक्ति-भाव से वैय्यावृत्ति की और दारिद्र और उनकी बताई हुई विधि के अनुसार पाराधना प्रारम्भ तथा दुःख का प्रकाशन करते हुए कहने लगा कर दी, जिसके प्रभाव से देवी ने प्रगट होकर कहाका सम्बन्ध कौमुदी महोत्सव के साथ होने के कारण जो मेरे शोध-प्रबन्ध का एक प्रश है । यहाँ उसका एक "समत्त कउमुई" एव ग्रन्थ मे कौमुदी महोत्सव का वर्णन मक्षिप्त रूप ही प्रस्तुत किया है। "मनेकान्त" के पृष्ठों की होने के कारण कौमुईकहा, (कौमुदी कथा) इस प्रकार ये सीमा का ध्यान रखते हुए यहाँ मूल उढरण एवं संवर्भ नाम उपयुक्त ही हैं। फिर भी इस ग्रन्थ की अधिकांश मादि भी नही दिये जा सके किन्तु वे मेरे पास सुरक्षित हैं। पुष्पिकानो में "सावयचरिउ" का नामोल्लेख ही मिलता है, समय पाने पर उनका सदुपयोग हो सकेगा । इतना अवश्य प्रतः इसका प्रमुख नाम "सावयचरित" कहा जाता है। ही कहा जा सकता है कि यदि कोई प्रकाधन संस्था इस जबकि कवि ने अपने अन्य ग्रन्थों से उसे "समत्त कउम्ह" ग्रन्थ को प्रकाशित कर सके तो महाकवि रहधू के प्रति एव "कठमुइ कह पबन्धु" के नाम से ही स्मृति किया है। उमकी एक रचनात्मक श्रद्धांजलि उपलब्ध धावक चरितो 'मावयचरिउ" का अन्यत्र कही भी उल्लेख नही। की कड़ियो में एक नवीन कड़ी का संगठन एवं साहित्य इस प्रकार उक्त रचना कई दृष्टियों से बड़ी ही महत्व- जगत को समृद्ध बनाने में उसका योगदान अभूतपूर्व सिद्ध पूर्ण है। मैंने इसका यथाशक्य विस्तृत अध्ययन किया है। होगा। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त देवी विघ्न क्षणभर में टल जाते हैं। पश्चात् सेठ देवराज ने कही गुपाल सो कारण कौन, जा कारण बैठे धरि मौन ।। सिंह के दिये हुए प्रच्छे-अच्छे गजमुक्ता वहाँ के राजा जो चाहो सो मोते लेह, पबतुन सुखसों राज करे ।। श्रीपाल की सेवा में भेंट किये और सिंह के उपद्रव का गोपाल सब हाल सुनाया। जिससे राजा और दरवार के लोगों हे माता कह जानत नाह, जो तुम पूछत हो हम पाह। पर जैन-धर्म का बड़ा प्रभाव पड़ा और सबने जैनधर्म जो जानों इतनों जस लेह, बारिख मेरो नाश करे। अंगीकार किया। इति । देवी इन दो कथामों से मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा कि इल्ली देश हरीपुर गांव, तह हरिवर्व नृपति को ठांव। श्रीपुर का गोपाल ग्वाल ही एलिचपुर (Ellichpur) का बाकी मीच निकट भई प्राय, वाका राज लेहु तुम जाय ॥ राजा ईल (एल) है। कथा न. २ मे उल्लेखित फिर क्या था गोपाल ग्वाल वही पहुँचा तो सचमुच वीरचन्द मुनिराज के समकालीन राजा श्रीपाल अन्तरिक्ष में हरीपुर नरेश की मृत्यु हो गई थी। मंत्रियों ने मतवाला पार्श्वनाथ क्षेत्र का उद्धारक या सस्थापक श्रीपाल ईल ही हाथी छोड़ रखा था। जो उसे वश मे करेगा, उसी को हो सकता है। इन्ही वीरचन्द मुनिराज के बारे मे डा. राजा बनाएगे । गोपाल ने पहुंचते ही उसका कान बकरे हीरालाल जी जैन लिखते हैं कि-काष्ठासघ को के समान पकड लिया और हरीपुर की राजगद्दी पर बैठकर उत्पत्ति से १८ वर्ष पश्चात वि. स. ६७१ में३ दक्षिण राज्य करने लगा। देश के विंध्य पर्वत के पुष्कल नामक स्थान पर वीरचन्द एक नीच कल वाला पादमी एकाएक राजा बन मनि दारा भिल्लक संघ की स्थापना हई। उन्होने अप गया यह बात पडोस-पड़ोसके छोटे-छोटे राजामो को सहन एक अलग गच्छ बनाया, प्रतिक्रमण तथा मुनिचर्या की नहीं हुई। उन्होने बड किया। तब इसने फिर से चक्रे भिन्न व्यवस्था की, तथा वर्णाचार को कोई स्थान नहीं श्वरी देवी की माराधना की और उसकी सहायता से बड दिया। इस एक उल्लेख से प्रमाणित होता है कि, नौवी शान्तकर उन सब पर प्रभुत्व जमाया। प्रादि । दसवी शताब्दी मे एक जैन मुनि ने विध्य पर्वत के भीलों कथा दूसरी-सेठ देवराज की में भी धर्म प्रचार किया और उनकी क्षमता के अनुसार श्रीपुर में एक सेठजी रहते थे, वे जवाहरात का धर्मपालन की कुछ विशेष व्यवस्था बनायी। व्यापार करते थे, उनका नाम देवराज था। उन्होने स्वामी (भा० संस्कृति मे जैनधर्म का योगदान पृ० ३२) वीरचन्द मुनिराज के पास से श्री भक्तामर का अच्छा इसका यही अर्थ है कि, उस समय अजनो को भी अभ्यास किया था।...... जैनव्रत देकर उनका उत्थान किया जाता था। इन्ही सेठ देवराज और उनके साथियों ने रत्नदीप में पहुँच वीरचन्द स्वामी के शिष्य रामसेनाचार्य के बारे मे भी कर वहाँ क्रय-विक्रय करके घर का रास्ता लिया और यही कहा जाता है कि, इन्होने वीसो प्रजैन गोत्रियों को सकुशल श्रीपुर पहुंचे। सिंह के "समागम से" मत्यू टल जैन बनाया। इसी तरह हमारे चरित्र नायक भी उत्यित गयी, यह जानकर सबने बड़ी खुशी मनाई। जिनराज की हुए हो तो बाधा नही पाती। महापूजा भावपूर्वक की और धर्म की खूब प्रभावना इसी दूसरी कथा मे-'सेठ देवराज वीरचन्द स्वामी फैलायी। वीरचन्द स्वामी की वंदना को गये और उन्हें की वंदना को गये..."गजमुक्ता 'वहाँ के राजा श्रीपाल सब समाचार सुनाया, तब मुनि महाराज ने कहा-यह तो को भेंट किये । भादि कथन है, तो निश्चित ही वह की' सामान्य बात है, थी भक्तामर जी के प्रभाव से कोटि-कोटि स्थान श्रीपुर से अलग होगा, जो ऊपर बताए मुजब इल्लि देश का एलिचपुर ही होगा । या, नही तो श्रीपाल श्रीपुर १. मृत्यु ३. यह शक संवत् है ऐसा श्री मुख्तार साहा ने सिद्ध २. यह मागे की बात दूसरे प्रति मे है। किया है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मचलपुर के राबाबीपालन ही राजा थे, ऐसा मानना पडगा। मोर इतिहास भी पौरपरसपर इनका केहो प्राण की परिभाषा में यही कहता है कि यापुर इल राजा कमषान पा हा अनेक जिले और प्रान्त का जो सम्बन्ध हैसन दिनों इन तथा गोपाल को एक लाख प्राट बार जो मंत्र जपने छोटे-छोटे राज्यों का यही संबंध होगा। को कहा था वह मत्र यह हैं-'भों उसग्गहरं पास (२) उसी प्रकार 'इल्लि देश' इस शब्द का मतमब बंदामि, कम्मिघणमुक्कं विसहरं विसणिण्णासणं मंगल. इलीचपुर (Ellichpur) जिले से होना चाहिए । यह तो कल्याण-मावासं, मो ही नमः स्वाहा।' निर्विवाद है कि इसका पौराणिक और ऐतिहासिक नाम पार्श्वनाथ+श्रीपुर+और श्रीपाल राजा का जहाँ 'प्रचलपुर' ही है। लेकिन हेमचन्द्र सूरि यह बताते है कि, त्रिवेणी संगम है ऐसा श्रीपुर अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ का अचलपुर इस शब्द में मोरल की पदला बदली होकर स्थान ही हो सकता है, ऐसी हमारी मान्यता है। ही मलचपुर यह नाम पड़ा है। प्रलचपुर के एलपुरअब देखना यह है कि पहली कथा-में उद्धत एलीचपुर, इलीचपुर प्रादि समान शब्द है। और इसी (१) बच्छ (बत्स) देश और श्रीपुर नगर कौनसा है, कारण से राजा को तब एल, एलगराय या ईल कहा (२) इल्लि देश कौनसा होगा। (३) हरिपुर गांव जाता होगा। कहां था, और (४) गोपाल राज्य पर बैठने के बाद बड एक बात तो निश्चित है कि प्रचलपुर का-प्रलच सचमुच हुमा था क्या ? आदि । पुर (प्रलेचपुर) ऐसा रूपातर बारहवीं शताब्दी के पहले (१) यहां उत्तर भारत का प्रसिद्ध वत्स देश अभिप्रेत ही हो गया था। अचलपुर यह प्रतिप्राचीन नगर होते नही है, क्योकि बत्सगुल्म-वच्छोम (माजका वाशीम हुए भी अमरावती डि० गंजेटियर में लिखा है-'Raja जिला अकोला) एक समय राजधानी थी। अतः उसके It founded Ellichpur, according to local राज्य को वच्छ या वत्स कहा हो तो बहुत सभव है। pandits'. राजा ईल ने स्थानीय विद्वानों की सलाह से वाशीम को बत्सनगर भी कहते है और अन्तरिक्ष श्रीपुर एलिचप की रचना की । एक बात ध्यान देने योग्य है वत्सनगर से सिर्फ १०,१२ मील के अन्तर पर ही है। कि एलिचपुर में ५२ पुरे याने मोहल्ले थे। उसमें भाज तथा एक यह भी गति है कि राजधानी के नाम से भी अचलपुर शहर नामक एक स्वतन्त्र भाग है। राज्य को पुकारना, जैमे-प्रवति नगरी से प्रति देश, मणिवत नगर से मणिवत देश, और भाज भी बाम्बे स्टेट, .. (३) उन ५२ पुरे में प्राज भी एक 'हिरपुरा है जो म्हैसूर स्टेट, प्रादि । 'हरीपुर' का अपभ्रंश मालूम पड़ता है। और एक बात सोनाम से ध्यान देने योग्य यह है की प्रत्येक पुरे में यहाँ थोड़ा-थोड़ा पुकारा जाता है। जिले को सस्कृत में 'मण्डल' कहते है। अन्तर है। अतः इन सब देहात जैसे स्थलों का एकीकरण बृहद्रव्य सग्रह टीका के प्रारम्भ मे हि श्रीपाल राजा को ईल राजा ने किया होगा जो युक्ति युक्त ही है। महामण्डलेश्वर जिलो का अधिकारी बतलाया है। प्रतः श्रीपुर का गोपाल ग्वाल देवी के कहे मुताबिक यह बात और है कि, पूरे विदर्भ में उस समय राष्ट्र- इस इल्लि देश के हरिपुर गांव में पाये हो तो उसमें बाधा कटो का अमल था । और अचलपुर उनकी उपराजधानी नही माती; क्योकि श्रीपुर से एलिचपुर (या हरिपुर भी थी। लेकिन इसी से ही सिद्ध होता है कि एलिचपर कहिए) का अन्तर लगभग १०० मील का ही है। प्रमगका राजा सम्राट नही सामत ही था। उसका अधिकार वती डि. गजेटियर में बताया है की, The legend of कुछ विशेष मण्डलो पर चलता था। इसीलिए ईल राजा Raja It, is that he was a Jain by religion and को अन्तिम राष्ट्रकट राजा इन्द्रराज (चतुर्थ) का सामत come from the village now known as Khanराजा ही कहा गया है । अत: यह बहुत कुछ सभव है कि, zama nagar near Wadgaon. (राजा ईल की हकीये बच्छ, इलि प्रादि मण्डल जैसे राज्य विभाग ही हो कत यह है की वे धर्म से जैन थे और बड़गांव के पास जो Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खानजमा मगर नाम का गांव है वहाँ से पाये थे)। यहाँ हि० गजेटियर में लिखा है को-उस समय उत्तर हिन्दुदोनों का प्राशय एक है कि राजा ईल ये एलिचपुर के स्तान मे वाकेड नाम का राजा राज्य करता था. जिसने खास खानदानी राजा नहीं थे। बाहर से ही वहाँ माये ईल राजा से युद्ध किया था. वह खुशी से अब्दुल रहमान पौर पाये जब न ही थे। उसमें भी विशेष यह है को मिल गया। (The Muhamadam legend says की, एलिचपुर से श्रीपुर जिस दिशा में है उसी दिशा मे that the northern India was tnen ruled by a यहबानजमा नगर है, इसका पोर एलीचपुर का फैसला raja named Vaked, who had quarrelled with सिर्फ ३-४ मील का ही है। II, gladly assisted the invadar--Abdur ____ इससे यह सिद्ध होता है कि श्रीपुर से निकलने के Rahaman.) इससे यह भी स्पष्ट होता है की ईल राजा बाद गोपाल यहाँ ठहरे थे और उन्हें यहां पता चला था के जीवन के अन्त मे जो अन्दुल रहमान से लडाई हुई, कि, वहाँ के हरिवर्ष राजा की मृत्यु हुई है, और नये उसके पहले इस वाकेड राजा का मामना उसे एकदफे राजा की शोध मे एक मतवाला हाथी छोडा है। करना ही पडा था, जिसमे ईल राजा की ही विजय हो सकता है की, खानजमा नगर में ही उन्होने हाथी हुइ था। को वश किया हो और वहा से ही वे समारोह के माथ इम मब पुरे विवेचन से यह मिद्ध होता है की ऊपर एलिचपुर पधारे हो । इसीलिए खानजमा नगर से वे प्राय दी हई भक्तामर की कथा ऐतिहासिक पौर सत्य ही है । ऐसा कहा जाता है। राज्यारोहण समय उन्होंने अपना गजेटियर लिखने वालो को इस बाबत जो ज्ञान कगया नाम श्रीपुर की याद मे 'श्रीपाल' रख लिया होगा। इसी- गया, उस मामग्री पर अगर प्रकाश पड़े तो एलिचपुर के लिए इनको 'श्रीपाल ईल' या एल या एलगराय है ऐमा श्रीपाल ईल गजा के जीवन के बारे में और भी लिखा कहते है। जा मकता है। अतः इस बाबत अधिक परिश्रम पूर्वक (४) यह बात तो स्वाभाविक है कि एक साधारण । ग्योज की आवश्यकता है। हग्विषं राजा के बारे में पादमी एकाएक राज्य करने लग जाय और पहले राजानो कोई पता नहीं चल सकता। बहुत कुछ संभव है कि, पर प्रभुत्व बताये तो पहले अन्य गजा लोग इसको महन यह इन्द्रगज (म्ब०) का कोई नियुक्त पुरुष या प्राप्त हो नहीं करेंगे । अन अन्य राजानो ने या किन्ही एक दोने हो। क्योकि गटकट घराने में वर्षान्त नाम वाले राजे बड पुकाग होगा यह बात मभवनीय हो है। अमगवती हा हा है।* सुभाषित गुणेहि साहू अगुहिऽसाहू, गिल्हाहि साहू गुण मुंच माहू । वियाणिया अप्पग अप्पएण, जो राग दोसे हि समो स पुज्जो ॥ प्रति-मनुष्य गुणो ने माधु (ग्रात्म-गाधना करने वाला) होता है, और दोषो मे प्रमाधु। अतएव सदगुणो को ग्रहण करा, और दुगुणो को छोडी । जो अपनी ही पान्मा के द्वारा अपनी आत्मा को जानता है, राग और उप मे जिसकी ममता है- उपेक्षा भाव है, वही पूज्य है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत जैन प्रबन्ध काव्यों में प्रतिपादित शिक्षा-पद्धति डा० नेमिचन्द्र शास्त्री शिक्षा समुदाय या व्यक्ति द्वारा परिचालित वह सामाजिक प्रक्रिया है जो समाज को उसके द्वारा स्वीकृत मूल्यों और मान्यताओं की घोर पर करती हैं। सास्कृतिक विरासत की उपलब्धि एव जीवन मे ज्ञान का पर्जन शिक्षा द्वारा ही होता है। जीवन समस्याओंी, प्राध्यात्मिक तस्वी की छानबीन एवं मानसिक क्षुधा की तृप्ति के साधन कला-कौशल का परिज्ञान शिक्षा द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है । भारतवर्ष मे शिक्षा का विषय ऐहिक समस्याधो के माथ क्लेशो की मात्यन्तिक निवृत्ति के लिए रवान भी रहा है। विचार और धाचार का परिष्कार, उत्कान्ति एव शाश्वतिक मुख को प्राप्त करना भी शिक्षा का कार्य मुग्व माना गया है। इसी कारण शिक्षा का वास्तविकत्लक्ष्य वैयतिक विकास माना जाता है। श्री राधाकुमुद मुकर्जी ने प्राचीन भारतीय शिक्षा पद्धति को ममालोचना करते हुए बताया है "But education is a delicate biological process of mental and moral growth which cannot be achieved by mechanical proceses, the external apparutus and machinery of an organiration As in education, so in a more marked degree in the sphere of religion and Spiritual life | अच्छी शिक्षा व्यक्ति को केवल अनुभव करना पोर मोना ही नही सिखलाती बल्कि उसे विशेष कार्य करने की प्रेरणा भी देती है । कवि वादीर्भामह ने विद्या को शिक्षाका पर्यायवाची स्वीकार करते हुए बनाया है- "अनविद्या हि दिया स्वास्नोफनावा २ अर्थात् निर्दोषच्छी 1. Ancient Indian education, Dr. RadhaKumud Mukerji Pub. Motilal Banarsidass Delhi 1960 AD Page 366. २. क्षत्राणि ३/४५ तरह परिश्रम पूर्वक अभ्यस्त विद्या ही ऐहिक भौर पार लौकिक कार्यों को सफल करती है। इस कथन का विस्तार करने पर फलितार्थ निकलता है कि जिन शिक्षा से शारी रिक, मानमिक और धात्मिक विकास होता है, वही यथार्थ में अनवद्य शिक्षा है । शिक्षा प्रारम्भ करने की आयु और विधि साधारणतः उपनचन संस्कार के पश्चात् विद्यारम्भ करने का उल्लेख मिलता है। महाकवि प्रसग ने अपने वर्द्धमान चरित में अश्वनीय ३ का विद्यारम्भ उपनयन के बाद ही करने का निर्देश किया है। धनञ्जय के द्विसन्धान काव्य ४ मे भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है । वादीर्भामह ने कुमार ओकर का विद्यारम्भ सरकार पाँच वर्ष की अवस्था में सम्पन्न होना लिखा है। विद्यारम्भ के पूर्व मिपूजन (मिद्धिपूजादि पूर्वकम् ) हवन और दानादि विधि का सम्पन्न होना श्रावश्यक माना है ।५ विद्यारम्भ सिद्धमानका खगे मे होता था। यज्जनो (वर्ण सामान्य ) उक्त स्वरो के पश्चात् क ख ग की शिक्षा प्रारम्भ होती थी । पावनाथचरित में भी कुमार रश्मिवेग का शिक्षारम्भ पाँच वर्ष की अवस्था में ही हुआ है। शिक्षारम्भ वर्णमाला ( सिद्धमातृका ) से होता है । कुमार रश्मिवेग अकेला अध्ययन नही करना है, यह समवयस्क बालको के साथ ही शिक्षक से पता या दृष्टिगोचर होता है । कवि इमी तथ्य की व्यञ्जना करता हुग्रा कहता है सम वयविनयेन तत्परो गुरूपदेशोपनतासु बुद्धिमान् । विभश्य विद्यास शिक्षन स्वह मध्यस्य गुणाः पुरस्सराः -पाद० च०४/२० मानवरित ५/२० ३. ४. मिन्धान १/२४ ५. क्षत्र चडामणि १ / ११२ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णसमाम्नाय के सीख लेने के पश्चात् रश्मिवेग समान गुरुभक्ति को विद्यार्जन में प्रावश्यक कारण माना है। पायु वाले बालकों के साथ-साथ विनयपूर्वक अध्ययन करने जो शिष्य अपने गुरु की सेवा शुश्रूषा, विनय, भक्ति और लगा। वह अपनी कुशाग्र बुद्धि के कारण समस्त विद्यानों उतकी भाज्ञा का पालन करता है। वह सभी प्रकार की में शीघ्र ही पारंगत हो गया। भव्य-प्रतिभाशाली भविष्णु विद्यानों को प्राप्त कर लेता है। व्यक्ति में गुण स्वयं ही पाकर प्रविष्ट हो जाते हैं। गुरुभक्तिः सतीमबत्य, भद्रं किवा न सापयेत् । कवि वादीसिंह के उल्लेखों से ऐसा स्पष्ट प्रतीत त्रिलोको मूल्यरत्नेन, दुर्लभः किं तुषोत्करः।। होता है कि उस समय शिक्षा का प्रारम्भ अपने घर पर या क्षत्र० २/३२ गुरु के स्थान पर होता था। वर्णज्ञान, गणितज्ञान और जिस प्रकार बहुमूल्य रत्न से भूमे का ढेर खरीदना लिपिशान तक छात्र किसी सुयोग्य गुरु से एकाकी ही शिक्षा साधारण सी बात है, उसी प्रकार निष्कपट भाव से प्राप्त करता था। जब प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही समाप्त सम्पन्न की गयी गुरुभक्ति से भी जब परस्पर या मुम्ति हो जाती थी, तब वह किसी विद्यालय या गुरुकुल में तक प्राप्त हो सकती हैं, तो अन्य लौकिक कार्यों की पूर्ति निवास कर ज्ञान की विभिन्न शाखामों की जानकारी प्राप्त होना तो तुच्छ बात है ।१ अभिप्राय यह है कि गुरुभक्ति करता था। पार्श्वनाथचरित के पूर्वोक्त सन्दर्भ से भी उक्त से शिक्षा की प्राप्ति बड़ी सरलता से होती है। तथ्य की पुष्टि हो जाती है। रश्मिवेग वर्णमाला और जो शिष्य गुरुपों का उपकार न मान उनसे द्रोह प्रारम्भिक गणित प्रादि की शिक्षा एकाकी ही प्राप्त करता है, उसके समस्त गुण नष्ट हो जाते है । जिम प्रकार करता। प्रारम्भिक शिक्षा समाप्त कर वह समवयस्कों के जड़ के बिना वृक्ष प्रादि की सत्ता नही रह सकती है, उसी माथ अध्ययन करता है, इससे यह ध्वनित होता है कि प्रकार उपचार स्मति, विनय और गुरु सेवा के बिना विद्या विद्यालय शिक्षा घर में ही आवश्यक ज्ञान प्राप्त करने के रूपी वृक्ष भी नही ठहर सकता है । गुरुद्रोह करना या गुरु पश्चात् प्रारम्भ होती थी। का अपमान करना शिक्षार्थी के लिए अत्यन्त अनुचित है। शिष्य की योग्यता और गुण गुरु विनय के समान ही शिक्षार्थी को शिक्षाकाल में शिक्षार्थी के गुण और योग्यता का निर्देश क्षत्रचूडामणि जितेन्द्रिय और संसार के विषयो की आसक्ति को छोड़कर में पाया जाता है । कवि वादीभसिंह ने लिखा है . शिक्षा सम्पादन करना चाहिए। वादिराज ने पाश्वनाथ गुरुभक्तो भवाडीतो विनीतो धामिकः सुधीः । चरित मे वज्रनाभ के विद्याध्यन का निर्देश करते हुए शान्तास्वान्तो शतन्द्रालः शिष्टः शिष्योऽयमिष्यते ॥ बताया है कि उसने अपने इन्द्रिय रूपी उन्मत्त हस्तियों को सत्र. ३१ निरकुश नहीं होने दिया। पञ्चेन्द्रियों के विषयो की पोर गुरुभक्त, संसार से अनासक्त-इन्द्रिय जयी, विनयी जाती हुई शक्ति को उसने अपनी शिक्षा साधना मे धर्मात्मा, प्रतिभाशाली, कुशाग्रबुद्धि, शान्तपरिणामी, लगाया।२ सभी प्रकार की वृत्तियों को रोक कर एक ही पालस्यरहित और सभ्यव्यक्ति ही उत्तम शिक्षार्थी लक्ष्य की पोर केन्द्रित कर दिया। शिक्षाकाल में विविध होता है। प्रकार की प्रवृत्तियाँ अधिक बाधक होती है, प्रत जो १. अथ विद्यागृह किविदासाद्य सखिमण्डितः। १. गुरुद्रुहा गुण: को वा कृतघ्नाना न नश्यति । पण्डिताविश्वविद्याया-मध्यगीष्टातिपण्डित ।। विद्यापि विद्युदामा स्या-दमूलस्य कुतः स्थितिः ।। क्षत्र० २/१ ___ क्षत्र. २१३३ जीवन्धर ने प्रारम्भिक शिक्षा के अनन्तर मित्रो के २. प्रतिबोधकचित्तदर्पमगे, बलिना तेन कृते मदोदयेऽपि । साथ किसी पाठशाला में प्रविष्ट होकर सर्वविद्या- विषया विजगाहिरे हृषीक-द्विपनार्दनं यथामत तदीयः॥ विशारद पायनन्दी गुरु से अध्ययन प्रारम्भ किया। पाश्च० बम्बई २५ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत बंग प्रवन्धकाव्यों में प्रतिपादित शिक्षा-पद्धति साधक बन कर साधना करता है, उसी को सरस्वती की उपलब्धि होती है। बहुमुखी प्रवृत्ति शिक्षा ग्रहण करने में अत्यन्त बाधक है। अतएव शिक्षार्थी मे गुरुसेवा, विनय, ब्रह्मचर्य, एकाग्रता, निरलसता एव परिश्रम इन गुणो का होना परम प्रावश्यक है । गुरु या शिक्षक की योग्यता शिक्षाथी मे गुणों का होना जिस प्रकार प्रावश्यक है, उसी प्रकार शिक्षक मे वैदुष्य, सहानुभूति प्रादि गुणो का रहना आवश्यक है। कवि वादीसह ने शिक्षक की योग्यता पर प्रकाश डालते हुए लिखा है रत्नत्रयविशुद्धः सन् पात्र स्नेही परार्थकृत् । परिपालितधर्मा हि भवान्धस्तारको गुरुः ।। क्षत्र : २।३० रत्नत्रयधारक श्रद्धावान् ज्ञानी और चरित्रवान सज्जन, शिष्य से स्नेह करने वाला, परोपकारी, धर्मरक्षक और जगतारक गुरु शिक्षक होता है। कवि बादर्भासह ने शिक्षक को विषय का पण्डित होने के साथ चरित्र गुण से विभूषित माना है जिसका चरित्र निर्मल नही, यह क्या शिक्षा देगा? ज्ञानी होने के समान ही परिनिष्ठ होना भी शिक्षक के लिए आवश्यक है। शिष्य से प्रेम करना, उसकी उन्नति की इच्छा करना, अच्छे संस्कार उसके ऊपर डालना, उसको बौद्धिक प्रात्मिक उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहना तथा सभी प्रकार से सावधानी पूर्वक विकास करना शिक्षक के कर्तव्यों में परिगणित है। संस्कृत जैन काव्यो में प्रयुक्त पात्रो के शिक्षक निर्लोभी निस्वार्थी और कर्तव्य परायण परिलक्षित होते है। पार्य नन्दी जीवन्धर कुमार को अपना इतिवृत्त सुनाते हैं और उसे ज्ञानी तथा विद्वान् बनाने के अतिरिक्त खोये हुए पिता के राज्य को पुन हस्तगत करने की विधि भी समझाते हैं। इतना ही नही कत्तव्य और अधिकारो का उद्बोधन करते हुए उसे समय को प्रतीक्षा करने का प्रादेश देते है । गुरु-शिक्षक के गुणों के सम्बन्ध में शान्तिनाथ परित में भाता है"शेपचार नागमतस्वदर्शिता" (शांति० १११२९) समस्त शास्त्र भागम पुराण और इतिहास आदि की जानकारी गुरु के लिए प्रावश्यक है । शिक्षक दो प्रकार के होते थे- प्रग्रन्थ र निन्य । १११ सग्रन्थ से तात्पर्य उन शिक्षकों से है, जो वस्त्र धारण करते थे धीर वेव-वेदांग के निष्णात विद्वान थे। गृहस्थी में निवास करते थे, जिनकी धाजीविका छात्रों द्वारा दी गयी दक्षिणा प्रथवा राजानो द्वारा दिये गये वेतन से सम्पादित होती थी। इस प्रकार के शिक्षक सपरिवार रहते थे, इनके पुत्र-पुत्री एवं पौत्रादिक भी साथ में निवास करते थे। ज्ञानी, चरित्रनिष्ठ होने के साथ छात्रों की उन्नति की कामना करना तथा उन्हें योग्य विद्वान बनाना उनका लक्ष्य था | शान्तिनाथ चरित में निबद्ध सत्यकि प्रध्यापक का प्राख्यान इस बात पर प्रकाश डालता है कि गुरु का दायित्व शिष्य का सर्वाङ्गीण विकास करना था। शिष्य भी प्रत्येक सभव उपाय द्वारा गुरु की सेवा कर अपने भीतर ज्ञान और चरित्र का विकास करता है ।१ निर्ग्रन्थ गुरु प्रारम्भपरिग्रह मे रहित होकर किसी चैव या वन मे निवास करते थे। कुछ शिष्य इनके पास रहकर तत्वज्ञान पौर ग्रागमी का अध्ययन करते थे। अध्यापन के बदले में ये किसी से कुछ भी नहीं लेते थे। शिक्षा संस्थाओं के भेद हमे काम्पों में तीन प्रकार की शिक्षा संस्थाची का निर्देश मिलता है। प्रथम प्रकार की वे सस्थाएँ थी, जो तापमियों के प्राश्रम में गुरुकुल के रूप मे वर्तमान थीं । इस प्रकार की शिक्षा सस्थाप्रां मे प्रायः ऋषिकुमार ही अध्ययन करते थे | धन्य नागरिक छात्र कम ही मध्ययन के लिए पहुंचते थे। युवक तपस्वी भी अध्ययन कर अपने ज्ञान की वृद्धि करते थे । साधना कर प्रात्म-शोधन करना ही इस प्रकार की शिक्षा संस्थाओं का उद्देश्य था । कमठ जिम प्राश्रम में पहुंचा था, वह भी इस प्रकार का प्राथम था। प्रधान ज्ञानी तपस्वी उस प्राश्रम का कुलपति होता था । अध्ययन करने पर भी यह पता नही चलता है कि इस प्रकार के गुरुकुलों में कितने अध्यापक होते थे मौर कितने पियो का प्रध्यापन किया जाता था |१ १. शान्तिनाथचरित मुनिभट मूरि, प्र० चन्द्र धर्मादय प्रेम, बनारस, की० मि० २४३७, सर्ग १ प्लां० १११-१६० २. पार्श्वनाथचरित द्वितीय सर्ग 3 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ मनकान्त दूसरे प्रकार की वे शिक्षा संस्थाएं हैं जो पाठशाला के " नजन:"२ पद विचारणीय है, क्योंकि कपिल की रूप में चलती थी, जिनमें एक से अधिक अध्यापक नही परीक्षा, पाठनशैली, ग्रहातिप्रायविज्ञान छात्रो और शिक्षकों होते थे। प्रत्येक पाठशाला में एक ही प्रध्यापक रहता था। में से किसे मुग्ध नहीं कर रहा था। इससे यह सकेत सहज वह सामान्य रूप से लिपिज्ञान, गणितज्ञान एवं भाषा मादि मे उपलब्ध होता है कि सत्यकि के विद्यालय में अध्यापको का बोध कराता धानकोई-कोई शिक्षक अन्य विषयो का की संख्या अधिक थी। ज्ञान भी.कराता था। क्षत्रपूडामणि से यह भी ज्ञात होता है कि राजा-महाराजाओं तीसरे प्रकार को वे शिक्षा संस्थाएं थी, जिनका रूप के बालक अपने यहा ही गुणी शिक्षक को रखकर प्रध्ययन माजकल के वालेजों के समान था; जिनमे प्रत्येक विषय करते थे। हेमाभ नगरी के निकट दृढमित्र राजा के पत्र के लिए पृथक प्रध्यापक रहते थे। इस प्रकार की शिक्षा- सुमित्र प्रादि ने जीवन्धर कुमार को धनुर्विद्या सैनिक शिक्षा सस्थाएं किसी महान विद्वान द्वारा संचालित होती थी। के लिए शिक्षक नियत किया था । राजा ने जीवन्धरकुमार शान्तिनाथचरित में वणित कपिल जिस सत्यकि के विद्यालय में शिक्षक पद ग्रहण करने की प्रार्थना की थी। में पहुंचा था, उसमे कई अध्यापक थे और अनेक विषयो सुतविद्यार्थमत्यर्थ पार्थिवस्तमयाचत । का प्रध्यापन होता था। कवि कहता है पाराषनकसम्पाचा विद्या न हान्यसाधना।। प्रवापबध्यापकपुर्यसत्पकमळं पठाछाकुल: समाकुलम् । क्षत्र०७४ प्रलममध्यंजनराशिवनः सरस्वतीसन्ततिशालिमिवृतम्॥ गुरु की सेवा शुश्रुषा से ही विद्या की प्राप्ति होती है। शा० १११११ अन्य प्रकार से नहीं। प्रतएव दृढमित्र राजा ने अपने राजकदाचिध्यापकजोवतंश्वराप्रतीतमाप्ताकिल जम्बुकाऽऽयया कुमारी को शिक्षित बनाने के लिए विद्वान जीवन्धर से रहःपति प्राह विचारचातुरी विरञ्चिकन्या कमनीय कान्तिभूत विनय पर्वक प्रार्थना की। वही १११२० जीवन्धर कुमार ने भी निष्कपट भाव में राजकुमारों सत्यकि के मठ-विद्यालय में अनेक छात्र और कई को शिक्षा दी और राजकुमार भी विनय पूर्वक अध्ययन अध्यापक रहते थे। सत्यकि कुलपति था और जम्बुक नाम करते रहे। फलत.वे कुछ ही दिनों में गुरु के समान ही का शिक्षक उम संस्था का प्राचार्य था। 'प्रध्यापकजीवते. विद्वान हो गये। श्वग' पद जम्बुक को प्राचार्य होने के कारण ही सत्यकि प्रश्रयेण बभूवस्ते, प्रत्यक्षाचार्यरुपकाः । के अधिक निकट था। हमी कारण उसका साहस कपिल विनयः खलु विद्यानां दोग्ध्री सुरभिरजसा ।। के साथ कुलपति की पुत्री मत्यभामा का विवाह करा देने क्षत्र ७७७ का हुमा । यथा जिस प्रकार कामधेनु इच्छित मनोरथो को पूर्ण करती विचार्य चाध्यापक एव जम्बुकावचो है, उसी प्रकार गुरु की सच्ची सेवा-सुश्रूपा पौर विनय मनोहारि तदाऽऽयतो हितम् । करने से इच्छित विद्या की प्राप्ति होती है प्रतएव वे राजव्यवाहयतां कपिलेत कम्पका कुमार गुरु जीवन्धर की मच्ची सेवा करने से साक्षात् गुरु महोत्सवात् कोविववर्णनातिगात् ॥ के समान हो गये। शा० ११२३ उक्त बर्णन से स्पष्ट है कि शिक्षा के लिए घर पर कपिल की अध्यापन शैली, विषय का पाण्डिन्य, शिक्षक को रखकर शिक्षा दिलाना, भी एक चौथी शिक्षा ज्योतिष, निमित्त प्रादि का परिज्ञान समस्त व्यक्तियो को सस्था जैसी ही वस्तु है। पर यह राजा-महाराजा या मेठपाश्चर्यचकित कर रहा था। इस सन्दर्भ में पाया हुमा हुमा २. तनूभुवा पाठनिमित्तकारणाद् ग्रहातिचारादिविभोधनादपि नवोनजामातृतया च सत्यकेरिपूजि भत्या कपिलो न कंजन १. प्रत्रचूडामणि २१ मुनिभद्रका शान्तिनाथचरित २१२७ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सस्कृत अंग प्रबन्ध काव्यों में प्रतिपारित शिक्षा-परति ११. साहूकारो के यहाँ कुछ ही दिनो तक रहती थी। शिक्षक मष्टावश लिपिनायो, दर्शयामास पाणिना। से मनमुटाव होने पर या शिक्षा के ममाप्त हो जाने पर अपसम्पन समारया ज्योतिरूपा खिता। किसी से शिक्षक के ही रुष्ट होकर चले जाने पर प्रध्ययन वही ११ क्रम टूट जाता था। ७२ कलामों की शिक्षा भरत को प्राप्त हुई। गजसुयोग्य माता-पिता भी अपने बच्चो को स्वयं शिक्षा लक्षण, प्रश्वलक्षण, स्त्रीलक्षण, पुरुषलक्षण प्रादि की शिक्षा देने थे। ग्रादिदेव ऋषभ ने अपने पुत्र भरन, बाहदली एव पाहवाल का पार गाणत तथा अठारह प्रका कन्यायो को स्वथ ही उनकी बुद्धि और प्रतिभा के अनुमार ' , की शिक्षा ब्राह्मी को प्राप्त हुई। शिक्षा दी थी। पमानन्दकाव्य में भी भरत को बहत्तर कलानों की शिक्षा प्राप्त होने का निर्देश है। ये कलाएं निम्न प्रकार पाठ्यक्रम और शिक्षा के विषय काव्य-ग्रन्थो में पाठ्य ग्रन्थो के विषय में एकरूपता नही , १ लेख-सुन्दर और स्पष्ट लिपि लिखना तथा मिलती है और न पात्रो के अध्ययन का क्रम ही एक रूप प प ने भाव और विचारो sasaram में उपलब्ध है। अतः शिक्षा के विपयो पर क्रमबद्ध रूप में लेखा प्रकाश डालना कुछ कठिन सा है। पाश्वनाथचरित मे २. गणित-प्रकगणित, बीजगणित और रेखागणित वजनाभ की शिक्षा का निर्देश करते हुए दो प्रकार की कार शिक्षा बतलायी गयी है-शस्त्र और शास्त्र । शास्त्रविद्या ३. रूप-चित्रकला का ज्ञान-इस कला में पूलि. में सर्वप्रथम व्याकरण के अध्ययन का जिक्र किया है चित्र मादृश्यचित्र और रस चित्र से तीन प्रकार के त्रि गुण और वृद्धि सज्ञा से सहित, श्रेष्ट सन्धिज्ञायक सूत्रो से पाते है। प्रथित और भाषा को सीखने मे कारण व्याकरण का ४. नाट्य-नाटक लिखने और खेलने की कला । अध्ययन किया१" शत्रुञ्जय काव्य मे शास्त्रविद्या के इम कला मे सुरताल प्रादि की गति के अनुमार अनेक विध अन्तर्गत वेद, वेदाग कौटिल्य का अर्थशास्त्र एवं काव्यकला नृत्य के प्रकार सिम्बलाये जाते है। आदि की गणना की है । इमी काव्य में ऋषभदेव अपने ५ गीत-किस समय कौन सा स्वर अलापना चाहिए, पुत्र और पुत्रियों को निम्नलिखित विषयो को शिक्षा देने अमुक स्वर को अमुक समय पर अलापने मे क्या प्रभाव हुए दृष्टिगोचर होते है। पडता है? इन ममस्त विषयों की जानकारी परिगणित मध्यजीगपदीशोऽपि, भरतं ज्येष्ठनन्दनम् । द्वासप्ततिकलाकाडं, सोऽपिबन्धन्निजान्परान् ।। ६. वादित-मगीत के स्वरभेद और ताल प्रादि के शत्रु ३।१२६ अनुसार वाधकला का परिज्ञान । लमणानि गजाश्वस्त्रीपुंसामोशस्वपाठयस् । ७ पुष्करगत-बांसुरी पोर मेरी प्रादिके वादन की सुतं च बाहुबलिनं सुन्दरों गणितं तथा।। कला। वही ३३१३०५. स्वग्गत-पड़ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, धवन और निषाद का परिज्ञान । १ गुणवत्पतिपन्न साधुसन्धिं प्रथमोदीरित वृद्धिभावंशुखम।। १. समताल--वाद्यों के अनुसार हाप था परो की प्रथत. पितुराज्ञयाध्यगीष्ठ स्वसम व्याकरण सवत्तचौलः॥ पाव ५४ पात का साधना। २. वेदवेदाङ्गविज्ञानन् कौटिल्यकुशला कलाम् । १०. घृत-जुवा खेलने की कला। प्राचीनकाल में मोऽयंते कार्यतो लोक. कन्दमूलफलाम्बुभुक् ॥ १. प्राविमं वयधिकसप्तति कला........... पदमानन्द, शत्रु० १३३४५२ बड़ौदा, सन् १९३२ ई., १०७६ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११॥ भनेकाल जुवा को मनोविनोद का साधन माना गया है, अतः इसकी अवगुणों की पहचान । गणना कलापों में होती है। २६. पुरुषलक्षण-पुरुषों की जाति और उनके गुण११. जनवाद-मनुष्य के शरीर, रहन-सहन बात- अवगुणों की पहचान । चीत, खान-पान मादि के द्वारा उसका परीक्षण करना कि ३०. हयलक्षण-घोड़ों की परीक्षा तथा उनके शुभायह किस प्रकृति का है और किस पद या किस कार्य के शुभ लक्षणों का परिज्ञान । लिए उपयुक्त है। ३१ गजलक्षण-हाथियों की जातियों तथा उनके १२. प्रोक्षत्व वाद्य विशेष की कला । शुभाशुभ की जानकारी। १३. अर्थपद-प्रर्थशास्त्र की जानकारी। इसके अन्त- ३२ गोलक्षण-गायों की जानकारी। गंत रत्नपरीक्षा और धातुबाद ये दोनों ही सम्मिलित हैं। ३३. कर्कटलक्षण-मुगों की पहचान और उनके शुभा १४. दकमृत्तिका जलवाली मिट्टी का परीक्षण किस शुभ लक्षणों का परिज्ञान । स्थान में जल है और किस स्थान में नहीं, यह मिट्टी के ३४. मेढ़लक्षण-मेढ़े की पहचान और शुभाशुभ परीक्षण से अवगत कर लेना। लक्षणों का परिज्ञान । १५. अन्नविधि-भोजन निर्माण करने की कला, ३५. चक्रलक्षण-चक्र परीक्षा और चक्र सम्बन्धी विविध प्रकार के खाद्यों को तैयार करना, इस कला का शुभाशुभ ज्ञान । उद्देश्य है। ३६. छत्रलक्षण-छत्र परीक्षा और छत्र सम्बन्धी १६. पानविधि-शरवत, चाय, पानक मादि विभिन्न शुभाशुभ ज्ञान । प्रकार के पेय पदार्थ तैयार करने की कला। ३७. दण्डलक्षण-दण्ड परीक्षा और दण्ड सम्बन्धी १७. वस्त्रविधि-वस्त्र निर्माण की कला। शुभाशुभ ज्ञान। १८. शयनविधि-शय्या निर्माण तथा शयन सम्बन्धी ३८. असिलक्षण-असि परीक्षा और प्रसि सम्बन्धी अन्य प्रावश्यक बातों की जानकारी। शुभाशुभ ज्ञान । १६. प्रार्या-प्रार्या छन्द के विविध रूपो की जान- ३९. मणिलक्षण-मणि, हीरा, रत्न. मुक्ता प्रादि की कारी। परीक्षा। २०. प्रहेलिका-पहेली बूझने की योग्यता। ४०. काकिणी लक्षण-सिक्को की जानकारी। २१. मागधिका~मागणी भाषा और साहित्य की ४१. चर्मलक्षण-चर्म की परीक्षा करने की जानजानकारी। कारी। २२. गाथा-गाथा लिखना और समझना । ४२. चन्द्रचरित-चन्द्रमा की गति, विमान एव अन्य २३. श्लोक-इलोक रचना करना और समझना। तविषयक जानकारी। २४. गन्धयुक्ति-इत्र, केसर, कस्तूरी मादि मुगन्धित ४३. सूर्यचरित-सूर्य की गति, विमान एव अन्य पदार्थों की पहचान और उनके गुगदोषों का परिज्ञान । तद्विषयक जानकारी। २५ मधुसिक्थ- मोम या पालता बनाने की विधि ४४. राहुचरित-राहु ग्रह सम्बन्धी जानकारी । की जानकारी। ४५. ग्रहचरित-अन्य समस्त ग्रहो की गति, प्रादि २६. पाभरणविधि-माभूषण निर्माण और धारण का ज्ञान। करने की कला । ४५. सौभाग्यकर-सौभाग्य सूचक लक्षणों की जान२७. तरुणपरिकर्म-पन्य व्यक्तियों को प्रसन्न करने कारी। की कला। ४७. दौर्भाग्यकर-दुर्भाग्य सूचक चिह्नों को जान२८. स्त्रीलक्षण-नारियों की जाति और उनके गुण कारी। Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संतत बंग प्रबन्ध काव्यों में प्रतिपादित शिक्षा-पहति ४८. विद्यामत-शास्त्रज्ञान प्राप्त करना। की जानकारी एवं पातुबह का ज्ञान । ४६. मन्त्रगत-दैहिक, दैविक और भौतिक पदार्थों ६८. बाहु युट, दण्डयुद्ध, मुष्टियुट अस्थियुर एवं को दूर करने के लिए मन्त्रविधि का परिज्ञान । मुखातियुद्ध की कला। ५०. रहस्यगत-जादू, टोने और टोटका का परि- ६६. सूत्रखेल, नासिकाखेल, वृत्तवेल, मेवेल एवं शान। चमखेल प्रादि का कलात्मक परिमान । ५१. सभव-प्रसूति विज्ञान । ७०. पत्रच्छेद, कटकम्छेद एवं प्रतरच्छेद की कला। ५२. चार--तेज गमन करने की कला । ७१. सजीव और निर्जीव-मृत या मृततुल्य व्यक्ति ५३. प्रतिचार-रांगी की सेवा सुश्रुषा करने की को जीवित करने की कला तथा यम मादि के द्वारा कला। मरणकला का ज्ञान । ५४. व्यूह-व्यूह रचना की कला । युद्ध करते समय ७२. शकुनरुत-पक्षियो की भावाज द्वारा शुभाशुभ सेना को कई भागो मे विभक्त कर दुर्लध्य भाग मे स्थापित का परिज्ञान। करने की कला। पठारह प्रकार की लिपियों की शिक्षा भी पाठ्यक्रम ५५. प्रतिव्यूह-शत्रु के द्वारा व्यूह रचना करने पर मे सम्मिलित है। इन लिपियों के नाम निम्न प्रकार हैं:उसके प्रत्युत्तर मे प्रतिव्यूह रचने की कला । [१] ब्राह्मी, [२] यवनालिका, [३] दोषोरिका, ५६. स्कन्धावार निवेशन-छावनियां बसने की कला, [४] खरोष्ट्रिका, [५] खरशाविका, [६] प्रहरात्रिता, मेना को रसद आदि भेजने का प्रबन्ध कहाँ और कैसे [७] उच्चतरिका, [+] अक्षरपृष्टिका, [१] भोगवतिका, करना चाहिए, आदि का परिज्ञान । [१०] वेनतिका, [११] निलविका, [१२] अलिपि, [१३] गणितलिपि, [१४] गान्धर्वलिपि, [१५] प्रादर्श५७. नगरनिवेशन-नगर बसाने की कला। लिपि, [१६] माहेश्वरीलिपि, [१७] दामिलिपि और ५८. स्कन्धवारमान-छावनी के प्रमाण-लम्बाई, [१०] बोलिन्दिलिपि । चौड़ाई एव अन्य विषयक मान की जानकारी। __शास्त्र अध्ययन में वेदवेदाङ्ग, न्याय, सांस्य के साथ ५६. नगरमान-नगर का प्रमाण जानने की कला। जैनवाङ्मय का अध्ययन भी लिया जाता था। पारर्वनाथ६०. वास्तुमान-भवन प्रासाद और गृह के प्रमाण को जानने की कला । चरित मे बताया गया है कि भूताचल पर जो तापस पाश्रम था, उसमे वेदवेदाङ्ग का अध्ययन कराया जाता था। ६१. वास्तुनिवेशन-भवन, प्रासाद और गृह बनाने "द्विज छात्र जिस समय अपने वेदों का अध्ययन समाप्त की कला। कर चुकते हैं, तो उन्हें वहाँ के पिंजरो में बैठे हुए होता ६२. इध्वस्त्र-बाण प्रयोग करने की कला । और मैना उनकी बोली का कर्णप्रिय मिष्ठ भाषा मे मनु६३. सहप्रवाद-असिशास्त्र का परिज्ञान । ६४. अश्वशिक्षा-प्रश्व को शिक्षा देने की कला वाद करते सुनायी पड़ते हैं।"१ प्रद्युम्नचरित के "वेदनानाप्रकार की चालें सिखलाना। विद'षडङ्गमन्त्रार्थ", (प्र. ९।२०३) से भी उक्त तथ्य पुष्ट होता है। ६५ हस्तिशिक्षा-हाथी को शिक्षित करने की कला। ___ "सुधीरधीयन् परमागम" (पाश्व.४४०) द्वारा ६६. धनुर्वेद-धनुविद्या की जानकारी। ६७. हिरण्वाद (हिरण्यपाक)-चांदी के विविध परमागम-द्वादशाङ्ग जैन वाङ्मय के अध्ययन पर प्रकाश प्रयोग और उसके रूपों को जानने की कला । पड़ता है। सामान्यतः शिक्षा का पाठ्यक्रम कला पौर सुवर्णवाद (सुवर्णपाक)-सोने के विविध प्रयोग और १. द्विजैरहस्याध्ययनस्य पश्चादनन्तर पंजरवासितानाम् । उसको जानने की कला। यत्रानुवादः शुकशारिकाणामाकर्ण्यते कर्णरसायनश्रीः । मणिवाद (मणिपाक)-मणि सम्बन्धी विविध प्रयोगों पार्व. २७७ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त विज्ञान में परिसमाप्त था। "कलाकलाप सकल समग्रहीत् मे शून्य होते हैं। कुशाग्रबुद्धिः कुशली स लीलमा" (शान्सिनाथचरित ९।२५६ विधा और विद्वान को महिमा से भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। जो विद्वान हैं और जिसने शस्त्र एव शास्त्र की शिक्षा अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा के सम्बन्ध में बताया गया है२ प्राप्त की है वह लोकद्वय पूज्य है। विद्याधन मर्वोत्तम है-- कि राजकुमारों को [१] चक्र, [२] धनुष, [३] बज्र, विद्याहि विद्यमाने यं वितीर्णापि प्रकृष्यते । [४] खड्ग, [५] क्षुरिका, [६] तोमर, [७] कुन्त, नकृष्यते च चौराद्यः पुण्यत्येवमनीषितम् ॥ त्रिशूल, [८] शक्ति, ]] परशु, [१०] मक्षिका, [११] शत्र. २०२५ भल्लि, [१२] भिन्दिपाल, [१३] मुष्टि, [१४] लुण्ठि, दिद्याधन का प्रभाव अचिन्न्य है । व्यय करने पर भी [१५] शंख, [१६] पाश [१७] पदिश, [१८] ऋष्टि. इमकी वृद्धि ही होती है । चोर तथा बन्धु प्रादि के द्वारा 1181 कणय, [२०] कम्पन, [२१] हल, [२२मुसल, यह धन छीना नहीं जा सकता और इच्छा पूर्ति करने में [२३] गुलिका, [२४] कर्तरि, [२५] करपत्र, [२६] तलवार, [२७] कुद्दाल, [२८] दुस्फोट, [२६] गोकणि, बैदुष्येण हि वश्यत्वं वैभवं सदुपास्यता। [३०] डाह, ]३१] डच्चूस, [३२] मुग्दर, [३३] गदा, सदस्यतालभक्तेन विद्वान्सर्वत्र पूज्यते। [३४] धन, [३५] करपत्र मोर [३६] करवालिका क्षत्र०२२२६ भुगाली की शिक्षा अपेक्षित थी। राजकुमारो को अश्व विद्वाना मे मनुष्य को कुलीनता, धनसम्पत्ति, मान्यता संचालन, पागम, युद्धनीति एवं राजनीति की शिक्षा प्राव और सम्यक्त्व आदि ही प्राप्त नही होते, किन्तु मर्वत्र श्यक थी। उनको साम, दाम, दण्ड, भेद, नीति की भी ममादर भी प्राप्त होता है। शिक्षा दी जाती थी। काव्यो के प्राय. समस्त राजपुत्र, राजनीति और रणनीति में प्रवीण परिलक्षित होते हैं। वपश्चित्यं हि जीवानामाजीवितमनिन्दितम् । शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य "हेयोपादेयविज्ञान नोचेद अपवर्गऽपि मार्गोऽय-मदः क्षीरमिवौषधम् ।। व्यर्थः श्रम श्रुतो" (क्षत्रचडामणि २।४४) हेयोगदेयज्ञान क्षत्र० २।२७ कर्तव्य-प्रकर्तव्य की जानकारी प्राप्त करना है, यदि यो- विद्वत्ता मनुष्य के लिए जीवन पर्यन्त प्रतिष्ठाजनक पादेय हिनाहितकारी वस्तुप्रो को ग्रहण करना और छोडना होती है और जिस प्रकार दूध पौष्टिक होने के साथ-साथ यह ज्ञान प्राप्त न हुआ तो शिक्षा प्राप्त करने में किया प्रौषधिरूप भी है, उमी प्रकार विद्वता भी लौकिक प्रयोजन गया परिश्रम व्यथं है। पाठ्यक्रम में अनेक विषयो के रहने माधक होती हुई मोक्ष का कारण बनती है । पर भी व्याकरण जान मावश्यक माना गया है । कवि नारी शिक्षा धनजय ने अपने दिमन्धान काव्य में लिखा है-- पदमानन्द काव्य में वर्णित ऋषभदेव आख्यान में पबप्रयोगे निपुणं विनामे सन्यो विसर्गे च कृतावधानम् ।। बताया गया है कि पुत्रो के ममान ही ऋपभदेव न ब्राह्मी सर्वेष शास्त्रंए जितश्रम तच्चापेऽपि न व्याकरण मुमोच ।। और सुन्दरी नाम को अपना कन्यानो को शिक्षा दी थी। क्षत्रचुडामरिण में पाया है कि गुणमाला ने जीवन्धर के शाद और धानुप्रो के प्रयोग में निपुणता, पवण-वकरण, सान्च तथा विमगं करने में न चूकने वाला पाम प्रेम-पत्र भेजा था तथा प्रत्युत्तर मे जीवन्धर ने भी समस्त शास्त्री के परिश्रमपूर्वक मध्येता व्यक्ति भी व्याकरण प्रेमपत्र लिखा था, जिसे पढकर वह बहुत प्रमन्न हुई थी३ । के अध्ययन के प्रभाव मे विषय और भाषा दोनो के ज्ञान शान्तिनाथचरित मे वणित मत्यकि की पुत्री सत्यभामा भी १. पद्मानन्द ४१२२ ३. ममुदे गुणमालापि, दृष्टवा पत्रेण पत्रिणम् । २. अश्वशिक्षागमाभ्यास कुशल तं महीपतिम्- बर्द्धमान स्वस्यव मफलो यत्न' प्रीतये हि विशेषतः ।। कवि विरचित, वगगचरित, ५२८ . क्षत्र.४१४३ पिता Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मासयोग विदुषी है। उसने धनेक शास्त्रों का पध्ययन किया है। प्रत्येक तीर्थकर की माता देवियों के प्रश्नों का उत्तर देती है । ममस्यापूर्ति करती है और पहेलियाँ भी बूझती हैं । अतः इस प्रकार का ज्ञान वैदुष्य के बिना सम्भव नही है २ । स्पष्ट है कि नारी शिक्षा का प्रचार सस्कृत काव्यों के समय मे था । १२. शान्तिनाथ चरित वाराणमी, वि० नि० सं० २४३० २. अथ स्वपुत्री कनकचिय दिया रुपापिनाम्नापि ममायं नृपः तदेव ताभ्यामबलागुणोज्जवला १।१२१-२२ प्रमोद नाटक मार शिक्षणं ॥ शान्तिनाथ चरित, वाराणसी, बी०नि० ० २४३७ २०७१ २. वीरनन्दीकृत चन्द्रप्रभ चरित, बम्बई १६।७० धर्मशर्माभ्युदय, बम्बई] सन १६३० ई० पञ्चम सर्ग प्रमय कविकृत व मान चरित, सोलापूर १७१३२-६० चातुर्मास योग पं० मिलापचन्द कटारिया इस विषय मे प० मासावरजी ने धनगारधर्मामृत अध्याय में इस प्रकार लिखा है ततश्चतुर्दशीपूर्वरात्रे सिद्धमुनिस्तुती । चतुर्वेद परीत्यात्यादत्यभवती स्तुतिम् ॥ ६६॥ शान्तिभक्तियोस्तु गृह्यताम् । कृष्णचतुर्वश्या पाचाद्रात्रौ च मुच्यताम् ॥६७॥ अर्थ-उसके बाद प्रपाद मुक्ता चतुर्दशी को रात्रि के प्रथम पहर में मिद्ध भक्ति और योग भक्ति करके चारों दिशाओ मे प्रदक्षिणा पूर्वक एक-एक दिशा मे सपुचैन्यभक्ति पढते हुए तथा पचगुरुभक्ति धौर मातिभक्ति पढ़ते हुए वर्षायोग ग्रहण करे । और इस विधि मे कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के चौथे पहर मे वर्षा योग को समाप्त करे | ११० दमितार अपनी पुत्री कनकधो की मृत्य संगीत की शिक्षा के लिए किराती एव बावरी के वेषधारी धनन्तवीर्य को सौंपता है। इससे स्पष्ट है कि नारी शिक्षा में नृत्य श्रौर मंगीत की शिक्षा मुख्य श्री ३ । मांस वासोऽपर्वत्र योगक्षेत्र व्रजेत्। मार्ग ती पावशादपि न संयंत् ॥ नभश्चतुर्थी तथाने कृष्ण पंचमीम् । याग करेत् ॥६६॥ युग्मम् अर्थ - चतुर्मास के पलावा हेमतादि ऋतुमो मे मुनि लोग एक स्थान में एक मास तक ठहर सकते है । प्राषाढ़ मास मे श्रमण संघ वर्षायोग स्थान का चला जाये और मन का महीना बोनने ही वर्षायोग स्थान को छोड़ दे । यदि प्रापाठ के महीने में वर्षायोग स्थान में न पहुँच मके तो कारणवश भी श्रावणकृष्णा चतुर्थी का उच न करें। अर्थात् जहाँ चातुर्मास करना ही उस स्थान में मावरण कृष्णा चौथ तक अवश्य २ पहुँच जाये । तथा कार्तिक शुक्ला पथमी के पहिले प्रयोजनवा भी वर्षायोग स्थान को न छोडे । वर्षायोग के ग्रहण विसर्जन का जो समय यहाँ बताया गया है उसका दुनिवार उपसर्गादि के कारण यदि उल्लघन करना पड़े तो उसका प्रायश्चित लेवे । योगतिको सिद्धनिर्वाणान्तयः । प्रत्या बोरनिर्वाण इत्यादिना ॥७०॥ अर्थ- कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि के पौधे पहर मे वर्षायोग का निष्ठापन किया जाता है। जैसा कि Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११५ अनेकान ऊपर लिखा है। यही समय भगवान् महावीर के निर्वारण का मा जाता है। इसलिए वर्षायोग के निष्ठापन के धनन्तर सूर्योदय हो जाने पर वीर निर्माण क्रिया करे । उसमें सिद्धभक्ति निर्वाणमक्ति गुरुभक्ति पर शातिभक्ति करे। इसके बाद नित्यवंदना करे। आशाघर के इस कथन से प्रगट होता है कि- वर्षा - योग समाप्ति का किया विधान तो कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के पिछले भाग में ही कर लिया जाता है। परम्तु उसके अनन्तर ही उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र विहार नही किया जाता है। कम से कम कार्तिक शुक्ला ५ तक तो उसी स्थान मे रहना श्रावश्यक बनाया है। इससे पहिले तो मुनिजन कदाचित् भी वहाँ से बिहार नहीं कर सकते हैं । और अधिक से अधिक मगसिर मास की समाप्ति तक भी उस स्थान को नही छोडने को कहा है। मूलाधारासाराधिकार गाथा १८ की टीका मे दश प्रकार के श्रम कल्प का वर्णन करते हुए मास नाम के वे कल्प का कथन इस प्रकार किया है "मास योगग्रहणात् प्राड्मासमात्रमवस्थान कृत्या बर्षाका योगो ग्राह्यस्तथा योग समाप्य मासमात्रमवस्थान कर्तव्य | लोकस्थिति ज्ञापनार्थमहिसादितपरिपालनार्थ च योगात्प्रामासमात्रमवस्थान, पश्चाच्च मासमात्रमवस्थान श्रावक लोकादिसक्लेशपरिहरणाय । प्रथवा ऋतो २ मासमासमात्र स्थातव्य मासमात्रं च विहरण कर्तव्यमिति मास भ्रमणकल्पोऽथवा वर्षाकाले योगग्रहण चतुर्षु चतुर्षु मासेषु मदीश्वरकरण च मासश्रमणकल्प. ।" जिस स्थान मे वर्षायोग ग्रहण करना है उस स्थान में वर्षाकाल से एक मास पहले ही उपस्थित होकर वर्षायोग ग्रहण करना और वर्षायोग की समाप्ति हो जाने पर भी एक मास भर वही ठहरे रहना इसे मास कल्प कहते है। वहाँ के लोगो की परिस्थिति को जानने के लिए धौर महिसादि व्रतों की पालना के लिए उस स्थान में वर्षायोग से एक मारा पूर्व ही चले जाते है और । भावक लोक धाfदकों को संक्लेश न होने देने के लिए वर्षायोग की समाप्ति के बाद भी एक मास तक वहाँ ठहरे रहते है । घथवा प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक एक जगह ठहरे रहना और एक-एक मास तक बिहार करते रहना इसे भी मास नाम का धमरणकल्प कहते हैं अथवा वर्षाकाल मे वर्षा योग ग्रहण करना और बार-बार महीने में नंदीश्वर करना यानी घाटाहिक पर्व के दिन तक एक जगह ठहरे रहना यह भी मास श्रमगकल्प कहलाता है । भगवती श्राराधना गाथा ४२१ की मूलाराधना टीका में पं० माशाधर जी ने इस प्रकरण को विजोदया टीका से उद्धृत करते हुए निम्न प्रकार लिखा है 1 "प्रावृट्काले मासचतुष्टयमेकत्रावस्थान । स्थावर जगजीवाकुना हि तदा नितिरिति तदा भ्रमणे महान सयमः" "इतिविशत्यधिकदिवसात एकत्रावस्थानमित्यय उत्सर्गः कारणापेक्षा तु हीनमधिक वावस्थानं । सयतानामाषाढ शुक्लदम्याः प्रमृति स्थितानामुपरिष्टाच्य कार्तिक पौणिमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थान | .....एकत्रेत्युत्कृष्ट. काल । मार्यां दुर्भिक्षे ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमितं समुपस्थिते देशातर याति । अवस्थाने सति रत्नत्रय विराधना भविष्यति इति पौर्णमास्यामाषाढयामतिऋताया प्रतिपदादिषु दिनेषु याववत्वारो दिवसा एतदपेक्ष्य होनता कालस्य । एष दशम स्थितिकल्पो व्याख्यातः टीकायां । टिप्पन के तु द्वाम्या द्वाभ्या मासाभ्या निषद्यका द्रष्टव्येति ।" ......... अर्थ- वर्षा काल मे मुनियों को चार मास तक एक जगह रहना चाहिए | क्योकि उस समय पृथ्वी स्थावरजस जीवों से व्याप्त हो जाती है इससे उस समय विहार करने से महान् प्रसंयम होता है । अतः वर्षा काल मे एक सौ बीस दिन तक मुनियों का एक स्थान मे रहना यह उत्सर्ग मार्ग है । कारण अपेक्षा से यह अवस्थान १२० दिन से हीनाधिक भी होता है। पाषाढ़ शुक्ला दशमी से लेकर कार्तिक की पूर्णमासी के बाद तीस दिन तक यानी मगसिर घुमला १५ तक (५ मास ५ दिन) मुनियों का एक स्थान मे रहना उत्कृष्ट काल कहलाता है। महामारी दुर्भिक्ष के होने पर जब लोग गांव देश को छोड़ भागने लगे अथवा १. विजयोदया टीका में इस स्थान पर ४ दिन की जगह २० दिन लिखे है । इसका कारण वहा पाठ की प्रशुद्धि मालूम पड़ती है । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चातुर्मास योग मुनि संघ के नाश होने का कोई कारण मा उपस्थित हो चाहिए। यदि किसी कारण वश उक्त समय तक न पहुंच तो ऐसी हालत में मुनिजन जहाँ वर्षायोग ग्रहण किया है सके तो भी धाममा का उल्लंघन तो कदापित उस स्थान को भी छोड़ वर्षाकाल में अन्य स्थान मे जा भी नही किया जा सकता है। उल्लघन करने पर प्राय. सकते हैं । यदि न जावें तो उनके रत्नत्रय की विराधना श्चित्त लेना होगा। होगी। यह स्थानांतर पाषाढ की पूर्णमासी से चार दिन (४) पनगारधर्मामृत मे प० माशाधर जी ने वर्षा बाद तक-श्रावण कृष्णा ४ तक किया जा सकता है। योग की समाप्ति की सिर्फ क्रियाविधि (भक्ति पाठों का इस अपेक्षा मे काल की हीनता समझनी। इस प्रकार पढा जाना) कार्तिक कृ. १४ की रात्रि के पिछले भाग टीका मे १०वा स्थिति कल्प का व्याख्यान किया है। में करना बताई है। उसके दूसरे ही दिन विहार करमा टिप्पण मे तो दो-दो महीने मे निषधका का दर्शन करना नहीं बताया है। बल्के उसके बाद भी वर्षा काल की दशवा स्थितिकल्प बताया है। ममाप्ति तक यानी कार्तिक शु०१५ तक या मास कल्प के यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि-दशवे अनुमार मगमिर शु० १५ तक भी वही पर ठहरा जा पज्जो नाम के स्थिति कल्प का जो म्वरूप टिप्पण में मकता है, कारणवश इससे पहिले भी विहार किया जा बताया है। उसी से मिलता जलता स्वरूप मूलाचार की मकता है किंतु कार्तिक शु० ५ से पहिले तो कारणवा टीका में बताया है। वहाँ "निपद्यका की उपासना करना" भी विहार नही हो सकता है। विहार करने पर प्रायश्चित ऐमा स्वरूप पज्जो स्थिति कल्प का बताया है। जबकि लेना होगा। भगवती पाराधना की विजयोदया टीका में वर्षायोग के (५) महामारी मादि कारणो मे यदि वर्षाकाल में धारण करने को पज्जो-स्थितिकल्प बताया है। इस तरह स्थान छोडने की जरूरत था पडे तो श्रावण १०४ तक भगवती आराधना की टीका और मूलाचार की टीका में ही वे अन्यत्र जा सकते हैं। बाद में नही। बाद में जाने इस विषय में एक बड़ा कथन भेद पाया जाता है। पर प्रायश्चित्त लेना होगा। नीचे हम इन सब कथनों का फलितार्थ बताते है(१) पाषाढ शुक्ला १५ से कार्तिक शुक्ला १५ तक (६) चातुर्मास के अलावा हेमतादि दो-दो माम की वर्ष काल माना जातानमामो मनियोका ऋतुमों में प्रत्येक ऋतु में १ मास तक मुनियों का एक एक स्थान में रहना यह एक सामान्य नियम है। स्थान पर ठहरे रहना और १ मास तक विचरते रहना ऐमा भी विधान मूलाचार में मास कल्प के स्वरूप कथन (0) मूलाचार में लिखे मास कला के अनुसार वर्षा काल के प्रारम्भ से एक मास पूर्व और वर्षा काल की में किया है। समाप्ति से १ मास बाद तक भी अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला १५ (७) मूलाचार में पाष्टातिक पर्व के दिन तक से मगसिर शुक्ला १५ तक मास ६ तक भी मनिजन लगा- मुनियो को एक स्थान मे रहने के विधान का भी भाभास तार एक स्थान पर रह सकते हैं। इतना ममय शास्त्र मिलता है। रचना के लिए उपयुक्त हो सकता है। (5) जो मुनि श्रावण कृ. ४ के बाद वर्षायोग (३) वर्षा योग की स्थापना का समय प्राषाढ शुक्ला ग्रहण करते हैं और कार्तिक शु० ५ से पहिले ही वर्षायोग १४ का है। भगवती माराधना की टीका के अनुसार को समाप्त कर विहार कर जाते हैं। वे मुनि प्रायश्चित्त उसके भी पहिले प्राषाढ़ शु. १० तक मुनियों को वर्षा के योग्य माने गये हैं अर्थात् ऐसे मुनियों को इसका योग ग्रहण करने के अर्थ अपने इष्ट स्थान पर पहुंच जाना प्रायश्चिन लेना चाहिए।* Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुजानमल की काव्य साधना गंगाराम गर्ग मारवाड. मेवाड और गुजरात में अधिक पाये जाने सागरकवर आदि की कथापो के रूप में धार्मिक आस्था । के कारण श्वेताम्बर जैनो की साहित्यिक भाषा यद्यपि ये कथाएँ भूले-भटके साधारण जनो को धर्म की पोर राजस्थानी और गुजराती ही अधिक रही, तथापि हिन्दी उन्मुख करने के लिए बड़ी उपयोगी है। प्रदेशों के मन्निकट होने के कारण ढूंढाड के श्वेताम्बर सुजानमल जिन भगवान् के परमभक्त है । यद्यपि जनों ने तो अपन भाव व विचारो की अभिव्यक्ति का उन्होंने सभी तीर्थकों की स्तुतियां की हैं किन्तु उनका माध्यम हिन्दी को ही बनाया। हिन्दी के विशाल जैन- श्रद्धा-भाव पाश्र्वनाथ के प्रति अधिक रहा है। इसका साहित्य में दिगम्बर की तुलना में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कारण है कि मुजानमल ने विष्णु, शिव, महेश, गणेश आदि जिन इने-गिने कवियो का योगदान कहा जा सकता है, सभी देवनामो की परीक्षा ले ली किन्तु पार्श्वनाथ जी के उनमे से एक सुजानमल, भी है। ममान वीतरागी, निर्विकारी, निरंजन व उद्धारक उन्हे जीवन-वृत्त-सुजानमल जयपुर नगर के प्रसिद्ध जोहरी अन्य दृष्टिगोचर नही हुमा। ताराचद यहां मवत् १८१६ वि० में उत्पन्न हए थे। मेरे प्रभु पाश्र्वनाथ दूसरो न कोई। यं सेठिया गोत्रिय प्रोसवाल वैश्य थे । सुजानमल के तीन अश्वसेन तात, वामा सुत सोई। छोटे भाई और थे-लाभचन्द, मोहनलाल और जवाहर केवल वरनाण जाके प्रगट मान होई। मल । सुजानमल के तीन विवाह हुए किन्तु उनकी किसी निरंजन, निर्विकार ध्यान, लग्यो एक मोई। भी पत्नी से पुत्र-लाभ नही हुमा । जवाहरमल इनके दजक हरिहर ब्रह्मा गणेश देख्या जग टोई.। पुत्र थे । ५० वर्ष की प्रायु में सेठ सुजानमल एक असाध्य राग द्वेष वशीभूत ममता नहीं खोई। बीमारीसे पीडित हुए। तब उन्होंने स्वस्थ हो जानेपर प्रवृज्या तारन मा तिरन बिरव नामे टक जोई। धारण करने की प्रतिज्ञा की। मौभाग्यवश सुजानमल की सुजाण सोचोप्रेम जाण प्रीत माल पिरोई ॥२॥ बीमारी शीघ्र ही समाप्त हो गई और इन्होंने पाश्विन मुजानमल जिनेन्द्र की महिमा के वर्णन का प्रयास शुक्ला १३ सवत् १९५१ को मुनिविनयचन्द्र महाराज से करते हुए भी उसको समझने में अपने को अधिक समर्थ दीक्षा ग्रहण कर लो। मुजानमाल की मृत्यु १७ वर्ष तक नहीं पातेकठोर मुनि-धर्म पालन करने के उपरान्त सवत् १९६८ को तू ही परमात्मा परम परमेश्वर, तू ही केवल नाणवर गुण भण्डारी। काम्य-माधना---मुजानमन के लगभग ४०० पद सुने तू ही जग ज्योत जोते सरु जिन वरू, जाते हैं किन्तु अभी तो उनके १६५ पद ही प्राप्त है जो जग गुरु अचिन्त्य महिमा तिहारी॥३४॥ "सुजान पद सुमन वाटिका" मे प्रकाशित है । सुजानमल अपने पाराध्य के महिमा गान की अपेक्षा सुजानमल का काव्य तीन भागो में विभाजित है-स्तुतियां, उपदेश की मन-प्रवृत्ति अपने दोषो के निरूपण मे अधिक लगी है। और चरित्र कथाएँ । प्रथम दो भागो मे कवि की भक्ति. वह कहते हैं कि मैंने अनेक पाप व अनाचार किये, दु.खभावना और नैतिक धारणाएं अभिव्यजित हैं तथा तृतीय दायी व अनर्थकारी वाणी बोली तथा कपट, छल, क्रोध, भाग में उल्लिखित सेठ भुदर्शन, शालिभद्र, स्थूलभद्र, मान. माया, लोभ, रोग प्रादि दोषों मे निरन्तर लवलीन विजयकुमार, धन्ना, अर्जुनमाली, गज सुखमाल, जम्बुकुवर रहा किन्तु कभी घोड़ा भी पश्चाताप नही हमा। Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुजानमल की काय साधना मैं पातक कीना भारी जी, भक्त सुजानमल ने अपनी एकनिष्ठता की तुलना सेव्या मनाचार प्रविचारी जी। पातक और मीन से की है। जिस प्रकार पासक का चित्र मनरथ भाग्या महा दुःखकारी. प्रतिपल स्वाति-द के लिए ही चाहता रहता है उसी सो थे देख रहा अवतागै जी। प्रकार सुजानमल का मन जिनेन्द्र के गुण-गान को, जैसे मैं कूड कपट छल छायो जी, मछली का जीवन-माधार जल है उसी प्रकार सुजानमल सूस ले ले दोष लगायो जी। का जिनेन्द्र । ऐमी एकनिष्ठता बिरले भक्तों में ही फिर पिछतावो नहीं पायो जी, मिलती हैरोमो प्रकृत कर्म कमायो जी। जिनम्र तोय विसर, एक ई सांस, पच माधम मे रंग गतो जी, विसरून एक ही सांस । क्रोध, मान, माया, लोभ मानो जी। कम कम में तुम गुण रमिया ज्यूं फलन में बास । गगादिक मू झोलो वातो जी, स्वाति र पातक चित चाहे बम बिन मोन मिरान तोडो प्रष्टादिक मू नातो जी ॥२४॥ तिम तुम बरशन को उत्कंठा लग रही अधिक पियास।३६) वष्णव भक्तो की तरह जैन भक्तो ने भी अपने प्रवगुण-निवेदन के अतिरिक्त भगवान् के द्वागतारे गये पतितो हिन्दी भक्ति-साहित्य में अपने भागध्य के प्रति भक्तिके नाम गिनाते हुए अपने उद्धार की प्रार्थना भी उनमे प्रदर्शित करने के लिए वान्मल्य, सल्य, मधुर पौर दास्य अवश्य की है किन्तु उस प्रार्थना में बड़ा अन्तर भी है। भाव अधिक ग्राह्य हुए है। वल्लभ सम्प्रदाय में वात्सल्य जहाँ वैष्णव-भक्त राम अथवा कृष्ण से उनके विरद-पालन और मध्य, निम्बार्क, ललित प्रादि मन्त्री सम्प्रदायो में मधुर पर व्यग्य करते हुए उन्हें चुनौती देने में नहीं चूकते-प्रब और मतों, रामानन्दी वैष्णवो तथा जैनों में दास्यव व देखिही मुरारि-वहाँ जैन भक्त इस प्रकार का व्यवहार मधुर भाव की प्रधानता है। किन्तु इन सभी भावों के गहित समझकर पाराध्य की श्रेष्ठता व अपनी विनय को अतिरिक्त एकभाव है-पुत्र-माव; जो परम प्रात्म-समर्थकों कम नहीं करते। अपने में ढेर सारे अवगुणों का समायोजन मे ही कहीं मिलेगा। विश्व में कोई भी सम्बन्धी-मित्र, मानते हुए भी भगवान द्वारा उद्धारे गए भक्तों से वैष्णव पति, पत्नी अथवा स्वामी प्रादि किसी भी अपराध पर कवियों का अपने को श्रेष्ठ मानना अथवा पाराध्य को प्रसन्न हो सकता है वापत्ति में हमको बुग जानकर चुनौती देना उनकी विनय और निरभिमान के प्रति थोडा छोड़ सकता है किन्तु माता-पिता ऐसा नहीं कर सकते। गंकालु बना देता है। जमाली, गोशाला, श्रेणिक, गौतम 'कुपुत्रो जायेत क्विचिदपि माता कुमाता न भवनि' इसी मादि भक्तो का उद्धार देखते हुए अपने उद्धार में विलम्ब विश्वास से अपने को परम अपराधी तथा विपदायस्त अन्य जन भक्तों की अपेक्षा सुजानमल को थोड़ा प्रखरा है, समझने वाले भक्तों ने पुत्र-भाव की उपामना का सहारा फिर भी उनसे अपने को श्रेष्ठ नही टहराया और न 'जिन' लिया है। कबीर कहते हैदेव को कोई चुनौती दी। हरि जननी मै बालक तोरा। तारक तार सार कर मेरीतुमरेशात भव जल में बायो। करणानिधिबयानर तारे मुझ बिरियां हठ कहा पकड़ायो। काहे नौगुन बकसह मोरा॥ जमाली, गोसाल, षिक गौतमलेगची पद बगसायो। सुत अपराषक दिन केते। जमनी चित रहेनते।। केता ही बन तारक वाऱ्या मो मैं कहा कहाव रखायो। यहाँ "मुझ बिरियां हट कहाँ पकड़ायो" में सुजानमल क. ग• पृ० १८३ की उग्रता विचारणीय है, किन्तु वह वैष्णव भक्तों की तुलसी ने भी अपने उबार में डिलाई देखकर अपने अपेक्षा पर्याप्त मर्यादित है। स्वामी राम को कई स्थानों पर अपना पिता कहकर पुकारा Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ अनेकान्त है— 'बाप ! पापने करत मेरी घनी घटि गई ।' २५२ ॥ 'मोरे से बाल' सुजानमल को भी पोषण पाने तथा मायापाश से मुक्त होने के लिए जिन भगवान् माता-पिता के रूप में याद भाते हैंइन कलिकाल कराल तुम बिन कौन करे प्रभु मोह माया तजी फांस पर फांस हर बाप जी का जाल में मैं भोरो सो बाल । मेरी मायत ज्यूं प्रतिपाल । घणी बहुं गई दुल बेकारी । संताप जी कुण सुने धरज तुम बिन हमारी ॥३४ सुजान पद सुमन वाटिका के प्रथम भाग में राजमति विरह के भी कुछ सरस छंद मिलते हैं। पति नेमिनाथ के गिरिनार पर्वत पर तप के लिए चले जाने के कारण राजमती की बड़ी हृदयद्रावक अवस्था हो गई है, जो उन्हीं के शब्दों में दृष्टव्य है रूप रंग चातुरता चित की दुल्हा ने मेरा छीन लिया । रूप रंग चातुरता चित की दूल्हा मेरा छीन लिया । चन्द्र चन्द्रिका चनणविले पण लागत ज्यूँ ततिया बतिया ॥ खान पान सुख शयन न निद्रा तलफत ज्यूं जल बिन मछलिया । पीछा फिर प्रावो जब जाणूं दुःखहरण विरुक साच रचिया ॥२२॥ लोक-कल्याण तथा प्रादर्श समाज की स्थापना भारतीय साहित्य का प्रमुख लक्ष्य रहा है। यही कारण है कि कालिदास, भवभूति तुलसी प्रादि जो भी महा-कवि इस भारत-भू पर अवतीर्ण हुए उन्होंने अपने कल्याणकारी विचारों से भारतीय समाज का नेतृत्व किया। जैन कवियों ने भी जहाँ अपने भावुक हृदय से अनेक भाव-भीनी पंक्तियाँ उद्घाटित की हैं वहाँ विचारशील हृदय से नैतिक धारणाएँ अभिव्यक्त कर भारतीय काव्य की लोक-कल्याण पूर्ण गौरवमयी परम्परा को जीवित रखने का प्रशंसनीय प्रयत्न किया है। सुजानमल की प्रतिभा का भी एक भाग महकार धैर्य, सप्तव्यसन, समता, दया, सुमति श्रादि नैतिक विषयों पर अपने विचार अभिव्यक्ति करने मे व्यय हुआ है। उनमे उपदेश भौर उद्बोधन करने की प्रवृत्ति अधिक है इधर कुछ दिनों से धर्म (रिलीजन) और विज्ञान ( साइंस) में सम्बन्ध स्थापित करने की प्रवृत्ति चल पड़ी है । मौखिक चर्चा से लेकर लेखों और ग्रन्थों तक का विषय बन चुका है धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध । तो, आइए, हम एक नये दृष्टिकोण से इस विषय पर संक्षिप्त विचार करें । सुध श्रद्धा दया परम की धारो, बोल तोल सत्य दाखो रे । प्रवत्त ग्रहण मत कर मति मता, शील सुधा रस चालो रे । परिग्रह ममता मेटो कवायां, ज्यं सुधरे सहुं पवालो रे । राग द्वेष की परिणति छोड़ो, कलह माल किम प्रालो रे । १२ ॥ हिन्दी साहित्य के इतिहास में कबीर, सूर और तुलसी के समान बनारसीदास, सुजानमल आदि प्रनेक जैन कवि अपने विशिष्ट स्थान के अधिकारी हैं। इनके काव्य के अध्ययन के बिना हिन्दी साहित्य का इतिहास सर्वदा अधूरा ही रहेगा। ★ धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध पं० गोपीलाल 'अमर' धर्म क्या है ? जो धारण किया जावे १ । किसके द्वारा ? वस्तु के द्वारा । क्या? उसका अपना स्वभाव । क्या मतलब ? वस्तु का स्वभाव ही धर्म है२ | १. धियते इति धर्मः । २. 'वत्थुसहावो धम्मो ।' Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विज्ञान क्या है ? विशेष ज्ञान के स्वभाव का। क्या मतलब ? विशेष ज्ञान ही विज्ञान है। धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध किसका ? वस्तु वस्तु के स्वभाव का | धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध ? धर्म ज्ञेय है, विज्ञान ज्ञान धर्म साध्य है, विज्ञान साधन धर्म सूत्र है, विज्ञान व्याख्या क्यों ? इसलिए कि एक वस्तु का स्वभाव है दूसरा उसी का विशेष ज्ञान । क्या मतलब ? धर्म या वस्तु के स्वभाव को विज्ञान या विशेष ज्ञान द्वारा ही जाना जाता है, सिद्ध किया जाता है औौर व्याख्यात किया जाता है । धर्म के सिद्धान्त-पक्ष और विज्ञान का सम्बन्ध ? अनिवार्य है, यदि यह सम्बन्ध नहीं बनता तो निश्चय मानिये कि या तो धर्म सदोष है या विज्ञान धर्म की सदोषता का उदाहरण २ शब्द को ( नैयायिको द्वारा ) आकाश का गुण माना जाना ३ सदोष है क्योकि विज्ञान (फोनेटिक्स) से वह पुद्गल (मैटर) का पर्याय (रूपा स्तर) मिड होता है, आकाश का गुण नहीं४ विज्ञान की सदोषता का उदाहरण ? वैज्ञानिकों (भूगोलशास्त्रियो) द्वारा पृथ्वी का गोलाकार माना जाना सदोष है५ क्योंकि यदि ऐसा हो तो (जैन धर्म के अनुसार ) पृथ्वी के दक्षिणी गोलार्ध पर कोई भी चीज स्थित न रह सके, नीचे की प्रोर टपक पडे६ | चन्द्रलोक की यात्रा ? यह प्रायः किसी भी धर्म के अनुसार संभव नही है जबकि विज्ञान के धनुसार मभव है। इस विषय मे और ऐसे ही धन्य विषयों में जारी वैज्ञानिक अनुसन्धान जब तक पूर्ण नही हो लेते ३. सम्यगुणकमाकाशम् ' तर्कसग्रह. प्रत्यक्षपरिच्छेद । ४. सप्रमाण एव विस्तृत विवरण के लिए दे० मुनि श्रीहजारीमल स्मृतिग्रन्थ १०३७२ । ५ दे० मोक्षशास्त्रकौमुदी ( लेखक प्रोर प्रका० ब० मुक्त्यानन्द जैन सिंह ६८, धनुपुरा, मुजफ्फरनगर), पृ० १२२ धौर भागे । 1 ६. दे० मिद्ध । तत्वार्थश्लोकवार्तिक, सवालोकवादिक, अध्याय २, मूत्र १, कारिका ७-६ । ७. दे० 'जैन सन्देश' (दि० १४ जून, ६१ ) का सम्पाद कीय जिसमें पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री ने इस समस्या पर विचारणीय प्रकाश डाला है । १२३ तब तक न धर्म की निर्दोषता को चुनौती दी जा सकती है और न विज्ञान की निर्दोषता को । धर्म के मान्तर-पक्ष और विज्ञान में सम्बन्ध ? यह भी अनिवार्य है वरना या तो धर्म सदोष होगा या विज्ञान धर्म की सदोषता का उदाहरण ? हरी शाकसजियों के खाने की इजाजत न देना चादि धर्म की सदोषता है क्योंकि विज्ञान (हाइजिन) से सिद्ध होता है कि उनमे रहने वाले तत्व (विटामिन ) स्वास्थ्य के लिए अनिवार्य है। विज्ञान की सदोषता का उदाहरण ? मांसा हार का समर्थन विज्ञान की सदोषता है क्योंकि इससे होने वाले लाभो की अपेक्षा हानियाँ अधिक हैं । मन्त्रतन्त्र प्रादि ? शब्द-शक्ति द्वारा किसी को प्रभावित करना मन्त्र है और विचार-शक्ति द्वारा किसी को प्रभाषित करना तन्त्र है, इस दृष्टि से मन्त्र तन्त्र का समर्थन धर्म द्वारा भी होता है और विज्ञान (साइकोलॉजी) द्वारा भी; किन्तु धान के इतने विकृत हो गये हैं कि उनसे धर्म की दुर्गति हो रही है और हम विज्ञान के पूर्व लाभ से बचित हो रहे हैं। नतीजा क्या ? धर्म और विज्ञान में सम्बन्ध होना अत्यन्त अनिवार्य है वरना वह दिन दूर नही जब विज्ञान के faरुद्ध धर्म को ढकोसला और पाखण्ड कहा जावेगा। मौर धर्म विरुद्ध विज्ञान को अमानवीय कुचेष्टा १० धतः अपनेअपने क्षेत्र के सक्षम धौर प्रतिष्ठित सज्जनों को चाहिए कि वे वक्त रहते इन दोनों मे समतापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करें ऐसा करने के लिए जहाँ विज्ञान की धारा को मानबता की पोर मोडना होगा वहाँ धर्म (चाहे जैन हो या कोई और) का प्रोवर हालिंग भी जरूर जरूर करना होगा । ८. दे० खिलविश्व जैन मिशन द्वारा मासाहार के विरोध मे प्रकाशित पट ६. दे० 'सरिता' (१ दिम०, ६४ ) में श्री प्रनन्तराम दुबे 'प्रभात' का लेख 'मंत्र-तंत्र मंत्र' | १०. दे० 'सरिता' (१५ दिसं०, ६५, १५ मार्च १ ल और १५ अप्रैल ६६) में श्री सखा बोरड़ की 'कितना महगा धर्म ?' मला Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य सकलकीर्ति और उनकी हिन्दी सेवा पं० कुन्दनलाल जैन एम. ए. श्रीकंदकुंबाम्बयभूषणाप्तः भट्टारकाणां शिरसः किरीटः चार प्रदीप ६. व्रत कथाकोष १०. ऋषभनाथ चरित्र बदतर्क सिद्धान्तरहस्यवेत्ता पयोजनुनंचभवतरित्र्याम् ॥३२ ११. धन्यकुमार चरित्र १२. पार्श्वनाथ चरित्र १३. मल्लितत्पदृभागी जिनधर्मरागी गुरुपवासी कुसुमेषनाशी। नाथ चरिव १४. यशोधर चरित्र १५. बर्द्धमान चरित्र तपोनुरक्तः समभूविरक्तः पुण्यस्यमूतिः सकलादिकोतिः १६. शान्तिनाथ चरित्र १७. श्रीपाल चरित्र १८. . ॥३३॥ (पट्टावली) सुदर्शन चरित्र १९. सुकुमाल चरित्र २०. जम्बूस्वामी उपक्त पद्यों में प्रतीत होता है। कि प्रा० कुदकुद चरित्र २१. सद्भाषिता वली २२. नन्दीश्वर पूजा २३ की परम्परा में भट्टारक शिरोमणि पट् तर्क सिद्धान्तो माग्चविंशति का २४. सिद्धान्तसारदीपक इत्यादि । के रहस्य वेत्ता श्री पप्रनन्दी मुनि हुए, उनके शिष्य इनके अतिरिक्त सकलकोतिने हिन्दी साहित्यकी भी श्री जिन धर्मानुरागी, गुरुसेवी कामारि, तपस्वी, विरागी एवं पाण्याचा वृद्धि की थी जो प्रायः बहुत ही कम लोगों को विदित हैं, अपने ममय के धुरन्धर विद्वान्, प्रकाण्ड पडित, सर्व श्रेष्ट उनकी छोटी मोटी लगभग २०हिन्दी रचनाएँ प्राप्त हई है। जो प्रायः एक गुटके मे संकलित है, यह गुटका स० प्रतिष्ठाचार्य, एव चारित्र निष्ठ ऋषि और भट्टारक थे। १४९५ या इममे पूर्व का लिग्वा हुमा है इसमे पा० सकलमोर मंत्रशास्त्रके बेत्ता थे, ये उन पप्रनन्दी मुनि (स०१३७५ कीति व जिनदास और भानुकीति की रचनाएं सकलिन १४७०) के शिष्य थे जो भ. प्रभचन्द्र के शिष्य थे जिन्होने 'श्रावकाचार मारोद्धार' नामक ग्रंथ के साथ-साथ अन्य है। ऐसा प्रतीत होता है कि जब यह गुटका लिखा गया था उस समय प्रा० सकलकीति जीवित थे और उन्होने इसे स्तोत्रोंकी भी रचना की थी। मुनि पद्मनन्दी के पट्टधर शिष्य देखा होगा । क्योकि स० १४६६ मे उन्होने मागवाड़े के तो शुभचन्न थे पर दूसरे शिष्य प्रा. सकलकीति थे जिन्होने ईडर की भट्टारकीय शाखा को प्रचलित किया था। इसी प्रादिनाय चैत्यालय का जीर्णोद्धार कराया था। जैसा कि से म्पष्ट विदित होता है कि वे कितने बड़े प्रतिभाशाली मागे दिए हुए ऐतिहासिक पत्र से विदित होता है। एव प्रकाण्ड विद्वत्ता से परिपूर्ण थे, जो एक नई भट्टारकीय उपयुक्त गुटके की प्रशस्ति निम्न प्रकार है। उपयुक्त गुट गद्दी को प्रचलित कर सके। वे अपने समय के सर्वश्रेष्ठ "सवत् १४६५ वर्षे लोहासाजण लिखतं हवड ज्ञाति साहित्यकार भी थे, उन्होंने अपनी साहित्य निधियों से श्रे. सिघा मूड़हास सं..."गसीयसभार्या सव उद्यो सन भगवती भारती के भंडार को जिस तरह सम्पन्न प्रोर सद प्रभा० मजल दौ सुत ही का टीका ६ प्रणमिता।" समड बनाया है उससे भारतीय वाङ्मय में उनका नाम बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हिन्दी साहित्य के इति. स्वर्णाक्षगे में मदा के लिए प्रकित रहेगा। यति हास की श्री वृद्धि में जैनाचार्यों मुनियों एवं विद्वानो ने मा. सकलकीति सस्कृत ग्रथों की रचना के लिए प्रसिद्ध जो बहुमूल्य योगदान किया है उसका कही भी उल्लेग्व हैं उनके लगभग २५ सस्कृत ग्रंथ उपलब्ध हैं जो निम्न नही हैं और ना ही अन्वेषकों द्वारा जन साहित्यकारों को प्रकार हैं। उचित श्रेय मिल सका है. संस्कृत साहित्य के इतिहास मे १.अष्टांग सम्यग्दर्शन २.कर्म,विपाक टीका ३. तत्वार्थ- प्रवश्य ही जैन माहित्यकारों का कुछ उल्लेख मिलता है। सार दीपक ४. द्वादशानुप्रेक्षा ५. परमात्मराज स्तोत्र ६. डा. विन्टरनिट्ज़ ने तो बड़े घोर परिश्रम के पश्चात् पुराणसार सग्रह ७. धर्म प्रश्नोत्तरश्रावकाचार ८.मूला. भारतीय साहित्य के इतिहास में जैन साहित्य का समावेश Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य सकलकोति और सनकी हिन्दी सेवा १२५ किया है। जन माहित्य को सम्पन्नता एव समृद्धि का २०. चारित्र गीत भोर २१. सीखामगरास। उल्लेख करते हुए उन्होंने अपने भारतीय साहित्य के इति- जीवन परिणव-मा. सकलकीति ने अपने जीवन हास भाग २ पृ.४५३ पर लिखा है कि परिचय के बारे में कही कुछ भी उल्लेख नहीं किया है ___"There is scarcely any province of Indian पर बाह्य साक्ष्यों के माधार पर निश्चित होता है कि Intrature in which the Jains have not been वे स. १४३७ या १४४३ के लगभग गुजरात प्रान्त में able to hold their own . Above all they have 'मणहिल पाटन' पाम के प्रासपास कहीं अवतरित हुए developed a Voluminous narative literature. होगे । निम्नांकित एक ऐतिहासिक पत्र में उनके सम्बन्ध They have written epics and novels, they में बहुत कुछ जानकारी उपलब्ध होती है। जो जैन सिद्धांत have composed dramas and bymns, wome भास्करवर्ष १३ पृ० ११३ पर प्रमाणित हुमा थाtimes they have written in simple language ___ "प्राचार्य श्री सकलकीति वर्ष २५ छविमनी मस्थाह तथा of the people at other times they have com तीवारे संयत्रलेई, वर्ष ८ गुरा पासे रहीने व्याकरण २ peted in highly eleborate poems with the तया ४ भण्या श्री वाम्बर गजरान माह गाम खोडेण best marters ofor nate court poetry and they पधारया वर्ष ३४ नी मंस्था थईनीवारे मं० १४७१ ने have also produced important work of scholor- व स्वहा' 'श्री चौवा ने गहे पाहार लीधो वर्ष २२ ship (A history of Indian Literature ll p. 483) पर्यन्त म्वामी नग्नहना जुमले वर्ष ५६.स. १४९९ ___ यह ठीक है कि जैन माहित्यकार लौकिक साहित्य का श्री मागवाड़ जुने देहरे प्रादिनाथनो प्रमाद करावाने पीछे निर्माण न कर मके पर उन्होंने जो कुछ लिखा वह मब पार- श्री नोगा मे मधे पद स्यापन करीने मागवाई जईने पोताना लौकिक और वैराग्य प्रधान रहा तथा उममें गान्त ग्म की पुत्रक ने प्रतिष्ठा करावी पोने मूर मत्र दोधों ने धर्मकीतिए बहुलता ही रही, उमका भाषा विज्ञान की दृष्टि से यदि वर्ष २४ पाटभोगव्यो" प्राचार्य मकलकीति जब २५ या तुलनात्मक अध्ययन किया जाय तो हिन्दी माहित्य के २६ वर्ष के थे तब उन्होने दीक्षा धारण की थी, उन्होंने क्रमिक विकाम मे जैन हिन्दी माहित्य का अपना एक बडा गुरु जी के पास ८ वर्ष रहकर २ या ४ व्याकरण पढ़। ही महत्वपूर्ण स्थान निश्चित रूप में होगा। भाषा विकाम इस तरह जब वे ३४ वर्ष के हुए तो म. १४७१ मे की दृष्टि में इन जैन माहित्यकागे का अपना एक अद्भुत गुजगत के खोड़ेण ग्राम में पधारे और वहाँ श्री योचा मूल्य हो। इसी लक्ष्य से हम यहाँ प्रा. मकलकति माहु के घर पाहार लिया वे २२ वर्ष तक नग्न दिगंबर रचित "सीखामरणगस" को अविकल रूप में दे रहे मुनि रहे इस तरह उनके कुल ५६ वर्ष हुए (मं० १४६६ है । जो अब तक सर्वथा अप्रकाशित है। यहा में उन्होंने सागवाडे के पुराने प्रादिनाथ चैत्यालय का उनकी अतिरिक्त अन्य हिन्दी रचनामो का केवल जीगोंद्धार कराया पुनः नोगामें मंघ में पदार्पण किया । नामोल्लेख मात्र ही कर रहा है। उनकी हिन्दी वहाँ से फिर सागवाड़े चले गये जहाँ प्रतिष्ठा कराई और रचनाएँ निम्न प्रकार है। १. पाराधना प्रतिबोधमार, धर्मकीति को दीक्षित किया जो २४ वर्ष तक अपने पट्ट पर २. कमंचर व्रत बेलि, ३. फुटकर पद संग्रह, ४, पार्श्वनाथा- रहे । इम तरह मा० मकलकीर्ति का समय सं० १४३७ प्टक, ५ मुक्तावली गीत, ६. सोलह कारणगसा. ७. या १४४३ से २४९९ तक तो मप्रमाण मिड होता हैं। शान्तिनाथ फागु. ८ द्वादशानुप्रेक्षा चउपई ६. अकृत्रिम म.१४८१ के प्रावण मास में उन्होंने बड़ाली में चैत्यालय प्रवाडि, १० धर्मवाणी, ११ पूजागीत. १२. चतर्मास किया था तथा प्रमीझराके पार्श्वनाथ चैत्यालय दानगीतड़ी, १३ णमोकार गीतडी, १४ इन्द्री सवर गोत मे अपने भनुज व. जिनदास के प्राग्रह पर 'मूलाचार १५. दर्शनवीनती १६. जन्माभिषेक धूल. १७. मूलसघ प्रदीर' नामक संस्कृत ग्रंथ समाप्त किया था। जैसा कि घूल, १८. भव-भमण गीत, १९. चवीस तीर्थकर फाग. प्रा. मकल कीर्ति की एक कविता के निम्न अंश से विदित Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त होता है१. समकालीन एक ऐतिहासिक पुरुष शेखत का भी उल्लेख तिहि अवसरे गुरु माविया बड़ाली नगर मझाररे। अपनी प्रस्तुत रचना 'सीखामणरास' के प्रथम चौथे छंद चतुर्मासि तिहां करोषोभनोधावक कीषा हर्ष पार रे। में किया है । "जाख शेख जे बीजादेव तिण तणी नवि अमीझरे पपराविया वधाई गाये नर नार रे, कीजइ सेव" प्रस्तुत शेख शब्द निश्चय ही तत्कालीन सकल संघमिल बंदिया पाम्या जय जयकार रे। प्रसिद्ध सूफी संत शेख तकी की ओर संकेत करता है। संबत चौबह से इक्यासीमला श्रावण मास लसंतरे, शेख तकी उस समय के प्रसिद्ध सूफी संत थे जो हठयोगपूर्णिमा विबसे पूरण किया मुलाचार महंत रे॥ तंत्रशास्त्र और रसायन विद्या में बड़े सिद्धहस्त थे । विवेकी भ्राताना अनुग्रह यकी कीषा पंच महान् रे। जन उनके अनन्य भक्त थे तथा उनकी देवता जैसी पूजा सं० १४८२ से १४६९ तक की उनके द्वारा प्रति- प्रतिष्ठा किया करते थे इसीलिए प्रा. सकलकीर्ति ने उन्हें ष्ठित मूर्तियां भी उपलब्ध होती हैं। वे सर्वकीर्ति या बीजादेव (कुगुरु) कहकर उनकी सेवा करने का निषेध समस्तकीति नाम से भी प्रसिद्ध थे जैसा कि निम्न उद्ध- किया है। (कई लोग शेख तकी को कबीर का गुरु रणों मे प्रतीत होता है मानते हैं पर कबीर ने कही-कहीं उन्हें ऐसे ढग से संबो. उपासकाल्यो विबुध, प्रपूज्योग्रंथो महा धर्मकरो गुणाढ्यः । धित किया है जिससे उनका गुरुपन प्रतीत नहीं होता है। समस्तकीाश्मिनीश्वरोक्तः सुपुण्यहेतुजंयतासरियाम् ॥ (प्रश्नोत्तर श्रावकाचार २४ अध्याय) (देखो हिन्दी साहित्य का इतिहास-रामचन्द्र शुक्ल पृ०७६ सच्चारित्रमिवमाप्त यतीन्ताः मानिनो निहतदोष समग्राः। संशोधित और प्रवद्धित संस्करण) शोषयन्तु तनुशास्त्रभरेण सर्वकीतिगणिन्नाकृत्रमत्र ।। प्रा. सकलकीति गणी और प्राचार्य जैसे सम्मानित विशेपणो से अलंकृत थे जैसाकि सकलकीर्ति रास की सुकमार चरिचस्यास्य इलोकाः पिडिताः बुधः। विया: लेखकः सर्वे ोकादशशत प्रमाः ।। निम्न पक्ति से स्पष्ट है । "चहुँदिसि करि विहार सकल(सुकुमार चरित्र अध्याय) कीति गणहररयण" अथवा प्रथो के अन्त मे "सुगणि बे बहन जाति के थे। उनका कार्य क्षेत्र गज- सकलकीया" इत्यादि । उनकी भाषा भी कबीर की भांति गत प्रान्त ही था जहाँ उनके द्वारा प्रतिष्ठित अनेकों साधारण एवं जनोपयोगी थी उसमे साहित्यकता, रस मूर्तियां प्राप्त होती हैं। "सीखामणरास की तीसरी ढाल अलकार अथवा छदों का समुचित समावेश हो सकना के १०३ छद से स्पष्ट प्रतीत होता है कि उन्हें जिनबिंब किसी तरह भी युक्ति संगत प्रतीत नहीं होता है, क्योकि एवं जिनभवन प्रतिष्ठा में विशेष रुचि थी जो धर्म के वह युग ही हिन्दी के लिए विशेष स्थिरता अथवा विकास मूल प्रग माने जाते हैं। का समय नहीं कहा जा सकता है। प्रा० सकलकीति का "या पान तम्हि दीजो सार जिणवर बिब कर उबार।। बचपन का नाम पूर्णसिंह था, वे बाल्यकाल से ही बड़े जिणवर भवमसार करज्यो लक्ष्मी न फल तो लेख्यो।१० मेगावी एवं प्रतिभाशाली थे। इनकी माता का नाम गोभा प्रा. सकलकीति की हिन्दी कविता गुजराती मिश्रित और पिता का नाम करमसिंह था। इनके पिता ने इनका है उनके साहित्य मे भक्ति की भावना भरी पडी है जो विवाह १४ वर्ष की अवस्था में ही कर दिया था पर वैराग्य और शान्त रस से परिपूर्ण हैं। महात्मा कबीर इनका मन सांसारिक विषय भोगों में न लगा, वे सदा समकालीन थे जो हिन्दी साहित्य के इतिहास में घर से उदासीन ही रहा करते थे उनकी रुचि सदा धर्म भक्तिकाल की निर्गुण धारा की ज्ञानमार्गी शाखा के प्रति समाज और साहित्य सेवा की भोर उन्मुख रहने लगी निधि कवि थे, वे सं० १४५६ से १५७५ तक हिन्दी पौर पन्ततोगत्वा २० वर्ष की आयु मे वे अपने गुरु मुनि साहित्य की सेवा करते रहे उनकी भाषा विभिन्न भाषामो पआनन्दी से स. १४७३ में 'नेणवा' ग्राम में दीक्षित हो से मिश्रित तपकड़ी भाषा थी। मा. सकलकीति ने अपने गये थे। बड़ा खेद है कि ऐसे महान् साहित्यकार एवं १. देखो जैन ग्रंथ प्रशस्ति सं० प्रथम भाग प्रस्तावना । धर्म गरु का निधन ५६ वर्ष की प्रत्यायु मे ही म० १४६E Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माचार्य सकलबीति और उनकी हिन्दी सेवा में महसाणा में हो गया था जिसकी स्मृति स्वरूप एक बालबीजी प्रस्तर पीठिका महसाणा में माज भी विद्यमान है। जीव दया दुइ पालोयिए मन कोमल कीजह । सीखामण-रास प्राप सरीखा जीव सबै मत माहि परीजह ।। नाहण धोवण काज सवे पाणी गली (भ. सकलकोतिकृत) कर प्रनगलि नीरिन कीलीयिए। दांतणमनमोउ ।। पणमवि जिण वरवीर सीखामण कहिस्यू। गाईघाईन मारीयिए सविचुपद जाणु समरवि गौतम धीर जिणवाणी भणिस्यू ॥१॥ कण सलकण मन विणज करु मन जिम वा प्राणु । लाख चउरासीय जीव फिरतो मानवभव लाघउ कुलवंतु । पशु गाढा नवि वाधीयिए नवि छेद करीजह । इन्द्रीय प्रायु निगमयदेह बुद्धि विना विफला सब एह ॥२॥ मान उपहिसू लोभ करी नवि भार करीजा ॥२॥ एकमनां गुरु वाणी सुणीजा बुद्धि विवेक सही पामीजह। नरिणा लहिणइ देवइ काजिकरी लांघण मकराव च्यारिहाथ जोवा पढऊ कुशास्त्र मकानिय सुणु णमोकार दिन रमणीय गिणु। भूमि पग बाउ मावु । एकमना जिणवर पाराधु स्वर्ग भुगतिजिय हेला साघु।। फामू माहार जाग लह मन मोफणी रांधु। जासु शेख जेबीजादेव तिण तणी नवि कीजह सेव । प्रगी ठूमन तहि करु मन मायुध साधु ॥३॥ गुरु निग्रंथ एक प्रणमीजह कुगुरुतणी न वि सेवा कीजह।४। लाकउ नवि कपा वीयिए नीरा न चबाबु । घरमवतनी सगतिकरु पापी सगति तह्मि परिहरु । सगाह तण वीवाह सही मकरु मकरावु । जीवदया एकधर्म जरीजह तु निश्चय संसार तरीजइ ॥५॥ लोह मध विष लाख ढोर व्यवसा छडावु । श्रावक धर्म करु जगि सार नहिल्यु तह्मि सयम भार । मीणमहूडा कदमूल माखण मत वावु ॥४॥ धरम प्रपचि रहित ताि करू कुधर्म सविदूरिह परिहता। कटोल सावू पानधाह घाणी नवि कीजह । जीवेत माय बार स्य नेह धरम करावु रहित सदेह । खटक शाल हयीमार पागि मागी नवि दीजह । यू पाहा पूठिइ जे काई कीजइ ते सहूइ फोक हारीजइ ।। खटक शाल नारीय बालक री सकरी कातर मन मारु । दृढ़ समकित पालु जगिसार मूढ़पणू मकु सवि वार । तिलक वट, जलि, नवि घालीयिा मू पां मन सारु ॥५॥ रोग क्लेश ऊपन्ना जाण धरम करू सकति परिणामाणी।। जूठा बचन न बोलीयिर करकम परिहरु । मडल पूछ करुहइ नवि कीजइ मरम म बोलु कहि तण चाडी मन करु । करम तण फलनवि छुटीजइ। धरम करति नवि बारीयिए नवि पर निदीजह । प्राविइ मरणि तह्मोदढ़ होज्यो दीक्षा प्रण सण विधिलेज्यो। पर तणा गुण ढाकी प्रापतणा गुण नवि बोलोजा ॥६॥ धरम करीनइ फल मन मागु मारगि भुगति तणइ तह्मलागु॥ नीलज धे नवि बोलीयिए हासा मन कर । कुल प्राब्यू मिथ्यात न कोजइशका सविटाली घालीजइ।१० प्राल न दीजइ कीण परिईनवि दूषण धरु । ये समकित पालइ नर नारिते निश्चित रसिई संसारि। प्रार छयू नवि बोलीयिए नवि नात करीजइ । जे मिथ्यात धणेरु करिस्यूँ सिइते ते ससारिघणू बूडेमि ।११। गालि न दीजइ वचन सार मीठू बोलीजह ॥७॥ ॥ वस्तु॥ परिधन सवि तहि परिहरुए चोरी नवि कीजह । जीव राखह जीव राखहु काय छह भेदि मशीय लक्षच्युह चोरी प्राणी वस्तु सही मूलिईनवि लीज। भाग मीय। अधिक लेई नइ कीण परई उडू मन पालु । एक चित्त परिणाम प्राणी प्रचालत वइसतसू वताहा ॥ सरवर विसाहाणा माहि सही निरवर मन धालु ।।।। जीव जातिसंठाण जाणीय ये नरमन कोमल करीय। पणिमोसु परिहरुए पडायूमन लेज्यो। पालइ दया अपार सार सौख्य सवि भोगवियते, कूर प्रलेप्पू प्रमत करुए मन परराहि केज्यो। ते तरसिंह ससार । घर नारि विन नारि सवि माता सम जाण । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५ अनेकान्त परी सू बात गोठि सगति मन करु । रूप निरीक्षण नारि त बेस्या परिहरु || नीम विना नवि पृष्य हुइ दुई पाप अपार ॥१०॥ वस्तु तप तपीयि तप तपीयि भेद छह बार । कर्म रासिद धन धगनि स्वर्ग मुगति पगधीय जाणू । तर वितामणि कल्पतरु वश्य पंच इन्द्रीय प्राणु ॥ जे मुनिवर शकतिर करीय तप करेसिंह घोर । मुगति नारि वरिसिद्द सहीय करम हणीय कठोर ॥११॥ ढाल बोजी दशदिशानी सख्या करु दूरि विदेशि गमन परिहरु । जीनगर धरम नवि कीजइ, तीणं नगरि वासु न वसीजइ । देश विरति नितु उटी लेज्यो गमन तणी मर्याद करेज्यो । दूषण सहित भीगत टालु कंदमूल धरयाणा राजु ॥ २॥ से लरफूल सवे बीलीफल पत्रक वह गणका [लीगढ । बोर हूडा बनजा फन नीम करेयी त जानूफल ॥३॥ धान मालना घोल कहीजद्द दिन व्युह पुटिहनीय करीजइ । स्वाद चलित जे त्यां धान नीम नहीं ते माणस स्थान ॥४॥ दीस सहित तह्यि व्यालू करू गतिर सवि ग्राहर परिह उपवास अपिलू फल पामीज घालू फल दा ते न धरीजइ । ५ । एक बार वह बार विमीजद धरता फिरता नवि साईज पारस सख्या कीज फूल सचित टाली घालीजइ ॥६ तित्रिकाल सामायिक लेग्यो मन भी नह ध्यान करेग्यो । । पाठमि चौदस पौस पर डांपातिग परिहरु || उत्तम पात्र मुणीश्वर जाणु धावक मध्यम पात्र बलाणु । बाहर उपध पोथीय बीज अभयदान जिन पूजा कीज 100 थोडूं दान सुपात्रह दीजइ परभवि फल अनंत लहीजइ । दान कुपात्रहं नवि फलपावइ ऊसरभूमि वीज नविभावई | EP दया दान त देख्यो सार जिणवर जिव करु उधार जिणवर भवन सार करेथ्यो लक्ष्मी नृफन हह्यो लेज्यो । १०१ दमु इंद्रिय दमु इंद्रिय पाच जे चोर । धर्मरन चोरी करीब नरगमहिलेई कद । नवं दुक्खनी साण्डीय रोग शोक भंडार कड जे तप खडग धरी पुरुष इन्द्रीय करइ संघार देवलोक सुख भोगवीय ते रिसिह ससार छा यौवन रे कुटुब रिद्धि लक्ष्मीय चचल जाणीयिए । संसार रे कालि धनादि जीव साग पण फिए । एकलु रे सावर जाइ करम म्राठे गलई धरयु || १॥ काय धीरे जू उहु होइ कुटुम्ब परिवारहं विगुलए । शरीरे रे नरगभंडार मूंकी जामिइ एकलुए || क्षमाहारे खडगधार वि क्रोधवद्द रसंचारीहए । मार्दव रे पालीयि सारमान पापी पहु टालीयिए ॥ २ ॥ मर घरे चित्र करे वि माया सवि रद्द करए । मतोष रे मायुध लेवि लोभ बद्दरी सही संपर । राग मिल सार राग टालु निर्भय कहा ए १२॥ ま इनि भट्टारक श्री मकनकीर्ति विरचिते सीखामण रास । आत्म-सम्बोधन कविवर बौलतराम जानत क्यों नहि रे, हे भर प्रातमज्ञानी ॥ टेक ॥। राग द्वेष पुगल की सम्पति निहवं शुद्ध निसानी । जाय नरक पशु नर सुरगति में यह पर जाय बिरानी । सिद्ध स्वरूप सदा प्रविनाशी, मानत बिरले प्रानी ॥२॥ कियो न काहू हरं न कोऊ, युद्ध-सिख कौम कहानी । जनम-मरन मलरहित विमल हैं, कोच बिना जिमि पानी ॥३॥ सार पदारथ है जिनमें महिकोषी नहि मानी। दौलत सो पैंट माहि बिराजे, लसि हूवं शिव बानी ॥ ४ ॥ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंधावल और जैन मूर्तियां एस० पी० गुप्ता और बो० एन० शर्मा गन्दावल मध्यप्रदेश के देवास जिले मे सोनकच्छ नामक तहसील के मुख्यालय (हेडक्वार्टर) मे लगभग पाच मील उत्तर की ओर एक छोटी नदी के तट पर स्थित है जो काली मिन्ध में गिरती है। यहाँ पर जैन तथा हिन्दुप्रो — दोनो ही धर्मों या मतावलम्बियों के देवान्नयों के अवशेष प्राप्त है। गन्धावल ग्राम के निवामियां के घरो कुपो, उद्यानों एवं खेतो मे बिखरी हुई इन प्रस्तर प्रतिमानों को सख्या लगभग दो सी है । गन्थावल एक ऐसे प्राचीन व्यापारिक मार्ग पर अवस्थित है जहाँ से कि एक मोर उज्जैन, नागदा, आदि को सड़के जानी है। दूसरी घोर देवास और इन्दौर को तथा तीसरी प्रोर भोपाल एव सांची की ओर (विदिशा भेलसा की ओर मे) मिलाती है । यह स्थान निशानी राजा के प्रतयंत रहा है। जिसका एक मात्र प्रमाण यहाँ के प्राचीन मन्दिर एव मूर्तिया है। मध्यकाल मे गन्धावन वाणिज्य का भी प्रमुख केन्द्र था और यहाँ के अधिकतर मन्दिर व्यापारी वर्ग द्वारा इकट्ठी की हुई धनराशि से बनवाये गये प्रतीत होते है ! परन्तु अभाग्यवश ये सुन्दर स्थल प्राज भग्न है. और यहाँ के भग्नावशेषों की सुरक्षा के लिए भी कोई ध्यान नहीं दिया जा रहा है । किवदन्तियों के अनुसार किसी समय महाराज गर्दभिल्ल यहा शासन करने थे। उन्हीं के नाम पर यह स्थान 'गन्धावन' कहा जाने लगा । यहाँ पर बने एक देवालय में कुछ समय पूर्व एक पापाण प्रतिमा बनी थी जिमको इस ग्राम के निवासी महाराज गर्दभिल्ल की प्रतिमा बताने है। कुछ समय पूर्व मध्य प्रदेश के भूतपूर्व मी डा० कं नागनाथ काटजू इस स्थान को देखने गये थे। उपर्युक्त देवालय के सामने उन्होंने एक ऐसा पाषाण पट्ट देना जिसके दोनों धोर हो मूर्तिया उत्कीर्ण है। हम पर एक मोर गरुड़ासन लक्ष्मीनारायण चित्रित है और दूसरी पोर धन्य लघु मूर्तियों के साथ-साथ भूतिय के ऊपरी भाग मे गन्धवों का भी चित्रण किया गया हैं । डा० काटजू महोदय ने केवल इसी के एक मात्र प्राधार पर गन्धावन के स्थान पर इसे गन्धर्वपुरी की संज्ञा प्रदान की और तब से इस क्षेत्र के भी कुछ लोग इसे गन्धर्वपुरी कहने लगे हैं। किन्तु उपर्युक्त दोनों ही प्रमाण इतने काट नहीं है कि यह कहा जा सके कि शताब्दियों पूर्व इस स्थान का नाम गन्धावल अथवा गन्धर्वपुरी रहा होगा । और जब तक हमे शिलालेखादि का कोई अन्य प्रमाण इम स्थल से इस सम्बन्ध में प्राप्त नहीं हो जाता, यह सदिग्धता बनी ही रहेगी ! जैसा कि हम ऊपर बता चुके है कि इस स्थान पर दर्जनों की सख्या मे जैन प्रस्तर प्रतिमाएं बिखरी हुई है जो इस समय भी वहां देखी जा सकती है, परन्तु यहाँ हम यहाँ मे उपलब्ध कुछ महत्वपूर्ण प्रतिमायो का संक्षेप मे वर्णन एवं उनका चित्रण 'अनेकान्त' के पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर रहे है। यहाँ यह बताना भी प्रावश्यक. है कि मध्य युग में यहाँ जैनियो का दिगम्बर सम्प्रदाय सम्भवतः अधिक प्रभावशाली था; क्योंकि प्राप्त प्रतिमाएँ यद्यपि पर्याप्त रूप से खण्डित हो गई है तो भी खड्गासन नग्न मूर्तिया ही यहाँ अधिक है। १. तीर्थंकर प्रतिमा गन्धावन की प्रतिमानों में तीर्थंकर की यह विशाल प्रतिमा जो लगभग माढ़े ग्यारह फुट ऊँची है अपना विशेष स्थान रखती है । प्रस्तुत प्रतिमा में जो यद्यपि अत्यधिक खण्डित है, जैन प्रतिमा की प्रायः सभी विशेषताओं का १. यह विशाल प्रतिमा अपने प्रकार की केवल एक अकेली ही नहीं हैं। इससे भी कहीं विशाल प्रतिमानों मे श्रवणबेलगोला की बाहुबलि (५७ फीट) तथा अनवर क्षेत्र में कई अत्यन्त विशाल प्रतिमाएँ हैं ! Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० अत्यन्त कलात्मक ढंग से समावेश कर कुशल कलाकार ने चरनी कार्य चतुरता का परिचय भी दिया है ।२ प्रशान्त मूर्ति के वक्षस्थल पर श्रीवत्स प्रतीक है, । (चित्र 1) २. तीर्थकर प्रतिमा तीर्थकर की यह द्वितीय प्रतिमा जो ६ फुट के लगभग है, इस समय वहाँ के पंचायती कार्यालय के समीप स्थित है। उपर्युक्त प्रतिमा की भाँति इसमें भी तीर्थंकर कायोस्वर्ण मुद्रा में खड़े हैं। मूर्ति के शोध के पीछे बनी प्रभावती आदि भी सहित हो गई है। इनके दोनों ही मोर कायोत्सर्ग मुद्रा मे सड़े तीर्थपुरों के मध्य ध्यान मुद्रा में बैठे अन्य तीबंकुरों के लघु चित्रण उत्कीर्णित है। मुख्य प्रतिमा के पैरों के पास चवरधारी सेवक उपस्थित हैं। (चित्र II) ३. पार्श्वनाथ जैनियों के तेईसवे तीर्थङ्कर पार्श्वनाथ की यह प्रतिमा मित्र के नीचे सर्प के सात फर्मों की छाया में कायोत्सर्ग मुद्रा मे खडी है । सर्प के फण, भगवान् का मुख तथा उनके हाथो की उगनियाँ प्रावि टूट गये है। शीश के दोनो ओर उड़ते हुए मालाधारी गन्धवं है जिनके ऊपरी एवं निचले भागो में ध्यानस्थ तीर्थकुरो की लघु प्रतिमाएँ है। पैरों के समीप पबरधारी सेवको के साथ उनके यक्ष तथा यक्षी धरणंन्द्र एव पद्मावती का भी सुन्दर प्रकन दिया गया है। (चित्र III ) ४. महेश्वरी प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ की शासन देवी चक्रेश्वरी की यह अद्वितीय प्रतिमा गन्धाबल से प्राप्त जन प्रतिमाओं में विशेष स्थान रखती है ! प्रस्तुत प्रतिमा के बीस हाथों २. पटव्य. धाजानुलम्बबाहु. श्रीवत्साङ्गः प्रशान्तमूर्तिश्च । दिग्वासास्तरुणी रूपनांश्च कार्योऽहंता देवः ॥ बृहतसंहिता, ५८, ४५ । FUTOW मे से अधिकतर हाथ खण्डित हो गये हैं, किन्तु क्षेत्र हाव में अन्य प्रायुषों के सांप दो हाथों में चक्र पूर्ण रूप से स्पष्ट है, जिनके पकड़ने का ढंग विशेष ध्यान देने योग्य है। प्रतिमा अनेक भूषणों से सुसज्जित है। शीश के पीछे प्रभा है जिसके दोनो घोर विद्याधर-युगल निर्मित है। प्रतिमा के ऊपरी भाग मे बनी पाच ताको मे तीर्थपुरों की ध्यानस्थ प्रतिमाएं है। इनके दाहिने पैर के ममीप वाहन गरुड़ अपने बाये हाथ में सर्प पकड़े है तथा बाई घोर एक सेविका की खण्डित प्रतिमा है ! (चित्रVI) ५. अम्बिका अम्बिका तीर्थङ्कर नेमिनाथ की यक्षिणी है ! प्रभाग्यवश इस सुन्दर एवं कलात्मक प्रतिमा का अब केवल ऊपर का भाग ही शेष बचा है। वह कानो मे पत्र कुण्डल तथा गले में हार पहिने हैं। अम्बिका अपने दाहिने हाथ मे जो पूर्ण रूप से खण्डित हो चुका है। सम्भवतः भ्रात्रलुम्बि पकड़े भी धौर बाया हाथ जिसमे एक बालक था, का कुछ भाग बचा है। मान वृक्ष जिसके नीचे अम्बिका का चित्रण है, पर ग्राम के फलो के साथ उसके खाने वाले बामरी को भी स्पष्ट दिखाया गया है। प्रतिमा के एक दम ऊपरी भाग में शीवा रहित ध्यान की प्रतिमा है जिनके दोनो को भकित किया गया है। सुन्दर रही होगी, इनकी मकती है । (चित्र V. ) मुद्दा मे तीर्थङ्कर घोर मालाधारी विद्याषगे यह मूर्ति पूर्ण होने पर कितनी प्रद केवल कल्पना ही की जा मक्षेप मे हमने गन्धावन ने प्राप्त कुछ मुख्य प्रतिमात्रों का वर्णन किया है। गन्धावल की पंचायत के लोगो मे बडा उन्माह है कि उनके ग्राम मे सरकार की सहायता से एक स्थानीय मग्रहालय खोला जाये जिसमें कि हम स्थल की प्रतिमाओं का भली भांति संरक्षण एवं प्रदर्शन हो सके । ३. द्रष्टव्य - बी० मी० भट्टाचार्य, जैन भाईक्नोग्रेफी, पृष्ट १२१-१२२ चित्र XII । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त गंधावल को जन मूर्तिया CHANNEL TARMANAKER AN -- . NE Nina de ENT REATM '... E A HAY Fram -* A ugaav.. MNSTAN .. a nt- t. MahaNMAH mika mar4 VIm + . T १. तीर्थकर प्रतिमा पु० १२६ Rea R २. तोर्यकर प्रतिमा पृ० १३० +TAL+ क "Ora । ३ पाश्र्वनाथ तीर्थकर १०१३० ४. चवरी (देवी) पृ.१० Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MARiteAK पENKAnd BAD लगम SANELi तपाताचा राबर्टसन् कालेज जबलपुर में स्थित सुन्दर मूर्तियां (गवर्नमेन्ट पुरातत्व विभाग बिल्ली के सौजन्य से) DINA. . पानमनगर (केशोराय पत्तन) के त्यालय में स्थित २० तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथको सातिशय विशाल प्रतिमा बेलो, १०७. ध्यानस्थ योगी मोहनजोवो ग्वालियर किले की प्राविनाप की विशाल प्रतिमा देखो, मध्यभारत का न पुरातत्व लेख ०५४ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन कथा साहित्य की विशेषताएँ नरेन्द्र भानावत जैन साहित्य विविध और विशाल : उसका एक विशेष प्रबल अंग है। जैन साहित्य विविध प्रौर विशाल है। उममे जैन कथा साहित्य के प्रकार : प्राणिमात्र की कल्याण-भावना निहित है। वह तत्कालीन यों तो सामान्यत. जैन कथाएं धर्म, नीति और सदा. मामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक, आर्थिक परिस्थितियों का चार से संबधित है। पर शास्त्रीय दृष्टि से इन कथाओं को प्रतिविब तो है ही, सबसे बढ़कर वह है पात्मा का प्रति दो रूपों में विभक्त किया गया है कथा और विकया। बिब । प्रात्मा अपने अपने आप में शुद्ध, बुद्ध प्रबुद्ध है पर कथा के तीन भेद है-अर्थ कथा, धर्म कथा और कामकर्मज के पुदगल, गग-द्वेप के विकार उमसे चिपक कर कया। प्रर्थ का म्वरूप एव उपार्जन के उपायों को बतलाने उमे मलीन बना देते है। प्रत मम मामयिक परिस्थितियों वानी वाक्य-पद्धति अर्थ कथा है जैसे कामन्दकादिशास्त्र के चित्रण के माथ-साथ जैन साहित्य का अधिकांश भाग धर्म का स्वरूप एव उपायों को बतलाने वाली वाक्य उम माहित्य मे सबधित है जिसमे प्रात्मा की बधन और पद्धति धर्म कया है जैसे उत्तराध्ययन मूत्रादि । काम एवं मुक्ति का, मलीनता और पवित्रता का, प्रवृत्ति और उसके उपायों का वर्णन करने वाली वाक्य पद्धति काम निवृत्ति का, जन्म और मृत्यु का, राग और विराग का, पाप और पुण्य का विविध रूपो, प्रकारों और शैलियों में। कथा है। जैसे वात्स्यायन काममूत्र मादि । इनमे धर्म-कथा वर्णन है । इम माहित्य का मूल सदेश है अपने जीवन को को ही विशेष महत्व दिया गया है। पवित्र बनाम्रो, अपने समान ही दुमरे प्राणियो को समझो, संयम में बाधक चारित्र विरुद्ध कथा को विकथा कहा अावश्यकता से अधिक संग्रह न करो, सूख-दस्य में समभाव कहा गया है। इसके चार भेव है। स्त्री-कथा, भक्त-कथा, रखते हुए मयमित बने रहो। देश कथा और राजकथा । स्त्री कथा के चार भेद है जाति कथा (किसी जाति विशेष की स्त्रियों की प्रशंसा जैन साहित्य का स्थूल वर्गोकरण या निन्दा करना) कुल कथा (किसी कुल विशेष की जैन माहित्य की प्राधारभूमि है जैन मागम । जैन स्त्रियो की प्रगसा या निन्दा करना) अप कथा (किसी प्रागमो में जो चार अनुयोग बतलाये गये है, मपूर्ण साहित्य देश विशेप की स्त्रियों के भिन्न-भिन्न प्रगो की प्रशंसा या का ममावेश उनमे किया जा सकता है। प्रथमानुयोग में निन्दा करना) वेश कथा (स्त्रियों के वेणी बध और पहधार्मिक विधान विशेप का किम व्यक्ति ने कमा पालन नाव आदि की प्रगमा या निदा करना।) किया, अनेक बाधामो पौर प्रतिकल परिस्थितियों में भी स्त्री कथा का निपंध इसलिए किया गया है कि इसके उमे कैमे निवाहा उसका क्या फल मिला प्रादि आदि करने व मुनने में मोह की उत्पति होती है, सूत्र और विपयो को लेकर वर्णन रहता है । करणानुयोग मे वगोल अर्थज्ञान की हानि होती है तथा ब्रह्मचर्य मे दोष लगता है। आदि गणित प्रधान विपयो का वर्णन रहना है। चरणानु- भक्त (भात) कथा के भी चार भेद है-पावाप योग में सदाचार के मूल नियम और उनके प्राचरण सबधी कथा (भोजन बनाने की कथा), निर्वाप कथा (भोजन के क्रियाएं पाई जाती है। द्रव्यानुयोग में तात्विक सिद्धातो की विभिन्न प्रकारों का वर्णन करना) प्रारंभ कथा (भोजन विवेचना रहती है। कहना न होगा कि रसात्मक साहित्य में इतने जीवो प्रादि की हिंसा होगी मादि का वर्णन का मूल संबंध प्रथमानुयोग से ही है। कथा साहित्य भी करना) निष्ठान कथा (भोजन विशेष के बनाने में इतना, Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ द्रव्य लगेगा प्रादि का वर्णन)। यह कथा दया, दान, क्षमा प्रादि धर्म के प्रगो का वर्णन भक्त कथा कहने से पाहार के प्रति प्रासक्ति बढ़ती करती हुई धर्म की उपादेयता बतलाती है। इसके भी चार हैं फलतः साधु म्वादु बन जाता है और उसकी इन्द्रिया भेद है-पाक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी और निवेदनी । शिथिल हो जाती हैं। वह पाहार के ग्रहण प्रादि के नियमो श्रोता को मोह से हटाकर तत्त्व की ओर आकर्षित का प्रतिपालन नही कर सकता प्रत संयम बिगड़ जाता है । करने वाली कथा को पाक्षेपणी कथा कहते है । श्रोता को देश कथा के भी चार भेद है। विधि कथा (देश । कुमार्ग से सन्मार्ग में लाने वाली कथा विक्षेपणी कथा है। विशेष के भोजन, मणि भूमि मादि की रचना का वर्णन जिस कथा द्वारा विपाक की विरसता बताकर श्रोता मे करना) विकल्पकथा (देश विशेष मे धान्यकी उत्पत्ति, वहाँ वैराग्य उत्पन्न किया जाय, वह मवेगनी कथा है । इहलोक के कूप, सरोवर, देवकुल, भवन मादि का वर्णन करना) और परलोक मे पाप, पुण्य के शुभाशुभ फल को बताकर छंद कथा (देश विशेष की गम्य-अगम्य विषयक चर्चा) ससार से उदासीनता उत्पन्न कगने वाली कथा निर्वेदिनी नेपथ्य कथा (देश विशेष के स्त्री पुरुपों के स्वाभाविक वेश कथा है। इनमे धर्म कथा का विवेचन और उपदेशन ही तथा शृगार आदि का वर्णन) प्रधानतया किया जाता है, क्योकि इन कथानो में देश कथा करने से विशिष्ट देश के प्रति राग या रुचि अध्यात्म भावो को बल प्रदान किया गया है और तथा दूसरे देश के प्रति अरुचि होती है। राग द्वेप से कर्म मामारिक प्रवृत्तियों को रोका गया है । विकथा का महत्व बध होता है और पक्ष-विपक्ष को लेकर झगडा खडा हा भी कम नही है। मामाजिक याथिक एव मास्कृतिक दृष्टि सकता है। मे अध्ययन करने पर विकथा वैभवपूर्ण ऐहिक जीवन की गज कथा के भी चार भेद है-प्रतियान कथा (राजा वैविध्य पूर्ण झा की प्रस्तुत करती है। के नगर प्रवेश तथा उम ममय की विभूति का वर्णन जैन कया के उन विभिन्न रूपो को इस प्रकार दर्शाया करना) निर्यागा कथा (राजा के नगर से निकलने की जा सकता हैबात करना तथा उस समय के ऐश्वर्य का वर्णन करना) जैन-कथा-साहित्य के प्रकार , बलवाहन कथा (राजा के प्रश्य, हाथी आदि सेना नया रथ प्रादि वाहनो के गुण और परिमाण प्रादि का वर्णन करना) कोप-कोठार-कथा (राजा के खजाने और धान्य (अ) कथा (ब) विकथा प्रादि के कोठार का वर्णन करना) (१) अर्थकथा (२) धर्मकथा (३) कामकया गजकथा करने से श्रोता गजपुरुष के मन में साधु के बारे में सदेह उत्पन्न हो सकता है और इसके सुनने मे दीक्षित साध को भुक्त भोगों का स्मरण हो मकता है। १. प्राक्षेपणी २. विक्षेपणी ३. मंदिनी ४ निवेदिनी जिमसे सयम मे बाधा उपस्थित हो सकती है। प्राध्यात्मिक महत्व हमने ऊपर जिन विकथा के भेदोपभेदो का वर्णन किया है उनका धामिक एव चारित्र-दृष्टि से भले ही निषध . १. स्त्रीकथा २. भक्तकथा ३.देशकथा ४. गजकथा किया गया हो पर सामाजिक और सास्कृतिक दृष्टि से इन कथानो का बड़ा महत्व है। धर्म के रग का प्रावरण १. जातिकथा १. पावापकथा १. विधिकथा १.अतियानकथा उतारकर यदि इन कथाम्रो का समाज-शास्त्रीय अध्ययन २. कुलकथा २. निर्वापकथा २. विकल्पकथा २. निर्याणकथा किया जाय तो एक वैभवपूर्ण सास्कृतिक युग का पता लग ३. रूपकथा ३. प्रारंभकथा ३. छदकथा ३. बलवाहनकथा ४. वेशकथा ४. निष्टानकथा ४. नेपथ्यकया ४. कोपकोटार सकता है। कथा विकथा की विपरीत कथा धर्म कथा कहलाती है। सास्कृतिक महत्व Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन. कथा साहित्य की विशेषताएं जैन कथा साहित्य का महत्व . (ब) सांस्कृतिक महत्व दार्शनिक और तात्त्विक सिद्धान्तो की विवेचना के इतिहास मे भी अधिक महत्व है संस्कृति के व्यापक लिए म्फुटगीतो और मुक्तक छदो की अपेक्षा कथानों का परिवेश को जानने के स्रोत के रूप में इन कथामों का। प्राधार अधिक मनोवैज्ञानिक है। उसमें चितक-काव्य पारिभाषिक शब्दों मे जिसे 'विकथा' कहा गया है, मेरी नियमो की नियत्रणा से मुक्त रहता है अतः अपनी विचार- दृष्टि से उन दग्टि में उनमें तत्कालीन मास्कृतिक जीवन का जो चित्र धारा को अधिक स्वतत्रता पूर्वक महज रूप में कह सकता मिलना है वह अन्यनम है। मिलना है वह अन्यनम है। उम ममय के राज-वर्ग का, है। यह कथा पद्य और गद्य दोनो रूपो मे मिलती है। वणिक वर्ग का व मामान्य स्तर बणिक वर्ग का व मामान्य स्तर की जनता का सर्वांगीण पद्य रूप में कथा-काव्यो और चरित-काव्यो का विपुल चित्रझाकता मा दिखाई देता है इन कथानों की पृष्ठभूमि परिमाण में निर्माण हुप्रा है। इन कथानो का प्राधार में इन कयामों की घटनावलियो मे, इन कथानों की पात्रऐतिहानिक. पौराणिक एवं काल्पनिक रहा है । सस्पात, धारणा में । मुनि जिनविजपजी ने ठीक ही लिखा है कि प्राकृत, अपभ्रग में यह माहित्य यथेष्ट मात्रा म निम्बा भारतवर्ष के पिछले ढाई हजार वर्ष के सांस्कृतिक इतिहास गया है। गद्य के रूप में यह कथा माहित्य प्राकृत के प्रागम का मुरेख चित्रपट अकित करने में जिननी विश्वस्त और ग्रन्थो की टीका, नियुक्ति भाग्य, चणि, अवणि, बालाव. विस्तृत उपादान मामग्री इन कथानों में मिल भकनी है बोध प्रादि विविक्त म्पो में प्राप्त होता है। गजम्यानी उतनी अन्य किसी प्रकार के माहित्य में नहीं मिल सकती। उन कथामो म भाग्न के भिन्न-भिन्न धर्म, मप्रदाय, गण्ट्र, गद्य माहित्य को ममद्ध बनाने में उन कथानी ने बड़ा योग दिया है। समाज वर्ग आदि के विविध कोटि के मनुष्यों के नाना प्रकार के प्राचार-व्यवहार, मिद्धान्त, प्रादर्श शिक्षण, (अ) ऐतिहासिक महत्व मम्कार, गनि-नीति. जीवन-पद्धति, राजतत्र, वाणिज्य, निहामिक दृष्टि गे स कथा माहित्य का वदा ध्यवगाय, प्रयोपार्जन, ममाज-मगठन, धर्मानुष्ठान एवं महत्व है। भारतीय प्राचीन इतिहाग को अमूल्य मपनि प्रा.म-माधन प्रादि के निर्देशक बहुविध वणन निवद्ध किये इन कथायी में सुरक्षित है। तीयकगे, नकवनियों, हा है, जिनके प्राधार में हम प्राचीन भारत के मास्कृतिक मम्राटो और नरेगो को लेकर जो विविध पुराण लिखे उनिहाम का मर्दागो और गर्वनामग्यो मानचित्र तयार कर गये है उसमे उन समय की ऐतिहामिकना पर पर्याप्त मकने है।" प्रकाश पडना है। महाभारत के ममान विश गण' (स) लोक तात्विक महत्व: और 'पाण्डव पुराण' तथा रामायण के नानक के ममान यो नो टन कथायों की मुल चेतना धार्मिक रहा है। 'पद्मपुराण' जैसे विशाल अन्य भारतीय इतिहाम-पुगण पर दर्शन और नीति की शुष्कता को मग्न और गेचक माहिन्य को जैनधर्म की विशिष्ट देन हैं। अन्य जनतर भाव-भूमि पर ला उतारना भी कम गौरव की बात नहीं पुगण गाहित्य की अपेक्षा इन पुराणो ऐतिहामिक तथ्यों है। धार्मिक दष्टि की प्रधानना होते हुए भी इन कथानों में का समावेश कही अधिक है। यहाँ जो पात्र है व मया नाणता नही पा पाई है। जिस जन-जीवन के व्यापक अमानवीय और पौरागिक न होकर मानवीय और निहा- धगतल पर ये टिकी हुई है वह मप्रदाय विशेष के व्यामोह मिक है । इसी कारण वे हमारे अधिक निकट है। उनके गे ग्रस्त न होकर मावंभोम लोक-जीवन का आधार है। क्रिया-कलाप हमारे अपने जान पड़ते है। विशष्टिगलाका यही कारण है कि ढाई हजार वर्ष पूर्व निमित ये कहापुरुषों के जीवन वृत्त हमारे मामने जो मामग्री प्रस्तुन निया आज भी लोक-कथानो के रूप में विविध प्रदेशो में करते है उममे अनेक ऐतिहामिक भ्रानियों का समाहार प्रनलिन है । जैन आगमी म राजा श्रेणिक के पुत्र और नो होता ही है, इतिहास के कई नये पाठ भी बलन मे मत्री अभयकुमार के बुद्धिचातुर्य की जो कथा है वह प्रतीत होते हैं। अपन उसीहर में हरियाणा के लोक-माहित्य में प्रहाई Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त दैत की कथा के नाम से प्रसिद्ध है । इसी प्रकार शेर-खर- उनका रूप अपनी भावना के साँचे में ढाल दिया है। यही गोश, बदर-बया, नील सियार प्रादि की कहानियाँ हैं जो कारण है कि अनेक शृङ्गारिक पाख्यानों को अन्त मे जैन साहित्य के अतिरिक्त बौद्ध-जातकों, पचतत्र, हितो- उपदेश प्रधान बनाकर शान्त रस में पर्यवसित कर दिया पदेश, कथासरित्सागर प्रादि जनेतर अथो में ही नही है। सूफी कवियों ने आगे चलकर इसी प्रकार अपने प्रबन्धमिलती वरन प्राज भी सर्वसाधारण में प्रचलित हैं । इम काव्यो में प्रेम-मार्ग का प्रतिपादन किया। सार्वभौम और सार्वजनीन रूप को देखकर सहसा यह लोक-कथाओं की भॉति इन कथानों में भी एक कथा कहा जा सकता है, कि जैन कथा साहित्य भारतीय कथा के साथ कई कथाएँ अन्तर्लीन रहती है। इनका प्रारम्भ साहित्य का स्रोत ही नही रहा वरन् विश्वकथासाहित्य का प्रायः वर्णनात्मक ढग से होता है। प्रारोह अवरोह के प्रेरक भी रहा है। भारत की सीमायो को लांघ कर ये लिए विशेष स्थितियां नहीं बनती। सामान्यतः पात्र कथाएँ अग्ब, चीन, लका, योगेप प्रादि देश-देशातरो मे आरम्भ मे भोगी या मिथ्यादृष्टि होता है। मध्य में किसी भी गई है। उदाहरण के लिए 'नायधम्मकहा' की चावल निमित्त कारण से उसकी दष्टि बदल जाती है वह सम्यके पाँच दानो की कथा कुछ बदले हुए रूप में ईसाइयों के दुष्टि हो जाता है, समार से विरक्त हो जाता है। कभीधर्म अथ 'बाइबिल' में भी मिलती है । प्रसिद्ध योरोपीय कभी ऐमे पात्र भी आते है जो प्रारम्भ मे दृढ धर्मी और विद्वान् ट्वानी ने कथाकोश की भूमिका में यह स्पष्ट कर अडिग साधक होते हे पर अचानक साधना से उनका मन दिया है कि विश्व कथायो का स्रोत जनो का कथा-साहित्य उचट जाता है और वे मिथ्यादृष्टि बन जाते है । पर अन्ततः विविध कठिनाइयों और संघों को पारकर सभी जैन कथा साहित्य का साहित्यिक परिशीलन पात्र अपना-अपना फल पा लेते है। इन कथानों का मूल जैन कथानों का निर्माण मामान्यत एक विशेष उद्देश्य भी बुराई से मन की प्रवृत्ति को हटाकर भलाई विचार-धाग का प्रतिपादन करने के लिए किया गया है। की अोर मन को अग्रसर करना है। इस विचारधारा का केन्द्र बिदु है कर्म विपाक का कथा इतिवृतान्मक होती है। उममे ज़टिलता या सिद्धात । अर्थात जो जैमे करता है, उसे वैसे ही भोग वक्रता के लिए कोई स्थान नही। प्रादर्शोन्मुखी होने के भोगने पड़ते है। कोई किसी का मगा या साथी नहीं है। कारण इन कथानो में जगह-जगह अलौकिक सकेत मिलते मात्मा के माथ उसके कम ही पाते हे या जाने है। इस है। कही देव वक्रिय रूप धारण कर साधक की परीक्षा दार्शनिक धारणा के स्पष्ट प्रतिपादनार्थ सामान्यतः ऐसे लेते हुए दिखाई देते है तो कही उमकी भलाई से प्रभाकथानकों की सष्टि की गई है जो बुगई के बदले में बुग वित होकर उसके मंकट में सहायता करते हुए। यह और भलाई के बदले में भला फन प्राप्त कर लेते है। प परिवर्तन का तत्व कथा के प्रधान पात्र में भी पाया विषय की दृष्टि से तो यह कथा माहित्य अत्यन्त व्यापक जाता है और सहायक पात्र में भी । कही इलापुत्र नटनी है। इसमें जीवन के सभी पक्षो और ममाज के मभी वर्गों को पाने के लिए नट बनता है तो कही मोदक की प्राप्ति से कथानक लिये गये है। व्रतो का माहात्म्य बतलाया के लिए प्राषाढ मुनि चार रूप बनाते हैं । लोक साहित्य गया है तो धार्मिक अनुठानों की पक्ति का वर्णन भी में प्राप्त प्राय मभी कथानक रूढियो का पाश्रय भी इन क्यिा गया है। दान, पूजा. दया, गोल की प्रभावना का कयानो में लिया गया है। वर्णन है तो तपस्या की धारणा का महत्व भी प्रतिपादित मक्षेप में कहा जा सकता है कि इन कयामों का है। एक ही विचार-धागका प्रतिपादन होने से प्रकारान्तर कथानक लोक तत्व की नीव पर ही खड़ा हपा होता है । से यह माहित्य जितना विस्तृत है उतना ही सीमित भी। उसमे प्रादर्श की अवतारणा होती है, धर्म की विजय और कथाकारी ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए लौकिक अधर्म की पराजय दिखलाई जाती है। उसका वृत्त महापात्रों को भी कही-कही जैनधर्म का बाना पहना दिया है। काव्य की तरह विस्तृत होता है। उसमे प्रौपन्यासिक Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंग कथा साहित्य को विशेषताएं कौतूहल और विस्तार होता है। इन कथाओ की पात्र - सृष्टिब्यापक भाव-भूमि पर आधारित होती है । यों तो इनमें प्रधान पात्र प्रकारान्तर सेप्टिनाका पुरुष ही होते है पर सामान्यतः प्रत्येक वर्ग का पात्र इनमें दृष्टिगत होता है। राज-वर्ग से निम्न वर्ग का गबंध सूत्र भी यहाँ दिखाई देता है। दतिल हरिवेशी (हरिजन) प्रहारी (चोर) मर्जुनमानी ( माली) मद्दालपुत्त (कुम्भकार ) श्रादि पात्र यहाँ अपनी साधना के कारण सम्मान के अधिकारी बने है । ये पात्र किमो न किमी वर्ग, जाति या समूह का प्रतिनिधित्व करते हुए पाये जाते है। इनमें उनके स्वतन्त्र मनोभावो के अभिव्यजन और मानसिक ग्रन्तर्द्वन्द्व के लिए कम ग्यान है। पात्रों के परित्र-चित्रण में पर्याप्त विकास मिलता है। यदि वे मिथ्यादृष्टि हैं तो उचित अवसर और उपदेश पाकर विरागी बन जाते है। यह परिवर्तन कई कारणो से हो सकता है । कभी शास्त्रार्थ के कारण (जैसे) केशो अमण और राजा परदेशी) दृष्टि बदल जाती है, कभी दूसरो को दुखी देखकर और कभी अत्यन्त नियत्रण के प्रतिकार (कोशनि की भावना से मन मार्ग की ओर अग्रसर हो जाता है । १३५ है । मानव मन की चारित्रिक दृढ़ता मौर प्राचरण की गरिमा तथा महानता को प्रतिरादित करने के लिए हो यहां मानवेतर पात्रों की सृष्टि की गई है। इन कहानियों को पढने से मानवीय परियो को प्रभाव गरिमा मौर व्यक्तित्व की महिमा से ही पाठक प्रभावित प्रातंकित और स्तम्भित होता है न कि दैविक शक्ति के प्रयोग धीर चमत्कार मे देवयात्रों की मुष्टि अपने पाप में महत्वपूर्ण | नही है वह महत्वपूर्ण बनती है मानवीय चरित्र को महा नता का उद्घाटन कर । जैन कथा साहित्य की एक अन्यतम विशेषता है देशकाल का व्यापक चित्रण । इन कहानियो को पढ़ने से भारत-भूमि की भौगोलिक और ऐतिहासिक जानकारी का प्रामाणिक परिचय मिलता है। उस समय के प्रसिद्ध नगरों के नाम, पात्रों के नाम, प्रधान व्यवमायो के नाम, महत्वपूर्ण उद्यानों के नाम श्रादि के उल्लेख से वातावरण मे सजीवता व निश्चितता या गई है। प्रमुख नगरी के कुछ नाम है- राजगृह नगरी लावर्धन नगर, चम्पानगरी, निनाम्बिका भावस्ती, मिथिला यतिका धादि उद् यानी के नाम है-मडीकुक्ष मृगवन आदि । इस व्यापक चित्रण के कारण कहानी वर्णनात्मक अधिक बन गई है। नगर, बाग, संपदा, व्यवसाय, सौन्दर्य, माधना यादि का विस्तृत वर्णन मिलता है। स्त्री पात्रो में सामान्य और विशिष्ट दोनो प्रकार की स्त्रियां देखी जाती है। सामान्य स्त्रियों कामुक, ईर्षा और साधना के मार्ग में बाधक होती है, विशिष्ट स्त्रियाँ मती साध्वी मयमनिष्ठ और चरित्र को बलवान होती है । उनमें अपने चरित्र को दृढता के साथ पालने की शक्ति ही नहीं होती बग्न दूसरों को सदमाग पर बनाये रखने की भी ताकत होती है। राजमती, कांच्या याद ऐसी ही स्त्रियाँ हैं । देव-पात्रों और पशु-पक्षियों की भी यहाँ कमी नही यह वर्णन कथा-ली के कारण नीरस न होकर मरस बन गया है। भाषा में जो एक विशेष प्रकार का प्रवार मौर लौकिक उपमानो के चयन से विशिष्ट प्रकरण है वह कथा के सौन्दर्य को बिलग्ने मे गेवला है। यह ठीक है कि शैलीगत वैविध्य और शिल्पगत सौन्दर्य इन कहानियों मे नहीं है पर जिस सार्वजनीन सत्य को ये ध्वनित करती हैं वह अपने आप मे बहुत बड़ी उपलब्धि है। ⭑ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थायी सुख और शान्ति का उपाय पं० ठाकुरदास जैन बी. ए. श्रावक-तिलक, दिव्यज्योतिर्मय सतसाहित्य को प्रकाश और शिरोधार्यता प्राप्त कर ली थी। जिस स्वराज्य को में लाने वाले तथा ज्ञानियो एव धर्मात्माओ के अनुपम भारतवर्ष अपने शस्त्र और प्रस्त्रों के बल से शताब्दियों बन्धु म्वनाम धन्य साह शान्ति प्रसाद जी जैन के जैन पुण्य तक मैं नही पा सकता था, उसको उन्होने एक भी मानव पुरातत्त्व के समुद्धार मे तल्लीनता पूर्वक योग देने वाले का रक्पात किये बिना अपने और अपने अनेक अनुयायियो और अपनी अनेक निस्वार्थ समाज सेवाग्रो से समुज्जवल, की अहिसामयी साधनामो से थोड़े ही समय में प्राप्त कर अतीत सम्पन्न श्री विशनचन्द्र जी जैन प्रोवरसियर माह लिया था। विज्ञ वाचक जानते ही होगे कि अहिंसामयी सीमेण्ट सरविस नई देहली की कई मामो से यह प्रेरणा साधनाए तो मानवो को ईश्वरीय कोटि में ले जाती है प्रत रही है कि मैं एक ऐसा लेख लिखू जिससे ससार यह जान उनके समक्ष हिसकवत्तियों की पोषक दानवीय शक्तियो ले कि जैनधर्म के सिद्धान्तो के वास्तविक अनुसरण से ही को मनान और अकिञ्चित्कर ही रह जाना पड़ता है। विश्व उच्चकोटि की स्थायिनी सुख-समृद्धि के साम्राज्य के अन्तर्गत पा सकता है अतः शासको को यदि अपने जब तक उनका जीवन रहा, उपद्रवो की शान्ति ही राष्ट्र और परराष्ट्रों में विश्व शान्ति स्थापित करनी हो रही। उनके दक्षिण हस्त स्वरूपी पण्डित जवाहरलाल जी तो वे उक्त सिद्धान्तों के ऊपर भिन्न-भिन्न भागयो मे नेहरू मे भी उनका अनुकरण रहा। उन्होने भी विश्वउक्त सिद्धान्तो के रहस्यो के विशेषज्ञो के द्वारा ग्रथो की शान्ति के अहर्निशभाव रवावं और उनके अनुसार ही रचनाकर उनके पठन-पाठन को शिक्षा का एक ब्रावश्यक उनकी प्रवृत्तियाँ रही। पर अब भारत पर भाविनी मग बना दे, भिन्न-भिन्न देशो में उनके उपासक विद्वानो अशान्ति की घोर घटाएँ फिर मॅडलाती जान पडती है। को भेजकर संमार के समक्ष उनका मनोवैज्ञानिक महत्त्व मस्कृत के इस प्राचीन ग्लोक मे महर्पियो की विचाररक्व और इस अङ्ग के प्रमार को शामन का एक नित्तान्त धाग कैसी मधुरत। की वर्षा कर रही है.प्रावश्यक अङ्ग बनावे। प्रकरणत्व मकारण विग्रहः वर्तमान शताब्दी के प्रथम चतुर्थाश तक तो भारत के परधने परयोषिति च स्पृहा । अधिकाँश मेधावी नेता शारीरिक वीरता का यशोगान स्वजन बन्धुजनेष्व सहिष्णुता करते और कराते हुए इस विचार धारा के ममर्थक रहे थे प्रकृति सिद्धमिदं हि दुरात्मनाम् ।। कि अहिसा ने भारत को स्त्रैण-स्त्रीस्वभाव बना दिया (भर्तृहरि ।) है, अहिसा के कारण भारत नपुसक बन चुका है। उन जो दुगत्मा है उनमें ये बाते प्रकृति सिद्ध ही हमा नेतामो की धारणा को भ्रमपूर्ण सिद्ध कर देने वाले हमार करती है। वे निर्दय होते है, कारण के बिना ही युद्ध राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हुए जिन्होंने अहिरा (जिसकी कर बैठने है, दूसरे की सम्पत्ति और दूसरे की स्त्री को कोटि में सभी सद्भावो उच्च श्रेणी का मंत्रीभाव, और प्रात्मसात् कर लेने के उपाय किया करते है और वे अपने समुज्ज्वल नैतिक जीवन की प्रेरणा से किए गए कार्यों को परिवार तथा भाई बन्धुनों तक से साहिष्णुता का व्यवहार परिगणित किया जाता है।) की शक्तिभर पालना करके नही रखते । ऐसी प्रकृति के मानव वैयक्तिक, सामाजिक विश्वव्यापनी अग्रेजो की भौतिक शक्ति को कम्पित कर और राष्ट्रीध सभी जीवनों को प्राम कालिमानो से मलिन दिया था और अपनी उक्तसाधना से विश्व भर की पूज्यता करते रहते है। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी तुम और शान्ति का उपाय अंग्रेजी के एक कवि ने एक छोटी-सी कविता में इस प्रवार के भाव बडी रोचक पद्धति से बता दिए हैं। दुगत्मा परमम्पत्ति के हरण को बलात्कार किसी-न-किसी मिय मे कर डालने की चेष्टावे करते ही रहते है जंगी कि कुछ दिन पूर्व चीन ने की थी अथवा अभी पाकिस्तान जंगी चेष्टाओं में निरत है कवि लिखते है कि निमन्देह हमारे पर्वतों की भेडेट-पुष्ट होती है पर हमारे पड़ौसी प्रान्त की भेड़े विशेष मीठी होती है। प्रत हमने अपने पराक्रम कर दिया और उसका शिर धौर दह उसकी भंडों को 'बलात्कार' छीनकर अपने अधीन कर लिया। 1 जिन्होंने अगणित नरेशों के जीवनों की प्रशस्त अथवा प्रशस्त परिणतियों को ध्यानपूर्वक जानकर उनके सुमरणो अथवा कुमरणो को सूक्ष्मता मे जान लिया है वे टम सिद्धान्त के निश्चय पर समय पहुँच चुके होंगे कि अत्याचारी शासको के मरण बड़े शोचनीय संक्लेशों मे होने है । जो व्यक्ति जितना ही अधिक ग्रहिसक, सरलपरिणामी लोकोपकारी और पवित्र जीवन सम्पन्न रहता है यमराज उसका उतना ही अधिक सम्मान किया करता है तथा कथित विश्व विजेता सिकन्दर ने सहयों प्रामों को खण्डहरो के रूप का बना दिया था, लाखों मानवों के रक्त मेसु को प्लावित कर दिया था पर तीस वसुन्धरा वर्ष के पूर्व ही जब वह काल की ताडना से मृत्युआयुष् शय्या पर व्यथित हो रहा था, उसे अपार और असह्य वेदनाओं ने ही धार रोदन करनेके लिए विवध किया था। हम लोगों के जीवनकाल 'कर्ती' हिटलर की ही दशा को विज्ञयापक जान ने अपने क्षणिक दिन और दानवीय । दाक्तियों के मद में विश्वभर को मातङ्क में डाल देने वाले, मैकडो नगगे की भी समृद्धि और गणित मानवो को यमलोक पहुँचा देने वाले हिटलर का फिर पता नही चल काकि अपने कृत्यों के उसे कहाँ कहाँ कैसे कैसे फल भोगने पडे । कोई भी शासक अपने पद के अधिकार के मद में परराष्ट्रों के ऊपर आक्रमण कर सकता है, पर उसे यह अवश्य सोच लेना चाहिए कि जितना ही अधिक वह अत्याचार औौर पर पीडन करेगा; उतना ही अधिक संवेमय उसका मरण होगा। अगणितों को दी हुई १३७ प्रचार पीढ़ा में मरते समय वा धागामीभवों में उसे कई गुने रूप में भोगनी ही पड़ेगी । अंग्रेजी के प्रसिद्ध कवि ने सरले ने एक हृदय-स्पलिनी कविता में बड़ी गहरी बात कही है। उसे कविता का शीर्षक हैं सब को समानतल पर ला देनी वाली मृत्यु । कवि ने मर्मभेदी वाक्यों मे लिखा है कि मृत्यु एक ऐसी निप्पक्ष निर्णायक है जो राजा और रडू में भेदभाव न करके केवल उनके सत्कर्मों और दुष्कर्मों का लेखा लेती है। वे लिखते है कि राज्य वैभवों का मद सर्वथा निशधार है। ये वैभव मृत्यु की यातनाओंों से बचा लेने में सर्वथा अकिञ्चित्कार हैं। राजामों के छत्रचामर मादि उसी प्रकार पड़े रह जाते है। जिस प्रकार कि एक किसान की खुरपी धौर हँसिया । तुम युद्ध में अपनी भुजाम्रों की वीरता से प्रगणितों का सहार कर सकते हो या का सकते हो अपनी विजय पताका भारोपित कर सकते हो पर एक दिन ऐसा प्रवश्य प्रावेगा जब तुम दीन, दयनीय एव दुःखित दशा में मृत्यु के समक्ष रेंगते हुए चलने के लिए विवश होगे। अपनी अधिकार-शक्ति के मद में निन्द्य काम न कर बैठो। उनका फल केवल तुम्हें ही भोगना पड़ेगा। देखो, एक न एक दिन मनाथ की भाँति तुम मृत्यु की वलिवेदिका के समक्ष खीचे जानोगे श्रौर वहाँ तुम्हारी बनि बड़ी निष्टुरता से बढ़ाई जायेगी। केवल पवित्र जीवन व्यतीत करने वालों का ही वहां सम्मान होगा उनकी ही सुगन्ध दूसरों को प्राच्छादित करेगी। अब नरेशो के स्थानापन्न प्रधान मंत्री गण हो रहे है उनका कर्तव्य है कि वे उक्त पंडियों का रहस्य मोचते रहे । जैनागम में भरत चक्रवर्ती और उनके ही सगे छोट भाई पोदनपुर नरेश बाहुबलि स्वामी के बीच के युद्ध का बडा कोलपूर्ण विवरण पाया जाता है। दोनों भाइयो की मेनाये सुमन खडी है भाई-भाई युद्ध करने पर कटिबद्ध हैं । इन्द्र ने उन्हें सम्मति दी कि इन विचारे वेतनभोगी मैनिकों के हृदयों में तो पारम्परिक कपाय है नहीं । केवल तुम दोनों भाई ही अहिंसक युद्ध कर लो । प्रथम दृष्टि युद्ध करके देखो वीरता भरी दृष्टि से परस्पर को देखो जिसकी दृष्टि शीघ्र निमीलित हो जाय वह । 1 Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ अनेकान्त अपने को पराजित माने । फिर जल युद्ध करके देख लो। सुखों और दुःखों के कारण में और जन्म-मरण के रहस्यों पश्चात् भुजयुद्ध कर लो जो इनमें हार जाय वह पराजित को जानने में प्रयत्नशील हो जायें। माना जायेगा । ऐसे युद्धों से तुम्हारी युद्ध करने की लालसा यदि संसार दूसरों को मार डालने में वीरता न मानपूरी हो जावेगी और तुम्हारे बीच की वैर रूप कषाय जो तुम्हारे सैनिकों में नही है, स्वतः शान्त हो जायेगी। पौर कर अपने दुर्भावों को मार डालने में ही वीरता मानने तुम लोगों के हृदयों मे भरे हुए बैर के कारण निष्फल लगे तो ससार के दुःखों का अन्त ही हो जायेगा । जिनअगणित निरपराध सैनिकों का संहार नहीं होगा। हिंसक जिन महापुरुषों ने अपनी दुर्भावनाओं, दुर्व्यसनो और नेता इसी प्रकार के प्रयत्नों से शान्ति स्थापित करने के दुराचारो का दमन किया वे ही लोक्य पूजित हुए; ध्येय रखते हैं। इसके विपरीत दूसरों पर विजय पाने के लोलपी अणिक भौतिक विज्ञान इस युग में विस्मयकारी चमत्कार विजयो निसन्देह हुए, यह अन्त में उनका कल्याण नही दिखा रहा है, पर इससे भी करोडो गुने विस्मयकारी हुआ है। चमत्कार माध्यात्मिक शक्ति सम्पन्न मानव दिखा चुके हैं। जो एक व्यक्ति के विषय में सत्य है, वही एक परिप्राचीनकाल के महात्मामों की बात तो प्रादर्श कोटि की वार, एक समाज, एक जाति और एक राष्ट्र के विषय में विस्मयकारिणी थी ही; मभी सन् १५६५ के लगभग की भी सत्य हो सकता है, यहाँ तक कि वह पूर्ण विश्वभर के बात है। फ्रांस के नौदईम नामक एक प्रवधुत की भांति लिए भी सत्य हो सकता है । सभी धर्मानुयायियों ने यथा जीवन व्यतीत करने वाले ने १००० भविष्य वाणियों को शक्ति अहिंसा सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और परिग्रह स्वकरके एक पुस्तक प्रकाशित कराई थी। उसके जीवन पता को महात्मानों की कोटि में विराजमान करने का काल में ही उसकी लगभग ९९ प्रतिशत भविष्य वाणियाँ गणेश माना है। हमारा अनुरोध है कि शासन उक्त यथावत् सिद्ध थी। गत छ योरूपीय महायुद्धों का भी विषयों पर अधिकारी लेखकों द्वारा मनोवैज्ञानिक प्रणाली उसमें जो संकेत था, वे सत्य निकले थे। उसकी प्रतिम के प्रथों की रचनाएँ करा के उनका स्वय, अपने देश में भविष्य वाणी यह थी कि ईसा मसीह के ७००० वर्ष प्रचार करे। छात्रों के हृदयों मे शैशव से ही उनका पश्चात् समस्त योरुप जलमग्न हो जायगा, केवन पाल्पस माध्यात्मिक महत्त्व अङ्कित करा दे। भिन्न भिन्न भाषामों पर्वत समुद्र के ऊपर निकला दीख पड़ेगा। अंग्रेजी प्रादि में उन ग्रंथों को अनूदित करावें और सम्राट अशोक की कई भाषामों में उसकी भविष्य वाणियां प्रकाशित हई भांति विश्वशान्ति के दूतों को प्रत्येक देशों में भेजकर थीं। मेरा पुष्कल स्मरण है कि सन् १९४४, १९४५ या विश्वशान्ति के उपाय करावे । वि १९४६ के जून, जुलाई या अगस्त मास की सरस्वती में इस लेख के लिखने में जो भी बलवती प्रेग्णा रही नौप्टर उस की भविष्य वाणियां शीर्षक एक लेख प्रकाशित है वह श्री विशनचन्द्र जी जैन प्रोवरसियर की है। हुमा धा। अत: इसमे जो कुछ भी अल्पसी अच्छाई हो, उसका श्रेय भौतिक विज्ञान जो नर संहारक माविष्कारों में अपनी थी प्रोवर सियर जी को प्राप्त होना चाहिए। शक्तियां लगा चुका है और लगाता जा रहा है, वह यदि अब लेख के अन्त में मैं स्वरचित तीन छन्दों को जो ऐसा मागे भी करता जायेगा तो इस भूमण्डल पर मानवों मैंने प्रब से लगभग २५ वर्ष पूर्व बनाये थे, 'मघरेण भादि का प्रलय ही हो जायेगा। विज्ञ विवेकियों का ममापर्यत' की लोकोक्ति के अनुसार लिखकर अपना कर्तव्य है कि पब मागे प्राध्यात्मिक माविष्कारों की मोर वक्तव्य समाप्त करता है.अगि मुम्ब हों । चन्द्रलोक की यात्रा के लिए महनिश प्रभो, प्रावेगा कब वह काल ? उत्सुख न होकर अपने घट में विराजमान प्रात्मलोक की जब इन सब विभिन्न सामाजिक संख्यानों के कार्य, और पभिमुख होकर उसके रहस्यों को जानें । जीवों के सर्व हितकर विश्ववन्धुता से होंगे निर्वाय । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मचक्र सम्बन्धी जैन परम्परा डा० ज्योतिप्रसाद मैन चक्र के पाविष्कार को मानव के इतिहास की सर्वा- किया, विविध द्रव्यों में निरन्तर प्रवाहमान परिगमन. धिक महत्त्वपूर्ण घटना कही जाय तो कोई अत्युक्ति नही शीलता को-एक बाध गति को लक्ष्य किया, जड़ अथवा होगी। माकाश में चमकते सूर्य और चन्द्रमा को देखकर, पुदगल से भिन्न पात्मतत्व को बीन्हा और उसके जग्मअथवा मर सरितामो मे पड़ती भंवरो को देखकर, अथवा मरणाधारित प्रावागमन या भवभ्रमण रूप संसारचक्र को तीव्र झझा मे उठने गोल भभूलों को देखकर, कब, कहाँ, सत्यरूप से स्वीकार किया। उक्त संसारचक्र से संबन्धित किम प्राकृतिक दृश्य से प्रेरणा लेकर मनुष्य ने यह महत्तम कालचक्र कल्पित हुमा। पौराणिक हिन्दुधर्म के विश्वासामाविष्कार किया था यह तो कहना कठिन है किन्तु इस नुसार सष्टिकर्ता परमेश्वर के चतुर्भुजी विष्णु रूप के आविष्कार के फलस्वरूप ही मनुष्य चक्की से अनादि का एक हाथ में चक्र रहता है जो उनके द्वारा सृष्टिचक्र के वर्ण, चरखे से मूत प्रत. वस्त्र, चाक से बर्तन-भांडे और सृजन, सञ्चालन, नियमन, संरक्षण एव सहार का द्योतक चक्के (पहिये) से गमनागमन के साधन प्राप्त करने में माना जाताविधा माना जाता है । विष्णु के कृष्णावतार का तो प्रिय मायुष समर्थ हया । वस्तुत: मनुष्य की भौतिक सभ्यता का प्रों द्री मनचक्रमा मासीन प्रकार नम हम प्राविष्कार के साथ ही हुमा समझना चाहिए। प्रायध का माविष्कार भी विलक्षण था। यह एक प्रकार इतना ही नहीं, जैसे जैसे मनुष्य अपनी इम महान उप- का सर्वश्रेष्ठ प्रक्षेपास्त्र माना जाता था। अन्य अनेक लब्धि (चक्र) की क्षमतामों का अधिकाधिक अनुसन्धान हिन्द देवी-देवतामों तथा जैन यक्ष-यक्षणियो के प्रायुधों में करता गया उसकी मभ्यता गतिवान होती गई, प्रगतिपथ भी 'चक्र' का बहुधा उल्लेख हुमा है। भारतीय जैन, पर उत्तरोनर धावमान होती गई। छोटे से छोटा और बौर एवं हिन्दू परम्परा में सम्पूर्ण पृथ्वी के दिग्विजयी बडं में बड़ा, कोनसा ऐसा यन्त्र है जो किसी न किसी रूप एकराट् सम्राट को चक्रवर्ती संज्ञा दी गई है। यदि हिन्दू में चक्र के प्रयोग बिना निर्मित हो मके अथवा कार्य कर परम्परा में समद्रमन्थन से प्राप्त चौदह रत्नों में एक सके। सुदर्शनचक्र था तो जैन परम्परा के अनुसार इस पल्पकाल चिन्तको, विचारको, दार्शनिकों एवं संस्कृतियों के में भरतादि बारह चक्रवर्ती नरेश हुए है उनमें से प्रत्येक पुरस्कर्ताओं ने भी गति एवं प्रगति के इस मूर्तरूप मथवा की प्रायुधशाला में चौदह रत्न प्रगट हुए थे और उन साकार प्रतीक को प्रतिष्ठान्वित किया और उसकी अनेक रत्नों में प्रधान चक्ररत्न था जिसका साधन करके वह रहस्यवादी व्याख्याएं प्रस्तुत की। उन्होंने जड़ एवं चेतन नरेण दिग्विजय चक्र पूरा करता मोर चक्रवर्ती कहलाता रूप द्विविध जगत में एक नियमित चक्राकार क्रम लक्ष्य था। जैन परम्परा मे जिनेन्द्र का भामडल (प्रभामण्डल) मित्रता होगी एक विशाल, (मिथबन्धु विनोद-चतुर्थ भाग से उगत) प्रभो, भावेगा कब वह काल ॥१॥ प्रभो, या एकबह स्वणिम समय भूपरनमायेगा, जब माभ्यन्तर शत्रु विजय से चोतित होगी शक्ति, भुवन में जब प्रचुर सुखशान्ति का साम्राज्य छायेगा। सदाचारमय सत्यप्रवृत्ति जब व्यक्त करेगी भक्ति । मनुज होंगे सरल सात्विक विमल अध्यात्म चलमय, सरल होगी पब सब की चाल, स्वजीवन मोह भी जिनको सत्पप से गिरायेगा। प्रभो, भावेगा कब वह काल ॥२॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. भी वृत्ताकार होता है, तीर्षहर के शरीर पर लक्षित फलस्वरूप साहित्य या कला में जहाँ कही न 'धर्म१.०६ शुभ सामुद्रिक चिह्नों में चक्र भी एक चिह्न है जो चक्र' उपलब्ध होता है उसे बोडों का अनुकरण कहने की बहया हाथो की हपलियों और पैरों के तलवों पर रहता टेव सी पड़ चली है। उदाहरणार्थ श्री बी०सी० भट्टाहै-मथुरा मावि में प्राप्त कुछ प्रागन तीपर प्रतिमामो चार्य ने जैन प्रतिमाशास्त्र विषयक, अपने ग्रन्थ में लिख में इस प्रकार का चक्र चिह्न हवेलियो एव तलवो पर दिया कि-Dharmacakkra (wheel or law/-- उत्कीर्ण पाया भी गया है। तीर्थपुर की समवसरण सभा It seems to have been borrowed from Budभी वृत्ताकार होती है, उसके केन्द्र स्थान में विद्यमान dhism to Indicate the preaching of the Dharma श्रीमहप अपनी तीनों पीठो सहित वृत्ताकार ही होता है। in connection with the Tirthamkaras'. अर्थात् द्वितीय पीठ पर स्थापित तथा विहार समय में साथ तीर्थकरी के प्रमंग म धर्म के प्रवर्तन को सूचित करने के चलने वाली दस या पाठ प्रकार की जो मङ्गलध्वजाएं लिए धर्मचक्र (रूपी प्रतीक) को (जैनी ने) बौद्धधर्म से होती है उनमें से सर्वप्रथम चक्राति ही होती है। उधार ले लिया लगता है। इन विभिन्न प्रकार के चक्रों के अतिरिक्त एक अन्य अन्य अनेकों की ऐमी धारणा है, किन्तु वह भ्रान्त है। चक्र होता है जिसका सास्कृतिक महत्त्व संभवतया सर्वा चक्र प्रतीक की जैन परम्परा में प्रतिष्ठा के विषय में ऊपर धिक है, विशेषकर जैन एवं बौद्ध परम्परामो, मे और वह जो कतिपय सकेत किये जा चुके है उनके अतिरिक्त स्वय है धर्मधक । बौवधर्म प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध ने गया धर्मचक्र भी जैन सस्कृति की एक मौलिक देन प्रतीत होती में बोधि प्राप्त करने के उपरान्त वाराणसी के निकटस्थ है। केवलज्ञान प्राप्ति के उपरान्त प्रत्येक तीर्थकर का जब मुगवाव (सारनाथ) में अपना सर्वप्रथम उपदेश दिया था। धर्म प्रवर्तनार्थ विहार होता है तो उनके धर्मचक्र प्रवर्तन इसी घटना को बौद्ध परम्पग मे धर्मचक्रप्रवर्तन कहते है। का मूर्त प्रतीक निरन्तर घूमता हुमा (गतिमान) महम्न मौर्यकालीन कतिपय विशाल एव कलापूर्ण स्तम्भो के मारों वाला तेज.पुज धर्मचक्र तीर्थकर के मागे मागे शीर्ष पर एक चक्र अकित पाया जाता है। प्राय. इन चलता है। प्राचीन जैन पुराणो में सर्वत्र वपभादि स्तम्भों को सम्राट अशोक द्वारा निर्मापित माना जाता है तीर्थकरों में से प्रत्येक के प्रसग में ऐसा उल्लेख हमा है। और उक्त नरेश को बहुधा बौडमतावलम्बी रहा विश्वास तीर्थकरो के बिहार में धर्मचक्र सदैव तीर्थकर के आगे किया जाता है, यद्यपि इस विषय में भतभेद है। प्रस्तु मागे चलता है। बिहार के अन्त मे जब जहाँ कही तीर्थकर इन स्तम्भो पर उत्कीर्ण चक्र को बोट परम्परा के धर्म तिष्ठते हैं वही उनकी समवसरण ममा जुडती है। उक्त चक्र का मूर्ताकुन मान लिया गया। मूर्तकला में उपलब्ध ममवसरण के मध्य मे जो श्रीमण्डप होता है-जिमके चक नामक सास्कृतिक प्रतीकका यह सर्वप्राचीन दृष्टान्त है। कि केन्द्र में गन्धकुटी पर तीर्थकर स्वय विराजमान होने बीडकलामे भी अन्यत्र उसके धर्मचक्र का प्राय., प्रभाव है, और हिन्दूकला मे भी चक्रधारी विष्णु की मूत्तियाँ ३. दोना पाइकानोग्रफी, पृ०१६. गुप्तकाल के पूर्वको शायद ही कोई है। किन्तु क्योंकि पिछले ४. (i) महमारस्फुरबर्मचक्ररत्नपुर.सर-आदि पुराण, काल में बौडधर्म का एशिया महाद्वीप के बहुभाग में प्रमार पर्व २५, श्लो. २५६ हुमा पौर उसके कारण इसके साहित्य पर कला प्रादि का (i) स्फुरितारसहस्त्रेण प्रभामण्डलचारुणा। माधुनिक युग में कही अधिक व्यापक एवं गहन अध्ययन यत्युगे धर्मचरण स्थीयते जितभानुना। तथा प्रचार हमा; धर्मचक्र, नामक प्रतीक को बोड सस्कृति -पप० पु०, पर्व २, श्लो० १०१ की ही एक विशिष्ट देन मानने की प्रथा चल पड़ा। (m) सहवारं हसद्दीप्त्या महस्रकिरणधुति । १. देखिए मधुरा संग्रहालय, बी. २,३,४,५ इत्यादि धर्मपत्रिमस्याग्रे प्रस्थमास्थानयोरभात् ॥ २. प्रादिपुराण, -हरि० पु०, मर्ग ३, इलो० २० Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मचक्र सम्बन्धी जैन परम्परा हैं-उस श्रीमण्डप की तीन में से प्रथम (सबसे नीचे की) पीठ पर सामने की भोर मध्य मे धर्मचक्र प्रकित पाया कटनी या पीठ पर शासन भक्त यक्ष धर्मचक्र लिये खडे जाता है जिसके दोनों मोर उपासक उपासिकाएँ उक्त रहते हैं ।५ प्रथम तीर्थकर ऋषभदेव तथा अन्तिम तीर्थकर चक्ररत्न की पूजा करते दिखाये गये हैं। कभी-कभी यह भ० महावीर के प्रधान यक्ष (या शासन देवता) मोमुख धर्मचक्र एक छोटे से स्तम्भ के शीर्ष पर अंकित किया एवं माता के मूत्तिविधान में ही उसका मस्तक धर्म- गया है और कभी-कभी घिरत्न प्रतीक के ऊपर। चक्राङ्कित होता है ।६ अभिधान चिन्तामणि मे तो नेमि- पादपीठ के दोनों छोरों पर एक एक बैठे सिह का प्रकन नाथ के नाम की व्युत्पत्ति ही धर्मचक्राय नेमिवन्नेमि., भी बहुधा मिलता है जो सभवतया सिहासन के सूचक है को है। और प्रतिमा भ. महावीर की है शायद इस बात के भी मथुरा में प्राप्त मौर्य-शुङ्ग काल के एक पूरे मायाग- ती० शान्तिनाथ की एक प्रतिमा मे मध्यवर्ती धर्मचक पट्र पर धर्मचक्र ही उत्कीण है। ईस्वी सन् के प्रारम्भ से के दोनो मोर एक एक मग प्रकित है१० । कुछ पूर्व मथुरा, अहिच्छत्रा, कौशाम्बी आदि मे विविध इस सबमे प्रतीत होता है कि जैन परम्परा में भी धार्मिक प्रतीकों से अकित पायागपटो की पूजा का प्रचलन किसी समय धर्मचक्र की पूजा का पर्याप्त प्रचलन था। जैनजगत मे था। उसके पूर्व स्तूप पूजा का भी प्रचलन तीर्थङ्कर प्रतिमानो का वह मावश्यक प्रग ममझा जाता था, किन्तु सभवतया बौद्धोद्वारा स्तूप को अत्यधिक अपना था। स्वतन्त्र पायागपटों में उत्कीर्ण करवाकर और स्तूप के लिया जाने के कारण जनो ने शनैःशनैः स्तूप पूजा का वहिभांग या चैत्य के प्रमुख स्थान में स्थापित करके उसकी त्याग मा कर दिया । स्तूप पूजा के समय में ही पायाग पूजा की जाती थी। सभवतया कलापूर्ण स्तम्भ बनाकर पटी की ओर उनके उपलक्ष्य से अन्य-स्वस्तिक, वर्धमानस्थ, उन स्तम्भो के शीर्ष पर धर्मचक्र की प्राकृति बनाई नन्द्यावर्त, त्रिरत्न, अष्टमंगलद्रव्य आदि-प्रतीकों की जानी थी और धर्मसंस्थानो के प्रागण में अथवा नगरों के पूजा का प्रचलन हुमा। अर्हत प्रतिमाएँ भी नन्दमौर्य शृङ्गाटक आदि प्रमुख स्थानो में ऐसे स्तम्भ स्थापित किये काल से प्रतिष्ठित होने लगी थी, किन्तु उनका अधिक जाते थे। उपरोक्त मे मे कतिपय मूट्रिनों को देखने से प्रचार शुङ्ग-शक-कुपाणकाल में ही हुआ। किन्तु गुप्तकाल यह भी लगता है कि स्त्री पुरुष पावालवृद्ध मिलकर फल से पूर्व की तीर्थकर प्रतिमानो मे लॉछन नहीं रहा था, पुप्प माला प्रादि द्रव्यो मे धर्मचक्र की पजा करते थे। प्रतएव कन्धो नक लटकती केशराशि के द्वारा तीर्थकर 3 ऋषभदेव की, सर्पफणाकार छत्र द्वारा ती. पार्श्वनाथ की इस प्रकार धार्मिक अनुधुतियों, प्राचीन साहित्य एवं और पादपीठ पर मिह तथा धर्मचक्र द्वारा तीथंकर महा- दो सहम वर्ष प्राचीन कलाकृतियो, पुरातत्त्वावशेषों वीर की नो पहिचान होती थी, अन्य तीर्थङ्करों की पहि आदि के अध्ययन से तो यही लगता है धार्मिक या चान प्रतिमा पर प्रकित लेख में प्राप्त उनके नाम द्वारा सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में धर्मचक्र मूलतः नपरम्परा ही होनी थी, अन्य कोई साधन नही था। की देन है। आज तो यह हमारे राष्ट्र का भी प्रतीक है __गुप्तकाल के पूर्व की अनेक जिन प्रतिमाओं के पाद यद्यपि उसे राजनीतिक रग देने के लिए 'अशोकचक्र के नाम से पुकारा जाता है। ५. कृताञ्जलिभिरानम्रमस्तकन्तित. स्थिते । म्फुरद्भिधर्मचकम्तदुदृयते यक्षनायक.॥ ७. मथुग सग्रहालय, नम्बर बी० २६, बी १३, बी०१४, -मेधावी रचित समवशरणदर्पण, श्लो० ३२ इत्यादि । धर्मचकञ्चमस्तके (प्रतिष्टासारसंग्रह), मूद्धनिधर्म- ८. बही, न. ४६०, बी०४, बी० १२, इत्यादि । चक्र (मन्दिरप्रतिष्ठाविधान), --देखिए दी जैनावही, बी०५, इत्यादि। प्राइकानोग्रफी, पृ० ६५, ११८-११६ १०. भट्टाचार्य, पृ०७३-७४ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन मूर्ति कला का प्रारम्भिक स्वरूप रमेशचन्द्र शर्मा (सहायक संग्रहाध्यक्ष राज्य संग्रहालय, लखनऊ ) परम्परा के अनुसार जैनधर्म में मूर्तिपूजा श्रादिकाल से मानी जाती है । इम प्रादिकाल का तात्पयं प्रथम तीर्थकर प्रादिनाथ या ऋषभदेव के समय से है। वर्षों मे इस समय का अनुमान लगाना असम्भव है । १८वें तीर्थकर ( अरहनाथ ) और ११वे तीर्थकर (मल्लिनाथ) के बीच का समय ही एक हजार करोड वर्ष का है। तीर्थंकरों का समय तो वर्षो मे मिलता भी नहीं। इस प्रकार यदि श्रुति परम्परा को आधार भी मान लिया जाय तो जैनधर्म में मूर्तिकला के विकास का काल निर्धारण नहीं हो सकता । पूर्ववर्ती वर्तमान सामग्री के प्राधार पर ऐतिहासिक दृष्टि से भी मूर्ति परम्परा को जैनधर्म में आदिकाल से मानने मे कठिनता है । २३वे तीर्थंकर स्वामी पार्श्वनाथ को ऐति हासिक विभूति माना जा मकता है और उनका समय ८वीं-हवी शती ई० पू० में प्रांका गया है। इतिहासकार इन्ही को जैनधर्म का प्रवर्तक मानते है। इनके पश्चात् ६टी शती ई० पू० में २४वे और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर हुए। पार्श्वनाथ के समय की मूर्तियाँ तो है ही नहीं, वर्धमान महावीर के समकालीन पुरातत्व अवशेषो का भी सर्वथा प्रभाव है। इस प्रकार ऐतिहासिक दृष्टि से जैनधर्म के प्रवर्तन के साथ-साथ मूर्तिपूजा का सम्बन्ध हमारी वर्तमान पहुँच के आधार पर स्थापित नही हो पाता । पटना के समीप लोहानीपुर मे मिली एक नग्न मूर्ति को कुछ विद्वान् इसकी विशेष प्रकार की चमक ( पालिश) के कारण मौर्य और शुगकाल के बीच की कलाकृति मानते हैं । डा० घटगे के अनुसार मूर्ति की नग्नता, दृढता व कायोत्सर्ग मुद्रा को इगित करती हुई लटकती बाहे इस का प्रमाण है कि यह मूर्ति किसी तीर्थकर की ही रही होगी (दि एज माफ इम्पीरियल यूनिटी पृ० ४२५) । ऐसा मान लेने पर यह मूर्ति जैनधर्म की सबसे प्राचीन मूर्ति मानी जाएगी। किन्तु एकमात्र इस मूर्ति के अतिरिक्त लगभग दो सौ वर्ष तक इतिहास इस दिशा मे मौन है और प्रथम शताब्दी की ई० से ही मूर्तियों का अविच्छन्न रूप से निर्माण प्रारम्भ होता है । प्रथम शताब्दी ई० पू० के कलिग नरेश खारवेल के हाथी गुम्फा अभिलेख से हमे वहाँ एक तीर्थकर की मूर्ति की पुन स्थापना की घोर सकेत मिलता है । प्रभिलेख के अनुसार तीन सौ वर्ष पहले मगधाधिपति नन्द इस मूर्ति को यहाँ से ले गए थे। इस घटना क्रम के प्राधार पर मूर्ति का आरम्भ काल कम से कम चौथी शती ई० ༢༠ में निर्धारित होता है कुछ विद्वान् खण्डगिरि और उदयगिरि की गुफा में अंकित मूर्ति पटों की कुछ आकृतियो को जैन प्राकृतियां मानते है। उदयगिरि की रानी नूर गुफा में उत्कीर्ण एक पट को २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ की जीवन घटनाओ से सम्बन्धित माना जाता है । कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में नगर निर्मारण सम्बन्धी प्रकरण में जिन मूर्तियो को नगर के मध्य भाग में स्थापित करने को लिखा है उनमे जयन्त, वैजयन्त और अपराजित, जैन मूर्तियों का भी उल्लेख है : - 'अपराजिता प्रतिहत जयन्त वैजयन्त कोष्ठकान् 'पुरमध्येकारयेत् । अथंशास्त्र का समय प्रो० जौली ने ३२० ई० पू० माना है। किन्तु जैसा कि ऊपर सकेत किया गया इस ममय की जैन मूर्तियाँ श्रभी उपलब्ध नही हुई है । प्रायागपट - कालक्रम के अनुसार जैन मूर्तियों में श्रायागपटों का स्थान सर्व प्रथम है । पत्थर के इन चौकोर पाटियों पर श्रर्हत या उनसे सम्बन्धित चिह्न उत्कीर्ण होते है। अभिलेखो मे इन्हे प्रयागपट की संज्ञा दी गई है । डा० उकूलर ने प्रयागपट को पूजा शिला माना है। डा० वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार प्रायाग शब्द का प्रच लन प्राक से हुम्रा जिसका तात्पर्य 'पूजा के योग्य' से Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन मूति कला का प्रारम्भिक स्वरूप है। प्रायागपटों में स्थापना की कोई तिथि नहीं है अतः की मिलती हैं। पहली खड़ी और दूसरी बैठी। खड़ी केवल शैलगत विशेषताओं के माधार पर ही इनका मूर्तियों की मुद्रा को दण्ड अथवा कायोत्सर्ग कहते हैं तिथिक्रम निश्चित किया गया है। श्री० बी० सी० भट्टा- जिनमें तीर्थकर का सर्वस्व त्याग का भाव प्रदर्शित है। चायं के अनुसार मायागपट विदेशीकला के प्रभाव से रहित बैठी मूर्तियों में तीर्थकर ध्यानस्थ भाव में दिखाए गए हैं। और कुपाणों से पूर्ववर्ती है । डा. अग्रवाल इन्हें पहली कला की दृष्टि से कुषाण कालीन मूर्तियां अपनी इन शताब्दी के पूर्व भाग में मानते है। अवश्य ही मायागपट विशेषतामो के कारण प्रसिद्ध हैं। मस्तक मुण्डित है उम काल की ओर संकेत करते है जब देवतामों की प्रतीकों अथवा कुछ हलके धुंघराले बाल हैं, पाखें बादाम की के माध्यम से उपामना की जाती थी और उनकी आकृ- प्राकृति की तरह गोल है, मुख पर हलका स्मित भाव है, तियो का प्रचलन केवल प्रारम्भ ही हुमा था। यह समय कान का नीचे का भाग छोटा है, छाती चौडी उभरी और प्रथम शती ई० का प्रथम चरण ही हो सकता है। कन्धे विशाल है। प्रभामण्डल यदि हैं तो सादा या केवल कुछ पायागपटों के मध्य भाग में मुख्य देवता का हस्तिनख प्राकृति से उत्कीर्ण है। वक्षस्थल पर धीवत्स धर्म चक्र, स्नूप आदि के प्रतीक से सकेत है और कुछ में प्राकृति का लाछन मुख्य विशेषता है इसीसे बुद्ध व जैन तीर्थकर की प्राकृति है। किन्तु यह स्मरण रखना चाहिए मूर्ति में भेद किया जाता है। हाथ तथा पैर के तलवों पर कि जिन पटों पर देवाकृति प्रकित है उनमें चिह्नों का ही त्रिरत्न, चक्र तथा कमल मादि चिह्न भी बने रहते हैं। बाहुल्य है । प्रायागपटों में अनेक शुभ चिह्न अंकित मिलते इन्हे महापुरुष लक्षण माना जाता है। जैन मूर्तियां अधिकहैं। जैसे स्वस्तिक, दर्पण, पर्णपात्र प्रासन, मीन यगल. तर सिंहासन पर पारुढ बनाई जाती थी और नीचे पुष्प पात्र, पुस्तक प्रादि । इन्हें प्रप्टमागलिक चिह्न कहा कुषाण कालीन ब्राह्मी लिपि मे दाता का नाम तथा गया है। तत्कालीन गजा के राजत्व काल का सवत्, महीना, दिन मूतियों का प्रारम्भ-कलाकार ने जिस कुशलता से प्रादि दिए रहते हैं। इस काल की जैन मूर्तियों में तीर्थंकरों आयागपटो में प्रतीकों का स्थान देव प्राकृतियों को देना की जीवन घटनामों से सम्बन्धित दृश्यो का प्रभाव है। भारम्भ किया उमे समाज में मान्यता मिली। मथुरा का लखनऊ मंग्रहालय में एक एमा पट है (जं. ६२६) जिस तत्कालीन धार्मिक वातावरण इसके लिए एक विशेष पृष्ठ पर महावीर के भ्रण को ब्राह्मण स्त्री देवनन्दा के गर्भ से भूमि तैयार कर रहा था। अव सा समय था जब क्षत्रिय स्त्री त्रिशाला के गर्भ में स्थानान्तरण करते हुए विभिन्न मम्प्रदायों की लोक प्रियता दार्शनिक विवेचन नेगमेश को दिखाया गया है। पर नहीं अपितु मठ, विहार, व स्तूप बनवाने तथा मूर्तियों जैन मूर्तिकला में प्रारम्भ से ही ब्राह्मण देवताओं का की प्रतिष्ठा करने पर आधारित थी। कलाकार के सामने प्रदर्शन मिलता है। लखनऊ सग्रहालय में जैनधर्म से यक्ष की मूर्ति आदर्श स्वरूप थी जिसका अन्य मूतियों में मम्बन्धित सरस्वती की एक मूति है (जे०२४) जो सबसे अनुकरण हो सकता था। इसी समय मथुरा और गान्धार प्राचीन सरस्वती की प्रतिमा है। इसकी पीठ पर उत्कीर्ण कला केन्द्रो में बुद्ध मूर्ति का भी विकास हुमा। इतिहाम अभिलेख से जैनधर्म की प्राचीन सम्प्रदाय व्यवस्था पर व कला के क्षेत्र में यह एक महत्वपूर्ण घटना थी। इससे बड़ा अच्छा प्रकाश पड़ता है। विभिन्न सम्प्रदायों में देवताओ को मूर्त रूप में व्यक्त प्राचीन जैन मूतियों में मर्वतो-मद्रिका प्रतिमा भी करने का जो सकोच था वह दूर हो गया। इस प्रकार महत्त्वपूर्ण है। इनमें चारी पोर तोथंकरों की मूर्तियाँ तत्कालीन धार्मिक परिस्थिति तथा कलात्मक गति विधियों बनी रहती हैं। इन मूर्तियों को चैत्य, स्तूप अथवा अन्य की पृष्ठभूमि में कुषाण काल के प्रारम्भ से जैनमूर्तियो का धार्मिक स्थानों में ऐसी जगह स्थापित किया जाता था निर्माण प्रारम्भ हो गया। जहाँ भक्त जन उनकी प्रदक्षिणा कर सकते थे। इन्हें मुख्य विशेषताएं-प्राचीन जैन मूर्तियां हमें दो भांति अाजकल जन भाषा में चौमुखी प्रतिमा कहा जाता है। Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ प्रनेकान्त alate तीर्थकरों को पृथक् पृथक् पहचानने के मम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि प्रादिनाथ व पार्श्व नाथ को छोड़कर अन्य तीर्थंकरों के परिचित चिह्न गुप्त काल तक की मूर्तियों में प्रायः नहीं मिलते। श्रादिनाथ की मूर्तियों में बन्धे तक लटकती जा व पार्श्वनाथ को air से प्राच्छादित करने की परम्परा प्रारम्भ से चली भाती है। शेष २२ जिनों के बारे में पीठ पर उत्कीर्ण प्रभिलेख मे दिए नाम से ही पता चलाना संभव है । लगभग ७वी शती के उपरान्त सभी तीर्थकरों के लिए निश्चित वाहन स्वीकृत कर लिए गए उनके साथ बनी यक्ष, यक्षिणी व वाहनों की प्राकृति से भी तीर्थकरो को पहचानने की समस्या का समाधान हो गया । कुराणकालीन जैन मूर्तियों की मुख्य विशेषता यह है कि वे निमित है और उनके लेखों मे तत्कालीन समाज धर्म व शासन व्यवस्था पर अच्छा प्रकाश पड़ता है । मरस्वती की मूर्ति के बारे मे अभी लिखा जा चुका है। लखनऊ संग्रहालय में ही एक अन्य मूर्ति है (जे० २०) जिस पर जिरग्न के साथ एक उपासिकाएं उत्कीर्ण है। उनके हाथ में कमल पुष्प है। स्त्रियो का वस्त्र परिधान आज के उल्टे पल्लू की साडी से मिलता है । पीठ पर उन्ही से पता चलता है कि इस मूर्ति को मुनि सुव्रत की आराधना में मथुरा के बौद्ध नामक एक देव निर्मित स्तूप में स्थापित किया गया। डा०वि० [frre ने इसका अच्छा विवेचन दिया है (जैन स्तूप पृ० १३) उनके अनुसार द्वितीय शती में जबकि इस मूर्ति को बौद्ध स्तूप मे प्रतिष्ठित किया गया उस समय तक यह स्तूप इतना प्राचीन हो चुका था कि लोग इसकी ऐतिहासिकता भूल चुके थे और इसे देव-निर्मित स्तूप कहा जाने लगा था । प्राय जिन पुरानी इमारतो के बारे में कोई जानकारी नहीं होती उन्हें भूतो का या देवतायो का बनाया हुपा कहने लगते है। साथ ही व्हूलर को मिली चौदहवी शताब्दी की जिनप्रभ को तीर्थ कल्प से या 'राज प्रसाद' नामक पुस्तक में वर्णित 'देव निर्मित स्तूप' के विषय में भी विचार करना होगा। तदनुसार यह स्तूप प्रारम्भ में सोने का बना था और बहुमूल्य प्रस्तरों से जड़ित था । इसका निर्माण सातवें तीर्थकर सुपार्श्वनाथ को पूजा के निमित्त कुबेरा नामक देवी ने धर्म तथा धर्मपोष नामक दो मुनियों के आदेश पर कराया । २३वे तीर्थकर पार्श्वनाथ के समय सुवर्ण स्तूप को ईंटो से ढक दिया गया और बाहर पत्थर का एक मन्दिर बनवा दिया। कालास्तर में भगवान् महावीर के कैवल्य प्राप्ति के १३०० वर्ष बाद बप्प भट्टसूरि ने पार्श्वनाथ की आराधना मे इस स्तूप का जीर्णोद्धार कराया । अब यदि इन सभी घटनाओं की संगत बैठाई जाय तो हमे मथुरा के देव निर्मित स्तूप की प्राचीनता का सहज अनुमान लग जायगा। महावीर जी का निर्माण सन् ५२७ ई० पू० में माना जाता है। कैवल्य प्राप्ति लगभग ५५० ई० ई० पू० में हुई। स्तूप के जीर्णोद्वार का समय १३०० वर्ष बाद ७५० ई० मे पड़ता है। ईटो का स्तूप यदि पार्श्वनाथ के समय बना माना जाय तो ८०० ई० पू० के लगभग निश्चित होता है। डा० स्मिथ इसे ६०० ई० पू० में मानते है किन्तु पार्श्वनाथ के जीवन काल मे मानने पर तो ८०० ई० पू० ही मानना अधिक उपयुक्त होगा (एज माफ इम्पीरियन यूनिटी पृ० ४११ ईटो से पहले सुवर्ण स्नूप का समय तो कुछ और भी प्राचीन मानना होगा । यदि सुवर्ण स्तूप को छोड़ भी दे तो वी वी शती ई० पू० का मथुरा का देव निर्मित स्तूप जैन धर्म की ही नहीं अपितु हड़प्पा संस्कृति के बाद की भारतवर्ष की प्राचीनतम इमारत मानी जायगी । इसी प्रकार अन्य बहुत-सी मैन मूर्तियां जो इतिहास तथा कला की दृष्टि से बडी महत्वपूर्ण है अधिकतर राज्य संग्रहालय, लखनऊ व पुरातत्व संग्रहालय मथुरा मे सग्रहीत है । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्रव्यसंग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार परमानन्द जैन शास्त्री मैं कई वर्षों से बृहद् द्रव्यसग्रह की वृत्ति मे दिये हुए रचे जाने और बाद में विशेष तत्त्व परिज्ञानार्थ उन्हीं 'पाश्रम नगर' की खोज मे था, मेरा यह विचार था कि नेमिचन्द्र के द्वारा बृहद् द्रव्यसंग्रह की रचना हुई है। उस आश्रम नगर का पता लग जाने पर बृत्तिकार का ठीक बृहद् द्रव्यसंग्रह के अधिकारों के विभाजन पूर्वक यह वृत्ति समय निश्चित हो सकेगा। और तभी मालवपति राजा (टीका) प्रारम्भ की जाती है। साथ मे यह भी सूचित भोज के मांडलिक शासक राजा श्रीपाल के राज्य में द्रव्य किया है कि उस समय प्राश्रम नाम का यह नगर महासंग्रह के लघु और बृहद् रूप में, तथा संस्कृतवृत्ति के रचे मण्डलेश्वर (प्रान्तीय शासक) के अधिकार में था। पौर जाने का निश्चय हो सकेगा। और तब वृत्तिकार के सोम नामका राजश्रेष्ठ भाण्डागार (कोप) प्रादि अनेक उत्थानिका में दिए गए विवरण की महत्ता का भी नियोगों का अधिकारी होने के साथ साथ तत्वज्ञान रूप मूल्यांकन हो सकेगा, और मूल ग्रंथकार के सम्बन्ध में भी सुधारस का पिपासु था। वृत्तिकार ने उसे 'भव्यवर जानकारी मिल सकेगी, क्योकि उत्थानिका वाक्यो से पुण्डरीक' विशेषण से उल्लेखित किया है, जिससे वह उस ग्रंथकार, वत्तिकार और मोमराज श्रेष्ठी तीनोही सम साम- समय के भव्य पुरुषों में श्रेष्ठ था । मागे वृत्ति में दो यिक जान पड़ते हैं। वे उत्थानिका वाक्य इस प्रकार हैं:- स्थानों पर शकानो का समाधान दिया गया है। उससे 'प्रथ मालवदेशे धारानामनगाधिपतिराजाभोज- वह मच्छा विद्वान् जान पड़ता है। देवाभिधान कलिकालचक्रवतिसम्बन्धिनः श्रीपाल महा- मैंने पहले यह लिखा था कि ब्रह्मदेव का उक्त घटनामण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रत- निर्देश और लेखनशैली से यह स्पष्ट जान पड़ता है कि ये तीर्थकर चैत्यालये शुद्धान्ममवित्तिसमुत्पन्नमुखामतरसा- म घटना उनके सामने सब घटनाएँ उनके सामने घटी है और नमिचन्द्र सिमान्तस्वाद विपरीत नारकादि दुखभयभीतस्य परमात्मभावनो देव तथा मोमवेष्ठि उस समय मौजूद थे। और उनके त्पन्नसुखसुधारसपिपामितम्य भेदाभेदरत्नत्रयभावना समय मे ही लघु तथा बृहद् दोनो द्रव्यसंग्रहों की रचना प्रियस्य भव्यवर पुण्डरीकस्य भाण्डागागद्यनेक नियोगाधि हुई है। ब्रह्मदेव ने वृत्ति में दो स्थानों पर 'पत्राह सोमाकारि सोमाभिधान राजश्रेष्ठिनो निमित्त श्रीनेमिचन्द्र भिधानो राजधष्ठि' वाक्यो के द्वारा तथा टीकागत सिद्धान्तदेवः पूर्व षविंशति गाथाभिलंघुद्रध्यसग्रह कृत्वा __ प्रश्नोत्तर सम्बन्ध से उनकी भोर भी पुष्टि होती है। पश्चाद्विशेषतत्त्व परिज्ञानार्थ विरचितस्य द्रव्यसग्रहस्या क्योंकि नामोल्लेख पूर्वक प्रश्नोत्तर बिना समक्षता के धिकार शुद्धिपूर्वकत्वेन व्याख्या वृत्तिः प्रारभ्यते । । नही हो सकते। टीकाकार ब्रह्मदेव ने इस उत्थानिका वाक्य मे मूल वृत्ति मे 'माश्रम' नाम के जिस नगर के नाम का ग्रन्य के निर्माण प्रादि का सम्बन्ध बतलाते हुए, पहले उल्लेख है वह स्थान मालव देश मे चम्बल नदी के किनारे नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव द्वारा 'मोम' नाम के गजष्ठि के कोटा मे मील दूर और बूदी से ३ मील दूर अवस्थित निमित्त मालवदेश के प्राश्रम नामक नगर के मुनि सुव्रत है, जो पाश्रम पत्तन, पत्तन, पुटभेदन प्रौर केशोराय पत्तन चैत्यालय में २६ गाथात्मक द्रव्यसंग्रह के लघु रूप में के नाम से प्रसिद्ध है। और परमारवशी राजाभो के १. सोमच्छलेन रइया पयत्थ-लबखरण कराउ गाहापौ। भव्ववयारणिमित्तं गणिणा सिरि मिचन्देण । २५॥ १. विशेष परिचय के लिए देखें-डा० दशरथ शर्मा का लघु द्रव्यसग्रह माधम पत्तन ही केशोराम पडन है नामक लेख जो Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त राज्य-शासन में रहा है। चर्मणवती नदी कोटा और बूंदी था और तत्वचर्चा का प्रेमी था। वृत्तिकार का यह सब की सीमा का विभाजन करती है। इस चम्बल नदी के कथन ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है और किनारे बने हुए मुनि सुव्रतनाथ के चैत्यालय में, जो उस बिल्कुल सही है। समय एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध था। और अनेक विक्रम की १३वीं शताब्दी के विद्वान मुनि मदनकीति दूर देशों के यात्रीगण, धर्मलाभार्थ वहाँ पहुँचते थे । नेमि- की शासनचतुस्त्रिशिका के निम्न पद्य में इस तीर्थस्थानकी चन्द्र सिद्धान्तदेव, भोर ब्रह्मदेव वहाँ रहते थे। सोमराज एक घटना का उल्लेख किया है उसमे बतलाया गया है कि श्रेष्ठी भी वहां प्राकर तत्त्वचर्चा का रस लेता था। वह उस जो दिव्यशिला सरिता से पहले पाश्रम को प्राप्त हुई, उस समय पठन-पाठन और तत्त्वचर्चा का केन्द्र बना हमा था, पर देवगणो को धारण करने वाले विप्रो के द्वारा क्रोधवश विक्रम की १३वीं शताब्दी मे उसकी खूब प्रसिद्धि रही है। प्रवरोध होने पर भी मुनिसुव्रत जिन स्वय उस पर स्थित उस चैत्यालय में बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ की हुए-वहां से फिर नही हटे, मोर देवों द्वारा प्राकाश मे श्यामवर्ण की मानव के पादमकद से कुछ ऊंची सातिशय पूजित हुए वे मुनिसुव्रत जिन ! दिगम्बरों के शासन की प्रशान्त मूर्ति विराजमान है। यह मन्दिर प्राज भी उसी जय करें। अवस्था मे मौजूद है, इसमें श्यामवर्ण की दो मूर्तियां और पूर्व याऽऽश्रममाजगाम सरिता नाथाम्युदिव्या शिला, विराजमान हैं। सरकारी रिपोर्ट में इसे 'भुई देवरा' के नाम तस्या देवगणान् द्विजस्य दधतस्तस्थौ जिनेशः स्वयं । से उल्लेखित किया है। क्योंकि वह पृथ्वीतल से नीचा है, कापात् विप्रजनावरोधनकरर्देवैः प्रपूज्याम्बरे । उसमें पाठ स्तम्भों की खुली एक चौरी के मध्य भाग से दध्र यो मुनिसुव्रतः स जयतात् दिग्वाससा शासनम् ॥२८ नीचे जाने के लिए सीढ़ी है। इस मन्दिर मे मुनिसुव्रत - इससे इतना तो स्पष्ट है कि माश्रम पत्तन में कोई नाथ की मूर्ति के नीचे एक लेख प्रकित है, पर दुःख के खास घटना घटित हुई है, इसी से वह अतिशय क्षेत्र रूप साथ लिखना पड़ता है कि जनता ने उसे सुन्दरता की में प्रसिद्ध रहा है और कोटा-बूंदी आदि स्थानों की जैन दृष्टि से टाइलो से ढक दिया है, यह कार्य समुचित नहीं जनता उसे तीर्थरूप में बराबर मानती और पूजती रही कहा जा सकता। हमें उसे निकाल कर उस मूति के है। निर्वाणकाण्ड की निम्न गाथा में उसका उल्लेख हैमहत्व से बढ़ाने का यत्ल करना चाहिय। उसस यह 'अस्सारम्भे पट्टण मुणिसुव्वय जिण च वन्दामि' वाक्य में निश्चित हो सकेगा कि यह सातिशय मूर्ति कब और पाश्रम पट्टण के मुनिसुव्रत जिन की वन्दना की गई है। किसके द्वारा प्रतिष्ठित हुई है। उसके इतिहास का मुनि उदयकीति ने अपनी निर्वाण भक्ति मे-'मुणिसुव्वउ उद्घाटन एक महत्वपूर्ण कड़ी होगी। यह मन्दिर लगभग गमग जिणुतह पासरम्भि' रूप से उल्लेख किया है और ब्रह्मदेव एक सहस्र वर्ष से भी अधिक प्राचीन है। यह स्थान हिंदुओं ने अपने स्तवन में पाश्रम के मुनि सुव्रत जिन की स्तुति की और जैनियों का तीर्थस्थान है। १७वी शताब्दी मे केशोगय है और भी जैन साहित्य के पालोडन करने से अन्य अनेक मन्दिर के बन जाने से उसकी प्रसिद्धि केशोराय पत्तन के उल्लेखों का पता चल सकता है। इस सब कथन से उक्त नाम से हो गई है। यह स्थान मालवाधिपति राजा भोज स्थान की महत्ता का सहज ही प्राभास हो जाता है। के अधिकार में था और श्रीपाल नाम का राजा उनका द्रव्य मंग्रह के प्रस्तुतकर्ता नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक मालव प्रान्तीय पासक था, जो उस पर शासन करता था। मोर निवासी थे। पापने अपने प्रवस्थान से उक्त माधम सोम नाम का राजश्रेष्ठि उसके भाण्डागार प्रादि अनेक पत्तन को पवित्र किया था और अनेक भव्य चातको को नियोगों का अधिकारी था, जो जैनधर्म का परमश्रद्धालु ज्ञानामृत का पान कराया था। मुनि नेमिचन्द्र सैद्धान्तिक इसी किरण मे १०७. पर मुद्रित है। वीरवाणी ने पहले सोमवेष्ठि के लिए २६ गाथात्मक पदार्थ लक्षण' स्मारिका में प्रकाशित दीपचन्द पाण्डपा का लेख रूप लघु द्रव्य संग्रह रचा, मौर बाद में विशेष तत्त्व पृ० १०६। परिज्ञानार्थ ५८ गाथात्मक द्रव्यसग्रह की रचना की, जिसका Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्य संग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर विचार उल्लेख मृतिकार ने उत्पानिका वाक्य में दिया है। मुनि सुव्रत तीर्थंकर की वह प्रभावशालिनी मूर्ति उनके तथा भव्यों के विवेक जागृत करने में निमित्त रही है। जिसके दर्शन से भव्यजन अपनी भूसी धात्म-निधि को पहचानने में समर्थ हो सके हैं। पतन के मुनि द्रव्यसंग्रह की भयभीत, सुधारस वृत्तिकार ब्रह्मदेव ने उसी प्राथम सुव्रत चैत्यालय में अध्यात्म रस गर्भित उपत महत्वपूर्ण व्याख्या की है। ब्रह्मदेव अध्यात्मरस के जाता थे, धौर प्राकृत संस्कृत तथा प्रपभ्रंश भाषा के विद्वान थे । सोभनाम के राजश्रेष्ठी, जिसके लिये मूल ग्रन्थ और वृत्ति लिखी गई, प्रध्यात्म रस का रसिक था; क्योंकि शुद्धात्माम्य की संवित्ति से उत्पन्न होने वाले सुखामृत ' के स्वाद से विपरीत नारकारिदुःखों से तथा परमात्मा की भावना से उत्पन्न होने वाले का पियासु या धौर भेद प्रभेदरूप] रत्नत्रय ( व्यवहार तथा निश्चय रत्नत्रय) की भावना का प्रेमी था। ये तीनों ही विवेकी जन समकालीन और उस भाश्रम स्थान में बैठकर तत्व चर्चा में रस लेने वाले थे क्योंकि उपरोक्त घटना क्रम धाराधिपति राजा भोज के राज्यकाल में घटित हुआ है। भोजदेव का राज्यकाल सं० १०७० से १११० तक रहा है। अतः ब्रह्मदेव की टीका धौर द्रव्य संग्रह दोनों ही भोज के राज्यकाल में रचे गये हैं । प्रतः उनका समय भी वही होना चाहिए। अर्थात् वे विषम की ११वीं शताब्दी के उत्तरार्ध धौर विक्रम की १२वीं शताब्दी के प्रथमचरण के विद्वान् जान पड़ते हैं । 1 डा० विद्याधर जोहरापुर करने तो यहाँ तक कल्पना की थी कि पहले इनका नाम जयसेन होगा और बाद मे ब्रह्मदेव हो गया हो । पर यह कोरी कल्पना ही थी, जिसका निरसन 'शोध-कण' नामक लेख में किया गया है१ । डा० ए० एन उपाध्याय भी ब्रह्मदेव को जयसेन के बाद का विद्वान् बतलाते हैं१। पर ऐसा नहीं है जैसा कि आगे के विवरण से स्पष्ट हो जायगा । डा० साहब ने परमात्म प्रकाश की प्रस्तावना में लिखा है जिसका हिन्दी धनुवाद १० कैलाशचन्द जी के दो से इस प्रकार हैशब्दो १. देखो परमात्म प्रकाश प्रस्तावना अंग्रेजी पृ० ७२ १४७ "किन्तु एक बात सत्य हैं कि ब्रह्मदेव पारा के राजामीन से, जिसे वे कलिकाल चक्रवर्ती बतलाते हैं बहुत बाद में हुए हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि महादेव के भोज मालवा के परमार और संस्कृत विद्या के प्राश्रयदाता प्रसिद्ध भोज ही हैं। भोजदेव का समय ई० १०१००१०६० है महादेव का उल्लेख बतलाता है कि वे ११वीं शताब्दी से भी बहुत बाद में हुए हैं।" (हिन्दी अनुवाद पृ० १२६-७) । डा० साहब का यह निष्कर्ष ठीक मालूम नहीं होता कि वे भोजदेव से बहुत बाद हुए हैं। ऐसी हालत मे जबकि वे उसके राज्य का एस्लेख कर रहे हों तब उन्हें बहुत बाद का विद्वान् बतलाना किस तरह समुचित कहा जा सकता है । जबकि ऊपर स्पष्ट रूप से यह वतलाया जा चुका है कि मूल द्रव्यसंग्रह और उसकी वृत्ति दोनों ही राजाभोज के राजकाल मे रखे गये हैं। और जिस स्थान पर रचना हुई उसका भी स्पष्ट निर्देश ऊपर किया जा चुका है और इतिहास से भी जिसकी पुष्टि हो गई है। ऐसी स्थिति में महादेव को भोज के बहुत बाद का विद्वान् नहीं बत लाया जा सकता, किन्तु ब्रह्मदेव को भोज के समकालीन विद्वान् कहा जा सकता है । अब रह गई जयसेन की बात, सो जयसेन ब्रह्मदेव से पूर्ववर्ती विद्वान नही हो सकते। वे ब्रह्मदेव के बाद के विद्वान हैं। क्योंकि जयसेन ने पचास्तिकाय की पहली गाथा की टाका मे प्रथ के निमित्त की व्याख्या करते हुए स्वयं उदाहरण के रूप में सग्रह वृति के निमितकथन की बात को अपनाया है, और लिखा है कि"मथ प्राभुत ग्रंथे शिवकुमार महाराजो निमित्तं धन्यत्र द्रव्य संग्रहादोसोम श्रेष्ठघावि ज्ञातव्यं ।" इससे स्पष्ट है कि जयसेन ब्रह्मदेव के निमित्त कथन की बात से परिचित थे। प्रतएव वह ब्रह्मदेव के उत्तरवर्ती विान् ज्ञात होते है । न कि पूर्ववर्ती, हां जयसेन की टीकाओं पर ब्रह्मदेव का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। ब्रह्मदेव ने जयसेनका कही उल्लेख नहीं किया और न उनकी टीका का ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि ब्रह्मदेव जयसेन के उत्तरवर्ती है। जब कि ब्रह्मदेव का समय भोजकालीन है, तब उसे Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० बाद का कैसे बतलाया जा सकता है ? वृत्तिकार के कथन थी। चामुण्डराय ने अपना विषष्ठिशलाका पुरुष चरित के अनुसार नेमिचन्द्र की दोनों कृतियाँ (लघु और बृहत) (चामुण्ड पुराण) शक सं०९०० में बनाकर समाप्त मुद्रित हो चुकी है। सोमदेव पूर्ववर्ती है इसलिए उनकी किया है। अतः नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती का समय कृति का असर ब्रह्म देव की वृत्ति पर हो सकता है। वे शक स०९०० (वि० सं० १०३५) है। प्रतः उनका उनके बाद के विद्वान हैं। समय विक्रम की ११वीं शताब्दी का पूर्वार्ष है। और द्रव्य संग्रह के कर्ता नेभिचन्द्र सैद्धान्तिक का समय विक्रम की यहां यह बात पौर विचारणीय है कि प्रस्तुत द्रव्य ११वीं शताब्दी का उत्तरार्ध पौर १२वीं का पूर्वाध है। संग्रह के रचयिता नेमिचन्द्र मालवा के विद्वान हैं, दक्षिण भारत के नहीं, नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती दक्षिण के उक्त प्रमाणों के प्राधार पर द्रव्य संग्रह और वृत्तिनिवासी थे,गग नरेश राचमल्ल के सेनापति राजा चा. कार दोनों विद्वान् भोजदेव के समकालीन हैं, उन्हीं के मुंडराय के अनुरोध से उन्होने गोम्मटसार की रचना को राज्य समय उनकी रचना हुई है।* वीरनन्दी और उनका चन्द्रप्रभ चरित अमृतलाल शास्त्री नामसाम्य अभयनन्दी थे। वे अपने समय के समस्त मुनियों के द्वारा सस्कृत महाकवियों की परम्परा को जिन्होने गौरवा- मान्य थे। उन्होने जैनधर्म के विषय मे परम्परागत न्वित किया है, महाकवि वीरनन्दी उन्ही में से एक है। प्रवर्णवादो या मिथ्या प्रवादो को दूर किया था। उनके उनकी कृति के रूप में अभी तक केवल चद्रप्रभ चरित द्वारा जैन धर्म की बड़ी प्रभावना हुई थी। बे समुद्र की महाकाव्य ही उपलब्ध हुमा है। माचारसार के कर्ता भी भाति गम्भीर एवं सूर्य की भाति तेजस्वी थे। वे अत्यन्त वीरनन्दी हैं, पर वे प्रस्तुत वीरनन्दी से भिन्न है, क्योकि गुणी तथा मेधावी थे। वे भव्य जीवों के एकमात्र बन्धु वे प्राचार्य मेषचन्द्र के शिष्य थे। इनके अतिरिक्त एक एव उद्बोधक थे। पौर वीरनन्दी हुए जो प्राचार्य महेन्द्रकीति के शिष्य रहे। प्राचार्य प्रभयनन्दी के गुरु विबुध गुणनन्दी थे। वे अतः इन तीनो मे केवल नाम का ही साम्य है। गुरु परम्परा मुनिजननुतपादः प्रास्त मिथ्याप्रवादः चन्द्रप्रभ चरित के अन्त मे कवि प्रशस्ति पाई जाती सकलगुणसमृद्धस्तस्य शिष्यः प्रसिद्धः । है, उससे यह स्पष्ट है कि प्रस्तुत वीरनन्दीके गुरु भाचार्य अभवद् अभयनन्दी जैनधर्माभिनन्दी स्वमहिमजितसिन्धु व्यलोककबन्धुः ॥३॥ १. बभूव भव्याम्बुजपप्रवन्धु. पतिर्मुनीनां गणभृत्समान. । भव्याम्भोजविबोधनोद्यतमते स्वत्समानत्विषः सदप्रणीदेशिगणाग्रगण्यो गुणाकर: श्रीगुणनन्दिनामा । शिष्यस्तस्य गुणाकरस्य सुधियः श्रीवीरनन्दीत्यभूत् ।। गुणग्रामाम्भोधेः सुकृतवसतेमन्त्रमहसा स्वाधीनाखिलवाङ्मयस्य भुवनप्रख्यातकीर्तः सतां ___ मसाध्यं यस्यासीन्न किमपि मही शासितुरिव । संसत्सु व्यजयन्त यस्य जयिनो वाचः कुतकांकुशाः।। म तच्छिष्यो ज्येष्ठः शिशिरकरसोम्यः समभवत् शब्दार्थसुन्दरं तेन रचितं चारुचेतसा । प्रविख्यातो नाम्ना विबुधगुणनन्दीति भुवने ॥२॥ श्रीजिनेन्दुप्रभस्येदं चरितं कुमुदोज्ज्वलम् ॥॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीरनन्दी और उनका चन्द्रप्रमचरित १४९ बढ़ यशस्वी थे। वे अपने गुरु के प्रधान शिष्य थे- शास्त्र के अधिकारी विद्वान थे। वे मङ्गलाचरण के प्रसङ्गों सतीयों में सबसे बड़े थे। उनकी प्रकृति चन्द्रमा की भांति में उनका बार-बार स्मरण करें, यह साधारण बात नहीं सौम्य थी। है। विशिष्ट दार्शनिक और प्रतिभाभिराम कवि वादिराज विबुध गुणनन्दी के गुरु का नाम गुणनन्दी था। वे सूरि ने अपने पार्श्वनाथ चरित में नामोल्लेख पूर्वक इनकी भव्यजीवों के अनन्य विकासक एव मुनिसंघ के नायक थे। कृति की सराहना की है। मुनिसंघ उन्हें गणधर की तरह मानता था। वे अत्यन्त कवि दामोदर ने अपनी कृति चन्द्रप्रभ चरित में इन्हें सज्जन थे। देशीयगण में वे प्रथमतः गणनीय थे। वे 'कवीश' बतलाया है और वन्दन भी किया है३. पण्डित प्रत्यन्त गुणी तथा पुण्यात्मा थे। फलतः राजा की भाति गोविन्द ने अपनी कृति पुरुषार्थानुशासन के प्रारम्भ में उनके लिए भी कुछ असाध्य नहीं था। इनका उल्लेख धनञ्जय, प्रसग और हरिचन्द्र से भी निष्कर्ष यह कि महाकवि वीरनन्दी गुरु, दादा गुरु पहले किया है और इनके काव्य को सूक्तियों तथा सद् तथा परदादा गुरु तीनों ही नन्दिसघ के प्रत्यधिक प्रभाव- युक्तियों से युक्त बतलाया है। पण्डितप्रवर माशाधर ने शाली प्रसाधारण विद्वान् थे। वीरनन्दी की असाधारण इनके चन्द्रप्रभ चरित से एक श्लोक५ उद्धृत करके सागर विद्वत्ता भी उनकी विशिष्ट गुरु परम्परा के अनुरूप थी। धर्मामृत के न्यायोपात्त-इत्यादि श्लोक (१.११) मे दिए गये कृतज्ञता गुण पर प्रकाश डाला है। विद्वत्ता जीवन्धर चम्पू और धर्मशर्माभ्युदय के रचयिता वीरनन्दी की असाधारण विद्वत्ता का एक अनुमान सरस्वती सुत प्रतिभामूर्ति कायस्थवंशावतंस महाकवि इसी से लगाया जा सकता है कि वे प्राचार्य प्रभयनन्दी के हरिचन्द्र न धर्मशर्माभ्युदय के निर्माण की रूपरेखा चन्द्रशिष्य थे। वीरनन्दी ने अपने विशिष्ट बुद्धिबल से समस्त प्रम को सामने रखकर बनाई। चन्द्रप्रभ चरित और वाङ्मय को प्रात्मसात् कर लिया था-वे सर्वतन्त्र स्वतत्र धर्मशर्माम्युदय की मङ्गलाचरण पद्धति, पुराणो के पाश्रय थे। वे कुशल वक्ता एवं सफल शास्त्रार्थी थे । सभ्य पुरुषों की सचना, दार्शनिक चर्चा एव धर्मदेशना मादि को देख की सभापो मे उन्ही की बात मानी जाती थी। प्रवादियो कर कोई भी सहृदय यह जान सकता है कि हरिचन्द्र ने के कुतक उनके प्रबल युक्तिबल एव अतुल शास्त्रबल के वीरनन्दी के महाकाव्य को प्रथ से इति तक ध्यान से सामने शिथिल पड़ जाते थे। इसी कारण उनका यश भी देखा था। धर्मदेशना के कतिपय श्लोकों के चरण-के-चरण खूब था। मिलते हैंप्रभाव जीवा जीवानवा बन्धसंवरावय निर्जरा। अभयनन्दी के शिष्य होने के नाते वीरनन्दी और - २. चन्द्रप्रभाभिसबझा रसपुष्टा मनः प्रियम् । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती सतीर्थ्य रहे, फिर भी सिद्धान्त कुमुदतीव नो धत्ते भारती वीरनन्दिनः ।।१,३०॥ चक्रवर्ती नेमिचन्द्र उनसे प्रभावित थे। अन्यथा वे अपनी कृति-गोम्मटसार कर्मकाण्ड में उनका तीन बार१ उल्लेख ३. चन्द्रप्रभजिनेशस्य चरित येन वणितम् । त वीरनन्दिन वन्दे कवीश ज्ञानलब्धये ॥ १।१६ न करते और न उन्हें गुरुकल्प मानते । नेमिचन्द्र सिद्धान्त ४. श्रीवीरनन्दिदेवो धनञ्जयासगो हरिश्चन्द्रः । १. जस्स य पायपसायेण णंत संसारजलहि मुत्तिण्णो । व्यधुरित्याद्याः कवयः काव्यानि सदुक्ति युक्तीनि ॥२२ वीरिंदणंदिवच्छो णमामि तं प्रभयणदि गुरु ॥४३६।। (ये दोनों पद्य 'जैन ग्रन्थ प्रशस्ति संग्रह के क्रमशः णमिऊण अभयदि सुदसायरपारगिंदणदिगुरु । पृष्ठ ७० व १२७ से उदघृत) बरवीरणदिणाहं पयडीण पच्चयं वोच्छ ॥७८५॥ ५. विधित्सुरेनं तदिहात्मवश्यं कृतज्ञतायाः समुपैहि पारम् णमह गुणरयणभूसण सिद्धन्तामियमहद्धिभवभावं। गुणरुपेतोऽप्यपरैः कृतघ्नः समस्तमुटेजयते हि लोकम् । वरवीरणंदिचंद णिभ्मलगुणमिदणंदिगुरु ॥६६॥ ४१३८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जगा मोक्षश्चेति जिनेन्द्राणां सप्ततत्त्वानि शासने। इनमें से कुछ (२६२.२६६) इलोकों में दार्शनिक चर्चा प.च. १८२ भी है। ऐसी स्थिति में वीरनन्दी की अपनी कति में जीवा जीवालवा बन्धसंवरावपि निजंग। दार्शनिक प्रसंग लाना मावश्यक ही नहीं अनिवार्य भी था। मोक्षश्चेति तत्त्वानि सप्तस्युजिनशासने ।। इसी पुराण में धर्मनाथ का चरित केवल ५४ श्लोकों में घ. श० २११८ पूरा किया गया है। उनमें कहीं तनिक भी दार्शनिक रूपगन्धरसस्पर्शशब्दवान पुद्गलः स्मृतः । पुट नहीं है। फिर भी हरिचन्द्र ने अपने महाकाव्य को अणुस्कन्धप्रभेदेन द्विस्वभावतया स्थितः ।। सर्वांग सुन्दर बनाने के लिए चतुर्थ सर्ग में जो अन्य च.च०१८१७८ सर्गों से प्रत्यधिक सुन्दर है-चार्वाकदर्शन की मीमांसा रूपगन्धरमस्पर्श शब्दवन्तश्च पुदगलाः । की है। निश्चय ही इस दार्शनिक प्रसंग का प्रेरक चन्द्रद्विधास्कन्भे देन त्रैलोक्यारम्भहेतवः ॥ प्रभचरित के द्वितीय सर्ग का दार्शनिक प्रसंग रहा है जो घ. श० २१० ५६ (४-१०६) श्लोकों में फैला हुना है। इस प्रसंग में यः कषायोदयात्तीवः परिणामः प्रजायते । तत्वोपप्लव मादि अन्य दर्शनों की विस्तृत समालोचना चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः सोऽनुवगितः ॥ की गई है। च. च०१८1८८ अतः यह मानने में कोई प्रापत्ति नहीं कि हरिचन्द्र कषायोदयतस्तीवपरिणामो मनस्विनाम् । भी वीरनन्दी से प्रभावित हुए हैं। चारित्रमोहनीयस्य कर्मणः कारणं परम् ।। बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रारम्भ मे भट्टार हरिचन्द्र घ. श० २१ का उल्लेख किया है-'भट्टार हरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपाइतना साम्य प्रकस्मात् नहीं हो सकता । यदि अन यते' । कुछ विद्वान् इन्हें और धर्मशर्माभ्युदय के प्रणेता कम तथा भाव की समानता पर ध्यान दिया जाय तो हरिचन्द्र को एक समझते हैं जो भ्रममूलक है। धर्मशर्मादोनों की लगभग पाधी दिव्यदशना एक हा जसा सिद्ध भ्यदय के लेखक का अभी तक कोई गद्य ग्रन्थ उपलब्ध होगी। धर्मशर्माभ्युदय की दिव्यदेशना का जितना अंश नहीं हरा और न उनकी 'भट्टार' उपाधि ही थी। धर्मचन्द्रप्रभचरित की दिव्यदेशना से अधिक है वह अन्य शर्माभ्युदय के अन्त में दी गई प्रशस्ति में उन्होंने अपने ग्रन्थों से-जिनमें तस्वार्थसूत्र व हेमचन्द्र का योगशास्त्र को रसध्वनि के मार्ग का सार्थवाह लिखा है-'रसध्वनेरभी सम्मिलित हैं-प्रभावित है । इसका एक कारण यह ध्वनि सार्थवाहः'। ध्वनि सम्प्रदाय के प्रवर्तक माचार्य भी संभव है कि हरिचन्द्र कायस्थ थे। वे उच्चकोटि के मानन्दवर्धन हैं । वे नवमी शताब्दी में हुए हैं। प्रतः कवि थे। कवित्व की चमत्कृति की दृष्टि से उनका मासन हरिचन्द्र न बाण के पूर्ववर्ती हैं और न प्रानन्दवर्धन के। न केवल जैन, वरन् जनेतर महाकवियों से भी ऊँचा है, हरिचन्द्र ने जीवन्धर चम्पू की रचना की है। चम्पू काव्य पर वे वीरनन्दी जैसे सिद्धान्तशास्त्र के मर्मज्ञ नही थे। का प्राविष्कार दसवी शती में हुमा है, प्रत: हरिचन्द्र प्राचार्य गुणभद्र का उत्तर पुराण प्रस्तुत दोनों महा- इसके बाद में हुए। कवियों के सामने रहा, यह सुनिश्चित है। इस पुराण में न स्थिर क्षणिकं ज्ञानमत्र शून्यमनीक्षणात् । चन्द्रप्रभ का चरित २७६ श्लोकों में समाप्त हुमा है। वस्तु प्रतिक्षणं तत्त्वान्यत्वरूपं तवेक्षणात् ॥२६॥ १. नास्तिकाः पापिन. केचिद दैष्टिकाश्च हतोद्यमाः । प्रस्त्यात्मा बोधसद्भावात् परजन्मास्ति तत्स्मृतेः । सर्व विच्चास्ति धीवृद्धस्त्वदुपजमिदं त्रयम् ॥२९॥ त्वदीयास्त्वास्तिका धाः परत्र विहितोद्यमाः॥२६२।। द्रव्याद् द्रव्यस्य वा भेदं गूणस्याप्यवदनिधीः । सर्वत्र सर्वदा सर्व सर्वस्त्वं सार्वसर्ववित् । गुणैः परिणति द्रव्यस्यावादीस्त्वं यथार्थदृक् ॥२६६।। प्रकाशयति नैबेन्दु र्भानुन्येिषु का कथा ॥२६॥ उ०पु०पर्व ५४ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बीरनन्दी पोर उनका चन्द्रप्रभ चरित हरिचन्द्र ने धर्मशर्माभ्युदय के अन्तिम संग में प्रसंग वर्तमान भव का शिक्षाप्रद जीवनवृत्त दिया गया है। पाकर मिथ्यात्व का लक्षण किया है वर्तमान भव के केवल गर्भकल्याणक का १६वें, जन्म, प्रदेवे देवगिर्या गुरुधीरगरावपि । तप तथा ज्ञान-इन तीन कल्याणकों का १७वें तथा प्रतत्त्वे तत्त्वबुद्धिश्च तन्मिथ्यात्वं विलक्षणम् ॥१३॥ मोक्ष कल्याणक का वर्णन अन्तिम १८ सर्म में प्रस्तुत इसी का लक्षण हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में यों किया गया है। चन्द्रप्रभ की दिव्पदेशना इसी सर्ग में दी लिखा है गई है। महाकाव्योचित प्रन्यान्य विषयों का पालकारिक पदेवे देवबुद्धिर्या गुरुषोरगुरौ च या। वर्णन प्रसङ्गानुसार यथा स्थान किया गया है। अधर्म धर्मबुद्धिश्च मिथ्यात्व तद्विपर्ययात् ॥२॥ भाषार इसी तरह योगशास्त्र और धर्मशर्माभ्युदय के खरकर्म सम्बन्धी श्लोक भी मिलते-जुलते है। प्रतएव हरि ___ चन्द्रप्रभचरित की कथावस्तु का मुख्य भाषार चन्द्र को हेमचन्द्र का प्रव्यवहित उत्तरवर्ती मानना होगा प्राचार्य गुणभद्र का उत्तरपुराण है, जिसके ५४३ पर्व जो १२वीं शती मे हुए हैं। फलतः ये वीरनन्दी से प्रभा में चन्द्रप्रभ के कुल मिलाकर सान भवों का वर्णन है। वित हुए हैं - यह मानने में कोई मापत्ति दृष्टिगोचर पर्व के अन्त में केवल एक ही अनुष्ट्रप में क्रमश: सातों नहीं होती। भवों के नाम भी बड़ी कुशलता से दिये गये हैंसमय धीवर्मा१ श्रीधरो देवोर जितसेनो३ ऽच्युताधिपः४ । नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने अपने जिस गोम्मटसार पद्मनाभो५ ऽहमिन्द्रो ऽस्मान् पातु चन्द्रप्रभ.७ प्रमुः। कर्मकाण्ड मे वीरनन्दी का उल्लेख किया है उसकी रचना वीरनन्दी ने उत्तरपुराण के क्रम के अनुसार चन्द्रचामुण्डराय की-जो गगवशीय राजा रायमल्ल के प्रधान प्रभचरित में चन्द्रप्रभ का जीवनचरित लिखा है और मन्त्री व सेनापति थे-प्ररणा से की गई थी। उन्होंने अन्त मे एक शार्दूल विक्रीड़ित मे क्रम से सातों भवों का चैत्र शुक्ला-पञ्चमी रविवार २२ मार्च सन् १०२८ मे उल्लेख किया है - श्रवण-बेल्गोला मे गोम्मट स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा य. श्रीवर्मन्पो बभूव विबुध. सौधर्मकल्पे ततकी थी। मतः वीरनन्दी का भी वही समय सिद्ध स्तस्माच्चाजितसेन चक्रभृदभूद्यश्चाच्युतेन्द्रस्ततः। होता है। पश्चाजायत पद्मनाभनपति यौँ वैजयन्तेश्वरो। कृति यः स्यातीर्थकरः स सप्तमभवे चन्द्रप्रभः पातु नः ॥६॥ महाकवि वीरनन्दी की एकमात्र कृति चन्द्रप्रभचरित उत्तरपुराण के उक्त श्लोक ने न केवल वीरनन्दी है। इसकी भाषा संस्कृत है। इसके अठारहो सगों के को, बल्कि प्रण्डितप्रवर प्राशाघर और दामनन्दी को२ कुल श्लोको की सख्या १६९१ है। प्रशस्ति के ६ श्लोक भी प्रभावित किया है। अलग हैं । सभी सर्गों के अन्तिम श्लोकों मे 'उदय' शब्द वीरनन्दी के समक्ष उत्तरपुराण के साथ जिनसेन माया है, अत: यह उदयाङ्क काव्य कहलाता है। चन्द्रप्रभ का हरिवंश पुराण भी रहा है, क्योंकि चन्नप्रभचरित की के साथ 'उदय' का मेल भी ठीक बैठता है। १. श्रीवर्मा श्रीधरो देवोऽजितसेनोऽच्युताधिपः । कथा वस्तु पपनामोऽहमिन्द्रो ऽभूयोऽव्यामचन्द्रप्रभः सनः ॥१०॥ प्रस्तुत महाकाव्य में अष्टम तीर्थकर चन्द्रप्रभ का त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्र चरित वणित है। इसीलिए इसका नाम 'चन्द्रप्रभचरितम्' २. श्रीवर्मा श्रीधरः स्वर्गेऽजितसेनऽच्युतः सुरः। रखा गया। इसके प्रारम्भ के १५ सर्गों में चन्द्रप्रभ के पचनाभोऽहमिन्द्रो यस्तं वन्देऽहं शशिप्रभम् ॥१३॥ पिछले ६ भवों (जन्मान्तरो) का मोर अन्त के ३ मे पुराणसार संग्रह Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ अनेकान्त कुछ बातों का साम्य उत्तरपुराण से है तो कुछ का का प्रयोग होता है। इसका प्रधान लक्ष्य है कठिनतम हरिवंश से। विषयों का सार लेकर सरलतम सरस शब्दों में मानवमात्र प्रस्तुत महाकाव्य में चन्द्रप्रभ के पांच कल्याणकों में को उसके हित की शिक्षा देना। इसी दृष्टि से वीरनन्दी से केवल जन्म और मोक्ष-इन दो की तिथियां दी गई ने प्रस्तुत ग्रन्थ का निर्माण किया। इसमें चन्द्रप्रभ के किया कि पिछले ६ भवों का व १ वर्तमान भव का वर्णन किया है। गई है जो दोनों पुराणों के अनुरूप है, पर मोक्ष कल्याणक इससे पाठक की दृष्टि के सामने चन्द्रप्रभ के उत्तरोत्तर की मिति भाद्रपद शुक्ला सप्तमी दी गई है जो केवल बढ़ते उत्कर्ष का चित्र मा जाता है, जो वह प्रेरणा देता हरिवंश के ही अनुकूल है। उत्तरपुराण मे फाल्गुन हाक पास है कि जो भी अपना उत्कर्ष चाहें चन्द्रप्रभ जैसे मार्ग को शुक्ला सप्तमी दी गई है। चन्द्रप्रभ के समवसरण में अपनाये । काव्यकार को चारों पुरुषार्थों की शिक्षा देनी विक्रिया ऋद्धि धारियों की संख्या चौदह हजार बतलाई चाहिए जैसाकि अलङ्कार शास्त्र का निर्देश है। प्रस्तुत गई है। यह उत्तरपुराण के अनुरूप है। हरिवंश मे दस ग्रन्थ में मोक्ष पुरुषार्थ की भी शिक्षा दी गई है और अन्तिम हजार चार मो लिखी है। इत्यादि अनेक ऐसे प्रसंग हैं सगं मे मानव के लिए प्राचार संहिता भी दे दी गई है। जो यह कहते हैं कि वीरनन्दी ने उत्तरपुराण के साथ काव्य को प्रात्मा रस है। प्रस्तुत काव्य में शान्तरस की हरिवंश आदि अनेक पुराण ग्रंथों का प्रश्रय लेकर अपने धारा प्रवाहित है । जैनेतर काव्यों में जिसे नायक बनाया महाकाव्य की रचना की । लगता है इसीलिए वीरनन्दी ने जाता है उसके जन्म-जन्मान्तरों का वर्णन नही रहता, किसी पुराण विशेष का नाम न लेकर 'पुराण सागरे'१ बहुत हुआ तो उसकी कुछ पीढियों का वर्णन कर दिया यह पुराण सामान्य का उल्लेख करना उचित समझा। जाता है। कुछ ऐसे भी काव्य है जिनमें पृङ्गाररस की विशेषता बाढ मे उनकी अन्यान्य अच्छी शिक्षाएँ घास-फूस की झोंपडियाँ बनकर बह गई। यों चन्द्रप्रभचरित में भी जिसमें मानवोचित हित निहित हो वह शास्त्र कह शृङ्गाररस है, पर वह अङ्गी नहीं. अङ्ग (गौण) है। लाता है। काव्य के साथ भी शास्त्र शब्द (काव्य शास्त्र) इत्यादि विशेषतानों की दृष्टि से वीरनन्दी अपने काव्य १. तथापि तस्मिन गुरुसेतुवाहिते के निर्माण में अधिक सफल हुए है । इनका चन्द्रप्रभसुदुष्प्रवेशेऽपि पुराणसागरे । चरित उच्चकोटि का काव्य है। यह रघुवंशजैसा यथात्मशक्ति प्रयतोऽस्मि पोतक. सरल है। इति ★ पथीव यूथाधिपतिप्रवर्तिते ॥च.च०१॥१०॥ पर पदार्थ हमें इसके लिए बाध्य नहीं करते कि हममें निजत्व की कल्पना करो, कि तु हम स्वयं अपने राग-केमावेश में प्राकर उनमें निजत्व और परत्व की कल्पना करते हैं। वह भी नियमित रूप से नहीं। देखा यह गया है कि जिसे निज मान रहे हैं, वही जहां हमारे अभिप्राय के विद्यमा , हम उसे पर जान त्याग करने की इच्छा करते हैं और जो पर है यदि वह हमारे अनुकूल हो गया तो शीघ्र ही उसे ग्रहण करने की इच्छा करते हैं। अभ्यन्तर मोह की परिणति इतनी प्रबल है कि इसके प्रभाव में पाकर जरा भी रागांश को त्यागना कठिन है। अधिक से अधिक त्याग के बल बाह्य रूपादि विषयों का प्रत्येक मनुष्य कर सकता है किन्तु प्रान्तरिक करना अति कठिन है। वरों-वारणो Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का जैन पुरातत्व डा० कैलाशचन्द जैन राजस्थान में जैनधर्म का अस्तित्व प्राचीनकाल से है। राजामों को प्रभावित किया और जैनधर्म और संस्कृति वहाँ प्रायः दो संस्कृतियों का अस्तित्व पुरातन समय से का संरक्षण किया। अनेक विद्वान ऋषियों, भट्टारकों, रहा है। पुरातन अवशेष भी पाठवीं शताब्दी तक के विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, राजस्थानी, हिन्दी उपलब्ध होते हैं । राजपूत राजाओं के राज्यकाल मे जैन और गुजराती भाषा में विपुल साहित्य रचा। उसमें से धर्म खूब ही पल्लवित और विकसित हुमा है। राजपूत वर्तमान में जो कुछ साहित्य उपलब्ध है उसका भी अभी राजामों ने जैनधर्म के विकास में कोई रुकावट नही डाली पूर्णरूप से मूल्यांकन नहीं हो सका है फिर भी उसकी प्रत्यत उदारतावश सहयोगही दिया है। चौहानवशी राजामो महत्ता स्पष्ट है। राजस्थान में उपलब्ध मूर्तियाँ, मन्दिर ने तो जैन मन्दिरो को दान भी दिया है। जैनियों ने भी और शिलालेख, प्रन्थ-प्रशस्तियां, जिनमें संघ, गणगच्छादि राजपन गजामों के अनुकूल रहकर राज्य की सेवाएँ की के उल्लेख निहित हैं। उनसे इतिहास के लिए बड़ी जानहै और अनेक तरह से उसे सम्पन्न बनाने में सहयोग कारी मिलती है। पाज इस लेख द्वारा राजस्थान के जैन दिया है। वे सेवा-कार्य से कभी पीछे नही हटे है। जयपुर पुरातत्त्व पर विचार किया जाता हैप्रादि राज्यों का संरक्षण और सवर्द्धन भी किया है। कुछ बाद के शिलालेखों से तो ऐसा पता चलता है इतना ही नहीं किन्तु उन राज्यों के दीवान, कोषाध्यक्ष कि जैनधर्म राजस्थानमें बहुत प्राचीन समय में भी विद्यमान प्रादि उच्च पदों पर रह कर राज्य की अभिवृद्धि,स भाल, था किन्तु उन पर सहसा विश्वास नहीं किया जा सकता प्रतिष्ठा को बढ़ाने तथा सरक्षण में सदा सावधान रहे हैं। भीनवाल के वि० सं० १३३३ के शिलालेख१ से पता राजस्थान में जैन संस्कृति के प्राण जैन मन्दिर, मूर्तियां चलता है कि महावीर स्वामी स्वय श्रीभाल नगर पधारे और शास्त्र-भण्डार विपुल मात्रा में देखने को मिलते हैं। थे। मुगस्थल के वि० सं० १४२६ के शिलालेखर में यह जैसे गुजरात में चौलुक्यवंशी कुमारपाल प्रादि के समय उल्लेख है कि महावीर स्वामी स्वय मर्चवभूमि पधारे जैनधर्म की पताका फहराती रही, उसी तरह राजपूताने तथा महावीर स्वामी के जीवन के ३७वें वर्ष में केशी में भी जैनधर्म का प्रभ्युदय रहा है। अनेक मन्दिर निर्माण श्रमण ने यहाँ पर एक मूर्ति की प्रतिष्ठा की। सत्तरहवीं मूति-प्रतिष्ठा, ग्रन्थनिर्माण और महोत्सवादि विविध कार्य शताब्दी के कवि सुन्दर गणि३ के अनुसार चन्द्रगुप्त मौर्य सोत्साह सम्पन्न होते रहे हैं। दूसरे शब्दों में यह कहा जा ने घंधाणी के जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा की किन्त यह सकता है कि जब दक्षिण देश में धार्मिक विद्वेष के कारण मन्दिर वास्तव में बारहवीं सदी का है। कर्नल टाके जैनधर्म और संस्कृति पर अत्याचार होने लगे और जैनियों अनुमार कुंभलमेर का एक मन्दिर राना सप्रति के द्वारा को बलात् शवधर्म में दीक्षित किया जाने लगा, तथा - १. प्रोग्रेस रिपोर्ट पाकियोलोजिकल सर्वे वेस्टर्न सकिल, बिना किसी अपराध के साधुनों को मारने तथा धर्म परि १९०७, पृ० ३५। वर्तन की अनेक घटनाएं घटने लगीं। तब वहाँ से भी कुछ २. प्रबुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख संदोह. ४८ । जैन लोग गुजरात, राजस्थान पोर मालवा में प्राकर बसे ३. भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास, और वहाँ उन्होंने अपने धर्म की रक्षा की। पृ० २७३। राजस्थान में मेवाड़ौर मालवा में अनेक मुनियों, ४. प्रनल्स एण्ड एन्टीक्विटीज माफ राजस्थान, जिल्द २, भट्टारकों ने विहार किया और अपने धर्मोपदेश द्वारा पृ०७७६.८० । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनेकान्त बनवाया गया था किन्तु वास्तव में यह मन्दिर कला की ७४ की भी है१२। दृष्टि से बारहवीं सदी का है तथा अपूर्ण दशा में छोड़ राजपूतों के काल में जैनधर्म की बहत उन्नति हुई। दिया गया है। नन्दलाई के एक शिलालेख के अनुसार ब्राह्मणधम के अनुयायी होते हुए भी उन्होंने जैनधर्म के वि० सं० १६८६ में उस स्थान के संघ ने राजा सप्रति प्रति भी बड़ा उदार दृष्ठिकोण रखा। प्रतिहार राजा द्वारा बनाये हुए मन्दिर का पुनः निर्माण किया। वत्सराज के समय (७५३) का बना हुमा भोसिया में महावीर स्वामी का मन्दिर है१३ । काकुड मंडोर का गौरीशंकर हीराचन्द प्रोझा बडली के शिलालेख को प्रतिहार राजा था। वह संस्कृत का विद्वान् तथा जैनधर्म जैन शिलालेख मानते हैं और उनके अनुसार यह वीर का संरक्षक था। पटियाला के शिलालेख से पता चलता है निर्वाण संवत ८४ का है। इससे यह सिद्ध होता है कि कि उसनं ८७१ ई० में एक जैनमन्दिर बनवाया। प्रलवरके ईसा से पांचवी सदी पूर्व में भी यहाँ पर जैनधर्म प्रचलित समीप अजबगढ़१५, नौगामा१६ तथा नीलकंठ१७ (राडमार) था। इसके विपरीत डा. डी०सी० सरकार के अनुसार में ग्यारहवी व बारहवी सदी की जैन प्रतिमाएँ सिद्ध यह जन शिलालेख नही है तथा यह ईसा से दूसरी करती है कि जब यहाँ गूर्जर प्रतिहारो का प्रभुत्व था तो शताब्दी का है। डा. सरकार का मत अधिक प्रमाणित शेवधर्म के साथ साथ जैनधर्म का भी प्रभाव था। लगता है। इसमें संदेह नहीं कि चित्तौड़ के पासपास चौहान राजामों ने भी जैनधर्म को प्रोत्साहन दिया । मध्यमिका (नगरी) नामक स्थान पर ईसा की दूसरी सदी बिजोलिया का १२२६ का शिलालेख१८ इस सबन्ध मे पूर्व जैनधर्म विद्यमान था। मथुरा में कुषाणकाल के जैन महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है। पृथ्वीराज प्रथम ने वह श्रमण संघ की मध्यमिका शाखा के शिलालेखम मिले हैं। के पार्श्वनाथ के मन्दिर के खर्चे के लिए मोरकुरी नाम माध्यमिका शाखा की स्थापना सुहस्थि के शिष्य प्रियप्रथ का ग्राम दान में दिया। इसके पश्चात् सोमेश्वर ने स्वर्ग ने दूसरी शताब्दी पूर्व में की थी । नगरी में दूसरी व प्राप्त करने की इच्छा से उपयुक्त मन्दिर को रेवा गाँव तीसरी शताब्दी पूर्व का शिलालेख भी मिला है जिसका दान दिया । नाडोल तथा जालोर के चौहान राजामों के मर्थ है 'सर्वभूतों के निमित्त'१० । सम्भव है यह जैन धर्म समय भी जैनधर्म का प्रचार हुमा । अश्वराज, पाल्हणदेव से सम्बन्धित शिलालेख हो तथा जैनधम के प्रचलित होने प्रादि राजानों के शिलालेखों१६ से पता चलता है कि को सिद्ध करता है। उन्होंने जैन मन्दिरों को भूमि, अनाज, धन प्रादि दान में गुप्तकाल के कुछ बाद के जैन अवशेष बूटी के समीप दिये। उनके समय में अनेक जैन मन्दिरों तथा मूर्तियों केशोराय पाटण मे मिले हैं। इनमे जैन कल्पवृक्ष पट्ट तथा की प्रतिष्ठा हई । जालोर के समरसिंह के राज्य में यशोजैन मूर्तियाँ उल्लेखनीय है । जनसाहित्य में इसका उल्लेख मध्यकालीन साहित्य मे 'माधम नगर' के रूप मे हा १२. अर्बुदाचल प्रदक्षिणा जैनलेख संदोह, सं० ३६५ है११ । बसन्तगढ के जैन मन्दिर में एक प्रतिमा वि.स. १३. पाकियोलाजिकल सवें माफ इंडिया एनवल रिपोर्ट, १९०८-६, पृ० १०८ ५. नाहर जैन लेख संग्रह, संख्या ८५६ । १४. जर्नल ग्राफ रायल एसियाटिक सोसाइटी, १८९५, ६. भारतीय प्राचीन लिपि माला, पृ० २-३ पृ० ५१६ ७. जनरल माफ़ बिहार रिसर्च सोसाइटी, जिल्द १६ १५. एनवल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम अजमेर, पृ०६७-६८ १९१८-१६, सं०४,६ मोर १० ८. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २, पृ. २०५ १६. वही, सं०३ और ४।। ९. सेक्रिड बुक्स माफ दी ईस्ट, २२, पृ० २६३ १७.प्राकियोलाजिकल सर्वे रिपोर्ट, जिल्द २० पृ० १२४ १.. उदयपुर राज्य का इतिहास, पृ० ५४ १८. एपिग्राफिया इंडिका, जिल्द २६, पृ० १०१ ११. वीरवाणी स्मारिका, पृ० १०६ १९. वही, जिल्द ९ व ११ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का न पुरातत्य स वीर नाम के एक धनी ने एक मंडप तैयार करवाया। दसवीं व ग्यारहवीं सदी में सूरसेनों के समय में इसी राजा के प्रादेश से यशोवीर ने कुमारपाल द्वारा भरतपुर के पासपास प्रदेश पर जैनधर्म का बड़ा प्रभाव निर्मित पाश्र्वनाथ के मन्दिर का पुनरोद्धार करवाया२०। रहा । बयाना, नरोली२७ भादि स्थानों पर इस समय चाचियदेव के राज्य में तेलिया मोसवाल ने महावीर के की अनेक जैन मूर्तियां मिली है। कुछ सूरसेन राजामों मन्दिर को ५०) दम दान में दिए२१ । ने तो जैनधर्म को स्वीकार भी कर लिया था । १०४३ पाबू के परमार राजापों के समय भी जैनधर्म ने कम ई.के वयाना के शिलालेख२८ में काम्यक गच्छ के जैन उन्नति नहीं की। विमलबसही तथा लणवसही जैसे कला- साघुपों के नामों का उल्लेख है। पूर्ण मन्दिरों का निर्माण हुमा तथा अनेक भव्य मूर्तियों मध्य कालीन युग में राजस्थान अनेक छोटे-छोटे की उनमें स्थापना हुई। दियाण ग्राम के वि० सं० १०२४ रजवाड़ों में विभाजित हो गया था। राजानों ने उसी के शिलालेख से पता चलता है कि वर्तमान ने कृष्णराज उदार नीति का अनुसरण किया जिसके परिणाम स्वरूप के समय वीरनाथ की मूर्ति की प्रतिष्ठा२२ की। झाडोली अनेक मन्दिरों का निर्माण हुमा तथा उनमें मूर्तियों की मानतामा भाग प्रतिष्ठा की। राजा लोग जैन साधुनों का बड़ा सम्मान की पत्नी शृङ्गारदेवी ने ११९७ ई. में यहां के मन्दिर रखते थे। को भूमि दान में दी२३ । १२८८ में महाराजा वीसलदेव मेवाड़ के महाराणामों की प्रेरणा से भी जैनधर्म को और सारगदेव के समय दत्ताणी के ठाकुर श्री प्रताप और बहुत बल मिला कुछ राजामों ने तो जैन मन्दिरों का श्री हेमदेव नाम के परमार ठाकुरों ने पार्श्वनाथ के मदिर निर्माण किया तथा उनमें मूर्तियों की स्थापना की। ना. को दो खेत दान में दिये२४ । सूवड़सिंह ने इसी मन्दिर चायो को मामषित करके उन्होंने उनका उच्च सम्मान को धार्मिक उत्सव मनाने के लिए ४०० द्रम दान में किया तथा उनके उपदेश से प्रभावित होकर पर हिंसा दिये । दियाणा ग्राम के अन्य शिलालेख से ज्ञात होता है बन्द करवादी । राजा अल्लट क मन्त्री ने प्राधाट में जैन कि तेजपाल और उसके मत्री कृपा ने एक होज बनवाकर मंदिर बनवाकर उसमें पार्श्वनाथ की प्रतिमा की प्रतिष्ठा महावीर के मन्दिर को दान दिया२५ । की२६ । कोजरा के शिलालेख से पता चलता है कि राणा हळूण्डी के राष्ट्रकूट वंश के राजा जो दसवी सदी में रायसी की स्त्री शृङ्गार देवी ने ११६७ ई. में पार्श्वनाथ शासन करते थे, जैनधर्म के अनुयायी थे२६ । वासुदेवाचार्य के मन्दिर का स्तम्भ बनाया। महाराणा समरसिंह पौर के उपदेश से विदग्धराज ने ऋषभदेव का मन्दिर बनवाया उनकी माता जयतल देवी देवेन्द्रसूरि के उपदेश से बहत और भूमिदान में दी। उसके लड़के मम्मट ने भी इस प्रभावित हुए। जयतल देवी ने पाश्वनाथ का मन्दिर मन्दिर को कुछ दान दिया। इसके पश्चात् इसके पुत्र बनवाया और समरसिंह ने इसको भूमिदान में दी३०। धवल ने इसको सुधरवाया और जैनधर्म के यश को फैलाने उसने अपने राज्य में हिंसा कम करने का भी प्रयत्न का हर प्रकार से प्रयत्न किया। किया । महाराणा मोकल के खजाची ने १४२८६० में महावीर का मन्दिर बनवाया। मोकल के पुत्र महाराणा २०. वही जिल्द ११, पृ. ४६-४७ कुम्भकरण के समय तो जैनधर्म का अधिक प्रचार हमा। २१. प्रोग्रेस रिपोर्ट भाकियोलाजिकल सर्वेवेस्टर्न सकिल . १९०८.०६, पृ० ५५ २७. प्रोग्रेस रिपोर्ट माकियोलाजिकल सर्वे वेस्टर्न सकिल, २२. प्रबुंदाचल प्राचीन जैन लेख संदोह. सं० ५५ १९२०-२१, पृ० ११६ २३. पर्बुदाचल प्रदक्षिणा जैन लेख सदोह, सं०४८६ २८. इंडियन एण्टिक्वेरी जिल्द २१, पृ. ५७ २४ वही, ५५ २९.निज्म इन राजस्थान, पृ० २६ २५. वही, ४६० ३०. एनुवल रिपोर्ट राजपूताना म्यूजियम, अजमेर, २६. नाहर जैन लेख संग्रह ८६८ | १९२२-२३, सं०८। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त उसके समय में अनेक मन्दिर बने तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा पण्णति३५ के अनुसार बारा में अनेक श्रावक तथा जैनहई । महाराणा जगतसिंह और महाराणा राजसिंह ने भी मन्दिर थे। यहां का राजा शक्ति था जो मेवाड़ का शक्ति जैनधर्म को बहुत प्रेरणा दी। उन्होंने साल के कुछ दिनों कुमार (१७७ ई०) हो सकता है। रोमगढ़ में जिसका राज्य में जीवहिंसा पर रोक लगा दी। प्राचीन नाम श्रीनगर था, जैन साधुनों के ठहरने के लिए डूंगरपुर, बांसवाडा और प्रतापगढ़ राज्यों का क्षेत्र नवीं व दसवीं सदी की जैन गुफाएं हैं । पटरु मे बारहवीं प्राचीन समय में बागडदेश के नाम से प्रसिद्ध था। दसवीं और तेरहवीं शताब्दी के दो कलापूर्ण जैनमन्दिर हैं। पटरु शताब्दी में भी इस क्षेत्र में जैनधम प्रचलित था क्योंकि के पास कृष्णविलास नामक स्थान है जहा पर पाठवीं से दसवीं शताब्दी के शिलालेख में 'जयति श्री वागड़ सघ' लेकर ग्यारहवी शताब्दी तक के बने हुए जैन मन्दिर हैं । का उल्लेख पाया है। राजामों के मन्त्रियों ने मन्दिर शेरगढ़ का प्राचीन नाम कोशवर्षन था। यहाँ पर नवबनवाये तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा करवाई। डूगरपुर का निर्मित चैत्य में वीरसेन के समय मे जैन तीर्थकर नेमिनाथ प्राचीन नाम गिरिवर था । जपानन्द की प्रवास गोतिका- का महोत्सव मनाया गया । ११३४ ई० मे देवपालने रत्नप्रय३१ से पता चलता है कि १३७० ई० मे यहा पर पांच त्रय की स्थापना की और उसकी प्रतिष्ठा धूमधाम से जैन मन्दिर तथा ५.० जैनघर थे । १४०४ ई. में रावल की३६ । १६८९ ई. में चांदखेड़ी में किशोरसिंह के राज्य प्रतापसिंह के मन्त्री प्रसाद ने जैन मन्दिर बनवाया। काल मे कृष्णदास नाम के एक धनी बनिये ने महावीर गजपाल के राज्य में भी जैनधर्म फलता फूलता रहा। का जैन मन्दिर बनवाया और सैकड़ो मूर्तियो की प्रतिष्ठा उसके मन्त्री प्राभा ने प्रांतरी में एक शान्तिनाथ का जैन- की। मन्दिर बनाया३२ । सोमदास के मन्त्री साला ने पीतल सिरोही राज्य में भी जैनधर्म का अच्छा प्रचार हुआ। की भारी वजन की मूर्तियां डूगरपुर मे तैयार करवा कालन्द्री के वि० सं० १३३२ के शिलालेख से पता चलता करके उनकी प्रतिष्ठा प्राबू के जैनमन्दिरों में करवाई३३। है कि यहाँ के श्रमण संघ के कुछ सदस्यों ने समाधिभरण उसने गिरिवर के पार्श्वनाथ के मन्दिर का भी पुनरोद्धार के द्वारा मृत्यु प्राप्त की३८ । यहाँ के सजानो के राज्य मे करवाया। चौदहवीं और पन्द्रहवीं शताब्दी की अनेक जैन जैनधर्म बहुत फैला। सहज, दुर्जनशाल, उदयमिह प्रादि मूर्तियां प्रतापगढ़ राज्य में मिलती हैं। देवली के १७१५ राजाओं के समय मे मन्दिरों तथा मूर्तियों की प्रतिष्ठा ई. के शिलालेख३४ से ज्ञात होता है कि इस गांव के हुई। तेलियों ने भी महाराज पृथ्वीसिंह के राज्य मे सौरया और जैसलमेर के भाटी राजपूत राजामो के राज्य जीवराज नाम के महाजनों की प्रार्थना से साल में ४४ में भी जैनधर्म का अधिक प्रचार प्रा । दसवीं दिन के लिए अपने कार्य को बन्द करने का निश्चय किया। शताब्दी मे यहाँ के राजा सागर के जिनेश्वर सूरि की इसी राजा के समय में मल्लिनाथ के मन्दिर का निर्माण कृपा से श्रीधर और राजधर नामक दो पुत्र हुए जिन्होने पार्श्वनाथ के मन्दिर को बनवाया३६ । इस मन्दिर का कोटा डिवीजन में भी जनधर्म के प्राचीन अवशेषों के पुनः निर्माण १६१८ ई० में सेठ थाहरुशाह ने किया४० । बारे में जानकारी प्राप्त होती है। पमनन्दि की जम्बूद्वीप- ३५. पुरातन जैनवाक्य सूची, पृ० ६७ ३६. एपि माफिया इडिका, पृ००४ ३१. श्री महारावल जयन्ती अभिनन्दन ग्रंथ पृ० ३९७ ३७. जैनिज्म इन राजस्थान, पृ० ३६ ३२. एनुवल रिपोर्ट राजपूताना म्युजियम, अजमेर, ३६. प्रोग्रेस रिपोर्ट माकियोलोजिकल सर्वे वेस्टर्न सकिल, १९१५-१६ १९१६-१७, पृ. ६७ ३३. वही, १९२६-३०, न. ३ ३६. नाहर जैन लेख संग्रह, नं० २५४३ ३४. वही, १९३४-३५, नं० १७ ४०. वही, नं० २५४ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजस्थान का जैन पुरातत्व लोद्रवा के नष्ट हो जाने पर जैसलमेर को राजधानी बनाई महाराजा रामसिंह ने तुरासान से लूटी हुई सिरोही की गई । लक्ष्मणसिंह के राज्य में १४१६ ई. मे चिंतामणि १०५० जैन मूर्तियाँ प्रकार से प्राप्त करके नष्ट होने से पाश्र्वनाथ का मन्दिर बना और मन्दिर बनने के पश्चात बचाई। इसका नाम राजा के नाम पर लक्ष्मणविलास रखा गया। जयपुर राज्य के कच्छावा राजों की सरक्षता में भी लक्ष्मणसिंह के पश्चात् उसका पुत्र वैरीसिंह राजा बना जैनधर्म ने अधिक उन्नति की। यहाँ करीब ५० जन जिसके समय में संभवनाथ का मन्दिर बना। इस मन्दिर दीवान हुए जिनकी प्रेरणा से अनेक अथो की प्रतियाँ की प्रतिष्ठा तथा अन्य उत्सवो मे राजा ने स्वय भाग लिखी गई, मूतियो की प्रतिष्ठा हुई तया नवीन मन्दिर लिया। उसके बाद चाचिगदेव, देवकरण तथा अन्य बनाये गये। इस राज्य के छोटे छोटे ठिकानों में भी राजामों के समय में भी मन्दिरों का निर्माण हुमा तथा जागीरदारो की प्रेरणा से जैनधर्म का प्रभाव बढ़ा। १५६१ उनमे अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा हुई। पादुकायें भी पूजने ई० मे थानसिंह ने सघ निकाला पोर पावापुरी मे सोडसके लिए बनाई गई४१ । बड़े बड़े ग्रन्थ-भण्डार सस्कृति की यन्त्र की प्रतिष्ठा की। १६०५ ई० म चपावती (चाकसू) रक्षा करने के लिए स्थापित किये गये । के मन्दिर के स्तम्भ का निर्माण किया गया । मोजमाबाद जोधर गौरीमा में सोने मे जेता ने इसी राजा के राज्य मे १६०७ ई० मे सैकड़ों में जैनधर्म का उत्थान हुआ। नगर मे जिसका प्राचीन भात मूर्तियों की प्रतिष्ठा को। मिर्जा राजा जयसिंह के मन्त्रा नाम वीरमपुर था, जैनधर्म का पन्द्रहवी व सोलहवी मोहनदास ने मामेर में विमलनाथ का मन्दिर बनवाया शताब्दी में अच्छा प्रभाव रहा। राउल राऊड़, कुषकरण और उसे स्वर्णकलश से सुशोभित किया। सवाई जयसिंह और मेघविजय के समय जैन मन्दिरों के कुछ हिस्सों को के समय रामचन्द्र छाबड़ा, राव कृपाराम तथा विजयराम सुधरवाया गया। १६१२ ई० मे सूर्यसिंह के राज्य मे छाबड़ा नाम के तीन दीवान हुए जिन्होंने जैनधर्म का वस्तुपाल ने पाश्र्वनाथ के मन्दिर की प्रतिष्ठा की। १६२६ प्रचार किया। रामचन्द्र ने शाहबाद मे जैनमन्दिर बनाया। ई० में जयमल ने गजसिंह के समय जालोर के प्रादिनाथ. तथा राव कृपारामन चाकसू तथा जयपुर में जैन मन्दिर पार्श्वनाथ तथा महावीर के मन्दिरो मे मूर्तियों की स्थापना बनाये । सवाई माधोसिंह के समय बालचन्द्र छाबड़ा ने की। इसी राजा राज्य नेपाली तथा पुराने जनमन्दिरों को ठीक करवाया तथा नये मन्दिरो को मेहता में भी प्रतिया ह मार बनवाया । केशरीसिंह कासजीवाल ने जयपुर में सिरमोरियो महाराजा अभयसिंह के राज्य में प्रतिष्ठा महोत्सव मनाया का मन्दिर बनवाया पोर कन्हैयाराम ने वेदों का चैत्यालय गया। यहाँ के दीवान रामसिंह ने साहो का मन्दिर का निर्माण करवाया। नन्दलाल ने जयपुर पौर सवाई बनाया तथा उसमे अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा की । - माधौपुर मे जैन मन्दिर बनवाये । पृथ्वीसिंह के राज्य में बीकानेर के शासक बीका जी और उसके उत्तरा- पुरन्द्रका सुरेन्द्र कीर्ति के उपदेश से अनेक मूर्तियों की प्रतिष्ठा धिकारी जैनधर्म और जैन साधुनों के प्रति श्रद्धा रखते हुई । बालचन्द छाबड़ा का पुत्र रामचन्द जगतसिंह थे। उनके समय में भाडासर, चिन्तामणि और नेमिनाथ का मुख्य मन्त्री था और उसने भट्टारक सुरेन्द्रकीति के के मन्दिर बीकानेर में बने । कर्मचन्द्र की प्रार्थना पर उपदेशों से जूनागढ़ तथा जयपुर में मूर्तियों की प्रतिष्ठा की। बखतराम भी जो जगतसिंह का दीवान रहा ४१. नाहर जैन लेख संग्रह, नं० २११२ जयपुर के चौड़े रास्ते में यशोदानन्द जी का जैन मन्दिर बनवाया।* Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-बौद्ध-दर्शन प्रो. उदयचन्द्र जैन वर्शन का अर्थ प्रश्न का समाधान हो सकता है। क्योंकि विभिन्न ऋषियों मनुष्य विचारशील प्राणी है। वह प्रत्येक कार्य के ने अपने-अपने दृष्टिकोणों से वस्तु के स्वरूप को जानकर समय अपनी विचारशक्ति का उपयोग करता है। इसी उसी का बार-बार मनन पौर चिन्तन किया और इसके विचारशक्तिको विवेक कहते हैं। मनुष्य और पशुपों में फलस्वरूप उन्हें अपनी-अपनी भावना के अनुसार वस्तु के भेद भी यही है कि मनुष्य की प्रवृत्ति दिवेकपूर्वक होती है स्वरूप का दर्शन हुग्रा । भावना के द्वारा वस्तु के स्वरूप और पशुमों की प्रवृत्ति अविवेकपूर्वक होती है। यदि कोई ___ का स्पष्ट प्रतिभास होता है यह बात अनुभव से सिद्ध है। मनुष्य अविवेकपूर्वक प्रवृत्ति करता है तो उसे नाम से ही काम, शोक, भय, उन्माद प्रादि के वशीभूत होकर मनुष्य मनुष्य कहा जा सकता है, वास्तव में नहीं। मनुष्य में जो अविद्यमान पदार्थों को विद्यमान सरीखे देखते हैं। कहा विचारशक्ति या विवेक है उसी का नाम दर्शन है। इस भी हैप्रकार प्रत्येक मनुष्य का एक दर्शन होता है, चाहे वह काम-शोक-भयोन्माद-चोर-स्वप्नाथपप्लुताः । उसे जाने या न जाने । दर्शन हमारे जीवन का एक अभिन्न अभूतानपि पश्यन्ति पुरतोऽवस्थितानिव ।। अंग है, हम उसे अपने जीवन से पृथक् नही कर सकते । --प्रमाणवार्तिक २२८२ वर्शन शब्द की व्युत्पत्ति कारागार में बन्द कामी पुरुष रात्रि के गहन अन्धदश्यतेऽनेन इति दर्शनम्-अर्थात् जिसके द्वारा वस्तु कार मे प्रांखों के बन्द होने पर कान्ता की सतत भावना का स्वरूप देखा जाय वह दर्शन है। यह ससार नित्य है के द्वारा कान्ता के मुख को स्पष्ट देखता है। यथाया भनित्य ? इसकी सृष्टि करने वाला कोई है या नही? पिहिते कारागारे तमसि च सूचीमुलापवुर्भे दे। मात्मा का स्वरूप क्या है ? इसका पुनर्जन्म होता है या मयि च निमीलितनयने तपापि कान्ताननं व्यक्तम् ।। यह इसी शरीर के साथ समाप्त हो जाती है ? ईश्वर की सत्ता है या नहीं ? इत्यादि प्रश्नों का समुचित उत्तर देना भारतीय दर्शन में जैन-बौद्धदर्शन का स्थानदर्शनशास्त्र का काम है। वस्तु के स्वरूप का प्रतिपादन भारतीय दर्शन को हम दो भागों में विभक्त कर करने से दर्शनशास्त्र वस्तु-परतन्त्र है। इस प्रकार यह सकते हैं-वैदिक दर्शन और अवैदिक दर्शन । वेद की कहा जा सकता है कि प्राचीन ऋषि और महर्षियो ने परम्परा में विश्वास रखने वाले न्याय. वैशेपिक, साख्य, अपनी तात्त्विक दृष्टि से जिन जिन तथ्यो का साक्षात्कार योग, मीमांसा और वेदान्त ये छह दर्शन वैदिक दर्शन हैं। किया, उनको दर्शन शब्द के द्वारा कहा गया है। यहाँ तथा वेद को प्रमाण न मानने के कारण चार्वाक, बौद्ध यह प्रश्न हो सकता है कि यदि दर्शन का प्रथं साक्षात्कार और जैन ये तीन दर्शन प्रवैदिक हैं। कुछ लोग जैन मौर है तो फिर विभिन्न दर्शनों में पारस्परिक भेद का कारण बौद्ध दर्शन को वैदिक दर्शन की शाखा के रूप में ही क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर यही हो सकता है कि अनन्त स्वीकार करते हैं, उनकी ऐसी मान्यता ठीक नही है। धर्मात्मक वस्तु को विभिन्न ऋषियों ने अपने-अपने दृष्टि क्योंकि ऐतिहासिक खोजों के प्राधार पर यह सिद्ध हो कोण से देखने का प्रयत्न किया और तदनुसार ही उसका चुका है कि श्रमण परम्परा के अनुयायी उक्त दोनों धर्मों प्रतिपादन किया। अतः यदि हम 'दर्शन' शब्द का अर्थ और दर्शनों का स्वतन्त्र अस्तित्व है। भारतीय बर्शन के भावनात्मक साक्षात्कार के रूप में ग्रहण करे तो उपर्युक्त विकास मे जनदर्शन और बौडदर्शन ने महत्त्वपूर्ण योग Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-बौख-दर्शन १५६ दिया है। यदि भारतीय दर्शनों में से उक्त दोनों दर्शनों उदय हुमा। और महात्मा बुद्ध के बाद बौखदर्शन का को पृथक कर दिया जाय तो भारतीय दर्शन में एक बहुत प्रारम्भ हुमा । बुद्ध ने विशेषरूप से धर्म का ही उपदेश बडी कमी दृष्टिगोचर होगी। दिया था, न कि दर्शन का। अध्यात्मशास्त्र की गुत्थियों को शुष्क तर्क की सहायता से सुलझाना बुद्ध का उद्देश्य जनदर्शन का प्रारम्भ और विकास न था, किन्तु दुःखमय संसार से प्राणियों का उद्धार जनदर्शन की मान्यतानुसार जैनदर्शन की परम्परा करना ही उनका प्रधान लक्ष्य था। बुद्ध ने देखा कि अनादिकाल से प्रवाहित होती चली पा रही है । इस युग लोग पारलौकिक जीवन की समस्यामों में उलझकर में प्रादि तीर्थकर ऋषभनाथ से लेकर चौबीसवें तीर्थङ्कर ऐहिक जीवन की समस्याओं को भूलते जा रहे हैं। इसी महावीर पर्यन्त २४ तीर्थकुरों ने कालक्रम से जनदर्शन लिए उन्होंने सरल प्राचार मार्ग का प्रतिपादन करने के पौर धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। जो लोग लिए अष्टांग मार्ग (मध्यम मार्ग) का उपदेश दिया तथा जैनदर्शन को अनादि नहीं मानना चाहते हैं उन्हें कम से प्रात्मा और शरीर भिन्न है या पभिन्न ? लोक शाश्वत कम जनदर्शन को उतना प्राचीन तो मानना ही पड़ेगा, है या अशाश्वत ? इत्यादि प्रश्नों को मव्याकृत (प्रकथजितना प्राचीन और कोई दूसरा दर्शन है। प्राचार्य कुन्द- नीय) बतलाया । बुद्ध ने जिन बातों को अव्याकृत कहकर कुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र, अकलक, विद्यानन्द, टाल दिया था, बाद में उनके अनुणयी दार्शनिकों ने माणिक्यनन्दि, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र प्रादि प्राचार्यों ने जैन- उन्हीं बातों पर ऊहापोह करके बौद्धदर्शन को प्रतिष्ठित दर्शन के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया है। इन प्राचार्यों किया । वसुबन्धु, नागार्जुन, दिग्नाग, धर्मकौति, प्रशाकर ने इतर दर्शनों के सिद्धान्तों का निराकरण करके अपने गुप्त प्रादि प्राचार्यों ने इतर दर्शनों के सिद्धान्तों का सिद्धान्तों का प्रमाण के बल पर व्यापकरूप से समर्थन निराकरण पूर्वक स्वसिद्धान्तों का व्यापक रूप से समर्थन किया है। भारतीय दर्शन के इतिहास में जैनदर्शन का किया है। बौद्धदर्शन संसार के दार्शनिक इतिहास में विशेष महत्वपूर्ण स्थान है। भिन्न भिन्न दार्शनिकों ने अपना विशेष स्थान रखता है। अपनी अपनी स्वाभाविक हचि, परिस्थिति या भावना से जैन-बौद्ध दर्शन में समानताजिस वस्तु तत्त्व को देखा, उसी को दर्शन के नाम से कहा जैन और बौद्ध दर्शन में कुछ बातों की अपेक्षा से किन्तु किसी भी तत्व के विषय में कोई भी तात्त्विक दृष्टि समानता है। तथा अन्य बातों की अपेक्षा से प्रसमानता ऐकान्तिक नहीं हो सकती है। सर्वथा भेदभाव या अभेद भी है। समानता सूचक बातें निम्न हैवाद, सर्वथा नित्यकान्त या क्षणिकैकान्त एकान्त दृष्टि है, १-दोनों ही दर्शन श्रमण संस्कृति के अनुयायी हैं। क्योंकि प्रत्येक तत्व अनेक धर्मात्मक है। कोई भी दृष्टि २-दोनों ही दर्शन वैदिक क्रिया-काण्ड के विरोधी उन अनेक धर्मों का एक साथ प्रतिपादन नहीं कर सकती हैं। बुद्ध और महावीर दोनों ही समकालीन थे और दोनों है। इस सिद्धान्त को जैनवर्शन ने अनेकान्त दर्शन के नाम से ही यज्ञों में विहित क्रिया-काण्डों का विरोध करके से कहा है । जैनदर्शन का मुख्य ध्येय अनेकान्त सिद्धान्त समाज को नैतिक पतन से बचाया था। के माधार पर विभिन्न मतों या विवादों का समन्वय ३-दोनों ही दर्शन अहिंसा के अनुयायी हैं। यद्यपि करना है । प्रत. भारतीय दर्शन के विकास को समझने के अन्य दर्शनों ने भी अहिंसा को माना है किन्तु बुद्ध और लिए जैनदर्शन का विशेष महत्त्व है। महावीर ने यश-विहित हिंसा का निषेध करके अहिंसा बौद्धवर्शन का प्रारम्भ और विकास को विशेषरूप से प्रतिष्ठित किया है। महावीर ने तो वैदिक दर्शन की परम्परा में परिस्थितिवश उत्पन्न प्राणीमात्र के प्रति हिंसा को त्याज्य बतला कर तथा होने वाली बुराइयों और त्रुटियों को दूर करने के लिए काम, क्रोध, लोभ प्रादि को भी हिंसा बतलाकर सूक्ष्मातिसुधारक के रूप में महात्मा बुद्ध के द्वारा बौडधर्म का सूक्ष्म अहिंसा का प्रतिपादन किया है। Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. अनेकान्त ४-दोनों ही दर्शन कर्म (कार्य) के अनुसार वर्ण- स्वर्ण के चूड़ा को तुड़वाकर जब हम उसका कुण्डल बनवा व्यवस्था को मानते हैं, न कि जन्म के अनुसार । वैदिक लेते हैं तो चूड़ा रूप पर्याय का नाश, कुण्डल रूप पर्याय दर्शन ने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों की उत्पत्ति और उन दोनों में स्वर्ण रूप द्रव्य की प्रविकी व्यवस्था को जन्म के द्वारा माना है किन्तु जैन-बौद्ध च्छिन्नता दृष्टिगोचर होती है। जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, दर्शन के अनुसार कोई जन्म लेने मात्र से ब्राह्मण या आकाश और काल के भेद से द्रव्य छह है और प्रत्येक क्षत्रिय नहीं कहला सकता है, किन्तु ब्राह्मण या क्षत्रिय के द्रव्य उत्पाद, व्यय पोर ध्रौव्य रूप है । मूल में जीव और कार्य करके ही वैसा बन सकता है। अजीब ये दो ही द्रव्य है। जीव भोर अजीव के सयोग ५-दोनों ही दर्शन सब मनुष्यों में समानता के और वियोग जन्य कुछ ऐसी पर्याय उत्पन्न होती हैं जिन्हें प्रतिपादक हैं। सब मनुष्य समान हैं, सब को अपना-अपना तत्व के नाम से कहा गया है। प्रतः जैन दर्शन मे तत्त्व ना करने का अधिकार है, कोई उच्च या नीच नहीं माने गये हैं-जीव, मजीव, पासव, बन्ध, सवर, तथा स्त्री और शद्र को भी ज्ञान प्राप्त करने का अधि- निर्जरा और मोक्ष । इन्हीं मे पुण्य और पाप को मिलाकर कार है। ६ पदार्थ कहे गये हैं। -दोनों ही दर्शन वेद को पौरुषेय मानते है। बौद्ध दर्शन में स्वलक्षण और सामान्य लक्षण के भेद मीमांसकों ने वेद को अपौरुषेय माना है। दोनो ही से दो तत्त्व मानकर भी यथार्थ में स्वलक्षण को ही दर्शनों के मीमांसकों की इस मान्यता का सप्रमाण खण्डन परमार्थ सत् माना गया है और सामान्य लक्षण को मिथ्या करके वेद को पौरुषेय सिद्ध किया है। माना गया है। वस्तु में दो प्रकार का तत्त्व देखा जाता ७-दोनों ही दर्शन ईश्वर को सृष्टि कर्ता नही है-असाधारण और साधारण । प्रत्येक मनुष्य अपनी मानते हैं। नैयायिक विशेषिक दर्शन की मान्यता है कि अपनी विशेषता को लिए हुए है यही असाधारण (स्त्रम विश्व की सष्टि एक ऐसे ईश्वर के द्वारा हुई है जो लक्षण) तत्त्व है। सब मनुष्यों मे मनुष्यत्व नामक एक नित्य व्यापक और सर्वज्ञ है। दोनों ही दर्शनो ने प्रबल माधारण धर्म की कल्पना की जाती है, अतः मनुष्यत्व प्रमाणों के आधार पर सृष्टि कर्तृत्व का खण्डन करके मनुष्यों का साधारण धर्म है। बौद्ध दर्शन के अनुसार सिद्ध किया है कि यह ससार अनादि परम्परा से इसी बस्तु का लक्षण प्रक्रियाकारित्व है। वस्तु वह है जो प्रकार चला पाया है और इसका रचयिता ईश्वर अर्थ क्रिया करे । धर्मकीति ने न्यायबिन्दु में कहा हैनही है। अर्थक्रियासामर्थ्यलक्षणत्वाद् वस्तुनः । ८-दोनों ही दर्शन शुभ और अशुभ कर्मों का फल मानते हैं तथा परलोक में विश्वास रखते है। घट की प्रक्रिया जलधारण है और पट की अर्थ क्रिया प्राच्छादन है। इस प्रकार प्रत्येक प्रथं की अपनी होनों दर्शनों में तत्त्व व्यवस्था अपनी अर्थ क्रिया होती है। यह अर्थ क्रिया स्वलक्षण मे जैन दर्शन मे द्रव्य या वस्तु का लक्षण सत् बतलाया ही बनती है, सामान्य लक्षण मे नही । घटत्व मे कभी भी गया है उत्पाद. व्यय तथा प्रोव्य से सहित वस्तु को सत् जलधारण रूप प्रर्थ क्रिया मंभव नही है, प्रतः सामान्य कहा गया है। जैसा कि उमास्वामी ने तत्त्वार्थ सत्र में कहा है जैन दर्शन में पदार्थ को सत् माना गया है तथा उस ___'सद् द्रव्यलक्षणम्'-५।२६ । 'उत्पाद व्ययधोव्ययुक्त सत् के विषय में कोई विवाद नहीं है। किन्तु बौद्ध दर्शन सत्'-५३० प्रत्येक पदार्थ त्रयात्मक है। एक पर्याय का में सत् की व्याख्या को लेकर बौद्ध दार्शनिकों के मख्य नाश होते ही दूसरी पर्याय उत्पन्न हो जाती है तथा उन रूप से चार भेद पाये जाते हैं जो इस प्रकार हैं-वैभा. दोनों पर्यायों मे एक तस्व अविच्छिन्न रूप से बना रहता षिक, सौत्रान्तिक, योगाचार तथा माध्यमिक । वैभाषिक यह बात मनभव में भी माती है। हम देखते हैं कि बाघार्थ की सत्ता मानते है तथा उसका प्रत्यक्ष भी मानते Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बग-बीडर्शन हैं । सौगान्तिक बाहार्य की सत्ता मानकर भी उसे प्रत्यक्ष पांच स्कन्धों के समुदाय का नाम ही प्रात्मा है। इनके न मानकर अनुमेय मानते हैं । योगाचार के अनुसार शान अतिरिक्त पात्मा की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रत्येक मात्र ही तत्व है और माध्यमिकों के अनुसार शून्य की पात्मा नाम रूपात्मक है। यहाँ रूप से सपाय शरीर ही प्रतिष्ठा है। इन चारों सिद्धान्तों का वर्णन निम्न के भौतिक भाग से है और नाम से तात्पर्य मानसिक श्लोक में सुन्दर रूप से किया गया है प्रवृत्तियों से है। वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये मुस्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत्, नाम के ही भेद हैं। इन पांच स्कन्धों की सन्तान (परयोगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः।। म्परा) बराबर चलती रहती है। प्रतः प्रात्मा के न होने मोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बदति सौत्रान्तिकः, पर भी जन्म, मरग और परलोक की व्यवस्था बन जाती प्रत्यक्ष भणभगुर , सकलं वैभाषिको भावते ॥ है। पात्मा को न मानने का कारण यह है कि पात्मा यहां यह ज्ञातव्य है कि अन्य दार्शनिकों ने 'शून्य' का सद्भाव ही सब प्रनों की जड़ है। पात्मा के सद शब्द का अर्थ अभाव किया है, किन्तु माध्यमिक दर्शन के भाव में ही हंकार का उदय होता है। प्रात्मा के होने प्राचार्यों के मौलिक ग्रन्थों के अनुशीलन से शून्य शब्द का पर 'स्व' और 'पर' का विभाग होता है। इससे 'स्व' के प्रभाव रूप अर्थ सिद्ध नहीं होता है। किसी पदार्थ के लिए राग और 'पर' के लिए देष उत्पन्न होता है । और स्वरूप निर्णय के लिए अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभव राग द्वेष के कारण अन्य समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। इन चार कोटियों का प्रयोग संभव है। परन्तु परमार्थ कहा भी हैतत्त्व का विवेचन इन चार कोटियों से नहीं किया जा पात्मनि सति परसंशा स्वपरविभागात परिग्रहो । सकता। प्रतः अनिर्वचनीय होने के कारण परमार्थ तस्व अनयोः सम्प्रतिबन्धात् सर्वे बोषाः प्रजायन्ते ।। को शुन्य शब्द से कहा गया है। इसी बात को नागार्जुन बोधिचर्यावतारपंजिका पृ० ४६२ ने माध्यमिक कारिका में निम्न प्रकार से बतलाया है प्रतः प्रात्मा समस्त दोषों की उत्पत्ति का कारण है। मसन् नासन् न सबसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तस्वं माध्यमिका विदुः।। इस प्रकार सब प्रनयों की जड़ होने के कारण बौड दर्शन में मात्मा का निषेध किया गया है। यात्म व्यवस्था जैन दर्शन प्रात्मा को चैतन्य मानकर अनादि और निवारण व्यवस्थाअनन्त मानता है। मात्मा का स्वभाव अनन्तदर्शन, मात्मा का स्वभाव अनन्तदर्शन. जैन दर्शन में संसार, संसार के कारण, मोक्ष पौर अनन्त ज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य है। संसार मोक्ष के कारणों को माना गया है। कर्मों का पालवीर अवस्था में कर्मों के द्वारा धावृत्त होने के कारण इन गुणों बन्ध संसार के कारण हैं, संवर और निर्जरा मोक्ष के का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। किन्तु कर्मों के नाश कारण हैं । बोट दर्शन में इन्हीं चार बातों को चार पायहोने पर ये गुण अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाते सत्य के नाम से कहा गया है। दुःख, समुदय, निरोध है। संसारी प्रात्मा कर्म के वश होकर मनुष्य गति, और मार्ग ये चार मार्यसत्य हैं। संसार दुःखरूप है। तिर्यञ्चगति, नरक गति और देव गति इन चार गतियों दुःख के कारण तृष्णा को समुदय कहते हैं । दुःखों के नाश मे भ्रमण करता रहता है और काललब्धि पाने पर क्रमशः का नाम निरोष या निर्वाण हैं। और निरोष के उपाय कर्मों का नाश करके वह भगवान् भी बन सकता है। का नाम मार्ग है । इस प्रकार दोनों दर्शनों में निर्वाण को मात्मा के विषय में बौद्ध दर्शन की मान्यता जैन माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार कर्मों का नाश होने दर्शन से बिलकुल विपरीत है । बौद्ध दर्शन ने चित्त (ज्ञान) परमात्मा की शुद्ध अवस्था का नाम निर्वाण या मोक्ष को तो माना है किन्तु एक स्वतन्त्र पालद्रव्य को नहीं है। मोक्ष में प्रात्मा मनन्त काल तक अनन्तज्ञान, दर्शन, माना है। रूप, वेदना, संशा, संस्कार और विज्ञान इन सुख तथा वीर्य सम्पन्न रहता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्माण के स्वरूप में बड़ा विवाद है। हीनयान के अनुसार ही प्रहित की संभावना है। अतः प्रत्येक विषय में दो निर्माण में क्लेशावरण काही प्रभाव होता है, किन्तु अन्तों को छोड़कर मध्यम मार्ग पर चलना चाहिए। महायान के अनुसार निर्वाण में ज्ञेयावरण का भी प्रभाव हो जाता है। एक दुःखाभावरूप है तो दूसरा मानन्दरूप। १ सर्वज्ञ व्यवस्थाभदन्त. नागसेन की सम्मति में निर्वाण के बाद व्यक्तित्व जैन दर्शन के अनुसार ज्ञानावरण, दर्शनावरग, का सर्वथा लोप हो जाता है। निर्वाण का अर्थ है बुझ मोहनीय प्रोर अन्तराय इन चार घातिया कमों का नाश जाना। जब तक दीपक जलता रहता है तभी तक उसकी हो जाने पर एक ऐसा ज्ञान उत्पन्न होता है जो समस्त सत्ता है और दीपक के बुझ जाने पर उसकी सत्ता ही द्रव्यों की त्रिकालवर्ती समस्त पर्यायों को एक साथ हस्तासमाप्त हो जाती है। पञ्च स्कन्ध की सन्तान रूप प्रात्मा मलकवत् जानता है। इसे केवलजान कहते हैं । प्रतः चार का भी निर्वाण दीपक की तरह ही है। महाकवि प्रश्वघोष घातिया कर्मों के प्रभावमें भात्मा सर्वज्ञ हो जाता है। सर्वज्ञ का कहना है की सिद्धि युक्ति के द्वारा भी की जाती है । सूक्ष्म (परमाणु दीपो यथा नितिमभ्युपेतो पादि) अन्तरित (राम, रावणादि) और दूरवर्ती (सुमेरु नेवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । आदि) पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योकि ये अनुमेय है, विशं न काचिद् विविशंन कानि जो अनुमेय होता है। वह किसी के प्रत्यक्ष भी होता है। स्नेहलयात केवलमेति शान्तिम् ॥ जैसे पर्वत में अग्नि । इस प्रकार अनुमान से सर्वज्ञ की तथा तो नितिमभ्युपेतो सिद्धि की गई है। सर्व साधक अनुमान निम्न प्रकार हैनंबानि गच्छति नान्तरिक्षम् । विशं न काचिद् विविशंकाविद सूक्ष्मान्तरित दूराःप्रत्यक्षाः कस्यचिद् यथा। क्लेशवयात् केवलमेति शान्तिम् ।। अनुमेयरवतोजन्याविरिति सर्वज्ञ . संस्थितिः॥ -सौन्दरनन्द १६।२८, २९ -प्राप्तमीमांसा कारिका ५ निर्वाण का मार्ग बौद्ध दर्शन के अनुसार ऐसा कोई सर्वज्ञ नहीं है जो जैन दर्शन में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और मम्यक् सब पदार्थों को एक साथ जानता हो। बुद्ध को समस्त चारित्र को मोक्ष का मार्ग बतलाया गया है, जैसा कि पदार्थों का ज्ञाता न मानकर हेय और उपादेय तत्वों का तत्त्वार्थसूत्र में कहा है ज्ञाता होने से ही प्रमाण माना गया है। स्व-पर कल्याण सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥ के लिए जो प्रावश्यक बातें हैं उनका ज्ञान होना चाहिए, सम्यग्दर्शनादि तीनों एक साथ मिलकर मोक्ष के मार्ग सारे कीड़े मकोड़ों को जानने से क्या लाभ है। कोई दूर हैं, न कि पृथक-पृथक । बौद्ध दर्शन में अष्टांग मार्ग या की बात जाने या न जाने किन्तु इष्ट तत्त्व को जानना मध्यम मार्ग को निर्वाण का मार्ग कहा गया है। सम्यक मावश्यक है। यदि दूरदर्शी को प्रमाण माना जाय तो दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाचा, सम्यक् कुर्यान्त, फिर गृद्धा का भा उपासना करनी चाहिए। इसी विषय सम्यक् माजीविका' सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मति और में धर्मकीति ने प्रमाणवार्तिक में कहा हैसम्यक समाधि ये मार्ग के पाठ भंग हैं। इसके माठ अंग हेयोपादेयतस्वस्य साभ्युपायस्य वेबकः । होने से इसका नाम पष्टांग मार्ग है। इसे मध्यम मार्ग यः प्रमाणमसाविष्टोन तु सर्वस्य बेवकः॥ १ भी कहते हैं। क्योंकि बुद्ध ने प्रत्येक बात में दो अन्तों को तस्मादनष्ठेयगतं मानमस्य विचार्यताम् । छोड़ने का उपदेश दिया था। जैसे अत्यधिक भोजन करना कोटसंख्यापरिक्षानं तस्य नः बनोपयुज्यते ॥ १।३२ और बिलकुल भोजन न करना ये भोजन के विषय में दो दूरं पश्यतु बामा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । अन्त (छोर) है। इन्हें छोड़ना चाहिए, क्योंकि दोनों से प्रमाणं रबी देत गृध्रानुपास्महे ।। १।३३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ तीर्थकरपरकी प्राप्ति के कारण करना 'कल्पना' है प्रत्यक्ष इस कल्पना से रहित अर्थात् जैन दर्शन में दर्शनविशुद्धि प्रादि सोलह भावनामों निर्विकल्पक होता है। इन्द्रिय प्रत्यक्ष, मानस प्रत्यक्ष, को तीर्थंकर प्रकृति के बन्ध का कारण बतलाया गया है। स्वसंवेदन प्रत्यक्ष और योगिप्रत्यक्ष के भेदसे प्रत्यक्ष के बौद्ध दर्शन में दान, शील, प्रज्ञा, वीर्य, शान्ति और चार भेद हैं। प्रत्यक्ष का विषय स्वलक्षण है और अनु. समाधि इन छह पारमिताओं को बुद्धत्व प्राप्ति का कारण मान का विषय सामान्य लक्षण है। बौद्ध प्रत्यक्ष पौर माना गया है। बुद्ध ने अपने पूर्व जन्मों में इन पारमितानों अनुमान ये दो ही प्रमाण मानते हैं। का प्रयास करके बुद्धत्व को प्राप्त किया था। पारमिता प्रन्यापोहबाद का अर्थ है-पूर्णता। दान की पूर्णता दान पारमिता जैन दर्शन प्राप्त के वचन प्रादि से उत्पन्न होने कहलाती है। इस प्रकार छह परिमितामों की पूर्णता होने वाले ज्ञान को मागम प्रमाण मानता है और अर्थ को शब्द पर बुद्धत्व की प्राप्ति होती है। का वाच्य स्वीकार करता है। किन्तु बौड शब्द और प्रमाणवाद पर्थ मे सर्प और नकुल जैसा वर मानते हैं। उनका जैन दर्शन में अपने और अपूर्ण (नवीन) पदार्थ के कहना है कि शब्द और अर्थ में किसी प्रकार का सम्बन्ध निश्चयात्मक ज्ञान को प्रमाण माना गया है। माणिक्य- न रहने के कारण शब्द प्रर्थ का प्रतिपादन न करके मन्दि ने परीक्षामुख में कहा है अन्यापोह अर्थात् अन्य के निषेध को कहता है । इस प्रकार स्वापूर्षिग्यवसायात्मकंशानं प्रमाणम् ॥ ११ बौद्धदर्शन के अनुसार शब्द का वाच्य अर्थ न होकर बौद्धदर्शन में प्रविसंवादी तथा प्रज्ञात अर्थ को अन्यावोह होता है। जानने वाले ज्ञान का नाम प्रमाण है। धर्मकीर्ति ने नित्यानित्यवाद प्रमाणवार्तिक मे कहा है जैनदर्शन पदार्थ को न तो सर्वथा नित्य मानता है प्रमाणमविसंवादिज्ञानमहातार्य प्रकाशो वा। और न सर्वथा अनित्य । किन्तु कचित् नित्य और कथं जैन दर्शन में प्रमाण के प्रत्यक्ष और परोक्ष के भेद से चित प्रनित्य मानता है। द्रव्यापिकनय की अपेक्षा से दो भेद करके पुनः सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष तथा मुख्य प्रत्यक्ष पदार्थ नित्य है और पर्यायाधिकनय की अपेक्षा से प्रनित्य के भेद से प्रत्यक्ष के दो भेद तथा स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, है। इस मान्यता के विपरीत बौद्धदर्शन की मान्यता है अनुमान प्रौर मागम के भेद से परोक्ष के पांच भेद किए कि पदार्थ सर्वथा क्षशिक है । प्रत्येक पदार्थ क्षण-क्षण में गए हैं। विशद ज्ञान को प्रत्यक्ष और अविशद ज्ञान को स्वतः विनष्ट होता रहता है। पदार्थ स्वभाव से ही परोक्ष माना गया है। जैन दर्शन में वास्तविक प्रत्यक्ष उसे विनाशशील है । 'सर्वक्षणिक सत्वात् स अनुमान से सब ही माना गया है जो इन्द्रिय प्रादि की सहायता के बिना पदार्थों में क्षणिकत्व की सिद्धि की जाती है। बोडों की केवल आत्मा से ही उत्पन्न होता है। प्रतः प्रवधिज्ञान, मान्यता है नित्य पदार्थ में न तो युगपत् पर्थक्रिया बन मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान को ही मुख्य प्रत्यक्ष माना सकती है भोर न क्रम से । प्रतः क्षणिक पदार्थ में ही है। पाँच इन्द्रियों से उत्पन्न और मनोजन्य ज्ञान को प्रक्रियाकारित्वरूप सत् की व्यवस्था होती है। सत् लोकव्यवहार की अपेक्षा से ही प्रत्यक्ष कहा गया है। होने से ही सब पदार्थ क्षणिक हैं । इस प्रकार बौखदर्शन प्रत्येक पदार्थ सामान्य और विशेषरूप है और ऐसा ही में सर्वथा क्षणिकवाद को माना गया है। पदार्थ प्रमाण का विषय होता है। ध्यानयोग बौदर्शन के अनुसार कल्पना से रहित और मभ्रान्त जनदर्शन में प्रात, रौद्र, धर्म मौर शुक्ल के भेद से ज्ञान का नाम प्रत्यक्ष है। धर्मकीति ने न्यायविन्दु में चार ध्यान बतलाए गए हैं और इनमें से प्रत्येक के चारकहा है चार भेद किए गए हैं। बौद्धदर्शन में भी चार प्रकार के कल्पनापोडमत्रान्तं प्रत्यक्षम् । ध्यामों का वर्णन उपलब्ध होता है। दीर्घनिकाय के वस्तु में नाम, जाति, गुण, क्रिया पादि की योजना अनेक सूत्रों में चारों ध्यानों के स्वरूप का विवेचन किया Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया है, जो निम्न प्रकार है दर्शन भी स्याद्वाद सिमान्त को अपनालें तो फिर उनमें प्रथम ध्यान में वितर्क, विचार. प्रीति, सुख तथा कोई विरोध शेष नहीं रहेगा और प्रापेक्षिक दष्टि से उन एकाग्रता इन पांच चित्तवृत्तियों की प्रधानता रहती है। सबका कथन सत्य सिद्ध हो जायेगा। जनदर्शन ने वस्तु द्वितीय ध्यान में वितर्क और विचार का प्रभाव हो जाता मे अनेक धर्मों को मानकर स्यावाद के द्वारा उनका है। तृतीय ध्यान में प्रीति का भी प्रभाव हो जाता है प्रतिपादन किया है। वस्तु के उन अनेक धर्मों का प्रापेऔर चतुर्थ ध्यान में सुख का भी प्रभाव हो जाने पर क्षिक दृष्टि से कथन करने की शैली का नाम स्याद्वाद है। केवल एकाग्रता शेष रह जाती है । इस प्रकार साधक स्याद्वाद न तो संशयवाद है और न अनिश्चयवाद । स्थूलता तथा बहिरंगता से प्रारम्भ कर सूक्ष्मता तथा किन्तु अपेक्षावाद है। यहाँ 'स्यात्' शब्द एक निश्चित मन्तरंगता में प्रवेश करता है। ध्यान के विषय में चित्त अपेक्षा को बतलाता है। जब हम कहते हैं कि वस्तु स्यात् का प्रथम प्रवेश वितर्क कहलाता है तथा इस विषय में सत् है, और स्यात् असत्, तो यहाँ प्रथम 'स्यात्' का अर्थ चित्त का अनुमज्जन करना विचार है । इससे चित्त में जो है-स्वद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से, तथा मानन्द उत्पन्न होता है वह प्रीति है। इसके अनन्तर दूसरे 'स्यात् का अर्थ है-परद्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव शरीर में जो शान्ति या स्थिरता का भाव उत्पन्न होता है की अपेक्षा से । कोई भी वस्तू स्वद्रव्यादि चतुष्टय की वह सुख है। प्रीति मानसिक मानन्द है और सुख शारी- अपेक्षा से सत् है और वही वस्तु परद्रव्यादि चतुष्टय की रिक स्थिरता। विषय में चित्त का पूर्णरूप से समाहित अपेक्षा से प्रसत् है । यही स्पाद्वाद है। स्यावाद के द्वारा हो जाना एकाग्रता है। विवक्षित किसी एक धर्म का प्रतिपादन मुख्यरूप से होता प्रतीत्यसमुत्पाद है तथा अन्य समस्त धर्मों का प्रतिपादन गौणरूप से । प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्धदर्शन का एक विशिष्ट सिद्धान्त इस प्रकार स्यावाद के द्वारा हम विचार के क्षेत्र में होने है। इसका अर्थ है-सापेक्षकारणतावाद । अर्थात् किसी वाले समस्त विरोधों और संघर्षों को दूर कर सकते है तथा वस्तु के सद्भाव में अन्य वस्तु की उत्पत्ति । समस्त दर्शनों में मामजस्य स्थापिनकर सकते हैं अनेकान्त "प्रस्मिन् सति इदं भवति । अस्योत्पादादयमुत्पद्यते। और स्याद्वाद जैनदर्शनकी महत्त्वपूर्ण देन तथा प्राण है। इति इदं प्रतीत्यसमुत्पादार्थः ।" घट की उत्पत्ति मिट्टी, इस प्रकार यहाँ जैन-बौद्धदर्शन के कुछ प्रमुख विषयों कंभकार, दण्ड, चक प्रादि से होती है। मिट्टी घट का पर सक्षेप में प्रकाश डाला गया है। जिज्ञासूमो को दोनों हेत है और कंभकार, दण्ड, चक्र प्रादि प्रत्यय है । अतः दर्शनों के सिद्धान्तों को विस्तार से जानने के लिए उनके हेतु और प्रत्यय की अपेक्षा से होने वालो पदार्थ की मौलिक ग्रथों का अध्ययन करना चाहिए । प्रत्येक व्यक्ति उत्पत्ति को प्रतीत्य समुत्पाद कहते हैं। अविद्या, संस्कार, को अपने ही दर्शन का अध्ययन नही करना चाहिए, किन्त विज्ञान, नामरूप, पडायतन, स्पर्श, वेदना, तृष्णा, उपा- यथासभव और यथाशक्ति इतर दर्शन के प्रथो का भी दान, भव, जाति और जरामरण से प्रतीत्यसमुत्पाद के अध्ययन करना चाहिए। ऐमा करने से ही हम वास्तविक १२ अंग हैं। इन अगों की संज्ञा निदान भी है । इसे भव. ज्ञानको प्राप्त कर सकते है । हमे युक्तिवादी होना चाहिए। चक्र भी कहते हैं। बुद्ध और महावीर पूर्णत: युक्तिवादी थे । उनका अनेकान्त और स्याहाद कहना था कि जिस प्रकार जौहरी भाग मे तपाकर, काटअनेकान्त सिद्धान्त जैनदर्शन का एक विशिष्ट सिद्धांत कर और कसौटी पर कसने के बाद स्वर्ण को ग्रहण करता है, जिसे अन्य किसी दर्शन ने नहीं माना है, किन्तु जिसका है, उसी प्रकार हे भिक्षुमो ! अच्छी तरह से परीक्षा करने मानना प्रावश्यक ही नहीं, अनिवार्य है । दूसरे दर्शनों ने के बाद ही हमारे वचनों को ग्रहण करना, न कि इसलिए अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक एक धर्म को लेकर उसका कि ये बुद्ध या महावीर के वचन हैप्रतिपादन किया है और जैनदर्शन ने स्याद्वाद के द्वारा तापाच्छंदाच्व निकषात् सुवर्णमिव पण्डितः । उन भनेक दृष्टियों का समन्वय किया है। यदि अन्य परोक्ष्य भिक्षवोप्राचं मदचो न तु गौरवात् ॥ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्याद्वाद का व्यावहारिक जीवन में उपयोग पं० चैनसुखदास न्यायतीर्थ स्यात् का अर्थ है कथचित् अर्थात् अपेक्षा और बाद उसका एक छोटा बच्चा भी था बातचीत के सिलसिले में का अर्थ है सिद्धान्त । तब स्याद्वाद का अर्थ हुमा अपेक्षा मैंने उससे पूछाकि क्या तुम्हारे पिता के सबसे बड़े पुत्र तुम का सिद्धान्त । इसी के दूसरे नाम अनेकान्तवाद, सापेक्ष- ही हो तो उसने उत्तर दिया कि मैं अपने पिता की एकदष्टि एवं सापेक्षवाद हैं । इस बाद का जनों के दार्शनिक मात्र मंतान हूँ इसलिए छोटे बडे का प्रश्न पैदा नहीं ग्रंथों में विशद रूप से विवेचन किया गया है तथा नित्य होता । छोटेपन या बड़ेपन की अभिव्यक्ति का प्राधार अनित्य, एक अनेक सत्. असत् और भिन्न अभिन्न आदि तो अपेक्षा है। युवक का कहना वस्तुत: युक्ति संगत परस्पर विरोधी दिखने वाले-जो वस्तुतः विरोधी नहीं था। और सही बात तो यह है कि उम युवक का पुत्रत्व है-स्वरूपो को समझाया है और सभी दर्शनों के सम- भी सापेक्ष था। क्योकि वह अपने पिता की अपेक्षा तो न्वय की उचित दिशा दिखलाई गई है। किन्तु दु.ख की पुत्र था । पर उसी के पास जो उसका छोटा बच्चा बैठा बात यही है कि इस विश्वोपयोगी सिद्धान्त को केवल था उसकी अपेक्षा वह पिता भी था। वह युवक बोला शास्त्रों की चीज बना दिया गया जबकि यह जीवन इस तरह तो मैं अकेला ही मामा-भानजा, काका-भतीजा व्यवहार का सिद्धान्त है। यदि हमे अपने जीवन में स्था- पोर न मालूम मैं क्या क्या हूँ। मेरा छात्र बोला तब तो द्वाद से प्रेरणा मिले तो न केवल हम मन्चे तत्त्वज्ञानी मेरा शिष्यत्व और पापका गुरुत्व भी मापेक्ष हैं मैंने कहा बन सकते है अपितु अपने को स्व एव पर के लिए उप- इममे शक ही क्या है। योगी भी बना सकते हैं। सारा जगत सापेक्ष है। अपेक्षावाद क्या है। बात यह है कि यह सारा विश्व सापेक्ष है। जगत मैं अपने एक छात्र को अपेक्षावाद का स्वरूप समझा का कोई व्यवहार कोई स्थिति और कोई स्वरूप रेसा रहा था। मैंने उसके सामने पड़ी स्लेट पर एक रेखा नही है। जिसे सर्वथा निरपेक्ष कहा जा सके। नीगखैची और उसको पूछाकि यह रेखा छोटी है या बडी? ऊँवा, लम्बा-ठिगना, भला-बुरा, विद्वान्-मूर्ख-दुखी-सूखी I रेखा कोन कोटी का शासक-शासित, धनी-निर्धन, सबल-निबल, काला-गौराजा सकता है और न बड़ी। उसका कहना ठीक था, हल्का-भारा आदि मभा सापक्ष है। सज्जन-दुर्जन, अन्धक्योकि छोटापन या बडापन मापेक्षिक धर्म है और एक कार-प्रकाश, काच, हीरा एव मुक्त और बद्ध मादि सभी पदार्थ में अपेक्षा नहीं हो सकती। मैंने उस रेखा के पास सापवाद का सामा म प्राय बिना नहीं रहते। य एक छोटी रेखा और खैच दी और पछा कि प्रश्न का मनुष्य इस सापेक्षता से परिचित न हो उसका ज्ञान ही उत्तर प्रब दो, उसने तत्काल कहा कि पहले वाली रेखा गलत न होगा अपितु छोटी-छोटी बानों को लेकर वह बड़ी है, किन्तु मैंने उसके पास उससे भी एक बड़ी रेखा झगडता भी रहेगा। और खैच दी और पूछाकि अब बोलो तो छात्र ने कहा बात पुरानी है । योरुप के किमी नगर के बीच में कि इसकी अपेक्षा पहले बैंची गई रेखा छोटी है। एर मूर्ति स्थापित की । उसका एक मोर मोने का दूसरा ____ इतने में ही बाहर से एक युवक पाया और बैठ गया, और चांदी का था। दोनों ओर से एक माथ ही दो योडा उसने अपने आने का प्रयोजन बतलाया। उसके साथ माये। जो घोड़े पर सवार थे। एक ने कहा महा ! यह Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सोने की मूर्ति कितनी सुन्दर है। किन्तु दूसरी मोर के दिन की देरी हो जाने से उसे RE रुपये क्विन्टल के भाव घुड़सवार ने उसे चांदी की बताकर उसका विरोध किया से गेह मिले जबकि १० दिन पहले उसका मित्र ८० रुपये किन्तु इस विरोष को वह न सह सका। और मूर्ति को क्विन्टल के भाव से अच्छा गेहें लाया। इसका उसे बहुत सोने की बताता रहा, दोनों में बात बढी और वे अपने- दुःख था। किन्तु इतने में ही एक सज्जन पाये और बोले अपने घोड़े से उतर कर हाथापाई करने लगे। इतने में ही कि मैं ६६ रुपये क्विन्टल गेहूँ लाया हूँ । इस बात को सुन एक समझदार आदमी उधर से निकला और उनकी लड़ाई कर ८६ रुपये क्विन्टल वाले भाई को कुछ संतोष हुमा । का कारण जानकर मूर्ति को सोने की बतलाने वाले को उसके संतोष का कारण उसका सापेक्ष ज्ञान था। सच मूर्ति के चांदी वाले हिस्से की और ले गया और चांदी कहा जाय तो यह सारा जगत पारस्परिक अपेक्षाप्रों से की बतलाने वाले को सोने के हिस्से की ओर खडा कर व्याप्त है। पोर उन्हीं से प्रेरित भी है। दिया। दोनो ही घुड़सवारों ने अपने एक पक्षीय ज्ञान का प्रलवर्ट प्राईन्स्टीन का सापेक्षवाद अनुभव किया। अपनी मूर्खता पर तुम्हें अत्यन्त ग्लानि जब हम अलबर्ट आईन्स्टीन के सापेक्षवाद का अध्यहुई । और वे लज्जित होकर वहां से चले गये। यन करते है तो हम उसे जैनों के स्याद्वाद से भिन्न नही ___मनुष्य की अब तक की सारी विपत्तियों का कारण पाते एक बार पाईन्स्टीन से उनकी पत्नी ने "मैं सापेक्षउसके मन का आग्रह है। जगत के प्राज तक के सभी वाद क्या है" कैसे बतलाऊँ, तो उन्होंने अपनी पत्नी को महायुद्ध और घर गृहस्थी की छोटी-बड़ी लड़ाइये एवं कहा कि “जब एक मनुष्य एक सुन्दर लड़की से बात कर सभी प्रकार के राजनीतिक-माथिक-मादि संघर्षों का हेतू रहा हो तो उसे एक घटा एक मिनट जैसा लगता है और एक दूसरे की पारस्परिक अपेक्षा को नहीं समझना ही है। उसे ही एक गर्म चूल्हे पर बैठा दिया जाय तो एक मिनट को न समतोमड पर चलता मा टेनमे एक घंटे बराबर लगने लगेगा। अपेक्षावाद को समझने बैठा हुप्रा और धर्मशाला, सराय आदि मे ठहरा हा की यह एक मिसाल है। चाहे गणित की दृष्टि से पाईमनुष्य भी लड़ पड़ेगा । और खून खच्चर का कारण बन न्स्टीन का सापेक्षवाद कितना ही दूरूह क्यों न हो व्यावजायेगा। ऐसा मनुष्य स्वयं अपनी भी हानि करता है। हारिक दृष्टि से वह सरलता से समझ में प्रा सकता है। पौर दूसरों की भी। पदार्थों में अनन्त अपेक्षाएं विद्यमान रहती हैं और उनकी आधुनिक विश्व की सभी राजनीतिक-आर्थिक एवं अभिव्यक्ति तब होती है जब दूसरा पदार्थ उपस्थित होता सामाजिक कही जाने वाली समस्याएं हल हो सकती हैं है। यह अभिव्यक्ति सामायिक होती है। यदि उनके समाधान के लिए सापेक्ष दृष्टि का उपयोग पर पदार्थ अनंत धर्मात्मक है। किया जाय । किन्तु मनुष्य के मन मे जो चिरकालिक पदार्थ अनंत धात्मक है। यही कारण है कि हम कभी पशुता (हिमा) खेल रही है। उसके कारण वह स्याहाद उसे हैं" कहते है और कभी उससे "नहीं है" कहते हैं। का महत्व नहीं समझता और छोटी से छोटी बात के लिए कभी "मोर नहीं हैं" कहते है और कभी प्रवक्तव्य कहते विग्रह पैदा कर देता है। हैं, इसलिए एक हिन्दी कवि कहता है कि "कोई कहे दुःखों का कारण स्याद्वावकी अनभिज्ञता कुछ है नहीं, कोई कहे कुछ है। है और ना के बीच में, मनुष्य के सारे दुःखों का कारण स्याद्वाद को नहीं जो कुछ है सो है।" समझना है। यह एकनिविवाद तथ्य है कि उसके अधि- पदार्थ के अनन्त धर्म ही उसकी अनन्त अपेक्षामों के कांश दुःख कल्पना पर आधारित है और उन प्रसत् कारण हैं । समझ में नहीं माता कि जब पदार्थ की यह कल्पनामों का कारण स्याद्वाद की अनभिज्ञता है । उस स्थिति है तब मनुष्य लड़ता क्यों है । वह अपने दृष्टिकोण दिन एक मादमी ने अपने मित्र को कहा कि दो चार को विशाल और उदार क्यों नहीं बताता! क्यों वह Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन-र्शन और देवान्त . छोटी-छोटी बातों को लेकर लड़ता झगड़ता है। स्यावाद पर प्रश्न यह है कि क्या स्वयं जैन भी-जिन्हें यह की व्यावहारिक उपयोगिता तो यही है कि मनुष्य अपनी धरोहर के रूप में प्राप्त हुमा है-इस सिद्धान्त का ठीक प्रमडिष्णता को दूर करे और सारे धर्मों के समन्वय की उपयोग करते हैं? दिगम्बर श्वेताम्बर लड़ते हैं, दिगम्बर दष्टि से देखें पर यहाँ तो उल्टी गंगा बह रही है कि स्वयं दिगम्बर लड़ते हैं और श्वेताम्बर श्वेताम्बर लड़ते हैं। जैन ही इसका व्यावहारिक उपयोग नहीं करते है और यदि हम वास्तव में इसका संघर्षों को चिकित्सा के रूप आपस में लड़ते हैं। उन्हें कोर्ट में लड़ते हुए देखकर कभी- में उपयोग नहीं कर सकते तो इसकी सारी शास्त्रीय कभी न्यायाधीश भी कह देते हैं कि स्याद्वाद का उपयोग व्याख्याएं बेकार हैं। इसकी सप्तभङ्गी न्याय, सकला देश करो लड़ो मत । और विकला देश मादि विशेषताओं को जानने का प्रयोजन भी यही है कि सचाई को जहाँ से भी पकड़ सकें पकड़लें। संसार का गुरु उसके लिए झगड़े नहीं करें। स्याद्वाद को अपने जीवन में अंण विणा लोगस्सवि ववहारो सम्बहान णिब्बई। उतारे बिना हम अहिंसा के द्वारा कभी अपने को सुसंस्कृत तस्स भुवणेक गुरुणो णमो प्रणंतवायरस ॥११॥ नहीं बना सकते । यह सिद्धान्त जैनागम का जीव अश्वा इस गाथा में स्थाढाद को संसार का गुरु बतलाकर बीज है। यह एक विचार पद्धति है और इस पद्धति को उसे प्रणाम किया गया है और बतलाया है कि इसके सभी दार्शनिकों ने किसी न किसी रूप में अवश्य अपनाया बिना जगत का कोई भी व्यवहार नही चल सकता । किन्तु है भले ही उन्होंने इसका भपने ग्रंथों में नाम नही दिया सच बात तो यह है कि स्थाबाद केवल प्रणाम करने की हो। इसलिए यह वाद संसार का गुरु है इसमें कभी वो चीज नहीं है अपितु जीवन में उतारने का सिद्धान्त है, मत नही हो सकते।* जैन-दर्शन और वेदान्त मुनि श्री नथमल दर्शन मनुष्य का दिव्य चक्षु है। मनुष्य अपने चर्म- धर्म-गति सहायक द्रव्य । चक्षु से नही देख सकता, वह दर्शन-चक्षु से देख सकता अधर्म-स्थिति सहायक द्रव्य । है । सत्य जितना विराट् है उतना ही प्रावृत है। अनेक माकाश-अवगाहदायक द्रव्य । दर्शनों ने समय-समय पर उसे निरावृत करने का प्रयत्न काल-परिवर्तन हेतु द्रव्य । किया है। उन्होंने जो देखा वह दर्शन बन गया। अनेक पुद्गल-स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णात्मक द्रव्य । द्रष्टा हुए हैं इसलिए अनेक दर्शन हैं। उनमें से दो दर्शन जीव-चेतनात्मक द्रव्य। ये हैं. जैन और बेदान्त । जैन तवादी हैं और वेदान्त १. इनमें जीव चेतन है, शेष पाँच प्रचेतन है। अद्वैतवादी हैं। २. पृद्गल मूर्त है, शेष पांच प्रमूर्त हैं। जैन-वर्शन और विश्व ३. धर्म, अधर्म और प्राकाश व्यक्तिशः एक है, शेष जैन-दर्शन के अनुसार यह विश्व छ: द्रव्यों का समु- तीन व्यक्तिशः अनन्त हैं। दाय है। धर्म, अधर्म, प्राकाश, काल, पुद्गल और जीव- ४. धर्म, अधर्म और पाकाश व्यापक है, जीव भोर ये छह द्रव्य है। पुद्गल प्रध्यापक। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जीव दो प्रकार के होते हैं-(१) बद्ध (२) मुक्त। अनन्त हैं। जीव मोर पुदाल में विजातीय परिवर्तन बर-जीव अपने देह के परिमाण में व्याप्त रहता है। होते हैं-वे एक अवस्था को छोड़कर दूसरी अवस्था में मुक्त-जीव जिस देह को छोड़कर मुक्त होता है, उसके चले जाते हैं, इसलिए वे सादि-सान्त भी है। यह जीव एक तिहाई १२३ प्राकाश में व्याप्त रहता है। और पुद्गल का विजातीय परिवर्तन ही सृष्टि है वह पुद्गल दो प्रकार के होते हैं-१. परमाणु व २. सादि-सान्त हैं। स्कन्ध-परमाणु समुदाय । परमाणु पाकाश के एक साधना-पथ प्रदेश (अविभाज्य-अवयव) में व्याप्त रहता है। ___ काल, पुरुषार्थ आदि समवायों का परिपाक होने पर स्कन्ध अनेक प्रकार के होते हैं। जैसे जीव में प्रात्मस्वरूप को उपलब्ध करने की जिज्ञासा दि-प्रदेशी-दो परमाणुषों का स्कन्ध । उत्पन्न होती है। उसकी पूर्ति के लिए वह प्रयत्न करता त्रि-प्रदेशी-तीन परमाणनों का स्कन्ध । है और क्रमशः विजातीय परिवर्तन के हेतुओं (पुण्य, पाप इस प्रकार संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशी और पाश्रव) का निरोध (संवर) व क्षय (निर्जरा) कर स्कन्ध होते हैं । ये स्कन्ध प्राकाश के एक प्रदेश से लेकर मुक्त हो जाता है-पात्मस्थ हो जाता है। मोक्ष के असंख्यात प्रदेशो तक व्याप्त होते हैं । अनन्त प्रदेशी स्कन्ध साधन तीन हैंअसंख्य प्रदेशों में व्याप्त हो जाता है। १. सम्यक्-दर्शन। जितने प्रदेशों का स्कन्ध होता है वह उतने ही २. सम्यग-ज्ञान । माकाश प्रदेशो में व्याप्त हो जाता है और सूक्ष्म परिणति ३. सम्यग चारित्र । होने पर वह एक प्राकाश-प्रदेश में भी व्याप्त हो जाता कोग ज्ञान श्रेयस् की एकांगी पागवना है। कोरा शील भी वैसा ही है। ज्ञान और शील दोनो नही, वह काल मव्यापक और व्यापक दोनो है। उसके दो। श्रेयस् की विराधना है, पाराधना है ही नही । ज्ञान मौर प्रकार हैं-१ व्यावहारिक-सूर्य चन्द्र, आदि की क्रिया शील दोनों की संगति ही श्रेयेस की सर्वाङ्गीण भाराधना से नापा जाने वाला । २. नैश्चयिक-परिवर्तन का हेतु । व्यावहारिक काल सिर्फ मनुष्य-लोक में होता है। प्रमाण-नयवाद नैश्चयिककाल लोक और प्रलोक दोनों में होता है। विश्व और सष्टि की प्रक्रिया जानने के लिए जैन ५. धर्म, अधर्म, प्राकाश, पुद्गल और जीव में प्रदेशों प्राचार्यों ने भनेकात दृष्टि की स्थापना की। उनका (अवयवों) का विस्तार है, इसलिए वे मस्तिकाय हैं, अभिमत था कि द्रव्य अनन्त-धर्मात्मक है। उसे एकान्त श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार काल के अवयव नहीं है, दृष्टि से नही जाना जा सकता। उसे जानने के लिए वह प्रौपचारिक या द्रव्य का पर्याय मात्र है। इसलिए वह अनन्त दृष्टियाँ चाहिए। उन सब दृष्टियो के सकल रूप अस्तिकाय नहीं हैं-विस्तार वाला नहीं है। को प्रमाण और विकल रूप को नय कहा जाता है। दिगम्बर परम्परा के अनुसार काल अणुरूप है, इस प्रमाण दो हैंलिए वह विस्तार शून्य है। १. प्रत्यक्ष-प्रात्मा को द्रव्य का किसी माध्यम के ६. धर्म, अधर्म और आकाश गतिशून्य हैं, जीव और बिना सीधा ज्ञान होना। पुद्गल गतिमान् । २. परोक्ष-मात्मा को द्रव्य का इन्द्रिय आदि के ७. धर्म, अधर्म और माकाश मे केवल सजातीय माध्यम से ज्ञान होना। परिवर्तन होता है। जीव और पुद्गल में सजातीय और नय सात हैंविजातीय दोनों परिवर्तन होते हैं। १. नैगम-सकल्प या कल्पना की अपेक्षा होनेवाला विश्व मनादि अनन्त है। फलतः सब द्रव्य प्रनादि- विचार । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन-र्शन और वान्त १६६ २. संग्रह-सत्ता की अपेक्षा से होने वाला विचार । मार्थिक सत्य नहीं हैं। ३. व्यवहार-व्यक्ति की अपेक्षा से होने वाला व्यावहारिक और प्रातिभासिक पदार्थ शिकालबाषित विचार। नहीं होने के कारण पारमार्थिक सत्य नहीं है, किन्तु वे ४. ऋजुसूत्र-वर्तमान अवस्था की अपेक्षा से होने साकाश-कुसुम की भांति निरालय नहीं हैं, इसलिए सर्वथा वाला विचार । असत्य भी नहीं है। ५. शब्द-यथाकाल, यथाकारक शब्द प्रयोग की वेदान्त के अनुसार प्रज्ञान की दो शक्तियां हैंअपेक्षा से होने वाला विचार । १ प्रावरण-शक्ति। ६. समभिरूढ़-शब्द की उत्पत्ति के अनुरूप शब्द- २. विक्षेप-शक्ति । प्रयोग की अपेक्षा से होने वाला विचार । प्रावरण-शक्ति भेद-बुद्धि उत्पन्न करती है, इसलिए ७. एवम्भूत-व्यक्ति के कार्यानुरूप शब्द-प्रयोग की ससार का कारण है। इसी शक्ति के प्रभाव से मनुष्य मे अपेक्षा से होने वाला विचार । 'मैं कर्ता हूँ', 'भोक्ता हूँ', 'सुखी हूँ', 'दुःखी हूँ'-मादिवस्तु विज्ञान की दृष्टि से वस्तु द्रव्य पर्यायात्मक है। आदि भावनाएँ उत्पन्न होती है। तमः प्रधान विशेष इसके आधार पर दो दृष्टिया बनती हैं शक्ति युक्त तथा प्रज्ञान घटित चैतन्य से प्राकाश उत्पन्न १. निश्चय-द्रव्य सीनय । हुमा । माकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और २. व्यवहार-पर्याय या विस्तार सीनय । जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन सूक्ष्म भूतों से सूक्ष्म पहली अभेद प्रधान दृष्टि है और दूसरी भेदप्रधान । शरीर और स्थूल भूतों की उत्पत्ति हुई। यह विश्व न अभेदात्मक है और न भेदात्मक, किन्तु सूक्ष्म शरीर के सत्रह अवयव होते हैंउभयात्मक है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ-श्रोत्रि, त्वक, चक्षु, जिह्वा, घाण । वेदान्त और विश्व ६ बुद्धि-अन्तःकरण की निश्चयात्मिका प्रवृत्ति । शकराचार्य के शब्दों में जो सदा समरूप होता है मन-अन्तःकरण की संकल्प विकल्पात्मिका वही सत्य है। विश्व के पदार्थ परिवर्तनशील हैं सदा प्रवृत्ति। समरूप नहीं है, इसलिए वे सत्य नही हैं । ब्रह्म सदा सम- १२ पाँच कर्मेन्द्रिया-वाक् पाणि, पाद, वायु, रूप है, तीनो कालों (भूत, वर्तमान और भविष्य) तथा उपस्थ । तीनों दशामो (जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति) में एक रूप १७ पांच वायु-प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान । हे इसलिए वह सत्य है। फलित की भाषा में ब्रह्म सत्य ज्ञानेन्द्रिय सहित बुद्धि को विज्ञानमय कोश कहा है, जगत् असत्य है। जाता है। यही व्यावहारिक जीव है। ज्ञानेन्द्रिय सहित सत्य त्रिकालाबाधित होता है, इसलिए वह पारमार्थिक मन को मनोमय कोश कहा जाता है। कर्मेन्द्रिय सहित सत्ता है। प्रसत्य के दो रूप हैं पांच वायुनों को प्राणमय कोश कहा जाता है। विज्ञान१. व्यावहारिक-नाम रूपात्मक बस्तुणों की सत्ता। मय कोश ज्ञान-शक्तिमान् है। वह कर्ता है। मनोमय २. प्रातिभासिक-रज्जु में सर्प की सत्ता । कोश इच्छाशक्ति रूप है। वह करण (साधन) है। प्राणजगत् के विकारात्मक परार्थ व्यवहार काल में सत्व मय कोश क्रिया-शक्तिमान है। वह कार्य है। इन तीन होते हैं, किन्तु वे ब्रह्मानुभव के द्वारा बाधित हो जाते हैं, कोशों का मिलित रूप सूक्ष्म शरीर है। इसलिए व्यावहारिक पदार्थ पारमार्थिक सत्य नहीं हैं। साधना-पथ रज्जु-सर्प, शुक्ति-रजत भादि प्रतीतिकाल में सत्य वेदान्त के प्राचार्यों के अनुसार जीव में तीन प्रज्ञानप्रतिभासित होते हैं, किन्तु उत्तरकालीन ज्ञान के द्वारा गत शक्तियाँ होती हैं। प्रथम शक्ति से अभिभूत जीव वे बाधित हो जाते हैं, इसलिए प्रातिभासिक पदार्थ पार- प्रपंच को पारमाथिक मानता है। बेदान्त के ज्ञान से जब Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम मज्ञान-शक्ति क्षीण होती है तब वह दूसरी प्रज्ञान- २. व्यावहारिक पाक्ति के उदित होने पर प्रपंच को व्यावहारिक मानता ३. प्रातिभासिक है। ब्रह्म साक्षात्कार होने पर जब दूसरी प्रज्ञान-शक्ति भी जैन दर्शन के अनुसार चेतन और अचेतन दोनों क्षीण हो जाती है तब वह तीसरी प्रशान-शक्ति के कारण पारमार्थिक सत्य हैं-दोनों की वास्तविक सत्ता है । जैन प्रपंच को प्रतिभासित मानता है। तीसरी प्रशान-शक्ति दर्शन प्रचेतन जगत् की वास्तविक सत्ता को स्वीकार बन्ध-मोक्ष के साथ-साथ क्षीण होती है। उसके साथ प्रपच करता है, इसलिए वह यथार्थवादी है । वेदान्त के अनुसार को प्रतिभासित मानना भी समाप्त हो जाता है। फलित ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य है। वह एक है। शेष जो की भाषा में प्रपंच को व्यावहारिक प्रगति व प्रातिभासित नानात्व है वह वास्तविक नही है । वेदान्त दर्शन ब्रह्म से मानना बन्ध-मुक्ति की प्रक्रिया है। जीव जब तक बन्ध- भिन्न जगत् की वास्तविक सत्ता को स्वीकार नहीं करता. दशा में रहता है तब तक वह 'ब्रह्म ही पारमार्थिक सत्य इसलिए वह प्रादर्शवादी है। है-इसे जानते हुए भी व्यावहारिक या प्रातिभासिक यथार्थवादी दृष्टिकोण के अनुसार चेतन में अचेतन प्रतीति से मुक्त नहीं हो सकता। की और अचेतन में चेतन की संज्ञा करना मिथ्या-दर्शन वेदान्त के अनुसार साधना के तीनसाधन हैं है और चेतन मे चेतन की और अचेतन मे प्रचेतन की १. श्रवण-वेदान्त के वचनों को प्राचार्य के मुख संज्ञा करना सम्यग्-दर्शन है। से सुनना। आदर्शवादी दृष्टिकोण के अनुसार चेतन या ब्रह्म से २. मनन-श्रुत विषय पर तर्क-बुद्धि से मनन करना भिन्न अचेतन की सत्ता स्वीकार करना मिथ्या-दर्शन है ३. निदिध्यासन-मनन किए हए विषय पर सतत और ब्रह्म को ही पारमाथिक सत्य मानना सम्यग-दर्शन चिन्तन करना। ऐसा करते-करते प्रात्मा और ब्रह्म की एकता-बोध जन-दशन का द्वतवाद सुदृढ़ हो जाता है और अन्त में साधक को मोक्ष उपलब्ध वेदान्त के अनुसार जैसे एकत्व पारमाथिक और हो जाता है। प्रपच (या नानात्व) व्यावहारिक हैं वैसे ही अनेकान्त की प्रमाणवाद भाषा में कहा जा सकता है कि द्रव्यत्व पारमार्थिक और पारमार्थिक और व्यावहारिक सत्ताओं के सम्यग ज्ञान पर्यायत्व (या विस्तार) व्यावहारिक है। शाश्वत सत्ता चेतन है। मनष्य तिर्यच मादि उसके विस्तार हैं। वे के लिए वेदान्त पाँच प्रमाण मान्य करता है शाश्वत नही हैं, मनुष्य शाश्वत नहीं है इसीलिए वह पार. १. प्रत्यक्ष माथिक नहीं है । एक ही चेनन के अनन्त रूपों में मनप्य २. अनुमान एक रूप है, जो उत्पन्न होता है और विलीन हो जाता है। ३. उपमान उमके उत्पन्न या विलीन होने पर भी चेतन 'चेतन ही ४. मागम रहता है, इसलिए वह पारमार्थिक है। ५. अर्थापत्ति पारमार्थिक सत्ता को जानने वाली दृष्टि को निश्चय तुलनात्मक मीमांसा नय और व्यावहारिक सत्ता को जानने वाली दृष्टि को जैन दर्शन के द्वारा दो सत्ताएं स्वीकृत हैं व्यवहार नय कहा जा सकता है । निश्चय नय के अनुसार १. पारमार्थिक विश्व के मूल में दो तत्व हैं, चेतन और प्रचेतन । यह नय २. व्यावहारिक पर्याय या विस्तार को मौलिक तत्त्व नहीं मानता । वेदान्त वेदान्त के द्वारा तीन सत्ताएं स्वीकृत है प्रपंच को व्यावहारिक या प्रातिभासिक ही मानता है, १. पारमार्थिक उसका हेतु यही है कि वह जाति के मूल तत्स्व की व्याख्या Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-जन और वेदान्त केवल निश्चय नय से करता है। जैन दर्शन के अनुसार है। निश्चय नय से इस सत्य का रहस्योद्घाटन होता विस्तार मिथ्या या प्रसत् नही है । सत् के तीन अंश हैं- है कि विश्व के मूल में प्रभेद की प्रधानता है और व्यव१. ध्रौव्य हार नय से इस सत्य की व्याख्या होती है कि विश्व के २. उत्पाद विस्तार मे भेद की प्रधानता है। ३. विनाश जैन दर्शन द्रव्य और पर्याय (मूल और विस्तार) ध्रौव्य शाश्वत प्रश है । उत्पाद और विनाश प्रशाश्वत को सर्वथा एक नही मानता इस दृष्टि से ही तवादी प्रश है । ध्रौव्य संक्षेप है और उत्पाद-विनाश विस्तार है। ध्रौव्य की व्याख्या निश्चय नय से की जाती है और नहीं है किन्तु वह इस दृष्टि से ही दंतवादी है कि वह उत्पाद-विनाश की व्याख्या व्यवहार-नय से। ध्रौव्य से विश्व के मूल मे चेतन और प्रचेतन का भिन्न-भिन्न भिन्न उत्पाद-विनाश और उत्पाद-विनाश से भिन्न ध्रौव्य अस्तित्व स्वीकार करता है। वह इस अर्थ में बहुत्ववादी भी है कि उसके अनुसार जीव और परमाणु व्यक्तिश' कभी और कही भी नहीं मिलता। जहाँ ध्रौव्य है वही अनन्त हैं । जब हम नित्यता से अनित्यता की ओर तथा उत्पाद और विनाश है और जहाँ उत्पाद-विनाश है वही अशुद्धता (विस्तार) से शुद्धता (मूल) की पोर बढ़ते है ध्रौव्य है। इसलिए प्रोग्य, उत्पाद और विनाश ये तीनों तब हमें अभेद-प्रधान विश्व की उपलब्धि होती है और सत् के अपरिहार्य प्रश हैं । वेदान्त यह कब मानता है कि जब हम नित्यता से प्रनित्यता की ओर तथा शुद्धता से मूल से भिन्न विस्तार और विस्तार से भिन्न मूल है। प्रशुद्धता की ओर बढ़ते है तब हमे भेद प्रधान विश्व मूल और विस्तार दोनों सर्वत्र सम व्याप्त है। उपलब्ध होता है । जो दर्शन एकान्त दृष्टि से देखता है, वेदान्त विस्तार को मिथ्या या असत् मानता है और उसे एक सत्य लगता है और दूसरा मिथ्या। वेदान्त की जैन-दर्शन उसे प्रनित्य मानता है। अनित्य अन्तिम सत्य दृष्टि मे भेदात्मक विश्व मिथ्या है और बौद्ध दर्शन की नही है, इस दृष्टि से वेदान्त अनित्य को मिथ्या मानता दष्टि में प्रभेदात्मक विश्व मिथ्या है। जैन-दर्शन भनेहै। अनित्य अन्तिम सत्य की परिधि से बाहर नहीं है। कान्तवादी है इसलिए उसकी दृष्टि में विश्व के दोनो इस दृष्टि से जैन दर्शन अनित्य को सत् का अंश मानता रूप सत्य है। है. दोनों में जितना भाषा-भेद है उतना तात्पर्य-भेद इस उभयात्मक सत्य की स्वीकृति वेदान्त के प्राचीन नहीं है। प्राचार्यों ने भी की है। भर्तृ प्रपंच भेदाभेद बादी थे। स्याद्वाद और क्या है ? भाषा के प्रावरण में जो उनका अभिमत है कि ब्रह्म अनेकात्मक है। जैसे वृक्ष सत्य छिपा रहता है, उसे अनावृत करने का जो प्रबल अनेक शाखाओं वाला होता है । वैसे ही ब्रह्म अनेक शक्ति माध्यम है वही तो स्यावाद है। स्याद्वाद की भाषा मे व प्रवृत्तियुक्त है। इसलिए एकत्व और नानात्व दोनों कोई भी दर्शन सर्वथा द्वैतवादी या सर्वथा प्रदतवादी ही सत्य है-पारमार्थिक है । 'वृक्ष' यह एकत्व है। नही हो सकता। सत्ता की दृष्टि से विश्व एक है। सत्ता 'शाखाएँ' यह भनेकत्व है। 'समुद्र' यह एकत्व है। से भिन्न कुछ भी नहीं है, इसलिए वह एक है। इस 'उमियां' यह भनेकत्व है। 'मृत्तिका' यह एकत्व है । 'घड़ा' व्याख्या पद्धति को जैन दर्शन संग्रह नय कहता है। आदि अनेकत्व है । एकत्व अंश के ज्ञान से कर्मकाण्डाश्रित जगत की व्याख्या एक ही नय से नहीं की जा सकती। लौकिक और वैदिक व्यवहारों की सिद्धि होगी। दृश्य जगत की वास्तविकता को भ्रान्ति मानकर झुठ- शंकराचार्य ने भर्तृप्रपच को मान्यता नहीं दी, पर लाया नही जा सकता। इस दृष्टि से विश्व अनेक भी उन्होंने नानात्व को भी मृगमरीचिका की भाति सर्वथा है। विस्तार की व्याख्या-पद्धति को जैन-दर्शन व्यवहार असत्य नहीं माना। नय कहता है। भाषा के प्रावरण में जैन और वेदान्त के साधनासत्य की व्याख्या इन दोनो नयों से ही की जा सकती पथ भिन्न-भिन्न लगते हैं किन्तु तात्पर्य की दृष्टि से उनमें Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष भिन्नता नहीं है। प्रात्मा का श्रवण, मनन भौर है। जन प्रमाणविदों ने परोक्ष प्रमाण के पांच विभाग साक्षात्कार-यह वेदान्त की साधना-विधि है और जैन- किए-स्मृति, २-प्रत्यभिज्ञा, ३-तर्क, ४–अनुमान, दर्शन की साधना विधि है-प्रात्म-दर्शन, प्रात्म-ज्ञान और ५-पागम । भारम-रमण। वेदान्त को प्रमाण मीमांसा में अप्रत्यक्ष के प्रमाण के वेदान्त ज्ञानमार्गी है। जैन-दर्शन ज्ञानमार्गी भी है विभागों का संग्राहक कोई शब्द व्यवहृत नहीं हुमा, इसऔर कर्ममार्गी भी। कोरा जान-मार्ग मोर कोरा कर्म- लिए वहाँ अनुमान, उपमान, पागम और पर्यापत्ति को मार्ग दोनों अपूर्ण हैं । परिपूर्ण पद्धति है दोनों का समु- स्वतन्त्र स्थान मिला। कचय । मोक्ष की उपलब्धि के लिए कर्म अप्रयोजनीय हैं, जैन दर्शन की प्रमाण मीमांसा में अनुमान मादि के जो प्रात्म-चिन्तन से शून्य हैं । इस अपेक्षादृष्टि से प्रयोज- लिT TET लिए एक परोक्ष शब्द व्यवहृत हुआ, इसलिए वहां उनकी नीय कर्म मात्म-ज्ञान में समाहित हो जाते हैं। वेदान्त स्वतन्त्र गणना नहीं हुई। अनुमान और प्रागम वेदान्त का दृष्टिकोण यही होना चाहिए। जैन-दर्शन इस तथ्य पद्धति में स्वतन्त्र-प्रमाण के रूप में और जैन-पद्धति मे को इस भाषा में प्रस्तुत करता है कि कर्म से कम क्षीण परोक्ष प्रमाण के विभाग के रूप में स्वीकृत हैं । वेदान्त नहीं होते प्रकर्म से कर्म क्षीण होते हैं। मोक्ष पूर्ण संवर के उपमान और जैन के सादृश्य प्रत्यभिज्ञान में कोई प्रर्थ होने पर ही उपलब्ध होता है । पूर्ण संवर अर्थात् कर्म भेद नहीं है। अर्थापत्ति का अर्थ है, दृश्य अर्थ को सिद्धि निवृत्त-यवस्था। के लिए जिस अर्थ के बिना उसकी सिद्धि न हो, उस जैन-दर्शन का प्रसिद्ध श्लोक है अदृष्ट अर्थ की कल्पना करना। पात्रको भवहेतुः स्यात्, संवरो मोमकारणम् । इतीयमाहती दृष्टि रज्यवस्याः प्रपंचनम् ॥ यदि दृष्ट और अदृष्ट अर्थ की व्याप्ति निश्चित न हो तो यह प्रमाण नहीं हो सकती और यदि उसकी प्रास्रव-बाह्य-निष्ठा-भव का हेतु और सवर- व्याप्ति निश्चित हो तो जैन प्रमाणविदों के अनुसार इनमें पात्म-निष्ठा-मोक्ष का हेतु है। महंत की दृष्टि का सार और प्रनमान में कोई प्रर्थभेट नटी होता। अंश इतना है ही है, शेष सारा प्रपंच है। वेदान्त के प्राचार्यों ने भी इन्हीं स्वरों में गाया है- उपसंहार अविद्या बन्धहेतुः, स्यात्, विद्या स्यात् मोक्षकारणम्। जैन और वेदान्त दोनों प्राध्यात्मिक दर्शन है। ममेति बध्यते जन्तुः न ममेति विमुच्यते ॥ इसीलिए इनके गर्भ में समता के बीज छिपे हए है। अविद्या-कर्म-निष्ठा-बन्ध का हेतु है और विद्या प्रकुरित और पल्लवित दशा मे भाषा और अभिव्यक्ति ज्ञान-निष्ठा-मोक्ष का हेतु है। के आवरण मौलिक समता को ढाककर उसमे भेद किए जिसमें ममकार होता है, वह बंधता है और ममकार हुए है। भाषा के मावरण को चीरकर झांक सके तो हम का त्याग करने वाला मुक्त हो जाता है। पायेंगे कि दुनिया के सभी दर्शनों के अन्तस्तल उतने दूर एक दृष्टि में प्रमाण का वर्गीकरण दोनों दर्शनों का नहीं हैं, जितने दूर उनके मुख हैं। अनेकान्त का हृदय भिन्न है। दूसरी दृष्टि में उतना भिन्न नहीं हैं, जितना यही है कि हम केवल मुख को प्रमुखता न दें, अन्तस्तल कि प्रथम दर्शन में दीखता है। प्रत्यक्ष दोनों द्वारा सम्मत का भी स्पर्श करे।* समालोचना-परोक में किसी के दोषों की समालोचना मत करो, जब तक तुम्हारी प्रात्मा मलिन है, तब तक उसे हो पर समझ उसी की आलोचना करो। जो त्रुटियां अपने में देखो उन्हें दूर करो। ऐसा करने से दूसरों की बुराई में तुम्हारा जो समय लगता था वह तुम्हारे ही प्रात्म-सुधार में काम मावेगा। वर्णी-वाणी Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान और जैन दर्शन पदमचन्द्र जैन आधुनिक युग वैज्ञानिक युग है। विज्ञान के चमत्कारों व्यापी मानते है। परन्तु जैन दर्शन में माकाश को दो को देखकर मानव दातो तले उँगुली दबाता है। विज्ञान रूपों में बतलाया गया है-१. लोकाकाश, २. प्रलोकाकाश के द्वारा ही अनेक बाते जो धर्म के नाम पर प्रचलित लोकाकाश में छ: तत्त्व होते हैं और प्रलोकाकाश में रूढियाँ थी, उनको समूल नष्ट किया गया। यही कारण आकाश ही तत्व है । कहा भी गया है किहैं कि बहुत से धर्म और विज्ञान में अधिकाधिक जीवा पुग्गलकाया धम्माषम्मा य लोगोणण्णा। विरोध है। तत्तो प्रणण्णमणं मायास अतवदिरित ॥६॥ जैनधर्म तो प्रथम तीर्थकर प्रादिनाथ का बताया पंचास्ति। हुमा मवंज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी है। इसी कारण आक्सीजन और नाइट्रोजन (N2) का मिलना मौर यह वैज्ञानिक प्राविष्कारों का सहृदय स्वागत करता है। मिलकर हवा बनाना किसी भी रासायनिक सयोग के भारत के प्राचीन दार्शनिक शब्दो को गगन का गुण नियम से प्रतिपादित नहीं किया जा सकता। बनाते थे और उसे प्रमूर्तिक बताकर अनेक बातों का जाल इससे सिद्ध होता है कि वायु तत्व नहीं हैं । केबिडिश फैलाया करते थे, परन्तु जैनाचार्य ने शब्दों को जड़ तथा नामक वैज्ञानिक ने लिखा है किमूर्तिमान बताया था। आधुनिक विज्ञान ने भी अपने If there is any part of the phlogisticated ग्रामोफोन रेडियो इत्यादि प्राविष्कारो से उपरोक्त कथन air (Nitrogen. of our atmosphere which को पुष्टी की। differs from the rest.........it is not more प्राचीन काल में मनुष्यों का विचार था कि विश्व than 1/120 part of the whole. में पृथ्वी जल, अग्नि और प्रकाश प्रादि पाँच ही तत्व हैं, इस प्रकार वैज्ञानिक विचारों के अनुसार प्राचीन किन्तु सोलहवी सती के वैज्ञानिकों ने इन्हे मिथ्या सिद्ध पाँच तत्व मिथ्या सिद्ध कर दिए गए। . कर दिया । तुलसीदास जी ने भी लिखा है जैन दर्शन में पानी की अनेक प्रशृद्धियों पर प्रकाश "मिति जल पावक गगन समीरा, डाला गया। इसी कारण अहिंसामयी धावक जल को पंच तत्व यह प्रथम शरीरा।" छानकर ही पीता है। इससे जल की बहुत सी अशुद्धियां जल हाइड्रोजन (H2) और पाक्सीजन (02) का दूर हो जाती है। वैज्ञानिको ने भी सूक्ष्म दर्शी यन्त्र के एक यौगिक है। वैज्ञानिको ने इन्ही तत्वों को मिलाकर द्वारा सूक्ष्म जीवो को दिखलाया। जैनाचार्य अपने प्रतीजल का निर्माण किया। इसी जल को पुनः गर्म करने पर न्द्रिय ज्ञान के द्वारा जानते थे। अभीष्ट उपरोक्त तत्व प्राप्त हो जाते हैं। इससे सिद्ध वैज्ञानिक मतानुसार बिना छने पानी का सेवन करने होता है कि जल अलग तत्व नहीं है । से मनुष्य संक्रामक रोगो से प्रसित हो जाता है। जैन पृथ्वी अवस्थाधारी अनेक पदार्थों को पानी और हवा साधु इसी कारण पके हुए पानी का सेवन करते है। रूप अवस्था मे पहुँचा कर यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी एक बार समाचार पत्र में कानपुर जिले की घटना वास्तव में स्वतन्त्र तत्व नहीं है।। प्रकाशित हुई थी। एक लडका खाट से उठकर नीचे जो सभी तत्वों को स्थान देता है, वह गगन तत्व रक्खे हुये लोटे का पानी पी गया। कुछ ही क्षण बाद कहलाता है। प्राचीन दार्शनिक इसे प्रमूर्तिक और सर्व- उसका हृदय बहुत जोर से धड़कने लगा। डाक्टरों ने Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त उसके हृदय का मापरेशान कर एक विच्छू को निकाला। प्राज करोड़ों मील दूरी से शब्दों का हमारे पास तक इस प्रकार लड़के ने तड़फ-तड़फकर जान दे दिया। पहुंचाने में "ईथर" की आवश्यकता माध्यम के रूप से उपरोक्त बातों से सिद्ध होता है कि पानी को छान पड़ती है। इसी तस्व को वैज्ञानिकों ने कल्पना के रूप कर ही पीना चाहिए। गर्म पानी सेवन करने से स्वास्थ में माना । परन्तु हजारों वर्ष पहले ही लोकन्यापी "महाठीक रहता है। स्कन्ध" नामक जैनाचार्यों ने पदार्थ के अस्तित्व को बतअहिंसा की रक्षा के लिये जैन दर्शन में रात्रि भोजन लाया है । इसी की सहायतासे भगवान प्रादिनाथके जन्मादि त्याग की बात सप्रमाण कही गई है। समाचारपत्रो की सूचना क्षण मात्र में विश्व भर मे तड़ित के समान मे अनेकानेक रात मे खाने वाले मनुष्यों की घटनाएँ पहुँच जाती है । यह विस्तृत होते हुए भी सूक्ष्म बतलाया प्रकाशित होती हैं। कही चाय की पटली में छिपकली के गया है। चुर जाने के कारण चाय पीने वाले व्यक्तियों का मरण जैन दर्शन इस बात का प्रमाण है कि प्रत्येक वस्तु में सुनने में आता है और कही किसी दावत में पकते हुए अनन्त शक्ति विद्यमान है। आधुनिक वैज्ञानिक भी एक वर्तनमे सांप के मर जाने से मनुष्य भी परलोक चला जाता तत्त्व से अनेकानेक चमत्कारपूर्ण वस्तुपों का निर्माण करते है। प्रति वर्ष ऐसी घटनाएं होती हैं। हैं। जैनधर्माचार्य प्राज भी कहते है कि ऐसी वस्तुपो का माधुनिक विज्ञान भी इसी बात की पुष्टी करता है रहस्य छिपा हुआ है। प्राइस्टीन वैज्ञानिक भी इसी मत कि सूर्यास्त होने के बाद अनेक सूक्ष्म जीव उत्पन्न होकर को दोहराते है। विचरण करने लगते हैं। वैद्य भी दिन के भोजन का जैनधर्म ने सदैव से इस बात का प्रचार किया है समर्थन करते हैं। कि सत्य एक रूप में न होकर विविध धर्मों का संचय जैन दर्शन पेड़-पौधों को एक जीव के रूप में मानता है। इसी बात को हम अनेकान्त बाद के नाम से स्मरण है। जैनधर्माचार्यों ने इस तथ्य पर अपनी सूक्ष्म से सूक्ष्म करते है। विश्व के महान दार्शनिक अनेकान्त रूपी सागर विवेचना की है। हमारे स्व. वैज्ञानिक सर जगदीश चन्द्र में अपनी बुद्धी से तैरकर पार पाने में सफलता को नहीं बसु ने अपने यन्त्रो के द्वारा इस बात को सिद्ध किया है। पा सके है। आपने बतलाया कि अन्य जीवों के समान वनस्पति भी भारत के शंकराचार्य जैसे ऋषी अनेकान्त बाद के क्रिया कर्म करते है। रहस्य को नहीं ससझ सके । प्राधुनिक वैज्ञानिक प्रांस्टाइन जैन दर्शन इस बात की पुष्टी करता है कि वस्तु का के अपेक्षावाद के सिद्धान्त जैन दर्शन के सिद्धान्त के विनाश नही होता है। उसकी प्रस्थानों में परिवर्तन पर्याय है। वह उनसे बहुत कुछ मेल खाते है। हमा करता है । भारत के कणाद मुनि ने भी कहा है कि जैन दर्शन में भोजन की शुद्धता पर अधिकाधिक बल पदार्थ सूक्ष्म कणों से मिलकर बनता है और इसे किसी दिया गया। वैज्ञानिक भी इस मत के प्रतिकूल नहीं है। भी क्रिया द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता है। इटली शुद्ध भोजन खाने से स्वास्थ ठीक रहता है। और फ्रास के वैज्ञानिक एव दार्शनिक भी उपरोक्त कथन आधुनिक विज्ञान अभी उन्नतिशील है। यूरोपियन को दोहराते है। विद्वानों ने बहुत यथार्थ कहा है कि हम प्रकृति के उन सोलहवीं शताब्दी मे रावर्ट बॉयल नामक वैज्ञानिक रहस्यों का प्राविष्कार करेगे, जिसको आज तक किसी ने अपने रासायनिक संयोग के नियम (Laws of भी व्यक्ति को देखने का सौभाग्य नही प्राप्त हुआ है। chemical combination) में लिखा है कि पदार्थ को किसी भी क्रिया (भौतिक और रासायनिक) द्वारा नष्ट उपरोक्त कथन इस बात का प्रमाण है कि जैन दर्शन नहीं किया जा सकता, केवल उसका रूपान्तर किया जा पार और माधुनिक विज्ञान का सम्बन्ध निकट ही है। जैन सकता है। इसी मत की और भी दूसरे वैज्ञानिक पुष्टी दर्शन में विज्ञान के सिद्धान्तों के प्रतिकूल प्राज तक कोई करते हैं। भी बात नहीं मिली। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत वैयाकरणों की पाश्चात्य शाखा का विहंगावलोकन डा० सत्यरंजन बनर्जी डा. ग्रियर्सन महोदय का विश्वास है कि प्राकृतभाषा निर्णय भले ही न हो परन्तु इससे डा. ग्रियर्सन के अभिके वैयाकरणो की पाश्चात्य शाखा प्रायः बाल्मीकि के मत में कोई परिवर्तन नहीं हो सकता है कि ये सूत्र प्राकृत तथाकथित सूत्रों पर आधारित है, जिन पर आगे चलकर व्याकरण के पाश्चात्य शाखा से सम्बन्धित हैं। त्रिविक्रम, सिहराज, लक्ष्मीधर, अप्पय दीक्षित, बाल इस विवादास्पद बात को न भी माने तो भी प्राकृत सरस्वती एवं अन्य वैयाकरणो ने अपनी अपनी विधि से व्याकरण की पश्चिमी शाखा के सर्वप्रथम वैयाकरण नमि प्राकृत व्याकरण सम्बन्धी शब्द एव मूत्र रचना कर टीका साधु हैं जो प्रा. हेमचन्द्र की भांति जैन थे तथा तिथि क्रम टिप्पणी की थी। यद्यपि प्रा. हेमचन्द्र ने भी उन्हीं सूत्रों मे वे प्रा. हेमचन्द्र से पूर्व हुए थे, क्योंकि रुद्रट के काव्याका अनुसरण किया, परन्तु उन्होने विभिन्न शब्दावली मे लङ्कार की टीका उन्होने १०६६ ई० मे रची थी३, जैसा पृथक् मूत्रो से अपनी व्याकरण की रचना की थी। कि उन्होंने काव्यालङ्कार की टीका के अन्तिम पद्य मे बाल्मीकि सूत्रो की प्रामाणिकता का प्रश्न अब तक निर्णीत स्पष्ट लिखा है। यद्यपि नमि साधु कृत किसी प्राकृत नही हो मका है। डा० प्रा० ने० उपाध्ये का अभिमत है व्याकरण का ज्ञान हमे नहीं है पर रुद्रट कृत काव्यालङ्कार कि उपर्युक्त सूत्र निश्चय ही त्रिविक्रम के है जिनकी वृत्ति की टीका करते हुए उन्होने प्राकृत व्याकरण और विशेषउन्होने स्वय रची थी। तया शौरसेनी, मागधी, पैशाची, अपभ्रश आदि भाषाओं बाल्मीकि सूत्रों के कृत्रित्व के सम्बन्ध में श्री नित्ति के व्याकरण सम्बन्धी कुछ मूल तत्त्वों का संक्षिप्त उल्लेख डोलची का भी यही अभिमत है पर वे मानते है कि सभी किया है५ । नमि साधु ने काव्यालंकार की टीका में जिन सूत्र सम्भवतः त्रिविक्रम के रचे हुए नही हैं२ । अस्तु जो सूत्रो का उल्लेख किया है बे प्राय. पा. हेमचन्द्र के सूत्रों कुछ भी हो इन सूत्रो की रचना चाहे बाल्मीकि ने की से मिलते जुलते है६ । अत: इन सूत्रो से प्रतीत होता है हो चाहे त्रिविक्रम ने परन्तु यह सुनिश्चित है कि ये सूत्र कि नमि साधु ने पश्चिमी भारत में प्रचलित परम्परामों प्राकृत व्याकरण की पाश्चात्य शाखा में निर्धारित किये का अनुसरण किया हो। जावेगे । अतः इन मूत्रों के कृतित्व की प्रामाणिकता का ३. रुद्रटकृत काव्यालंकार नमि साधुको टीका सहित १. Valmiki Sutra : A Myth B.V. (Vol. II मम्पादक दुर्गाप्रसाद और पन्सीकर काव्यमाला Part 2) 1941 P.P. 160-172 and Vol. xv २-३ श्रावृत्ति बम्बई १९२८ Part 3) 1956 F-P. 28-31. डा. उपाध्ये ने उपयुक्त समस्या पर बडी गम्भीरता । ४. पंचविंशति संयुक्तः एकादश समाशतः (११२५) विक्रमात् समातिक्रान्तः प्रावृषिदाम् समर्थितम् । पूर्वक विबेचन किया है और इस सिद्धान्त को निरर्थक सिद्ध किया है। श्री Hultzsch. श्री के. पी. त्रिवेदी, (स० ११२५-१०६६ ई.) श्री टी. के. लड्डु, श्री नित्ति डोलची और प्राकृत ५. श्री नित्ति डोलचीने मूल काव्यालंकार रोमन लिपि मणिदीप के सम्पादक आदि ने भी इसी विषय पर मे लिखा और फेंच अनुवाद भाषा मे है, देखो विस्तृत विवेचन किया है । Les. Gram. Pkts. p.p. 158-165. 2. Less. Gram. Pkts P.P, 179 F.F. ६. देखो Dolci Ibrd p.p. 165-169. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त नमि साधु के पश्चात् पश्चिमी शाखा में प्राकृत वैया- पैशाची ३२५ से ३२८ तक पालिका, पैशाची और ३२६ करणों में सर्वाधिक प्रमुख स्थान प्रा. हेमचन्द्र (१०८८. से तक अपभ्रंश भाषा का वर्णन है। प्रा. हेम११७२ ई.) को प्राप्त होता है । जिन्होंने अपनी प्राकृत चन्द्र ने अर्धमागधी के लिए 'पार्ष' शब्द का प्रयोग किया व्याकरण विस्तारपूर्वक १११६ सूत्रों में रचा, जो कि है। उन्होंने सम्पूर्ण विषय को बड़े सुन्दर ढंग और विधिउनका संस्कृत व्याकरण के साथ-साथ सलग्न है। उनके पूर्वक तौर तरीके से जमाया है तथा अपने पूर्ववर्ती प्राचार्यो व्याकरण का नाम "सिद्ध हैम शब्दानुशासन" है२ जो का कोई उल्लेख नहीं किया है कि किसका कौन सा कि राजा सिद्धराज की प्रार्थना पर रचा गया था और विषय प्रयुक्त किया है। प्रा० हेमचन्द्र की व्याकरण की उन्हीं को समर्पित किया गया था। सिद्ध हैम शब्दानु- टीकात्रों में दो टीकाएँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं। एक तो शासन' पाठ अध्यायों में विभाजित है जिनमें से अन्तिम श्री उदय सौभाग्य गणि की 'व्युत्पत्ति दीपिका'४ है जिस अध्याय प्राकृत का है। प्रत्येक अध्याय चार पादो मे का नाम 'हैम प्राकृत वृत्ति ढुंढिका है। जिसमें प्राचार्य विभाजित है। यही व्यवस्था उन्होंने पाठवे अध्याय की हैमचन्द्र के नियमों को आधार मानकर एक एक व्युत्पत्ति भी की है जैसा कि संस्कृत व्याकरण के प्रथम से सातवें परक व्याख्या प्रस्तुत की गई है तथा दूसरी टीका है अध्यायो की है। प्रा. हेमचन्द्र के प्राकृत व्याकरण के प्राकृत प्रबोध नर (नरेन्द्र) चन्द्रसूरि कृत५। इन्होंने द में २७१ सूत्र है जिनमें स्वर भार व्यजन का ३. प्रा. हेमचन्द्र की प्राकृत व्याकरण का सपादन डा. विवेचन है। द्वितीय पाद में २१८ सूत्र हैं जिसमें अनेक पार. पिशेल ने किया था-Hemchandra's विषय वर्णित हैं । १-१२४ सूत्र तक संयुक्त व्यंजनों का Grammatik Der Prakrit Spranchen (fere वर्णन हैं। १२५ से १४ सूत्र तक संस्कृत शब्दों के लिए हैम चन्द्रम् अध्याय ८) I. Theil (Te und wortप्राकृत शब्दों का उल्लेख है। १४५ से १७३ सूत्र तक verzeichaniss) Halle 1877 and II. Theil प्रत्ययों का वर्णन १७४वे सूत्र में देशी शब्द और १७५ (uleersetzung und eralanterungen) Halle से २१८ सूत्र तक अव्ययों का वर्णन है। इस तरह इन A. S. 1880 (रोमन लिपि मे) संपादक एस. पी. दो अध्यायों में तो स्पष्ट रूप से स्वर शास्त्र का विवेचन पंडित, कुमारपाल चरित्र के परिशिष्ट सम्पादन में है। तृतीय पाद मे शम्दशास्त्र के और कुछ सीमा तक B.S. P. S. LX. बम्बई १९०० संपादक श्री पी० कारक प्रकरण के नियम उल्लिखित हैं । १ से १२६ सूत्रों एल. वैद्य देव नागरी लिपि में हेमचन्द्र की स्वयं तक विभक्तियों के नियम १३० से १३७ तक कारक के टीका प्रकाशिका सहित प्रथम भावृत्ति पूना १९२८, नियम और १३८ से १८२ सूत्रों तक धातु और कृदन्त द्वि० प्रावृत्ति १९३६ (कुमारपाल चरित का परिका वर्णन है। चौथे पाद में १ से २५६ सूत्रों तक धात्वा शिष्ट संपादक श्री एस. पी. पंडित B.S P.S. देश, २६० से २८६ सूत्रों तक प्रादेशिक भाषाएँ जैसे शौरसेनी २८७ से ३०२ तक मागधी ३०३ से ३२४ तक * ४. पिशेल Gram, PKT. S,p. 29 १. देखो जी बुल्हर कृत Uber Das Leben Das ५. पीटसन को प्रथम रिपोर्ट-१८८३) पृ० Jaina Menches Hemacandra fazar P55€ नं० ३०० नर (नरेन्द्र) चन्द्रसूरि मलधारी के शिष्य श्री मणिलाल पटेल द्वारा जर्मन से अनूदित 'हेमचन्द्र थे और सं० १६४५%१५८६ में टीका रची थी। का जीवन" S. J. S, (No II) शान्ति निकेतन Aufrechst मे प्राकृत प्रबोध के कर्ता का नाम १९३६ नरचन्द्र लिखा है जबकि भंडारकर के सूचीपत्र मे २. प्रा. हेमचन्द्र ने अपनी व्याकरण की दो टीकाएँ उन्हें नरेन्द्र चन्द्रसूरि लिखा है। देखो A cata स्वयं लिखी हैं। १. बृहती, २. लघुवृत्ति (जिसे logue of collections of M.S.S." डेकन कालेज प्रकाशिका भी कहते हैं)। पूना बम्बई १८८० पृ० ३२८ नं. ३०० LX). Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत वैयाकरणों की पापवाल्यशाला का विहंगावलोकन १७७ प्रथम तीन मध्यायों तथा चौधे के २५६ सूत्र तक जो वतः १२वी सदा का प्रथम अर्धभाग) कृत 'वाग्भट्टालंकार' भाषा प्रयुक्त की है वह स्पष्ट रूप से महाराष्ट्री है। पर के टीकाकार सिंहदेव गणिनामक जैन साधु ने रितीय यहाँ जो भाषा प्रयुक्त की है वह प्राकृत से भिन्न है जैसे प्रध्याय के २-३ छदों की टीका करते हुए प्राकृत के कुछ अथ प्राकृतम् (८.१.१) शेषम् प्राकृतवत् (८.४.२८६) नियमों का उल्लेख किया है और खासतौर से शौरसेनी इत्यादि । डा. पिशेल१ का अभिमत है कि मा हेमचन्द्र मागधी, पैशाची और अपभ्रंश के नियमों का सोदाहरण ने जैन महाराष्ट्री का भी उल्लेख किया है और कही-कही उल्लेख किया है। प्रत. ऐमा प्रतीत होता है कि इन जैन शौरसेनी का भी, पर कहीं भी इन दोनों देशी देशी भाषामों का वर्णन करते हुए सिंहदेव गणि ने भापामों में स्पष्ट से अन्तर नही दिखाया है। देशी शब्दो निस्सदेह हेमचन्द्र के सूत्रों का उमी तरह प्रयोग किया के लिए प्रा. हेमचन्द्र की 'देशी नाममाला' प्रकारादिक्रम है जैसा कि आचार्य ने लिखा है। अतः सिंहदेवगण मे पाठ वर्गों में विभाजित है जो उल्लेखनीय है२ । भाषा- की टीका में कोई उल्लेखनीय बात नही दिखाई देती है। शास्त्र की दृष्टि से मा० हेमचन्द्र पश्चिमी शाखा के त्रिविक्रम५ ( १२३६-१३०० ई.) मल्लिनाथ के सर्वाधिक प्रामाणिक, अधिकार पूर्ण एवं प्रतिनिधि प्राचीन पुत्र और प्रादित्य वर्मन के पौत्र थे। उन्होने पानी प्राकृत विद्वान है३ । प्रा. हेमचन्द्र का प्रत्यक्ष रूप से सीधे व्याकरण बाल्मीकि मूत्रों से भिन्न मुत्रों में रची हैं (डा. किमी ने अनुसरण किया हो ऐसा कुछ भी पता नही उपाध्ये इस मत को निरर्थक मानते है) त्रिविक्रम ने चलता है परन्तु इतना अवश्य है कि उनके उत्तराधिकारी निश्चय ही हेमचन्द्र का अनुकरण किया है तथा प्राकृत इम शाखा के प्राकृत वयाकरण थाड़ बहुत रूप स मा० (महाराष्ट्री यद्यपि नामोल्लेख नहीं किया है) और उसकी हेमचन्द्र के ऋणी अवश्य ही है। वाग्भट्ट प्रथम४ (सभ- देशी भाषापों औरती जी देशी भाषामों शौरसेनी, मागधी, पैशाची, बुल्किा-पैशाची और अपभ्रंश मादि का विवेचन किया है पर पा० हेम१. Ibid 36 चन्द्र की भाति 'मर्धमागधी' या 'पाप' शब्द का प्रयोग २. मा. हेमचन्द्र की देशीनाममाला प्र० भाग सपादक नहीं किया है । अपभ्रंश मे त्रिविक्रम ने शायद संस्कृत पार० पिशेल (मूल व पालोवनात्मक नोट्स सहित) छाया के कोई नवीनता नही प्रकट की है। निश्चय ही बम्बई १८८० । द्वि० प्रावृत्ति स. रामानुज स्वामी कुछ थोड़े से उदाहरण छोड़कर शेष सभी उदाहरणों की भूमिका मालोचनात्मक नोट्स और शब्द सूची नकल उन्होंने हेमचन्द्र से ही की हैं। त्रिविक्रम ने अपनी सहित पूना १९३८ । स. एम. डी. बनर्जी कल --- -- कत्ता १९३१, संवेबरदास जैन गुजराती अनुवाद ५. मार. पिशेल Dr. Gram, PKTS. P. 27 Gram, महित तथा पी० एल वैद्य कृत हेमचन्द्र की देशीनाम PKT. Spr. 38 T. K. लड्डू Prolegomena माला के अनुभव' ABORI VIII 1926-27 पृ० Zu Trivikrama Prakrit Grammatik, Halle ६३-७१ डा०मा० ने० उपाध्ये का देशीनाम माला 1912 अग्रेजी में अनूदित By श्री पी. ही रामानुज में कनडी शब्द ABORI XII 1931-32 p. स्वामी ABORI X1930, P. 177-218, भट्टनाथ 274-84. स्वामी कृत त्रिविक्रम मोर उनके अनुकार्य ZAXL. ३. देखो-C. Lessen, Institution etc. pp 9 P.219-223, डा०मा० ने उपाध्ये द्वारा लिखित F.F. R. Pischel. De, Gram, PKTS. P. 17 'त्रिविक्रम की तिथि पर नोट्' ABORI XIII Gram PKT. Spr. 36 Nitri Dolhi Les, 1932-33 P. 171-172 डा. उपाध्ये का मत है Gram PKTS. pp. 147-177. कि त्रिविक्रम ने अपनी व्याकरण १२३६ ई. के बाद ४. वाग्भट्ट कृत वाग्भट्टालंकार की सिंहदेवगणि कृत लिखी और पी० एल.बंच १३वी सदी के अन्तिम टीका-सं• केदारनाथ शास्त्री और ह्री. एल. अर्ष भाग मानते हैं, श्री निधि टोलची Les Gram, एस. पान्सीकर काव्यमाला ४८ तु.मावृत्ति १९१६ PKTS. P. 179-198. Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ अनेकान्त स्वयं की शब्दावली का प्रयोग किया है जैसे हस्व के लक्ष्मीधर ने (१४७५-१५२५ ई०) ६६४ सूत्रों की टीका लिए ''दी के लिए 'दी' समास के 'स' गण पर के को। पर अप्पय दीक्षित ने १५५३-१६२६ ई.के) लिए 'ग' विकल्प के लिए 'तु' इत्यादि । त्रिविक्रम के लगभग सभी सूत्रों की टीका की है। बाल सरस्वती "प्राकृत शब्दानुशासन मे १, १०३६ सूत्र हैं और वे तीन (१७वी-१८वी सदी ई.) की टीका अब तक छपी नही प्रध्यायों में विभाजित है और प्रत्येक अध्याय चार है। यद्यपि यह सुनिश्चित सत्य है कि समुद्रबधायेज्वन के पादों में विभाजित है। त्रिविक्रम ने "शेषम् सस्कृतवत्" सुपुत्र सिंहराज ने त्रिविक्रम से बहत-सी सामग्री संकलित (३.४.७१) के अन्र्तगत विषय को द्वादशपदी कहा है। की है, पर नियमों के अतिरिक्त उनमे कोई समानता नहीं प्राकृत साहित्य के क्षेत्र में त्रिविक्रम की सबसे बड़ी देन पाई जाती है । सभी व्यावहारिक उद्देश्यो के हेतु सिंहराज उनके देशी शब्द हैं जिन्हें उन्होंने छः वर्गों में विभाजित ने अपनी प्राकृत व्याकरण निम्न भागों में विभाजित की किया है। (8)-वापु प्राय्याद्यः (१,२,१०६)२ है।। १-संज्ञा विभाग, २-परिभाषा विभाग, ३-सहिता गौणद्याः (१,३,१०५)३ गहिमाद्याः (१,४,१२१) ४- विभाग, ४-सुबन्त विभाग, ५-तिम्त विभाग, ६-शोर. बरह शास्तृन्मद्यः (२,१,३०) ५-अप्फुण्णगाक्तेन सेन्यादि विभाग । उपर्युक्त वर्गीकरण से हमें ऐसा प्रतीत (३-१-१३२) ६-झाङ्गास्तुदेश्याः सिद्धाः (३,४,७२) होता है कि सिंहराज के दिमाग में पागिनी की प्रष्टापादि, जबकि प्रा. हेमचन्द्र ने केवल एक ही सूत्र ध्यायी पर निर्मित कौमुदी के वर्गीकरण की व्यवस्था रही "गौणाद्याः" (८,२,१७४) और देशी नाममाला ही होगी। सिंहराज की टीका प्राकृत के विद्यार्थियो को लिखी है। त्रिविक्रम के कुछ ही शब्द ऐसे हैं जो हेमचन्द्र बहत ही लाभदायक और उपयोगी है। डा. पिशेल का से मिलते जलते हैं पर उन्होंने हेमचन्द्र के बाद कुछ मत है कि सिंहराज कृत 'प्राकत रूपावतार' कोई महत्वसमकालीन साधनों से बहुत से नवीन शब्दों का संग्रह, का का साह हीन कृति नही है, क्योंकि विभक्ति रूप और धातुरूप का किया है। ज्ञान उन्हे हेमचन्द्र और त्रिविक्रम की अपेक्षा अधिक था त्रिविक्रम की व्याकरण में जो सूत्र है उन पर सिंह इसीलिए सिंहराज ने कुछ और अधिक विधियों का राज, लक्ष्मीधर, अप्पय दीक्षित, बाल सरस्वती तथा सहजता से प्रयोग किया है । निस्सन्देह उनकी ये बहुत-सी अन्य विद्वानो ने टीका रची है। उनमें से सिंहराज विधियाँ सिद्धान्तत. तर्कणीय हैं परन्तु उनका निर्माण (१३००-१४०० ई.)४ ने केवल ५७५ सूत्रों की और निश्चय ही नियमानुसार हुआ है अतः उन्हें महत्वहीन या १. त्रिविक्रम का सूत्र पाठ (छन्दबड) भट्टनाथ स्वामी तुच्छ नहीं कहा जा सकता है । ने प्रकाशित किया। पृ० १-२८ तिथि कोई नहीं है। इसी तरह लक्ष्मीवर७ की 'सद्भाषा चन्द्रिका' नामक सम्पादक जगन्नाथ शास्त्री चौखम्भा संस्कृत सीरीज प्राकृत व्याकरण त्रिविक्रम के सूत्रों की टीका है। उन्होंने बनारस संवत् २००७ सम्पादक पी. एल. वैद्य जैन संस्कृति संरक्षक संघ ५. प्राकृत रूपातार सिहराज कृत संपादक E. Hultzsch शोलापुर १९५४ (अन्तिम पालोचनात्सक प्रावृत्ति) रायल एशियाटिक सोसाइटी प्राइज पब्लिकेशन फड २. पी. एल. वैद्य के सम्पादन के अनुसार इन सत्रों की Vol 1 लदन १९०६ संख्या १०३६ है लेकिन डा० उपाध्ये ने अपने लेख 6. Translated by Hultzsch Ibid I PI From शुभचन्द्र और उनकी प्राकृत व्याकरण (Abori Pischel's Gram. Pkt. Spr. 39. This is XIII) मे केवल १०८५ सूत्रो का उल्लेख किया है। nothing but a short summery of what he ३. Pischel gram Pkt. Spr. 41 says in his De. Gram Pkt. PP. 39-43. ४. ये तिथियां लगभग अनुमानित हैं । देखो श्री पी. एल. ७. सम्पादक श्री के. पी. त्रिवेदी B.S.PS. No LXXL वैद्य कृत 'त्रिविक्रमकी व्याकरण की भूमिका' पृष्ठ २४ बम्बई १९१६ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत याकरणों की पाश्चात्य शाखा का विहंगावलोकन वही क्रम निर्धारित किया है जो विविक्रम का है। उनके हैं। श्री Aufrecht ने पानी सूची में इसका उल्लेख व्याकरण में यह विशेषता है कि उन्होंने त्रिविक्रम और नहीं किया है। बाल सरस्वती का ययार्थ नाम वेंकटकृष्ण मिहराज के पश्चात् उपलब्ध कुछ नवीन विधियों का कवि है जो कृष्णदेव के पुत्र तथा भैरव के पौत्र थे । वे प्रयोग किया है। 'बाल सरस्वती' तथा 'वागानुशासन' नामक उपाधियों में अप्पय दीक्षित की प्राकृत मणिवीप (दीपिका) भी विभूषित थे। वे तेलगु के कवि थे तया उन्होंने बहुत-सी त्रिविक्रम की टीका ही है। उन्होने अपनी टीका तथा मूल रचनाएँ एवं टीकाएँ लिखी थी। उनका 'सद्भाषा तत्कालीन उपलब्ध कुछ प्राकृत की विधियों के अतिरिक्त विवरण' कई अध्यायों में विभाजित है, जैसे समाप्रकरण, और कुछ नवीन प्रयोग नहीं किया है। अप्पय दीक्षित ने सन्धि प्रकरण, सुबन्ताधिकार, तद्धित प्रक्रिया और तिङ्न्त त्रिविक्रम, हेमचन्द्र, लक्ष्मीधर, भोज, पुष्पवननाथ, प्रकरण । उन्हान शास्त प्रकरण । उन्होंने शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका वररुचि और वातिकार्णव भाष्य अप्पयज्वन आदि का पैशाची और अपभ्रंश आदि के अतिरिक्त एक "भापा अधिकारी विद्वानों की भाँति स्मरण किया है। पर यहाँ विनियोग" नामक नवीन अध्याय भी जोड़ा है। इन सब यह एक विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि त्रिविक्रम को बातों के अतिरिक्त बाल सरस्वती के विषय मे और कुछ व्याकरण पर सबसे तुच्छ प्राकृत व्याकरग नरसिंह की तब तक नही लिखा जा सकता है जब तक कि उनकी प्राकृत शब्द-दीपिका है। इसका प्रारम्भिक भाग ग्रन्थ कृति प्रकाशित नहीं होती है । प्रदर्शनी सीरीज न. ३ और ४ में प्रकाशित हो गया है। त्रिविक्रम की भाँति शुभचन्द्र ने भी 'शब्द चिन्तामणि'४ श्री कृष्णमाचार्य ने२ अभी हाल हमे सूचित किया नामक प्राकृत व्याकरण की रचना की है, वे नन्दिसंघ, है कि बाल सरस्वती एडापप्पल्ली (Edappalli) के मूलमंघ, बलात्कारगण, कुन्दकुन्दान्वय पमनन्दी, सकलनिवामी थे। जिन्होने 'सद्भाषा विवरण' नामक प्राकृत कीति, भुवनकीर्ति, ज्ञानभूपण और विजयकीर्ति आदि व्याकरण रची थी जो वाल्मीकि के प्राकृत सूत्रों तथा प्राचार्यों की शिष्य परमरा मे थे। शुभचन्द्र ने शब्द त्रिविक्रम की टीका पर आधारित है जिसका उल्लेख चिन्तामणि' की टीका भी की है जो तीन अध्यायों में उन्होने स्वय अपनी भूमिका सम्बन्धी पद्यों में किया है। विभाजित है और प्रत्येक प्रध्याय चार पादों में विभाजित बाल सरस्वती की रचना अब तक प्रकाश में नही पाई है। इसमें त्रिविक्रम के १०३६ की जगह १२२४ सूत्र है, है परन्तु देवनागरी लिपि में लिखी एक कागज की पाडु. (डा० उपाध्ये १०८५ सूत्र बताते है) उनके अनुसार लिपि अध्यार पुस्तकालय में सुरक्षित है जिसके १४६ पृ० प्राकृत भाषाए महाराष्ट्रो (९६८ सूत्र) शौरसेनी (२६ ४. १. सम्पादक श्री टी टी. श्रीनिवास गोपालाचार्य, संपा- दक की 'प्राकृत मणिदीप दीपिका' नामक टीका सहित । मोरियण्टल रिसर्च इन्स्टीटयट पब्लिकेशन, संस्कृत सीरीज नं०६२, मैसूर १९५४ (१९५३?) २. यह सब सूचना उनकी पाडुलिपि नोट्स पर आधारित है जो 'ब्रह्मविद्या' में प्रकाशित हुए हैं। (अध्यार लायब्ररी बुलेटिन) Vol. XXVI. माग १-२ मई १९२६ पृ०१८-१०० ३. वाल्मीकिम् सूत्रकारं च वृत्तिकारम् त्रिविक्रमम् । वन्दामहे महाचार्यान् हेमचन्द्रादिकानपि ।। पृष्ठ ६९ A. D. F. Hocrnle IA. (i) 1873 P. 29 इसम उन्होंने एक प्रश्न प्रकाशित किया है कि शब्दचिन्तामणि' की कहीं कोई अन्य प्रति भी उपलब्ध है अथवा नही ? उनके पास शुभचद्र की व्याकरण के दो ही अध्याय प्राप्त है। पर अन्त मे डा० प्रा० ने उपाध्ये ने अपने लेख 'शुभचन्द्र और उनकी प्राकृत व्याकरण' ABORI XIII 1931-32, PP, 37-38 में सभी सभव सूचनाएँ प्रस्तुत की हैं । डा० उपाध्ये ने केवल प्रशस्ति और शौरसेनी का ही संपादन किया है (देखो परिशिष्ट अ, ब, पृ. ५४-५७) मेरी सभी जानकारी उन्हीं पर आधारित है। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० कमेकात सत्र) मागधी (१८ सूत्र) पैशाची (२१ सूत्र) चूलिका विषय में श्री एस. पी. रंगनाथ स्वामिन् का विश्वास है पैशाची (४ सूत्र) और अपभ्रंश (१५७ सूत्र हैं)। कि श्रुतसागर की रचना हेमचन्द्र और त्रिविक्रम की उनका अपभ्रश वाला भाग बहुत ही हीन है। शुभचन्द्र अपेक्षा अधिक विस्तृत, गम्भीर एवं विश्लेषणात्मक है । ने मूत्र तथा उनकी टीका की रचना बिल्कुल ही भिन्न उन्होंने अपनी व्याकरण मे अन्य वैयाकरणों की भांति शब्दावली में की है। यद्यपि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती किसी कोई विशिष्ट तकनीकी प्रयोग नहीं किये हैं। उनकी भी प्राचार्य का उल्लेख नहीं किया है फिर भी लिखा है रचना दूसरों की अपेक्षा सर्वथा स्वतन्त्र है पर उनके सूत्रो कि अपनी व्याकरण की रचना मे उन्होंने बहुत-सी प्राकृत का सूक्ष्म विश्लेषण करने से ऐसा प्रतीत होता है कि वे ध्याकरणों का उपयोग किया है। (शुभचन्द्र मुनीन्द्रेण हेमचन्द्र के प्रत्यधिक समीप एव त्रिविक्रम से विशेषतया लक्षणाब्धि विगाह वै प्राकृत लक्षणं चक्रे...."प्रशस्ति) प्रभावित है। श्री प्रार. जी भडारकर४ श्रुतसागर की शुभचन्द्र के व्याकरण को पालोचनात्मक व्याख्या से इस साहित्यिक गतिविधियों का काल १४९४ ई. के लगभग तथ्य का स्पष्ट पता चलेगा कि उनकी व्याकरण तथा मानते है । और पीटर्सन५ तथा विद्याभूषण भी इस काल हेमचन्द्र और त्रिविक्रम की व्याकरण में कितनी समानता निर्णय से सर्वथा सहमत हैं। है। निश्चय ही शुभचन्द्र ने सूत्रों व वृत्ति के निर्माण मे हेमचन्द्र का अनुकरण किया है (कुछ सूत्र तो दोनों के इस तरह पश्चिमी शाखा की सभी व्याकरणों का एक जैसे ही है) और त्रिविक्रम के सूत्र पाठ का क्रम तो विश्लेषण एवं विवेचन से स्वष्ट प्रतीत होता है कि सभी वैसे का वैसा ही उद्धृत किया है। सत्य तो यह है कि में छः प्रमुख प्राकृत भाषाओं का उल्लेख है। जैसे महाशुभचन्द्र ने हेमचन्द्र पोर त्रिविक्रम का मशीन की भाँति राष्ट्रा (यद्याप नामल्लिख नहीं किया है) शौरसेनी मागधी अनुकरण किया है । अतः यह स्वाभाविक है कि वे प्राकृत पैशाची चुलिका पैशाची और अपभ्रंश । उत्तरवर्ती ग्राचायाँ साहित्य की प्रगति मे बहुत ही थोड़ा मा योगदान कर की देन प्रमुखतया उनके देशी शब्दों के संग्रह में निहिन सके। डा. प्रा० ने उपाध्ये २ ने यह सिद्ध करने का है जो उन्होंने कुछ तो स्त्रय अनुभव से प्राप्त की है या प्रयत्न किया है कि शुभचन्द्र की साहित्यिक गतिविधियां फिर तत्कालीन साहित्य मे संग्रह किया। फिर भी व्यव१५५१ ई० पूर्व ४० वर्ष तक विकसित होती रही जब हारिकरूप से मभी समान हैं केवल हेमचन्द्र और त्रिविक्रम ही ऐसे है जिन्हे कुछ विशिष्ट और मौलिक कहा जा कि उन्होंने १५५१ ई० में अपना पाडव पुराण समाप्त सकता है। किया था। मनुकुन्दनलाल जैन - - - - - इस शाखा की एक और प्राकृत व्याकरण श्रुतसागर कृत 'प्रौदार्य चिन्तामणि'३ के छ. अध्याय हैं और इसके मपादक भट्टनाथस्वामिन् पृ० २६.४४ Nodate: SP.V. रगनाथ स्वामी भारत की साहित्यिकनिधि प्राकृत पाडुलिपियों की शोध, श्रुतसागर-प्रौदार्य १. उनकी व्याकरणों तुलना के लिए देखो “लड्डू का त्रिविक्रम आदि का परिचय" अग्रेजी में अनूदित faarufo, Reprint from thc Dawa magazine ABORI IXI. P. 206, उपाध्ये Ibid P.55. विजगापट्टम १६१०. . FF. ४. संस्कत पाडुलिपियों को शोध पर रिपोर्ट १८८३-८४ २. Ibid PP. 43 FF. ५. रिपोर्ट IV. PC. XXIII. ३. भार० एल० मित्रा, Proe. AS. B. 1875 P.77 ६. श्री एस. सी. विद्याभूषणकृत 'भारतीय तर्क"संस्कृत पांडुलिपियों की सूचना (iii) पृ० १६ शास्त्र का इतिहास" कलकत्ता १९२१ पृ० २१५ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और वीरसेवानन्दिर के प्रेमी श्री बाबू छोटेलालजी श्रीजुगलकिशोर मुख्तार, 'पुगवीर' समन्तभद्राश्रम की दिल्ली करोल बाग मे २१ जुलाई टिप्पणियाँ बड़े मारके की है। सम्पावनकला-कुशलता का १९२६ को स्थापना हो जाने के बाद कोई चार महीने पूर्ण परिचय सामने है और अपने यशोविस्तार और बाद 'अनेकान्त' पत्र का नवीन प्रकाशन मेरे सम्पादकन्व उद्देशसाफल्य की पूर्व सूचना देते हैं। तीनों ही अंक मे प्रारम्भ हुप्रा था। उस समय अनेकान्त को पूर्ण मनो- जैसी उपयोगी सामग्री से परिपूर्ण प्रकाशित हुए हैं उसे योग के साथ प्राद्योपान्त पढने वाले पाठकों मे थी बा० देखते हुए इसके उज्ज्वल भविष्य में किसी प्रकार का छोटेलाल जी जैन का नाम खासतौर से उल्लेखनीय है। संदेह नहीं किया जा सकता।" पाप कलकत्ता के सुप्रसिद्ध धर्मनिष्ठ सेठ रामजीवन "यह अनेकान्त" पत्र निसदेह जैन जाति के हृदय मरावगी के पाठ पुत्रों में पांचवे पुत्र थे, धनाढ्य होने के में उस पावश्यक शक्ति का संचार करेगा पौर पुनः इस माथ-साथ माप विद्वान भी थे; साहित्य, इतिहास तथा पवित्र मार्वधर्म की ध्वजा संसार में फहरायेगा । श्री पुरातत्व के विषय मे अच्छी रुचि रखते थे; जैन धर्म जिनेन्द्रदेव से प्रार्थना है कि इस नवजात शिशु को चिरंऔर समाज की मापके हृदय में चोट थी, दोनो को प्राप जीव करें।" उन्नतावस्था में देखना चाहते थे और अपनी शक्ति के पाश्रम तथा 'भनेकान्त' पत्र की महायतार्थ जब कुछ अनुसार प्रायः चुपचाप काम किया करते थे। पत्र की प्रेरणात्मक पत्र समाज के प्रतिष्ठित पुरुषों तथा विद्वानों तीन किरणों के निकल जाने पर जब प्रापसे उन पर को भेजे गये तब इनमे एक पत्र बा. छोटेलाल जी के भी मम्मति मांगी गई तब मापने जो सम्मति भेजी वह मने नाम था, जिसके उत्तर मे अक्टूबर १९३० को जो महत्व कान्त की संयुक्त किरण ६-७ मे 'भनेकान्त पर लोकमत' का पत्र उन्होने अपने हृदय के भावों को व्यक्त करता शीपंक के नीचे नं. ६७ पर प्रकाशित हुई है। उसके हुमा भेजा वह मनेकान्त की १२वीं किरण में पृ० ६५ पादि-मध्य और अन्त के तीन प्रश इस प्रकार हैं: पर प्रकाशित हुमा है। उसके निम्न शद खास तौर से "जो पत्र प्राक्तन विमर्श विचक्षण विद्या-चयोवृद्ध ध्यान में लेने योग्य है :प्रदेय ५० जुगलकिशोरजी के तत्वावधान में प्रकाशित हो । जो अनेकान्त" पत्र इतना उपयोगी है और जिसे उम पर सम्मति की क्या मावश्यकता है। श्री मुख्तार | पढ़ते ही पूर्व गौरव जागृत हो उठता है उसे भी सहायता जी के लेखों के पढ़ने का जिन्हें सौभाग्य प्राप्त हुआ है वे के लिए मुंह खोलना पड़े-समाज के लिए इससे बढ़कर भले प्रकार जानते हैं कि पापका हृदय जैनत्व से प्रोत-लब्जा की बात नहीं है। यदि योरुप में ऐसा पत्र प्रकाप्रोत भरा हमा है, जैन इतिहास के अन्वेषण मे तो पाप शित होता तो न जाने वह सस्था कितनी शताब्दियों के एक अद्वितीय रत्न है। अन्य कृतियों के सिवाय केवल समाजाती" पापका 'स्वामी समन्तभद्र ही इस बात का सजीव उदा- इस पत्र में उन्होंने सहायता का भी कछ पाश्वासन हरण है। पाप जैसे कृत विद्य अध्यवसायी महानुभाव दिया था और पत्र का जीवन २-३ वर्ष के लिए निष्कसम्पादक हैं यही मुझे सन्तोष है।" ण्टक हो जाने के लिए खर्च का Estimate (तखमीना) "तीनों ही ग्रंक भीतरी पौर बाहरी दोनों दृष्टियों भी पूछा था, जो उन्हे बतला दिया गया था। अनेकान्त से बहत सुन्दर है। लेखों का चयन और सम्पादकीय की १२वी किरण निकलने के बाद समन्तभद्राश्रम का Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ अनेकान्त सरसावा के लिए स्थान परिवर्तन हो गया, जिसका कारण वह धरोहर सुरक्षित नहीं रही बा. छोटेलाल जी को उक्त किरण मे 'माश्रम का स्थान परिवर्तन' शीर्षक के लिखने पर मालूम हुमा कि उन्होंने वह रकम दूसरे धर्म नीचे दिया गया है। पत्र की घाटा-पूर्ति के लिए समाज कार्यों में दे डाली है, क्योकि वे धर्म कार्य के लिए निकाली का यथेष्ट सहयोग प्राप्त नहीं हो सका और इसीलिए हई रकम को अधिक समय तक अपने पास नहीं रखते। पाश्रम के दिसम्बर १९३० मे सरसावा जाने पर 'अनेकान्त इस तरह अनेकान्त का प्रकाशन और टला और उसके पत्र अगले वर्ष की सूचना' के अनुसार प्रकाशित नही हो पुन. प्रकाशन का योग उस वक्त तक नही भिड़ा जब तक सका-उसका प्रकाशन बन्द हो गया। कि ला० तनसुखराय जो (मैनेजिंग डाइरेक्टर तिलक बीमा ___ मन् १९३३ में वीरसेवा मन्दिर की स्थापना का कम्पनी) देहली का श्रीभाई अयोध्याप्रसाद जी गोयलीय संकल्प करके मैंने उसके लिए अपने निजी खर्चे से नाग को साथ लेकर जुलाई १९३८ के वीरशासन जयन्ती के पंचमी (श्रावण शुक्ला ५) के दिन बिल्डिंग के निर्माण उत्सव मे, उत्सव के प्रधान की हैसियत से, वीरसेवाका कार्य सरसावा में शुरू कर दिया और मुझे दिन रात मन्दिर में पधारना नही हमा। आपने वीरसेवा मन्दिर उसी के कार्य मे जुट जाना पड़ा। जनवरी १९३४ मे के कार्यो को देखकर अनेकान्त के पुनः प्रकाशन की पाव'जयधवला का प्रकाशन' नाम का मेरा एक लेख प्रकट श्यकता को महसूस किया और गोयलीय जी को तो हमा, जिसे पढ़कर उक्त बा. छोटेलाल जी बहुत ही उसका बन्द होना पहले ही खटक रहा था-वे प्रथम वर्ष प्रभावित हुए. उन्होंने 'अनेकान्त' को पुनः प्रकाशित करा- मे उसके प्रकाशक थे और उनकी देशहितार्थ जेल यात्रा कर मेरे पास का सब ज्ञान धन ले लेने की इच्छा व्यक्त की के बाद ही वह बन्द हुया था। अतः दोनों का अनुरोध और पत्र द्वारा अपने हृद्यगत-भाव को सूचना देते हुए यह हुमा कि 'अनेकान्त' को अब शीघ्र ही निकलना चाहिए। भी लिखा कि-"व्यापार की अनुकूल परिस्थिति न होते लाला जी ने घाटे के भार को अपने ऊपर लेकर मुझे हए भी मैं अनेकान्त के तीन साल के घाटे के लिए इस प्राधिक चिन्ता से मुक्त रहने का वचन दिया और गोयसमय ३६००) रु. एक मुश्त प्रापको भेट करने के लिए लीय जी ने पूर्ववत् प्रकाशन के भार को अपने ऊपर लेकर प्रोत्साहित हैं, आप उसे अब शीघ्र ही निकाले ।" उत्तर मे मेरी प्रकाशन तथा व्यवस्था सम्बन्धी चिन्तामो का मार्ग धन्यवाद के साथ मैंने लिख दिया, मैं इस समय वारसवा- साफ कर दिया। ऐसी हालत में दीपमालिका से-नये मन्दिर के निर्माण कार्य में लगा हुमा हूँ-ज़रा भी अव- वीर निर्वाण सवन के प्रारम्भ होते ही अनेकान्त को काश नही हैं-बिल्डिग को समाप्ति और उसका उद्- निकालने का विचार सुनिश्चित हो गया। तदनुसार ही घाटन महर्त हो जाने के बाद 'अनेकान्त' को निकालने १ नवम्बर १९३८ से उसका पूनः प्रकाशन शुरू हो का यत्न बन सकेगा, पाप अपना बचन धरोहर रखें।" गया। बिल्डिंग का उदघाटन और वीरसेवा मन्दिर का इस प्रकार जव अनेकान्त के पून. प्रकाशन का सेहरा इस प्रकार जगा स्थापन कार्य वैशाख सुदि अक्षय तीज ता० २४ अप्रैल ला. तनसुखराय जी के सिर पर बँधना था तब इससे १९३६ को सम्पन्न हो गया। इसके बाद सितम्बर १९३६ पहले उसका प्रकाशन और उसमें बा. छोटेलाल जी की में 'जैनलक्षणावली' के कार्य को हाथ में लेते हुए जो संकल्पित उक्त ३६०० रु. की धन राशि का विनियोग सूचना निकाली गई थी उसमे यह भी सूचित कर दिया कैसे हो सकता था? इसी से वह धरोहर सुरक्षित नही गया था कि "अनेकान्त को भी निकालने का विचार रही, ऐसा समझना चाहिए। प्रस्तु अनेकान्त को पाठ चल रहा है। यदि वह धरोहर सुरक्षित हुई और वीरसेवा वर्ष बाद पुनः प्रकाशित देखकर और यह देखकर कि मन्दिर को समाज के अच्छे विद्वानों का यथेष्ट सहयोग उसका वार्षिक मूल्य भी लागत से कम ४) के स्थान पर प्राप्त हो सका तो माश्चर्य नहीं कि 'अनेकान्त' के पुनः ॥) रु० कर दिया गया है बा. छोटेलाल जी को प्रकाशन की योजना शीघ्र ही प्रकाशित कर दी जाय।" बड़ी प्रसन्नता हुई। वे अनेकान्त की बराबर प्रतीक्षा मे Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त पौर बीरसेवामन्दिर के प्रेमी श्री बाबू छोटेलालजी १५३ रहते थे और उसके प्राप्त होते ही स्वस्थ हों या अस्वस्थ प्रवलर व्यर्थ नहीं जाने देते। इस संस्था को स्थापित उस बड़ी रुचि तथा चाव से आद्योपान्त पढ़ा करते थे। करने के कोई एक साल बाद जब मैं कलकत्ता गया तो अनेकान्त से और उसके कारण मुझसे वे कितना प्रेम प्रापने साहू शान्तिप्रसाद जी जैन रईस नजीबाबाद से स उनक २१ अगस्त १९२९ क पास कुछ मुझे तीन हजार ३०००) रु० की सहायता का वचन जाना जा सकता है, जिसे अनेकान्त वर्ष २ की १२वी लावली'माही यारी के लिए दिलाय किरण में सम्पादकीय वक्तव्य के साथ प्रकाशित किया मेरे बिना कुछ कहे ही चलते समय चुपके से ही ३००) गया था। उसके कुछ प्रशों को यहाँ उद्धृत कर देना तीन सौ रु. औषधालय तया फरनीचर के लिए भंट उचित जान पड़ता है . किये । आप बीरसेवामन्दिर को बहुत बड़ी चिरस्मरणीय __"मेरे तुच्छ हृदय मे आपके प्रति कितनी श्रद्धा है सहायता करना चाहते थे परन्तु देवयोग से वह सुयोग यह मैं अभी तक प्रत्यक्ष न कर सका हूँ। मापने जैन हाथ से निकल गया, जिसका आपको बहुत खेद हुआ। समाज को जो कुछ प्रदान किया है उसका बदला तो कयाह उसका बदला ता बाद को मापने ५००) अपने भतीजे चि. चिरंजीलाल यह जैन समाज न चुका सकेगी, पर भावी जैन समाज के प्रारोग्य लाभ की खुशी में भेजे, १००) 6. अपने अवश्य ही कृतज्ञता प्रकट करेगी। साहित्यिक अनुसन्धान मित्र बा० रत्नलालजी झांझरी से लेकर भेजें, २००) रु. कार्य करने की शिक्षा विश्वविद्यालयो से प्राप्त करनी अपने छोटे भाई बा० नन्दलाल जी से और २००) रु. पडती है पर आपके अनेकान्त में प्रकाशित लेखों को अपनी पूज्य माता जी से दिलवाये । अपनी धर्म पत्नी के पढकर ही अनेक विद्वान माज अच्छे-अच्छे लेख लिखने स्वर्गारोहण से पूर्व किये गये दान में से पांच हजार ५०००) लगे हैं । अनेकान्त निकलने के पूर्व के लेख और तत्पश्चात रु. की बड़ी रकम इस सस्था के लिए निकाली। 'पनेके लेखों को यदि सामने रखकर तुलना की जाय तो यह कान्त' पत्र के लिए स्वयं १३५) रु. भेजे, २००) रु. स्पष्ट हो जायगा । आपकी कार्य प्रणाली में मौलिकता सेठ बैजनाथ सरावगी से दिलाये, और कलकत्ते के कितने है। इस प्रकार की विशेष बाते इस समय मैं लिखकर ही सज्जनों को स्वय पत्र लिखकर तथा साथ मे नमूने पापको कष्ट पहुँचाना नहीं चाहता हैं। पर तो भी इतना की कापियों भेजकर उन्हे अनेकान्त का ग्राहक बनाया। ही निवेदन है कि अभी प्रापसे बहुत कुछ लेना है।" इसके सिवाय गत मार्च मास में आपके जेष्ठ भ्राता बा. सितम्बर १९४१ की अनेकान्त किरण ८ मे 'वीर फूलचन्द जी का स्वर्गवास हो गया था, उस अवसर पर सेवा मन्दिर के सच्चे सहायक' नाम से मैंने एक विज्ञप्ति सात हजार ७०००) रु० का जो दान निकाला गया था प्रकाशित की थी, जिससे वीरसेवा मन्दिर के बा० छोटे उसका स्वयं बटवारा करते हए हाल में १०००). लाल जो के तत्कालीन प्रेम, सहयोग और सहायतादि का वीरसेवामन्दिर को प्रदान किये हैं। ऐसे सच्चे सहायक कितना ही पता चलता है । अत: यहाँ उसे ज्यों का त्यों एवं उपकारी का आभार किन शब्दों में प्रकट किया उद्धृत किया जाता है . जाय, यह मुझे कुछ भी समझ नहीं पड़ता। मेरा हृदय "श्रीमान् माननीय बा. छोटेलाल जी जैन कलकता ही सर्वतोभाव से उसका ठीक अनुभव करता हुमा आपके मेरी तुच्छ सेवाओं के प्रति बड़े ही प्रादर-सत्कार के भाव प्रति झुका हुमा है-शब्द उसके लिए पर्याप्त नहीं है, को लिए हुए हैं, यह बात 'अनेकान्त' के उन पाठकों से खासकर ऐसी हालत में जबकि प्राभार के प्रकटीकरण से छिपी नही है जिन्होंने प्रापके विशुद्ध हृदयोदगारों को प्रापको खुशी नहीं होती और अपने नाम तक से प्राप लिए हुए वह पत्र पढ़ा है जो द्वितीय वर्ष की १२वी दूर रहना चाहते हैं। मैंने भाई फूलचन्दजी का चित्र किरण के टाइटिल पेज पर मुद्रित हुमा है। यही कारण प्रकाशनार्थ भेजने को लिखा था, इसके उत्तर मे प्राप है कि पाप मेरी अन्तिम कृतिरूप इस वीरसेवामन्दिर' को लिखते है-'मुख्तार साहब, आप जानते है हम लोग बड़े प्रेम की दृष्टि से देखते हैं, उसके साथ पूर्ण सहानुभूति नाम से सदा दूर रहते हैं। चित्र तो उनका छपना । रखते हैं और उसको सहायता करने कराने का कोई भी चाहिए जो दान करें। हम लोग तो परिग्रह का प्राय Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९॥ अनेकान्त श्चित-(अधूरा ही)-करते हैं। फिर भी जरा-जरा राजगृह का यह उत्सव वार्षिकोत्सव के रूप में ही मनाया सी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं तो गया था, और इस उत्सव का आयोजन, अतिथि सत्कार दम्भ अवश्य है। प्रस्तु क्षमा करे।" कितने ऊँचे उदार तथा खर्च का सब भार बा. छोटेलाल जी ने उठाया था, एवं विशाल हृदय से निकले हुए ये वाक्य हैं। सचमुच जिसके लिए वे भारी धन्यवाद के पात्र है।' सार्बुदयबा. छोटेलालजी जैन समाज की बहुत बड़ी विभूति है। सहस्त्राब्दी महोत्सव के रूप मे उत्सव का दूसरा विशाल मेरी तो शुद्ध, अन्तःकरण से यही भावना है कि पाप आयोजन चार महीने बाद कलकत्ते में कार्तिकीय महोत्सव यथेष्ट स्वास्थ्य लाभ के साय चिरकाल तक जीवित रहे के अवसर पर ता० ३१ अक्टूबर से ४ नवम्बर १९४४ और अपने जीवनकाल में ही वीरसेवा मन्दिर को खूब तक, सरसेठ हुकमचन्द जी के सभापतित्व मे, मनाया फलता फूलता तथा अपने सेवा मिशन में भले प्रकार सफल गया, जिसमें जैन समाज के दिगम्बर-श्वेताम्बरादि मभी होता देखकर पूर्ण प्रसन्नता प्राप्त करे।" सम्प्रदायों ने भाग लिया, दूर दूर से सभी प्रान्तो के विद्वान बीरसेवामन्दिर ने अपने जन्म के प्रथम वर्ष सन् तथा प्रतिष्ठित सज्जन पधारे थे। यह महोत्सव बहुत सफल १९३६ से ही 'वीर शासन-जयन्ती' नाम के एक नये रहा और इसमे कितने ही महत्व के कार्य सम्पन्न हुए पर्वोत्सव को मनाना शुरू किया था, जिसे जैन समाज । है। इसकी सफलता का विशेष हाल 'कलकता में वीर शासन का सफल महोत्सव' लेख से जाना जा सकता है, सैकड़ों वर्षो से भूला हुअा था और जिसका पता मुझे को धवलादि सिद्धान्त ग्रन्थों पर से चला था । यह पर्व जो अनेकान्त वर्ष ७ की सयुक्त किरण ३-४ मे प्रकाशित हा है । और जिसके अन्त मे मैंने लिखा है-"वास्तव श्रावण कृष्णा प्रतिपदा का पुण्य दिवस है, जिस दिन मे यह सारा महोत्सव ही बा० छोटेलाल जी का ऋणी है, भगवान महावीर की पवित्र वाणी सब से पहले विपुला उन्हीं के दिमाग की यह उपज है, वे ही इसे वीरसेवा मन्दिर चल पर विरी थी और उनका धर्मतीर्थ प्रवर्तित हुआ था। इस महत्वपूर्ण तिथि का सभी विद्वानों तथा सज्जनों ने (सरसावा) से राजगिरि, राजगिरि से कलकत्ताले गये है, अभिनन्दन किया और तब से अनेक दूसरे स्थानो पर भी कलकत्ता की सारी मशीनरी के ये ही एक मूविग एजिन (Moving Engine) रहे है और उन्ही की योजनामो, वीरशासन जयन्ती दिवस के उत्सव मनाये जाने लगे और सरसावा के उत्सव मे दूर दूर के सज्जन शामिल होने महीनों के अनथक परिश्रमो, व्यक्तिगत प्रभावों का तथा लगे । सन् १९४३ के पाठो उत्सव में कलकत्ता से बा० स्वास्थ्य तक की बलि चढ़ाने से यह सब इस रूपमे ममन्न छोटेलाल जी भी पधारे थे, अापके ही सभापतित्व मे उस हो सका है । अत इसके लिए बा. छोटेलाल जी जैसे वर्ष का उत्सव मनाया गया था। आपने उत्सव को महो मूक सेवक का जितना भी आभार माना जाय और उन्हे जितना भी धन्यवाद दिया जाय वह सब थोड़ा है। प्राप त्सव का रूप देते हुए यह प्रस्ताव रखा था कि अगले वर्ष स्वस्थता के साथ दीर्घजीवी हो, यही अपनी हार्दिक यह उत्सव राजगृही मे ढाई सहस्त्राब्दी महोत्सव के रूप भावना है।" में मनाया जाय जहाँ भ. महावीर की वाणी का सबसे पहले अवतार होकर उनका तीर्थ प्रवर्तित हया था। कलकता के उक्त महोत्सव की समाप्ति पर बा० तदनुसार थावण कृष्ण १,२ ता०, ७-८ जुलाई १९४४ छोटेलाल जी बीमार पड़ गये, जिसका दुःखद समाचार को यह महोत्सव राजगिरि में बडे उत्साह के साथ मनाया मुझे 'बा० छोटेलाल जी बीमार' नाम की विज्ञप्ति के जिसका प्रानन्दप्रद संक्षिप्त परिचय "विपूला चल पर वीर- रूप मे अनेकान्त की उक्त नवम्बर १९४४ की किरण में शासन जयन्ती का अपूर्व दृश्य' नामक लेख से प्राप्त ही देने के लिए बाध्य होना पड़ा। उसमें बा० छोटेलाल किया जा सकता है, जो अनेकान्त वर्ष ६ की १२वी जी के पत्र का भी कुछ अंश उद्धृत है अतः उसे यहाँ किरण में प्रकट हुआ है। ज्यों का त्यों दे दिया जाना उचित जान पड़ता हैभारी वर्षा कालीन स्थिति के कारण विपुला चल- "पाठकों को यह जानकर दुःख होगा कि वीरशासन कल Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और बोरसेवामन्दिर प्रेमीभी बाबुछोटेलालजी १८५ महोत्सव के प्राण वा. छोटेलाल जी महोत्सव की समाप्ति 'वीरशासन संघ' के कार्य में लग गये। के पनन्तर ही ता०५ नवम्बर से बीमार चल रहे हैं- अप्रैल १९५१ के अन्त में मैंने अपने द्वारा संस्थापित महीनों के दिन रात के अनथक परिश्रम ने उनके स्वास्थ्य वीरसेवा मन्दिर के लिए अपने ट्रस्ट की आयोजना की को भारी धक्का पहुँचाया है। उन्हे पहले इन्फ्लुएंजा हुआ, और ट्रस्ट नामा लिखकर २ मई को उसकी रजिस्ट्री कर फिर मियादी ज्वर (टाइफाइट फीवर)। ज्वर के न दी। इस ट्रस्ट में मैंने बा० छोटेलाल जी को भी अपना जाने पर छाती का एक्सरे लिया गया, उससे मालूम हुमा एक ट्रस्टी चुना था, जो ट्रस्ट की पहली मीटिंग में पुन: कि प्लरिसी की बीमारी है, जो पीछे जाकर थाइसिस सरसावा पधारे थे और उस मीटिंग में पापको ही ट्रस्ट का बन सकती है। अतः उनको मद्रास के पास मदनपल्ली के अध्यक्ष चुना गया था। तब से मस्था का सब कार्य दस्ट T. B. Sanatorrum मे जाना पड़ेगा, जहां उनके लिए कमेटी के हाथों वीर सेवा मन्दिर के नाम से होता रहा। अलग मकान निर्माण किया जा रहा है और वहाँ उनको कुछ प्रर्से बाद बीरसेवा मन्दिर को उसके जन्म ५-६ महीने रहना होगा। वे सभवतः २२ या २३ दिसम्बर स्थान सरसावा से बाहर अन्यत्र ले जाने का प्रश्न उत्पन्न तक वहाँ के लिए कलकत्ता से रवाना हो जाएंगे, ऐसा हुमा, जिसके लिए अनेक स्थानो के प्रस्तावों पर विचार उनके १५ दिसम्बर के पत्र से ज्ञात होता है। प्रापकी होकर अन्त को दिल्ली में उसे स्थानान्तर करने का विचार इस बीमारी के कारण कलकत्ता में जिस महती सस्था स्थिर हुमा, जिसके लिए बाबू छोटेलाल जी ने ला. की नीव पडी है उसके कार्य मे कोई प्रगति नही हो राजकृष्ण जी की उस जमीन को पसन्द किया जिस . सकी। इस सम्बन्ध मे बा. छोटेलाल जी के पत्र के पर वर्तमान मे 'वीरमेवा मन्दिर' स्थित है। और उसे निम्न शब्द हृदय मे बड़ी वेदना उत्पन्न करते हैं: आपने तथा आपके भाई नन्दलाल जी ने अपनी स्वर्गीय "चन्दा जितना हुआ था-अन्दाज पौने चार लाख का माता जी के दान द्रध्य से ४० हजार रुपये में वीरसेवा उतना ही है। मेरे बीमार हो जाने के कारण जो कार्य मन्दिर को खरीदवा दिया जिसकी सूचना जनवरी १९५३ जितना जहाँ था वहाँ ही है और मेरी ऐसी हालत में अब मे प्रकाशित 'वीरसेवा मन्दिर का सक्षिप्त परिचय' मे दी ५-६ मास कुछ होना सभव नही है। इस बीच मे समाज गई । इसी वर्ष उक्त बा. नन्दलाल जी से बिल्डिंग के का रुपया अन्य कार्यो मे उठ जायगा और मेरी १० लाख लिए १० हजार की और सेठ मिश्रीलाल जी काला की स्कीम यो ही रही जाती जान पड़ती है । जैन समाज कलकत्ता की ओर से ५ हजार की सहायता का वचन का भाग्य ही ऐसा है । या तो अच्छे कार्यकर्तामो का सह प्राप्त हुना, जिसके प्राघार पर बिल्डिंग का कार्य शुरू योग नहीं मिलता, या कोई प्रागे माता है तो चन्द रोज हया और वीरसेवा मन्दिर के नूतन भवन का शिलान्यास मे जीवन समाप्त हो जाता है-या कुछ प्रगति का कार्य तथा चौखटे का मुहूर्त १६ जुलाई १९५४ को साहु शान्ति जहाँ का तहाँ रह जाता है। मैं बीमार न होता तो तुरन्त प्रसाद जी के हाथो सम्पन्न हुमा । इस उत्सव के अवसर यहा पांच लाख हो जाते और पांच लाख दौरा करके ले पर साहू जी ने अपने भाषण के अन्त में वीरसेवा मन्दिर पाता । भगवान की मर्जी। कृपा रखे।" के महान कार्यों का उल्लेख करते हुए उसके नवीन भवन माशा है समाज बा० छोटेलाल जी की शीघ्र निरो- निर्माण के लिए ११०००) रु. प्रदान करने की घोपणा गता के लिए, अविरल भावना भाएगा और उन्हे उनकी की। इस पर बा. छोटेलाल जी ने खड़े होकर कहा स्कीम के विषय में जरा भी निराश न होने देगा।" "पापका सहयोग हमने अापके गुणो से आकृष्ट होकर हर्ष का विषय है कि उक्त मदनपल्ली के सेनेटोरियम शिलान्यास के लिए चाहा था, मापसे मार्थिक सहायता की में रहकर बा० छोटेलाल जी का स्वास्थ्य सुधरा, उनके याचना नही की थी; किन्तु जब पाप स्वय उदारता शरीर मे वैसा कोई रोग नहीं रहा और वे अप्रैल में पूर्वक दे ही रहे है तब हम मापसे कम क्यों लें? प्रतएव वापिस कलकत्ता मा गये तथा अपनी प्रायोजित सस्था हम तो मापसे पहली मजिल के निर्माण का पूरा खर्च Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त लेंगे इस पर साहूजी ने अपनी सहर्ष स्वीकृति प्रदान की। उसे द्विमासिक के रूप में पुनः प्रकाशित कराया है, उसा इसके लिए साहजी से पतीस हजार रुपये प्राप्त हुए। के फलस्वरूप पाज यह विशेषांक पाठकों के सामने है। इस तरह दिल्ली में वीर-सेवा-मन्दिर भवन के वीरसेवा मन्दिर के भवन का उद्घाटन हो जाने पर निर्माण में बाबू छोटेलाल जी का बहुत बडा हाथ रहा प.कैलाशवन्द जी शास्त्री ने जैन सन्देश मे उसका अभिहै, जिसे उन्होंने वीर-सेवा-मन्दिर ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर नन्दन करते हुए एक टिप्पणी प्रकाशित की थी जिसका पासीन रहते हुए किया है। आपके और भाई नन्दलाल ऐसा पाशय था कि वीरसेवा मन्दिर की बिल्डिंग तो खड़ा जी के प्रयत्न से ही सेठ मिश्रीलालजी काला की पांच __हो गई परन्तु मुख्नार साहब (जुगलकिशोर जी) का कोई हजार की सहायता दस हजार के रूप में परिणित हुई उत्तराधिकारी तैयार नही किया गया, इससे मुख्तार है। दूसरी मजिल का निर्माण प्रायः बाबू नन्दलालजी पौर सेठ मिश्रीलालजी की सहायता से ही हुआ है। साहब के बाद सस्था मे कोई काम नहीं हो सकेगा और तीसरी मजिल के निर्माण में अधिष्ठाता वोर-सेवा-मदिर केवल बिल्डिंग ही खडी रह जायगी, जिसका दुरुपयोग होना अधिक सभव है। इस पर बा. छोटेलाल जी ट्रस्ट की खास प्रेरणा को पाकर बाबू रघुवरदयालजी ने उत्तराधिकारी की तलाश के लिए पत्रो मे एक विज्ञप्ति जैन एम. ए. एल. एल. बी करोलबाग न्यू देहली ने तीन । प्रकाशित कराई थी और कुछ विद्वानो से पत्र व्यवहार हजार की और उनके समधी सेठ छदामीलालजी जैन भी किया था, उस समय के वातावरण में मैंने बा० छोटे फिरोजाबाद ने चार हजार की सहायता प्रदान की है। लाल जी को एक पत्र २१ अप्रैल १९५८ को लिखा था, शेष कुछ फुटकर सहायता भी उसक निर्माण में लगी है। इस भवन का उद्घाटन मुहूत भी श्रीमान साहू शान्ति जिसके निम्न शब्द खास तौर से ध्यान में लेने योग्य हैप्रसादजी के कर कमलो द्वारा जुलाई १९५७ म श्रावण "सस्था को मैंने जन्म दिया और अापने उसे सीचकृष्गा प्रतिपदा को सानन्द सम्पन्न हमा है। उत्सव से। सिंचाकर तथा पालपोष कर बड़ा किया है. इसलिए अगले दिन बाबू छोटेलालजी साह शान्तिप्रसादजी से सस्था से जो प्रेम मुझे तथा प्रापको हो सकता है वह उनके निवास स्थान पर मिले और वीर-सेवा-मन्दिर की दूमरो को नहीं। इसी तरह सस्था की हानि से जो दुःख आर्थिक स्थिति उनके सामने रखी और बतलाया कि कष्ट मुझे और पापको पहुँच सकता है वह तीसर को सस्था को १५ हजार की तत्काल प्रावश्यकता है । साहजी नहीं। मैं अब वृद्ध हो गया हूँ और इधर रुचि मे भारी ने १५ हजार की सहायता देना स्वीकार किया, जो बाद परिवर्तन हो गया है, इसीलिए सस्था की जिम्मेदारी को उनसे प्राप्त हो गई। उठाने और उसका ठीक काम करने में असमर्थ बन गया ___इन सब बातों से स्पष्ट होता है कि बाबू छोटेलालजी हूँ। ऐसी स्थिति में स्वाभावत. पाप पर ही उसकी संभाल वीर-सेवा-मन्दिर से कितना अधिक प्रेम रखते थे, भवन और सचालन का सारा भार पा जाता है । फिर (मापने निर्माण का कार्य भी उन्होने कई महीने स्वयं खड़े होकर. तो कलकत्ता महोत्सव के अवसर पर) लगभग बीस तथा अपने स्वास्थ्य की बलि चढ़ाकर कराया है। हजार जनता की उपस्थिति में अपने को मेरा पुत्र घोषित अनेकान्त के साथ तो पापक। शुरू स ही गहरा प्रेम था, करते हुए निश्चित रूप से मेरा उत्तराधिकारी होने की जिसे कई बार अनेकान्त मे प्रकट किया जा चुका है। घोषणा भी की थी, जिस पर जनता ने भारी हर्ष व्यक्त मापने अनेकान्त का समय-समय पर स्वय सैकडो रुपये किया था। तब पत्रों में मेरा उत्तराधिकारी के लिए की सहापता ही प्रदान नहीं की बल्कि दूसरों से भी बहुत तलाश की विज्ञप्ति कैसी? मेरे उत्तराधिकारी प्राप कुछ सहायता दिलवाई है। पीछे चौदहवें वर्ष जुलाई हैं:-मैं बड़ी खुशी के साथ सस्था का उतराधिकार १९५७ के बाद से जब अनेकान्त का प्रकाशन कई वर्ष आपको सौपना चाहता हूँ, अतः उसको स्वीकार करने में तक बन्द रहा तब प्रापने ही सेठ मिश्रीलालजी प्रादि जरा भी मानाकानी नहीं करनी चाहिए-अपने प्रण कुछ सज्जनों का सहयोग प्राप्त करके अप्रैल १९६२ से तथा अपने वचन का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए, एक हा । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और बीरसेवामग्घिर के प्रेमी श्री बाबू छोटलालासी १५० बार मुझसे उत्तराधिकार लेकर फिर पाप चाहे जिसको करने के लिए बहुत लालायित थे, परन्तु नही पा सके सौरें या अपना उत्तराधिकारी बनावे, मैं तो प्रापको और न ही कुछ कर सके। अभिनन्दन ग्रन्थ जो पापके सौंप कर निश्चित हो जाना चाहता हूँ।" लिए तैयार हो रहा था उसे भी पाप नहीं ले सके। यह सब प्रलंध्यशक्ति भवितव्यता का ही कोई विधान जान इसके पहले भी मैंने दो तीन बार प्रापको उत्तरा- पड़ता है। निःसंदेह भाप समाज की एक बड़ी विभूति धिकार संभालने के लिए लिखा तथा प्रेरणा की है । एक थे, नि.स्वार्थ सेवाभावी तथा प्रसिद्धि से दूर रहने वाले बार तो मैंने ट्रस्ट कर देने से पहले यहाँ तक भी लिख एक परोपकारी सज्जन थे। कलकत्ता महोत्सव के अवसर दिया कि पाप पुत्र के नाते मेरी निजी सपत्ति का भी पर मापने अपना शेष जीवन वीरशासन की सेवा के लिए उत्तराधिकार सभाले, जिसे मैं अपने जीवन मे ही आपके अर्पण किया था। वीरशासन को अवतरित हुए ढाई सुपुर्द कर देना चाहता हूँ। ऐसा होने पर मैं अपने निज हजार वर्ष हो जाने की यादगार में पाप विपुलाचल पर की कोई चीज साथ न लेकर जो वस्त्र पहने हुए हँगा एक कीर्तिस्तम्भ की स्थापना करना चाहते थे, जिसके उन्ही के साथ अकेला घर से बाहर चला जाऊंगा । परन्तु लिए महोत्सव के अवसर पर वहां उत्तम संगमरमर पर आपने मेरे किसी भी लिखने तथा प्रेरणा पर कोई ध्यान उत्तकीर्ण हुए एक स्मृति-पट्टक (Memorial Tablet) नही दिया और माप मेरा उत्तराधिकार प्राप्त किये बिना की योजना की गई थी; परन्तु रोगाक्रान्त हो जाने के ही स्वर्ग सिधार गये हैं, यह एक बड़े ही दु.ख तथा खेद कारण वे अपनी उस इच्छा को पूरा नहीं कर सके । का विषय है । आपके इस वियोग से मुझे कष्ट का पहु- हार्दिक भावना है कि परलोक मे मापको सुखशान्ति की चना स्वाभाविक है । वीरसेवा मन्दिर तथा अनेकान्त को प्राप्ति होवे और आप अपनी शुभ इच्छामो तथा समाज जो भी क्षति पहुँची है उसकी शीघ्र पूर्ति होना कठिन है। एव जिन शासन की सेवा-भावनाओं को अगले जन्म में पाप कई वर्ष से दिल्ली पाने और सस्था की सुव्यवस्था पूरा करने में समर्थ होवे। (एटा १५ जून १९६६) एक निष्ठावान साधक जेनेन्द्रकुमार जैन स्वर्गीय बा. छोटेलालजी के सम्पर्क में पहली बार तभी से अनुभव करता पाया हूँ। वह भी अपनी पोर से जब मैं प्राया तब उनकी अवस्था ३० के लगभग थी। मेरे लिए अभिभावक तुल्य रहे है। यह तो मेरा ही मैं बालक ही था और माता जी के साथ तीर्थ दर्शन करता दुर्भाग्य था कि जनों के सामाजिक जीवन से बिछड़ता-सा हुमा पहली मर्तबा कलकना पहुंचा था। उस समय भी चला गया। किन्तु बाबू छोटेलाल जी का कृपा भाव मुझ बाबूजी जैन समाज के नेता की तरह माने जाते थे। पर सदा बना रहा। प्रारम्भ में तो मैं कलकत्ता प्रवास सार्वजनिक सेवा कार्यों में उनकी लगन थी। और इस का अवसर माने पर उनके पास ठहरा भी था, उनका हृदयप्रकार के लगभग सभी प्रवृत्तियो मे उनका योग रहता वत्सल था उदार था । और उनकी सहायता मूक और था। शायद ही कोई संस्था हो जिसमे उनका सहारा न गुप्त हुमा करती थी। जैन सस्कृति और पुरातत्व मे उन्हे हो। मैं याद कर सकता हूँ कि माता जी को कलकत्ता में गहरी हाच थी। और तत् सम्बन्धी परिचय मोर बोध उनका विशेष अवलम्बन प्राप्त हुआ था, उस समय माता भी गहरा भौर विस्तृत था । वह बड़ी लगन और धुन के जी दिल्ली में जैन महिला थम नामक संस्था स्थापित प्रादमी थे, और जो मन में उठता उसको पूरा करके ही कर चुकी थी । अपने प्रति उनका अनुराग और अनुग्रह छोड़ते थे। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त दिगम्बर जैनों के प्रति तो उनके बहुतेरे उपकार हैं। ऐतिहासिक नोप्राखाली काण्ड के समय पावजी कई जगह मैं गया और यह देखकर विस्मय हुआ कि वहाँ पहुँचे थे, और जमकर एक डेढ महीने तक उस बाल छोटेलालजी के आदेश पर वहां की व्यवस्था निर्भर दुद्धर्ष परिस्थिति में निर्भर होकर सेवा कार्य किया था। है। उदयगिरि-खण्डगिरि जैसे एकान्त और निर्जन प्रदेश इन विद्वानों और कार्यकर्तामों को उनसे प्रोत्साहन प्राप्त में पहुंचकर उस दिगम्बर तीर्थ का आविष्कार और हुआ। उनकी गिनती न होगी। यद्यपि उनका अच्छा उद्धार उनके जैसे निष्ठावान साधक का ही काम था। बड़ा व्यवसाय था लेकिन उनका अधिकांश समय समाज मैं तो तब पहुँचा जब उत्कल की राजधानी भुवनेश्वर का की सेवा में व्यतीत हमा। कारी विचार मे उनकी श्रद्धा निर्माण समीप ही हो चुका था । किन्तु फिर भी उदयगिरि और लालसा न थी। वरन उनकी वृत्ति रचनात्मक थी। मौर खण्डगिरि का वह प्रखड नितान्त वीरान मा प्रतीत साहित्य के निर्माण और उद्धार का उन्हें चाव था, और होता था, दूर दूर इतने पड़े हुए जैन तीर्थों के उद्धार कार्य इस दिशा का उनका अभिप्राय बहुत अभिनन्दनीय है। का उनका योग देखा जा सकता है। जैनों विशेषकर वीरसवामन्दिर उनके जीवन की साधना की यन्तिम कति दिगम्बर जैनों के प्रति यद्यपि उनमे ममत्व भाव था पर के रूपमे हमे प्राप्त है । और पाशा करनो चाहिए कि उस वह उममे सर्वथा घिरे हुए न थे। मारवाड़ी रिलीफ सस्था का सब प्रकार का सहयोग इस रूप में प्राप्त होगा। सोसाइटी और इसी प्रकार की दूसरी सेवा समितियो मे कि वह समाज के लिए सरस्वती सस्थान का स्थान ले ले, उनका दायित्वपूर्ण योग रहा । और उस स्वर्गीय मारमा का समुचित स्मार6 बन सक। विचारवान सहदय व्यक्ति पन्नालाल साहित्याचार्य अभी जनवरी के प्रथम सप्ताह में भारतवर्षीय दि. हम और पण्डित जगन्मोहनलालजी उनसे मिलने गये । जैन विद्वत्परिषद की कार्यकारिणी के बाद वाराणसी मे अस्वस्थ होने के कारण वे मारवाड़ी हास्पिटल में प्रविष्ट कलकत्ता जाने का अवसर पाया । श्रीमान् प० जगन्मोहन थे। अलग कमरा था । बडी प्रसन्नता से मिले, हम लोग लालजी शास्त्री कटनी साथ थे। मार्ग मे अनेक विषयों चार दिन तक कलकत्ता रहे और चारो दिन उनस मिलते तथा व्यक्तियों पर चर्चा हुई। श्रीमान् बा० छोटेलालजी रहे । बीमार होन पर भी उनके मुख पर उद्विग्नता का कलकत्ता भी एक चर्चा के विषय थे। पण्डितजी ने उनके एक प्रश भी दिखाई नहीं देता था। एक दिन शाम को विषय मे जो अपने अनुभव सुनाये उनसे बा० छोटेलालजी हम दोनों हास्पिटल गये तब उनके कमरे पर बाहर लिखा के प्रति मेरे हृदय में बहुत श्रद्धा उत्सन्न हुई। वैसे वे हया था कि मिलना मना है। हम लोग बाहर रुक गये पूज्य वर्णी जी के प्रत्यन्त भक्त थे और उनके निमित्त से पर जब बाबूजी को इसका पता चला तब उन्होन उसी उनका सागर भी एक-दो बार पाना हमा है। एक बार समय बुलाकर दुःख प्रकट किया। उन्हान भपन द्वारा साचत पुरातत्व का सामग्रा मूति मादि उनकी प्रत्येक वाणी से स्नेह टपकता था। ऐसा की फिल्म मन्दिर मे दिखलाई थी तथा स्वय ही उसका लगता था कि इस महापुरुष के हृदय में स्नेह का अगाध परिचय दिया था। उनके इस कार्य से जनता बहुत प्रभा- सागर लहरा रहा है। डा० भागचन्द्रजी भी उस समय वित हुई थी। वर्णी जी के प्राहार होने के उपलक्ष में सपत्नीक बम्बई से पाये उनके सौजन्य पौर प्रतिभाशालि. पापने सागर विद्यालय को एक हजार का दान भी त्व की बाबूजी बहुत समय तक चर्चा करते रहे। अनेक दिया था। उदारता और विवेक दोनों ही गुणों का उनमे विषयों पर चर्चा होते होते एक दिन मुझसे बोले कि अच्छा परिपाक देखने को मिला था। कलकत्ता पहुंचने पर मुझे आपसे एक शिकायत है। मैंने कहा कि क्या बाबू Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकसंस्मरण १४९ जी! बोले कि मापके अन्यों में पद्यानुक्रमणिका नही दुर्बलता अत्यन्त बढ गई थी। बोने-शरार तो बिल्कुल रहती इसके बिना अन्वेपकों को बड़ी कठिनाई होती है। घुल गया है अब इसमें कुछ रहा नहीं है और रहे इसकी बाबूजी की दृष्टि में बहुत पहले प्रादिपुराण का प्रथम इच्छा भी नहीं है। इच्छा सिर्फ एक बात की रह गई है संस्करण था। प्रारम्भ में उसमे पद्यानुकमरिणका नही दी कि हमने विदेशों तथा देवा में प्रकाशित अंग्रेजी पुस्तकों में गई थी। सोचा था कि स्वाध्यायशील जनता के लिए जनधर्म के विषय में किसने क्या उल्लेख किया है इसके कथा की मावश्यकता है श्लोक की नहीं, इसीलिए इतने मंग्रह का कार्य प्राराम किया था पर ससे मज पूरा करने विशाल ग्रन्थ की पद्यानुक्रमणिका कौन तैयार करे ? न की क्षमता शरीर में नहीं दीखती । यदि एक बार पन्छा प्रकाशक की प्रेरणा रही और न मेरा उत्साह । परन्तु होकर यह काम हो जाता तो लोगों को बड़ी सुविधा जब अन्य मामने पाया बाबूजी ने भारतीय ज्ञानपीठ को होती। हम लोगों ने कहा कि बाबूजी! किसी सहायक प्रेरित कर उसकी पचानुक्रमणिका बनवा कर पृथक से को रखकर यह महत्वपूर्ण कार्य करा लीजिये। बोले कि छपवाई पोर जो प्रतियां कार्यालय से चली गई थी उनके सहायक के हृदय में भी इस बात की लगन को तो काम खरीदारो के प्रति अलग से भिजवाई तथा शेष प्रतियो के बने । सहायक मिलते नहीं और मिलते हैं तो मेरी शारीसाथ लगवाई। उसके बाद तो उत्तरपुराण, पद्मपुराण रिक स्थिति गडबडा जाती है। जान पड़ता है यह कार्य १-२-३ भाग, हरिवंशपुगण तथा जीवन्धर चम्पू मादि अपूर्ण ही रह जायगा। जितना भी मेरा साहित्य ज्ञानपीठ से निकला सब के साथ यह सब कहते हुए उनके चेहरे पर उद्वेग सा छा अनुक्रमणिका दी जाने लगी। हरिवंशपुराण की अनु- गया, खांसी का दौरा भी उठ पडा और उससे वे परेशान क्रमणिका तो मैंने स्वय बनाई। बारह हजार इलोको को भी बहुत हए। हमारे हृदय में भी भाव उठा कि काश में अलग-अलग लिखकर उन्हे प्रकारादि क्रम से सगाना बडा अग्रेजी जानता होता तो सब काम छोड इनकी इच्छा पूरी कठिन काम था पर बाबूजी की प्रेरणा से मैंने किया । न करता परन्तु माषा का ज्ञान न होने से मैं कुछ कर ने केवल पधानुक्रमणिका ही, तीन चार हजार खास-खासकर सका । सामायिक का समय हो गया था इसलिए हदय में भौगोलिक, व्यक्तिवाचक, पारिभाषिक एवं साहित्यिक एक बिाद की भावना लेकर उस समय हम लोग उठकर सब्दो का भी प्रकारादि क्रम से सपरिचय सग्रह किया। चले पाये । पाते समय हम लोगों ने कहा कि बाब जी! समाज के अन्दर कौन व्यक्ति क्या कर रहा है? आप कम बोलिये । अधिक बोलने से शक्ति का ह्रास उसकी क्या स्थिति है इस सब की जानकारी बाबूजी होता है। बोले कि वैसे हम कम ही बोलते हैं मिलते भी रखते थे। अभी तीर्थयात्रा के प्रसङ्ग से हमारे मित्र कम है पर पाप लोण कब कब पाते हैं, मिलने पर प्रापसे रतनलाल जी कटारया केकडी सागर पाये। बोले कि बात किए बिना कसे रहा जा सकता है। पिताजी के (मिलापचन्द्रजी कटारया) बहुत सारे निबन्ध अन्तिम दिन प्राते वक्त जब मिलने गये तब बोले बाबू छोटेलालजी ने वृहद् संग्रह के रूप मे छपवाये है इस पाज हमारी तबियत ठीक है। रात के उस दौर के बाद भावना के साथ कि ये महत्वपूर्ण निबन्ध प्रकीर्णक दशा मे खासी का कोई जोरदार दौरा नहीं पाया। ऐसा जान अखबारो की फाइलों में ही पड़े रह जावेगे। मुझे लगा पडता है कि हम पच्छे हो जावेगे। डाक्टर का नाम में कि बाबूजी की दृष्टि सर्वतोमुखी है किसी विद्वान् की भूल गया..."बहुत परिश्रम कर रहे है। उत्तम कृति व्यर्थ ही न पड़ी रहे इस बात का इन्हें कितना भी यह समाचार सुनकर कि २६ जनवरी को बा. ध्यान है। छोटेलालजी का स्वर्गवास हो गया है, हृदय पर गहरी एक दिन सन्ध्या समय हम लोग बैठे हुए थे। नर्स चोट लगी। लगा कि एक विचारवान् सहृदय व्यक्ति इजेक्शन देने मायी पौर देकर चली गई। बाबूजी दुर्बल- समाज से उठ गया। मैं शोक-संतप्त हृदय से स्वर्गीय बा. काय तो पहले ही से थे पर उस समय बीमारी के कारण जी के प्रति अपनी नम्र श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक संस्मरण म. ज्योतिप्रसाद जैन मेरी पीढी. अपने किशोरकाल में समाज के निम्न महानगरी में कई दिवस पर्यन्त मनाया गया। अनेक किसानों त्यागियों एवं नेतामों से अत्यधिक प्रभावित रही प्रौढ जनाजैन विद्वानों ने उसमें भाग लिया। बाबूजी के है उनमें प्रमुख थे गुरुगोपालदास बरैया, ब. शीतल, संकेत पर मुलार साहब को 'प्राक्तन विद्याविचक्षण' वर्णीत्रय (पं. गणेशप्रसाद, पं. दीपचन्द और बाबा जैसी सार्थक उपाधि से विभूषित किया गया। इस महोभागीरथ), महात्मा भगवानदीन. पं. नाथूराम प्रेमी, त्सव की सफलता का प्रथ से अन्त तक सर्वाधिक श्रेय पं. जुगलकिशोर मुख्तार, वा० सूरजभान वकील, वैरि० बाबूजी को ही है । किन्तु वह इतने से ही सन्तुष्ट नहीं जगमन्धरलाल जैनी और बैरि० चम्पतराय। इनमें मे हुए। उन्होंने इसी उपलक्ष में वीरशासन संघ नाम से एक कई एक के साथ तो कोई सम्पर्क भी नहीं हो पाया, संस्थान की विशाल योजना बना डाली और उसके लिए शेष के साथ अल्पाधिक साक्षात् एवं परोक्ष सम्पर्क रहे। अपने वैयक्तिक प्रभाव एवं सम्पर्कों का लाभ उठाकर किन्तु सर्वाधिक सम्पर्क उनमें से केवल मुख्तार साहब के दम लाख रुपये के दान की स्वीकृति कुछ एक श्रोमानो से ही साथ रहा जो अब तक चला पा रहा है। वीरसेवा- प्राप्त करली। मन्दिर की सरसावा में स्थापना के बाद जब उन्होने योजना बन गई, दान की स्वीकृतिएँ भी कुछ प्राप्त हो 'भनेकान्त' मासिक निकालना प्रारम्भ किया तो मैं प्रारम गई, उसमें से दशमांश के लगभग शीघ्र ही नकद प्राप्त से ही उसका पाठक बना, उसके लिए अपने नगर से भी हो गया था-ऐमा सुना गया था, और शेष के लिए महायतादि भिजवाने के भी प्रयत्न किये। मुख्तार साहब विस्वास था कि कार्य प्रारम्भ होते ही मिल जायेगा। प्रब की प्रेरणा से ही मैं उसके लिए लेख भी लिखने लगा। प्रश्न था कि यह कार्य कहाँ और कैसे प्रारम्भ किया संभवनया प्रनेकान्त में प्रकाशित मेरे लेखों को देखकर जाय । अनेक कारणों से, जिन में स्वयं की सुविधा भी ही स्व. बाबू छोटेलाल जी का ध्यान मेरी मोर प्राकष्ट सम्मिलित थी, कार्य का प्रारम्भ कलकत्ता मे ही करना हुमा । मुख्तार साहब के वह मनन्य भक्त थे और वीर निश्चित हुपा । दूसरा प्रश्न कार्यकर्ता का था। बहुत सेवामन्दिर के प्रवान स्तम्भ थे। कुछ ऊहापोह करने के बाद बाबूजी और मुख्तार साहब यह मुख्तार साहब ही थे जिन्होंने वर्तमान युग में की दृष्टि मुझ पर पटकी-न जाने क्यों। मैं उस वीरशासन जयन्ति के मनाने का ॐ नमः एव प्रचार समय तक मेरठ से प्राकर लखनऊ में जम चका था। किया। मनेकान्त में कितने ही लेख लिखे और वीरसेवा- यहा कारोबार जमा लिया था, बच्चे छोटे-छोटे थे। बाबू मन्दिर में प्रतिवर्ष यह उत्सव मनाया जाने लगा । मुख्तार जी और मुख्तार साहब के स्नेह एवं प्राग्रहपूर्ण पत्र प्राने साहा की सतत् प्रेरणा के फलस्वरूप बा. छोटेलालजी ने लगे। युवावस्था थी, साहित्यिक एवं सामाजिक कार्य वीरशासन के साई-द्वि सहस्त्राब्द महोत्सव को एक बड़े करने का शौक था और ऐसे दो पादरणीय बुजर्गों का पैमाने पर मनाने की सुन्दर योजना बनाई और उसे स्नेहपूर्ण निरन्तर अनुरोष-ना नहीं कर सका, पौर सफल बनाने में जुट गये। १९४०ई० में वह महोत्सव अन्तत: एक दिन कलकत्ता जा पहुंचा। श्रावण शुक्ल प्रतिपदा के प्रातः शासन प्रवर्तन की पुण्य- हबड़ा स्टेशन पर प्रातः के समय गाड़ी पहुँची। स्थली विपुलाचल पर प्रारंभ होकर तदुपरान्त कलकत्ता सामान उतार कर प्लेटफार्म पर रक्खा और यह सोच भी Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक संस्मरण नहीं पाया था किपर चला जाय कि सामने की पोर दृष्टि वे भी शायद वचन पालन में टालमटोलकर रहे थेपड़ी-एक लम्बे छरहरे बदन के भद्र पुरुष, बन्द गले का मौखिक 'हाँ, हो तो वह लोग कर देते थे किन्तु उनकी कोट, धोती, और सिर पर टोपी, मन्दगति से मेरी भोर योजना के प्रति कोई सक्रिय सहयोग तो क्या उत्साह भी बढ़ रहे थे। मन में हुमा कि कहीं यही तो बा० छोटेलाल प्रदर्शित नहीं करते थे। जी नही है ? इतने मे ही उनके शब्द 'ज्योतिप्रसाद जी ऐसे ही समय कलकत्ता में भयंकर दंगा हो गया और हैं ?' कर्णगोचर हुए अभिवादन प्रति अभिवादन हुआ। मुख्तार साहब के कलकत्ता के लिए रवाना होने की कुली से कहा सामान उठायो। स्टेशन के बाहर उनकी सूचना मिली । उन्हें स्टेशन से लाने का भार मुझे सौंपा घोड़ा गाड़ी खड़ी थी। नभवन प्राये। कमरा पहले से गया, शायद इसीलिए कि कोई, अन्य व्यक्ति तयार ही ही ठीक किया हुआ था। स्नान, भोजनादि हुमा । सब नही हमा। दाम, बस, रिक्शा सब बन्द थीं, बाजार बन्द बातों में उनकी प्रबन्ध पटुता व्यक्त थी। मध्याह्न के । मध्याह्नक थे, मार्ग निर्जन थे, सड़कों पर कड़े व गन्दगी के ढेर लग समय बाबूजी फिर मेरे कमरे मे पधारे, लगभग दो घट रहे थे, बीच-बीच मे कहीं-कही दगाइयों के गोल या पुलिस विभिन्न विषयो पर वार्तालाप हमा। प्रागामी तीन-चार अथवा मिलिटरी नज़र पाती थी। साहस करके गलियो दिनो मे वह अपने साथ ही बेलगछिया ले गये, स्व. बा. गलियो होता हुप्रा किसी प्रकार हबड़ा स्टेशन पहुंचा। निर्मलकुमार जी, सेठ बलदेवदास सरावगो प्रादि अपने सारा स्टेशन देख डाला मुख्तार सा० का पता नहीं था। धनी इष्टमित्रो एवं सहयोगियो के मकानो पर ले गये पूछताछ करने पर ज्ञात हुमा कि गाड़ी दगे के कारण उनसे परिचय कराया। कलकत्ता का प्रसिद्ध कातिकी यहाँ न पाकर स्याल्दह स्टेशन पर गई है। हताश वापस रथोत्सव निकट था उसके लिए अग्रेजी मे सचित्र परि लौटा । स्याल्दह का मार्ग ज्ञात नही था, भवन से कोई चायिका लिखने के लिए मुझे कहा-बंगाल के अग्रेज जैनी अथवा कर्मचारी साथ चलने को तैयार नही हुमा । गवर्नर तथा अन्य ऊँचे अधिकारियो को मार्ग मे एक महल प्रत: बाबूजी को सूचना देने के लिए उनके मकान की के बराडे से यात्रा दिखाने की योजना थी, यह पुस्तिका मोर चला । मार्ग में एक गली के मोड़ पर कुछ लोग विशेष रूप से उन लोगो मे ही बांटी जानी थी। पुस्तिका खडे थे. सामने थाने पर मशीनगर्ने लिए मिलिटरी खडा बनवाय, प्रस म स्वय बठकर छपवाई। थी, उसके प्रागे वाली सड़क बाबूजी के मकान की ओर बाबूजी व उनके मित्रो को वह पसन्द आई। जाती थी। देखते-देखते ही उस बड़ी सड़क पर एक फौजी लगभग डेढ़ मास मैं कलकत्ता रहा । बाबूजी से प्रायः जीप पाई कि किसी ने उस पर कुछ फेका और वह धड़नित्य ही एकाधिक बार भेट वार्तादि होती थी, वयाक्तिक घड़ जलने लगी, उधर मिलिटरी वालों ने चारो पोर प्रसग भी चलते थे, प्रायः कोई पर्दा न था, उनका एक गोलियां चलानी शुरू कर दी। जो लोग जहाँ खड़े थे प्रात्मीय जन ही बन चला था। किन्तु जिस कार्य के भाग चले । एक गोली मेरे घर के पास से ही निकली। लिए पाया था उसके प्रारम्भ होने की कोई सुरत नहीं किसी तरह भागकर भवन पाया। मन न माना. कुछ देर दिखाई दे रही थी। कई बार कहा कि कोई स्थान, बाद एक दूसरे मार्ग से फिर बाबूजी के यहां पहुंचा। अस्थायी ही सही, निश्चित करके, आवश्यक पुस्तक संग्रह मुख्तार साहब भी किसी तरह वहां पहुँच ही गये । इस पौर प्रारम्भिक कार्य शुरू कर दिया जाय । परन्तु वे अवसर पर कुछ प्रप्रिय प्रसंग भी हुमा, जो न लिखा टालते ही रहे । उन दिनो उनका स्वास्थ्य भी कुछ ढीला जाना ही उचित है। रहने लगा, जैसा कि उनके साथ गत पच्चीस वर्षों में दगा समाप्त हुमा, शान्ति स्थापित हुई। कई दिन बहुधा होता रहा है, उस समय मानसिक उद्विग्नता के मुख्तार साहब भी कलकत्ता रहे। मैंने उनसे कहा कि इस भी कतिपय वैयक्तिक कारण रहे प्रतीत होते है। उनके प्रकार व्यर्थ पड़े रहना तो मुझे अच्छा नहीं लगता। जिन सहयोगियों ने प्रार्थिक सहायता के वचन दिये थे अन्ततः एक दिन उन्होने स्वय ही कहा कि यहा का कुछ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२ . ठीक नहीं है, मुझे तो यहाँ कुछ होता जाता दिखाई उन्होंने बहुत कुछ कराया है। नहीं देता, बाबूजी से काफी चचा हुई, वह भी विवश हा उपरोक्त घटना के पश्चात लगभग दो वर्ष तो उनका प्रतएव मैं कलकत्ता से विदा लेकर अपने घर माया। मेरे विषय मे मौन रहा, उसके उपरान्त फिर पत्र पाने इस प्रवास में मैं बाबू छोटेलालजी के पर्याप्त निकट जाने लगे जिनमें वही पूर्ववत् स्नेह था। उनके साथ सम्पर्क में पाया, उनके स्वभाव और व्यक्तित्व को पर- अन्तिम भेंट दिसम्बर सन् १९६३ में पारा में सिद्धान्त खने का भी अवसर मिला । समाज के उत्थान और जैन भवन की हीरक जयन्ती पर हुई-उस प्रायोजन के वह संस्कृति की प्रभावना उनके मन की चीज थी, उसके लिए. स्वागताध्यक्ष थे। बड़े प्रेम से मिले । गत वर्ष जब उनके कुछ भी करने का अवसर मिले सदैव तत्पर रहते थे। अभिनन्दन समारोह के मनाये जाने के समाचार मिले तो विद्वानों के लिए उनके हृदय मे सहज वात्सल्य एव पादर- बड़ा हर्ष हुमा-उनके अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए दो लेख भाव था। लेखकों, साहित्यिकों तथा अन्य कार्यकर्तामो भी भेजे । किन्तु उनके जीवन में उनका वह अभिनन्दन को प्रेरणा एव प्रोत्साहन देने में कभी पीछे नहीं रहे, समारोह न हो सका शायद, अब वह स्मृति ग्रन्थ के रूप दूसरी पोर अपने धनी मित्रो को भी समाज एव सस्कृति मे प्रगट हो । जीवन की नश्वरता पर लोकहित, समाजके हित मे द्रव्य लगाने की प्रेरणा दो मे मोर भी अधिक हित, अथवा संस्कृति के हित में की गई सेवाएं ही विजपटु थे। स्वयं जो कुछ कर सके उसके अतिरिक्त दूसरों से यिनी होती हैं। संस्मरण होरालाल सिद्धान्त शास्त्री यों तो मैं श्रीमान बा. छोटेनालजी से अनेकान्त के की कोई व्यवस्था अवश्य करूंगा। इसके पश्चात् उन्होने जन्म-काल से ही परिचित था, परन्तु प्रत्यक्ष भेट का अव- प्राचार्य श्री जुगलकिशोरजी मुख्तार साहब से उक्त दोनों सर मिला मुझे उस समय, जबकि मैं वीर-सेवा-मन्दिर में ग्रन्थो के प्रकाशन के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया। नियक्त होकर पाया और वह हिसा-मन्दिर में स्थान मुख्तार साहब ने कहा कि ये दोनों ही ग्रन्थ प्रकाशन के पाकर अपना कार्य कर रहा था। योग्य हैं और वीरसेवा मन्दिर इन्हें प्रकाशन करने मे बात सन् १९५४ के प्रारम्भ की है, वीरसेवामन्दिर अपना गौरव अनुभब करता। किन्तु इस समय दिल्ली मे के लिए जमीन खरीदने के निमित्त वे दिल्ली पाये हुए थे वीरसेवा मन्दिर के निजी भवन के निर्माण का प्रश्न सामने और अहिंसा-मन्दिर में ही ठहरे हुए थे । एक दिन अवसर है, पाथिक समस्या है, इसलिये वह तो इनके प्रकाशन के पाकर मैंने उनसे सिद्धान्त-ग्रन्थों के मूलरूप के प्रकाशन- लिए इस समय असमर्थ है। आप इन्हें अपने वीरशासन के सम्बन्ध में चर्चा की और सानुवाद षट्खण्डागम सूत्र संघ कलकत्ता से क्यों न प्रकाशित कीजिए? मुख्तार सा० और कषायपाहड सूत्र की प्रेस कापी उन्हें दिखायी, साथ का परामर्श उनके हृदय में घर कर गया और उन्होंने ही इन ग्रन्थों के प्रकाशन-सम्पादनादि से सम्बन्धित सभी दोनों ग्रन्थों मे से पहले कसापपाहुडसुत्त का प्रकाशन अपने बातें उन्हें सुनाई। सुनकर और सम्मुख उपस्थित सर्व. संघ से करने का निश्चय किया। फलस्वरूप उक्त ग्रन्थसामग्री देखकर आश्चर्यचकित होकर बोले-मैं तो अभी राज सन् १९५५ मे वीरशासन सघ कलकत्ता से प्रकाशित तक बिल्कुल अंधेरे में था, माज यथार्थ बात ज्ञात हुई है। होकर समाज के सामने पाया। इसके प्रकाशन को रोकने इन दोनों प्रग्यों के मूलरूप को शीघ्र से शीघ्र प्रकाशन के लिए विरोधियों ने कोई कोर-कसर उठा न रक्खी. Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्मरण किन्तु पाप अपने निर्णय पर सुमेरुषत् मचल रहे। एक की थी और उनके भाई श्री नन्दलालजी ने उनकी ही कृशकाय निर्बल शरीर में इतनी दृढ़ता और प्रारब्ध कार्य प्रेरणा पर दस हजार रुपये भवन-निर्माण के लिए और भी को पूर्णरूप से सम्पन्न करने की अद्भुत क्षमता का मुझे दिये थे। इसके अतिरिक्त बाबूजी और उनके परिवार से उनके भीतर दर्शन हुमा। हजारों ही रुपये इसके मागे और पीछे और भी वीरसेवा सन् १९५४ के वीरशासन जयन्ती के दिन की बात मान्दर को प्राप्त हुए हैं । जो स्वयं देता है, वही वस्तुतः है। वीरसेवा मन्दिर का शिलान्यास २१ दरियागंज में दूसरों से दिलाने की सामर्थ्य रखता है। श्रीमान् साहू शान्तिप्रसादजी द्वारा होने वाला था, उसके शिलान्यास के पश्चात् इधर तो वीरसेवा मन्दिर के पूर्व वीरशासन जयन्ती मनाने का कार्यक्रम था। बाहर भवन-निर्माण का काम चालू हमा पौर उधर बाबूजी पश्चिम वाली गली में शामियाना खड़ाकर बैठने की सारी बीमार पड़ गये और स्वास्थ्य-लाभार्थ कलकत्ता चले गये। समुचित व्यवस्था भाषाढ़ सुदी १५ के शाम को की जा जब स्वास्थ्य कुछ ठीक हुमा और शीतकाल समाप्त होने चुकी थी। भाग्यवश रात्रि को मूसलाधार वर्षा ने सारे को माया, तब आप भवन निर्माण की गतिविधि प्रायोजन को पानी में बहा दिया। तब मापने रात भर देखने के लिए पुनः सन् ५५ के प्रारम्भ में दिल्ली प्राये । जागकर समीपवर्ती सुमेरु-भवन के मालिक ला० सुमेरुचंद्र उस समय तक लगभग निचली मंजिल बन कर तैयार हो जी से कहकर उनके मकान के नीचे का हाल खाली चुकी थी। जब मापने उसे देखा तो उसका रूप (प्राकार कराया और उसमें समारोह की समुचित व्यवस्था की। प्रकार) पापको पसन्द नहीं पाया, क्योंकि उसमें कोई बारिश में लथ-पथ होते हुए एवं दमा-श्वास से पीड़ित एक विशाल हाल न तो निचली मंजिल में निकला था होते हुए भी पाप रात भर सब सहयोगियों को साथ में और न ऊपरी मंजिल में ही निकल सकता था। तब लेकर जुटे रहे और यथासमय निश्चित कार्यक्रम को संपन्न आपने स्थानीय इंजीनियरों से सम्पर्क स्थापित कियाकरके ही मापने दम ली। इस समय की उनकी कर्तव्य- जिनमें राब. बा. उल्फतरायजी मेरठ और रा०ब. परायणता देखकर मैं दंग रह गया। बा० दयाचन्द्रजी दिल्ली प्रमुख थे। सारे नक्शे पर एक उक्त अवसर पर श्रीमान् साहूजी ने वीरसेवा मन्दिर / विशाल हाल बनाने की दृष्टि से पुनः विचार किया गया। |का शिलान्यास करने के पूर्व उसके भवन-निर्माण के लिए। मन्त में काफी तोड़-फोड़ के पश्चात् वर्तमान रूप स्थिर ग्यारह हजार रुपये देने की घोषणा की। बाबू छोटेलाल | हुप्रा । इस समय मापने अनुभव किया कि मेरे यहाँ बैठे जी घोषणा के सुनते ही तुरन्त उठकर बोले-क्या मैंने | बिना जैसा भवन में संस्था के लिए बनवाना चाहता हूँ, रुपया लेने के लिए पापके द्वारा शिलान्यास का प्रायोजन | वह नहीं बन सकेगा, तब पाप लालमन्दिर की नीचली किया है। पर जब माप स्वयं दे हो रहे हैं, तो मैं इतनी धर्मशाला में डेरा डालकर बैठ गये। रकम नहीं लूंगा। इस पर साहूजी ने पच्चीस हजार रु०/ इस समय तक गर्मी ने उग्ररूप ले लिया था। मगर देने को कहा, तो बाबूगी बोले-नहीं, मैं यह रकम भी माप प्रतिदिन प्रातः कार्य प्रारम्भ होने के पूर्व ही ७ बजे नही लूगा । तब साहू जी बोले-जो पाप क्या चाहते हैं ? लालमन्दिर से दरियागंज पहुँचते, काम को शुरू कराते, बाबूजो ने कहा-निचली मजिल बनने में जो कुछ भी सब और की देख-रेख करते और १२ बजे मजदूरों की खर्चा पायेगा, वह मापसे लूगा । साहूजी ने सहर्ष स्वीकृति रोटी खाने की छुट्टी होने पर माप स्वयं रोटी खाने लालप्रदान की और सारा हाल तालियों की गड़गड़ाहट से मन्दिर माते । लिया-दिया सा खा-पी कर तुरन्त ही एक गुज उठा। पहली मंजिल के बनने में पैतीस हजार खर्च घंटे के भीतर वापिस चले जाते और फिर ५ बजे शाम हुए और साहजीने सहर्ष प्रदान किए यहां यह उल्लेखनीय तक काम-काज देखते । ईंट, चूना, सिमेंट, लोहा, लकड़ी है कि बाबू छोटेलालजी और उनके बन्धनों ने चालीस मादि जरूरी चीजों के मंगाने की व्यवस्था करते और हजार में उक्त भूमि खरीद कर वीरसेवा मन्दिर को प्रदान मजदूरों की छुट्टी हो जाने के पश्चात् भी सब सामान को Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यथास्थान सुरक्षित रखाकर ६ बजे वापिस लालमन्दिर याद पा रहे हैं, जहां पर कि उनके साथ मुझे दिल्ली या माते । भोजन कर मुख्तार साहब से जरूरी परामर्श करते कलकत्ता के अनेक ख्याति प्राप्त विद्वानों, श्रीमानों एवं और एक बार फिर दरियागंज का चक्कर लगा पाते। अन्य विशिष्ट व्यक्तियों के पास आने-जाने का प्रसंग पाया इस प्रकार दिल्ली की मई-जून की गर्मी भर के पूरे दिन . और उन्होंने जिन शब्दों के द्वारा मेरा परिचय सामने तपस्या करते रहे । यहा यह उल्लेखनीय है कि वीरसेवा- वालों को कराया, उन्हें सुनकर मैं स्वयं लज्जा और मन्दिर में काम करने वाले हम लोग लालमन्दिर के नीचे सकोच का अनुभव करने लगता था, पर वे प्रशंसा के पुल के हाल मे खस के पर्दे लगाकर दोपहरी में पाराम करते बांधते न थकते थे । सन् १९५४ के पर्युषणपर्व पर मुझे रहते थे और हम लोगों को यह पता भी नहीं चलता था कलकता शास्त्र-प्रवचनार्थ जाने का अवसर प्राया। वे कि बाबजी कब पाये और रोटी खाकर वापिस दरियागंज कार लेकर लेने को स्वयं ही स्टेशन पहचे और अपने ही काम की देखरेख को कब चले गये । कोई धनिक व्यक्ति निवास स्थान पर ठहराया । दोनों समय वेलगछिया मंदिर निजी मकान बनवाने में भी इतना श्रम नहीं करता, में ही शास्त्र-प्रवचन करता था। वे बराबर पूरे समय तक जितना उन्होने वीरसेवा मन्दिर के भवन-निर्माण के लिए चुपचाप मेरा प्रवचन अांख बन्द किये सुनते रहते । मैं तो किया। समझता कि रात को खांसी की पीड़ा से नींद न पाने के ___ महीनों बाबूजी के साथ रहने का तथा उनकी देख- कारण बाबू जी झपकी ले रहे हैं, पर घर पाने पर जब वे रेख में काम करने का मुझे सौभाग्य प्राप्त हुआ है और कहते कि पं० जी आज मापने अमुक बात बहुत अच्छी पत्र-व्यवहार तो पूरे बारह वर्ष तक (मरण से २ मास या नवीन वात कही है, तब मेरा भ्रम दूर होता और पूर्व तक) चालू रहा । इस लम्बे समय में अनेको प्रकार जान होता कि वे ग्राख बन्द किये बैठे रहने पर भी से मुझे उनके अन्तरंग और बहिरंग रूप को देखने और प्रत्येक शब्द कितने जागरूक होकर सुना करते थे। माने. परखने का अवसर मिला है। यहां यह सम्भव नही कि जाने वाले व्यक्ति के सुख-दुख, खान-पान मादि का बे उन सब का उग्लेख कर सकू। पर इतना पाजतक के कितना ध्यान रखते थे, यह प्रत्येक परिचय में मानेवाला अनुभव के आधार पर निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि व्यक्ति जानता है । पत्रों द्वारा वे कितना प्रोत्साहन देते ये हृदय के अत्यन्त स्वच्छ और सरल थे। सामने प्राये रहते थे, यह सब को ज्ञात है। मेरे पास उनके एगभग हए व्यक्ति के मनोगत भावों को पढ़ने और समझने को १५० पत्र मुरक्षित हैं और अनेकों शिलालेख मादि वाले उनमें पदभुत-विलक्षण शक्ति थी और वे मनुष्य रूपी कागजात भी, जिनता कि वे मेरे द्वारा सम्पादन चाहते हीरों के पारखी सच्चे जौहरी थे। परिचय में पाने वाले थे। माज उन सब बातों की याद करके मांखों में आंसू व्यक्ति के विशिष्ट गुणों पर उनकी दृष्टि जाती पोर पा रहे हैं कि ऐसा प्रेरणा देने वाला व्यक्ति स्वयं ही उसकी प्रशंसा करते नहीं अघाते । मुझे ऐसे अनेकों अवसर स्मरणीय बन गया है। विनम्र श्रद्धांजलि कपूरचन्द वरैया मैं सदैव ही भाद्रपद मास में पयूषण पर्व पर पूज्य जयन्ती' में सम्मिलित होने का सुअवसर प्राप्त हमा। वर्णीजी के पास पहुँचता था। उन दिनों पू० वर्णीजी का जयन्त्युत्सव में शामिल होने का प्रमुख पाकर्षण था स्थायी मुकाम 'जैन उदासीनाश्रम, ईसरी' में ही निश्चित कलकत्ता के साहू शातिप्रसाद जी जैन की अध्यक्षता तथा हो गया था। प्रति वर्ष 'वर्गी-जयन्ति-समारोह' वहां बा. छोटेलालजी की देख-रेख मे पाश्रम को सुव्यवस्था। मनाया जाता था; किन्तु एक बार मुझे भी उनकी 'जन्म- बाबूजी एक सप्ताह पहले पाश्रम में मा गये थे और Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिनम्र भडांजलि उत्सव को सफल बनाने में बड़ी परता से कार्य में जुट भौर साहित्य के क्षेत्र में सचमुच जिस निःस्वार्थभाव मौर गये थे। उनके कार्य करने की लगन, दृढ़ता और साहस तत्परता से उन्होंने कार्य किया, वह किसी भी व्यक्ति के देखकर मैं विमुग्ध था। समय पाकर मैं अपने एक साथी लिये अनुकरणीय और स्पर्धा की वस्तु है। भाज वह के साथ उनके निवासस्थान पर एकाएक पहुँच गया। हमारे बीच में नहीं, किन्तु अपने पीछे वे जिन कार्यों की प्रथम परिचय में ही वह मुझे शान्त और प्रसन्नचित्त एक लम्बी सूची छोड़ गये हैं, उन्हें कालान्तर मे पूरा दिखाई दिये। करीब थोड़ी देर ही उनसे वार्तालाप हुमा, करना समाज का कर्तव्य है। लेकिन उतने ही समय में मुझे बहुत हर्ष का अनुभव हुमा । श्वास रोग से ग्रसित, दुबले-पतले छरहरे शरीर मुझे वे दिन अच्छी तरह याद हैं जब 'वीर-सेवा. को देखकर सहसा विश्वास नहीं होता था कि यह वही मन्दिर' से पं० जुगलकिशोर मुख्तार 'युगदीर' के सम्पादबा० छोटेलालजी हैं, जिन्होने अपने जीवन का अधिकाश कत्व में 'अनेकान्त' का मासिक प्रकाशन होता था, जो भाग जैन पुरातत्व, इतिहास तथा साहित्य व समाज को जनवर्म के मूलभूत सिद्धान्त, इतिहास तया पुरातत्व शिलासेवा में अर्पण कर दिया ! पूज्य वर्णीजी के प्रति उनकी लेख सम्बन्धी उत्तमोतम सामग्री से सुसज्जित रहता था। अपूर्व भक्ति थी जो उनके गुणानुराग को ही प्रकट करती यह पत्र उन दिनों अपनी चरम प्रसिद्धि पर था, जिसमें थी। प्रबन्ध कुशलता में वे मानो एकमेवाद्वितीय थे। बाबूजी की मूक प्रेरणा बराबर बनी रहती थी। अब तो २६ जनवरी १९६६ को उनके स्वर्गवास का समा- सिर्फ उनके कार्यों का एक लेखा-जोखा ही रह गया है। चार पाकर हृदय को एक माघात लगा। यह प्राघात मुझे सन्देह है कि उनका यह अवशिष्ट कार्य पूरा हो स्वाभाविक था, क्योंकि समाज में अब ऐसा निरभिमानी, सकेगा, फिर भी उनकी वह सौम्यमूत्ति निरन्तर हमे मागे दानी, परोपकारी साधुमना व्यक्ति कहां, जो जीवन भर बढ़ने की प्रेरणा देती रहे, यही इस अवसर पर मेरी उनके अपनी भूक साधना से जैन-जगत में छाया रहे। समाज प्रति विनम्र श्रद्धाजलि है। श्रीमान गुरुभक्त धर्मानुरागी सेठ छोटेलालजी जैन सरावगी कलकत्ता निवासी के करकमलों में सादर समर्पित अभिनन्दन-पत्र प्राज के युग में जनम की जाति व प्रभावक श्री को प्रकाशन तथा प्राचीन ग्रंथ संशोधन लालसा की कामना धर्मनेता प्राचार्यरत्न १०८ देश मूषण जी महाराज के दर्श- मापके हृदय में हमेशा बनी रहती है। इतना ही नहीं बल्कि नाथं पधारने के कारण प्रापके दर्शन का लाभ प्राप्त हना कलकत्ता जैन समाजमें भी प्राप एक गौरवशाली व्यक्तिहैं। यह हमारे सौभाग्य की बात है। उसी माफिक हमारे दक्षिण जैन समाज के लिये भी हम लोग मापके नामको बहुत दिनोंसे सुनते थे व पापकी माप प्रत्यन्त गौरवशाली है इसलिये हम लोग यही चाहते तारीफ सुनते थे परन्तु आज प्रत्यक्ष दक्षिण काशी कोल्हापुर हैं कि प्राप इसी प्रकार धम' जाति, धर्म प्रभावना, में पाने का शुभ अवसर प्राप्त हमा यह मत्यन्त श्लाघनीय समाज सेवा, अहिंसा का प्रचार, राजनीति पादिक कार्यों है इसलिये माज हम सब दक्षिण निवासियों को भापकी मे हमेशा अग्रगण होकर जैनधर्म की जागति करते रहें। सेवा करने का अवसर प्राप्त हुमा नहीं, तो भी केवल वचनों यही हम सब जैनसमाज हमेशा इच्छा रखते हैं और मापकी से ही आपका स्वागत करके हम लोग कृतार्थ मानते हैं। दीर्घ आयु की कामना करते हुए बार-बार धन्यवाद देते हैं। हे महानुभाव मापकी हृदय भावना, धर्म प्रभा- कोल्हापुर पापके जिज्ञासु बना, न्याय, नीति, सामाजिक सेवा और जैन-साहित्य ता. ११.४.६४ स. दि. जैन समाज, कोल्हापुर Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री छोटेलालजी सरावगो के करकमलों में गनी ट्रेडर्स एशोसिएशन द्वारा सादर समर्पित अभिनन्दन-पत्र मान्यवर बन्धु किया उसी का फन था कि सन् १९४२ से सन् १९५१ गनी ट्रेडर्स एसोसिएशन की और उसके माध्यम से तक की अवधि में इस एसोसिएशन ने जनकल्याण के समस्त वोरा हैसियन व्यवसाइयों की जो दीर्घकालीन कार्यों पर विशेषकर बंगाल में लगभग पाच लाख रुपये सेवाएँ मापने की हैं, उनके उपलक्ष में आज आपका खर्च किये। अभिनन्दन करते हुए हमें अतीव प्रानन्द हो रहा है। साहित्य और संस्कृति के उपासक, मतिमान संस्था, आपकी योग्यता और सेवावृत्ति केवल व्यवसाय पौर इस एसोसिएशन की स्थापना सन् १९२५ में हुई व्यवसायिक संगठन के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रही। थी मापका प्रतिष्ठान इनके आदि संस्थापकों में से है उसी संस्कृति, साहित्य और इतिहासान्वेषण की दिशा में प्रापने समय से प्राप लगातार बत्तीस वर्ष तक संघ की कार्य- जो साधना की है और जिस लगन से पाप उस कार्य कारिगी समिति के सदस्य रहे और दस वर्ष तक अवै. मे रत है उसे देखकर हमे और भी मानन्द का अनुभव तनिक संयुक्त मंत्री के पद को सुशोभित करते रहे क्रमशः होता है। सस्कति और इतिहास पर मापने हिन्दी और तीन वर्ष तक आप एसोसिएशन के उपप्रधान और दो वर्ष अग्रेजी की कई पुस्तके तया निबन्ध भी लिखे हैं जिससे तक प्रधान पद पर भी आसीन रह । पापको प्रशस्त आपकी अन्वेषण बुद्धि और सुलझी हुई दृष्टि का परिचय सेवाओं का यह सुदीर्घकाल न केवल एसोसिएशन के मिलता है। इतिहास में ही. वल्कि सारे बोरे बाजार के इतिहास म प्रेरणाकेश्रोत. स्मरणीय रहेगा। प्रारके व्यक्तित्व में अद्भुत प्रेरणा भरी है । सादगी नीर-क्षीर विवेको और सरलता का प्रादर्श प्रापको सदैव प्रिय रहा है। जब कभी गनी व्यवसाइयों के सामने कोई सकट यशोलिप्सा आपको छू भी नहीं गई। मापको नाम से काम अथवा समस्या माई तो उसके निवारण और समाधान प्यारा रहा है। आपने जो भी कार्य किया है उस पर के लिए पापने जिस उत्साह, तत्परता और अध्यवसाय कर्तव्य-परायणता, निष्ठा, त्याग और परिश्रमशीलता की का परिचय दिया वह कभी भी भुलाया नहीं जा छाप रही है। आपके इन गुणों से कितने ही युवकों को सकता । आपकी सबसे बड़ी विशेषता व्यापारियो के जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में प्रेरणा मिलती रही है। पारस्परिक विवादों को सुलझाने और तय करवाने की पद्धति थी। इस कार्य मे निष्पक्षता के आधार पर आपने श्रद्धेय, प्रापकी मुदीर्घ कालीन सेवानों के लिए हम परम जो ख्याति प्राप्त कर ली थी उसके कारण प्रापका निर्णय प्राभारी हैं और यह अभिनन्दनपत्र समर्पण कर हम अापके सबको सहर्ष स्वीकार होता था। इन सेवामों का यह परिणाम था कि एमोसिएशन ने बोरा हैसियन व्यवसाय प्रति श्रद्धा और प्रेम प्रगट कर रहे हैं। मार दीर्घायु हो में और उसके बाहर भी अत्यधिक प्रतिष्ठा प्राप्त की। पौर अपना जीवन सुख शान्तिपूर्वक व्यतीत करें यही निरभिमान सेवावतो शुभकामना है। सहज मानवीय संवेदना से प्रेरित होकर पापने इस कलकत्ता हम हैं आपके गुणानुरागी व्यवसायिक संगठन को जिस प्रकार मानव सेवा में प्रेरित दिनांक ११.१०.५८ गनी ट्रेडर्स एशोसिएशन के सदस्य Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मप्रेमी बाबू छोटेलालजी विशन चल जैन वा. छोटेलाल जैन सच्चे धर्मप्रेमी, मिलनसार, खुश- प्राखीरने या १९६१ के शुरू में "बोरसेवा मन्दिर" मिजाज सज्जन थे। मेरी प्रापसे लगभग ३० वर्ष दरियागज देहलो मे हुई। माप पूज्य वर्गीजी के प्रत्यन्त भक्त पूर्व की जानकारी थी। लेकिन सन १९४३ मे देहली से थे। दिसम्बर १९६४ मे उन्होने मेरे से पूज्य वर्णीजी के अजमेर बदली हो जाने के कारण मै १९५४ तक अजमेर "इस धूप" का नकशा बनाने के वास्ते कहा जो श्री मे रहा इसलिए इस बीच मे उनसे न मिल सका उसके सम्मेद शिखरजी में बनवाना चाहते थे उस पर मापने अपने बाद में अजमेर के दफ्तर से १९५५ में रिटायर होकर विचार रख । देहली पाया तव मेरे सच्चे प्रेमी बाबू पन्नालाल अग्र- उसके बाद वह मेरी सलाह से मेरे साथ "साहू सीमेंट वाल देहली निवासी से, जो वर्षों मेरे साथ रहकर जैन सरविस" नई देहली के चीफ इजिनियर में मिले और मित्र मण्डल देहली" के कार्यकर्ता रहते हुए जैनधर्म प्रचार श्री वर्णीनी के "इसघूर" का नकशा बनवाने के लिए का कार्य करते रहे हैं, मालूम हमा कि श्रीमान बा. छोटे चर्चा की। उसके बाद मैं और वह तपा नेशनल म्यूजियस लाल जी का विचार दरियागंज देहली मे एक "वीरसेवा नई देहली में गये, वहाँ के अधिकारी श्री कृष्णमूर्ति से मन्दिर" का भवन निर्माण करने का है। उसके बारे में, मिले। उन्होंने "इस पूर" के बहुत से नको दिखाए और प्रापमे कुछ सलाह लेना चाहते है । मे खबर पाते ही श्री तमाम संग्रहालय का दौरा कराकर प्राचीन कलापों के पन्नालालजी अग्रवाल के साथ बा. छोटेलालजी से देहली बात के लाल मन्दिर में मिला। बडे प्रेम से मापने बातचीत उसके बाद "साहू सीमेण्ट सविसेज नई वेहली" के की और भवन के बारे में प्रापने अपने विचार सामने रखे। जिनियर ने श्री पूज्य वर्णी जी को "इसप"का मकसा मैंने अपनी सेवाएं देने का वचन दिया। मापने मुझसे बताकर श्री.बाब छोटेलालजीकी सेवा में भेंट किया। तनख्वाह पर काम करने को कहा। पापको इतिहास, पुरातत्व तथा जैन धर्म से पासप्रेम इस पर मैं तैयार न हमा। मुझसे जो सेवा हो सकी पापाप अनुभवी थे।ौर परोपकारी जीव थे। परीबोंका फी की। उस समय भी प्रापका स्वास्थ्य खराब चल रहा सदा ध्यान रखते थे। जैन नव युवकों को रोजगार से भगाते था। मई सन् १९५६ मे, मैंने साह सीमेण्ट सरविस नई रहते थे। उनका अनेक जैन सस्थामों सम्बन्ध था और देहली मे सरविस करली । माप मेरे से म.प्र. के प्राचीन जैन धर्म प्रचार की सच्ची लगन थी। बड़ीवाद को हटाने क्षेत्रो के मन्दिरों प्रादि के जीर्णोद्वार के कार्य के बारे में के पक्ष में थे। ऐसे मनुष्य संसार में कम ही देखने में पाये पूछते रहते थे जो श्रीमान दानबीर साह शान्तिप्रसादजी जाते हैं जो दूसरों के हित के लिए अपने स्वास्थ की भी जन की भोर से हो रहा है. सुनकर बड़े प्रसन्न होते थे परवाह नहीं करते। पौर कहते थे कि श्रीमान साहजी ने यह बहुत बड़ा ठोस मुझे उनके निधन पर महान शोक है। उनके प्रति कार्य कराकर पुण्य कमाया है। श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ और श्रीजी से प्रार्थना करता हूँ उनसे मेरी माखरी मुलाकात लगभग सन् १९६२ के कि स्वर्गीय पात्मा को शाति प्राप्त हो।. Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रद्धांजलि प्रेमचन्द जैन मेरा बा० छोटेलालजी कलकत्ता के साथ सन् १९५६ में उन्हें बड़ा दुःख होता था। उनकी व्यक्तिगत महानता का परिचय उस समय हुमा, जब मैं वीरसेवामन्दिर का संयुक्त परिचय तो इसी से ज्ञात होता है कि उन्होंने सस्था को मंत्री बनाया गया । और थोडे ही समय के बाद उनके इतनी सहायता देने के बाद भी कभी अपने नाम की इच्छा साथ मेरा वह सम्बन्ध और भी गाढ़ा हो गया। नहीं की, और हमेशा यही कहा करते थे कि मैं अपने उन्होंने हमेशा मुझे अपने छोटे भाई की तरह माना और कर्तव्य का पालन कर रहा है। प्रजनों को जैन साहित्य वीरसेवामन्दिर का कोई भी कार्य मुझसे परा- की ओर आकर्षित करने और अनुसंधान की दृष्टि से जो मर्श किये बिना नहीं किया । मैंने देखा कि वीरसेवामन्दिर छात्रवृत्तिया दी, उनका यह कार्य भी स्मरणीय रहेगा। की पोर उनकी इतनी तीब्र लगन थी कि जिससे मैं भी उन्होंने जनधर्म को ऊंचा उठाने के लिए जितना कार्य संस्था की पोर पाकषित होता चला गया। सस्था की किया उतना शायदही किसी अन्यने किया हो। उनके पास उन्नति के लिये उन्होंने अपने स्वास्थ्य तक की भी परवाह इतिहास-पुरातत्व की जितनी सामग्री थी यदि वह सब नहीं की। और जिस लगन से उन्होने वीरसेवामन्दिर प्रकाशित हो पाती तो उससे कितनी महत्व की बातें भवन का निर्माण किया और उसकी देख-रेख में दिन-रात प्रकाश में आ जाती । मेरा तो उनके कुटुम्बियो से अनुलगे रहते थे, उन्हें उसके निर्माण की इतनी अधिक चिन्ता रोष है कि यदि वह सब सामग्री प्रकाशित करा सकें, तो रहती थी कि जितनी कि किसी को अपने निजी भवन की जैनधर्म का उससे महान् उपकार होगा। . भी नहीं होती। वीरसेवामन्दिर की ओर उनका घनिष्ट उनके निधन का तार रात्रि को जिस समय मुझे सुझाव देखकर यह स्पष्ट मालन होता था कि वे उसके मिला, तो मेरे हृदय को बड़ा धक्का पहुँचा। क्योंकि मैं अभिन्न अंग हैं। बीमारी के दिनों में भी उनके जितने भी हमेशा यही चाहता था कि वह एक बार दिल्ली पाकर पत्र माये उन सब में देहली पाने की तीव्र भावना पाई वीरसेवामन्दिर के कार्यो मे अपना सहयोग प्रदान करे। जाती है। परन्तु भाग्य को कुछ और ही मजर था और पर भावी को ऐसा मंजूर न था। मैं उनकी मत्यू को वे अपने अन्तिम दिनों में रुग्ण अवस्था के कारण दिल्ली प्रासानी से भुला नहीं सकता। और उनकी प्रति सच्ची माने में असमर्थ रहे। श्रद्धाजलि यही होगी कि उनके छोड़े हुए अधूरे कार्यों को पूरा किया जाय । इन्ही शब्दों के साथ मैं उनके प्रति यदि संस्था का एक पैसा भी दुरुपयोग मे पाये तो अपनी हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पित करता हूँ। संस्मरण श्री छोटेलाल जी के सम्बन्ध में क्या कहें। वह जैन समाज की तथा अनेकान्त धर्म की सेवा के लिए पूर्णत: समपित। -राजेन्द्रकुमार जैन Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दो संस्मरण ऐसा नहीं कहा जा सकता कि बाबू छोटेलाल जी मैंने कहा-बाजो जन अनुकूलता होगी तब अवश्य कलकत्ता हमारे बीच से इतनी जल्दी चले जायेगे। क्रूर पाऊँगा आप विश्वास कीजिये । कालगति के कारण अनिच्छित भाव से ग्राज आपके नाम प्राप सूरत दो दिन ठहरे इस बीच में प्रापसे ३-४ के साथ स्वर्गीय विशेषण लगाना पड़ा यह विधि की मर्तबा मिला, और मैंने देखा कि पाप में बेहद दर्जे की बिडम्बना ही मानी जायेगी। स्वर्गस्य को शांतिलाभ और आत्मीयता थी । आप जिससे मिलते थे उममें अपनी प्रापके परिवार को बाबूजी का असह्य वियोग सहन करने प्रात्मीयता उंडेल कर उसे अपना बना लेते थे यह पापकी की समता और क्षमता प्राप्त हो । बाबूजी के दो सस्मरण विशेषता थी। आप श्रीमानों में श्रीमान, विद्वानों में निम्नप्रकार हैं विद्वान, दानियो मे दानी, नेतामों में नेता, निस्वार्थ बाबू श्री छोटेलालजी जैन सरावगी कलकत्ता से मैं निष्काम सेवाभावियों में लोकप्रिय सेवक थे । प्रथम परितीन बार मिला हूँ। पापका नाम और आपके काम तो चय मे जो वार्तालाप हुग्रा वह स्मृतिस्वरूप चलचित्र के बहुत वर्षों से सुन रखे थे पर आपसे साक्षात्कार नहीं हुमा क दृश्य के समान आज भी मुझे दिख रहा है और भाप था। पर आज से १२ या १३ वर्ष पूर्व बाबूजी मेरे के वही शब्द कान मे टकरा रहे हैं ऐसा हो रहा है। भाग्योदय से सूरत पाये तभी सर्वप्रथम आपसे साक्षात्कार दूसरी बार प्रापसे मिलना तब हुमा जबकि मैं प्रात:हमा था। बाबूजी श्री कापड़िया जी के यहाँ पर ठहरे स्मरणीय पूज्य वर्णीजी की जन्म जयन्ती पर ईसरी गया हुए थे । प्राफिस के कामकाज की अधिकता के कारण था । बाजी से मिलने गया तो पलग पर लंटे हुए थे मैंने सोचा था कि माफिस से जाने के बाद बाबूजी के पास क्यों बाजी अच्छे तो है न ? हां भाई स्वन्त्रजी ठीक तो कुछ समय बैलूंगा और शाति के साथ बातचीत करूंगा। हूँ, पर ४-५ दिन से बुखार पा रहा है। उनका मैंने हाथ यह विचारधारा चल ही रही थी। छुपा तो कम-से-कम १०४ डिग्री बुखार था। तभी श्री कापड़ियाजी ने कहा-५०जी प्रापको बाबू प्राधा घंटे के बाद देखा तो बाजी पण्डाल में बैठे जी याद करते हैं अभी मिल पाइये। मै उसी समय हुए हैं और बुखार चढ़ा है। बाजी धुन के पक्के के मिलने गया तो बाजी उठ खड़े हुए और गले लगाकर अपनी शारीरिक स्थिति को न देखते हुए भी सेवा के कार्य मिले । मैंने कहा, बाबूजी मुझ जैसे अल्पज्ञ के लिए इतना ए इतना में जुटे रहते थे। वोडी के तो पाप मनन्य भक्त ही ही सम्मान, मुझे तो लगता है मैं धरती मे गड़ा सा जा रहा है। हैं। बाजी ने मेरा हाथ पकड़कर बैठाते हुए कहा-भाई श्रीमान् बद्रीप्रसाद जी सरावगी पटना ने मुझसे कहा स्वतन्त्रजी, न तो मैं ऐसी भाषा जानता हूँ और न कि स्वतन्त्रजी मापके मार्ग-व्यय की व्यवस्था मैं कर दूंगा साहित्यिक विद्वान ही हूँ। मैं वहाँ बीमार भी हो गया था तब सरावगीजी मुझे इसके बाद मापसे सामाजिक एवं धार्मिक चर्चायें पटना ले गये थे। बाजी को न मालूम कैसे पता लग माधा घटे तक होती रही। आपके साथ पापकी भतीजी गया ? कुछ पता नही, सभा समाप्त होने के बाद उनने भी थी, उसने एक गिलास मुझे दूध दिया। बा०जी ने मुझसे कहा कि पाप जब यहाँ से जायें तब मुझसे मिल कहा-पाप कलकत्ता अवश्य पाइये मैं प्रतीक्षा में हूँ, कब कर जाना । मेने कहा बाजी मापके बगैर कहे ही मिलने तक मा रहे हैं ? माऊँगा। Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त जाने के पहिले मैं मिलने गया तो उन्होंने १००)का जगह मेरी बात नहीं मानोगे, मुझे तो अच्छा नहीं लगता एक नोट देते हुए कहा पाप अपना मार्ग-व्यय तो ले मैंने बाबूजी से जय जिनेन्द्र कहा और चल दिया। जाइये । मैंने कहा बाबूजी! मेरे मार्ग-व्यय की व्यवस्था बाबू छोटेलालजी सचमुच महान थे और उदार थे हो चुकी है, पटना वाले सरावगीजी देगे, अब आवश्य. और यह दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि वे विद्वानों के कता नहीं है अन्यथा अवश्य ले लेता। वा०जी ने जोर मूक सेवक थे, पोषक थे और प्रसिद्धि से सर्वथा भलिप्त देकर कहा अगर सरावगीजी प्रापको मार्ग-व्यय दंगे तो एवं निरपेक्ष रहते थे। बाबजी समर्थ थे अर्थ सम्पन्न भी षया हुमा ? थे पर वे सदैव अपने प्रापको अकिंचन मानते थे, वे जो ले जाइये, बच्चों के काम प्रायेंगे उन्हे कपड़े बनवा कहते थे उसे करके ही दिखा देते थे। देना । मैंने विनम्रता से कहा-बच्चे पापके हैं, इस समय अन्त मे स्वर्गीय पात्मा को हार्दिक श्रद्धाजलि अर्पण तो आवश्यकता नहीं हैं। भाई स्वतन्त्रजी! तुम इस करता हुमा, सुख-शान्ति की कामना करता हूँ। वे महान् थे प्रकाश हितैषी शास्त्री यूं तो प्रत्येक मनुष्य के जीवन मे अपनी-अपनी विशेष- नहीं रहे। उन्होंने महत्वपूर्ण शोध खोज की इतनी सामग्री ताएं होती है किन्तु उसमे जनसाधारण की दिलचस्वी संकलित की है। जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते । इसलिये नहीं होती कि उसका जनहित से कोई सम्बन्ध धपि उन्होंने कभी भी अपने को प्रकाश में लाने का नहीं होता है। किन्तु बा. छोटेलाल जी के व्यक्तित्व की प्रयत्न नहीं किया किन्तु वे सबके अग्रणी रहे। उनकी चर्चा करना इसलिये सार्थक है क्योंकि वे आजीवन धर्म विचारधारा मे कही भी अहं या दम्भ नहीं मिलता। और समाज के लिये कुछ-न-कुछ करते ही रहे। जैनदर्शन उन्होंने जानोपयोगी दूसरे के साहित्य को प्रकाश मे के प्राणभूत जैन साहित्य, इतिहास, और पुरातत्व से उन्हें लाने का भरसक प्रयत्न किया किन्तु स्वयं के महत्वपूर्ण मसाधारण प्रेम था। वह स्वभाव से अल्पभापी थे किन्तु साहित्य के प्रकाशन मे उनकी कोई दिलचस्पी नहीं रही। निकट पाने पर उन्हें हम मसाधारण सहृदय, सरल और उन्हें विद्वानो से असीम प्रेम था। वे प्रत्येक विद्वान सहानुभूति पूर्ण पाते। हो सकता है उनसे दूर रहने वालों का दिल खोलकर सन्मान करते थे। सुना है कि कुछ के ही इन गुणों का परिचय न मिला हो। वर्षों पूर्व वे वयोवृद्ध साहित्य तपस्वी प० जुगलकिशोर जी मुख्तार के चरण छुम्रा करते थे । मैं ५ वर्ष पर्व वैसे उनकी स्मृति पाते हो भनेक चित्र, अनेक स्म __वीरसेवामन्दिर का वैतनिक कार्यकर्ता था, और वे इसके तियाँ और प्रमेक सरल प्राकृतियाँ प्रत्यक्ष होने लगती है, सर्वस्व थे, किन्तु जब कभी कार्यवशात् उनके समीप जाने जिनमें उनकी सरलता, गांभीर्य एव समरसता प्रतिपग का अवसर पाता तो वे सम्मान के साथ सौजन्य पूर्ण व्यवपर झलकती है । वह एक उदार और कर्तव्य निष्ठ व्यक्ति हार करते थे। उनकी अनेक महत्ताएँ विस्तार भय से रहे । यद्यपि अनेक वर्षों से उनको भयकर शारीरिक प्रति लिख सकना अशक्य है । उनकी सेवाएँ महान है उन जैसी कलता रही; किन्तु फिर भी वे हतोत्साह या अकर्मण्य कर्तव्यनिष्ठा प्रत्य में दिखाई नहीं देती। वे इस य बनें नहीं रहे। मस्तिष्क और कलम कभी भी विश्रांत महापुरुष थे। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य समीक्षा १. जैन शिलालेख संग्रह-(भाग ४) सम्राहक मागधी, मुक्तककाव्य, कथासाहित्य तथा अलंकार एव छन्द सम्पादक-डा० विद्याधर जोहरापुर कर, प्रकाशक भार- शास्त्रों का परिचय दिया गया है। मागम साहित्य का भी तीय ज्ञानपीठ काशी। पृष्ठ संख्या पाँचसौ से अधिक सक्षिप्त परिचय इसमें निहित है, इससे पाठको को प्राकृत मूल्य सात रुपये। भाषा के साहित्य का सहज ही परिचय मिल जाता है। प्रस्तुत ग्रंथ माणिकचन्द्र जैन ग्रन्थमाला के अन्तर्गत प्राकृत भाषा के साहित्य को तीन कालो मे विभाजैन शिलालेख संग्रह का यह चौथा भाग है। इस सग्रह जित किया जा सकता है। प्राचीन, मध्य कालीन और मे ईस्वी पूर्व गैथी सदी से लेकर १८वीं सदी तक के अर्वाचीन । प्राकृत का प्राचीन साहित्य भागम भोर ६५४ लेखों का सकलन किया गया है। ये लेख विविध अध्यात्म साहित्य पाया जाता है। मध्यकालीन कथाप्रान्तों के और विविध भाषामों का प्रतिनिधित्व भी करते साहित्य भौर कालिदास के नाटको में पाया जाता है और हैं । इनमें सबसे अधिक लेख मंसूर प्रान्त के ४४७ लेख अर्वाचीन प्राकृत साहित्य को अनेक छोटी कृतियाँ हैं। हैं, जो कन्नड भाषा के हैं। यद्यपि प्राकृत के १८, सस्कृत और उसका रूप प्रप्रभ्र श- साहित्य में पाया जाता है। के ८८, हिन्दी के ३, तेलगु ८, तमिल के ७७ पौर लखकन वज्ञानिक विश्लषण, काल विभाजन द्वारा ग्रन्थ की, कनाडी भाषा के कुल ८६० लख सगहीत है । डा. जोहरा पठनीय और रोचक बनाने के लिए अच्छा परिश्रम किया पुर करने इसका परिश्रम पूर्वक सम्पादन किया है। इस है। प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत भाषा के जिज्ञासुमो को मंगा कर लेख संग्रह की विशेषता है कि इसमे नागपुर के दि. जन अवश्य पढ़ना चाहिये। मन्दिरो की मूर्तियों के लेख भी संकलित किये गये है। ३. जनदर्शन-लेखक डा. महेन्द्रकुमार जैन, प्रका सम्पादक जी ने प्रस्तावना और प्रागत लेखो मे राज- शक श्री गणेशप्रसाद वर्णी, जैन ग्रन्थमाला, काशी, पृ० वशों तथा गण-गच्छों पर भी प्रकाश डाला है। अभी मध्य- ६००, मूल्य ७ रुपया। प्रदेश प्रादि के बहुत से अप्रकाशित लेख पड़ हए है, जो प्रस्तुत ग्रन्थ मे जैन दर्शन का मौलिक, प्रामाणिक अभी तक जनसाधारण मे प्रकाश मे नही माये, और न और तुलनात्मक विवेचन दिया हुमा है। जहाँ कही भी उन पर उचित विचार ही हो सका है। प्राशा है डा. मालोचन की मावश्यकता हुई लेखक ने बड़े ही सयत साहब उन लेखो का सकलन भी जैन जगत के सामने शब्दो मे उसे देने का प्रयास किया है। पुस्तक की महत्ता रखने का प्रयत्न करेंगे। इसी से स्पष्ट है कि यह उसका द्वितीय एडासन है । अन्त ग्रथ का प्रकाशन भारतीय ज्ञानपीठ के अनुसार उत्तम में जन दार्शनिक साहित्य की सूची भी दी हुई है, जिससे है । इस उपयोगी ग्रन्थ को प्रत्येक लायब्ररी, और अनु- पाठक उससे यथेष्ट लाभ उठा सकता है। इससे लेखक सधाता प्रिय विद्वानो को मगाकर रखना चाहिए। की प्रतिभा का ज्ञान सहज हो जाता है। उनसे जैन ____२. प्राकृत भाषा मोर साहित्य का मालोचनात्मक समाज को बहुत बडी पाशा थी, काश वह और रहते तो इतिहास-लखक डा. नेमिचन्द शास्त्री पारा, प्रकाशक जैन दर्शन की अनेक गुत्थियो को सुलझाते । लेखक को तारा पब्लिकेशन्स कमच्छा वाराणसी। पृष्ठसख्या ६४० यह कृति महत्वपूर्ण है। इनके द्वारा सम्पादित सिद्धिमूल्य २० रुपया। विनिश्चय ग्रन्थ बड़ा ही महत्वपूर्ण प्रौर गभीर है। प्रस्तुत ग्रन्थ मे डा० नेमिचन्द जीने ई० पूर्व ६०० से वर्णी ग्रन्थमाला के मत्री दरबारीलाल जी कोठिया ई० सन् की १८वी सदी तक के प्राकृत भाषा साहित्य का का यह प्रयास प्रशसनीय है। प्राशा है, भविष्य में उससे परिचय करता हुमा उसका पालोचन भी किया है। ग्रन्थ और सुन्दर ग्रन्थो के प्रकाशन का प्रायोजन किया जायगा। नौ अध्यायो मे विभक्त है, जिनमें प्राकृत भाषा, ध्वनि ४. सुगध दशमी कथा-सम्पादक डा.हीरालाल जैन और व्याकरण सम्बन्धी विचार व्यक्त करते हुए प्राकृत एम० ए० डी० लिट् प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष संस्कृत, भाषा के महाकाव्य, खण्डकाव्य, चरितकाव्य, चम्पूकाव्य, पाली व प्राकृत इन्स्टीट्यूट प्राव लेंग्वेज एण्ड रिसच Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ साहित्य-समोसा अबलपुर विश्वविद्यालय (म.प्र.), प्रकाशक भारतीय ५. पयोदय चम्मू (हिन्दी अनुवाद सहित) मुनि कानपीठ दुर्गाकुण्ड रोड़, वाराणासी । बड़ा भाकार पृष्ठ श्री ज्ञानसागर जी, सम्पादक पं. हीरालाल सिद्धान्त १९२ मूल्य ११) पया। शास्त्री, प्रकाशक पं. प्रकाशचन्द्र जैन, व्यावर, पृष्ठ १६२ प्रस्तुत अन्य में सुगन्ध शमी व्रत की कथा अपभ्रंश, मूल्य १.५० पैसा। संस्कृत, गुजराती, मराठी और हिन्दी इन पांच भाषाम्रो प्रस्तुत ग्रन्थ एक महत्वपूर्ण कृति है जिसमें एक में पद्यमय प्रकाशित की गई है। उदयचन्द की अपभ्रंश ऐतिहासिक व्यक्ति की कथा दी गई है जो हिंसा द्वारा कथा और मलसागर की संस्कृत कथा का अनुबाद भी अपनी माजीविका को सम्पन्न करता था। उसने साधु के साथ में दिया गया है। ब्रह्मारिनदास की गुजराती कथा उपदेश से केवल इतना ही नियम लिया था कि जाल मे पौर सुवासचन्दकी हिन्द कथा के साथ जिनसागर की पहली बार जो जीव पायगा उसकी मैं हिंसा नहीं मराठी कथा को सचित्र प्रकाशित किया है। जिन में ४ करूया। उसने इस नियम का दृढ़ता से एक दिन ही चित्र रंगीन और शेष ६७ बत्र इकाईये हैं। पालन कर पाया कि वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। पौर काक्षी नरेश पप नाम की रानी श्रीमती ने एक उस लघ अहिंसा के प्रभाव से अगले ही जन्म में एक तपस्वी मुनि को देषभाव से कटुक फलों का प्राहार नमन कलीन मेटघर पेटामा और पन्त कराया। जिसके विषम प्रभाव से मुनि मूठित हो गए। यो मोन ममापिय पर और पगले इससे राजा ने रानी को निकाल दिया। रानी ने अपने जन्म में कर्मबन्धन से मुक्त हो अविनाशी सुख का पात्र पाप फल से अनेक पायोनियों में जन्म लिया, पश्चात् बना। मनुष्य योनि में दुगंधित शरीर पाया। भाग्यवश दयालु इस दयोदय काव्य के रचयिता मुनि श्री ज्ञानसागर मुनिराज ने एक व्रत पालने का उपदेश दिया, जिससे वह जी हैं, जो जयपुर के पास राणोली ग्राम के निवासी हैं । अगले भवमें सर्वांग सुन्दर तिनकमती नामक रानी हुई और इनका कुल खंडेलवाल और गोत्र छाबडा है, पितामह का अन्त में समाधिमरण करके ईशान स्वर्ग में देवी हुई। नाम मुखव और पिता का नाम चतुर्भुज तथा माता ऐतिहासिक दृष्टि से कथा का मूल रूप प्राचीन जान घृतवरी देवी था। उनके पांच पुत्रों में से पाप द्वितीय हैं। पड़ता है। सम्पादक महोदय ने अपनी प्रस्तावना मे इस सं० १९५६ में पिताका असमय में स्वर्गवास हो गया, उस पर अच्छा प्रकाश डाला है, और कथानक के विभिन्न समय प्रापकी अवस्था १० वर्ष की थी, अपने गांव के रूपों पर विचार करते हुए उसकी मौलिकता और स्कूल में प्रारम्भिक शिक्षा पाई। मापने बनारस के स्याद्वाद रोचकता का भी निर्देश किया है । फॅच और जर्मन कथा महाविद्यालय में अध्ययन किया । आपमें प्रतिभा थी, और से भी तुलना की गई है। महाभारत के कथानक से अध्यवसायी थे, बुद्धि तीव थी, पढ़े हुए पाठ को जल्दी ही सुगन्ध दशमी कथा के मूलाधार पर भी प्रकाश डाला है। कण्ठान कर लेते थे। ब. ज्ञानानन्द जी से प्रापको डा.साहब ने ग्रंथ को सर्वोपयोगी बनाने का प्रयत्न अध्ययन करने का प्रोत्साहन मिला । कौन जानता था कि किया है। वास्तव में कथा प्रथों के ऐसे ही सुन्दर वही विद्वान परिग्रह का परित्याग कर बाल ब्रह्मचारी रह संस्करण प्रकाशित होने चाहिये जिससे कथामों का मूल्य कर साधुवृत्ति का पाचरण करेगा । माज अापकी कवित्व बांका जा सके, और पाठकों को उसकी महत्ता का भी शक्ति और प्रतिभा तथा निन्य मुद्रा का अवलोकन से दिग्दर्शत हो । भारतीय ज्ञान पीठ का यह प्रकाशन बहुत मापके प्रति श्रद्धा का भाव महज ही जाग्रत हो जाता है। सुन्दर है। इसके लिये वह ौर डा. साहब धन्यवाद के मापने भनेक अन्यों का निर्माण किया है। समाज को पात्र हैं। जैन समाज में यह कथा भाद्रपद पढ़ी में जाती है। चाहिये कि मापके काव्यों, ग्रन्थों का प्रकाशन करें। इसे मंगाकर प्रत्येक मन्दिर और सरस्वती भवनों में प्रस्तुत ग्रन्थ सुन्दर है। इस मंगाकर पढ़ना चाहिये। विराजमान करना चाहिये। परमानन्द शास्त्री Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासन-जयन्ती महोत्सव सानन्द सम्पन्न इस वर्ष वीर सेवा मन्दिर की ओर से वीर शासन भाषण सुन रहे थे । आपने बतलाया कि मतभेद जयन्ती महोत्सव बड़ी धूमधाम से समन्तभद्र सस्कृत महा- होना स्वाभाविक है परन्तु मनोमालिन्य नहीं होना विद्यालय के विशाल प्राङ्गण में ३ जुलाई रविवार को चाहिये । जो व्यक्ति मनोमालिन्य रखता है, वह हिंसक प्रातःकाल मनाया गया। जनता से पण्डाल ठसाठस भरा है, और जो नहीं रखता वह अहिंसक है। क्योंकि रागहुआ था। जनता की उपस्थिति पाच हजार के लगभग द्वेष विकार रूप परिणति ही हिंसा है, सम्यग्दृष्टि के इस होगी। परमानन्द शास्त्री के मंगलाचरण के अनन्तर पं० प्रकार की परिणति नही होती, वह सप्त भय रहित अजितकुमारजी शास्त्री, प. बाबूलालजी और प्रोफेसर निर्भय होता है, अतएव वह अहिंसक है। हमारा बीर सुखनन्दनजी बड़ौत के महत्वपूर्ण भाषण हुए। बाल शासन जयन्ती का मनाना तभी सार्थक होगा, जब हम माश्रम के बालको का गायन भी हुमा । पश्चात् श्री भगवान महावीर के शासन का शक्त्यनुसार अनुसरण १०८ पूज्य मुनि विद्यानन्दजी का प्रोजस्वी एवं चित्ता- करेगे । मानव जीवन जीवन की सार्थकता त्याग में हैं। कर्षक भाषण हुआ । आपने वीरशासन की महत्ता बतलाते दुनिया के भोगोपभोग और वैभव क्षण में विनष्ट हो हुए जनता से कहा कि वीर शासन को जाने बिना हम जाते हैं, और हमारी अनन्त तुष्णाएँ भी यों ही विलीन उसकी महत्ता और सर्वोदय तीर्थता का मूल्य नही पाक हो जाती हैं। अतः जीवन को सार्थक बनाने के लिए सकते । इसके लिए आपको स्वाध्याय द्वारा ज्ञान की वीरशासन का पालन करना अत्यन्त आवश्यक है। अन्त प्राप्ति करनी होगी। महाराज श्री के निर्देश से उपस्थित में सामूहिक प्रार्थना हुई जिसमे महाराजश्री के साथ-साथ स्त्री-पुरुषो ने चातुर्मास तक १५ मिनट प्रति दिन स्वाध्याय जनता ने भी भाग लिया। पौर महावीर की जयध्वनि करने की प्रतिज्ञा ली। महाराजश्री के भाषण का जनता पूर्वक उत्सव समाप्त हुआ। पर ऐसा प्रभाव पड़ा कि पण्डाल में कही से भी कोई प्रेमचन्द जैन मावाज नहीं सुनाई देती थी। सब शान्त होकर मंत्री, वीरसेवामन्दिर Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R.N. 10591/62 . MOST बीरसेवामन्दिर, दिल्ली के शिलान्यास के ममय (ता. १७.७-५४)वा. छोटेलाल जैन भाषण दे रहे हैं। सम्पावक-१.म. ए. एन. उपाध्ये, २. यशपाल जैन, ३. डा०प्रेमसागर जैन प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवामबिर के लिए, रूपवानी प्रिटिंग हाउस दरियागंज, दिल्ली से मुक्ति। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिक अगस्त १९६६ *XXXXXXXX********XXXXXX RKETERPRICE memeY esKAREER TailabinM ESSAMAKAM SadinARA A LAKASH A RAAT " SHARE 4. RA XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXKKKkkkxxx XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX*** ARI - Anumors M PareAawat SANILamachar खजुराहो का घण्टा मन्दिर १०वी ११वीं शती ईस्वी (छायाकार नीरज जैन) समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय २०३ विषय-सूची ग्राहकों से भनेकान्त के जिन ग्राहकों का १९वें वर्ष का वार्षिक पृष्ठ मूल्य प्रभी तक भी प्राप्त नहीं हुमा, वे इस प्रक के जिनवर-स्तवनम्-मुनि श्री पचनन्दि पहुंचते ही अपना वार्षिक शुल्क छह रुपया शीघ्र ही जैन प्रतिमा लक्षण-बालचन्द जैन एम. ए. २०४ मनीमार्डर से निम्न पते पर भेज देने की कृपा करें। सूरदास और हिन्दी का जैन पद-काव्य अन्यथा प्रगला अंक वी. पी. से भेजा जावेगा, उसमें ७५ (एक तुलनात्मक विश्लेषण)-डा. प्रेमसागर जैन २१३ पैसे अधिक देने होगे। एलिचपुर के राजा एल (ईल) और राजा मरिकेसरी-40 नेमचन्द धन्नूमा जैन २१६ व्यवस्थापक 'अनेकान्त' षट्खण्डागम-परिचय-बालचन्द्र सिद्धान्त शास्त्री २२० वीरसेवा मन्दिर, २१ दरियागंज दिल्ली खजुराहो का घंटइ मन्दिर -गोपीलाल 'प्रमर' एम. ए. २२६ बंगाल का गुप्तकालीन जन ताम्र-शासन सूचना -स्व. बाबू छोटेलाल जैन २३४ २०२ पेज का महत्वपूर्ण अनेकान्त का 'छोटेलाल जैन स्व-स्वरूप में रम २३३ स्मृति' विशेषांक छह रुपया भेजने वाले प्रत्येक ग्राहक को जैनदर्शन और निःशस्त्रीकरण फो प्राप्त होगा। उसका अलग मूल्य नहीं लिया जावेगा। -साध्वी श्री मंजुला २४० प्रतः जन साहित्य और इतिहास के प्रेमी पाठकों, शिक्षा संस्थाओं और लायरियों को छह रुपया भेज कर शीघ्र ही ग्राहक बन जाना चाहिये। और जो मज्जन सम्पावक-मण्डल अनेकान्त की पुरानी फाइलें चाहें उन्हें वें वर्ष से १८वें डा०मा० ने० उपाध्ये वर्ष तक की सब फाइलें उसके निश्चित मूल्य पर ही डा. प्रेमसागर जैन मिलेंगी। हां, डाक रजिस्ट्री खर्च अलग होगा। श्री यशपाल जैन -व्यवस्थापक अनेकान्त परमानन्द जैन वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। समागत प्रन्यों को समालोचना अगले अंक में दो जावेगी। अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पादक - मण्डल उत्तरदायी नहीं है। अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया व्यवस्थापक बनेकान्त एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै. Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त परमागमस्य बीज निषिद्धजात्यन्यसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमपनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ परियागंज, बिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९२, वि० सं० २०२३ । अगस्त सन् १९६६ जिनवर-स्तवनम् विटु तुमम्मि जिरणवर एटुं चिय मणियं महापावं। रविउगमे पिसाए ठाह तमो कित्तियं कालं ॥४॥ विट्ठ तुमम्मि जिरणवर सिम्झइ सोको वि पुण्णपन्भारो। होई जिरो बेण पहू इह-परलोपत्पसिहोणं ॥५॥ दिई तुमम्मि जिणवर मण्णे तं प्रप्परगो सुकयलाई। होही सो मेणासरिससुहरिणही मखमो मोक्लो ॥६॥ -मुनि श्री पवनन्दि पथं है जिनेन्द्र ! मापका दर्शन होने पर मैं महापाप को नष्ट हुमा ही मानता हूँ। ठीक है-सूर्य का उदय हो जाने पर रात्रि का मन्धकार भला कितने समय ठहर सकता है? अर्थात् नहीं ठहरवा, वह सूर्य के उदित होते ही नष्ट हो जाता है ॥ हे जिनेन्द्र ! माप का दर्शन होने पर वह कोई अपूर्व पुण्य का समूह सिख होता है कि जिससे प्राणी इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी ममीष्ट सिद्धियों का स्वामी हो जाता है। हे जिनेन्द्र | पाप का दर्शन होने पर मैं अपने उस पुण्यलाभ को मानता हूँ जिससे कि मुझे अनुपम सुख के भण्डारस्वरूप वह पवि. नश्वर मोक्ष प्राप्त होगा। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन प्रतिमा लक्षण बालचन्द्र जैन एम० ए० साहित्य शास्त्री बिम्ब निर्माण क्यों? की वस्तु में प्रतिष्ठेय का न्यास करना प्रसद्भावस्थापना जन परम्परा में महत्, सित, साधु और केवली द्वारा १३ । गलोर मतिम माना गया हैनमें जैन ग्रंथकारों ने वर्तमान अवसपिणी कालमें प्रसद्भावसे साधु तीन प्रकार के होते हैं, (१) भाचार्य, (२) स्थापना पूजा का निषेध किया है, क्योकि वर्तमान काल में उपाध्याय पोर (३) सर्व (साधारण) साधु। केवली के लोग कुलिंग मति से मोहित होने के कारण अन्यथा कल्पना जिनवाणीया श्रत भी कहा जाता इसलिए कर सकते हैं। इसीलिए वसुनन्दी ने कृत्रिम और प्रकृमहंत, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय और साधु, इन पांच त्रिम प्रतिमामा की पूजा को स्थापना पूजा बताया है। परमेष्ठियों और श्रुतदेवता की पूजा करने का विधान जैन जो मंगल है सो पूजनीय है, क्योंकि वह हमारे पाभ्यगंगों में मिलता है। अनेक जैन ग्रंथों में पूजन की प्राव. तर मल को गला कर दूर करनेवाला है और प्रानन्द श्यकता और उसकी विधि का वर्णन किया गया है और देनेवाला है। तिलोयपण्णत्ती में मंगल के छह भेद बताये उसे श्रावक का दैनिक कर्तव्य बताया है। कही इसे गये हैं, (१) नाममंगल, (२) स्थापनामंगल, (३) द्रव्य यावत्य के अन्तर्गत रखा है-जैसे समन्तभद्र के रत्नकरण्ड मगल, (४) क्षेत्रमंगल, (५) कालमंगल और (६) भावकाचार में कहीं सामायिक शिक्षाव्रतके अन्तर्गत-जैसे भावमंगल । इनमें से स्थापनामगल कृत्रिम और प्रकृत्रिम सोमदेव के यशस्तिलकचम्पू में, और कही कहीं पूजन को जिनबिम्बों को कहा गया है । श्रावक का एक स्वतत्र कर्तव्य कहा गया है-जैसे जिनसेन प्रवचनसारोद्वार और पदमानन्द महाकाव्य में भी कृत आदिपुराण में। जिनेन्द्र की प्रतिमानो को स्थापना जिन या महत् की वसुनन्दी ने पूजन को छह प्रकार का बताया है, (१) नामपूजा, (२) स्थापनापूजा, (३) द्रव्यपूजा, (४) क्षेत्र ३. साकारे वा निराकारे विधिना या विधीयते। पूजा, (५) कालपूजा और (६) भावपूजा। इनमें से स्थापना दो प्रकार की कही गई है। न्यासस्तदिदमित्युक्ता प्रतिष्टा स्थापना च सा ।। (१) सद्भावस्थापना और (२) प्रसद्भावस्थापना। भट्टाकलंककृत प्रतिष्ठाकल्प। ४. वसुनन्दि श्रावकाचार, ३८५: माशाधरकृत प्रतिष्ठेय की तदाकार सागोपांग प्रतिमा बना कर उसकी प्रतिष्ठासारोद्धार, ६६३ प्रतिष्ठा करना सद्भावस्थापना है और शिला, पूर्णकुभ, अक्षत, रत्न, पुष्प, प्रासन मादि प्रतिप्ठेय से भिन्न प्राकार ५. एव चिरतणाणं कट्टिमाक ट्रिमाण पडिमाण । जं कीरइ बहुमाण ठवणापुज्जं हि तं जाण ॥ १. जिणसिद्धसूरिपाठ्यसाहूणं जं सुयस्स बिहवेण । वसुनन्दि थावकाचार, ४४६ कीरइ विविहा पूजा वियाण तं पूजणविहार्ण ॥ ६. णामणिट्ठावणादो दध्व खेत्ताणि कालभावा य । वसुनन्दि धावकाचार, ३८० : इय छन्भेयं भरिणयं मंगलमाणंदसंजणणं ।। २. णाम दुवणा दवं खित्ते काले वियाण भावे य। तिलोयपण्णत्ती, १०१८ छबिहपया भणिया समासमो जिणवरिदेहि । ठावणमगलमेदं प्रकट्टिमाकट्रिमारिण जिणबिंबा। वही, ३८१ वही, २२० Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बैन प्रतिमा लक्षण २०५ संज्ञा दी गई है। कुन्दकुन्द के प्रम शिष्य जयसेन के देवायतन निर्माण कराने का विधान किया है । तात्पर्य अनुसार जिनविम्ब का निर्माण कराना मगल है। और यह कि देवालय उन स्थानों पर बनाये जाना चाहिये जो भाग्यवान गृहस्थों के लिये अपने (न्यायोपात्त) धन की रमणीक हों अथवा अन्य कारणों से महत्त्वपूर्ण हों। तीर्थसार्थकता के हेतु चैत्य और चैत्यालयों के निर्माण के बिना करों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान मौर निर्वाण कल्याणकों से अन्य कोई उपाय नहीं हैं। जैन अनुश्रुति मानती है कि पवित्र स्थानों तथा नदीतट, पर्वत, ग्रामसन्निवेश, समुद्रतट प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती ने कैलाश अथवा ऐसे ही अन्य मनोज्ञ स्थानों को जिनमंदिर के योग्य पर्वत पर मणि और रत्नों के चूर्ण से जिनमदिरों का बताया गया है। अपराजितपृच्छा में जिनमंदिरों को निर्माण कराया था और उनमें जिनबिम्बों की स्थापना शान्तिदायक स्वीकार कर उन्हें नगर के मध्य में बनाने का कराई थी। उस समय से ही लोग प्रतिमामों की प्रतिष्ठा विधान किया है, किन्त मानसार के कर्ता बोडों पीर कराते है।। जैनों के प्रति उतने उदार नहीं प्रतीत होते. जिन्होंने दुर्गा, ___यतः प्रतिमा को देखकर चिदानन्द जिन का स्मरण । गणपति, कात्तिकेय मादि के मंदिरों के समान ही बौद्ध होता है प्रतएव जिनबिम्ब का निर्माण कराया जाता है नाबम्ब का निमाण कराया जाता है और जनमंदिरों को भी नगर के बाहर निर्माण करने का और प्रतिमा में जिन पर उनके गुणों की प्रतिष्ठा करके विधान किया है। उनकी पूजा की जाती है। जिनमंदिर निर्माण के लिए भूमि का चयन करते मन्दिर के योग्य त्यान समय जो बातें उपयोगी है, वे यह हैं कि भूमि शुद्ध हो, वराह मिहिर ने कहा है कि वन, नदी, पर्वत और रम्य हो, स्निग्ध हो, सुगंधवाली हो, दूब आदि से ढकी झरनों के निकटवर्ती भूमि पर तथा उद्यानयुक्त नगरों में हुई हो१० तथा वह पोली न हो, वहाँ कीड़े मकोड़ों का देवता सदा निवास करते हैं५ । मनु ने सीमासंधियों पर निवास न हो और दग्ध पाषाण भौर हड्डियाँ मादि न हों, १. नामजिणा जिणनामा केवलिणो सिवगया य भाविजिणा। ६. मनुस्मृति, भा२४० ठवणजिणा जिणपडिमा दम्वजिगा भावजिगजीवा ॥ ७. जन्मनिष्क्रमणस्थानज्ञाननिर्वाणभूमिषु । प्रवचनसारोदार, द्वार ४२ मन्येषु पुण्यदेशेषु नदीकूलनगेषु च ॥ प्रहन्तः स्थापना-नाम-द्रव्य-मावश्चतुर्विधाः । ग्रामादिसन्निवेशेषु समुद्रपुलिनेषु च । चतुर्गतिभवोद्भूतं भयं मिन्दन्तु भाविनाम् ।। अन्येषु वा मनोज्ञेषु कारयेग्जिनमंदिरम् ॥ पपानन्द महाकाव्य, ११३ बसुनन्दि कृत प्रतिष्ठासारसंग्रह, ३।३-४ २. मंगलं जिननामानि मंगलं मुनिसेवितम् । शुद्ध प्रदेशे नगरेऽयटम्यां नदीसमीपे शुचितीर्थभूभ्याम् । मंगलं श्रुतमध्येयं मंगलं बिम्बनिर्मितः॥ विस्तीर्णशृणोन्नतकेतुमालाविराजितं जैनगृहं प्रशस्तम् ॥ प्रतिष्ठापाठ, ७१५ जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, १२५ ३. अहो महाभाग्यवतां धनसार्थक्यहेतवे । ८. तीर्थकरोद्भवाः सर्वे सर्वशान्तिप्रदायकाः । मान्योपायो गृहस्थानां चैत्यचैत्यालयाद् बिना ॥ जिनेन्दस्य प्रकर्तव्याः पुरमध्येषु शान्तिदाः । वही, २२ अपराजित पृच्छा, १७६।१४ ४. श्रुत्वा सकाशाद् भरतेश्वरोऽपि कैलासभूघ्र मणिरलचूर्ण: 8. दुर्गा गणपति व बौद्ध-जैनगतालयम् । द्वासप्तति जैनमंदिराणां निर्माप्य पके जिनबिंबसंस्थाम्। अन्येषा षण्मुखादीनां स्थापयेनगराद् बहिः॥ ततः प्रभूत्येव महाधनः स्वं प्रतिष्ठया धन्यतमं विधाय । मानसार, ६.५६ संरक्यतेऽनादिजिनेन्द्रचन्द्रमुखोद्गत स्थापनसद्विधानम् ।। १०. रम्ये स्निग्धं सुगंधादि दूर्वाधाड्या स्ततः शुचिम् । वही, ६२६३ जिनजन्माविनावास्ये स्वीकुर्याद्भूमिमुत्तमम् ॥ ५.बृहत्संहिता, ५ माशापरकृत प्रतिष्ठासारोबार ११८ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मर्थात् वह श्मशानभूमि न हो। भूमि का चयन मंदिर भूमि को श्रेष्ठ, एक अंगुल खाली होने पर मध्यम और निर्माण विधि का प्रमुख और महत्वपूर्ण अंग है, क्योंकि उससे अधिक खाली होने पर निकृष्ट मानते हैं। योग्य भूमि पर निर्मित प्रासाद ही दीर्घ काल तक स्थिर पनि रह सकता है। भूमिपरीक्षा के लिये विभिन्न ग्रंथकारों ने मंदिर में प्रतिष्ठा करके पूजन करने हेतु दो प्रकार दो उपाय बताये हैं। जिस भूमि पर मंदिर बनाने का की प्रतिमामों का निर्माण किया जाता है (१) चल विचार किया गया हो, उसमें एक हाथ नीचे तक गड्ढा प्रतिमा और (२) प्रचल प्रतिमा। प्रचल प्रतिमा अपनी लोदा जाय और फिर उस गड्डे को उसी में से निकाली वेदिका पर स्थिर रहती है, किन्तु चल प्रतिमा को अभिषेक गई मिट्टी से पूर दे। ऐसा करने पर यदि वह मिट्टी करने हेतु अथवा विशिष्ट विशिष्ट अवसरों पर मूलवेदी से गड्ढे से अधिक हो तो वह भूमि श्रेष्ठ होती है, यदि मिट्टी उठा कर अस्थायी वेदी पर लाया जाता है और उत्सव के गड्ढे के बराबर हो तो भूमि मध्यम मानी जाती है और यदि उतनी मिट्टी से ही गड्ढा न भरे तो वह भूमि अन्त में यथास्थान वापस पहुंचाया जाता है। इसलिये प्रथम जाति की समझ कर छोड़ देनी चाहिये। ठक्कर प्रचल प्रतिमा को ध्रुवबेर और चल प्रतिमा को उत्सवबेर फेल ने जो दूसरा उपाय बताया है वह यह है कि खोदे भी कहा जाता है। इन्हें स्थावर और जंगम प्रतिमा भी गये गड्ढे को जल से भर दे और सो कदम दूर चला कहा जा सकता है। जाय । वहाँ से लौटने पर यदि गड्ढा एक अंगुन कम मणि, रत्न, सोना, चांदी,पीतल, मुक्ताफल और पाषाण मिले तो भूमि को उत्तम, यदि दो अंगुल कम हो तो प्रादि से प्रतिमायें निर्मित करने का विधान जैन ग्रन्थों में मध्यम और तीन प्रगुल कम होने पर प्रधम समझा प्राय: मिलता है । जयसेन ने स्फटिक की प्रतिमाएं भी बाय३ । पादलिप्ताचार्य गड्ढे के पूरा पूरा मिलने पर प्रशस्त कही हैं । वर्षमान सूरि ने कांसे, सीसे और कलई सीवान की प्रतिमाएं निर्मित करने का स्पष्ट निषेध किया है। कोलास्थिदग्धाश्मविजिता भूरत्र प्रशस्या जिनवेश्मयोग्या। उसी प्रकार जयसेन प्रादि प्राचार्यों ने मिट्टी, काष्ठ और जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, २८ लेप से बनाई गई प्रतिमाओं को पूज्य नहीं कहा है। २. खात्वा हस्तमधः पूर्ण गते तेनैव पाशुना । ४. उदकेन च खातमापूरितं पदशतगमनागमनपर्यन्तं यत्र सदाधिक्यंसमोनत्वे श्रेष्ठा मध्याधमा च भूः । सपूर्ण दृश्यते सा ज्यायसी। भगुलोहीनं मध्यमा। माशाधर कृते प्रतिष्ठासारोद्धार १११६ बहुभिरगुलेरुन निष्कृष्टेति । तत्राध्वरंगतमधः खनित्वा तद्दोषवळ यदि तेन पांशुना। निर्वाणकलिका, भूपरीक्षाविधि पन्ना १० प्रपूरयेन्यूनसमाधिकेप भंग समं लाभ इति प्रशस्यते ॥ ५. मणि-कणय-रयण-रुप्पय-पित्तल-मुत्ताहलोवलाईहि । जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, २९ । पडिमालक्खणविहिणा जिणाइपडिमा घडाविज्जा। पउवीसंगुलभूमिखणेवि पूरिज्ज पुण वि सा गत्ता। वसुनन्दिकृत श्रावकाचार, ३९० तेणव मट्टियाए हीणाहियसमफला नेया॥ ठक्करफेरुकृत वास्तुसारप्रकरण ३ ६. स्वर्णरत्नमणिरोप्यनिर्मितं स्फटिकामलशिलाभवं सथा। तत्र हस्तमात्रं खातं तत्रत्यमृदा यस्थाः पूर्यते सा मध्यमा। उत्थितांबुजमहासनांगितं जैनबिम्बमिह शस्यते बुधः ।। या उद्वरितमृत्तिका सा श्रेष्ठा। प्रतिष्ठापाठ, ६६ यत्रापरिपूर्णा मृत्तिका साऽधमा। ७. स्वर्णरूप्यताम्रमयं वाच्यं धातुमयं परम् । पादलिप्ताचार्यकृत निर्वाणकलिका भूपरीक्षाविधि पत्र १० कांस्यसीसबङ्गमयं कदाचिन्नव कारयेत् ॥ ३. ग्रह सा भरियजलेण य चरणसयं गाछमाण जा सुसई। प्राचारदिनकर ति-दु-इगभंगुलभूमी महम-मज्झम-उत्तमा जाण ॥ ८. न मृत्तिकाकाष्ठविलेपनादिजातं जिनेन्द्रः प्रतिपूज्यवास्तुसारप्रकरण, १।१४ मुक्तम् ॥ जयसेन कृत प्रतिष्ठापाठ, १५ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न प्रतिमा लक्षण काष्ठ, दंत पोर लोहे की प्रतिमानों के सम्बन्ध में विभिन्न भी ऐसे कार्य शुभ दिन, शुभ मुहूतं और शुभ शकुन में ही प्राचार्यों में मतभेद जान पड़ता है। कुछ प्राचार्यों ने करने का विधान है। काष्ठ, दन्त और लोहे की प्रतिमानों के निर्माण का कोई बिम्ब निर्माण के योग्य प्रशस्त पिला के सम्बन्ध में उल्लेख नहीं किया है। कुछ ने इन द्रव्यों से जिनबिम्ब जैन और जनेतर वास्तुशास्त्री प्रायः एकमत हैं । काश्यपनिर्माण का निषेध किया है, तो कुछ ने ऐसे बिम्बों की शिल्प (४६।३२), विष्णुधर्मोत्तर (३९०२१-२२) और प्रतिष्ठाविधि का वर्णन किया है । भट्टाकलंक ने अपने रूपमण्डन (१२५) श्रादि ग्रंथों में प्रशस्त पाषाण के वर्णी प्रतिष्ठाकल्प में मिट्टी, काष्ठ मोर लोहे से निर्मित प्रति की गणना की गई है। काश्यपशिल्प में श्वेत, लाल, पीला मानों को प्रतिष्ठेय कहा है१ । वर्धमान सूरि ने काष्ठमय, मोर काला केवल ये चार वर्ण बताये गये हैं जब कि दन्तमय और लेप्यमय प्रतिमानों की प्रतिष्ठा विधि का विना विष्णुधर्मोत्तर और रूपमण्डन में प्रशस्त शिला के पाठ और ime वर्णन किया है। जीवन्तस्वामी की चन्दनकाष्ठ की। विभिन्न रंगों का उल्लेख किया गया है। वसुनन्दी ने भी प्रतिमा बनाये जाने का उल्लेख प्राचीन ग्रन्थों में मिलता श्वेत, लाल, काले, हरे मादि वर्ण की शिला को जिनबिम्ब है३ । पर ऐसा प्रतीत होता है कि काष्ठ जैसे भंगुर द्रव्यों । निर्माण के लिये उत्तम कहा है। प्रतिमा घटन के योग्य से जिनप्रतिमायें निर्मित करने की विचारधारा को जैन शिला कठिन, शीतल, स्निग्ध, अच्छे स्वाद, स्वर और गंधपरम्परा में विशेष मान्यता कभी प्राप्त नहीं हुई। यद्यपि वाली, दृढ, तेजस्विनी और मनोज होनी चाहिये । जनेतर मान्यता के अनुसार काष्ठ और लोहनिर्मित प्रतिमा बिदु और रेखानोंसे युक्त शिलाकी प्रतिमा को निर्माण को भी प्रशस्त और पूज्य माना गया हैकिन्तु इतना के लिये सर्वथा वजित कहा गया है। उसी प्रकार प्रत्यन्त निश्चित है कि प्राचीन काल में पाषाण की प्रतिमाएं कोमल, विवर्ण, दुर्गन्धयुक्त, वजन में हल्की, रूक्ष, मिल, निर्मित करने की परम्परा अधिक व्यावहारिक मानी जाती पौर निःशब्द शिला को भी प्रतिमा के लिये प्रयोग्य ठहथी और उसे ही सर्वाधिक मान्यता प्राप्त थी। राया गया है। प्राचार दिनकर मे चीरे, मस्से या जैन और जंनतर दोनों ही प्रकार के प्राचीन ग्रन्थों में नसोंवाली शिला को जिनबिम्ब निर्माण के लिये लाने का प्रतिमा के लिये शिला के अन्वेषण और शिला के गुण- निषेध है। प्रतिमा निर्माण के लिये ऐसी शिला का अन्वेदोषों का विस्तार से वर्णन मिलता है। प्राशाधर ने लिखा - है कि जब जिनमदिर का निर्माण कार्य पूरा होने को हो ६. श्वेता रक्ताऽसिता मिश्रा पारावतसमप्रभा। अथवा हो चुका हो तो शुभ लग्न और शकुन को देख कर मुग्दकपोतपनाभा मांजिष्ठा हरितप्रभा । शिल्पी के साथ प्रतिमा के लिये शिला का अन्वेषण करने प्रतिष्ठासारसंग्रह, ३१७७ हेतु जाना चाहिये । विष्णुधर्मोत्तर (३।१०।२५), मय- ७. कठिना शीतला स्निग्धा सुस्वादा सुस्वरा दृढा । मत (३३११९-२०), रूपमण्डन (१०६) मादि ग्रन्थों में सुगंधात्यन्ततेजस्का मनोज्ञाचोत्तमा शिला।। १. तद्योग्यः सगुणद्रव्य निर्दोषः प्रौढशिल्पिना । वही, ७८ रत्नपाषाणमृद्दारु-लोहाद्यः साधुनिमितम् ।, प्रसिखपुण्यदेशोत्था विशाला मसृणा हिमा । २. प्राचारदिनकर उदय ३३ गुर्वा चार्वा दृढा स्निन्धा सद्गदा कठिना धना ॥ ३. उमाकान्त परमानन्द शाह : स्टडीज इन जैन मार्ट, सद्वर्णात्यन्ततेजस्का बिंदुरेखाबदूषिता। सुस्वादा सुस्वरा चाहद्विम्बाय प्रवरा शिला ॥ ४. मत्स्यपुराण, २५७।२०-२१, रूपमडन, १११० पाशाधरकृत प्रतिष्टासारोदार, १३५०-५१ ५. धाम्नि सिध्यति सिद्ध वा सेत्स्यत्य कृते शिलाम् । ८. मृढी विवर्णा दुर्गन्धा लघ्वी कक्षा च धूमला। अन्वेष्टुं सेष्टशिल्पीन्द्र: सुलग्न-शकुने व्रजेत् ।। निदादा बिदुरेखादिदूषिता वजिता शिला। प्रतिष्ठासारोद्वार, १४९ प्रतिष्टासार संग्रह, ३७६ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० अनेकान्त षण किया जाय जो वृक्षों की छाया में स्थित हो प्रयवा की प्रतिमा श्रेष्ठ होती है, दो अंगुन की प्रतिमा से धनदूब से ढकी हुई हो, ताकि वह सदा ही सूर्य की किरणों नाश, तीन अगुल को प्रतिमा से सिद्धि और चार अंगुल से तपती न रही हो। जलाशय में डूबी हुई शिला इस की प्रतिमा से पीड़ा होती है। पांच अंगुल की प्रतिमा कार्य के लिये उत्तम मानी गई है, किन्तु खारे पानी में वृद्धिकारक है जब कि छह अंगुल की प्रतिमा से उद्वेग प्रथवा उसके निकट स्थित शिला प्रतिमा कार्य के लिये होता है। सात अंगल की प्रतिमा से गोधन की वृद्धि अनुपयुक्त होती है। होती है और पाठ अंगुल की प्रतिमा से उसकी हानि होती गृह पूज्य प्रतिमा है । नौ अंगुल की प्रतिमा से पुत्रवृद्धि और दश अगुल __मत्स्यपुराण में अंगूठे की ओर से लेकर एक वितस्ति को प्रतिमा से धन का नाश होता है। ग्यारह अगुल की अर्थात् बारह मंगुल तक ऊंची प्रतिमा को घर मे रखने प्रतिमा सभी इच्छामों को पूरा करती है । योग्य बताया गया है और उससे अधिक ऊची प्रतिमा को ठक्कर फेक ने सिद्धों की केवल उन्हीं प्रतिमानों को घर में पूजना प्रशस्त नहीं कहा है१ । यही मत रूपमंडन- घर में पूजने योग्य कहा है जो धातुनिर्मित हों। कुछ कार का भी है। किन्तु जैन ग्रंथकारों में गृहपूज्य प्रतिमा ग्रंथकारों ने बालब्रह्मचारी तीर्थकरों की प्रतिमानों को भी की अधिकतम ऊंचाई के बारे में किंचित् मतभेद दिखाई गृहपूज्य नहीं कहा है, क्योंकि उनके हर समय दर्शन करते देता है। दिगम्बर प्राचार्य बसुनन्दी द्वादश अंगुल तक रहनेसे परिवारके प्रत्येक व्यक्तिको वैराग्य हो सकता है। ऊँची प्रतिमा को घर में पूज्य बताते हैं३ । किन्तु ठक्कर इसके अतिरिक्त मलिन, खण्डित और अधिक या हीन फेरु ने केवल ग्यारह अंगुल तक ऊंची प्रतिमा को ही गृह- प्रमाणवाली प्रतिमाएं भी घर में नहीं पूजी जानी वाहिये। पूज्य बताया है। इसका मुख्य कारण यह है कि ठक्कर रूपमंडन (१NE-L) में बताया गया है कि मंदिर मे फेरु सम अंगुल प्रमाण की प्रतिमानों के निर्माण को अशुभ तेरह अंगुल से लेकर नौ हाथ ऊंची प्रतिमा की पूजा को मानते हैं५ । वर्धमान सूरि ने भी विषम अंगुल प्रमाण की जानी चाहिये और उससे अधिक ऊंची प्रतिमामों की पूजा ही प्रतिमाएं निर्मित करने का विधान किया है भार सम प्रासाद के बिना ही की जा सकती है। मत्स्यपुराण बंगुर प्रमाण की प्रतिमा का निषेध किया है। उन्होंने (२५७:२३) में सोलह हाथ तक की प्रतिमानों को प्रासाद एक से लेकर ग्यारह अंगुल तक की प्रतिमानों के निर्माण में पूजने योग्य बताया है। माचार दिनकर (३३) उदय का फल भी बताया है। वह इस प्रकार है-एक अंगुन १. मत्स्यपुराण, २५७।२२ ७. प्रथातः सम्प्रवक्ष्यामि गृहविम्बस्य लक्षणम् । २. रूपमंडन, १७ एकागुले भवेच्छष्ठं यङगुलं धननाशम् ॥ ३. द्वादशांगुलपर्यन्तं जात्वष्टांशादितः क्रमात् । जयगुले जायते सिद्धिः पीडा स्याच्चतुरङ्गुले । स्वगृहे पूजयेद्विम्बं न कदाक्त्तितोऽधिकम् ।। पंचागुले तु वृद्धिः स्यादुद्वेगस्तु षड्गुले । प्रतिष्ठासारसंग्रह, ५१७७ सपाङ्गुले गवां वृद्धि निरष्टाङ्गुले मता ।। ४. इक्कंगुलाइ पणिमा इक्कारस जाव गेहि पूइज्ज । नवागुले पुत्रद्धिर्धननाशो दशांगुले । उड़े पासाइ पुणो इन भणियं पुबसूरीहिं ॥ एकादशाङ्गुले विम्ब सर्वकामार्थसाधनम् ॥ वास्तुसारप्रकरण, २०४३ प्राचार दिनकर उदय ५. समभंगुलप्पमाणं न सुन्दरं हवह कइयापि ॥ ८. पाहाणलेवकट्टा दंतमया चित्तलिहिय जा पडिमा। अप्परिगरमाणाहिय न सुन्दरा पूयमाण गिहे। ६. विषमैरङ्गुलहस्तः कार्य बिम्ब न तत्समै. । वास्तुसार प्रकरण, २१४२ द्वादशाङ्गुलतो हीनं बिम्बं चैत्येन धारयेत् ॥ ६. सकलचन्द्र उपाध्याय कृत प्रतिष्टाकल्प । माचारदिनकर, उदय ३३ गुजराती अनुवाद पन्ना व २३ i on.ma.mmm . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन प्रतिमा सक्षम २०१ में कहा है कि बारह मंगुल से कम ऊंची प्रतिमा को मंदिर न्यूनाधिक अंगवाली प्रतिमा स्वपक्ष पौर परपक्ष दोनों को में न रखा जाय। ही कष्ट देनेवाली होती है। रौद्र प्रतिमा के निर्माण मपूज्य प्रतिमाएं करानेवाले की मृत्यु होती है और अधिक मंगवाली प्रतिमा से शिल्पी की। दुर्बल अंगवाली से द्रव्य नष्ट होता है हीनांग भोर मधिकांग दोनों ही प्रकार की प्रतिमाएं पौर कृषोदर प्रतिमा दुर्भिक्ष का कारण होती है। ऊर्चमपूज्य होने के कारण वसी प्रतिमानों के निर्माग का मुखो प्रतिमा से धननाश होता है और तिरछी दृष्टिवाली सर्वथा निषेध किया गया है। शुक्रनीति के अनुसार प्रतिमा पूज्य है। प्रतिगाढ़ दृष्टिवाली प्रतिमा अशुभ हीनांग प्रतिमा निर्माण करानेवाले की और अधिकांग और प्रषोदृष्टिवाली प्रतिमा विघ्नकारक है। प्रतिमा शिल्पी की मृत्यु का कारण होती है२ । बृहत्संहिता वसुनन्दी ने जिनप्रतिमा की नासाग्रनिहित, शान्त, (५७१५०-५२), मत्स्यपुराण (२५८।१६-२१) और सम प्रसन्न, निविकार और मध्यस्थ दृष्टि को उत्तम कहा है। रागण सूत्रधार (७७१७-८) मे भी प्रतिमा के दोषों का प्रतिमा की दृष्टि न अत्यन्त उन्मीलित हो और न वर्णन है । प्रतिमा के वक्रांग, हीनांग या अधिकांग होनेको विस्फुरित ही हो। प्रतिमा की दृष्टि तिरछी. ऊची या जैन परम्परा में भारी दोष गाना गया है। वास्तुसार नीची न हो, इसका विशेष ध्यान रखा जाना चाहिये । प्रकरण और प्रतिष्ठासारसंग्रह में सदोष प्रतिमा के जिनबिम्ब की दृष्टि तिरछी होने से धननाश, विरोध और निर्माण और पूजन से होनेवाली हानियों का विस्तार से भय होता है, अधोदृष्टि से पुत्र का नाश तथा ऊर्ध्वदृष्टि वर्णन है। जयसेन ने जिनबिम्ब को नासाग्रदृष्टि और से पत्नीवियोग होना बताया गया है। यदि दृष्टि स्तब्ध उग्रता प्रादि दोषों से रहित कहा है। यदि प्रतिमा के हुई तो शोक, उद्वेग, संताप और धननाश हो सकता है। अंग छोटे बडे बनाये जाते है तो निर्माता को हानि शान्त दृष्टि सौभाग्य, पुत्र, धन, शाति और वृद्धि देती पहुचती है ।३ बास्तुप्रकरण के अनुसार, यदि प्रतिमा टेढ़ी नाकवाली ४. बहु दुक्ख वक्कनासा हस्मंगा खययरी य नायब्वा । हो तो बहुत दु.ख देती है, उसके अग छोटे हों तो क्षय- नयणनासा कुनयरणा अप्पमुहा भोगहाणिकरा ॥ कागे होती है, नेत्र खराब हो तो नेत्रनाशक और यदि कडिहीणाऽयरियहया सुयबधव हणई होणजधा य । मुख छोटा हो तो भोगरे की हानि करती है। उसी प्रकार हीणासण रिडिहया घणक्खया होणकरधचरणा ।। यदि प्रतिमा की कमर हीनप्रमाण हो तो प्राचार्य का नाश उत्ताणा प्रत्थहरा वंकग्गीवा सदेमभगकरा। अहोमुहा य सचिंता विदेसगा हवह नीचच्चा।। होता है, जघा क्षीण हो तो पुत्र और मित्र का क्षय होता विसमासण वाहिकरा रोरकरण्णायदध्वनिप्पन्ना। है। प्रासन हीन होने से ऋद्धियों का विनाश होता है हीणहियंगप्पडिमा सपक्ख परपक्वकटकरा॥ और हाथ पर हीन होने से धन का क्षय होता है। पडिमा रउद्दजा सा करावयं हति सिप्पि अहियंग प्रतिमा की गर्दन उठी हुई हो तो भी धन का क्षय होता दुब्बल दवविरणासा किसोप्रग कुणइ दुढिभक्ख है। ग्रीवा वक हो तो देश का विनाश होता है । अधोमुख प्रतिमा से चिन्ताएं बढती हैं तथा ऊंच नीच मुख उड्ढमुही घणनासा अप्पूया तिरिदिट्टि विन्ने य। बाली प्रतिमा से विदेशगमन होता है। विषम प्रासन पइघट्टदिट्ठि असुहा हवइ प्रहोदिट्टि विग्धव ग ।। वाली प्रतिमा से व्याधियां उत्पन्न होती हैं । भन्यायोपात्त वास्तुसारप्रकरण २०४६ : धन से निर्माण कराई गई प्रतिमा दुर्भिक्ष फैलाती है। ५. नात्यन्तोन्मीलिता तथा ? न विस्फुरितमीलिता तिर्यगूर्वमधोदृष्टि वर्जयित्वा प्रयत्नतः ।। १. रूपमंडन, १११४ नासाप्रनिहिता शान्ता प्रसन्ना निम्विका रिका । २. शुक्रनीति, ४१५०६ वीतरागस्य मध्यस्था कर्तव्या दृष्टि चोत्तमा । ३. जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, १८२ प्रतिष्ठासारसंग्रह ४७३-४ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९१० अनेकान्त है१। प्रतिमा के अन्य दोषों का उल्लेख करते हुए वसु. भग्न प्रतिमाएं और जीर्णोद्धार नन्दी ने बताया है कि रौद्र प्रतिमा को निर्माण करानेवाले भग्न प्रतिमामों को देवालय में नहीं रखा जाता, का नाश होता है और कृशांगा प्रतिमा धन का क्षय करती उन्हें विसजित कर दिया जाता है । किन्तु जो प्रतिमाएँ है। छोटे अंगोंवाली प्रतिमा से हानि होती है पौर चिपटी सौ वर्ष से अधिक प्राचीन हो और महापुरुषों द्वारा स्थाप्रतिमा दुःख देती है। विकृत नेत्रवाली प्रतिमा से नेत्रों पित की गई हों, यदि वे खण्डित भी हो जावें तो उनकी की ज्योति की हानि होती है। यदि प्रतिमा हीनवक्त्र हो पूजा की जा सकती है। रूपमडनकार उन मूर्तियों को तो प्रशुभ है। बड़े उदर की प्रतिमा से व्याधि उत्पन्न विसर्जन करने योग्य कहते हैं जिनके अंग या प्रत्यंग भग्न होगी भोर प्रतिमा का हृदयभाग कृश बनान स हृदयराम हो गये हों६ । ठक्कर फेरु ने भी मूलनायक प्रतिमा के उत्पन्न होता है। कधे यदि हीनप्रमाण बनाये गये तो मुख, नाक, नेत्र, नाभि और कटि के भग्न हो जाने पर मृत्यु होती है । जंघाएं पतली बनाने से राजा की मृत्यु उसे त्यागने योग्य बताया है। उन्होंने अंगभग का फल होती है, हीनप्रमाण चरण बनाने से लोगो की मोर कटि बताते हुए कहा है कि जिनप्रतिमा के नख भंग होने से प्रदेश हीनप्रमाण बनाने से वाहन की मृत्यु होती है। शत्रु का भय, अगुली भंग होने से देश का विनाश, बाहु माशाधर पण्डित और वर्धमान सूरि ने अनिष्ट करने भंग होने से बन्धन, नासिका भंग होने से कुलनाश और वाली, विकृत अग वाली और जर्जर प्रतिमाओं की पूजा चरण भंग होने से द्रब्यक्षय होता है। पादपीठ, चिह्न का निषेष किया है। प्रतिमानिर्माण और पूजन में पौर परिकर भंग होने से क्रमशः बधु, वाहन और भृत्य विधि का यथेष्ट पालन न करने के कारण जो विकृतियां की हानि होती है और छत्र, श्रीवत्स तथा कान खण्डित होती हैं उनका उल्लेख बृहत्साहिता (४५।२५-३०), होने से क्रमशः धन, सुख और बन्धुनों का क्षय होता है। महाभारत (भीष्मपर्व २।३६), और रूपमडन (१।१६) मादि ग्रंथों मे किया गया है, किन्तु वीतराग भगवान की ४. शुक्रनीति ४१५२१, रूपमडन २१ प्रतिमा में विकृति उत्पन्न होने का उल्लेख जैनग्रन्थों में प्रतीमा नहीं मिलता। खण्डिता स्फुटिताप्या अन्यथा दुःखदायका ।। १. पर्यनाश विरोध च तिर्यग्दृष्टिर्भय तथा । रूपमंडन, १११ अधस्नात्पुत्रनाशं च भार्याहरणमूर्ध्वगा। वरिससयायो उड्ढ बिबं उत्तमेहि संठवियं । शोकमुगमताप स्तब्धं कुर्याद्धनक्षयम् । विकलंगु वि पूइज्जइ तं बिंबं निप्फलं न जमो ॥ शांता सौभाग्यपुत्रार्थशान्तिवृद्धिप्रदा भवेत् ।। वास्तुसारप्रकरण, २३९ वही, ४१७५-७६ यच्च वर्षशतातीतं यच्च स्थापितमुत्तमः ॥ २. सदोषाऽर्चा न कर्तव्या यतस्यादशुभावहा । तद् व्यङ्गमपि पुज्यं स्याद्विम्बं तन्निष्फलं न हि । कुर्याद रौद्रा प्रभो श कुशागी द्रव्यसक्षयम् ।। तच्च धार्य परं चैत्ये गेहे पूज्यं न पण्डित ॥ संक्षिप्ताङ्गी क्षय कुच्चिपिटा दुखदायिनी। प्राचारदिनकर, उदय ३३ विन्नेत्रा नेत्रविध्वसं हीनवक्त्रा त्वशोभिनी ।। ६. रूपमंडन, २॥१ व्याधि महोदरी कुर्याद् हृद्रोग हृदये कृशी। ७. वास्तुसारप्रकरण, २१४० अंसहीरा तु जहन्या च छु एकजघा नरेन्द्रहा ।। ८. नह अगुलीय बाहा नासा पय भंगिणुक्कमेण फल । पादहीना जनान्हन्योत्कटिहीना च वाहनम् । सत्तुभय देसभगं बंधण कुलनास दव्वक्खयं ।। ज्ञात्वैवं कारयेज्जैनी प्रतिमां दोपज्जिताम् ।। पयपीठह्नि-चिण्ह-परिगरभगे जन-जाण-भिन्चहाणिकमे। वही, ४७७-८० छत्तसिरिवच्छ-सवणे लच्छीसुहबंधवाणखयं ॥ ३. प्रतिष्ठासारोबार, १३, प्राचारदिनकर, उदय ३३ । बास्तुसारप्रकरण, २४-४५ पाय Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न प्रतिमा लक्षण पादलिप्तसूरि ने खण्डित, प्रतिमा के स्थान पर दूसरी निर्वस्त्र, श्रीवत्स लाच्छनयुक्त, लम्बहस्त तथा ध्यानस्थ प्रतिमा प्रतिष्ठित करने का विधान किया है। प्रवस्था में बताया गया है। जिनप्रतिमाएं केवल दो ___ भग्न प्रतिमानों के जीर्णोद्धार करने के सम्बन्ध में मासनों में बनाई जाती हैं, एक तो कायोत्सर्ग मासन या कुछ ग्रंथों में उल्लेख मिलते हैं। रूपमंडन (१२१२) ने खड्गासन और दूसरा पद्मासन जिसे कहीं-कहीं पर्यक धातु, रत्न और विलेप की प्रतिमाओं के अगभंग होने पर भासन भी कहा गया है। जयसेन, वसुनन्दी, प्राशाघर, उन्हें संस्कार योग्य बताया है, किन्तु काष्ठ पोर पाषाण नेमिचन्द्र, कुमुदचन्द्र, भद्राकलक प्रादि ग्रन्थकारों ने अपने की प्रतिमानों के भग्न होने पर उनके जीर्णोद्वार का अपने प्रतिष्ठाग्रन्थों में जिनप्रतिमा का विस्तार से निरूनिषेध किया है। ठवकर फेरु केवल धातु और लेप की पण विया है। जयसेन के प्रतिष्ठापाठ में जिनविम्ब को प्रतिमानों के जीर्णोद्धार के पक्ष में हैं, वे रत्न, काष्ठ और शान्त, नासाग्रदृष्टि, प्रशस्त मानोन्मान युक्त, भ्यानारूढ़ पाषाण की प्रतिमानों को जीर्णोद्धार के लिए अयोग्य और किचित् नम्रग्रीवा बताया गया है। कार्योत्सर्ग पासन बताते हैं । वर्धमानसूरि ने धातु और लेपमय प्रतिमानों मे प्रतिमाके हाथ लम्बायमान रहते हैं और पपासन प्रतिमा ही का संस्कार किया जाना बताया है और लकड़ी तथा में बायें हाथ की हथेली पर दायें हाथ की हथेली रखी पाषाण की प्रतिमाओं को संस्कार के योग्य नही कहा है। नई होती है पादलिप्तसूरि ने निर्वाणकलिका में पाषाण की प्रतिमा को अगाध जल में प्रथवा उत्तुग पर्वतशिखर पर विजित उन्ही प्राचार्य के अनुसार प्रतिमा उपयुक्त दो करने की विधि बताई है, किन्तु सुवर्ण बिम्ब को पूर्ववत् प्रासनों को छोड कर अन्य किसी प्रासन में नहीं बनाई बनाकर पुन प्रतिष्ठेय कहा है४ । जाना चाहिए। प्रतिमा दिगम्बर हो, श्रीवृक्षयुक्त हो, नख-केश विहीन हो, परमशांत हो, वृद्धत्व तथा बाल्य से जिनप्रतिमा का लक्षण रहित हो, तरुण हो और वैराग्य गुण से भूषित हो। जन प्रतिष्ठाग्रन्थों के अलावा बृहत्संहिता, मानसार, समरांगण सूत्रधार, अपराजितप्रच्छा, देवतामूर्तिप्रकरण और ६. द्विभुज च द्विनेत्र च मुण्डतारं च शीर्षकम् ॥ रूपमंडन प्रादि ग्रन्थो मे भी जिनप्रतिमानों के लक्षण ऋजुस्थानकसंयुक्तं तथा चासनमेव च । मिलते है । बृहत्संहिता में जिनेन्द्र की प्रतिमाएँ दिगम्बर, समाध्रिऋज्वाकारं स्याल्लम्बहस्तद्वयं तथा ।। प्रशान्तमूति, तरुण, रूपवान्, श्रीवत्स चिह्न युक्त और पासनं च दिपादौ च पद्मासन तु संयुतम् । धुटनों नक लम्बे बाहु वाली बताई गई हैं। ऋजके च ऋजुभावं योग तत्परमात्मकम् ।। मानमार मे भी जिनप्रतिमाओं को प्राभरण वडीन, निराभरणसर्वाङ्ग निर्वस्त्राङ्ग मनोहरम् ।। १. निर्वाणकलि का, पत्र ३० जीर्णोद्धार प्रतिष्ठाविधि । सर्ववक्षस्थले हेमवर्ण श्रीवत्सलांछनम् ॥ मानसार। २. धाउलेवा इबिबं विप्रलंग पूण वि कीरए सज्जं । कट्टरयण सेलमयं न पुणो सज्ज च कईयादि। ७. शात नासाग्रदृष्टि विमलगणगणजिमानं प्रशस्तवास्तुमारप्रकरण, २१४३ मानोन्मानं च वामे विधतकरवरकर नाम पदमासनस्थम् । ३. धातुलेप्यमय मर्व व्यड्ग सस्कारमर्हति । व्युत्सर्गालम्बिपाणिस्थलनिहितपदाभोजमोनम्रकम्बु । काष्ठपाषाणनिष्पन्न संस्काराहं पुननं हि ॥ ध्यानारूढ विदैन्य भजत मुनिजनानन्दकं जनबिम्बम् ।। प्राचारदिनकर, उदय ३३ प्रतिष्ठापाठ, ७० ४. निर्वाणकलिका पत्र ३१, जीर्णोद्धारप्रतिष्ठाविधि ८. सस्थानसुन्दरमनोहररूपमूर्ध्वप्रालबित हवसनं कम५. प्राजानुलम्बबाहुः श्रीवत्साङक. प्रशान्तमूर्तिश्च । लासन च । दिग्वासास्तरुणो रूपवांश्च कार्योऽहता देवः ।। नान्यासनेन परिकल्पितमीशबिम्बमहाविधौ प्रथितप्रतिमालक्षणाध्याय, ४५ मार्यमतिप्रपन्नः ॥ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ बनेकान्त माशापर पण्डितर और वसुनन्दी मैद्धान्तिकर ने भी जिन- बनाई जाती है, केवल प्रष्ट प्रातिहार्यों के होने अथवा न प्रतिमा के उपर्युक्त लक्षणों का निरूपण किया है। होने से ही अहंन् और सिद्ध प्रतिमा को पहचाना जाता विवेकविलास मे भी कायोत्सर्ग पोर पद्मासन प्रतिमामों है। जिन की महत् अवस्था की प्रतिमा में प्रष्ट प्रतिहार्यो का सामान्य लक्षण बताया गया है । के अलावा दाहिनी भोर यक्ष, बायीं ओर यक्षी और पादसिद्ध परमेष्ठी की प्रतिमानों मे प्रातिहार्य आदि नही पीठ के नीचे उनका लांछन भी दिखाया जाता है। तिलोय. बनाये जाते। किन्तु महत्प्रतिमानो मे उनका होना पण्णत्ती में भी सिंहासनादि तथा यक्षयुगल से युक्त जिनमावश्यक है। महत और सिद्ध की मूल प्रतिमा समान प्रतिमाओं का वर्णन है। ठक्कर फेक ने तीर्थकर प्रतिमा के प्रासन और परिकर का विस्तार से वर्णन किया है वृद्धत्वबाल्यरहितांगमुपेतशाति और उसके विभिन्न अगों के मान का विवरण दिया है । श्रीवृक्षभूषिहृदयं नखकेश हीनम् । अपराजित पृच्छा में भी यक्ष-यक्षी, लांछन और प्रातिहार्यो सवातुचित्रदृषदां समसूत्रभाग की योजना का विधान है। मानसार में भी जिनप्रतिवैराग्यभूषितगुणं तपसि प्रशक्तम् ।। प्रतिष्ठापाठ १५१-१५२ २. स्थापयेदहतां छत्रत्रयाशोकप्रकीर्णकम् ।। २. शान्तप्रसन्नमध्यस्थनासाग्रस्थाविकारदृक् । पीठं भामण्डल भाषां पुष्पवृष्टि च दुन्दुभिम् ॥ संपूर्णभावारूढानुविदाङ्ग लक्षणान्वितम् ।। स्थिरेतराचंयोः पादपीठस्याधो यथायथम् । प्रतिष्ठासारोद्धार, ११६२ लांछन दक्षिणे पावं यक्ष यक्षीं । वामके ।। ३. मथ बिम्ब जिनेन्द्रस्य कर्तव्यं लक्षणान्वितम् । प्राशाघरकृत प्रतिष्ठासारोद्धार, १२७६-७७ ऋज्वायुतसुसंस्थानं तरुणाङ्ग दिगम्बरम् ।। सल्लक्षणं भावविवृद्धिहेतुक सम्पूर्णशुद्धावयवं दिगम्बरम् । श्रीवृक्षभूषितोरस्कं जानुप्राप्तकराग्रजम् । सत्प्रातिहार्य निजचिह्नभासुर सकारयेद्बिम्बमथाहंत. निजागुलप्रमाणेन साष्टागुलशतायुतम् ।। शुभम् ।। जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, १८० कक्षादिरोमहीनाङ्ग श्मश्रुलेखाविजितम् । प्रातिहार्याष्टकोपेत सर्वज्ञ सवतोमुखम् । ऊवं प्रलम्बक दत्वा समाप्त्यन्त च धारयेत् ॥ तेजोव्याप्तदिशाचक्र ज्ञानव्याप्तजगत्त्रयम् ॥ प्रतिष्ठासारसग्रह, ४११,२,४ कुमुद्चन्द्रकृत प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण उपविष्टस्य देवस्योर्ध्वस्य वा प्रतिमा भवेत् । प्रातिहार्याष्टकोपेत सपूर्णावयव शुभम् । द्विविधापि युवावस्था पर्यङ्कासनगाऽऽदिमा । भावविद्धानुरूपाग कारयेदिबम्बमहंतः ।। वामोदक्षिणजजोवोरुपध्रि करो ऽपि च । वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसग्रह, ४१६६ दक्षिणो वामजसोवोस्तत्पर्यङ्कासन मतम् ।। स्थित वापि तमज्वाहंतं चेद् यक्षयुगांकयुक् । देवस्योर्ध्वस्य चार्चा स्याज्जानुलम्बिभुजद्वया । पीठभामण्डलाशोकभाषत्रिच्छत्रदुंदुभिः । श्रीवत्सोष्णीषयुक्तं दे छत्रादिपरिवारिते ॥ प्रकीर्णकप्रसूनोद्धवृष्टिभिः प्रविराजितम् । विवेकविलास १२१२८-३० भट्टाकलंककृत प्रतिष्ठाकल्प । १. प्रतिहार्यविना शुद्ध सिद्धबिम्बमपीदृशम् ।। १. वास्तुसारप्रकरण, २०२६-३८ वसुनन्दिकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह ४७० २. लाछनं सिंहासनं च चामरं कुसुमांजलि.। सिद्धेश्वराणां प्रतिमाऽपि योज्या तत्प्रातिहादि बिना प्रभामण्डलाशोकाश्च दुन्दुभिश्च्छत्रकत्रयम् ॥ तर्थव। जयसेनकृत प्रतिष्ठापाठ, १८१ वीतरागेति विख्याता देवाना तु प्रतिक्रमाः ।। सैड तु प्रतिहाकियक्षयुग्मोज्झित शुभम् । यक्षशासनदेवीश्च कुर्यादुभयपावतः ॥ भट्टाकलककृत प्रतिष्ठाकल्प अपराजित पृच्छा, १३३।२६-२७ ४. ७ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बन प्रतिमा लक्षण मानों के परिकर मादि का वर्णन किया गया है। सूत्रधार है। जबकि वही पार्श्वनाथ के मस्तक पर सात फणों का मण्डन ने अपने देवतामूति प्रकरण और रूपमण्डन दोनों होता है३ । नेमिनाथ की प्रतिमानोंमें कभी-कभी बलराम ही अथों में जिनप्रतिमा को छत्रत्रय, अशोकदूम, देव- और वासुदेव को भी दिखाया जाता। ऐसी एक प्रतिमा दुन्दुभि, सिंहासन, धर्मचक्र प्रादि से युक्त बताया है। मथुरा में मिली है। जैसा कि ऊपर बताया है, प्रत्येक तीर्थकरप्रतिमा अपने लाछन से पहचानी जाती है जो उसके पादपीठ पर २. श्रीसुपार्श्वप्रभो शीर्षे पान्तु वः फणभृत्फणाः । दिखाया गया होता है। किन्तु कुछ तीर्थंकरो की प्रतिमानों पञ्च पञ्चेन्द्रियारातिजयलब्धा ध्वजा इव ॥ मे विशिष्ट चिह्न भी पाये जाते हैं। प्रादि जिनेन्द्र ऋषभ अमरचद्रसूरिकृत पद्यानन्द महाकाव्य, ११० देव की प्रतिमा जटामुकुटरूप शेखर से युक्त होता है। ३. मौलो फणिफणाः सप्त नयश्रीभिः करा इव । सुपार्श्वनाथ के सिर पर सर्प के पांच फणों का छत्र रहता घृताः शान्तरसास्वादे यस्य पार्श्वः स पातु वः ॥ १. तिलोयपण्णत्ती, १२३० वही, १२२६ सूरदास और हिन्दी का जैन पद-काव्यः एक तुलनात्मक विश्लेषण डा० प्रेमसागर जैन सूरदास हिन्दी-भक्ति-युग के सशक्त कवि हैं। उन्होने एकमात्र कवि माने जाते हैं। तुलसी ने भी बालक राम भाव-विभोर होकर सगुण ब्रह्म के गीत गाये । सूरसागर पर लिखा, किन्तु वह महाकाव्य के कथानक के एक अंश इसका प्रतीक है। उसमें सूर के निमित सहस्रों पदों का की पूर्ति-भर है। सूर का मानी नहीं। किन्तु जैन काव्यों मकलन है। ये पद गेय हैं-राग-रागनियों से समन्वित। में वात्सल्य भाव के विविध दृश्य उपलब्ध होते हैं। जैन उनका बाह्य सुन्दर है तो अन्तः सहज और पावन । सब कवियों ने तीर्थङ्करों के बालरूप का चित्राङ्कन किया है। कुछ भक्तिमय है। दूसरी ओर, इसी युगमे, जन कवियों इस विषय की प्रसिद्ध रचना है 'मादीश्वरफागु'। उसके ने अधिकाधिक हिन्दी पद-काव्य का निर्माण किया। वह रचयिता भट्टारक ज्ञान भूषण एक समर्थ कवि थे। चानतभी भक्त्यात्मक है। उसमे भी प्रसाद और लालित्य है। राय, जगतराम, बूचराज आदि ने भी मादीश्वर की बाल विविध राग-रागनियों का नर्तन वहां भी है। दोनों में दशा का निरूपण किया है। कवि बनारसीदास का बहुत कुछ साम्य है। कही कही तो हू-बहू है । बनारसी- 'प्राध्यात्मिक बेटे का चित्रण अनुपम है । इसके अतिरिक्त । दास, द्यानतराय, भूधरदास, भगवतीदास जगतराम और सूरदास का जितना ध्यान बालक कृष्ण पर जमा, बालिका देवब्रह्म प्रादि हिन्दी के समर्थ जैन कवि थे। कला और राधा पर नही। बालिकानों का मनोवैज्ञानिक वर्णन भाव दोनों दृष्टियों से सूर के समतुल्य, किसी भी दशा में सीता, प्रजना और राजुल के रूप मे, जैन पद-काव्यो में कम नहीं। उनकी तुलना हिन्दी के भक्ति-काव्य मे एक उपलब्ध होता है। ब्रह्म रायमल्ल के 'हनुवन्तचरित्र' में नया अध्याय जोड़ सकेगी। हनुमान के बालरूप का भोजस्वी वर्णन है। वस उदात्तता 'भगवद्भक्ति' के क्षेत्र में सूरदास वात्सल्य-रस के परक है। मधुरता परक है। जैन कवियों का अधिकाशः Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त बालरूप तेजस्विता का निदर्शन है। इससे सिद्ध है कि किन्तु यह 'काम' कामवासना का नहीं अपितु विरह का उस पर श्रीमद्भागवत का प्रभाव नहीं था। जैन काव्यों पर्यायवाची है। चण्डादास और विद्यापति की राधा की में बाल-रस से सम्बन्धित गर्भ और जन्मोत्सवों की अपनी भांति सूर की राधा न मुखरा है और न विकासोन्मुखा। शैली है। वह उन्हें परम्परा से मिली है। इन उत्सवों के शालीनता मे खिची-सी, खोई-खोई सी राधा नेमीश्वर जैसे चित्र जैन काव्यों में उपलब्ध होते हैं, सूरसागर मे की भावी पत्नी राजुल की समवाची है। दोनो के भावो नहीं। सरदास जन्मोत्सवों के एक-दो पदो के बाद ही का साम्य इ-बहू है । यह कहाँ से मिला? खोज का विषय मागे बढ़ गये। किन्तु साथ ही यह भी सच है कि सूरदास है। विवाह-मण्डप तक माकर बिना विवाह किये ही ने अपनी बन्द प्रांखों से बालक कृष्ण की नाना मनो• नेमीश्वर पशुत्रों की पुकार से द्रवित होकर दीक्षा ले दशामों का जैसा भाव-विभोर निरूपण किया, जैन कवि गिरनार पर चले गये। विवाह-मण्डप में बैठी राजुल ने नहीं कर सके। दोनों पर अपनी-अपनी परम्पराओं का यह सुना तो उसकी असह्य वेदना हृदय की शत-शत प्रभाव था। एक दूसरे से प्रभावित नहीं थे। अतः डा० अश्रुधारामों मे विगलित हो उठी। कृष्ण भी राधा को रामसिंह तोमर का यह कथन कि 'हिन्दी का सभी काव्य- बिना कहे ही मथुरा चले गये फिर लौटे नहीं। दोनों मे पद्धतियों का स्पष्ट स्वरूप हमें जैन कवियो से प्राप्त हुआ अद्भुत माम्य है। सूर के भ्रमरगीत और विनोदीलाल है," ठीक नहीं है। तथा लक्ष्मीबल्लभ के 'बारहमासो' मे तुलना का पर्याप्त सूरदास ने दाम्पत्यमूला भक्ति मे कृष्ण की किशोरा- क्षेत्र है। किन्तु जहाँ कभी-कभी भ्रमरगीत निगुण के वस्था पर लिखा, और जम कर लिखा। इसम गोचारण, खडन मे दत्तचित्त-सा दिखाई देता है, वहा जैन विरह जाते है। इसे काव्य नितात काव्य की सामा तक ही सीमित है। उसमें शृङ्गार का सयोग पक्ष कहा जा सकता है। सूरसागर म खण्डन-मण्डन जैसी बात नही है । गोपियो के पैने तर्कों ने उसके एक-से-एक अनुपम दृश्य अंकित हैं। जैन काव्यो ऊधो जैसे दार्शनिक को निरुत्तर कर दिया। काव्य र का सयोग पक्ष 'विवाह' के सन्दर्भ में सन्निहित है । वर-वधू यह तक प्रवणता कही-कही रसाभास उत्पन्न करती है। जैन काव्य उससे बचे रहे। जैन कवि राजल, सीता और का सौन्दर्य, उसकी साज-सज्जा और श्रौत्सुक्य सयोग के अञ्जना के विरह गीतो तक ही सीमित नहीं रहे, उनका मुख्य पहलू हैं । यहाँ जैन कवियों के चित्र सजीव है 'गुरु-विरह' एक मौलिक तत्त्व है। गुरु के विरह म शिष्य देश काल की सीमा से परे। राजशेखर सूरि की राजुल की बेचैनी राजुल से कम नहीं। दूसरी ओर जैन कवियो पौर हेम विजय के नेमीश्वर-जैसे चित्र पाज भी मानस ने सुमति को राधा कहा और परमात्मा के विरह में के समक्ष प्रस्तुत हो जाते है। इनके अतिरिक्त जैन उसकी बेचैनी हिन्दी काव्य को नयी देन है। इन सन्दर्भो कवियों के 'प्राध्यात्मिक विवाह' और 'होलियों से मम्ब मे प्रकृति-निरूपण भी स्वाभाविक है। मित पद उनके अपने हैं। उन्हें यह परम्परा अपभ्रंश काव्यों से प्राप्त हुई। ये काव्य शक्ति के निदर्शन तो हैं सूरदास की भक्ति राखाभाव की भक्ति मानी जाती ही, भाव प्रवणता भी स्वाभाविक है। रूपको के माध्यम है। सखा भाव के कारण ही मूर मे प्रोजस्विता है। भैया से इनमें भाव और कला दोनो का ही उत्तम रूप उपलब्ध भगवती दास के 'ब्रह्म विलास' में भी प्रोज ही प्रमुख है। होता है। यह चेतन इस प्रात्मा को अपना सखा मानता है, जिसमें सुर का भ्रमरगीत विरह गीत है। कृष्ण के विरह मे परमात्म-शक्ति मौजूद है, किन्तु जो अपने रूप को न गोपियों की वेदना । भक्ति के परिप्रेक्ष्य मे यह विरह पहचान कर इधर-उधर बहक गया है। एक सच्चे मित्र जितना पावन है उतना ही सुन्दर । यहाँ भगवविरह की की भांति यह जीव उसे मीठी फटकार लगाता है। जैन भोट में विलासिता को यत्किचित् भी प्रश्रय नही मिला। कवियों का पद-काव्य इस प्रवृत्ति से प्रोत-प्रोत है। सर से यद्यपि सूर की गोपियों को काम ने लुज बना दिया है, अद्भुत साम्य है । सूर का भोज उनके मीठे उपालम्भों मे Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूरदास और हिन्दी का जन पद-काव्य : एक तुलनात्मक विश्लेषण २११ खिल उठा है। जैन कवियों के उपालम्भों में भी वैसी ही उनमें विविध राग-रागिनियों की सगीतात्मक लय है । जैन दम है। "तुम प्रभु कहियत दीनदयालु । मापन जाय पद काव्य के अध्ययन से सिद्ध है कि उसमें अनेक नवीन मुकति मे बैठं हम जु रुलत इह जग-जाल ।।" द्यानतराय राग-रागिनियाँ हैं। गेय काव्य सदैव लोक से सम्बन्धित का पद है। सूर के स्वर से मिलता जुलता । ऐसे अनेकान रहा है। वह लोक काव्य ही है। प्राकृत और अपभ्रंश नेक हैं। किन्तु जहाँ सूर के पदो मे अन्य देवो के प्रति काव्य लोक के सन्निकट रहा है। इसमे जैन साहित्य की तीक्ष्णता है, वहाँ भी जैन काव्य धीर-गम्भीर बने रहे है। अधिकाधिक रचना हुई। इसके अतिरिक्त रासक और उनके उपालम्भ मर्यादा के धागे से थोडा भी बिखर नही लोक नाट्य भी जैन मदिरो मे गाये और खेले जाते थे। सके। उनके निर्माता जैन कवि थे। वहां जैन हिन्दी पद काव्य की पूर्व भूमिका प्राप्त हो जाती है। क्या सूरदास के पदयद्यपि भक्त की प्रवृत्तिया और उसके दायरे सार्व काव्य को भी वहाँ से प्रेरणा मिली?-खोज का विषय है। भौम होते हैं, वहाँ सम्प्रदाय और धर्म सम्बन्धी वैभिन्य मिट जाता है, फिर भी कुछ-कुछ अपनी विशेषता बनी ही जहाँ तक काव्य सौन्दर्य के बाह्य पक्ष का सम्बन्ध रहती है। सूरदास और जैन कवियो के काव्य मे अद्भुत है. सूरसागर और जैन पद-काव्य दोनो की भाषा में साम्य है, फिर भी उनकी प्रेरणामो के मूल स्वर भिन्न है। स्वाभाविकता, प्रसाद और लालित्य है। दोनो मे मलकारों जैसे सूर की भक्ति केवल सगुण ब्रह्म' की भक्ति है। की खीचतान नही है। उनकी गति सहज है। जहाँतक उन्होंने 'निर्गुण ब्रह्म' का जबर्दस्त खण्डन किया है। जन रूपको का सम्बन्ध है, वह केवल सूर और जैन कवियो भक्ति में सगुण और निर्गण जैसी दो धाराय नही है। का नहीं, अपितु समूचे मध्यकालीन भक्ति-काव्य की प्रवृत्ति वहाँ जो तीर्थकर माज 'सगुण ब्रह्म' है, वह अधातिया रही है। किन्तु अध्यात्म के पैराक होने के कारण जैन कर्मों का नाश कर निर्गुण बन जाता है। इसी कारण जैन कवियों को यह परम्परा बहुत दूर से प्राप्त हुई और उसमे भक्ति और अध्यात्म मे पृथकत्व नहीं है । दोनो का सम- उनका सानी नहीं। उनमे कहीं पुनरावृत्ति नही, उबा न्वय ही जैन भक्ति का मूलाधार है। इसी भाँति सूरदास देने वाली बात नहीं। जैन कवियों के रचित अनेक पूरे और जैन कवियों ने अपने-अपने प्राराध्यदेव से याचनायें रूपक काव्य मिलते हैं। प्रकृति निरूपण मे दोनों समान की और दोनों की पूर्ण भी हुई । किन्तु जहाँ सूर के थे। भगवान ने स्वयं पाकर पूरा किया, वहाँ जैन ब्रह्म अपनी जैन पद-काव्य चित्रो का काव्य है। उसका एक-एक वीतरागी विवशता से न पा सका। उसक ध्यान, स्मरण, पद एक चित्र है। सूरदास मे भी चित्रमयता है, किन्तु नाम-जप आदि से जैन भक्त की जो पुण्य-प्रकृतिया बनती दोनो मे अन्तर है। पौराणिक नामो-प्रजामिल, गणिका हैं, उन्ही से वह इहलौकिक और परम्परया पारलौकिक आदि की पुनरावृत्ति से जहाँ सूरदास के चित्र कही-कही लक्ष्य प्राप्त कर लेता है। इसी से आचार्य समन्तभद्र ने धूमिल है, वहाँ जैन-चित्र दोषमुक्त हैं। वे अछूते तो नहीं लिखा, "न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे, न निन्दया नाथ हैं, किन्तु पुनः-पुनः की आवृत्ति स नितात बचे है। इसी बिवान्तवरे, तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिनः पुनाति चित्तं कारण उनमें ऊब नहीं है। उन्होंने सौन्दर्य के प्रति क्षण दुरिताञ्जनेभ्यः ।।" नवत्व को सहेजा है। सूर थोड़ा पीछे रह गये। एक ही चित्र यदि पुनः पुनः प्राये तो उसकी चित्रमयता ही चक सरदास मौर जैन कवियों के पद गेय काव्य है। जायेगी। सर मे ऐसा ही हुमा। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलिचपुर के राजा एल (ईल) और राजा अरिकेसरी पं० नेमचन्द्र पन्नूसा जैन एलोरा गुफा [जिला औरंगाबाद] के बाबत श्री अगर मान लिया जाय तो यह प्रथ बराबर एल राजा के मनि कांतिसागर 'खण्डहरों के वैभव' मे लिखते हैं- समकालीन ठहरता है। गने ई० सं० १९३ में ईल [एल] पश्चिमी गुफा मंदिरों मे एलागिरी एलोरा का स्थान राजा एलिचपूर मे शासन कर रहे थे तब यह ग्रंथ रचा बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। प्राकृत भाषा के साहित्य में गया है। प्रतः एलोरा मे दि. जैन गुफा निर्माण करने इमका नाम एल उर मिलता है। धर्मोपदेशमाला के विव- वाले और उसके लिए अनत द्रव्य खर्चा करने वाले एल रण में [रचना काल सं० ९१५] समयज्ञ मुनि की एक राजा दिगम्बर ही सिद्ध होते है। कथा पाई है, कि वे भृगुकक्ष नगर से चल कर 'एल उर' नगर प्राये और दिगम्बर वसही मे ठहरे। इससे जान लेकिन खण्डहरो का वैभव मे पृष्ठ १२. पर मुनिजी लिखते हैं-"नवागी वृत्तिकार से भिन्न, मलधारी श्री पडता है उन दिनों एल उर की ख्याति दूर दूर तक फैली अभयदेवसूरि ने विदर्भ में प्राकर प्रतरिक्ष पाश्वनाथ की हई थी। दिगम्बर वस्ती से गुफा का तात्पर्य नही है ?" [पृष्ठ ४८] प्रतिष्ठा वि० स० ११४२ माघ सुद्ध ५ रविवार को की। ___ यहां उन्होंने धर्मोपदेशमालावत्ति का उद्धरण वाक्य अचलपूर के राजा ईल [गल] जैन धर्मानुयायी था। उसने दिया है-तमो नदपाहिहाणो साह कारणान्तरेण पट्टविमो पूजार्थ श्रीपुर-सिरपुर गांव चढाया था।" गुरुणा दक्षिणावह । एगागी वच्चतो य परोसे पत्तो और गहाँ ईल गजा की टिप्पणी में मुनिजी लिखते एलउर।" [धर्मोपदेशमाला पृष्ठ १६१] । हैं-'ईल राजा ने अभयदेवसूरि द्वारा मुक्तागिरी तीर्थ पर एलिचपुर के राजा एल के कारण बसा हा जो भी पाश्वनाथ स्वामी की मूर्ति की प्रतिष्ठा करवायी थी। नगर वह एलउर [उर याने नगर]-एलोरा है। यह इति शील विजयजी ने इस तीर्थ की वदना की थी।' हास सिद्ध है। यहा की कई गुफाएँ भले ही एल राजा से अब सोचिए कि, वि० स० ११५ या शक संवत ८१५ प्राचीन हैं तो भं। उस स्थान को एलोर यह नाम राजा [वि०म० १०५०] में होने वाले ईल राजा, वि० सं० एल के बाद ही पड़ा, यह सुनिश्चित है। कोकि राजा ११४२ मे अभयदेवसूरि के हाथ से शिरपुर या मुक्तागिरी एल यह दिगम्बर जैन था और उसने श्रीसिद्धक्षेत्र मुक्ता - मे किस तरह प्रतिष्ठा कर सकते हैं ? गिरी, शिरपुर [जिला अकोला] और यहाँ-एलोरा मेदि. जैन संस्कृति दर्शक शिल्प निर्माण किये है। एलोरा मुनि कांतिसागर जैसे सत्यशोधक और इतिहासज्ञ काबीन व्यक्ति द्वारा ऐसा लिखा जाना कैसे उचित कहा जा मे जन दि० गुफा होने का यह ऊपर का प्रति प्राचीन उदाहरण है । धर्मोपदेशमाला वृत्ति का रचना काल मनि सकता है-इससे तो इतिहास का ही हनन होता है। जी स०१५ मानते हैं। वह विक्रम सवत मानें तो एल मुक्तागिरि यह सिद्ध क्षेत्र सर्वथा दिगम्बरों का ही गजा का काल भी इसके पूर्व या समकालीन ठहरता है। है और था भी। न वहा श्वेताम्बरों के कोई चिह्न हैं, लेकिन यह गलत है। एल राजा का काल दसवी शदी ___ न भूत में थे । न कोई इतिहास उसका साक्षी है। जान - का उत्तरार्ध सुनिश्चित है। अतः यह सवत शक संवत पड़ता है कि, एक झूठ पचाने के लिए यह दूसरा झठ १. देखो अनेकात १९६४ अगस्त के प्रक में 'राजा बताया है। जिन दि. जैन ईल राजा ने अंतरिक्ष पाश्वं. श्रीपाल उर्फ ईल' नामका मेरा लेख । नाथ क्षेत्र का निर्माण किया, उस क्षेत्र को हस्तगत करने Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलिचपुर के राजा एल (ईल) और राजा परिकेसरी की। चेप्टा करके राजा के मूलस्थान पर ही माघात करने "हवि संघली विगंबर बसि, सणुनसुषोतं घणु उल्हसि ॥१५ का यह प्रयत्न है। शिरपुर नयर अंतरीक पास, अमीझरो वासीम सुबिलास। वि० सं० ११४२ की प्रतिष्ठा की जानकारी मे हमारे परगट परतो पूरि माज, नव निषि प्रापी ये जिनराज॥१४ हाथ श्वेताम्बर रचित अंतरिक्ष पार्श्वनाथ तीर्थ परिचय माश्चर्य यह है कि जहां सब दिगम्बर ही दिगम्बर पुस्तक प्राया। वहां उसके सिद्धि के लिए उन्होंने प्राचीन बसते है वहां का भगवान क्या श्वेताम्बर हो सकता है? प्राचार्यों का कोई साहित्यिक आधार तो नहीं बताया, अर्थात् शीलविजयजी के शब्दों मे उन दिनो शिरपुर से लेकिन कहा कि, विक्रम की अठारहवी शताब्दी के भाव- लगाकर समुद्र तक सब दिगम्बर बसही ही थी। विजयगणी को पद्मावती माता ने साक्षात्कार में यह इति. इतना स्पष्ट उल्लेख होने पर भी ये श्वेताम्बर कहते हास सुनाया। है-१. हमारे पूर्वजों ने यात्रा की थी। २. हमारे साहित्य न मालूम यह झूठा इतिहास बताने वाली पद्मावती में उल्लेख है। ३. हम इनके भक्त हैं। प्रादि। उसका कौन थी और वे भावविजयगणी कौन थे। यह एक स्वतत्र सीधा उत्तर है-१. हमारे दादा ने ताजमहल की यात्रा चर्चा का विषय है कि श्वेताम्बरों के इस स्व-तंत्र की पूरी की थी, तो क्या ताजमहल हमारे दादा का होगा? २ समीक्षा की जावे । जिन अभयदेवसूरि के हाथ से मुक्ता- इनके साहित्य में प्रकबर मादि बादशाह के उल्लेख हैं, गिरी व शिरपुर की प्रतिष्ठा हुई ऐसा बताया जाता है। तो क्या बादशाह इनके हो गये? या ये बादशाह के उनके शिष्य हेमचद्रसूरि ने अचलपुर प्रादि की चर्चा मे । समाज के कहलाये ? ३. हजारो हिन्दू संलानीबाबा [ज. इसका उल्लेख क्यों नही किया? १४, १५ तथा १६वी बुलढाणा] की भक्ति करते हैं, तो क्या सैलानीबाबा शताब्दी में होने वाले जिनप्रभ, सोमप्रभ और लावण्य जनके हो गये? समय मादि विद्वानों का प्रतरिक्ष पाश्वनाथ के इतिहास के इस पर वे कहते हैं, ये हमारे थे, इसीलिए हमने या लेखक ने इनका क्यों नहीं बखान किया? तथा हमारे प्राचार्यों न इनकी पूजा-वदना की, अन्यथा उनकी भावविजयगणी के समय इस बात का पता चला पजा नही करते। BAATEEर : गिना टेवा पूजा नहीं करते। इनताम्बर गुरु दिगम्बर देव को पूजते ऐसा मान भी लिया जाय और श्वेताम्बर-परिचय या नही इसके उत्तर में शीलविजयजी का ही वाक्य उद्पुस्तिका मे बताये मुजब भावविजयगणी ने वि. स. धत करता है१७१५ मे वहां प्रतिष्ठा की और बड़ा मन्दिर निर्माण "पुरवाचार्य ने वचने घरी, देव विम्बर बंधा फिरी।"१००, किया होता तो, उनके बाद सिर्फ १० और २० साल मे [तीर्थमाला] इस तीर्थ की वदना कर इतिहास देने वाले शीलविजय इस वाक्य से यह स्पष्ट है कि श्वेताम्बर समाज और तथा विनयराज इन्होंने उस इतिहास का और इस प्रतिष्ठा गुरु दिबम्बर देव को दिगम्बर जानकर ही-न कि श्वे. व उद्धार का क्यो नहीं उल्लेख किया ? शीलविजय ने न ताम्बर बना कर-पूजते थे। इसमें पूर्वाचार्य का वचन तो वि० सं० १७२१ मे ही दक्षिण भारत की यात्रा शुरु की थी और जगह-जगह का इतिहास जान कर तथा प्रत. दिगम्बर जैन तीर्थ को केवल यात्रा करने से, मांखों देखी सच्ची सामग्री उनकी तीर्थमालामे दी हुई है। या माहित्य में उल्लेख मिलने से. या इनको अनि रे जब वे नर्मदा छोड़कर बुरहाणपुर, मल्लकापुर तथा से श्वेताम्बर बताना या बनाना याने दुनिया के एक इतिदेऊलघाट माये तब वहा के नमीश्वर भगवान के दशन दास को नष्ट-भ्रष्ट कर देना है। क्या यह ही जैन धर्म कर वे लिखते हैं की शिक्षा है? १. प्रतरिक्ष पार्श्वनाथ यह क्षेत्र किसका है, इसके मालिक २. एलिचपुर के राजा दिगम्बर जैन ही ये इसका कौन हैं इसके विवाद मे दिगम्बर मौर श्वेताम्बरो के एक और उल्लेख यहाँ दे रहा है। शक स.९१५ मे रची वीच दीवानी केस अभी चालू है। हई धर्मोपदेशमाला के पृष्ठ १७७पर श्वेताम्बरीय जयसिंह Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भनेकान्त सूरि लिखते है-"अयलपुरे दिगंबर भत्तो 'भरिकेसरी' काल होगा और पहले परिकेसरी का राज्यकाल शक राया। तेणेय काराविमो महापासाघो परट्ठावित्राणि ७०० के प्रामपाम पाता है, जो कि कलिगमय सहित तित्थयर विवाणी।" तिलगन], वेगी प्रदेश [गोदावरी जिला] पर भी शासन एलिचपुर के इतिहास मे ईल राजा के सिवाय करने वाले थे। इनके पिता सपादलक्ष [सवालख] प्रदेश किसी अन्य जैन राजा या वंश परम्परा का उल्लेख नहीं के स्वामी ये। मिलता। तो भी प्राचीनतम यह उल्लेख दिगम्बर जैनों धर्मोपदेशमाला का रचनाकाल वि० सं० ८१५ अगर की दृष्टि से बड़े महत्व का है। माने ती उसमें उद्धृत परिकेसरी [शक ७००] प्रथम ही एक बात तो निर्विवाद है कि गष्टकटों का अमल हो सकते हैं। लेकिन डा. जोहरापुरकर के मत से उन [अधिकार] दसवी सदी के प्रत तक एलिचपुर [विदर्भ] दिनों चालुक्य और राष्ट्रकूटों में शत्रुत्व था। चालुक्य उन तक चलता ही था। अतः जो परिकेसरी उन दिनों दिनों मे गगवशीय नरेशो के सामंत थे। अतः उनका यह एलिचपुर में थे वह सामंत ही होगे, निदान शत्र तो हो ही उल्लेख नहीं हो सकता। नहीं सकते। द्वितीय या तृतीय परिकेसरी का वह उल्लेख मानें गष्टकटों के सामंत में चालुक्यवशीय नरेशों की तो धर्मोपदेशमाला का रचनाकाल शक स. ११५ ही वंशावली में लीन प्ररिकेसरी का पता चलता है। निश्चित होता है। प्रत वह उल्लेख तृतीय परिकेसरी उमके प्राधार तीन हैं-१. कवि पंप के विक्रमार्जुन का ही अधिक जान पडता है। जो एलिचपुर में प्रतिष्ठा विजय [रचना काल शक स. ८६३] मे चालुक्यों की के प्रमख होंगे और धर्मोपदेशमाला की यह घटना लेखक बंशावली दी है-युद्ध मल्ल-अरिकेसरी-नरसिंह-युद्ध- को पाखो देखी घटना हो सकती है। मल्ल-बहिग-नरसिंह और केसरी। क्योकि शक स. ८१४ तक राष्ट्रकूट राजा श्रीकृष्ण२. यशस्तिलक की प्रशस्ति मे श्रीसोमदेव सूरि गजदेव [नित्यवर्ष ] शासन करते थे । और उनका प्रभाव दिगम्बराचार्य लिखते है-'चैत्र वदी १३ शक म०५१ केरल से लगा कर पूरे विदर्भ, मराठवाडा तक था इनके को राष्ट्रकटराजा श्रीकृष्णराज देव के....."चरणोपजीवी भी दिगम्बराचार्य को बहुत दान देने के उल्लेख मिलते सामंत बहिग की-जो चालुक्य वशीय परिकेसरी के हैं। इनके बाद इन्द्रराज चतुर्थ शक सं० ८६ से १०४ प्रथम पुत्र थे-राजधानी गगधारा में यह काव्य समाप्त तक गद्दी पर थे। और बाद में राष्ट्रकटों का राज्य चला गया। ३. परभणी [मगठवाडा] जिले में मिले हुए एक एक बात फिर नजर मे गती है कि-इन्द्रराज चतुर्थ ताम्र पत्र में-पंप के जैसी ही चालुक्यो को वशावनी दी के समय उनकी उपराजधानी एलिचपुर में किसी 'हरिहै और अन्त में कहा है कि बहिग के पत्र अरिकेसरी वर्ष' नाम के राजा की अपमृत्यु के बाद एक ग्वाल ने हए । इन्होंने शके ८८८ में श्रीसोमदेव सूरि को पिता के एलिचपुर का राज्य लिया था। [इसकी चर्चा अनेकात के शुभधाम जिनालय के व्यवस्था के हेतु कुछ भूमि दान पिछले अक में की गई है।] हिन्दू पुराणो मे उल्लेख दी थी। आता है कि-एलिचपुर के प्रासपास का प्रदेश 'इलावत' एक राजा का राज्यकाल सरसरी तौर पर २५ साल नाम से प्रसिद्ध था। और इलावर्त का राजा ईल था। का भी मान लेवें नो यह निष्कर्ष निकलता है-शक स. १. यादव माधव काले कृत 'व-हाड-चा इतिहास' पृष्ठ ८८८ यह तीसरे परि केसरी के राज्य का प्रारम्भकाल ७०+७१-इस एलिचपुर को इलावर्त कहते यहाँ होगा। शक ८६३ यह दूसरे भरिकेसेरी के राज्य मन्तिम ईल नरेश राज्य करते थे। है. इसकी विस्तृत चर्चा श्री प्रेमीजी ने 'जैन साहित्य २. मदिरमाला मुक्तागिरि पृ०१ [वोराकृत]-इलावर्त मौर इतिहास' में श्रीसोमदेवसूरि के लेख में की है। का राजा ईल था। Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एलिचपुर के राजा एल (ईल) और राजा परिकेसरी २१९ बहाल जन अन्यों में उल्लिखित इल्लि देश और यह इलावर्त अर्थात् यह घटना शके ९०४ [वि० सं० १०३६] के एक ही है। अतः राज्यारोहण समय उस ग्वाल ने श्रीपाल बाद की मालूम होती है। अतः शक ९१५ में इसका नाम धारण करने पर भी जैन पोर इतर साहित्य में उल्लेख होना अधिक महत्त्व रखता है। इससे भी स्पष्ट उसकी प्रसिद्धि इल नाम से ही हुई। इसने राष्ट्रकूटों का होता है कि दिगम्बर भक्त परिकेसरी को बुलाने वाला मामत पद स्वीकार कर लिया था। और ऐसा करने से ईल राजा दिगम्बर जैन ही था। न कि श्वेताम्बर । तथा ही वह निराबाध शासन कर सका। इसने दिगम्बर जैन ईल राजा राष्ट्रकूटों का सामत था, और राष्ट्रकूटों के धर्म स्वीकार किया था। इसको किसी समय स्वप्न के सम्बन्धित जितने भी जैन राजे, श्रावक या मुनि थे वे सब दृष्टांत से भगवान पार्श्वनाथ की एक मूर्ति की प्राप्ति दिगम्बर ही थे। [देखो-गोविंद सखाराम सरदेसाई B.A. हुई थी। बड़ोदाकृत 'हिन्दुस्थानचा अर्वाचीन इतिहास भाग २, पृ. हो सकता है कि इसकी प्रतिष्ठा के समय इन्द्रराज १६-[अनुवादित]-"चालुक्योंके समय जैनों का महत्त्व चितुर्थ] की मृत्यु हो गई होगी, इसलिए सामन्त चुडामणि शुरु हुमा । वह राष्ट्रकूटो के समय बढ़ता गया कितनेक या सामताधिपति ऐसे प्ररिकेसरी तृतीय को उस मंगल तिमेरिकेसरी ततीय को मंगल सामत राजे और वैश्य गृहस्थ जैन धर्म के कट्टर उपासक पंचकल्याण के प्रतिष्ठा के लिए बुलाया होगा और प्रमुख थे, "यह जैनधर्म का दिगम्बर पंथ था।" के नाते वह या अन्य और मूर्ति की प्रतिष्ठा इनके हाथ से ईल राजा को दिगम्बर जैन सिद्ध करने वाले पौर हई होगी। ये दिगम्बर भक्त तो थे ही। भी अनेक प्रमाण हैं, जिन पर यथा समय प्रकाश पड़ेगा ही। तो भी प्रत्यक्ष श्वेताम्बर समकालीन साहित्य से भी ३. देखो १९६३ दिसबर के अनेकांत में डा० जोहरा- ईल राजा के दिगम्बर जैनत्व पर सुनिश्चित प्रकाश पड़ता पुरकर का 'राजा एल' यह लेख । है। प्रस्तु।. प्रात्म-सम्बोधन वा दिन को कर सोच जिय मन में ॥ वनज किया व्यापारी तूने टांश लावा भारी रे । प्रोछो पंजी जना खेला, माखिर बाजी हारी रे ॥ इक दिन डेरा होयगा वन में, कर ले चलने की तैयारी॥वा दिन को॥१ झूठे नना उल्फत बांधी, किसका सोना किसका चांदी। इक दिन पवन चलेगी मांधी, किसकी बीबी किसकी बांदी। नाहक चित्त लगावे धन में ॥वा दिन को० ॥२ मिट्टी सेती मिट्टी मिलियो पानी से पानी । मरख सेती मूरख मिलियो, जानी से ज्ञानी ॥ यह मिट्टी है तेरे तन में ॥ वा दिन को० ॥३ कहत 'बनारसि' सुनि भवि प्राणी, यह पर है निरवाना रे। जीवन मरन किया सो नाहीं, सिर पर काल निशाना रे॥ सूझ पड़ेगी बुढ़ापे पन में ॥वा दिन को० ॥४ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखएडागम-परिचय बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री प्रस्तुत ग्रन्थ 'षट्खण्ागम' नाम से प्रसिद्ध है। यद्यपि भारोपित करके ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पचमी के इस नाम का निर्देश मूल ग्रन्थ मे कही पर भी उपलब्ध दिन चातुर्वण्य सघ के साथ उन पुस्तकोपकरणों से विधिनही होता है, तथापि उसके ऊपर 'धवला' टीका के रच- पूर्वक पूजा की थी। इसीसे उक्त पचमी तिथि 'श्रुतयिता प्राचार्य श्री वीरसेन स्वामी ने प्रकृत ग्रन्थ क पचमी' के रूप में प्रसिद्ध हुई। अाज भी जैन जन उक्त अन्तर्गत कृति-अनुयोगद्वार में उसका कुछ संकेत किया तिथि पर श्रुत की पूजा करते है। है। यथा अपने उपयुक्त नाम के अनुसार प्रस्तुत परमागम तदो भदबलिभडारएण सुदणाणपवाहवोच्छेदभीएण निम्न छह खण्डो में विभक्त है-१जीवस्थान, २ क्षुद्रकभवियलोगाणुग्गहठ्ठ महाकम्मपडिपाहडमुवसहरिऊण बन्ध, बन्धस्वामित्वविचय, ४ वेदना, ५ वगणा पोर महा'छखडाणि' कयाणि। धवला पु० ६ पृ० १३३ बन्ध३ । अर्थात् भूतबलि भट्टारक ने श्रीधरसनाचाय स महा प्रन्थ-प्रमाण कर्मप्रकृति-प्राभूत प्राप्त करके प्राग श्रुतज्ञान के प्रवाह के प्राचाय इन्द्रनन्दी के उल्लेखानुसार प्रकृत परमागम नष्ट हो जाने के भय से भव्य जीवो के अनुग्रहार्थ उक्त के अन्तर्गत जीवस्थान प्रादि प्रथम पाच खण्टो का प्रमाण महाकमप्रभूतिप्राभूत का उपसहार करके छह खण्ड किये - २, प्राद्य जीवस्थानं क्षल्लकबन्धाह्वय द्वितीयमतः । -षट्खण्डागम के रूप में परिणत किया। बन्धस्वामित्व भाववेदना-वर्गणारखण्डे ।। वीरसेन स्वामी के शिष्य भाचाय जिनसेन स्वामी न एव षट्खण्डागमरचना प्रविधाय भूतबल्यार्यः । भी इसका सकेत अपनी 'जयधवला' टीका की प्रशस्ति मे प्रागेप्यासदभावस्थापनया पुस्तकेषु ततः ॥ किया है। वहां उन्होने इस षट्खण्डागम परमागम को जेष्ठसितपक्षपञ्चम्यां चातुर्वर्ण्यसघसमवेतः । छह खण्डस्वरूप भरत क्षेत्रकी उपमा देकर उसके विषय मे तत्पुस्तकोपकरणव्यंधात् क्रियापूर्वकं पूजाम् ॥ भरतचक्रवर्ती की आज्ञा के ममान प्राचार्य वीरसेन की थतपञ्चमीति तेन प्रख्याति तिथिरिय परामाप । भारती को-धवला टीकास्वरूप वाणी को-अबाध बत अद्यापि येन तस्या श्रुतपजां कुर्वते जैनाः ॥ लाया है। इन्द्र०श्रृता० १४१-१४४ इसके अतिरिक्त प्राचार्य इन्द्रनन्दी ने तो अपने इनके अतिरिक्त श्लोक १३४, १३७, १४६ पोर श्रुतावतार में अनेकों कार उपयुक्त नाम का उल्लेख किया १४६ भी द्रष्टव्य हैं। है। वे उसके सम्बन्ध में विशेष स्पष्टीकरण करते हए कहते हैं कि प्राचाय भूतबलि ने छठे खण्ड महाबन्ध के ३. इनमे से प्रारम्भ के जीवस्थानादि ५ खण्ड श्री सेठ शितावराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योबारक फण्ड साथ जीवस्थान, क्षुल्लकबन्ध, बन्धस्वामित्व, भाववेदना कार्यालय से क्रमश. १-६,७,८, ६-१२, १३-१६, इस पौर वर्गणा खण्डोंस्वरूप 'षट्खण्डागम' की रचना करके प्रकार १६ जिल्दो मे धवला टीका के साथ प्रकाशित व उसे पसद्भावस्वरूप स्थापनानिक्षेप से पुस्तको मे हो चुके हैं । मन्तिम खण्ड महाबन्ध मूल रूपमे हिन्दी १. प्रोणितप्राणिसम्पत्ति राक्रान्ताशेषगोगरा। अनुवाद के साथ भारतीय ज्ञानपीठ काशी द्वारा ७ भारती भारतीवाज्ञा षट्खण्ड यस्य नास्खलत् ।। जिल्दों मे अलग से प्रकाशित हुमा है। Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्सण्डागम-परिचय २२१ س १४२ छह हजार (६०००) लोक और अन्तिम खण्ड महाबन्ध १. वेदनानिक्षेप ३ ६.वेदनास्वामित्वविधान ५ का प्रमाण तीस हजार (३००००) श्लोक है। । ग्रन्थ का २. वेदनानयविभा. ४१०. वेदनावेदनाविधान ५८ अधिकाश भाग गद्या-मक सूत्रों में रचा गया है। फिर भी ३. वेदनानयविधान ४१.वेदनागतिविधान १२ यत्र क्वचित वहां कुछ गाथा-सत्र भी उपलब्ध होते हैं। ४. वेदनाद्रव्यविधान २१ १२. वेदनाअन्तरविधान ११ ग्रन्य गत समस्त सूत्र-सख्या इस प्रकार है ५. बेदनाक्षेत्रविधान ९६ १३. वेदनासंनिकर्षवि. ३२० ६. वेदनाकालविधान २७६ १४. वेदनापरिमाणवि. ५३ १-जीवस्थान ७. वेदनाभावविधान ३१२ १५. वेदनाभागाभागवि. २१ मदादि अन० सूत्रसंख्या चूलिकायें सूत्रसंख्या ८. वेदनाप्रत्ययविधान १६ १६. वेदनामल्पबहुत्व २६ १. मत्प्ररूपणा १७७ १. प्रकृतिममुत्कीर्तन ४६ - - २. द्रन्यप्रमाणानुगम १९२ २. स्थानसमुत्कीर्तन ११७ १५२१ ३. क्षेत्रानुगम ६२ ३ प्रथम दण्डक २ गाथा-सूत्र ४. स्पर्शनानुगम १८५ ४. द्वितीय , २ १५२९ ५. कालानुगम ३४२ ५. तृतीय , २ ५-वर्गणा ६ अन्तगनुगम ३६७ ६. उत्कृष्ट स्थिति ४४ ७. भावानुगम६३ ७. जघन्य , ४३ अनुयोगद्वार गद्यसूत्र गाथासूत्र ८. अल्पबहुत्वानुगम ३८२ ८. सम्यक्त्वोत्पत्ति १६ १ स्पर्श ९ गत्यागति २४३ २. कर्म १८६० ३. प्रकृति ५१५ ४. बन्धन .. ममस्त जीवस्थान १८६०+५१५२३७५ ९६२ २-क्षुद्रक बन्ध ५ खण्डो की समस्त सूत्रसंख्याबन्धक सत्प्ररूपणा ४३ ७. स्पर्शनानुगम २७८ एकजीवेन स्वामित्व ६१ ८. नानाजीवकाल ५५ १. जीवस्थान २३७५ २. एक जीवेन कालानु. २१६ ६. नानाजीवनन्तर ६८ २ क्षुद्रकबन्ध १५६३ ३. एकजीवेन अन्तरानु. १५१ १०. भागाभाग ८८ ३ बन्धस्वामित्व ३२४ ४. नानाजीवभगविचय २३ ११. अल्पबहुत्व २०६ ४. बेदना १५०६ ५ द्रव्यप्रमाणानुगम १७१ १२. महादण्डक ७९ ५. वर्गणा १०२० ६. क्षेत्रानु गम १२४ २गमस्त क्षुदकबन्ध १५६३ इस प्रकार घवला टीका से समृद्ध पचखण्डस्वरूप ३-बन्धस्वामित्व-विचय षट्खण्डागम के अन्तर्गत समस्त सूत्र छह हजार पाठ सो इकतालीस (६८४१) हैं। ४-वेदना यह ऊपर कहा ही जा चुका है कि अन्तिम (छठा) १. कनिअनुयोगद्वार ७५ खण्ड महाबन्ध स्वयं प्रार्य भूतबलि के द्वारा विस्तार२ वेदना पूर्वक रचा गया है, जिसके ऊपर वीरसेन स्वामी को टीका १. इन्द्र० श्रु० १३६-४० लिने की आवश्यकता प्रतीत नही हुई। यह समस्त २. देखो आगे वर्गणा खण्ड की सूत्रसंख्या खण्ड तीस हजार श्लोक प्रमाण है। ७८८ 1 MG NI Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अनेकान्त प्रन्यकी भाषा १. स्वरों के मध्यवर्ती त के स्थान में द६ । जैसेजैसा कि समवायांग सूत्र और जबूदीवपण्णत्ति में४ संयतासयत-संजदासजद (१, १,१३), गति गदि (१, निर्दिष्ट है, समस्त तीर्थंकरों का उपदेश अर्धमागधी भाषा ६-१, १२८) मादि। में हमा करता है। भगवान् महावीर स्वामी के समय में यह २. स्वरों के मध्यवर्ती थ के स्थान में ध७ । जैसेअर्धमागधी भाषा प्रचलित लोकभाषा रही है । उसके अर्ध- कथ-कचं (२,२,४)। मागषी इस नाम से प्रसिद्ध होने का कारण यह है कि ३. श और ष के स्थान मे सः। जैसे-लेश्या वह मगध देश के मधं भाग मे-जहाँ कि भगवान् लेस्सा (१.१,४), मादेश प्रादेस (१,१,८); घोष घोस महावीर का विहार हुआ है-बोली जाती थी३ । प्राचीन (४,१,५४)। जैनागम प्रायः इसी भाषा मे निर्मित हुमा है । आज ४. क्त्वा प्रत्यय के स्थान मे दूण । जैसे-कृत्वादिगम्बर सम्प्रदाय में जो प्रवचनसारादि अनेक प्राकृत कादूण (४, २-४७०), संसृत्य-ससरिदूण (४, २.४, ग्रंथ उपलब्ध होते है वे शौरसेनी-जन शौरसेनी-प्राकृत ७१)। विकल्प में अनुपाल्य-प्रणुपालइत्ता (४, २-४, मे रचे गये हैं, ऐसा मनक भाषा शास्त्रियो का अभिमत ७१), विहन्य-विहरित्ता (४, २-४, १०७)। ५. प्रथम पुरुष के एक वचन मे विहित इ के लिए पौराणिक काल में मथुरा के एक राजा-भगवान द का आगम१०। जैसे-बधबधदि, १, ६-१, १, नेमि जिनके प्रपितामह-का नाम शूरसेन था। उसने १, ६-१,२) ठवेइ-ठवेदि (१, ६-८, ५)। मथुरा के समीप शौर्यपुर नाम के नगर को बसाया था। ६. भू धातु के आदेशभूत हकार के स्थान मे भ११ । उक्त राजा के नाम से यह प्रदेश 'शूरसेन' नाम स प्रसिद्ध जैसे-भवदि (१,६-४, १); होदि (१,६,२)। रहा है । प्रस्तुत शौरसना सम्भव है इस देश की इसके विपरीत कुछ ऐसे भी उसके लक्षण है जो यहाँ लोकभाषा रही हो। नही पाये जाते, किन्तु उनके स्थान म अन्य ही रूप उपप्रकृत षट्खण्डागम की भाषा में इस शौरसेनी प्राकत लब्ध होते हैं। यथाके कुछ लक्षण दृष्टिगोचर हाते है। यथा १. यं के स्थान में य्य १२ । जैसे-पर्याप्त-पज्जत्त (१,१,३४)। १. भगवं च णं अद्धमागहीए भासाए धम्ममाइक्खइ २२ २. पूर्व के स्थान मे पुरव१३ । जसे-पूर्व-पुव्व (१, सा वि य णं प्रद्धमागही भासा भासिज्जमाणी तेसि ५, १८)। सम्वेसि प्रारियमणारियाण दुप्पय-च उप्पय-मियपसु- ३. कुन और गम् धातु के मागे क्त्वा प्रत्यय के पक्खि-सरीसिवाण प्रप्पणो हियसिवसुहयभासत्ताए परिणमइ २३ । सम० सू० ३४, स्थानक ३४। ६. दस्तस्य शौरमेन्यामखावचोऽस्तोः। प्रा० शब्दानु. २. अदिसयवयणेहि जुदो मागधश्रद्धहि दिव्वघोसहि । तस्स दुरूव दट्ठ मेत्ताभावो दु जीवाण ॥ ७. यो धः। प्रा० श० ३, २,४। ज०प०१३-१०२। ८. शेषं प्राकृतवत् । प्रा.श. ३, २, २६, शो: सल् । ३. मगहविसयभासाणिबद्ध अदमागह, अट्ठारसदेसी भासाणियय वा अद्धमागह । निशीथचूणि (१९६०) १. इय-दूणौ क्त्व: । प्रा० श० ३,२,१०। ३, भाष्य गा० ३६१८ । १०. इचेचोदं । प्रा० श० ३, २, २५ । पायसद्दमहण्णमो (१९२८) प्रस्तावना पृ० ३४, ११. भुवो भ. । प्रा० श. ३, २,६। षट्खण्डागम पु० १ प्रस्तावना पृ० १८०। १२. यो व्यः । प्रा० श० ३, २,८। ५. ह. पु० १८, ८-१४ । १३. पूर्वस्य पुरवः । प्रा० श० ३, २, ६। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटनण्डागम-परिचय २२३ स्थान में प्रदुम मादेश१ । जैसे-कादूण (, २.४.७०) नारकियों के लिए 'उम्पट्टिदसमाणा' व 'पागच्छति'। गंतूण (३, २२) (सूत्र १, ६-१,७६ आदि)। ४. इदानीम् के स्थान में दाणि२ । जैसे-इवाणि __तिर्यचो व मनुष्यों के लिए 'कालगदसमाणा' व (१, ६-३, १)। 'गच्छंति' (१,६-६.१०१ और १४१ आदि)। १. भविष्यत् अर्थ मे स्मि३ । जैसे-वणइस्सामो देव सामान्य, भवनत्रिक और सौधर्म-ऐशान कल्पवासी (१, ६-६, २); णिल्लेविहिदि (४, २-४, ४६)। देवो के लिए 'उव्वट्टिद-चुदसमाणा' व पागच्छति'६ (१, इस प्रकार चूकि प्रस्तुत ग्रन्थ की भाषा में शौरमेनी धादि।। के कुछ लक्षण तो उपलब्ध होते है और कुछ नही भी सानत्कुमार आदि देवों के लिए 'चुदसमाणा' व उपलब्ध होते हैं, अतएव उसे जैन शौरसेनी प्राकृत कहा ___ 'पागच्छति'७ (१, ६-६, १६१ प्रादि)। जा सकता है। वह जहां अर्धमागधी से प्रभावित है वहाँ उसमें महाराष्ट्री के भी बहुत से लक्षण उपलब्ध द्वादशांग से उसका सीधा सम्बन्ध होते हैं । पर महाराष्ट्री शौरसेनी से प्राचीन नहीं है, प्रतः धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी ने प्रस्तुत ग्रन्थ का द्वादउस शौरसेनी का प्रभाव ही महाराष्ट्री पर समझना शाग से सीधा सम्बन्ध बतलाते हुए७ प्रथमतः प्रमाण, नय चाहिए। पौर निक्षेप आदि के कथनपूर्वक समस्त श्रुत का विस्तार से कुछ विशिष्ट शब्दों का उपयोग परिचय कराया है। उन्होंने वहाँ बतलाया है कि बारहवें जिस समय प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना हुई उस समय व दृष्टिवाद नामक अग के पांच भेदो मे चौथा भेद पूर्वगत उसके पूर्व भी यथास्थान कुछ विशिष्ट शब्दो का ही उप है। वह उत्पादपूर्व मादि के भेद से चौदह प्रकार का योग होता रहा है। यह पद्धति प्रस्तुत ग्रन्थ में भी देखी है। उनमें से प्रकृत मे दूसरा अग्रायणीय पूर्व विवक्षित जाती है । जैसे-तत्त्वार्थमूत्र आदि ग्रन्थो मे जहाँ इन्द्रिय व के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणादि अनुयोगमन के निमित्त से होने वाले ज्ञान के लिए 'मति' शब्द द्वारों का अनुवाद ही समझना चाहिए । नन्दिसूत्र का प्रयोग हुमा है वहाँ प्रस्तुत ग्रन्थ में उसके लिए सर्वत्र मादि पागम ग्रन्थों में भी यही आभिनिबोधिक शब्द 'माभिणिबोहिय-'माभिनिबोधिक' शब्द का ही उपयोग उपलब्ध होता है। किया गया है। विपरीत ज्ञानी के लिए जैसे मति इम विशेषता को स्वयं सूत्रकार ने ही निम्न सूत्र के अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी शब्दो का उपयोग हुपा है वैस द्वारा व्यक्त किया है--सणक्कुमारप्पहुडि जाव सदरअवधि-प्रज्ञानी शब्द का उपयोग नही हुआ, किन्तु उसके सहस्मारकप्पवासियदेवेसु पढमपुढवीभंगो णवरि चुदात्ति स्थान मे सर्वत्र विभगज्ञानी (विहगणाणी) शब्द का ही भाणिदव्यं । १,६-६, १६१। उपयोग हुआ है। ऐसी ही कुछ विशेषता वर्तमान में भी कहीं-कहीं पर जीव जब एक गति से निकल कर-मर कर-दूसरी पाई जाती है । जैसे-जब कोई मराठीभाषी किसी गति मे जाता है तब गति विशेष के अनुसार उसके लिए से मिल कर वापिस जाना चाहता है तब वह 'वर मी निम्न शब्दों के प्रयोग की परिपाटी रही है५ येतो' (अच्छा मैं पाता हूँ)' कहता है-'मी जातो' १. कृ-गमोर्डदुषः । प्रा० श. ३, २,१०। ऐसा नही बोलता। २. इदानीमोल्दाणि । प्रा० श० ३, २, ११ । ___'राम' नाम यद्यपि उत्तम समझा जाता है, पर ३. भविष्यति स्सिः। प्रा० श० ३, २, २४ । विवाहादि मांगलिक कार्य के समय 'राम नाम' सत्य ४. यद्यपि 'सत्संख्या-' (तत्त्वार्थसूत्र १-८) आदि है, कहना अनिष्ट माना जाता है। सूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका मे 'पाभिनिबोधिक' शब्द ७. संपहि जीवदारणस्स अबयारो उच्चदे। त जहा"""" का उपयोग देखा जाता है, पर उसे प्रस्तुत ग्रन्थ धवला पु० १, पृ०७२ । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ अनेकान्त है। उसके वस्तु नाम से प्रसिद्ध चौदह अधिकारों में१ प्रमाणानुगम से षट्खण्डागम के प्रथम खण्डभूत जीवस्थान पांचा अधिकार चयनलब्धि है, जिसके बीस प्राभूतों का द्रव्यप्रमाणानुगम नामक दूसरा प्रयोगद्वार में से चतुर्थ प्राभत कर्मप्रकृतिप्राभृत है। उसका दूमग निकला है । नाम वेदना-कृत्स्नप्राभृत भी है। उसमें ये चौबीस उपयुक्न बन्धन अधिकार के अन्तर्गत चार अनुयोगअधिकार है-१. कृति, २. वेदना, ३. स्पर्श, ४. कम, दारों मे चौथा जो बन्धविधान है वह चार प्रकार का है५. प्रकति, ६.बन्धन, ७. निबन्धन, ८. प्रक्रम, ६. उप- प्रकतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । क्रम, १०. उदय, ११. मोक्ष, १२. संक्रम १३. लेश्या इनमे प्रकृतिबन्ध मूल और उत्तर के भेद से दो प्रकार का १४ लेश्याकर्म, १५. लेण्यापरिणाम, १६. सात प्रसात, है। इनमे भी उत्तर प्रकृतिबन्ध के दो भेद है-एक-एक १७. दीर्घ-हस्व. १८. भवधारणीय, १९. पुद्गलात्त (या उत्तरप्रकृतिबन्ध और प्रवोगाढप्रकृतिबन्ध । इनमे एकपुद्गलात्म), २०. निधत्त-अनिघत्त, २१. निकाचित-अनि एक उत्तरप्रकृतिबन्ध के समुत्कीर्तनादि चौबीस अनुयोगकाचित. ०२. कर्मस्थिति, २३. पश्चिम स्कन्ध और २४. द्वारी मे जो प्रथम समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार है उससे अल्प-बहत्व३ . उपयुक्त जीवस्थान की नौ चूलिकाओं मे (पु. ६) प्रथम __इनमे से यहां छठे बन्धन अधिकार को विवक्षित ममुत्कीर्तना, द्वितीय स्थानसमुत्कीतना और तीन दण्डक निर्दिष्ट किया है। उसमे ये चार अन्तराधिकार है (तृतीय, चतुथं व पाचवी चूलिका), इस प्रकार पाच बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान४। उनमें में चलिकाएं निकली है । प्रकन में बन्धक और बन्धविधान ये दो अधिकार विवक्षित हैं। इनमे से बन्धक अधिकार में ये ग्यारह अनुयोग उपक्त एक-एक उत्तरप्रकृतिबन्ध के समुत्कीर्तनादि द्वार हैं-१. एक जीवेन स्वामित्व, २. एकजीवेन कान, चौबीम अनुयोगद्वारों मे तेईसवाँ भावानुगम है। इससे ३. एक जीवेन अन्तर, ४. नानाजीवः भगविचय, ५. द्रव्य. उक्त जीवस्थान का भावानुगम नामक सातवा अनुयोगप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम ७. म्पर्शनानुगम, . नानाजीव ७. स्पर्शनानगम - नाना द्वार निकला है। कालानुगम, ६. नानाजीवः अन्तरानुगम, १०. भागा- अन्वोगाढप्रकृतिबन्ध भुजगारबन्ध और प्रकतिस्थानभागानुगम और ११. अल्पबहुत्व५ । इनमे से पांचव द्रव्य- बन्ध के भेद मे दो प्रकारका है। इनमे से प्रकृतिस्थान बन्ध मे ये आठ अनुयोगद्वार हैं-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमा१. धवला पृ० १, पृ० १२३, पु. ६, पृ० २२६ । णानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानु२. वेयणाकमिणपाडे नि वि तस्स बिदिय णाममत्थि । गम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुम । इन पाठ अनुयोगवेयणा कम्माणमुदयो, तं कमिणं णिरवसेस वणेदि; द्वारों से जीवस्थान के ये छह अनुयोगद्वार निकले हैंअदो वेयणकमिणपाडमिदि एदमवि गुणणाममेव । सत्प्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, धवला पु० १ पृ० १२४-२५ । अन्तरप्ररूपणा और अल्पबहत्वप्ररूपणा । इस प्रकार ३. अग्गेणियस्स पूवश्वस्म पचमस्स वत्थुस्स चउत्यो पूर्वोक्त द्रव्यप्रमाणानुगम और भावानुगम के साथ पाहुडो कम्मपयडी णाम । तत्थ इमाणि चउवीस अणि जीवस्थान के सत्प्ररूपणा मादि पाठो अनुयोगद्वार हो मोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति कदि वेदणाण.....। ष० ख० ४; १, ४५, (घवला) पु. ६ पृ० १३४; ६. दव्वपमाणादो दवपमाणाणगमो निग्गदो। ३०१ पृ० १२५ । धवला पु०१पृ० १२६ । ४. ज तं बंधविहाण त चउब्विह–पयडिबंधो ट्ठिदिवंधो ७. एदेसु समुक्कित्तणादो पयडिसमृक्कित्तणा द्वाणसमुक्कि अणुभागबंधो पदेमबंधो चेदि । १० ख० ५, ६, ७९६; तणा तिण्णिमहादंडया णिग्गदा । धवला पु. १, पृ० १२६; पु०९ पृ० २३३ । धवला पु० १५० १२७ । ५. धवला पु०१पृ० १२६ । ८. तेवीसदिमादो भावो णिग्गदो । धवला पु०१पृ० १२७ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षटखण्डागम-परिचय २२५ जाते हैं। अनुयोगद्वारों से निकला है।। बन्ध का दूसरा भेद जो स्थितिबन्ध है वह मूलप्रकृति- उसका बन्धस्वामित्वविचय नामका तीसरा खण्ड स्थितिबन्ध और उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध के भंद से दो पर्वोक्त एक-एकउत्तरप्रकृतिबन्ध के समुत्कीर्तनादि चौबीम प्रकारका है। उनमे उत्तरप्रकृतिस्थितिबन्ध के अद्धा. अनुयोगद्वारों में बारहवें बन्धस्वामित्वविचय से निकला च्छेद प्रादि चौबीस अनुयोगद्वारो मे प्रथम (प्रद्धाच्छेद) है। के दो भेद है जघन्य स्थिति अद्धाच्छेद और उत्कृष्ट- वेदना नामक चौथे खण्ड मे कृति और वेदना नामक स्थिति-अद्धाच्छेद । इन दोनों प्रद्धाच्छेदो से क्रमश. जाव- दो अनुयोगद्वार हैं जो क्रम से कर्मप्रकृतिप्राभूत के चौबीस स्थान की जघन्य स्थिति (सातवी) और उत्कृष्ट स्थिति अनुयोगद्वारो मे से प्रथम (कृति) पोर द्वितीय (वेदना) (छठी) नामकी ये दो चलिकाएं निकली हैं। अनुयोगद्वारो से निकले है। इसके अतिरिक्त दृष्टिवाद प्रग के दूसरे भेदभूत सूत्र वर्गणाखण्ड में प्ररूपित स्पर्श, कर्म, प्रकृति प्रौर बन्धन से सम्यक्त्वोत्पत्ति ३ और व्याख्याप्रज्ञप्ति नामक पाचवे अनुयोगद्वार भी पूर्वोक्त कर्मप्रकृतिप्राभूत के चौबीस अग से गति-प्रागति४ (नौवी) नामकी चुलिका निकली अनुयोगद्वारो मे इन्ही नामोवाले तृतीय (स्पर्श), चतुर्थ है। इस प्रकार इन नौ चुलिकामो से सयुक्त होकर (कर्म), पचम (प्रकृति) और छठे (बन्धन) अनुयोगपूर्वोक्त मत्प्ररूपणा मादि पाठ अनुयोगद्वारो म विभक्त द्वारो से निकले है। समस्त जीवस्थान खण्ड (सम्यक्त्वोत्पत्ति और गति-प्रागति महाबन्ध नामक अन्तिम (छठा) खण्ड पूर्वोक्त बन्धन इन दो चूलिकामो को छोड़ कर) उद्गम पूर्वोक्त चयन- अनुयोगद्वार के चतुर्थ भेदभूत बन्धविधान अनुयोगद्वार लब्धि के चतुर्थ प्राभूतभून कर्मप्रकृतिप्राभत से हया है। से निकला है । प्रकृत षट्खण्डागम का दूसग खण्ड जो क्षुद्रकबन्ध है हस्तलिखित प्राचीन प्रतियां वह 'एकजीवेन स्वामित्व' मादि ग्यारह अनुगोगद्वारों से प्रस्तुत ग्रन्थ की वर्तमान में जो भी प्रतिया उपलब्ध सम्पन्न होता हु पूर्वोक्त बन्धक अधिकार के ग्यारह होती हैं वे सब ग्राचार्य वीरसेन स्वामी द्वारा विचित धवला टीका के साथ ही उपलब्ध होती है, मात्र मूल १. एदेसु अट्ठसु अणियोगद्दारेसु छ अणियोगद्दाराणि ग्रन्थ की कोई भी स्वतन्त्र प्रति नही उपलब्ध होती। मूल णिग्गयारिण । तं जहा-सतपरूवणा खेत्तपरूवणा मे उसकी कानड़ी लिपि मे तीन प्राचीन प्रतिया रही हैं पोसणपरूवणा कालपरूवरणा अंतरपरूवणा अप्पाबहग. जो मूडबिद्री की गुरुवसति में सुरक्षित है। आज से लगपरूवणा चेदि । एदाणि छ, पुग्विल्लाणि दोण्णि, एक्कदो भग ४०-४२ वर्ष पूर्व श्री लाला जम्बूप्रसादजी रईस द्वारा मेलिदे जीवट्ठाणस्स अट्ठ अणियोगद्दाराणि हवति । ५. त जहा-महाकम्मपडिपाहुडस्म कदि-वेदणादिगेस धवला पु०१पृ० १२७-२८ ।। नदुवीसमणियोगद्दारेसु छट्ठस्स बधणे ति मणियोग२. तत्थ अद्धाछेदो दुविहो जहण्णट्टिदिश्रद्धाछेदो उक्क द्वारस्स बधो बधगो बधणिज्ज बवविहाणामदि चत्तारि स्सटिदिप्रताछेदो चेदि । जहण्णद्विदिप्रवाछेदादो जह प्रधियारा। तेसु बधगे त्ति बिदियो अधियारो, सो पणदिदी रिणग्गदा, उक्कस्सटिदिप्रद्धाछेदादो उक्कस्स एदेण वयणेण सूनिदो। जे ते महाकम्मपडिपाहडम्मि टिदी जिग्गदा। धवला पु० १० १३०।। बधगा गिट्ठिा तेसिमिमो णिसो त्ति वुत्त होदि । ३. पुणो सुत्तादो सम्मत्तुष्पत्ती णिग्गया। धवला पु० ७ पृ०१-२। धवला १ पृ० १३०। ६. एदेसि चदुण्णं बंधाण विहाण भूदबलिभडारएण महा४. वियाहपण्णत्तीदो गदिरागदी णिग्गदा । बंधे सप्पवचेण लिहिद ति एत्थ ण लिहिद : धवला धवला पु०१ पृ० १३० । पु० १४, पृ० ५६४ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ अनेकान्त सहारनपुर मे उसकी एक प्रति नागरी लिपि में भी अन्य प्रतियां नागरी लिपि में तैयार हुई हैं उनमें तो उनसे तैयार करा ली गई थी। उसके माधार से उसकी येन केन भी अधिक गठभेद होना सम्भव है। उक्त प्रतियों में इस प्रकारेण कुछ थोड़ी-सी अन्य प्रतियां भी नागरी लिपि मे प्रकार के जो पाठभेद हुए हैं उनमे उदाहरण के रूप में तैयार हो सकी, जो वर्तमान मे पारा, सागर, अमरावती, कुछ का यहाँ उल्लेख कर देना उचित होगा। यथाकारजा, बम्बई और झालरापाटन मादि नगरो में विद्य १ सूत्र १.८, ४१ (पु० ५ पृ० २६८) में "तिरिक्खमान हैं। पंचिदय-तिरिक्ख-पंचिंदियपज्जत्ततिरिवख-पचिदियजोणिप्रतियों में पाठभेद णीसु' पाठ प्रतियो मे (अमरावती. कारजा और पारा) उपलब्ध हुना है जो इस प्रकार होना चाहिये थाग्रंथ में मुख्यता से कर्म का विवेचन विस्तारपूर्वक तिरिक्त्र-पचिदियतिरिक्ख-पचिदियति रिवखपज्जत्त-पचिकिया गया है। यह विवेचन वहाँ अतिशय व्यवस्थित एवं दियतिरिक्खजोणिणीसु४ ।। नियमित पद्धति के अनुसार गुणस्थान और मार्गणाओं के माधार से सुन्दरतापूर्वक किया गया है । उक्त विवेचन में २ सूत्र १.८, ३४६ (पु० ५ पृ० ३४४) की प्रतियों वहाँ यथाप्रसग केवल अनेक शब्दो का ही पुनरावर्तन नहीं मे 'अप्पमत्तसजदा अणुवममा मखेज्जगुणा' पाठ उपलब्ध हुमा, बल्कि अनेक सूत्रो का भी प्रावश्यकतानुसार यत्र तत्र हमा है, पर वह 'अप्पमत्त मजदा अक्खवा अणुवसमा पुनरावर्तन हा है१ । ऐसी अवस्था मे लेखक के पर्याप्त सखेज्जगुणा'५ ऐसा होना चाहिए था। मावधानी रखने पर भी यदि कुछ शब्द या वाक्य प्रतियो ३. सूत्र १, ६.६, ४, मे (पु० ६ पृ० ४१६) में लिखने से रह गये हैं या वे दुवारा लिखे गये हैं तो यह 'ता अतोमहत्तप्पटुडि जाव तप्पाप्रोग्गअंतोमुहत्त उवरित' अस्वाभाविक नही है । ऐसे पाठभेद तो उसके ऊपर धवला यह पाठ प्रतियों में उपलब्ध होता है, पर फोटो प्रति में ६ जैसी महत्वपूर्ण टीका के रचयिता प्राचार्य वीरसेन स्वामी वह 'जाव उवरि०' ऐमा पाया जाता है जो शुद्ध प्रतीत के समक्ष भी विद्यमान थे, जिनका उल्लेख उन्होंने अपनी होता है। इन धवला टीका में जहाँ-जहाँ किया भी है२ । वर्तमान मे -- जो धवला टीका युक्त तीन कानही लिपिवाली प्रनिया ४ फोटो प्रति (४३।८।२) में वह इसी प्रकार से पाया मूडबिद्री में सुरक्षित है उनमे भी स्थान स्थान पर अनेक भी जाता है। यहां यह स्मरणीय है कि धवला, जयधवला और पाठभेद उपलब्ध होते हैं । फिर उनके आधार से जो महाबन्ध की जो कानडी लिपि में प्रतिया मूडबिद्री १ देखिये अन्तरानुगम (पु० ५) सूत्र ६, २५, ३२, में विद्यमान है उन सब के फोटो लिए जा चके है। ४३ व ७६ तथा ८, ११ व १५ आदि । उनमें से धवला के फोटो फलटण से जैन सस्कृति२ केसु वि सुत्तपोत्यएसु पुरिसवेदस्सतरं छम्मासा । सरक्षक सघ-शोलापुर में पहुँचे थे व लेखक ने कानडी धवला पु० ५ पृ० १०६, लिपि के जानकार श्री पं० चन्द्रराजय्या के साथ श्री अप्पमत्तदाए संखेज्जेसु भागेसु गदेसु देवाउअस्स बंधो शिताबराय लक्ष्मीचन्द्र जैन साहित्योहारक फंड कार्यावोच्छिज्जदित्ति केसु वि सुत्तपोत्थएसु उवलब्भइ । लय द्वारा प्रकाशित धवला की १६ जिल्टो मे प्रथम धवला पृ० पृ. ६५।। जिल्दों का मिलान कर पाठभेद लिए थे उन्ही के केसु वि सुत्तपोत्थएसु बिदियमत्थमस्सिदूण परुविद- आधार से यहां फोटो प्रति के पाठभेदों का सकेत अप्पाबहगाभावादो च । धवला पु०८पृ० ३.२। किया गया है। केसु वि सुत्तपोत्थएम् एसो पाठो । घवला पु०१४ ५ फोटो प्रति (४६।४।१०) मे वह इसी प्रकार से पृ० १२७ । पाया भी जाता है। ३ देखिये धवला पु. ३ का परिशिष्ट पृ. २०-४२। ६ फोटो ५६मा Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसमागम-परिचय २२७ ४. सूत्र १, ६-६, ४२ (पु० ६ पृ० ४३६) में 'दग्वदो५' तथा सूत्र ४, २-४, १३० और १३६ में दो 'केई जाई सोऊण' ऐसा पाठ फोटो प्रति में उपलब्ध वि तुल्लामो'६ पाठ छूटा हुआ है। होता है। यहां फोटो की प्राधारभूत मूल प्रति मे 'जाई' सूत्र६ ४, २-७, २८७ में (पु. १२ पृ. २६५) में शब्द व्यर्थ जुड़ गया है। 'हाणि' शब्द छूटा हुमा है । ५ सूत्र २, ८, १४ में फोटो प्रति में (६६७६) १० सूत्र ४, २-११, २ (पु० १२ पृ. ३६५) में 'पत्तैयसरीरपज्जत्ता' ऐसा पाठ उपलब्ध होता है जो 'प्रवद्धिदा' के स्थान में 'पट्ठिदा' पाठ होना चाहिये था। 'पत्तेयसरीरपज्जत्तापज्जत्ता' ऐसा होना चाहिये। ११ सूत्र ४, २-१३, १०४ (पु० १२ पृ. ४१७) ६ सूत्र ३, ४२ (१०८, पृ० ११) मे मच्चणिज्जा और १२६ में 'मजहण्णा' पद छूटा हुमा है। वंदणिज्जा णमसणिज्जा' ऐसा पाठ प्रतियों में उपलब्ध इसी प्रकार कहीं कहीं पर चिह्नविशेष (॥छ। आदि) हमा है। वही पाठ फोटो प्रति (६६,८,१) में 'अच्चणिज्जा के न रहने से अथवा उसका प्रस्थान में उपयोग किये पूजणिज्जा णमंसणिज्जा' इस प्रकार पाया जाता है। इस जाने से जिस प्रकार सूत्र का अंश कहीं टीका में समाविष्ट प्रकार जहाँ अन्य प्रतियों में पूजणिज्जा' पाठ स्खलित हो गया है उसी प्रकार कहीं पर टीका का अंश सत्र में हमा है वहां फोटो प्रति में 'वदणिज्जा' पद स्खलित हना भी सम्मिलित हो गया है। ऐसी अवस्था में सत्र और है। पर होने चाहिये वहाँ उक्त दोनो ही शब्द, क्योंकि टीकाभाग के निर्णय करने में पर्याप्त कठिनाई रही है। धवलाकार ने सूत्रोक्त उन सभी पदों का-क्रम से पूजा, कहीं कहीं पर उसका समय पर निर्णय न हो सकने से पर्चा व वंदना आदि का-थक पृथक स्पष्टीकरण मुद्रण के समय भूल भी हुई है१० । किया है। १ उदाहरणस्वरूप कृतिअनुयोगद्वार (पु०६) पृ. ७ इसी प्रकरण (बन्धस्वामित्वविचय) में सूत्र ३२६ पर "एदेहि सुत्तेहि तेरसण्ण मूलकरणकदीणं संत५५ में 'असुह' और 'अजसकित्ति', सूत्र ६३ में 'अथिर', परूवणा कदा ॥७१॥" यह अश सूत्र के रूप में मुद्रित सूत्र ७३ में 'अपज्जत्त' और 'दुभग'; सूत्र ९० में 'अरदि हुधा है। परन्तु गम्भीरतापूर्वक विचार करने से वह सूत्र सोग' और 'उच्चागोद'; सूत्र १८८ में 'चउदसणावरणीय- प्रतीत नहीं होता है। कारण __ प्रतीत नहीं होता है। कारण यह कि इस प्रकारकी सूत्रसादावेदणीय', सत्र २४२ में 'बंधों'; सूत्र २४३ मे 'अरदि' रचना की पद्धति नहीं रही है। इससे पूर्व के सूत्र ६८ में तथा सूत्र ३०४ मे 'बंधा'; ये पाठ प्रतियों में छूटे हुये ५. मिलान के लिये देखिये द्रव्यविधान पु० १० सूत्र ७५ हैं। परन्तु धवला के विवेचन से उनका उपर्युक्त सूत्रों में . अस्तित्व सिद्ध है। और १२१ । ८ सूत्र ४, २-४, १०८ (पु०१० पृ. ३२६) ६. मिलान के लिये देखिये द्रव्यविधान सत्र १२५, १३७, १४० तथा कालविधान पु० ११ सूत्र २८ और ३३ । १. फोटो ५५८६ ७. देखिये इसी के पीछे व मागे के सूत्र २८६, २८८ व २. देखिये धवला पु० ७ पृ. ४१७ । २८६पादि। ३. धवला पु० ८० ६२ । ८. देखिये उसी के प्रागे के सूत्र ३, ५, ६, ७, ९ व १०॥ ४. इनमे 'असुह' व 'प्रजसकित्ति' (७०६१), प्रथिर' इसी प्रकरण के सूत्र १ को धवला का 'किमटू वेदणा (७१।११५), 'अपज्जत्त' (७२।२।१), 'उच्चागोद' गदिविहाणं वुच्चदे' प्रादि शंका-समाधान भी द्रष्टव्य (७२।४।६) और 'मरदि' (७५॥३१); ये पाठ फोटो प्रति मे उपलब्ध होते हैं । परन्तु 'दुभग' (७२।२।१), ६. देखिये इसी प्रकरण के सूत्र १०६, ११०, ११२, 'चउदसणावरणीय-सादावेदणीय' (७४।७।१५), बधो १३१, १३३ व १३५ प्रादि । (७६२।११) और 'बंधा' (७७३१११); ये पाठ वहां १०. देखिये घवला पु० ६ सूत्र ४५, ५१ पौर ५४ तथा भी उपलब्ध नहीं होते। शुद्धिपत्र (प्रस्तावना) पृ० १४ व १७ । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनेकान्त करणकृति के मूल और उत्तर करणकृति रूप दो भेदों का झना चाहिये । परन्तु वह मुद्रण के समय टीका का अंश बन निर्देश करके उनमे से मूलकरणकृति के प्रौदारिक- गया है। किन्तु सूत्र ६५ की और इसकी शब्दरचना शगैर प्रादि रूप ५ भेदों का उल्लेख किया गया है। को देखते हुए इसके सूत्र होने में कुछ भी सन्देह नही रहता। तत्पश्चात सूत्र ६६ में प्रौदारिक-शरीर प्रादि ३ मूल. ३. इस प्रकार यदि यह (११८) सूत्र रहा है तो फिर करणकृतियों में से प्रत्येक के संघातनादिरूप ३-३ और 'एत्तो जहण्णमो चउसपिदियो...' आदि (१९८) सूत्र सूत्र ७० मे तेजसशरीर और कार्मणशरीर इन दो मूल- के साथ सूत्र १७४ के पश्चात् जो 'एव जहण्णयं चउमट्टिकरणकृतियों में से प्रत्येक के २-२ भेद निर्दिष्ट किये गये पदियं परत्थाणप्पाबहुग समत्त' वाक्य (पृ. ७५) प्राया हैं। इस प्रकार इन ३ सूत्रों द्वारा मूलकरणकृति के है उसके भी सूत्र होने की सम्भावना की जा सकती है। क्रमश: ३+३+३+२+२%१३ भेदो की मात्र सत्प्ररूपणा परन्तु शब्दरचना कुछ वैसी नहीं है, यह सुनिश्चित है। की गई है। इस पर धवलाकार ने 'एदेहि सुत्तेहि...'मादि प्रकृति-अनुयोगद्वार मे सूत्र २२-३५ मे प्राभिनिदोउपयुक्त वाक्य के द्वारा यह कहा है कि सूत्रकार ने इन धिकज्ञानरवरणीय के भेद-प्रभेदो का निर्देश कर देने के सूत्रों के द्वारा केवल १३ मूलकरणकृतियों की सत्प्र पश्चात् दो सूत्र इस प्रकार प्राप्त होते हैंरूपणा मात्र की है। इस सूत्र के देशामर्शक होने से यहां तस्सेव प्राभिणिबोहियणाणावरणीयस्म कम्मस्स धवला टीका में-उसके द्वारा सुचित पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की जाती है। अण्णा परूवणा कायब्वा भवदि ॥३६॥ पु० १३ पृ० २४१ एवमाभिणिबोहियणाणावरणीयस्स कम्मस्म अण्ण। २. वेदनाभावविधान में 'एत्तो उक्कस्सयो चउ परूवणा कदा होदि ॥४२॥ पृ०२४४ सपिदियो महादडग्रो कायदेवो भवदि ॥६५॥' इस सूत्र इन दोनो सूत्रो और उनकी रचनापद्धति को देखते द्वारा (पु. १२ पृ० ४४) चौंसठ पद वाले उत्कृष्ट महा हुए पूर्वोक्त 'एवमुक्कस्मयो.. ' प्रादि वाक्याशके सूत्र दण्डक के कहने की सूचना करके तदनुसार आगे सूत्रकार होने की कल्पना और भी बलवती होती है । ने उक्त महादण्डक की प्ररूपणा ६६.११७ सूत्रों मे (पृ. ४. बन्धन अनुयोगद्वार (पु० १४) मे यह सूत्र मुद्रित ४४-५९) की है। तत्पश्चात् 'एवमुक्कसनो चउसद्विपदियो महादडो कदो भवदि' यह अश आया है, जिसे मूत्र ही सम एतो उवरिमगंथो चुलिया णाम ॥५८१॥ १. मूल-सूत्रकार ने इन सूत्रो मे केवल करणकृति के परन्तु यह मूत्र न होकर निश्चित ही टीका का अश प्रतीत भेद-प्रभेदों का ही निर्देश किया है, जिसे सत्प्ररूपणा होता है। इसका कारण यह है कि जिन जिन अनुयोगके अन्तर्गत ममझना चाहिये-उन्होने स्पष्टतया द्वारों में इस प्रकार के चलिका प्रकरण पाये हैं उनमे कही सत्प्ररूपणा का भी कोई निर्देश नहीं किया। भी ऐसा सूत्र उपलब्ध नही होता२ । प्रकृत मे सूत्र ११७ २. तदनुसार ही धवलाकार ने चूंकि पदमीमासा प्रादि -- इन तीन अधिकारों के विना प्रकृत सत्प्ररूपणा भी १. यहां यह पाशका नही की जा सकती है कि 'एत्तो सम्भव नहीं थी, प्रतएव सर्वप्रथम पृ० ३२६ से ३५४ उक्कस्सयोपादि भी मूत्र (६५) नही है; क्योकि, तक इन तीन अधिकारी की प्ररूपणा की है। धवलाकार ने उसकी उत्थानिका मे '.."प्रत्थपरूतत्पश्चात् उन्होने 'सपधि एत्थ प्रणियोगद्दाराणि वणट्ठमुवरिमसुत्तं भणदि' कहकर उसे स्पष्टतया सूत्र देसामासियसुत्तसूइदाणि भणिस्सामो' ऐसी सूचना बतलाया है (पु० १२ पृ० ४४)। करके पृ० ३५४ से ३५६ तक प्रथमतः स्वयं २. देखिये जीवस्थान-चूलिका (पु. ६), द्रव्यविधानसत्प्ररूणा की है, पश्चात् क्रम से द्रव्यप्रमाणानुगम चलिका (पु० १० १० ३६५) कालविधान-चूलिका आदि शेष ७ अनुयोगद्वारों की प्ररूपणा विस्तार- (पु० ११ १.० १४० व २४१) तथा भावविधानपूर्वक पृ० ४५० तक की है। चूलिका (पु. १२ पृ.७८, ८७ व २४१)। हुया है Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का घंटा मन्दिर २२६ से ५८० के द्वारा बाह्य वर्गणा की प्ररूपणा कर देने पर कार ने ही अपनी धवला टीका मे की है२-मूल ग्रन्थकार सत्र ५८० की टीका के अन्त में धवलाकार यह ने स्वयं अन्यत्र कहीं भी सूत्र द्वारा बैसा निर्देश नहीं कहते है किया। एवं विस्सासुवचयपरूवणाए समत्ताए बाहिरिया ऊपर जो थोड़े-से पाठभेद दिखलाये गये हैं वे सब वग्गणा समत्ता होदि । एतो उरिमगंथो चूलिया णाम, मात्र मल सत्रों से सम्बद्ध हैं, ऐसे पाठभेद धवला में तो पुत्वं सूचिदप्रत्थाण विशेपपरूवणादो। स्थान स्थान पर उपलब्ध होते हैं। जिस अनुयोगद्वार से सम्बद्ध विषय की प्ररूपणा वहा न करके उसके पश्चात् जिस प्रकरण के द्वारा की जाती है दत्याणं विवरणं चूलिया । जाए अत्यपरूवणाए कदाए वह उस अनुयोगद्वार का 'चूलिका' अधिकार कहा पुष्वपरूविदत्थम्मि सिस्साणं णिच्छम्रो उप्पज्जदि सा जाता है। चूलिया त्ति भणिद होदि । धवला पु० ११ पृ. १४० प्रकृत अन्य मे ऐसे प्रकरणों की सूचना सर्वत्र धवला- २. यथा-संपहि एत्तो उरि चूलियं भणिस्सामो। धवला पु० १२ पृ० ७८; सपहि बिदियचूलिया. १. का चूलिया ? सुत्तसूइदत्यपयासण चूलिया णाम। परूपणमुत्तरसुत्त भणदि। धवला पु०१२पृ० ८७ । धवला पु०१० पृ. ३९५, कालविहाणेण सूचि खजुराहो का घण्टइ मन्दिर गोपीलाल अमर एम० ए० घण्टइ मन्दिर खजुराहो ग्राम के दक्षिण-पूर्व में जन चित्र भी तैयार किया था। दीवारों में चिने गये समूह से एक कि० मी० की दूरी पर स्थित है। ४५'४ स्तम्भों पर विशालाकार एकप्रस्तरीय महराबें थीं जिन २५' के अधिष्ठान पर १४' ऊँचे १२ स्तम्भों द्वारा निर्मित पर मन्दिर का ऊपरी भाग आधारित था। बाहरी होने अर्धमण्डप और महामण्डप के रूप मे अवशिष्ट 'इस मदिर- से ये स्तम्भ सादे थे पर भीतरी स्तम्भ अलंकृत है। कंकाल मे किसी समय अन्तगल और गर्भगृह तो थे ही, सभी स्तम्भ २४ थे३'। जिनसे २४ तीर्थकरों का स्मरण अनुपम साज-सज्जा और शिरोमणि सौन्दर्य भी था जिसका हो जाता है। प्रत्येक स्तम्भ में एक-एक दीवालगीर कदाअनुमान इसके यामपास के अवशेषो से होता है? ।' श्री चित् एक-एक तीर्थकर की मूर्ति स्थापित करने को ही स्मिथ ने 'दीवारों को सहारा देनेवाले ग्रेनाइट पत्थर क बनाया गया था। बाहरी स्तम्भों की परीक्षा की जो तब दीवारों में चिन ___'इस प्रोर पार्श्वनाथ मन्दिर के प्राकार-प्रकार की दिये गये थे। उन्होने सपूर्ण भवन का नाप लेकर रेखा समानता से प्रतीत होता है कि ये दोनो मन्दिर मुख्य १ ब्राउन, पर्सी इंडियन प्राकिटेक्चर, भाग १, पृ० सत्त्वों की दृष्टि से, एक दूसरे से बहुत भिन्न नही हो ११३ । सकते। दोनों में से घण्टइ अपेक्षाकृत बड़ा और कुट २ जनरल आफ एशियाटिक सोसायटी पाफ बंगाल, (१८७६), जिल्द ४६, भाग १, पृ. २८५ । ३ जनरल प्राफ ए. सी. माफ बं०, वही। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. अनेकान्त अधिक विकसित लगता है और उसी के अनुकरण पर की प्रतिमा स्थापित की गई थी१० । प्रादिनाथ११ पोर कुछ बाद में बना होगा।' 'उसे, प्रतएव, मूर्तिकला और शान्तिनाथ१२ मन्दिरों में तो प्रादिनाथ ही मूलनायक के स्थापत्य के प्रकार के आधार पर दसवीं शताब्दो के अन्त रूप में विराजमान है। का माना जा सकता है, जिसका समर्थन अभिलेख सबंधी अपनी प्रथम यात्रा में श्री कनिंघम इसे बौड मन्दिर प्रमाणों द्वारा होता है । मान बैठे थे; क्योकि (१) इसमें ग्रेनाइट और बलुवा स्तम्भों पर झूमती हुई घण्टियों और क्षुद्र घण्टिकामों पत्थर का उपयोग किया गया है जो उन दिनों प्राय. बौद्ध की प्रभुत सयोजना के कारण ही इमे घण्टइ मन्दिर मन्दिरों में ही उपयोग में लाया जाता था, (२) उन्हें कहते हैं। अभी अभी श्री नीरज जैन ने बताया है कि इस मन्दिर के पास बुद्ध की एक सूर्ति भी प्राप्त हुई थी इसे 'घण्टइ मन्दिर' नाम उसके निर्माण काल में ही प्राप्त और (३) उन्हें एक चतुर्भजी मूर्ति भी प्राप्त हुई थी जो हो गया था। उन्होंने खजुराहो के पुरातत्व संग्रहालय में उनके अनुसार बौद्ध देवी धर्मा१३ हो सकती थी१४ । कुछ ऐसी जैन मूर्तियां भी देखी हैं जिनपर 'घण्टइ' शब्द परन्तु पांच वर्ष बाद, १८७६-७७ मे वे श्री फर्गुसन के उत्कीर्ण है और जो उतनी ही प्राचीन है जितना स्वयं यह साथ यहां पूनः आये और तब, मन्दिर के चारों ओर मन्दिर । वैसे यह प्रथम तीर्थकर मादिनाथ को समर्पित मतियों और सामग्री की परीक्षा करके उन्होंने इसे जैन किया गया होगा; क्योंकि इसके महामण्डप के प्रवेश द्वार मन्दिर स्वीकार किया१५। सन् १८७६ में श्री स्मिथ ने के ललाटबिम्ब पर उनकी यक्षी, अप्टभुजी गरुड़वाहिनी भी उनका मत स्वीकार किया१६ । चक्रेश्वरी स्थित है, इसके अतिरिक्त, श्री कनिंघम को घण्टइ मन्दिर की प्रसिद्धि का सबसे बड़ा कारण है इस मन्दिर के पास प्रादिनाथ की एक मूर्ति भी मिली उसके स्तम्भ, जिनका अलकरण अद्भुत और भव्य बन थी जो इस मन्दिर की मूल प्रतिमा रही होगी। चौवीस पड़ा है। कीर्तिमुखों से झूमती हुई मालाएँ कही परस्पर तीथंकरों में पार्श्वनाथ ही सर्वाधिक लोकप्रिय हैं । 'जनेतर गठबन्धन कर रही हैं तो कही प्रतिमास्थानोंको आलिङ्गन जनता में इनकी विशेष ख्याति है। कहीं कहीं तो जनों पाश में लेने का प्रयत्न-सा कर रही है। प्रतिमास्थानों मे का मतलब ही पाश्र्वनाथ का पूजक समझा जाता है। कही साधू अङ्कित हैं तो कही मिथुन और कहीं विद्याधर। परन्त खजराहो मे, इसके विपरीत, आदिनाथ की लोक- मालामों की श्रृंखलाबद्ध और मण्डलाकार पंक्तियों से प्रियता सर्वाधिक थी; क्योकि यहां के अपने प्राचीन रूप में रूप में कीर्तिमुखो से झूमती हुई क्षुद्र घण्टि कामों की मालाए कीतिमखो से प्राप्त होनेवाले सभी जैन मन्दिरों मे उन्ही की प्रतिमा मूल नायक के रूप मे थी। पाश्वनाथ मन्दिर मे मूल १. एनुअल रि० भाग २, पृ० ४३२ और पागे। नायक के रूप में प्रादिनाथ की प्रतिमा थी जिसका चिह्न ११ इस मन्दिर के मूलनायक आदिनाथ की वर्तमान प्रतिमा प्राचीन नहीं है पर वह प्राचीन प्रतिमा भी वृषभ माज भी मूलनायक (पार्श्वनाथ) की पादपीठ पर प्रादिनाथ की ही रही होगी जिसके अनेक प्रमाण उत्कीर्ण है। किसी कारण से उसका स्थान रिक्त हो जाने से लगभग १०० वर्ष पूर्व उस रिक्त स्थान पर पार्श्वनाथ उपलब्ध हैं जिनपर फिर कभी प्रकाश डालूंगा। १२ इसका नाम शान्तिनाथ मन्दिर होनेपर भी इसमें ५ कृष्णदेव : दि टेम्पल्स आफ खजुराहो : ऐंश्येंट मूलनायक के रूपमें आदिनाथ ही विराजमान हैं। इडिया, भाग १५, पृ०६० । इस विरोधाभास पर भी फिर कभी प्रकाश डालने ६ वही। का विचार है। ७ मागे देखिये टिप्पणी संख्या २२ । १३ बौद्ध देवताशास्त्र में धर्मा नाम की कोई देवी नहीं है। ८ एनुअल रिपोर्ट्स, प्रायोलाजिकल सर्वे माफ इंडिया, १४ एनुअल रि०, भाग २, पृष्ठ ४३१ । भाग १०, पृ० १६. १५ वही, भाग १०, पृष्ठ १ । १ शास्त्री, पं० कैलाशचन्द्र, जैनधर्म, (१९५५)पृ०१५। १६ जनरल माफ ए. सी० माफ ब०, वही । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खजुराहो का घंटा मन्दिर २३१ उलझ रही हैं। कारनिस में अत्यन्त मनोहर नक्काशी है। मण्डप ही सुन्दरतम प्रतीत होते हैं जिनके मध्य में श्रेष्ठ लघुकाय दृश्यावलियाँ रोमाञ्चकारी चेतना प्रदान करती अलंकरणों के साथ, एक पूर्ण विकसित पन का मंकन है। उनसे प्रकृति की सशक्त गति का बोध होता है। यदि होता है। पद्म के चारों ओर का ढाल साधारण दृष्टि में इन स्तम्भों की संख्या कुछ अधिक होती तो श्री फर्गुसन नही पाता प्रत. उस पन का उभार और भी स्पष्टतर के अनुसार उनकी पृथक् शैली मानी जा सकती थी१७। हो उठता है। वहाँ अलंकरण के नाम पर, अतिरिक्त अंश मौर्य युग से मध्य युग तक उत्तरोत्तर विकाश करती हुई को कोर कर ही काम नहीं चलाया गया बल्कि उसे काट स्तम्भों की परम्परा मे कही भी, घण्टइ मन्दिर के स्तम्भों कर ही अलग कर दिया गया है जिससे उसमें भन्यता का की उपमा नहीं मिलती । उड़ीसा के स्थापत्य में तो स्तम्भों संचार हो पडता है। यह विशेषता घण्टइ मन्दिर में तो का कोई महत्त्व ही नही है। दूसरी विशेषता यह है कि नही ही है, खजुराहो के प्रायः सभी मन्दिरो मे नहीं है२० । मधमण्डप और यहाँ तक कि महामण्डप को भी प्राधार इस छत की, बल्कि खजुराहो के सभी मन्दिरो की छत की देने के लिए स्तम्भो का उपयोग सर्वप्रथम खजुराहो१८ में समानता हम आबू के जैन मन्दिरों की छत में पाते हैं । ही किया गया है १६ । देवगढ के कुछ मन्दिरों में छत की इस शैली के प्रारम्भिक विद्यमान स्तम्भों की चौकियां अष्टकोण और शीर्ष चिह्न दीख पडते हैं। यह भी सभव है कि खजुराहो के गोलाकार है । ये बलुवा पत्थर के बनाये गये हैं क्योकि स्थपति ने माबू के या राजपूताना के ही अन्य जैन मन्दिरों इन पर मण्डप का साधारण भार ही रहना था । प्रवेश से ही यह शैली ग्रहण की हो । पर यह कहना तो नितान्त द्वार के दोनों ओर के स्तम्भ दीवाल मे चिन दिये गये हैं। भ्रम होगा कि छत का यह प्रादर्श ग्रनाडा और कोरदोवा अर्धमण्डप के चारों स्तम्भों मे उच्चकोटि का प्रतीकात्मक के इस्लामी स्मारकों से लिया गया है, क्योकि जिनके अलंकरण है। इन स्तम्भो और महामण्डप के उत्तर- माध्यम से उक्त प्रादर्श की खजुराहो तक पहुँचने की दक्षिणी-स्तम्भ में काफी समानता है। अनेक स्तम्भों की सम्भावना थी उन मुस्लिम शासको का प्रथम प्रागमन चौकियों को अलंकृत करनेवाली पत्रकार रचना विशेष यहाँ परमदिदेव (११६५-१२०२) के शामनकाल में हमा रूप से दर्शनीय बन पड़ी है। प्रथम दो स्तम्भों के शीर्ष था जब यहाँ के सभी मन्दिर बन चुके थे२१ । निश्चय ही विशेष प्रकार के बनाये गये थे कि उनपर पूर्व अर्धमण्डप की छत भी जो अब टूट गई है, अपेक्षाकृत से पानेवाली बडेरे रखी जा सके; क्योंकि मेहराब का सुन्दर नहीं बन सकी है क्योकि यहाँ भी उसी प्रकार कोर अलंकरण वहाँ पहुँचते ही सहसा रुक जाता है और वहाँ कर ही काम चलाया गया है। अलकरणों के प्रतीक महासिर्फ उतना ही स्थान छोड दिया जाता है जितना बडेर मण्डप के समान है जिनके चारों कोणो पर सपज्जित को रखने के लिए आवश्यक होता है। विभिन्न प्राकारों के तोरण निर्मित हैं । खजुराहो के अन्य __मन्दिर के चतुष्कोण कक्ष की छत में अत्यन्त सूक्ष्म मन्दिरों की भांति यहाँ भी नृत्य-संगीत की मण्डलियां और भव्य अलकरण है। इसके बहिर्भाग को सुन्दरतम बहुत हैं। किन्तु यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि यहाँ बनाने मे कलाकार को पूर्ण सफलता मिली है। परन्तु कोई भी प्राकृति मैथुन-मुद्रा में नहीं है। अनेकों संयोजहाँ तक मण्डप के अन्तर्भाग का प्रश्न है, चालुक्य बोली के जनाओं से छत मे एकरूपता पा गयी है। छत की सन्धियों में उभरी हुई नक्काशी की गयी है जिसके बीच-बीच में १७ हिस्ट्री प्राफ इण्डियन एण्ड ईस्टर्न पाकिटेक्चर, समतल चतुष्कोण आते गये है जिससे दर्शक भव्य प्रानन्द पृष्ठ २४७ । में शराबोर हो जाता है। १८ केवल स्तम्भों पर प्राधारित मन्दिर, इससे बहुत २० श्रीमती जन्ना मौर श्रीमती एव्वायार, खजुराहो, पहले देवगढ़ मे निर्मित होने लगे थे। पृ० १४२। १९ गागुलि, मो०सी०, दि पार्ट माफ चन्देलस, प०२१। २१ गांगुलि, मो०सी० : वही पु०१८-१९ । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकान्त महामण्डप का प्रवेश द्वार तत्कालीन स्थापत्य का और प्रतिष्ठासारोद्धार२६ के अनुसार महामानसी हैं। प्रतिनिधित्व करता है। प्रायताकार बड़ेर एक ही पत्थर चौखट के ऊपरी भाग के दोनों छोरों पर एक-एक की है और द्वारपक्ष पर आधारित है। द्वारपक्ष समाना- प्रतिमास्थान हैं और ये मध्यवर्ती प्रतिमास्थान से छोटे है। न्तर प्रसार पट्टिकानों से बने हैं जिनके विविध प्रलंकरण इनमें विभिन्न तीर्थकरों का अकन हुमा है। चौखट के दर्शनीय हैं। द्वारपक्षों पर नीचे खड़ी प्राकृतियाँ अंकित गरी भाग के ही बायें पार्श्व में नवग्रहों का प्रकन है। की गई हैं, यह पद्धति समूचे भारतीय स्थापत्य में कम-से- नवग्रहों के इस प्रकन और दक्षिण भारत में प्रचलित कम गुप्त युग तक देखी जा सकती हैं। द्वार की चौखट अंकन मे कुछ सूक्ष्म अन्तर है२७ । दायें पाश्व में पशुएक आयताकार सोपान पर स्थित है। इसमे अत्यधिक मस्तकों वाली पाठ प्राकृतियाँ हैं जो खण्डित होने से पहिनक्काशी और अलकरण है। चौखट के नीचे का भाग एक चानी नहीं जा सकती। चौखट के ऊपर तीर्थकर की ऊंची सीढ़ी का काम भी करता है । उसकी ऊंचाई से पूरे माता२८ के सोलह मङ्गलस्वप्न उत्क्रीणं है। मङ्गलस्वप्नों द्वार के विस्तार में ऊचाई आ गयी है। उसमें एक बहुत की मान्यता भारत मे बहुत प्राचीन काल से है। छान्दोग्य ही सन्दर पुष्पाकृति का अलंकरण है। उसके दोनों ओर उपनिषद मे लिखा है कि 'वह स्त्री को देखे तो समझ ले देवतामों और दोनों कोणों पर एक-एक हाथी का अंकन कि कार्य सफल हो गया। जैमा कि इस श्लोक मे लिखा है। चौखट का ऊपरी भाग दो भागों में विभक्त है। है . जब अभीष्ट कार्यों को हाथ मे ले चुकने पर स्वप्न मे उसके मध्य में एक प्रतिमास्थान है, जिसमें प्रथम तीर्थकर स्त्री दिखे तो उस स्वप्न के निमित्त से समझ ले कि उन प्रादिनाथ की अष्टभुजी२२ चक्रेश्वरी स्थित है। श्रीमती कार्यों में सफलता मिलेगी ही२६। महावीर-पूर्व काल में जन्ना और श्रीमती एन्वायर इसे सोलहवें तीर्थकर शान्ति- स्वप्नों का फल बतानेवाले व्यक्ति निमित्तपाठक कहलाते नाथ की यक्षी निर्वाणी मानती है२३ जो उचित नही; थे। ग्राजीवक संप्रदाय मे निमित्तशास्त्र बहत लोकप्रिय क्योंकि (१) तिलोयपण्णत्ती, वास्तुशास्त्र और प्रतिष्ठा- था। ईस्वोपूर्व प्रथम शताब्दीमे कालकाचार्य ने इन्ही से सारोद्वार के अनुसार किसी भी तीर्थकर की यक्षी का निमित्तशास्त्र मे पूर्ण विद्या प्राप्त की थी३० । प्रगविज्जा नाम निर्वाणी नहीं है, (२) शान्तिनाथ की यक्षी का नाम नामक (लगभग ६०० ई०) एक महत्वपूर्ण जैनग्रन्थ में तिलोयपण्णत्ती२४ के अनुसार मानसी और वास्तुशास्त्र२५ निमित्त विद्या का वर्णन है। श्वेताम्बर जैन मान्यता के २२ प्रतिष्ठासारोद्धार (अध्याय ३, श्लोक १५६) के अनुसार भगवान महावीर जब देवनन्दा ब्राह्मणी के गर्भ में अनुसार चक्रेश्वरी के १६ हाथ और वास्तुशास्त्र २६ अध्याय ३, श्लोक ·५६-१७८ । (भाग २, पृ० २७२) के अनुसार उसके १२ हाथ २७ शिवराममूर्ति, प्रो०सी० : कानालाजिकल फेक्टसं इन होना चाहिये । परन्तु खजुराहो के आदिनाथ मन्दिर इण्डियन प्राइकोनोग्राफी : ऐश्वेट इण्डिया, भाग ६ । और संग्रहालय तथा छतरपुर के गांधी स्मारक संग्र- २८ साधारण लेखको की धारणा है कि मङ्गल स्वप्न हालय और देवगढ़ आदि मे इस यक्षी को विभिन्न महावीर की माता त्रिशला ने ही देखे थे जब कि यह रूपों में देखा जा सकता है। उसके हाथों की विभिन्न विशेषता सभी तीर्थकरों की माताओ की है। सख्यामो और उनमे धारण की गई वस्तुमो की २६ ‘स यदि स्त्रियं पश्येत् समृद्ध कर्मेतिविधात् । विविधता को देखकर यह धारणा प्रबल होती है कि तदेष श्लोक. : कलाकार शास्त्रीय विधानों का बहुत अधिक कायल यदा कर्मसु काम्येषु स्त्रियं स्वप्नेषु पश्यति । नहीं था। समृद्ध तत्र जानीयात् तस्मिन् स्वप्ननिदर्शने ॥' २३ खजुराहो, पृ० १४३ । छान्दोग्य उपनिषद, २, ७-८ । २४ भाग १, महाधिकार ४, गाथा ६३७-३९। ३० शाह, उमाकान्त प्रेमानन्द : स्टडीज इन जैन आर्ट, २५ भाग २, ५०२७१-७२ । पृ० १०५, टि०१। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाजुराहो का घण्टा मन्दिर प्रवतीर्ण हुए तो उरे चौदह स्वप्न दिखे थे३१ और जब उत्कीर्ण कराया जाता था३५। पाण्ड लिपियों मे३६ देवों ने उन्हें क्षत्रियाणी त्रिशला के गर्भ में स्थानान्तरित और उनके काष्ठयावरणों और दीवालों आदिपर इन्हें कर दिया तो उसने भी वही चौदह स्वप्न देखे ३२ । प्रात चित्रित करने की परंपरा, विशेषतः श्वेताम्बरो मैं बहुत त्रिशला ने इन स्वप्नों की बात अपने पति सिद्धार्थ से कही रही है ३६ । तो उन्होने निमित्तपाठको को बुला कर इन स्वप्नों का घट६ मन्दिर, धी कॅवरलाल के शब्दों में 'आज, हजार फल बताने का आदेश दिया था। दिगम्बर जैन मान्यता वर्ष बाद, एक खंडहर के रूप में शेष है तथापि खजुराहो के अनुमार इन स्वप्नों की संख्या सोलह होती है और के स्मारको मे वह सर्वाधिक सुरुचिपूर्ण और परिष्कृत उनका अर्थ सिद्धार्थ स्वय बताते है, निमित्तपाठको को दृश्य उपस्थित करता है४०।' नहीं बुलाते३३ । मोलह स्वप्नों के दृश्य, खजुराहो में इस मन्दिर के अतिरिक्त प्रादिनाथ और शान्तिनाथ मन्दिरो ३५ यह फलक श्री पांड्यागह, पाटन, उत्तर गुजरात में में भी उत्कीर्ण हैं। देवगढ के शान्तिनाथ मन्दिर और पाबू सुरक्षित है। के खरतरवसहि मे भी इन्हें देखा जा सकता है । गर्भागृह ३६ (१) नचित्रकल्पद्रुम, प्राकृति ७३ । के प्रवेश द्वार पर मङ्गल स्वप्नों को उत्कीर्ण करने की (२) कुमारस्वामी, मानन्द के०: कैटलाग प्राफ दि परम्परा आज विद्यमान है ३४ । काप्टफलकों पर भी इन्हें इण्डियन कलेक्शस इन दि वोस्टन म्यूजियम, जिल्द ३१ कल्पसूत्र (जैकोबी), सूत्र ३, पृ० २१६ । ४, आकृतियां १३-३४ । ३२ वही, सूत्र ३१-४३, पृ० २३६३८ । (३) पवित्र कल्पद्रुम, प्राकृतियाँ १७, २२ । ३३ (१) महापराण ( पि ३७ कलेक्शस माफ प्रवर्तक श्री कान्तिविजय : जे प्राइ १०१-१६ । (२) हरिवंशपुराण, सर्ग ८, श्लोक एस प्रो ए, जिल्द ५ पृ०२-१२, और सम्बद्ध फलक । ५८-७४। ३८ णिरयावलियामो, २,१, पृ०५१ पर उल्लिखित । ३४ दि० जैन बुधूव्या का मन्दिर, बडा बाजार, मागर की ३६ स्वप्नों की सोलह की संख्या से निश्चय होता है कि दूसरी मजिल के गर्भगृह के प्रवेश द्वार पर यह दृश्य यह मन्दिर दिगम्बर जैनों से सम्बन्ध रखता है। सुन्दरता मे अकित है। ४. इम्मार्टल खजगहो, पृ० २२२ । स्व-स्वरूप में रम चेतन ! चिन्तन कर स्वरूपका, गहराई से मनन कर । तू कहाँ भटक रहा है। कहाँ निवास कर रहा है, जड़ पदार्थ में तेरी इतनी ममता क्यों है ? वह चर्म चक्षुमो से ही अच्छा लग रहा है। जब मैं तेरे इतिहास का अवलोकन करता हूँ तो हृदय कराह उठना है, तू अनादि काल से जड़ के अधिकार में पल रहा है। अपने स्वरूप को भूल कर इसी के साथ प्यार कर रहा है। इसी को देख-देख कर तू दीपक मे पतग की भाँति मोहित हो रहा है, इसी को सार सभाल मे पागल बन रहा है। मृग तृष्णा की भांति इसी के पीछे दौड रहा है । कभी तूने सोचा भी है कि यह मेरा नही है, फिर इसमे क्यो मुग्ध बनू? परन्तु तू तो उसी के चक्कर मे फस रहा है । अपना ज्ञानानन्द स्वभाव छोड़ कर, पर-स्वभाव मे रमण कर रहा है इसी से तू दु ख का पात्र बन रहा है। जब अज्ञानी अपने मूल स्वभाव को छोड़ कर पर की सगति करता है तब उसे जलना पड़ता है । अग्नि लोहे की संगति के कारण हथोड़ों की चोटे सहती है, यही गति प्राज तेरी हो रही है। अब तो संभल, पर को छोड़ कर स्वरूप में स्थिर हो, तभी तेरा कातिमान चिदानन्द स्वरूप झलक उठेगा। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगाल का गुप्तकालीन जैन ताम्र-शासन स्व० बाबू छोटेलाल जैन बंगाल के राजशाही जिले में बदलगाछी थाने के इस गुप्ताब्द १५९ (सन् ४७८-७९) के ताम्र शासन अन्तर्गत और कलकत्ता से १८६ मील उत्तर को भोर में वटगोहाली ग्रामस्थ श्री गुहनन्दी के एक जैन विहार जमालगञ्ज स्टेशन से ३ मील पश्चिम की ओर पहाड़पुर का उल्लेख है। इसमें पौण्डवर्द्धन के विभिन्न ग्रामो में है। यहां एक प्राचीन मन्दिर के ध्वंशावशेष ८१ बीघो में भूमि क्रय कर एक ब्राह्मण दम्पति द्वारा वटगोहाली के हैं जिनके चारों ओर इष्टकानिर्मित प्राचीर है। इनके जैन विहार के लिये दान किया जाना लिपिबद्ध किया मध्य का टीला बहुत बड़ा होने से गांववाले इसे 'पहाड़' गया है। पहाडपुर से संलग्न पश्चिम की ओर अवस्थित के नाम से पुकारने लगे, और इसी से यह स्थान पहाड़पुर यह वटगोहाली वर्तमान का 'गोपालभीटा' ग्राम है और कहा जाने लगा। इस ग्राम में इस मन्दिर की सीमा का कुछ प्रश अवइसके निकट नदीतल के चिन्ह उपलब्ध हुए है, इससे स्थित है। प्रकट होता है कि यहां पहले नदी बहती थी। इसके ध्वश सन १८०७ मे डाक्टर बुकानन हैमिलटन को यह का एक कारण बाढ़ है; क्योंकि इसकी शून्य वेदिया और टीला (जिसके अन्दर से यह मन्दिर निकला है) "गोपालअन्य व्यवहार्य सामग्री की अनुपलब्धि यह प्रमाणित करती भीटा का पहाड" के नाम से बताया गया था। इस लेख है कि यह स्थान एकाएक परित्यक्त नहीं हुमा था। मैं उल्लिखित वटगोहाली का जैन विहार निश्चय से दूसरा कारण १३ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब मुसल- पहाइपर के इस मन्दिर के मूलस्थान पर अवस्थित था मानों ने बगाल पर आक्रमण किया तब अन्य अनेक हिन्दू मौर वटगोहाली से ही गोपालभीटा हो गया मालूम मठ-मन्दिरो के साथ-साथ इसका मी ध्वश किया जाना है। होता है। इस टीले में सबसे प्राचीन ध्वंशावशेष गुप्तान्द १५६ ईस्वी पूर्व ततीय शताब्दी के उत्तर बग मौयों के का एक ताम्रपत्र प्राप्त हुया है। यहाँ से उपलब्ध विभिन्न शासनाधिकार मे था और पुण्ड्वर्द्धन नगर में उनका सामग्री की परीक्षा और मनोभिनिवेश से यह ज्ञात होता प्रान्तीय शासक रहता था। गुप्तकाल मे भी बगाल के है कि एक समय पहाडपुर जैन, ब्राह्मण और बौद्ध-इन इस प्रान्त की राजधानी पुण्डवर्द्धन थी। आजकल जो तीनों महान् धर्मों का उन्नतिवर्द्धक केन्द्र था। इसलिये स्थान महास्थान के नाम से प्रसिद्ध है, उसे ही प्राचीन प्रविच्छिन्न और धारावाहिक यात्रियों का दल पहाड़पुर काल मे पौण्डवर्डन करते थे। पहाड के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करता था और भारत के उत्तर-पश्चिम की मोर २६ मील पर और बानगढ़ भिन्न-भिन्न स्थानों से इस पवित्र स्थान पर अनेक छात्र (प्राचीन कोटिव) से दक्षिण-पूर्व की मोर ३० मील पर विद्याध्ययन के लिये पाते थे। यों तो यह स्थान बहुत अवस्थित है। इन दोनों प्रधान नगरो के निकट इस मदिर प्राचीन था, पर पञ्चम शताब्दी के पूर्वाद्ध से दशम शता म शता- को स्थापित करने का प्राशय यह था कि त्यागीगण नगरों ब्दी तक इसकी प्रख्याति अतिशय रूप में थी। से बाहर एकान्त में रह कर शान्ति से धर्मलाभ के साथयहां से उपलब्ध लेखों (ताम्रशासन और मृण्मय साथ विद्याध्ययन करे और नगर-निवासियों को भी धर्मोंमुद्रिकासमूह Sealings) से भिन्न-भिन्न दो समय के दो पदेश का लाभ मिलता रहे। दसरे उस समय पौण्डवर्द्धन विहारो के अस्तित्व की सूचना मिलती है। और कोटिवर्ष जैनाचार्यों के प्रधान पट्टस्थान भी थे। उस Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगालका गुप्तकालीन ताम-वासन २३१ समय वहाँ जनों का ही पूर्ण प्राधान्य था। प्रख्याति सर्वत्र हो गई और यहीं 'दीप'कर नामक प्रसिद्ध गुप्त साम्राज्य के प्रभुत्व काल में भी यद्यपि जैनों की बौद्धाचार्य ने भवविवेक के मध्यमक रत्नद्वीप का अनुवाद हो प्रधानता रही, पर साथ-साथ ब्राह्मण-प्रभाव भी धीरे- किया था। दशवी और ग्यारहवीं शताब्दी काल की भी धोरे बढ़ता रहा; किन्तु बौद्धों का प्रभाव यहाँ बहुत ही इमारतें इस पर हैं। कम था। इसका अनुमान चीनी यात्री के वर्णन से भली पहाड़पुर के इस परकालीन बौद्ध मन्दिर से नगण्य भौति हो जाता है तो भी उस युग में यहां का वातावरण जैन ध्वंसावशेष उपलब्ध हुए हैं, पर ब्राह्मण और बौद्धों पूर्णत: सहिष्णुता का था, कारण यहाँ जैन, बोद्ध और हिदू के परवर्ती गुप्त काल के अनेक शिला पर अल्प-उत्तोलिततीनों ही सम्प्रदायो की प्राचीन सामग्री प्राप्त हुई है। भास्कर कार्य (Basreliefs) और दग्ध मृणमय पटरियां षष्ट शताब्दी के किसी समय में इस मन्दिर के वृद्धि (Plagues, Terracottas) प्राप्त हुई हैं, जिनमें अनेक करण की मायोजना प्रारम्भ की गई थी और अट्टालि तन्त्रादिक कथा-साहित्य के प्राचीन उपाख्यानों को सूचित कामोकी ऊचाई को बहुत बढ़ाया गया जिससे सम्भवतः __ करनेवाले चित्र भी हैं। ऐसे जनसाधारण के पूज्य स्थान मध्यस्थित प्राचीन अट्टालिका पाच्छादित हो गई। जहाँ पर सभी सम्प्रदायों के लोग एकत्रित होते हों, वहाँ छठी शती से गुप्तो का प्रभाव क्षीण होता गया और ऐसे चित्रों को सजाने के काम में लाना अत्यावश्यक ही सप्तम शताब्दी के प्रारम्भ मे बगाल मे महाराजा शशांक नही, अपितु अनिवार्य है। इससे प्रकट होता है कि इनमे का प्राधिपत्य हो गया। शशाक शैव धर्मावलम्बी था। देवमूर्तियाँ हैं और वे खास पूजन की दृष्टि से नहीं लगाई उसने जैन और बौद्धो को बहुत ही सताया था। तो भी गई हैं। किसी समय विद्वेषवश जैन सामग्री वहां से जैनों के पाँव यहाँ से नही उखड़े। तत्पश्चात् सप्तम अवश्य पृषक् कर दी गई है। शताब्दी में ही जब बंगाल में अराजकता का बोलबाला चीनी यात्री हयेनसागर जो खुष्टीय सप्तम सताब्दी हुआ तब धीरे-धीरे यहाँ से जैनधर्म विलीन होता गया। के पूर्वाद्ध में पौण्डवर्द्धन में आया था। वहां का वर्णन करते वटगोहाली का यह श्री गुहनन्दी जैन विहार भी पौण्ड- हुए लिखा गया है कि यहाँ एक सौ देव मन्दिर हैं। पर वर्दन और कोटिवर्ष की जन सस्थामो की भाँति क्षति- यहाँ निम्न-निग्रन्थ सब से अधिक हैं । इससे यह स्पष्ट हो प्रस्त हुआ। पुनः जब यहाँ शान्ति हुई और पालराज्य जाता है कि सप्तम सताब्दी के पूर्वार्द्ध तक तो यह विहार सुदृढ़ता से अष्टम शताब्दी मे सुस्यापित हुमा, उस समय निश्चय से जन भिक्षुओं को आकर्षित करता रहा है। यह स्थान सोमपुर के नाम से प्रख्यात हो चुका था। और उस समय इस स्थान पर बौद्ध मठादि नहीं ३ । पाल नपतियो का अधिकार ३५० वर्ष तक रहा। हो सकता है कि अष्टम शताब्दी के लगभग कुछ काल पाल राजा बौद्ध धर्मावलम्बी थे। इनके समय में यहाँ पर्यन्त ब्राह्मणों का भी इस मन्दिर पर अधिपत्य रहा हो। | नष्ट हा गई पार बौद्धो के प्रभाव ने तत्पश्चात् बौद्धों ने इस पर नूतन विहार भोर मठ निर्माण जोर पकडा और इस जैन विहार पर उनका पूर्ण अघि- कर इसे अपना लिया और शेष तक उनका अधिकार यहाँ : कार हो गया। रहा, यह ऊपर पाल वंश के वर्णन में बताया जा चुका है। ईसा की अष्टम शताब्दी के शेष भाग मे अथवा नवम चीनी परिव्राजक के आगमन से १५० वर्ष पूर्व का शताब्दी के प्रारम्भ में पालवंश के द्वितीय सम्राट् महाराज सम्राट महाराज यह ताम्रशासन जैनों के प्रभाव का केवल समर्थन ही नहीं धर्मपाल ने इसी विहार के ऊपर महाविहार निर्माण किया जाता है किन्त यहां तक प्रमाणित करता है कि यह विहार था, तब से यह स्थल धर्मपाल देव का "सोमपुर महाबौद्धबिहार" के नाम से प्रसिद्ध हो गया। इस विहार की . Memoirs of A.S.I. No.55 P. 8 1. Beals Budhist records of the Western १. पहाड़पुर से दक्षिण की ओर एक मील पर अब World Vol. II, Page 195 (A.S.I. Memoirs सोमपुर ग्राम है, वही सोमपुर था। No. 55 P.3) Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अनेकान्त अति प्राचीन है और इसमे धारावह गुरु शिष्यों की परम्परा श्रीयुत पं० काशीनाथ नारायण दीक्षित ने लिखा है कि चली माई है प्राचार्य भद्रबाहु तथा उसके शिष्य गुप्तिगुप्त कुशान कालीन मथुरा के जैन स्तूप (ककाली टीला) के (विशाखाचार्य महद्वलि) आदि प्रसिद्ध जैनाचार्यों का अतिरिक्त उत्तर भारत में मध्य काल से पूर्व एक भी जैन यह स्थान पुण्डवर्द्धन और कोटि वर्ष में था। पुण्ड्रवर्द्धन के अट्टालिका अभी तक नहीं मिली है। पहाड़पुर का परवर्ती पटाचार्य मुनिसंघ का निग्रह अनुग्रह पूर्वक शासन करते थे गुप्तकालीन मन्दिर और प्रारम्भिक पाल कालीन विहार और प्रत्येक पांच वर्ष के अन्त में सौ योजन क्षेत्र में निवास को मूल जैन मन्दिर का प्रसारण मोर वृद्धिकरण स्वरूप करने वाले मुनियों के समूह को एकत्र करके युग प्रतिक्रमण मान लेने से अनुमान होता है कि इस चार प्रवेश द्वार किया करते थे। युक्त चतुष्कोण मन्दिर की वेदी चतुर्मुख थी जिसमें गुहनन्दी भी सम्भवतः भद्रबाह की परम्परा के प्रहन्ता का चार मूातया या पार सम्भवतः मान्दर से कुछ प्राचार्य मालूम होते हैं, प्राचार्यों के नंद्यान्त नाम प्राचीन ही दूरी पर श्रमणों या जैनमुनियों के लिये एक मठ था। काल से ही उपलब्ध होते हैं। अहंदबलि प्राचार्य ने नन्दी (चतुर्मुख या सर्वतोभद्र मन्दिरों का होना जैनों में भिन्न और पंचस्तूपान्वय स्थापित किया था । नन्दी वृक्ष के मूल भिन्न काल और भिन्न-भिन्न प्रदेशों में प्रचलित था । से वर्षा योग धारण करने से नन्दी संघ हुआ। इसके प्रथमा- प्रसिद्ध इतिहासज्ञ फरगुसन साहब ने तो चतुर्मुख मन्दिरो चार्य श्री माघनन्दी थे। तृतीय और चतुर्थ शताब्दी के को प्रधान जैन श्रेणी का कहा है। चतुर्मुख या नन्द्यान्त नामों में यशोनन्दी, जयनन्दी, कुमारनन्दी सर्वतोभद्र मन्दिरों की उत्पत्ति समवसरण से है। ऐसे मादि हैं। उत्तरकालीन जैन मन्दिर अभी तक कई स्थानों मे उप लब्ध हैं। विहार सोमपुर (पहाड़पुर) के इस विहार को वृहदाकार और पहाड़पुर के इस विहार से जैन ताम्रशासन के प्रतिउन्नत वर्तमान अवस्था में पहुंचाने का श्रेय बौद्यधर्मपरायण रिक्त प्रक छोटी सी जिन मूर्ति (धातु की) उपलब्ध हुई पांच सम्राटों को है। इसके चारों ओर प्रायः दो सौ कमरे हैं। है जिसके उभय पक्ष में दो अस्पष्ट मूर्तियां यक्षों या अट्टालिका परिवप्ठित प्रागण का परिमाण ९२२४६१९ श्रावका का ह। महन्त भगवान एक कमलासन फूट है। भारतवर्ष में इतना बड़ा मठ कही भी नहीं मिला खड़गासन स स्थित है। यह प्रातमा गुप्त कालान मालूम है। इसकी लम्बाई उत्तर से दक्षिण ३६१ फुट और चौडाई होती है। ३१६ फुट है। मन्दिर के तीन खढ़ terraces हैं और अब महत्वपूर्ण पालोच्य ताम्र शासन ८ का परिचय पहिले और दूसरे खडों मे चैत्यागन (प्रदक्षिणामार्ग) है। प्रस्तुत किया जाता है : जिस प्रकार के नक्शे पर यह मूल मन्दिर निर्मित पहाड़पुर के प्रसिद्ध बौद्ध मन्दिर की खुदाई करते दृप्रा था, उस प्रकार का अन्य उदाहरण अभी तक भार- समय सन् १९२७ म पुरातत्व विभाग क प. कार समय सन् १९२७ में पुरातत्त्व विभाग के पं. काशीनाथ तीय पुरातत्व को उपलब्ध नही हुमा है और न प्राचीन नारायण को गुप्त सवत् १५९ (सन् ४७६) का यह ताम्रबौद्ध स्तूपों से इसका विकास ही माना जा सकता है। पत्र मिला था। प्रधान मन्दिर के दूसरे खण्ड (Jetrace) अतएव वही सम्भव है कि इस स्थल पर ही था इसके की प्रदक्षिणा के उत्तर पूर्व के मार्ग की मृतिका और भग्न पनि निकट जनों का एक चतुर्मुख मन्दिर था इसकी पुष्टि - Arch. Survey of India Report 1927-28 यहां से उपलब्ध इस ताम्र शासन से भी होती है । P.38 भारतीय पुरातत्त्व विभाग के प्रसिस प्रत्लतत्त्वविद ७. Hist. of India Eastern Architet Vol. II ४. श्रुतावतार कथा श्लोक ८०-८७ । P. 28 ५. Memoris of A.S.I. No. 55 P.7 ८. EPi. India Vol.XX P.P.59-64 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगाल का गुप्तकालीन जैन ताम-शासन इष्टक राशि अपसारण करते समय यह ताम्रपत्र माविष्कृत पञ्चस्तूप-निकायिक३-निग्रन्थ-श्रमण-प्राचार्य-गुहनन्दि हुप्रा था। इसकी प्राप्ति अवस्था सूचित करती है कि इस -शिष्य-प्रशिष्य-प्राधिष्ठित-विहारे । विहार की अन्तिमावस्था पर्यन्त बहा दफ्तर (Archines) ७. भगवताम्-प्रहंताम्-गन्ध-दीप-सुमनो-दीपमे यह सुरक्षित था। प्राद्य-प्रर्थन् तल-वाटक-निमित्तञ्च प्रति) एब वटइसकी कतिपय पक्तिया और प्रक्षर घिस गये हैं, तथा गोहालीतो वास्तु-द्रोणवापम् प्रध्यन्-िजमजदूरो की असावधानी से भी ऊपर के दक्षिण कोने में ८. म्बुदेव-प्रावेश्य-पृष्ठिम्=पोत्तकेत्४ क्षेत्र द्रोणएक छिद्र हो गया है । तो भी इस ताम्रपत्र की अवस्था वाप-चतुष्टयम् गोपा-टपुजाद-द्रोणवाप-चतुष्टयम् मूल अच्छी है। इसकी नाप ७.४१॥ इच है और इसका नागिरट्टवजन २६ तोला है। १. प्रावेश्या-नित्व-गोहालीतः अर्द्ध-त्रिक-द्रोणइसकी लिपि उत्तरीय पंचम शताब्दी की है, भाषा वापान इत्य एवम् प्रध्यर्द्धम् क्षेत्र-कुल्यावापम् प्रक्षय. सस्कृत है। अन्त के पाच प्रमगल प्रार्थी पद्यो के अतिरिक्त नीव्या दातुम इ[त्य-पत्र] यतः प्रथमसारा लेख पद्य मे है। १०. पुस्तपाल-दिवाकरनन्दि-पुस्तपाल-धृतिविष्णुपहाड़पुर का ताम्र शासन गुप्ताब्द १५७ (सन् ४७६) विरोचन-रामदास-हरिदास-शशिनन्दि-षु प्रथमनु५.." अग्रभाग [ना] म् अवधारण६१. स्वस्ति [ITHI] पुण्ड्र [बर्द्ध] नादम्पआयुक्तक.१ ११. य=प्रावधृतम् प्रस्त्य-प्रस्मद् अधिष्ठान्-प्राधिप्रार्य-नगर श्रेष्ठि-पुरोगञ्च अधिष्ठान्-प्रधिकरणम् करणे द्वि-दीनारिक्कय-कुल्यवापेन शश्वत् काल-प्रोपभोग्य दक्षिणाशक-वीथेय-नागिरट्ट -पाक्षय-नीवी-समु, [द य-वा] ह्य-पाप्रतिकर२. माण्डलिक-पलाशा-पाश्विक-बट-गोहाला - १२. [खिल+]-क्षेत्र-वास्तु-विक्रयो-तुवृत्तस्त द्जम्मुदेव-प्रावेश्य-पृष्ठिम-पोत्तक-गोषा-टपुजक-मूल यद-युष्माम् ब्राह्मण-नाथ-शर्मा एतद् भार्या रामी च नागिरट्ट-प्रावेश्य पलाशाट्ट-पाश्विक-वट-गोहालीस्थर (?)-य ३. नित्व-गोहालीषु ब्राह्मण-मोत्तरान् महत्तरप्रादि-कुडम्बिनः कुशलम्-अनुवरार्ण्य =प्रानुबोधयन्ति [+] १३. [काशि] ....'क=पंच-स्तूप-कुल-निकायिकविज्ञापयत्य-प्रम्मान् ब्राह्मण-नाथ प्राचार्य-निग्रन्थ-गृहनन्दि-शिष्य-प्रशिष्य -प्राधिष्ठित४. शर्मा एतद्-भार्या रामी च [1] युष्माकम् इह- ३. १३वी पंक्ति मे पञ्चस्तूप-कुल-निकायक है-प्रस्तु अधिष्ठान्-प्राधिकरणे द्वि-दीनारिक्कय - कुल्यवापेन यहां भी इसी अर्थ का द्योतक है । यहा पाच निकायो अश्वत्-काल-पोपभोग्य-प्राक्षय-नीवी-समुदय-बाह्य-पा का प्राशय नहीं है किन्तु यहा निकाय का अर्थ ५. प्रतिकर-खिल-क्षेत्र-वास्तु-विक्क्रयो नुवत्तस् = [जैनाचार्यों की] शाखा है । पच-स्तूप किसी स्थान तद्-ग्रह-प्रानेन् एव वक्रमेण प्राचयोस्-सकाशाद् का नाम होना चाहिये । श्रुतावतार कथा में दीनार-त्रयम्-उपसगृह्य-प्रावयो [म+स्व-पुण्य-प्राप्या सेनसंघ की उत्पत्ति इस प्रकार है कि जो मुनि ६. यनाय बट-गोहाल्याम् अवास्या काशिक पंचस्तूपों में से पाये वे सेनमघ के नामधारी हुए। + EPI. Ind. Vol. XX P.P. 61-63 By K. N. ४. इसमे त् अत्यधिक है। Dikshit. ५. इसके बाद कई प्रक्षर नष्ट हो गए है। १ ताम्रपत्र मे युक्त का मार्य है-इस पाठ से सूचित ६. दामोदरपुर के शासन से मालूम होता है कि अवधाहोता है कि दो से अधिक मायुक्तक थे। रणया के पहले पुस्त पालों के नाम थे । २. एव् पाठ पढ़ें। H. Shastri connects the Name ७. युष्मान् पढ़िए । with नव्यावकाशिकाः ८. ऊपर की छठी पंक्ति से मिलान करें। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त सद्-विहारे-परहताम् । गन्ध [-धूप]-माद्य-उपयोगाय २५. दाना च-छे योनुपालनं [[+] विन्ध्य १४. [तल-+] माटक निमिताभ-तत्र-ऐव पाटविष्व-प्रनम्बुषु शुष्क-कोटर-वासिन [1] कृष्णबट-गोहाल्यां वास्तु-द्रोणवापम्-अध्य-द्ध क्षेत्राव-जम्बु- प्राहिनो, हि जायन्ते देव-दायं हरन्ति ये [1] देव-प्रावेश्य-पृष्ठिम-पोत्तके द्रोणवाप-चतुष्टयं लेख का सारांश १५. गोषाट पुजाद-द्रोणवाप-चतुष्टयं मूल-नागि- नाथ शर्मा नामक ब्राह्मण और उसकी धर्मपत्नी रामी रट्र-प्रावश्य-नित्व गोहालीतो द्रोणवाप-दयम्-प्राढवा ने पुण्ड्रवर्द्धन के प्रायुक्तक (District officer) जिला [प] य-प्राधिकम् इत्य्-एवम्प्र अफसर और नगर श्रेष्ठी (Mayor) के निकट जा निवेदन १६. ध्यर्द्ध क्षेत्र+कुल्यवापस-प्रार्थयते-ब न कश्चिद्= किया कि स्थानीय प्रचलित रीत्यानुसार उनको दक्षिणांशक विरोधः गुणस्-तु यत्-परम-मट्टारक-पादानाम्-प्रत्ये- बीथी और नागिरट्ट मण्डल में अवस्थित चार विभिन्न मोपचयो धर्म-षड्-भाग-पाप्याय ग्रामों की १॥ कुल्यवाप भूमि के मूल्यस्वरूप तीन दीनार १७. नञ्-च भवति तद-एवन्=क्रियताम इत्य- अधिष्टोन प्रधिकरण (city council) में जमा करा देने अनेन्प्रावधारनाxक्क्रमेण-पास्माद् -ब्राह्मण -नाथ- की अनुमति दी जाय । क्योकि वटगोहाली के विहार के शर्मत एतद्-मा--रामियाश्-च दीनार-त्र प्रहन्तों की पूजा के प्रयोजनीय चन्दन, धूप, पुष्प, दीप के १८. यम्-प्रायीकृत्य-ऐताम्या विज्ञापितक-क्रम- निर्वाहार्थ तथा निर्ग्रन्थाचार्य गुहनन्दि के विहार में एक मोपयोगाय-प्रोपरि-निर्दिष्ट-ग्राम-गोहालि-केषुः तल विश्राम स्थान निर्माण कराने के लिये यह भूमि सदा के वाटक-वास्तुना सहक्षेत्र लिये दान दी जायगी। इस विहार के अधिष्ठाता बनारस १९. कुल्यवाप प्रध्यौं क्षय-नीवी-धर्मण दत्तः कु१ के पञ्चस्तूप निकाय सघ के प्राचार्य गुहनन्दि के शिष्य , द्रो [+] तद्न्युष्माभिः स्व-कर्मण पाविरोधिस्थाने प्रशिष्य हैं। षट्क नडे-प्रप मूमि परिमारण २०. विच्छय दातव्यो क्षय-नीवी-धर्मेण च शश्वद= पृष्ठिम-पोत्तक, गोवाट पुञ्जक और नित्व गोहाली प्राचन्द्र-प्रावक-तारक-कालम् अनु-पालयितव्य इति[+] ग्रामो मे क्रमानुसार ४, ४ और २॥ द्रोणवाप परिमाण सम १०० ५.१ क्षेत्र और वाट गोहाली की १।। द्रोणवाप परिमाण पावस२१. माघ दि७ [i+[ उक्त ज्-च भगवता व्यासेन भूमि । + स्व-दत्ता पर-दत्ता वा यो हरते वसुन्धराम् [+] (अधिष्ठान अधिकरण) सभा ने प्रथम पुस्तपाल २२. स विष्ठायां क्रिमिर१० भूत्वा पितृभिस्-सह (Recordkeeper) दिवाकरनन्दि से परामर्श किया। पच्यते [u+] पष्टि वर्ष-सहस्राणि स्वर्गे वसति भूमिद. पस्तपाल ने बताया कि इस कार्य मे कोई प्रापत्ति नही [+] है । दूसरे राजकोष में कुछ प्राय प्राप्ति के अतिरिक्त इस २३. आक्षेप्ता चप्रानुमन्ता च तान्य-एव नरके दान से जो पुण्य होगा उसका षष्ठांश पुण्य महाराज को वसेत् [13] राजभिर्-व्वहु-भिदत्ता दीयते च पुन प्राप्त होगा, अस्तु सभा ने ब्राह्मण दम्पति के प्रस्ताव को पुनः [1+] यस्य यस्य स्वीकार कर लिया और भूमि हस्तान्तर को लिपिबद्ध २४ यदा भूमि११ तस्य तस्य तदा फलम् [u+] किया। पूर्वदत्तां द्विजातिभ्यो य तनाद-रक्ष युधिष्ठिर [+] महीम्=महिमताम् श्रेष्ठ विभिन्न ग्रामों के (जहां ये क्षेत्र थे) प्रधानों को सभा ने क्षेत्रों की चौहद्दी निर्देश करने के लिये कहा । ९. अहंताम् ४ स्व-कर्षणा विरोधी स्थाने इसकी तिथि माघ कृष्णा ७ गुप्ताब्द १५६ (सन् ४७९) १०. क्रमिर पढ़िए । ११. भुमिस पढ़िए । है। अन्त में प्रचलित अमंगल प्रार्थी पच है। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बंगाल का गुप्तकालीत तान-शासन २३९ इस ताम्रशासन से बंगाल के उस प्रान्त में प्राचीन- दानपत्र की सोलहवी पक्ति में परम भट्टारक शब्द काल में भूमि क्रय और दान करने के लिये किस प्रकार उस नपति से सम्बन्ध रखता है जिसके शासन काल का की कार्य प्रणाली का उपयोग होता था, इसका परिचय यह दान पत्र है। पर इसमें उसका नाम नहीं है। भली भांति हो जाता है। दामोदरपुर के दानपत्रों से विदित है कि इस समय बुद्ध इच्छुक दानकर्ता आयुक्तक (District offleer) और गुप्त के राज्यान्तर्गत पुण्ड्रवर्द्धन भुक्ति थी। प्रस्तु, बहुत मधिष्ठान अधिकरण (City council) के मुखिया नगर सम्भव है कि इस दान पत्र के निरुल्लिखित नपति बुद्धगुप्त श्रेष्ठी (Mayor) के निकट गये और निर्धारित मूल्य पर ही थे। उनका राज्यकाल सन् ४७६ से ४९५ था। दान के लिये भूमि बिक्री करने के लिये निवेदन किया। पंचम इस पर प्रायुक्तक और अधिष्ठान भधिकरण ने जिज्ञास्य इस ताम्र शासन की की छट्ठी मोर १३वीं पंक्तियों विषय को मीमांसार्थ (जांच पड़ताल के लिये) पुस्तपाल+ (Recordkeepers) के हाथ मे अपण कर दिया। पुस्त में "काशीक पचस्तूपान्वय" का उल्लेख हुआ है। जैन पाल ने आवश्यक अनुसन्धान कर (Transaction) सौदे के ___ संघों के इतिहास पर प्रकाश डालने का प्रयत्न अभी तक पक्ष में मनमति देते हुए अपनी विवत्ति (Report) पेश सन्तोषपूर्ण नही हुमा है। जैन ग्रन्थों से पता चलता है कि कर दी। तत्पश्चात् शासन कर्तृवर्ग ने प्रार्थी से मावश्यक इस पंचस्तूपान्वय के संस्थापक पौण्डवर्डन के श्री मूल्य वसूल कर लिया और उन गांव के मुखिया और प्रहंबल्या चार्य थे। आप अपने समय के बडे भारी पंध अन्य गृहस्थों को सूचना दे दी कि भूमि को माप कर नायक थे। प्रार्थी को दे देवें। एक बार युग प्रतिक्रमण के समय उन्हें यह ज्ञात हमा इस दान पत्र में भूमि माप का परिमाण धान्य (बीज) कि अब पक्षपात का जमाना आ गया है। उन्होने यह के अनुसार है अर्थात् कुल्यवाप१। कुल्यवाप, द्रोण विचार किया कि मुनियों में एकत्व की भावना बढ़ाने से ३२ माढक १२८ प्रस्थ । कुल्यवाप का प्राशय उतनी भूमि ही लाभ होगा। अतः प्राचार्य श्री ने नन्दि, वीर, देव, से है जितनी एक कुल्य घान्य (बीज) से बोई जाय । इस अपराजित, सेन, भद्र, प चस्तूप, गुप्त गुणधर, सिंह, चन्द्र दान पत्र मे द्रोणवाप और पाढ़ बाप भूमि माप भी है। प्रादि नामों से भिन्न-भिन्न संघ स्थापित किये १ अहंद् दानपत्र मे समय सं० १५६ माघ वदी० ७ लिखा है। बलिका समय वीर निर्वाण रा०७१३ के लगभग पं. यह संवत् सम्भवतः गुप्ताब्द है । जिस समय का यह दान जुगलकिशोर जी ने लिखा है२ । किन्तु नन्दि सघ की पत्र है, उस समय बगाल मे गुप्ताब्द प्रचलित था। तद- पट्टावली के अनुसार उनका समय वीर निर्वाण स०५६३ नुसार गणना करने से जनवरी सन् ४७६ का यह लेख हैं। वष होता है । + एक पुस्तकपाल प्रधान होता था और उसके आधीन १. श्रुतावतार (मा० ग्र० न० १३) कई पुस्स्तपाल होते थे। २. स्वामी समन्तभद्र पृ० १६१ १. Api. India Vol. XU PP. 113-45 ३. भास्कर भाग १ किरण ४ माग में उबलते हुए पानी में जिस तरह मानव को अपना प्रतिबिम्ब विखाई नहीं देता, उसी तरह क्रोध से । संतप्त मानव को प्रात्मा का शान्त स्वरूप भी दिखाई नहीं देता। Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन दर्शन और निःशस्त्रीकरण साध्वी श्री मंजुला निःशस्त्रीकरण प्राज की अन्तराष्ट्रीय परिचर्चा का रह कर नि.शस्त्रीकरण को माकार नहीं दिया जा प्रमुख विषय है । क्योकि आज सारा विश्व सहारक शक्ति सकता। से भयभीत और आशंकित है। लेकिन बाह्य वस्तु को भगवान महावीर ने इन सब तथ्यों का उद्घाटन शस्त्र मानना बहुत स्थूल बात है। वस्तुतः तो हिंसा के प्राचारांग सूत्र के प्रथम अध्ययन में बड़े मामिक ढंग से मनोभाव ही शस्त्र हैं। हिंसा के भाव उग्र हैं और शस्त्र किया है। हिंसक और अहिंसक का विवेक देते हुए वहाँ पास में नही हैं तो हाथ के आभूपण या क्रीड़ा सामग्री या मना या कहा गया है कि हिंसक वह होता है जो रुग्ण होता है१ । पूजा सामग्री भी शस्त्र का रूप ले लेगी और हिंसा के स्वस्थ व्यक्ति हिंसा नही करता। हिसा वह करता है जो भाव क्षीण हैं तो तलवार और बाण भी निष्क्रिय पड़े प्रमत्तर-प्रात्मविमुख होता है। प्रात्मोन्मुख व्यक्ति हिंसा रहेगे। नहीं कर सकता। हिंसा वह करता है जो विषयार्थी निःशस्त्रीकरण शस्त्र परिज्ञा का प्राधुनिकीकरण है। होता है। विषय विमुख हिंसा किसलिए करे। हिंसा वह माज से ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान् महावीर ने शस्त्र. करता है, जो भयभीत होता है। प्रभय व्यक्ति हिसा परिज्ञा का तत्त्व दिया जो निःशस्त्रीकरण का ही पर्याय नही करता। है। आज का जन-मानस निःशस्त्रीकरण को वर्तमान युग हिसा वह करता है जो विषयास्वादि कुल्लि३ प्रार की उपज मानता है और उसे राजनीति की पृष्ठभूमि पर कृत्रिम होता है। सहज व्यक्ति हिंसा नहीं करता, हिसा फलित देखना चाहता है । लेकिन यह प्रसभाव्य सा लगता वह करता है जो प्रारम्भ में आसक्त है, अनासक्त व्यक्ति है। क्योंकि निःशस्त्रीकरण धर्म, दर्शन या अभय की हिंसा नही करता। निष्पत्ति है और राजनीति कूटनीति की परिणति । तभी तो राजनैतिक क्षेत्र में नि:शस्त्रीकरण की भावनाएं फलित व्यक्ति हिंसा क्यों करता है ? यह बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है। इसी प्रश्न के परिप्रेक्ष्य मे हम हिंसा के समग्र नहीं होती हैं। वहाँ कार्य के प्रति जितनी तीव्रता है, कारणों का तलस्पर्शी विवेचन प्राप्त कर सकते है। कारणों के प्रति उतनी ही उदासीनता है। पाचागंग मे हिंसा के मुख्य पांच कारण बतलाए दर्शन की अपनी अलग प्रक्रिया है। वह कार्य की -१ प्रासक्ति, २ प्रयोजन, ३ प्रतिशोध, ४ सुरक्षा अपेक्षा कारणों के प्रति अधिक सतर्क रहता है। और यह ५ प्राशका । उचित भी है। क्योकि नि.शस्त्रीकरण अहिंसा का परि ये पांचों ही कारण सर्वथा मनोवैज्ञानिक है। बहुत से णाम है, यह ठीक है लेकिन अहिंसा की भावना कैसे पनपे । अहिंसा क्या होती है? अहिंसक कौन होता है? १ प्राचाराग अ० १, उ० १, सूत्र ५ अहिंसा क्यों की जाती है? हिंसा क्या होती है? क्यों की २ मा० श्रु० १,१० १, उ० १, सूत्र ४ जाती है? हिंसक कौन होता है? हिंसा किन परिस्थितियों ३ प्राचारांग अ१, उ४, सूत्र ३ में की जाती है? इत्यादि परिपार्ववर्ती कारणों से अनपेक्ष गुणासाते पकसमायारे पमत्ते प्रागार मावसे । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन वर्शन पौर निःशस्त्रीकरण २४१ मम्मण जैसे व्यक्ति हैं जो बिना किसी प्रयोजन के रात- मारता है। अतः मैं भी उसे मारूमा, यह सुरक्षा प्रेरित दिन हिंसा में ही रत रहते हैं। ऐसी हिंसा पासक्ति हिंसा है । बहुत से युद्धों का कारण की सुरक्षा ही है। जनित हिंसा कहलाती है। शारीरिक, मानसिक या अन्य प्राशंका या भय वश भी व्यक्ति भयंकर हिंसाए कर किसी अावश्यकतावश जो हिंसा की जाती है, वह सह- लेता है। प्राशंकाजनित हिंसाए अनगिनत हो सकती हैं। प्रयोजन हिंसा कहलाती है। इसमें १५ कर्मादान, कृषि, क्योंकि अाशंका मन ही कल्पना है और कल्पनाएं असीम व्यापार, गृह-कार्य प्रादि से अद्भुत सारी हिंसाए समा- हो सकती है । प्रमुक मुझे मार देगार, अमुक मेरा मनिष्ट विष्ट होती हैं। जैसे कोई शरीर के लिए हिसा करता कर देगा. प्रमक मेरा धन दूर लेगा. अमक मेरा राज्य है। कोई मांस के लिए हिसा करता है। कोई रक्त छीन लेगा, अमुक मेरे अहं को कुचल देगा। इत्यादि आदि के लिए हिंसा करता है। यह सब प्रयोजन हिंसा भविष्य की आशंकाएं व्यक्ति को प्रतकित हिंसा प्रयोग में के ही प्रकार हैं। नियोजित कर देती है। प्रतिशोध भी हिंसा का बहुत बड़ा कारण है। बहुत ____ हिंसा के इन कारणों के अतिरिक्त भी कुछ कारण से व्यक्ति ऐसे हैं जिनमे सामान्यतया हिंसा के भाग नही है, जिससे मानव मन को सहज वृत्तियां अभिव्यंजित होती हैं । सायकोलोजी का यह सुप्रसिद्ध सिद्धान्त जगते लेकिन जब कोई दूसरा व्यक्ति अनिष्ट कर है कि हरव्यक्ति महत्वाकाक्षी होता है। हर व्यक्ति देता है तो वे संतुलन खो देते हैं और दबी हुई हिंसक वत्तियां उग्र रूप ले लेती हैं फिर उनके चिन्तन का कोण बन्धन-मुक्ति का इच्छुक होता है। हर व्यक्ति दुःख ही बदल जाता है। वे सोचते हैं कि अमुक ने हमारा प्रतिघात के लिए प्रयत्नशील रहता है। प्राचारांग अनिष्ट किया है, हमारे सम्बन्धी को मारा है३, या हमें में इन तीनों ही प्रवृत्तियों को हिसा के हेतु रूप में मताया है, इसलिए हम भी उसे मारेंगे। इसके विपरीत स्वीकार किया है। प्रवृत्तिमात्र कोई हिसा नही है। चिन्तन का अवकाश उन्हें नहीं, कोई कुछ करे हमे अपना लेकिन असम्यक् कर्म हिंसा है। प्रथक असत् उद्देश्य से जो प्रात्म-धर्म समझकर सहिष्णुता की साधना करनी चाहिए। कर्म किया जाता है, वह असम्यक ही होता है। अतः उसे हिंसा मे ही परिगणित किया जाएगा। कभी-कभी और प्रतिशोधजन्य हिसाएं सहिष्णुता के प्रभाव में ही होनी हैं। कहीं-कही उद्देश्य सम्यक् होते हुए भी साधन की विकृति कर्म को असम्यक् बना देती है। बहुत से व्यक्ति यश, पूजा, सुरक्षा भी हिंसा का प्रबल कारण है और यह इतना । प्रतिष्ठा और मम्मान के लिए हिंसा करते है । यहां अव्यवहारिक भी नहीं है। क्योंकि साधारणतया व्यक्ति उद्देश्य और साधन दोनों विकृत है। कई व्यक्ति जन्मकिसी पर हाथ उठाना नही चाहता लेकिन जब सामने मरण की परम्परा३ से मुक्ति पाने के लिए हिंसा करते वाला चल कर माक्रमण करता है तो उस समय पहिसक हैं। यहां साध्य पवित्र होते हुए भी साधनों की नितान्त रहना बहुत कठिन है । अपने बचाव के लिए सहज ही कलुषता है। बहुत से व्यक्ति दुःख प्रतिघात४ के लिए प्रत्याक्रमण के भाव उत्पन्न हो जाते हैं। अमुक मुझे हिंसा करते हैं। १. वही, अ० १, उ ७, सूत्र ७ १. प्राचारांग, अध्ययन १, उद्देशक ६, सूत्र ७ आरंभ सत्ता पकरेंति सग। अप्पेगे हिंसति मेत्ति वा वहति । २. वही, प १, उ०६, सत्र ५ २. वही, अ० १, उ० ६, सूत्र ७ ॥ अप्पेगे मच्चाए वहंति हिंसि मंति मेत्ति वा वहति ३. वही, प्र. १, उ०६, सूत्र ७ ३. वही, म. उ १, सूत्र ५ अप्पेगे हिंससु मेत्ति वा वहति । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ अनेकान्त पूजा, प्रतिष्ठा, जन्म-मरण, मुक्ति और दुखघात ये अहिंसा ही जीवन है, अहिंसा ही स्वर्ग है, अहिंसा ही तीनों ही हिंसा के परिणाम नहीं हैं, फिर भी अनजान स्वास्थ्य है । अहिंसा में स्पष्टता है। निर्णायकता है। पर व्यक्ति हिंसा से ही इन ईप्सित चीजों को पाना अहिंसा की भूमिका प्रभय है । अभय के बिना अहिंसा का चाहते हैं। उद्भव और विकाम दोनों ही अहंभाव्य है । अहिंसक की भाग्रह और प्रज्ञान भाव हिंसा के अनन्य कारण हैं। साधना का प्रथम चरण अभय है। अभय की सुदृढ़ भित्ति इसीलिए प्रज्ञान और अभिनिवेश महत्तर पाप माने गए पर ही अहिंसा का वृक्ष फलता-फूलता है। है और सच तो यह है कि हिसा के समग्र कारणों में अभय को साधना विधि का उत्कृष्ट पालम्बन जान बलवान कारण अज्ञान ही है । प्रज्ञान के अभाव में प्रति- कर उसपर अहिंसा को विकसित करता है और हिंसा से शोध, प्राशका, पूजा, प्रतिष्ठा प्रादि कारण नगण्य दूर होता हैं, वह कुशल है। के बराबर है। अातंक द्रष्टा-अर्थात् हिंसा जीवन के लिए पीड़ाहिसा जीवन की एक जटिल गाठ है । जिसको जनक है, ऐसा जो मानता जानता है, वह हिंसा में प्रहित सुलझाना बहुत कठिन है। हिसा व्यामोह है। हिंसा-रत देखता है और उसे न करने का संकल्प करता है। व्यक्ति निर्णय की शक्ति नहीं रखता। हिसा स्वयं के लिए जब हिंसा के मनोभाव ही नहीं जागेगे तो निःशस्त्रीजीते जी मृत्यु है और भयकर नरक है हिंसक हिंसा के कारण और हिंसा के स्वरूप की इतनी स्पष्टता के बाद करण का प्रश्न स्वतः समाहित है। जिस निशस्त्रीकरण के लिए भाज विदेशों में गोष्ठियां बुलाई जाती हैं, वह पहिंसक अहिंसा के कारण और अहिंसा के स्वरूप की व्याख्या आवश्यक नही । यह तो स्वतः फलित है-जो जैन दर्शन का सहज फलित रूप है। जो प्रात्म-हित, देश हिंसा के कारण नहीं है, वे अहिंसा के है। जो हिंसक हित समाजहित मादि सभी दृष्टियों से प्रत्युत्तम है। और जिसकी समुचित प्रकृतियां भी जैन-दर्शन ने ससार को वृत्तियों से या हिंसक के लिए बताए गए विशेषणों रुग्ण, दी है। प्रमादी, विषयार्थी आदि से प्रतीत है, वह महिंसक है। १. प्राचाराग, अध्याय १, उह शक २, सत्र १ ३. वही,०१, उ०४, सूत्र १ २. वही, अ० १, सूत्र ४ अभय विदित्ता तं जे णो करए। एस खलु गन्थे, एस खलु मोहे. एस खलु मारे, एस ४. वही, उ० ७, सूत्र १ खलु नाइए प्रायकदंसी अहियंति नच्चा । ठगनी माया सुन ठगनी माया, ते सब जग ठग साया। टुक विश्वास किया जिन तेरा, सो मूरख पछिताया ॥१॥ पापा तनक दिखाय बीज ज्यों, मूढमती ललचाया। करि भव अंष धर्म हर लीनों, अन्त नरक पहुंचाया ॥२॥ केते कंथ किये ते कुलटा, तो भी मन न अघाया। किस ही सौ नहि प्रीति निबाही, वह तजि और लुभाया ॥३॥ भूषर छलत फिरे यह सब को, भाँद कर जग पाया। जो इस ठगनी का ठगि बैठे, मैं तिसको सिर नाया ॥४॥ -कविवर भूपर दास Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के विशेषांक पर लोकमत मुनि कान्तिसागर जी अपने पत्र मे उदयपुर से लिखते हैं कि-बाबू छोटेलाल जी 'स्मृति' अंक यथासमय मिला। मीमित साधनों के आधार पर भी अनेकान्त का प्रस्तुत ग्रंक सुन्दर सामग्री से परिपूर्ण है। इसके वैयक्तिक लेखों के अतिरिक्त भी शोध-विषयक तथ्यपूर्ण संकेतात्मक लेख पठनीय हैं। पं०बंशीधरजी व्याकरणाचार्य, बीनाभनेकान्त का छोटेलाल जैन 'स्मृति अंक' यथासमय प्राप्त हुमा। पढ़कर मालूम हुआ कि इसकी तैयारी में जो प्रयत्न किया गया है वह सम्मानीय स्व० बाबू छोटेलाल जी की भावना और प्रवृत्तियो के अनुकूल किया गया है। अब प्रावश्यकता इस बात की है कि ऐसे प्रयत्नो को स्थायित्व दिया जाय, जिससे उनकी प्रवत्तियों का सम्बर्द्धन हो सके। वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जंन, कलकत्ता] १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट, १५०) , कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड संस, कलकत्ता १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५००) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा. बा. हरखचन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडया), कलकत्ता १०१) , मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० सि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं. २ मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज दिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी १०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीधर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्ड्या झूमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म०प्र०) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. प्रार० सी० जैन, कलकत्ता १००) , बद्रीप्रसाद जी मास्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरंगलाल जी चन्द्र कुमार जी, कलकत्ता १००), जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R.N. 10591/62 ___सभी ग्रन्य पौने मूल्य में (१) पुरातन-जनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थों की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यों की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-चाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा. कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोष-खोज के विद्वानो के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द। ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। ... २) (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । १) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द। ... ॥) (७) श्रीपुरपाश्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित । ) शासनचतुस्चिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वीं शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेपणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। ... ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा० १ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मंगलाचरण सहित अपूर्व सग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो की और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना से अलकृत, सजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित मूल्य ४) (१२) प्रनित्यभावना-प्रा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा पास्या से पुक्त । (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ B), (५) समन्तभद्र विचार-दीपिका ॥), (६) महावीर पूजा (१६) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१७) अध्यात्म रहस्य-पं पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोंकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण संग्रह । ५५ ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक ग्रंथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स.५० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२) (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ सख्या ७४० सजिन्द (वीर शासन-संघ प्रकाशन ५) (२०) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणवराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे, सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बड़े साइज के १.०० से भी अधिक पृष्ठो में। पुष्ट कागज और कपड़ की पक्की जिल्द । ... २०) (२१) Reality मा. पूज्यपाद की सर्वार्थसिद्धि का अग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू०६) प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, बीरसेवा मन्दिर के लिए, पवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली मुद्रित। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मासिक अक्टूबर १९६६ যাকান *****kkkkkkkkkkkkkkk* kkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk***** *XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX माध्यात्मिक सन्त पू० मुनिश्री विद्यानन्द जो इस वर्ष मापने समन्तभद्राश्रम दरियागंज, दिल्ली में चातुर्मास किया है। मापके प्रवचन मानव समाज के लिए बड़े प्रभावशाली होते हैं। XXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXXX* समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय | सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ साहित्य-तपस्वी सिद्धान्ताचार्य १ मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी की ६०वीं जन्म-जयन्ती का उत्सव २६२ विषय-सूची क्रमांक १. ऋषभ-स्तोत्रम्-मुनि पयनन्दि २. धुवेला संग्रहालय के जैन मूर्ति लेखबालचन्द जैन एम. ए. २४४ ३. तिरूकुरल (तमिल वेद) 'एक जैन रचना एटा में २३ दिसम्बर १९६६ को दिन के २ बजे से -मुनि श्री नगराज जी डा. ज्योतिप्रसाद जी जैन एम. ए. एल. एल. बी; पी४. जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-डा. एच.डी लखनऊ की अध्यक्षता मे मगया जायगा। वासुदेव शरण अग्रवाल-डा. कस्तूरचन्द इस शुभ अवसर पर मुरूमार श्री के सम्बन्ध मे जो कासलीवाल २५२ चार निबन्ध पुरस्कृत हुए है वे उन्हें भेट किये जायेंगे, ५. दिल्ली शासकों के समय पर नया प्रकाश पागत श्रद्धाञ्जलियां पढी जायेंगी, संस्मरण सन्देश सुनाये हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री २६० जायेंगे, विद्वानों के भाषण होगे और शुभ कामनाये ६. निर्वाण काण्ड की निम्न गाथा पर विचार व्यक्त की जाएंगी। जो सज्जन मुख्तार थी और उनके -पं. दोपचन्द पाण्डया २६१ साहित्य से प्रेम रखते हैं प्राशा है वे इस मंगल मिलन में ७. उपनिषदों पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव किमी न किसी रूप में शामिल होने की कृपा करेगे। -मुनि श्री नथमल कृपाकांक्षी ८. षट् खण्डागम और शेष १८ अनुयोग द्वार डाक्टर श्रीचन्द्र जैन 'संगल' बालचन्द सिद्धान्त शास्त्री जी टी. रोड एटा (उ.प्र.) ६. समय और साधना-साध्वी श्री राजीमतिजी २७० १०. श्रमण सस्कृति के उद्भावक ऋषभदेव -परमानन्द शास्त्री २७३ अनेकान्त के ग्राहकों से . ११. अग्रवालों का जैन सस्कृति में योगदान -परमानन्द शास्त्री २७६ अनेकान्त के प्रेमी पाठको से निवेदन है कि अनेकान्त १२. शान्तिनाथ फागु-कुन्दनलाल जैन २८२ | के कुछ ग्राहको ने १९ वर्ष का वार्षिक मूल्य अभी तक भी १३. एक लाख रुपये का साहित्यिक पुरस्कार नही भेजा है उनसे पुन. प्रेरणा की जाती है कि वे अपना -कवि जी शकर कुरूप को २०७| वार्षिक शुल्क ६) रुपया मनीआर्डर से शीघ्र भेज कर अनु१४ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री २८६ | गृहीत करे । अन्यथा उन्हे अगला प्रकवी० पी० से भेजा सम्पादक-मण्डल जावेगा, जिमसे ७५ पैसे अधिक देने होंगे। नये बनने वालो डा०मा० ने उपाध्ये ग्राहको को ४) का छोटेलाल जैन स्मृति अंक भी उसी ६) डा०प्रेमसागर जैन रुपये में ग्राहक बनने पर मिलेगा, उसका अलग चार्ज श्री यशपाल जैन नही देना पड़ेगा। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीरसेवा मन्दिर, २१ दरियागज दिल्ली भनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पावक मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया व्यवस्थापक अनेकान्त एक किरण का मूल्य १ रुपया २५५० २६५। २७६।प्रनकान्तमा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोम् महम् अनकान्त परमागमस्य बीजं निषिद्धजात्यन्धसिन्धुरविषानम् । सकलनयविलसितानां विरोधमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६३, वि० स० २०२३ सन् १९६६ ऋषभ-स्तोत्रम् कम्मकलंकचउक्केरण? रिणम्मलसमाहिमूईए । तह पारण-वप्परणे च्चिय लोयालोयं पडिप्फलियं ॥१६॥ प्रावरणाईरिणतए समूलमुम्भूलियाइ दळूणं । कम्मचउक्केण मुयं व वाह भीएण सेसेण ॥२॥ पाणामणिरिणम्माणे देव ठियो सहसि समवसरणम्मि । उरि व संरिणविट्ठो जियारण जोईण सव्वाणं ॥२१॥ -मुनि पमनन्दि अर्थ-हे भगवन् ! निर्मल ध्यानरूम सम्पदा से चार घातिया कर्मरूप कलक के नष्ट हो जाने पर प्रगट हुए आपके ज्ञान (केवल ज्ञान) रूप दर्पण मे ही लोक और प्रलोक प्रतिबिम्बित होने लगे थे ॥१६. हे नाथ ! उस समय ज्ञानावरणादि चार घातिया कर्मों को समूल नष्ट हुए देख कर शेष (वेदनीय, प्रायु, नाम और गोत्र) चार प्रघातिया कर्म भय से ही मानो मरे हुए के समान (मनुभाग से क्षीण) हो गए थे ॥२०॥ हे देव ! विविध प्रकार की मणियों से निर्मित समवसरण मे स्थित प्राप जीते गये सब योगियो के ऊपर बैठे हुए के समान सुशोभित होते हैं। विशेषार्थ-भगवान् जिनेन्द्र समवसरण सभा मे गन्धकुटी के भीतर स्वभाव से ही सर्वोपरि विराजमान रहते है। इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उन्होंने चकि अपनी प्राभ्यान्तर व बाह्य लक्ष्मी के द्वारा सब ही योगीजनों को जीत लिया था, इसी लिए वे मानो उन सब योगियो के ऊपर स्थित थे ॥२१॥ Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धुबेला संग्रहालय के जैन मूर्ति-लेख बालचन्द्र जैन एम. ए. मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले मे नौगांव से ५ मील घेष्ठिवीचीतनूजा र प्रबुद्धा बि (वि) नयान्विता ॥ की दूरी पर स्थित राज्य सग्रहालय धुबेला में जैन तीर्थकरों [+] लष्म (म) णाद्यास्तया जाताः पुत्राः गुण की अनेक महत्वपूर्ण पाषाण प्रतिमाए सग्रहीत है। उनमें [गणान्विता.:] से पांच प्रतिमानों के पादपीठो पर उनकी प्रतिष्ठापना ३. ....."ढ्या जिनचरणाराधनोद्यता ॥ [४] सम्बन्धी लेख उत्कीर्ण है । ये सभी प्रतिमाएं सग्रहालय से कारितश्च जगन्नाथ [नेमि] नाथो भवातक. । त्रै एक मील दूर बसे मऊ नामक ग्राम से सग्रह की गई हैं। [लोक्यश] रणं देवो जगन्मगलकारकः ॥ [+] मतिलेख क्रमांक १ मम्वतु (न) ११६९ वैशाख मुदि २ रवी रो [हिण्याम+] यह लेख बाईसवे तीर्थकर नेमिनाथ की काले पाषाण लेख क्रमांक २ की प्रतिमा (संग्रहालय क्रमाक ७) के पाद पीठ पर दूमरा लेख मुनि मुव्रतनाप की काले पाषाण की उत्कीर्ण है। प्रतिमा मस्तक विहीन है तथा चार टुकड़ो पद्मासन स्थित प्रतिमा (२४४५६ मे० मी०, सग्रहालय मे खण्डित है। लेख की भाषा मस्कृत और लिपि नागरी क्रमाक ४२) के पादपीठ पर उत्कीर्ण है। प्रतिमा का है। अन्त मे तिथि का उल्लेख करने वाले भाग को छोड़ ऊपरी भाग खडित है। लेख मस्कृत भाषा और नागरी कर बाकी पूरा लेख छन्दोबद्ध है। जिसमें कुल मिलाकर लिपि में है तथा तिथि का उल्लेख करने वाले प्रश को पाच छन्द है । लेख में र के बाद पाने वाले चार व्यञ्ज- छोडकर बाकी पूरा लेख छन्दोबद्ध है। उपमे तीन छन्द नाक्षर का द्वित्व (पंक्ति १ और २), तथा श और के है। इस लेख का उद्देश्य है गोलापूर्व कुन में उत्पन्न स्थान पर स् का प्रयोग किया गया है। लेख का उद्देश्य श्रीपाल के पौत्र और जोहक के पुत्र सुल्हण द्वारा सवत् है गोलापूर्व कूल के वाले के पोत्र और देवकर (या देव- ११९९ में वैशाख सुदि द्वितीया, रविवार को मुनिसुव्रतकवि) के पुत्र मल्हण के द्वारा (विक्रम) संवत् ११९९ में नाथ की प्रतिमा को प्रतिष्ठा कराये जाने का उल्लेख वैसाख सुदि द्वितीया रविवार को जगत् के नाथ नेमिनाप करना । सुल्हण की माता रुक्मिणी और पत्नी का नाम की प्रतिमा की स्थापना किये जाने का उल्लेख करना। श्री था। मूल लेख इस प्रकार हैमल्हण की माता का नाम पद्मावती और लहुरे भाई का १. गोलापूर्वकुले जात. साधुश्रीपालसज्ञक । तत्सुनाम बल्हण था । सेठ वीवी मल्हण के ससुर थे। मल्हण नोजनि जीटर ममरागण तोजनि जीव्हकः समग्रगुणभूषित ॥ [ +] के तीन बेटे थे जिसमें लक्ष्मण जेठा था। इस लेख का। २. रुक्मिण्या जनितस्तेन सत्पुत्र: सुल्हणाभिधः । पूरा पाठ निम्न प्रकार है थीसज्ञिका प्रिया तस्य समग्रगुणधारिणी ॥ [२||+] १. गोल्लापूर्वकुले जातः साधुर्वा [ले] [गुणा+] मुनिसुव्रतनाथस्य विवं (बिंब) त्रैलोक्यस्वितः । तस्य देवकरी पुत्रः पद्मावतीप्रियाप्रियः।। [१॥+] ३. पूजितः कारित सुल्हणेनेदमात्मश्रियोमिवृद्धये ॥ तयोर्जातो सुतौ सि (शि) [३i+] सम्वत् ११ [१६] वैशाख सुदि २ रवी। २. स्तौ (ष्टी) सी (शी) लव्रतविभूषितो। धर्मा मतिलेख क्रमांक ३ चाररती नित्यं ख्याती मल्हणजल्ह[णो] ॥ [२॥+] यह लेख शान्तिनाथ की काले पापाण की खड्गासन मल्हणस्य व [धूरासीत्स] त्यसी (श) ला पतिव्रता। प्रतिमा (१६०४५६ से. मी०, संग्रहालय क्रमांक २४) .. . Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुर्वला सग्रहालय के बन मूर्ति-लेख २०५ के पादपीठ पर उत्कीर्ण है। लेख की भाषा संस्कृत है । लेख क्रमांक लेख का माधा भाग पद्य में और माधा भाग गद्य में है। चौथा लेख आदिनाथ की काले पाषाण की पद्मासन पूर्व भाग में केवल दो छन्द हैं। लेख की लिपि नागरी स्थित प्रतिमा (५१४४७ से० मी०, संग्रहालय क्रमांक है। विशेषता यह है कि तीन स्थानों पर श् के बदले स् ७) के पादपीठ पर उत्कीर्ण है। पहले के लेखों के समान का प्रयोग हुमा है और र के बाद पाने वाले व्यञ्जन को इस लेख की भाषा तथा लिपि क्रमश. संस्कृत भौर नागरी द्वित्व किया गया है। प्रथम श्लोक में बताया गया है कि है। पूरा लेख गद्य में है। लेख से विदित होता है कि गोलापूर्वकुल में स्वयंभू हुमा जिसके स्वामी और देव जाहुल का बेटा माल्हण इस प्रतिमा का प्रतिष्ठाता था। स्वामी नामक दो बेटे थे। दूसरे श्लोक में देवस्वामी के उसका गोत्र कोंचे जान पड़ता है लेख की दूसरी पक्ति शुभचन्द्र और उदयचन्द्र नामक दो बेटो का उल्लेख है और में रूपा नामक स्त्री का उल्लेख है जो संभवत: पाहण कहा गया है कि देवस्वामी और उसके बेटों ने शान्तिनाथ की पत्नी थी। लेख वि० सवत् १२०३ में लिखा गया की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। लेख की तीसरी पक्ति मे था । मूल लेख इस प्रकार हैदुम्बर अन्वय के जिनचन्द्र के पौत्र और हरिश्चन्द्र के पुत्र १. सिद्ध संवतु (त्) १२०३ कोंचे जाहुल तस्य सुत लक्ष्मीषर द्वारा प्रतिमा की सदा पूजा किये जाने का काम कोंचे माल्हण नित्य प्रणमति [it] उल्लेख है। लेख के अन्त मे मवनवमदेव के राज्यकाल का तथा संवत् १२०३ फाल्गुन सुदि नवमी सोमवार का २. रूपानी (नि)त्य प्रणमती (ति) [1] उल्लेख है। यह मदनवा चंदेलवंशी राजा था। लेख मतिलेख क्रमांक ५ का पाठ नीचे दिया जा रहा है। यह लेख महत्वपूर्ण है क्योंकि इस लेख में परवाड़ १. सिद्ध गोलापून्विये साधुः स्वयंभूधर्मवत्सल । कुल का उल्लेख हा जबकि उपयुक्त अन्य लेख गोलापूर्व तत्सुतौ स्वामिनामा च देवस्वामिगृणान्वितः ॥ [१] कुल से सबंधित है। प्रतिमा का पादपीठ खण्डित हो देवस्वामि जाने से लेख अपूर्ण है। तीर्थकर के चिन्ह युक्त भाग के २. सुतौ श्रेष्ठो सु (शु)मचद्रोदयचद्रक. (को)। भी खण्डित हो जाने से यह पता नहीं लगता कि प्रतिमा कारित च जगन्नाथं शान्तिनाथो जिनोतम ॥ ]RI+] किन तीर्थकर की है। बचा हा लेख नीचे इस प्रकार धम्मसे (शे) पि १४ । ३. तथा दुम्बरान्वये सावुजिनचंद्रतत्पुत्रहरिम्चन्द्र] १. सिद्ध परवाकूले जात. साधु श्री ती...'' तत्सुतलक्ष्मीधर श्री सा (शा) न्तिनाथ प्रणमति सरा. इस प्रकार धुबेला सग्रहालय के ये मूर्तिलेख सिद्ध (दा)। करते हैं कि ईस्वी सन् की १२वीं शती में बुन्देलखण्ड ४. लक्ष्मीधरस्य धर्म संधिज श्रीमन्मदनवर्मदेव- और विशेषकर छतरपुर जिले मे जैनो की गोलापूर्व पौर राज्ये सवत् १२०३ फा० सुदि सोमे। परवाड़ जातिया विद्यमान थी। देखो, जिस पादमी ने अपने घर में ढेर को ढेर दौलत जमा कर रखी है, मगर उसे उपयोग में नहीं लाता उसमें और मुर्दे में कोई फर्क नहीं है क्योंकि वह उससे कोई लाभ नहीं उठाता है। X X उस धनवान मनुष्य की मुसीबत कि जिसने दान देकर अपने बजाने को खाली कर डाला है, और कुछ नहीं केवल जल बरसाने वाले बादलों के खाली हो जाने के समान है-यह स्थिति अधिक समय तक रहेगी। मिलवेद Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुकुरल (तमिलवेद): एक जैन-रचना मुनिश्री नगराजजो चक्रवर्ती राजगोपालाचार्य ने कहा-"यदि कोई चाहे काव्य की भाषा तीखी और हृदयस्पर्शी है। धर्म की कि भारत के समस्त साहित्य का मुझे पूर्ण ज्ञान हो जाये उपादेयता के विषय में कहा गया है-"मुझ से मत पूछो तो तिरुकूरल को बिना पढ़े उसका अभीष्ट सिद्ध नही हो कि धर्म से क्या लाभ है ? बस एक वार पालकी उठाने सकता।" इस महत्वपूर्ण अन्य को शैव, वैष्णव, बौद्ध ग्रादि वाले कहारों की पोर देख लो और फिर उस आदमी को सभी अपना धर्मग्रन्थ मानने को समुत्सुक हैं। लगभग दो देवो जो उममें सवार है।" सहस्र वर्ष पूर्व लिखा गया वह अन्य तमिलवेद अर्थात् क्रोध के विषय में कहा गया है-"जो व्यक्ति क्रोध तिम्कुरल है। तमिल जाति का यह सर्वमान्य और मारि को दिल मे जमाकर रखता है, जैसे वह कोई बहुमूल्य ग्रन्थ है। इमलिए उसका नाम 'तमिलवेद' पडा। पदार्थ हो, वह उस मनुष्य के समान है जो कठोर जमीन पर हाथ दे मारता है। उस आदमी को चोट पाये बिना प्रचलित धारणा के अनुमार इस ग्रन्थ के रचयिता नही रह सकती।"२ तिग्वल्लुवर अर्थात् सन्त वल्लुवर हैं। यह एक काव्यात्मक मायावी के विषय में कहा गया है-"तीर सीधा नीति-ग्रन्थ है। बहन बड़ा नहीं है। यह ग्रन्य कुरन नामक होता है और तम्बूरे मे कुछ टेढ़ापन होता है। इसलिए छन्द में लिखा गया है। कुरल छन्द एक अनुष्टुप नोक आदमियो को उनकी मूरत से नहीं, उनके कामो से मे भी छोटा होता है। पहचानो३।" भावार्थ-तीर सीधा होकर भी कलेजे में हम ग्रन्थ में धर्म, अर्थ और काम-पे तीन मूलभून लगता है, नम्बूरा टेढ़ा होकर भी अपनी मधुर ध्वनि से प्राधार माने गये हैं। विभिन्न विषयपरक १३३ अध्याय हमे माहादित करता है। अतः मायावी लोगों की ऊपरी है और एक एक अध्याय में दश-दश कुरल छन्द हैं । कुल सरलता में न फंसो। मिलाकर १३३० छन्द होने हैं, जो पक्तियों में २६६० हैं। धैर्य के विषय में कहा गया है-"विपत्ति से लोहा रचना-सौष्ठव तमिल के विद्वानों के द्वारा निरूपम माना लेने में मुस्कान से बढकर कोई साथी नहीं हो सकता४।" गया है। हिन्दी में गद्य अनुवाद उपलब्ध है, पर पद्य का वाणी के विषय में कहा गया है-"तुम ऐसी वक्तृता गद्यात्मक या पद्यात्मक अनुवाद एक भावबोध मे अधिक उसे चुप न कर मके५।" कछ नहीं बताया करता । कालीदाम ने संस्कृत शब्दावली सामान्य उपदेशो को भी निराले ढंग से कहने में कवि में जिस भाव को अपने कलात्मक कवित्व में बाँधा है और बहुत सफल रहा है। जो मानन्द उससे संस्कृत काव्यरसिक उठा मकना है, वह गरिमा और अमिषा कलात्मकता उसके हिन्दी अनुवाद में थोडे ही पा सकती यह ग्रन्थ इतना ख्यातिलब्ध कैसे हमा और इसे इतनी है ! वह अनुवाद भी यदि संस्कृत पद्य का हिन्दी गद्य में हो तो काव्यात्मक मानन्द का लेश भी कहाँ बच पायेगा? १. धर्म प्रकरण-७ तिरुकूरल के काव्यात्मक प्रानन्द के विषय में तमिल नहीं २. क्रोध प्रकरण-७ जानने वाले हम अननुभूत और अनिभिज्ञ ही रह सकते हैं; ३. माया प्रकरण-१ तथापि कवि की उक्ति-चारुता प्रादि कुछ विशेषतानों को ४. विपत्ति में धैर्य प्रकरण-१ हम तथारूप अनुवाद से भी पकड़ सकते हैं। ५. वाक पटुता प्रकरण-५ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ तिस्कुरल (तमिलवेर) : एकन रचना मान्यता कैसे मिली, इस विषय में भी एक सरस किंव- था। जातीयता की दृष्टि से दक्षिण को अछूत जानि के दन्ती तमिल लोगों में प्रचलित है। कहा जाता है, उन माने गये हैं। उनकी पत्नी का नाम वासुकी था। वह भी दिनों दक्षिणमें मदुरा नामक एक नगर था । वह नगर अपने एक मादर्श और अर्चनीय महिला मानी गई है। पतिव्रत विद्याबल से प्रसिद्ध था। वहा तमिल भाषा के विद्वानो धर्म को निभाने मे वह निराली थी। अपने पति के प्रति की एक बडी सभा थी। उसमे एक ऊंचा प्रासन रहता। मन, वचन और कर्म मे वह कितनी समर्पित थी और उसके विषय में यह धारणा थी कि जब मभा लगती है, कितनी श्रद्धाशील थी; इस मम्बन्ध मे बहन सारी नब अदृश्य रूप मे यहा सरस्वती पाकर बैठती है। अन्य घटनायें तमिल ममाज में प्रचलित हैं। ४६ प्रासनों पर उस सभा के धुरन्धर विद्वान बैठते थे। कहा जाता है, तिरुवल्लुवर ने एक बार उसकी श्रद्धा दूर-दूर तक इस सभा का यश फैला था। विविध ग्रथ- का मकन करने के लिए कहा-पाज लोहे की कीलो रचयिता वहा पाते और अपने ग्रंथ को उस सभा के समक्ष और लोहे के टुकडो का शाक बनायो। वासुकी ने बिना ग्ग्वने । मभासद उस ग्रथ का वाचन करते और उस पर किसी नर्क और आशंका के चल्हे पर तपेली चढा दी और अपना भन अभिव्यक्त करने। वह लोहे के टुकडो और कीलो को उबालने लगी। तिरुवल्लुवर एक सन्त प्रकृति के पुरुष थे। वे अपने एक बार मूर्य के प्रचण्ड प्रकाश मे भी किसी खोई ग्रंथ का ऐसा अभिस्थापन नहीं चाहते थे, पर मित्री के हुई वस्तु को खोजने के लिए तिरुवल्लवर ने वामकी से दबाव मे अपना ग्रथ लेकर उन्हें मदुरा की उस विद्वत्-सभा चिराग मगाया। बामुकी ने बिना नन-नच के चिराग मे उपस्थित होना पड़ा। उन्होने अपना ग्रंथ सभाध्यक्ष के जलाया और वह ग्योई हई वस्तु के खोजने में पति की हाथो मे दिया। मभाध्यक्ष ने अन्य सभासदो को वह ग्रंथ मदद करने लगी। दिखाते हुए तिरुवल्लुवर मे पूछा-आपका ग्रथ किम एक दिन वामुकी घर के कुए से पानी निकाल रही विषय पर है ? वल्लुवर ने विनम्र भाव से कहा-मानव थी। अकस्मात् पनि का प्राह्वान कानो मे पड़ा। उसने जीवन पर । यह पूछा जाने पर कि मानव-जीवन के किम अपने प्राधे खीचे वर्तन को ज्यो-का-त्यो छोड़ा और पति पहलू पर, वल्लुवर ने कहा-सभी पहलुयो पर। के पास चली गई। कार्य-निवृत्त होकर जब वह वापम इस बात पर मभी सभासद हसे । छोटा-मा प्रथ और आई तो देवा, पानी का वनंन ज्यो-का-न्यों कुए मे प्राधे मानव-जीवन के सभी पहलुमो पर विवेचन ! लटक रहा है। प्रधान ने पुस्तक का वाचन प्रारम्भ किया। दो-चार सन्त परुष पद्य पढे कि वल्लुवर की भाव-व्यजना ने सभी को आकृष्ट कृष्ट तिरुवल्लुवर एक सन्त पुरुष थे। उनकी माधना किया। क्रमश. पूरा ग्रथ पढ़ा गया। सभी सभामद मानन्द परिपूर्ण थी। उनके जीवन की एक ही घटना उनकी विभोर हो उठे। एक स्वर से मब ने कहा-मचमुच हा शान्त-वत्ति का पूरा परिचय दे देती है। एलेल सिगल यह तो तमिलवेद बन गया है। नामक एक धनाढ्य व्यक्ति वल्लुवर के ही नगर में रहता इस प्रकार निरुवल्लुवर महान स्यानि अजित कर था। वह अपने समुद्री व्यवसाय से प्रसिद्ध था। उसके एक घर लौटे। तिरुकूरल ग्रथ तब से तमिलवेद कहा जाने लड़का था। वह अधिक लाड-प्यार मे ढीठ-सा हो गया लगा। तिरुकूरल का अभिप्राय होता है-कुरल छन्दा म था। बडे-बूढों के माथ भी शगरत कर लेना उसके प्रतिलिखा गया पवित्र ग्रथ । तिरुवल्लुवर का अभिप्राय है दिन का कार्य था। एक दिन वह अपने माथियो की टोली पवित्र, वल्लुवर अर्थात् सन्त वल्लुवर । के माथ उम मुहल्ले से गुजरा, जहा वल्लुवर अपना नुनाई बल्लुवर का गृह-जीवन का काम किया करते थे। उस समय वल्लुवर शान्त भाव मे वल्लवर कबीर की तरह जलाहे थे। कपड़ा बुनना किमी चिन्तन में बैठे थे और उनके मामने बेचने की दो और उममे अजीविका चलाना उनका परम्परागत कार्य माडियाँ रम्बी थीं। शगरती युवक के मित्रो ने बनानवर Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनेकान्त को एक सन्त बताते हुए उनकी प्रशंसा की। शरारती इस समग्र विषय पर इतिहास भी कुछ करवट लेने लगा युवक ने कहा-"सन्तपन स्वयं एक ढोंग है । एक पादमी है। बल्लुवर सन्त-श्रेणी के व्यक्ति और विलक्षण मेवावी की अपेक्षा दूसरे प्रादमी मे ऐसी कौन-सी विशेषता होती थे। इसमे कोई सन्देह नहीं, पर उन्हे वह जान कहां से है, जिससे वह सन्त बन जाता है।" मित्रों ने कहा- मिला: यह विषय सर्वथा प्रस्पष्ट था। अब बहुत सार "शान्ति । इसी विशेषता से सन्त कहलाता है।" माघारो से प्रमाणित हो रहा है कि बल्लुवर जैन प्राचार्य शरारती युवक यह कहते हुए कि मैं देखता हूँ इसकी कुन्द-कुन्द के शिष्य थे और 'कुरल' उनकी रचना है। शान्ति, वल्लुवर के सामने ही जा धमका। एक साड़ी वल्लुवर 'कुरल' के रचयिता नही, प्रचारक मात्र थे । उठा ली और बोला-इसका क्या मूल्य है ? यह एक सुविदित विषय है : कि जैन धर्म किसी एक वल्लुवर-दो रुपये। परिस्थिति विशेष में उत्तर भारत से दक्षिण भारत में युवक ने साड़ी के दो टुकड़े कर दिये और एक टुकड़े साधु-चर्या का निर्वाह कठिन होने लगा था। उस समय के लिए पूछा-इसका क्या मूल्य है ? भगवान महावीर के सप्तम पट्टधर श्रुत केवली श्री भद्रबाहु वल्लुवर ने शान्त भाव से कहा-एक रुपया। युवक स्वामी साधु-साध्वियों और श्रावक-श्राविकाओं के एक चार, पाठ, सोलह प्रादि टुकड़े क्रमश करता गया और महान संघ के साथ दक्षिण भी पाये । सम्राट् चन्द्रगुप्त मन्तिम का दाम पूछता ही गया। सारी साड़ी मटियामेट भी दीक्षित होकर उनके साथ माये थे। वह संघ-यात्रा हो गई। वल्लुवर उसी शान्तभाव मुद्रा से यह सब देखते कितनी बड़ी थी, इसका अनुमान इस बात से लग सकता रहे । अन्त मे युवक ने कहा मेरे यह साड़ी अब किसी है कि १२००० साधु-श्रावको का परिवार तो केवल काम की नहीं है। मैं नहीं खरीदता। वल्लुवर ने भी प्रवजित सम्राट चन्द्रगुप्त का था। शान्तभाव से कहा-मच है बेटे ! अब यह साड़ी किसी मर राज्य में ऐसे अनेक शिलालेख प्राप्त हुए है, के किसी काम की नही रही है। शरारती युवक तिलमिला जिनसे भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का कन्नड़ प्रदेश में पाना सा गया। मन मे लज्जित हुप्रा। मित्रो के सामने हुई और दीर्घकाल तक जैन धर्म का प्रचार करते रहना , अपनी असफलता पर कुढने लगा। जेब से दो रुपये निकाले प्रमाणित होता है। और वल्लुवर के सामने रख दिये। वल्लुवर ने रुपयों को भद्रबाह के दक्षिण जाने वाले शिष्यों में प्रमुखतम वापस करते हुए कहा-बेटे ! अपना सौदा पटा ही नही तो रुपये किस बात के ? अब युवक के पास कहने को विशाखाचार्य थे। वे तमिल प्रदेश में गये। वहां के कुछ नहीं रह गया था। अपनी ढीठता पर उसका हृदय राजामों को जैन बनाया। जनता को जैन बनाया। सारे तमिल प्रदेश में जैन धर्म फैल गया और शताब्दियों तक रो पड़ा। वह सन्त के चरणों मे गिर पड़ा, यह कहते हुए वह वहा राज-धर्म के रूप में माना जाता रहा। तमिल कि मनुष्य-मनुष्य में इतना अन्तर हो सकता है, जितना मेरे में और वल्लुवर सन्त में, यह मैंने पहली बार साहित्य का श्रीगणेश भी जैन विद्वानों द्वारा हुपा। व्याकरण प्रादि विभिन्न विषयों पर उन्होंने गद्यात्मक व जाना है। पद्यात्मक प्रथ लिखे। कहा जाता है, इस घटना के पश्चात् वह शरारती युवक सदा के लिए भला हो गया। उसका पिता मोर १. विशेष विवरण के लिए देखें-ए. चक्रवर्ती द्वारा वह सदा के लिए वल्लुवर के भक्त हो गये और वे सम्पादित-Thirukkural की भूमिका। वल्लुवर का परामर्श लेकर ही प्रत्येक कार्य करने लगे। १. प्राचार्य श्री तुलसी अभिनन्दन ग्रंथ; चतुर्थ अध्याय, बैन-रचना के. एस. धरणेन्द्रिया, एम०ए०बी०टी० द्वारा 'कुरल' और 'वल्लुवर' के विषय में उक्त सारी विखित दक्षिण भारत में जैन धर्म शीर्षक लेख के धारणाएं तो जनश्रुति के अनुसार पल ही रही हैं, पर अब माधार पर। Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिरुकुरल (तमिलवेब): एक जन रचना २४९ ईसा की प्रथम शताब्दी में प्राचार्य श्री कुन्दकुन्द और कपिल मादि तीर्थको पर मेरा द्वेष नही है। जिसका मद्रास के निकट पोन्नूर की पहाडियों में रहते थे। वचन यथार्थ हो, उमी का वचन मेरे लिए ग्राह्य है।" वल्लुवर का प्राचार्य कुन्द-कुन्द से सम्पर्क हुमा । वे भाषा समन्वय मूलक है। यथार्थता मे महावीर का वचन श्री कुन्दकन्दाचार्य के महान् व्यक्तित्व के प्रति आकर्षित ही ग्राह्य है। हुए और कुन्द-कुन्दाचार्य ने उनको अपना शिष्य बना एक अन्य श्लोक मे जो जैन परम्पग में बहुत प्रमिड लिया। अपनी रचना 'कुरल' अपने शिष्य तिरुवल्लुवर है-ब्रह्मा, विष्णु, महेश को भी प्रणाम किया गया है पर को सौंपते हुए उन्होंने मादेश दिया-"देश मे भ्रमण करो शतं यह डाली है कि वे गग-द्वेष रहित हो। कहा गया और इस प्रथ के सार्वभौम नैतिक सिद्धान्तो का प्रचार हैकरो।" साथ-साथ उन्होंने अपने प्रिय शिष्य को चेतावनी ___भव-बीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपागता यस्य । भी दी, "देखो! अथ के रचयिता का नाम प्रकट मत ब्रह्मा व विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्म करना, क्योंकि यह प्रथ मानवता के उत्थान के लिए कथनमात्र के लिए प्रणाम सबको किया है, पर प्रणाम लिखा गया है। आत्म-प्रशंसा के लिए नही।" ठहरता केवल 'जिन' के लिए है। कुरल के प्रस्तुत प्रमाणो के अधिक विस्तार मे हम न भी जाये तो इन्लोकार्थ मे भी प्रादि ब्रह्मा की स्तुति की गई है। पुराण उम प्रथ का प्रादि पृष्ठ ही एक ऐसा निर्द्वन्द्व प्रमाण है जो परम्परा के अनुसार ब्रह्मा आदि पृम्प हों, क्योंकि उसीसे 'कुरल' को सर्वाशत जन रचना प्रमाणित कर देता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि चार वर्ण पैदा हुए है। अतः यह प्रथम प्रकरण ईश्वर-स्तुति का है। हमें देखना है कि म्नुनि उम आदि-ब्रह्म तक पहुंचनी चाहिए। यहा गगरचयिता का यह ईश्वर कैसा और कौन होता है ? मुख्यत: द्वेष रहित होने का अनुबन्ध लगाकर रचयिता ने वह ईश्वर की परिभाषा ही जैन धर्म को अन्य धर्मों मे पृथक् स्तुति आदि पुरुष श्री आदिनाथ प्रभ तक पहुचा दी है। वे रखती है। कुरल की ईश्वर-स्तुति में कहा गया है-धन्य ग्रादि-पुरुप भी हे और राग-द्वेष रहित भी। है वह पुरुष जो प्रादि पुरुप के पादारविन्द में रत रहता एक अन्य श्लोक मे रचयिता कहते हैं-"जो पुरुष है, जो कि न किमी से राग करता है और न किमी से हृदय-कमल के अधिवामी भगवान के चरणो की शरण द्वेष।" जैन सस्कृति के मर्मज महज ही समझ सकते हैं लेता है, मन्यु उम पर दौड़कर नही पाती।" यहा विष्णु कि इस म्नुतिवाक्य मे कविता का हार्द क्या रहा है ? की स्तुनि प्रतीत होती है। पर हृदय-कमल के अधिवासी यह तो स्पष्ट है ही कि रचयिता अपने ग्रथ को सर्वमान्य पुरुष भगवान् कहकर रचयिता ने मारा भाव जैनन्द की प्रार्थना से अलकृत करना चाहता है। ग्रंथ के नैनिक ओर मोड दिया है। सगुणता मे भगवान् निर्गुणता की उपदेशों से जैन-जैनेतर सभी लाभान्वित हो, यह इसका मोर चले गये। अभिप्रेत रहा है। इन कारणों से उसने मगलाचार मे अन्य अनेकों श्लोको मे र वयिता ने अपने अभिप्राय सार्वजनिकता बरती है। रचयिता का अभिप्राय इतने में का निर्वाह किया है। ईश्वर-म्नुनि-प्रकरण का प्रत्येक ही अभिव्यक्त किया जा सकता है कि जैन देवों की स्तुति श्लोक ही इस दृष्टिकोण मे बहत माननीय है। इस प्रकरण हो और वैदिक लोग उसे अपने देवों की स्तुति माने। परमार्थ नष्ट न हो और समन्वय सध जाये। अन्य जैन , १-" 'अ' शब्द इलोक का मूल स्थान है, ठीक इमी प्राचार्यों ने भी इस पद्धति का व्यवहार किया है। तरह आदि-ब्रह्म मब लोको का मूल स्रोत है।" पक्षपातो न मे वीरे, नषः कपिलाविषु । यहा आदि ब्रह्म शब्द मे आदिनाथ भगवान की मुक्तिमद वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रहः ॥ ओर सकेत जाता है। "महावीर आदि तीर्थकरो मे मेरा अनुराग नहीं है २-"यदि तुम मर्वज्ञ परमेश्वर के श्रीचरणो की १. ईश्वर-स्तुति-प्रकरण-४ पूजा नहीं करते हो तो तुम्हारी यह मारी Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० अनेकान्त विद्वत्ता किस काम को ?" इस लोक में अपने दशक में कही भी जैनत्व की सीमा का उल्लंघन परमेश्वर का स्वरूप सर्वज्ञ के रूप में स्पष्ट कर नहीं किया गया है। अपितु स्तुति को जैन और दिया है। नो का ईश्वर कर्ता-धर्ता नही, वैदिक दोनों परम्परागों से सम्मत बनाते हुए सर्वज्ञ ही है। भी रचयिता ने जैनत्व का संपोषण किया है। ६-"जो लोग उस परम जितेन्द्रीय पुरुष के इस प्रकार हम अन्य प्रकरणों की छानबीन मे भी जा दिखाये धर्म-मार्ग का अनुशरण करते है, वे सके तो सम्भवतः बहत सारी उक्तिया मिल जायेंगी जो दीर्घजीवी होगे ।" प्रस्तुत भावना मे भी नितान्त रूप से जैनत्व को अभिव्यक्त करने वाली ही है । जितेन्द्रिय शब्द से 'जिन' भगवान् की मोर अन्य विद्वानों के अंकन मेंसकेत किया गया है। तिरुकुरल' कृति की इस सहज अभिव्यक्ति को ७-"केवल वही लोग दु खो से बच सकते है जो भारतीय व पाश्चात्य के अन्य विद्वानों ने भी प्राका है। उस अद्वितीय पुरुष की श्रेणी में आते है।" कनक सभाई पिल्ले (Kanak Sabhai Pillai) एस. तीर्थकर भरत क्षेत्र में एक साथ दो नहीं होते; वियपूरी पिल्ले (S. Viyapuri Pillai) टी०वी०कल्याण इसलिए रचयिता ने उन्हें भी अद्वितीय पुरुष सुन्दर मुदालियर (T.V. Kalyan Sundara Mudaltar) कहा है, ऐसा लगता है। आदि अनेको जनेतर विद्वान है, जिन्होने स्पष्ट व्यक्त ८-"धन-वैभव और इन्द्रिय-सुख के ज्वार-संकुल किया है कि तिरुकुरल एक जैन-रचना है'। यूरोपीय समुद्र को वही पार कर सकते है, जो उन धर्म विद्वान् एलिस (Ellis) और ग्राउल (Graul) ने भी सिन्धु मुनीश्वर के चरणो मे लीन रहते है।" इसी मत की पुष्टि की है। यहा जनो के परमेष्ठी पचक पद की स्तुति तमिल विद्वान् कल्लदार (Kalladar) ने कुरल की की गई है। प्रशस्ति में लिखा है-"परम्परागत सभी मतवाद एक8-'जो मनुष्य अष्टगुण सयुक्त परमब्रह्म के चरणों दूसरे से विरोध रखते है। एक दर्शन कहता है, सत्य यह में सिर नहीं झुकाता, वह उस इन्द्रिय के समान है, तो दूसरा दर्शन कहता है, यह ठीक नहीं हैं, सत्य तो है, जिसमे अपने गुण को ग्रहण करने की शक्ति यह है । कुरल का दर्शन एकान्तवादिता के दोष से सर्वथा नहीं है।" जैन परम्परा मे मुक्त जीव सिद्ध मुक्त है२ ।" भगवान कहलाते है । वे केवलज्ञान, केवल 1. Thirukkural, Ed by Prof. A.Chakravarti, दर्शनादि पाठ गुणो से संयुक्त होते है। पूर्वोक्त Introduction, P.x. भावना में उनकी स्तुति का ही सकत 2 "Speaking about these traditional darshanas मिलता है। he (Kalladar) points out that they are १०-"जन्म-मरण के समुद्र को वही पार कर सकते conflicting with one another. However है, जो प्रभु के चरणो की शरण मे मा जाते one system says the ultimate reality is है। दूसरे लोग उसे तर ही नहीं सकते।" one, another system will contradict this प्रस्तुत भावना के प्रभु शब्द मे पच परमेष्ठी and says no. This mutual incompataरूप प्रभु की स्तुति की गई है, ऐसा स्वय bility of the six systems is pointed out लगता है। and the philosophy of Coural is praised to ५-"देखो, जो मनुष्य प्रभु के गुणों का उत्साहपूर्वक be free from this defect of onesideness." गान करते हैं, उन्हें अपने कर्मो का दुःखप्रद फल -Thirukkural, Ed. by Prof. A Chakraनही भोगना पड़ता।" इस प्रकार समग्र स्तुति- varti, Introduction. Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिजकुरुल (तमिलवेब) : एक जन रचना इस प्रसंग में यह भी एक महत्वपूर्ण प्रमाण हो सकता जैन विद्वान् जीवक चिन्तामणि ग्रंथ के टीकाकार है कि 'कयतरम्" (Kayatram) नामक तमिल निघण्टु नचिनार किनियर ने अपनी टीका में सर्वत्र तिरुकुरल के के देव प्रकरण मे जिनेश्वर के पर्यायवाची नामों में बहुत लेखक का नाम थीवर बतलाया है।४ सारे वही नाम दिये है जो कुरल की मंगल प्रशस्ति मे तमिल साहित्य में सामान्यत: पीवर शब्द का प्रयोग प्रयुक्त किये गये हैं। निघण्टुकार ने जो कि ब्राह्मण जैन श्रमण के अर्थ में किया जाता है। विद्वान हैं, कुरल के रचयिता को जैन समझ कर ही करल की एक प्राचीन पाण्डुलिपि के मुखपृष्ठ पर अवश्य ऐसा माना है। लिखा मिला है-"एलाचार्य द्वारा रचित तिरुकुरल५ । कुरल पर भनेको प्राचीन टीकाएं उपलब्ध होती है। इन सारे प्रमाणो को देखते हुए सन्देह नही रह जाना उनमे से अनेक टीकाए जैन विद्वानो द्वारा लिखी गई है। चाहिए कि कुरल के वास्तविक रचयिता भाचार्य इससे भी कुरल का जैन-रचना होना पुष्ट होता है। कुन्द कुन्द ही थे। ___सबसे महत्वपूर्ण माने जाने वाली टीका के रचयिता भ्रम का कारणधर्मार हैं। उनके विषय में भी धारणा है कि प्रसिद्ध यह एक कड़ा-सा प्रश्न चिन्ह बन जाता है कि जैन-बिद्वान तो थे पर धर्म से जैनी नही थे। प्राचार्य कुन्द-कुन्द (थीवर व एलाचार्य) ही इसके रचकुन्द-कन्द ही क्यो ? यिता थे तो यह इतना बड़ा भ्रम खडा ही कैसे हुमा कि कुरल को जैन रचना मान लेने के पश्चात् भी यह इसके रचयिता तिरुवल्लुवर थे? तमिल की जैन परम्परा जिज्ञासा तो रह ही जाती है कि उसके रचयिता प्राचार्य मे यह प्रचलित है कि एलाचार्य (प्राचार्य कुन्द-कुन्द) कून्द-कून्द ही क्यो? इस विषय में भी कुछ एक ऐति- एक महान साधक व गगामान्य प्राचार्य थे। अतः उनके हासिक माधार मिलते है । मामूलनार (Mamoolnar) लिए अपने प्रथ को प्रमाणित कराने की दृष्टि से मदुरा तमिल के विख्यात कवि है। उनका समय ईसा की प्रथम की सभा में जाना उचित नहीं था। इस स्थिति में उनके शताब्दी माना जाता है । उन्होंने कुरल की प्रशस्ति गाथा गृहस्थ शिष्य श्री तिरुवल्लुवर इस प्रथ को लेकर मदुरा मे कहा है-"कुरल के वास्तविक लखक थीवर है, किन्तु की सभा में गये और उन्होने ही विद्वानो के समक्ष इसे अज्ञानी लोग वल्लुवर को इसका लेखक मानते है, पर प्रस्तत किया प्रस्तुत किया। इसी घटना-प्रसग से तिरुवल्लुवर इसके बुद्धिमान लोगों को प्रज्ञानियों की यह मूर्खता भरी बाते रचयिता के रूप में प्रसिद्ध हो गये।। दसरा स्वीकार तही करनी चाहिए।"२ प्रो० ए० चक्रवर्ती ने अपने द्वारा सम्पादित तिरुकुरल 4. Ibid, Introduction, P. X. मे भली-भांति प्रमाणित किया है, कि तमिल परम्परा मे 5. Ibid, Introduction, P. XI. प्राचार्य कुन्द-कून्द के ही 'बीवर' और 'एलाचार्य' ये दो 1. Thirukkural Ed. by Prof. Chaklavart!, नाम है। Introdvetion, P. xiil. "According to the Jana tradition. 1. Thirukkural Ed. by Prof. A. Chakraverti, Elacharya was a great Nirgrantha Preface, P. II Mahamuni, a great digamber ascetic, not 2. "The real auther of the work spacks of caring for wordly honours. His lay the four topics is Thevar. But ignorant disciplc was delegateed to introduce the people mentioned the name of Valluwar work to the scholars assembled in the as the author. But wise men will not Madura acadamy of the sangha. Hence accept this statement of ignorant fool." the introduction was by Valluwor, whow -Ibid, Preface. placed it before the scholars of the 3. Ibid, Intronuction, P xii. Madura Sangha for their approval. Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त भी था कि प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने यह ग्रन्थ वल्लुवर को रही है । अपेक्षा है, इस सम्बन्ध में अन्वेषण कार्य चाल प्रसारार्थ सौंपा था और वे इसका प्रचार करते थे। प्रतः रहे। यह ठीक है कि एतद् विषयक बहुत सारी शून्यताएँ सर्वसाधारण ने इन्हें ही इसका रचयिता माना। ऐसा तमिल की जैन परम्परा भर देती है, पर अपेक्षा है, उन भो सम्भव है कि प्राचार्य कुन्द-कुन्द इस ग्रन्थ को सर्वमान्य शून्यतामों को ऐतिहासिक प्रमाणों से और भर देने की। बनाये रखने के लिए अपना नाम इसके साथ जोड़ना नहीं प्रो० ए० चक्रवर्ती ने इस दिशा में बहुत प्रयत्न किया है। चाहते थे, जैसे कि उन्होंने अपने देव का नाम भी सीधे पर अपने प्रतिपादन मे कुछ एक सहारे उन्होंने ऐसे भी रूप में ग्रंथ के साथ नहीं जोड़ा। रचयिता का नाम गौण लिए हैं, जो शोध के क्षेत्र में बड़े लचीले ठहरते हैं । जैसे रहे तो प्रसार का नाम रचयिता के रूप में किसी भी ग्रंथ तिरुकुरल के धर्म, अर्थ, काम प्रादि आधारों की कुन्दके साथ सहज रूप में ही जुड़ जाता है। कुन्द के अन्य प्रथों में वर्णित चत्तारि मगलं के पाठ से पुष्टि करना । हमे जैनेतर जगत के सामने वे ही प्रमाण उपसंहार रखने चाहिए जो विषय पर सीधा प्रकाश डालते हों। ___ 'तिरुकुरल' काव्य माज दो सहस्र वर्षों के पश्चात् भी खीच-तान कर लाये गये प्रमाण विषय को बल न देकर एक नीति ग्रंथ के रूप मे समाजके लिए बहुत उपयोगी है। प्रत्युत निबंल बना देते हैं । अाग्रहहीन शोध ही लेखक की समग्र जैन समाज के लिए यह गौरव का विषय होना कसौटी है। शोध का सम्बन्ध सत्य से है, न कि सम्प्रदाय चाहिए कि एक जैन-रचना पंचम वेद के रूप में पूजी जा से । जैनसाहित्यके अनन्य अनुरागी-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के निधन के समाचार अग्रवाल साहब उच्चकोटि के लेखक थे। कलम के जब रेडियो पर सुने तो हृदय को गहरा प्राधात लगा वे धनी थे। पुरातत्व एवं कला के वे प्रारम्भ से ही प्रेमी और ऐसा अनुभव हुप्रा जैसे कोई घनिष्ठ परिजन से सदा थे। वे देश के सबसे अधिक समाहत विश्व विद्यालय के के लिए विछोह हो गया हो। वास्तव मे डा. अग्रवाल की चित्रणीय प्राचार्य थे और अपने ज्ञान को विद्यार्थियों मे मृत्यु का समाचार लेखक को ही नही किन्तु प्रत्येक मुक्त हस्त से वितरित करते रहते थे। वाराणसी माने से भारतीय संस्कृति एव कला प्रेमी के लिए दुखप्रद रहा पूर्व राष्ट्रीय सग्रालय मथुरा, लखनऊ एव देहली के सचाहोगा। उनसे अभी देश की संस्कृति के गूढ एवं अज्ञात लक थे। इस अवधि में डा० साहब ने भारतीय पुरातत्व तथ्यों पर प्रकाश डाले जाने की बहुत पाशाएं थीं। वे एव कला का गहरा अध्ययन किया और उनके गूढ तथ्यों वेद, उपनिषद् एवं भारतीय प्राचीनतम साहित्य के अधि- का पता लगाने मे सफलता प्राप्त की । वेद एवं उपनिषदों कारी विद्वान् माने गये थे। इधर १०-१२ वर्षों में उनके का अध्ययन उन्होंने जयपुर के प्रसिद्ध वेदशास्त्री स्वर्गीय जितने भी निबन्ध प्रकाशित हुए उन सब में उनके अगाध प. मोतीलाल जी शास्त्री के साथ बैठ कर किया। वे ज्ञान का दर्शन होता था। उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा अपने जीवन के अन्त तक प्राचार्य एवं विद्यार्थी दोनों ही भारतीय संस्कृति के ऐसे तथ्यों का उद्घाटन किया जो रहे और भारतीय साहित्य एवं सस्कृति की प्रत्येक शाखा उनके पूर्व प्रज्ञात माने जाते थे। का अध्ययन करते रहे। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-41. वासुदेवशरण अपवाल २५३ लेखक का उनसे सर्वप्रथम सम्पर्क सन् १९४८ में पुरातत्व के सम्बन्ध में बातें होने लगी। उस समय वे हुमा जब उसने अपने प्रथम सम्पादित ग्रन्थ 'पामेर शास्त्र काफी क्षीण काय हो चुके थे लेकिन चारों पोर उनके भण्डार की ग्रन्थ सूची' सम्मत्यर्थ भेजी। इसके पश्चात् तो पुस्तकों का प्रम्बार लगा हा था और उसमें वे खोये गत १५ वर्षों में बीसों पत्रोंका पादान-प्रदान चलता रहा। रहते थे। बातचीत के प्रमग में उन्होंने कहा कि वे जितना सभी पत्रों में उनकी प्रात्मीयता एव स्नेह के दर्शन होते अधिक साहित्यिक कार्य करते हैं उतनाही अधिक पात्म संतोष थे तथा वे साहित्यिक क्षेत्र में कार्य करते रहने को बराबर उन्हें मिलता है । गत ४, ५ वर्षोंकी रूग्णावस्था में जितनी प्रोत्साहित करते रहते थे। पुस्तकों के प्रतिरिक्त जब अधिक एवं उच्चस्तर का साहित्य उन्होंने लिखा इसके कभी लेखक के द्वारा लिखा हुआ कोई खोजपूर्ण लेख पूर्व वे इतना कभी नहीं लिख सके थे। इसलिए वे कहने उन्हें पसन्द पाता तो वे तत्काल उसके सम्बन्ध मे अपना लगे कि-वे बीमारी को वरदान मानते थे। वे लिखते ही अभिमत प्रकट करते थे। रहते और कभी थकने का नाम नहीं लेते। वे सरस्वती जीवन मे दो बार उनके साक्षात्कार का भी अवसर के सच्चे उपासक थे और सरस्वती का भी उन पर पूरा मिला । प्रथम बार जयपुर मे ही स्वर्गीय पं० मोतीलाल हाथ था। जब मैंने डी. लिट.के विषय के सम्बन्ध में जी शास्त्री द्वारा स्थापित मानवाश्रम में उनसे भेंट हुई। उनसे परामर्श करना चाहा कि उन्होंने तत्काल 'जैन मूर्ति यह भेट बिना किसी पूर्व सूचना के थी इसलिए मैं . कला' पर कार्य करने के लिए कहा। जब मानवाश्रम के अध्ययन-कक्ष मे प्रविष्ट हा तो देखने ___ डा. साहब के जीवन एवं उनके साहित्य या प्रकाशित को मिला कि दो सज्जन किसी विशेष अध्ययन मे लगे लेखो मे अब तक यही कहा जाता रहा है कि वे वैदिक हए हैं। लेकिन दोनो के शरीर मे बडा अन्तर था। एक साहित्य के प्रमुख विद्वान् थे। लेकिन भारतीय सस्कृति की पोर मोतीलाल जी स्थूलकाय वाले थे जबकि डा. साहब एक शाखा जैन साहित्य एवं पुरातत्व के वे प्रशंसक कृषकाय के व्यक्ति थे । जब मैने अपना परिचय दिया तो थे इसके सम्बन्ध में किसी ने विचार नही किया है। वैसे उन्होंने तत्काल अपना कार्य बन्द कर दिया और मुझसे सब र दिया पार मुझ वे जैन साहित्य के ममान बौद्ध साहित्य के भी अनन्य बातें करने लगे। मैं उस समय श्रद्धेय ५० चैनसुखदास अनुरागी थे लेकिन लेख की प्रागे की पंक्तियो में मैं जी न्यायतीर्थ एव मेरे द्वारा सम्पादित होने वाले हिन्दी उनके जैन साहित्य एवं पुरातत्व के अनुराग एव विचारों के एक प्रादिकालिक काव्य 'प्रद्युम्न चरित' की पाण्डुलिपि पर प्रकाश डालना चाहूँगा। डा० साहब जैन माहित्य को लेकर गया था। डा० साहब ने ग्रन्थ की पाण्डुलिपि एवं संस्कृति के प्रमुख प्रशमक थे। इस दिशा मे वे हिन्दी को देखा और शीघ्र ही उनके सम्बन्ध में दो-चार प्रश्न भाषा भाषी विद्वानों से सदैव प्रागे रहे हैं और अपनी पूछ डाले । उन्होंने उस कृति को शीघ्र ही प्रकाशित कराने धर्म-निरपेक्षता का अच्छा परिचय दिया है। यद्यपि जैन का प्राग्रह किया और मैं उनका प्रार्शीवाद लेकर लौट धर्म साहित्य एवं कला पर उन्होंने कोई स्वतन्त्र कृति तो पाया। दूसरी भेट अभी वाराणसी में कोई शा वर्ष पूर्व वर्ष पूर्व नहीं लिखी लेकिन समय-समय पर प्रकाशित लेखो, हुई । मैं वाराणसी में किसी सम्मेलन में भाग लेने गया पुस्तको के प्राक्कथनों एवं सम्मतियों में जो उन्होंने अपने हना था तो उनके दर्शनों का मोह नहीं छोड सका । पौर विचार प्रकट किए हैं वे उनकी इस सस्कृति के प्रति जैन साहित्य एव संस्कृति के प्रसिद्ध विद्वान् प० कैलाशचन्द अनुराग एवं मास्था के द्योतक माने जा सकते हैं वे प्राकृत जी शास्त्री, प्रो० दरबारीलाल जी न्यायाचार्य एव प. एवं अपभ्रश साहित्य को भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण फूलचन्द जी शास्त्री के साथ उनके निवास स्थान पर प्रग मानते थे और उनके प्रकाशन के लिए लोगों को पहुंच गया। उनके अध्ययन-कक्ष में प्रविष्ट होने पर देखा सदैव प्रेरित किया करते थे वे जैनधर्म की प्राचीनता के कि वे अपने निजी सहायक को कुछ लिखवा रहे हैं। हम सम्बन्ध मे स्पष्ट विचार रखते थे। उनके अनुसार वैदिक लोग उन्हीं के पास बैठ गए फिर साहित्य धर्म एव भारतीय यग के प्रारम्भ से ही श्रमण संस्कृति के उल्लेख मितेल हैं। Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ अनेकान्त इस सम्बन्ध में उन्होंने पं० कैलाशचन्द शास्त्री द्वारा प्रष्टक, सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चौपाई, शुभलिखित 'जैन साहित्य का इतिहास' के प्राक्कथन में जो मालिका, निशाणी, जकड़ी, व्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, विचार प्रकट किये हैं वे निम्न प्रकार हैं : भारती, बोल, चरचा, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, "जैन धर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। 'भगवान छंद, छप्पय, भावना, विनोद, कल्प, नाटक, प्रशस्ति, महावीर' तो अन्तिम तीर्थकर थे। मिथिला प्रदेश के धमाल, चौढालिया, बत्तीसी, पच्चीसी, बावनी, सतसई, लिच्छवि गणतन्त्र से, जिसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद सामायिक, सहस्त्रनाम, नामावली, शकुनावली, स्तवन, है, महावीर का कौटुम्बिक सम्बन्ध था । उन्होने श्रमण सम्बोधन, चौमासिया, बारहमामा, बेलि, हिंडोलणा, परम्परा को अपनी तपश्चर्या द्वारा एक नई शक्ति प्रदान चूनड़ी, बाराखडी, सज्झाय, भक्ति, बन्दना, प्रादि। इन की, जिसकी पूर्णतम परम्परा का सम्मान दिगम्बर विविध साहित्य रूपो से किसका कब प्रारम्भ हुआ और परम्परा में पाया जाता है । भगवान महावीर से पूर्व २३ किस प्रकार विम्नार और विकास हुआ यह शोध के लिए तीर्थकर और हो चुके थे। उनके नाम और जन्म वृत्तान्त रोचक विषय है। उसकी बहुमूल्य सामग्री इन मडारों में जैन साहित्य में सुरक्षित हैं। उन्ही में भगवान ऋषभदेव सुरक्षित है।" प्रथम तीर्थंकर थे जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा "अपभ्रश" भापा प्राचीन हिन्दी का एक महत्वपूर्ण जाता है। जैन कला में उनका अकन घोर तपश्चर्या की मोड प्रस्तुत करती है। वह इसके लिये अमृत की बूंट के मुद्रा में मिलता है। 'ऋषभनाथ' के चरित का उल्लेख समान है। अपभ्रश के ग्रथो का अध्ययन, प्रकाशन एव श्रीमद्भागवत' में भी विस्तार से पाता है और यह सोचने अपरिशीलन अत्यावश्यक है। पं० परमानन्द जी शास्त्री पर वाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा द्वारा सम्पादित "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मंग्रह" द्वितीय भाग के होगा । 'भागवत' मे ही इस बात का उल्लेख है कि महा. प्राक्कथन में डा० माहबने इस सम्बन्ध में अपने सुलझे हुये योगी भरत ऋषभ के शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्ही से विचार व्यक्त किये है। उन्होंने कहा है। यह देश भारतवर्ष कहलाया। "अपभ्र श एव अपहट्ट भाषा ने जो अद्भुत स्थान येषां खलु महायोगी भरतो, ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुण पासीत । प्राप्त किया, उमकी कुछ कल्पना जैन भडारो मे सुरक्षित येनेदं वर्ष भारतमिति, व्यपदिशन्ति ॥" भागवत ४९ साहित्य से होती है। अपभ्रंश भाषा के कुछ ही ग्रन्थ राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारो की सग्रहीत सामग्री मुद्रित होकर प्रकाश में आये है और भी सैकड़ो ग्रन्थ अभी से वे प्रत्यधिक प्रभावित थे। उनकी यह मान्यता थी कि तक भडारो मे सुरक्षित हैं एवं हिन्दी के विद्वानो द्वारा इन शास्त्र भण्डारों का व्यवस्थित रूप से शोध होना प्रकाश में पाने की बाट देख रहे हैं । अपभ्रंश साहित्य ने चाहिए। जिससे भारतीय साहित्य के विविध अगों पर हिन्दी के न केवल भाषा रूप साहित्य को समृद्ध बनाया, व्यवस्थित प्रकाश डाला जा सके। लेखक द्वारा सम्पादित अपितु उनके काव्य रूपो तथा कथानकों को भी पुष्पित राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची के चार और पल्लवित किया। इन तीन तत्वो का सम्यक् अध्यापन भागों की उन्होंने मुक्तकठ से प्रशसा की थी। और चतुर्थ अभी तक नहीं हुआ है। जो हिन्दी के सर्वांगपूर्ण इतिहास भाग की तो स्वय ने भूमिका भी लिखी इस अवसर पर के लिये आवश्यक है। वस्तुतः अपभ्रंश भाषा का उत्तम जो अपने विचार व्यक्त किए है वे अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। कोष बनाने की बहुत आवश्यकता है। क्योकि प्राचीन "विकास की उन पिछली शतियों में हिन्दी साहित्य हिन्दी के सहस्त्र शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ अपभ्रंश के कितने विविध साहित्य रूप थे यह भी अनुमधान के भाषा मे सुरक्षित है। इसी के साथ-साथ अपभ्रश भाषा लिये महत्वपूर्ण विषय है। इस सूची को देखते हुये उनमे कालीन समस्त साहित्य का एक विशद् इतिहास लिखे से अनेक नाम सामने आते है। जैसे स्तोत्र, पाठ, संग्रह, जाने की प्रावश्यकता अभी बनी हुई है।" कथा, रासो, रास, पूजामगल, जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मंत्र, "जैन कला" के महत्व के सबंध में वे स्पष्टमत के Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-डा. वासुदेवशरणमग्रवाल २५५ थे। जैन कला का संक्षिप्त वर्णन उन्होंने "मथुरा की जैन प्रसन्नता होती है कि जैन विद्वान निष्ठा के साथ इस कला" जयपुर से प्रकाशित लेख मे किया है। उन्होंने कार्य में लगे हुये हैं। उनके सफल प्रयल उत्तरोत्तर लिखा है कि मथुरा जैन धर्म का भी प्राचीन केन्द्र रहा है। बलवान हो रहे हैं। प्राकृत और अपभ्रंश भाषामो की बौद्धो एवं हिन्दुओं की भाति जैन धर्म के अनुयायी प्राचार्यों सामग्री मे तो अब प्राय देश के सभी विद्वानों की अभिरुचि ने मथुरा को अपना केन्द्र बनाकर अपने भक्त श्रावक बढ रही है। ये विचार है जो उन्होने प्रकाशित जैन श्राविकानो को प्रेरित करके प्राचीन मथुरा मे स्तूपो और साहित्य के प्राक्कथन मे व्यक्त किये हैं। मन्दिरो की स्थापना की । कंकाली टीले की खुदाई मे जैन "डा० साहब ने जैन धर्म, साहित्य एवं संस्कृति के शिल्प कला की सामगी प्राप्त हुई है। सम्बन्ध में जिन पुस्तकों एव लेखों में उल्लेख किया है डा. अग्रवाल साहब का एक लेख जैन विद्या, उनमे से कुछ के नाम निम्न प्रकार हैं : श्री महावीर स्मृति ग्रन्थ में सन् १९४८-४९ मे प्रकाशित १.५ परमानन्द जी शास्त्री द्वारा सम्पादित "जैन हया था जिसमे उन्होने विस्तार से जैन साहित्य के महत्व ग्रन्थ प्रशस्ति सग्रह-प्राक्कथन पर प्रकाश डाला है। उन्होने एक स्थान पर लिखा है। २ राजस्थान के जैन शास्त्र भडारों की ग्रन्थ सूची भाग ४-दो शब्द सम्पादक डा. कस्तूरचद "इन सबसे बढ़कर एक दूसरे क्षेत्र म जैन विद्या का कासलीवाल, १० अनूपचद न्यायतीर्थ सर्वोपरि महत्व हमारे सामने आता है और वह है भाषा ३. बीकानेर के जैन लेख संग्रह:थी अगरचन्द शास्त्र के क्षेत्र मे । भारत की प्रायः सभी प्रान्तीय भाषायो का विकास अपभ्रश से हुआ है । जैन साहित्य मे अपभ्रश जो नाहटा प्राक्कथन भाषा के ग्रन्थो के कितने ही भन्डार भरे है। अभी बीसियो ४. प्रकाशित जैन साहित्य : सयोजक श्री पन्नालाल वर्ष तो इस माहित्य को प्रकाशित करने में लगेगे। लेकिन जैन अग्रवाल-प्राक्कथन जो भी ग्रन्थ छप जाता है वह भी हिन्दी भाषा की उत्पत्ति ५. जैन साहित्य का इतिहास : पूर्व पीठिका : और विकाम के लिये बहुत सी नई सामग्री हमारे लिये पं० कैलाशचन्द जी शास्त्री-प्राक्कथन प्रस्तुत करता है। हिन्दी भाषा मे एक-एक शब्द की ६. "जन विद्या" श्री महावीर स्मृति ग्रन्थ भाग १ व्युत्पत्ति खोज निकालने का बहुत बड़ा काम अभी शेष है। सन् १९४८-४९ मे प्रकाशित-लेख व्याकरण की दृष्टि से वाक्यो की रचना और मुहावरों के ७. मथुरा की जैन कला . महावीर जयन्ती स्मारिका, प्रारम्भ का इतिहास भी महत्वपूर्ण है। इसके लिये अपभ्रश जयपुर : अप्रैल १९६२-लेख साहित्य से मिलने वाली समस्त सामग्री को तिथिक्रम के ८. हिन्दी जैन साहित्य का संक्षिप्त इतिहाम: अनुसार छाटना होगा और कोष और व्याकरण के लिये डा० कामता प्रसाद जी जैन-प्राक्कथन उसका उपयोग करना होगा।" ९. रूप रूप प्रतिरूपोभव" : विजय मूरि स्मारक ____ जहा तक भारतीय संस्कृति और वांगमय का सम्बन्ध ग्रन्थ-लेख है। हम उसके अखन्ड स्वरूप की आराधना करते है। उक्त कुछ प्राक्कथनों के अतिरिक्त डा. अग्रवाल के ब्राह्मण और श्रमण दोनो ही धारागो मे उसका स्वरूप "अनेकान्त" जैन सिद्धान्त भास्कर, वीरवाणी प्रादि पत्रो सम्पादित हया है। श्रमण सस्कृति के अन्तर्गत जन में जैन साहित्य एव पुरातत्व के सम्बन्ध में महत्वपूर्ण लेख संस्कृति, साहित्य, धर्म, दर्शन और कला इन चार क्षेत्रो भी प्रकाशित हये हैं। "अग्रवाल साहब" के निधन से मे प्रति समृद्ध सामग्री प्रस्तुत करती है। नई दृष्टि से साहित्यक समाज की जो महती क्षति हई है उसकी निकट उसका अध्ययन और प्रकाशन आवश्यक है। यह देखकर भविष्य मे पूति होना सम्भव नही है। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली शासकों के समय पर नया प्रकाश हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री जैन शास्त्र-भण्डारों में भारतीय इतिहास की कितनी एवं लोक-कल्याणकारी सामग्री विद्यमान है। विपुल सामग्री भरी पड़ी है, यह बात इतिहासज्ञ विद्वानों से अभी हाल मे ही ऐलक पन्नालाल दि० जैन सरस्वती प्रविदित नहीं है फिर भी उनकी छान-लीन के लिए भवन के प्राचीन हस्तलिखित गुटको की छानबीन करते हमारी भारत सरकार का ध्यान बिल्कुल भी नहीं गया हुए मुझे एक गुटके में "दिल्ली' स्थापना काल से लेकर है। कहने को तो वह धर्म-निरपेक्ष सरकार कही जाती जहांगीर बादशाह के काल तक के शासकों की नामावली है, पर उसमें साम्प्रदायिकता का कितना बोलबाला है, और राज्य-काल-गणना प्राप्त हुई है, जिसे अविकल रूप यह इसी से प्रकट है कि उसकी ओर से आज तक भी से यहा दिया जाता है। यह गुटका वि. स. १७१० के जैन शास्त्र-भण्डारों की शोध-खोज के लिए कुछ भी प्रयत्न फागुना सुदी ५ शनिवार का लिखा हुआ है । गुटके का नहीं किया गया है। प्रत्युत जनेतर विद्वानों के द्वारा जन वे० न०८४० है। इसकी पत्र-सख्या ७३ है। पत्रों का साहित्य साम्प्रदायिक कह करके उपेक्षित किया जाता रहा प्राकार ५४६ इंच है। प्रत्येक पृष्ठो मे १२ पंक्तियां है है। क्या जैन विद्वानों द्वारा लिखे जाने मात्र से ही उसमे और प्रति पक्ति मे १७-१८ अक्षर है। साम्प्रदायिकता की गन्ध आने लगती है? आज भारत वैसे तो दिल्ली बहुत प्राचीन है और यह पाण्डवों की अनेक भाषाएं ऐसी हैं जिनमे लिखने का श्रीगणेश की राजधानी रही है, पर तब इसका नाम 'इन्द्रप्रस्थ' करने वाले जैन विद्वान ही रहे हैं और उन भाषाओ का था। "दिल्ली' यह नाम कब पडा, इस विषय में इतिहासज्ञ इतिहास एवं साहित्य आज साम्प्रदायिक कहे जाने वाले का एक मत नहीं हैं। साथ ही 'दिल्ली' नाम रखे जाने के जैन विद्वानों की कृतियों से ही समृद्ध है। पश्चात् मुगल काल तक कौन-कौन इसके शासक हए और भारत के प्राचीन इतिहास की प्राज तक जितनी भी उन्होंने कितने समय तक शासन किया, इसका क्रमबद्ध शोष-खोज हुई है, उसमे जैन विनों की रचनामो का, एवं परिपूर्ण उल्लेख अभी तक सामने नही पाया है। जैन शिलालेखों का, जैनमूर्तिकला एवं स्थापत्य कला का गुटके के इस विवरण से इस विषय पर बहुत कुछ नवीन कितना महान योगदान है। यह बताने की यहाँ प्रावश्य- प्रकाश पड़ेगा और भनेक ऐतिहासिक तथ्य निश्चय करने कता नहीं है । जैन शास्त्र-भण्डारों में विद्यमान पोथियों में सहायता प्राप्त होगी। गुटके का यह उपयोगी प्रश इस पौर गुटकों के भीतर अपरिमित ऐतिहासिक, राजनैतिक प्रकार है १. स. ८० वर्षे वंशाख......१ बिल्ली नगर बस्यो, खूटी गाड़ी, राजा पाटि बिठा, ते प्रासामी संख्या पाट राजानी प्रासामी वर्ष मास दिन घड़ी विशेष विवरण १ राजा वीसल तूबर १६५ १८ १६ मनगपाल प्रथम २ राजा गागेय २१ ३ २८ गंगदेव राजा पृथ्वीमल पृथ्वीराज तोमर प्रथम राजा जगदेव २०७ २७ १५ राजा नरपाल टिप्पणी-१ यहाँ का पत्रांक टूटा है। سه x mom ه ع Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिल्ली शासकों के समय पर नया प्रकाश २५७ राजा राजा उदयसंघ उदयसिंह या उदयरवि राजा जयदास जयसिंह या जयदेव वाछल २१ २ १३ १७ बच्छराज या वत्सराज राजा पावक पीवक (?) राजा विहंगपाल विजयपाल राजा तोलपाल तेजपाल या नेकपाल गोपाल (?) राजा सुलखण सुलक्षण राजा जसपाल जयपाल राजा कंवरपाल किरपाल (?) राजा अनंगपाल २९६ १८ १० अनंगपाल द्वितीय राजा तेजपाल विजयवाल राजा महीपाल मदनपाल या मोहनपाल राजा ____डकतपाल (?) २१ अनेकपाल या कृतपाल २० राजा पृथ्वीराज तूवर २२ ३ १६ १७ पृथ्वीराज तोमर द्वितीय २. संवत् १२०९ चैत्र सुदि २ दिली लड़ाई हुई, चउहाणा जीते। तूबर हारे । अत्र चउहाग राजबिठा, ते लखीहसंख्या पाट राजानी प्रासामी वर्ष मास दिन घड़ी विशेष विवरण २१ वीसल चऊहाण विग्रहराज राजा अमरगागेव अमर गागेय या गंगदेव राजा पाहड पृथ्वीराज चौहान प्रथम राजा सोमेसर सोमेश्वर २५ राजा चाहड़ (?) चोहड (?) राजा नागदौण नागदमन राजा पृथ्वीराज चमहाण ६ पृथ्वीराज चौहान द्वितीय ३. संवत १२४६ वर्षे चैत्र वदि १३ पउहाण हारया। रोहबह पट्ठाण माया । दिली तरकाणाहमा छ।। सख्या तखत तुरकनी पातसाह वर्ष मास दिन घड़ा विशेष विवरण २८ पात. साहबदा गजनी १४५ १७ १३ शहाबुद्दीन गौरी २६ पात. साह समसदी २ ३ १३ १५ शमसुद्दीन पात. कुतुवदी साह २६ ७ २७ कुतुबुद्दीन प्रथम पात० पेरोज साह ३१ ३ १०१६ फीरोजशाह प्रथम पात. अमानत भाणजा पात० अलावदीन अलाउद्दीन प्रथम पात समीरदीन २१ . ५ २७ मासिरुद्दीन (?) पात० ग्यासवीन २१ . १ १२ ग्यासुद्दीम प्रथम राजा वीर २२ .xnx ६ २७ . د س Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८ अनेकान्त पात पात. ३६ पात समसदीन सामसुद्दीन पात. जलालदीन जलालुद्दीन रजिया सुलताना पात. रुकनदीन रुकनुद्दीन पात मलादैत्य पात. मलावदीन अलाउद्दीन द्वितीय कुतबदी जरबक कुतुबुद्दीन द्वितीय पात महमुंद घोहड़ा मोहम्मशाह प्रथम पात पेरोजशाह ३७ ३ १३ ३ फीरोजशाह द्वितीय तुगलक साह . ३ १३७ गयासुद्दीन द्वितीय (?) पात. बुवक साह . ६ १५ १५ अबूबक तुगलक पात. दौलत खांन कुमानत ७ दौलत खा लोदी पात० मलूवान तुगलक ८ १८४ (?) ४८ पात. महिमुद साह १ १६ २४ मोहम्मदशाह द्वितीय पात खिदर खान ८ ८ १८ ११ खिजरखान पात अलावदीन अलाउद्दीन तृतीय ५१ पात. अजन अलावदीन पात बहलोलखांन लोदी ३८ बहलोलखां लोदा, पात. सकदर लोदी २८ ५ १२ १६ ।। सिकदर लोदी पात. अब्राहिम लोदी १०५ २७ १० इब्राहिम लोदी पात. बावर मुगल ३ ५ २२ १५ बाबर शाह ५६ पात. हुमाऊ मुगल १० ४ ११ १७ हुमायूं शाह ४. सं० १५६७ जेठ सुदि १२ मुगल हारे सेरवान सूर जोत्या। दिलो बिठा । साह मालमसूर हमा। पात साह पालमसूर ६ . . . शेरशाह सूर पात. सलेमसाह सूर सलामशाह सूर पात. पेरोजसाह सुर . . ३ फीरोजशाह सूर ५. ममरेजखान मारया अदली नाम पराया। ६० पात. अदली मोहम्मद शाह पात० सकदर ६ ११ . सिकन्दर शाह ६. सकदर गाजीखान प्रबाहम सूर ३ तिह हींदु घाल्यो। ६२ पात० हर्मसाह दुजिमाया ? १ १ ११ २ हुमायूँ मुगल द्वारा गद्दी पर बैठा ६३ राजा हेमबणिक पाठ बिछु ० ० १६५ हेमू बनिया गद्दी पर बैठा ७. विक्रमादित्य नाम पराया, वसतपानी लड़ाई पड़ी। अकबर जीत्या वाणिक नाग (मारपा ?) सं० १६१३ ____फागुण सुदि २ अकबर जलालदीन पाट पिठा।। ६४ पान० अकबर साह ४८ ११ १५ अकबर बादशाह १. यह एक वणिक था, जो अपने अध्यवसाय से बंगाल का शामक बना था हुमायूँ को मृत्यु का समाचार पाकर दिल्ली प्राकर बादशाह बन बैठा और १६ दिन तक बादशाह रहा और पानीपत की दूसरी लड़ाई में हाथी के होदे पर बैठे हुए प्राख मे तोर लगने से मृत्यु को प्राप्त हुआ। -सम्पादक Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिल्ली शासकों के समय पर मया प्रकावा २५९ ८. साह सलेम जांगीर सं. १६६२ मगसिर बवि १२ घागरामध्ये पाट बिता। पात० जहांगीर सलेमसाह २१११३ जहांगीर बादशाह ६५ ९. "सवत् १६८४ वर्षे जहांगीर काल कोधु कार्तिक किया गया है। हुमायूं ने अपनी खोई हुई दिल्ली की वदि प्रमासि रवी पाछि सुलतान बुलाखी नइ कातिक बादशाहत को पुन. प्राप्त किया। उसके मरने पर हेमू सुदि २ पातसाही दीधी। तथा लाहोर माहि पातसाही वनिये ने भी १६ दिन राज्य किया है। सहिरइयारि लीधी। कार्तिक सुदि ४ ने दिने काश्मीर पी६. इसके बाद अकबर और उसके पुत्र जहांगीर बलाखी प्रायो। कातिक सुदि १५ के दिनि सहिर इयार दिल्ली के तख्त के बादशाह हुए हैं। बदी कीया। माह वदि १० रवी बुलाकी बद किया। ७. नवें नम्बर के अन्तिम उल्लेख से कई महत्त्वपूर्ण माहवदि १२ दिने बुलाकी सहिरयार प्रमुख जीविया बातों पर प्रकाश पड़ता है, जो कि केवल चार मास के ववरोवीया कीधा ।। फहि छह ॥ लोक वादि ॥ माहसुदि भीतर ही घटित हुई हैं१० दिने प्रागरा माहि खुरम सुलतान पातसाही बिठा। १. सं० १६८४ के कार्तिक की अमावस को जहांगीर चारि माम माहि एह बात हुइ छइ ।" की मृत्यु हुई। तब कार्तिक सुदी २ को बुलाखी सुलतान ॥जेह वु देख्यु तेह वु लघु छि मही॥ को बादशाहत दी गई। इसी समय लाहौर में सहिरयार ऊपर के उद्धरगा मे प्रथम कालम का सख्या क्रम और से बादशाहत प्राप्त की। कार्तिक सुदी ४ के दिन काश्मीर अन्तिम कालम का विशेप विवरण मैंने दिया है। शेष मे बुलाखी पाया और उसने कार्तिक सुदी १५ के दिन सवं उद्धरण गुटके से ज्यो का त्यो दिया गया है। सहिरयार को बन्दी बनाया। पुनः माघ वदी १० के दिन परि लिखित दिल्ली शासक-नामावली से निम्न बुलाबी भी बन्दी बना दिया गया। माघ वदी १२ के बाते फलित होती है....... दिन बुलाखी और सहिग्यार आदि कितने ही लोगों को १. वि० स० ८०६ के पूर्व इस नगर का नाम इन्द्र- जीवित मार दिया । उक्त पट्टावली का लेखक लिखता है प्रस्थ रहा होगा। दिल्ली नाम इस वर्ष से ही प्रचलित कि ऐसा लोग कहते हैं । अर्थात् इममे सचाई का कितना हमा मानना चाहिए क्योंकि वशावली प्रारम्भ होने के प्रश है, यह मैं नहीं जानता। इसके पश्चात् माघ सुदी पूर्ववर्ती उल्लेख से स्पष्ट है कि स० ८०६ मे ही दिल्ली १० के दिन प्रागरा मे खुरंम सुलतान बादशाह की गद्दी नगर को बसाने के लिए खूटी गाडी गई है। पर बैठा, जो पीछे शाहजहा के नाम से प्रसिद्ध हुमा है। २. नम्बर दो के उल्लेख से स्पष्ट है कि स० १२०६ इस प्रकार कार्तिक से लेकर माघ तक चार महीनों के के चन सुदी २ को दिल्ली मे लडाई हुई उसमें तोमरवंशी भीतर उक्त घटनाएं घटित हुई हैं। हारे और चौहान वशी जीते। ___ सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जहांगीर की ३. नम्बर तीन के उल्लेख से प्रकट है कि म० मृत्यु से लेकर शाहजहां के गद्दीनशीन होने तक चार १२४६ मे दिल्ली में पुन लड़ाई हुई और उसमे पृथ्वीराज महीनो की घटनामों का उल्लेख करने के पश्चात् लेखक चौहान हार गया। रोहतक की ओर से पठानो ने प्राक्र- सबसे अन्त मे लिख रहा है कि "च्यारि माम मांहि एह मण किया और दिल्ली की गद्दी पर शहाबुद्दीन गौरी बात हुइ छइ । जेह Q देख्य, तेह वं लख्य छि सही। बैठा। इससे बिलकुल स्पष्ट होता है कि ये चार महीने की घट४. वि० सं० १५६७ के जेठ में पुन: लड़ाई हुई और नए लेखक के जीवन काल मे ही घटित हुई हैं और उसमें हमायं बादशाह हार गया और पालमसूर दिल्ली के इसकी सत्यता का प्रमाण भी इस उल्लेख के पूर्ववर्ती पंक्ति तहत पर बैठा, जिसे कि शेरशाह सूर भी कहा जाता है। से मिलता है जिसमें कहा गया है कि बुलाखी प्रादि को ५. इसके लगभग १५ वर्ष बाद ही दिल्ली मे फिर जीवित मार दिया गया, ऐसा लोग कहते हैं। इसका गड़बड़ मची। जिसका उल्लेख परान० ५ और ६ में अभिप्राय यही है कि उनके मारने को उसने अपनी पाखों Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त से नहीं देखा है, न उसके सामने कोई प्रत्यक्ष-दर्शी व्यक्ति दिल्ली बसाइ जाने का भी स्पष्ट उल्लेख सामने प्राता है। का साक्ष्य ही उपस्थित था। फिर यह गुटका जहांगीर शासकों की नामावली में अनेक नाम सदिग्ध हैं, क्योंकि की मृत्यु के केवल २६ वर्ष बाद वि. स. १७१० में उनका अन्य साधनों से उपलब्ध नामों के साथ सामञ्जस्य लिखा गया है अतः यह निश्चित ज्ञात होता है कि जहा- नही बैठता है । विशेष विवरणमें जो इतिहास-प्रसिद्ध नामो गीर की मृत्यु के समय लेखक जीवित था और उसको का उल्लेख किया गया है, उसके लिए मैं मुशी देवीप्रसाद अवस्था भी नौजवानी की रही होगी। लिखित दिल्ली शासकों की वंशावली का प्राभारी हूँ। इस प्रकार गुटके के उद्धरण किये गये शासक पट्टावली नामो के निर्णय करने में मुझे स्थानीय पटेल हायर लेख से सं०८०६ से लेकर १६८४ तक के ८७५ वर्ष के सेकेण्डरी हाई स्कूल के हेडमास्टर श्री दुर्गाप्रसाद जी शर्मा भीतर होने वाले दिल्ली के शासको पर और वहां होने एम. ए. का साहाय्य प्राप्त हुआ है, जिसके लिए मैं उनका वाली लड़ाइयो पर एक नवीन ही प्रकाश पड़ता है तथा भी कृतज्ञ हूँ। दिल्ली के सम्बन्ध में दिल्ली के सम्बन्ध में अब तक जो सामग्री उपलब्ध हुई है, वह प्रकाशित की जा चुकी है। प्रस्तुत पट्टावली में कोई खास विशेषता नहीं है, फिर भी हमने पाठकों की जानकारी के लिये प्रकाशित की है। आवश्यकता है उमके संकलन एवं अध्ययन की। दिल्ली और दिल्ली की राजावली अनेकान्त के पाठवे वर्ष की दूसरी किरण मे तुलनात्मक टिप्पण के साथ प्रकाशित की जा चुकी है। उसके बार दिल्ली की 'दोहा राजावली' में स. १६८७ मे भगवतीदास अग्रवाल द्वारा रचित जैन सन्देश के शोधांक ११ मे १ जून १९६१ के अंक में प्रकाशित हो चुकी है। सन १९६३ मे 'इन्द्रप्रस्थ' नाम का एक संस्कृत प्रबध डा० दशरथ शर्मा द्वारा सम्पादित होकर प्रकाशित हो चुका है। साथ ही राजस्थानी पत्रिका के भाग ३ अंक ३-४ मे "दिल्ली के तबर राज्य' पर एक लेख उक्त डाक्टर सा० का भी प्रकाशित हा है। उसके परिशिष्ट मे तबर वशावलियां भी दी गई है। इन सब मे भगवतीदास की उक्त 'दोहावली' बहुत सुन्दर है, जिसके प्रत्येक दोह, में राजा का नाम, राज्यकाल के वर्ष, महीना, दिन और घड़ी तक का उल्लेख किया गया है। दिल्ली के शिलालेख से यह बात सिद्ध है कि दिल्ली को अनंगपाल द्वितीय ने बसाया था जो तोमरवशी था । दिल्ली पर तोमरवशियो का राज्य सं० १२१६ तक रहा है । उसके बाद वे सूबेदार के रूप मे कुछ समय दिल्ली पर शासन कर सके हैं। स० ११८६ मे दिल्ली मे अनगपाल तृतीय का गज्य था, उस काल के कवि श्रीधर द्वारा रचे गये पार्श्वपुराण में दिल्ली और अनगपाल का अच्छा वर्णन किया है । स० १२२३ मे मदनपाल नामक तोमर राजा को मृत्यु खरतरगच्छ की पट्टावली के अनुसार मानी जाती है । स० १२१६ से १२४६ तक दिल्ली पर चौहानो का अधिकार रहा । १२४६ से सन् १८०३ तक मुसलमानों का शासन रहा है। १८०३ से १९४७ तक अंगरेजों का राज्य रहा। पौर १९४७ में कांग्रेस का राज्य हो गया था, जो अब तक मौजूद है। और आगे भी चलेगा । आवश्यकता इस बात की है, दिल्ली पर प्रकाशित साहित्य का अध्ययन कर उसका सिलसिलेवार इतिहास लिखा जाय। उससे दिल्ली के शासकों का व्यवस्थित इतिहास प्रकाश में मा सकता है, और वह कई पीढ़ी के युवकों के लिए उपयोगी सिद्ध होगा। --सम्पादक Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाण काण्ड की निम्न गाथा पर विचार पं० दोपचन्द पाण्ड्या निर्वाण विषयक रचनामो में निर्वाण भक्ति के अति- सुग्रीव के ही भाई हैं । किन्तु उनका नाग कुमार के साथ रिक्त प्राकृत निर्वाणकाण्ड एक महत्वपूर्ण रचना है। सामंजस्य कैसे बिठाया जा सकता है। साहचर्याच्च यद्यपि उसका रचनाकाल निश्चित नहीं है। फिर भी वह कुत्रचित्' अमरकोष के इस परिभाषा वाक्य के अनुसार अपना खास वैशिष्टय रखता है। उक्त काण्ड में निर्वाण अथवा प्रकरण या उक्त वाक्य के अनुसार उक्त गाथा का क्षेत्रों के अतिरिक्त कुछ अतिशय क्षेत्रो को भी बादमें जोड़ पाट 'वाल महावाल' होना चाहिए। दिया गया है। यह कार्य कब हुमा यह कुछ ज्ञात नही है। जिसका अर्थ व्याल महाण्याल होगा। क्योंकि नागप्रस्तु, प्राज निर्वाण काण्ड की निम्न गाथा पर विचार कुमार के साथ व्याल महान्याल नामक दोनों राजकुमार करना ही इस लेख का प्रमुख विषय है : दीक्षा लेकर तपश्चरण द्वारा कर्म नष्ट कर मुक्त हुए थे। णायकुमार मुणिदो बालि-महाबालि चैव प्रज्झया। ऐसा मल्लिषेण के नागकुमार चरित्र में उल्लेख है। नागअट्ठावय-गिरि-सिहरे णिव्वाण-गया णमो तेसि ॥१५॥ कुमार मगधदेशस्थ कनकपुर के राजा जयंधर की रानी इस गाथा का अनुवाद भैया भगवतीदास प्रोसवाल पृथ्वी देवी का पुत्र था जिसका जन्म नाम प्रतापंधर था, ने स. १७४७ मे निम्न प्रकार किया है किन्तु बावडी में गिर जाने पर सौ से सरक्षित होने के वालि महावालि मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय।। कारण उसका नाम नागकुमार प्रसिद्ध हो गया था। यह श्रीप्रष्टापद मुक्ति मझार, ते बंदू नित सुरति सम्हार ।१५ बडा पुण्यशाली था। व्याल और महाव्याल दोनों भाई वीरसेवामन्दिर सरसावा से प्रकाशित शासन चतुस्त्रि- उत्तर मथुरा के राजा जयवर्मा और जयावती देवी के पुत्र शिका के परिशिष्ट पृष्ठ २७ पर १० दरबारीलाल कोठिया थे। वे विज्ञान से युक्त और संग्राम करने मे प्रवीण तथा ने कैलाश गिरि का परिचय देते हुए लिखा है कि उनके महा सुभट थे। ये दोनो ही नागकुमार के अनुचर के बाद मे नागकुमार वालि और महावालि आदि मुनिवरों ने रूप में साथ रहे हैं। और दोनो ने ही नागकुमार के साथ भी वही से सिद्ध पद पाया था। दीक्षित होकर कैलाश पर्वत पर तपश्चरण द्वारा मुक्ति क्रियाकलाप के सम्पादक प० पन्नालालजी सोनी ने प्राप्त की थी। इसमे स्पष्ट है कि निर्वाण काण्ड की उस उक्त गाथा का सस्कृत अनुवाद करते हुए "नागकुमार गाथा मूल पाठ 'बालि महाबालि' अशुद्ध है। और सभवतः मुनीन्द्रो, वालि महावालिश्च प्राध्येयाः ।।" दिया है। उस पर से ही यह गलत धारणा बनी है। और भगवती इन चारों उल्लेखों के प्रकाश मे लगता है कि प्रायः दास का उक्त अनुवाद भी सदोष है। ऊपर के समस्त जैन जनता की यही धारणा बनी हुई है कि ये बालमुनि विवेचन से स्पष्ट है कि निर्वाण काण्ड की उस गाथा के सुग्रीव के भाई ही हैं। प्राचार्य रविषण के पद्मचरित के मूल पाठ में मशोधन कर 'वाल महावाल' पाठ बना लेना अनुसार जिन्होंने कैलाश गिरि पर घोर तपश्चरग किया चाहिए। ऐसा करने से प्रर्थ की सगति बन जायगी। पौर रावण के कोप से कैलाश गिरि के नाश को बचाया प्राशा है विद्वान इसी प्रकार प्रचलित पाटो में जो अशुद्धियां था। तथा अपने पैर के अंगूठे को जरा सा दबा दिया था पाई जाती है. उनके परिमार्जन करने का प्रयत्न करेंगे। जिसके भार से दब कर दशानन रोने लगा था और इसी १. तहो वाल महावालक पुत्त, विण्णाण जुत्त सगामधुत्त । से उसका नाम 'रावण' प्रचलित हो गया था। पद्मचरित पुरवर कवाडणिह वियडवच्छ, थिर फलिहबाहुपाय विरच्छ। के अनुसार मेरी तथा अन्य विद्वानों की यह धारणा थी पुष्पदन्त नागकुमार चरिउ ४-१ कि प्रस्तुत बालि मुनि मोक्ष गए। वे बालि मुनि सभवतः २. देखो मल्लिषेण के नागकुमार चरित का अनु० पृ० ७८ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषदों पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव मुनिश्री नथमल भारतीय साहित्य की दो धाराएं मानी जाती हैं- विरोधी धाराएं परिदृप्ट हो रही हैं। वैदिक और प्रामणिक । जैन और बौद्धो का जो साहित्य दूसरी धाराओं के संरक्षक जैसे जैसे मिटते गये, वैसेहै उसे श्रामणिक (श्रमण परम्पराका) पौर शेष सारे वैसे उनका साहित्य अपने संरक्षकोके प्रभावमें वैदिक धाग साहित्य को वैदिक कहा जाता है। पर वह स्थापना के प्रबल प्रवाह में सम्मिलित होता गया। निर्दोष नही है । यहां श्रमण के अनेक सम्प्रदाय रहे है- साहित्य की कसौटी-वेदिक साहित्य का मुख्य भाग जैन, बौद्ध, माजीवक, गैरिक, तापस आदि१। मूलाचार यज्ञ था। उसका विकास उत्तरोत्तर होता रहा । समूचा के अनुसार रक्तपट, चरक, तापस, परिवाजिक, शैव, मायुर्वेद उसी से अनुप्राणित है। ब्राह्मण ग्रन्थो मे यज्ञ की कापालिक मादि भी प्रवैदिक सम्प्रदाय २ । सांख्य दर्शन परम्परा और आगे बढ़ गई थी। वैदिक धारा का प्रबल विरोधी था। उसने कठ, श्वेताश्व- औपनिषदिक धारा, जिसे श्रमणो की धारा कहा जा तर. प्रश्न, मैत्रायणी जसे प्राचीन उपनिपदा को बहुत सकता है. यज्ञो का विरोध करती थी। उसका प्रवाह प्रभावित किया था। अध्यात्म विद्या की ओर था हम कौन है ? कहां से पाए ___ समय के प्रभाव में प्राजीवको का प्राज अस्तित्व है? क्यो पाए है? कहा जाएंगे? आदि-आदि प्रश्नो नही रहा। पर उनका साहित्य सवथा लुप्त नहीं हुआ। पर विचार किया जाता था४। अध्यात्म विद्या श्रमण उसने वैदिक और अवैदिक सभी साहित्य धागों मे साहित्य की कसौटी थी। स्थान पाया है। गरिक, तापस प्रादि वैदिक परम्परा मे त्रिवर्ग-विद्या (अर्थ, धर्म और काम) लौकिक साहित्य विलीन हो गए है पर उनका साहित्य उनकी धारा मे की कसौटी थी। इन तीन कमोतियों के ar पूर्ण विलीन नहीं हुमा । उनका अपना स्वर आज भी जान सकते है कि अमुक साहित्य किस धारा का है या मुखरित है। किस धारा में प्रवाहित है। स्थानाङ्ग से पता चलता है कि महावीर के युग मे उपनिषदों को धारा-प्राचार्य शकर ने जिन दस साहित्य की तीन धाराएं प्रवाहित हो रही थी-लोकिक, उपनिषदों पर भाष्य लिखा, वे प्राचीन माने जाते है । वैदिक और सामयिक३ । राजनीति, अर्थनीति, और काम उनके नाम है-ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डुक्य, नीति सम्बन्धी ग्रन्थ लौकिक साहित्य की कोटि मे आने तैत्तिरीय, ऐतरेय, छान्दोग्य और वहदारण्यक । डा० बेलथे। ऋक, यज और साम ये तीन वेद वैदिक साहित्य के लोग वेलकर और रानाडे के अनुसार प्राचीन उपनिषदों मे मुख्य ग्रन्थ थे। ज्ञान, दर्शन और चारित्र के निरूपक मूख्य ये है-छान्दोग्य, वृहदारण्यक, कठ, ईश, ऐतरेय, तत्तग्रन्थ सामयिक वा श्रामणिक साहित्य की धारा के थे। रीय, मुण्डक, कौपीतकि, केन और प्रश्न२ । उनमे से कुछ इस लेख मे मेरा प्रतिपाद्य विषय यह है कि उपनिषद् उपनिषदों में मुख्य वेद एवं वैदिक धारा के प्रति जो पूर्णरूपेण वैदिक धारा के ग्रन्थ नहीं है। आज हम जिसे विरोध है उसे देख सहज ही प्रश्न होता है कि वेदो और वैदिक साहित्य मानते हैं वह सारा वैदिक नही है किन्तु उसकी धारा का विरोध करने वाले उपनिषद् क्या वैदिक लौकिक, वैदिक, और श्रामणिक तीनों का संगम है । वह साहित्य की कोटि में पा सकते हैं ? मुण्डकोपनिषद् मे इस अनेक धारामों का सगम है, इसीलिए उसमे अनेक वेदों को अपराविद्या कहा गया है। परा विद्या, जिससे १. दशवकालिक नियुक्ति, हारिभद्रीय वृत्ति, पत्र ६८ २. मूलाचार ५, ६२ ३. स्थानाङ्ग ३, ३, १८५ १.केनोपनिषद् २. हिस्ट्री माफ इण्डियन फिलॉसफी भाग २ पृ०८७-६० Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपनिषदों पर भमण संसति का प्रभाव २६३ ब्रह्म की प्राप्ति होती है, उससे भिन्न है। होते हैं। प्रात्मविद्या के लिए बेटों की प्रसारता पौर परा विद्या प्रध्यात्म वा प्रात्म-विद्या है। मोकार पक्षों के विरोध में पात्मयज की स्थापना किसी पवैदिक के द्वारा उस मात्मा का ध्यान किया जाता था। प्रग्नो- धारा की भोर संकेत करती है। पनिषद में भी इस तथ्य की विशेष अभिव्यक्ति हुई है। इससे वैदिक ऋषियों की उदार और सर्वग्राही भावना वहां बताया गया है कि ऋग्वेद के द्वारा साधक इस लोक के प्रति सहज ही मादर भाव उत्पन्न होता है कि उन्होंने को, यजुर्वेद के द्वारा अन्तरीक्ष को और सामवेद के दाग विरोधी धारामों को भी किस प्रकार अपनी पारा में तृतीय ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। इनसे परम ब्रह्म की समन्वित कर लिया। प्राप्ति नहीं होती। शम्ब साम्य-उपनिषदों में श्रमणधाग के दर्शन का समग्र मोकार के ध्यान में उस लोक की प्राप्ति होती दूमरा हेतु शब्द-साम्य है। उनमें ऐसे अनेक शब्द हैं, है, जो शात, अजर, अमर, अभय और पर है मर्थात उससे जिनका उपयोग श्रमण-साहित्य में अधिक हपा है। परम ब्रह्म की प्राप्ति होती है।। नारद चारो वेदो पोर छान्दोग्यमे 'कपाय' शब्न राग-देष के पर्यमें व्यवहन है। अन्य अनेक विद्यामो का पारगामी था। उसने मनत्कुमार जैन भागम साहित्य में यह इसी अर्थ में हजारों वार से यही कहा-"भगवन् ! मैं मत्रवित है, प्रात्मवित् नही प्रयुक्त है जबकि वैदिक साहित्य में इस अर्थ में उसका है५ । इसमे साधक के मन मे वेदों के प्रति कोई उत्कर्ष प्रयोग सहज लभ्य नहीं है । मण्डूक उपनिषद् का तायी११ की भावना उत्पन्न नही होती। यह भावना महाभारत शब्द भी वैसा ही है। वह वैदिक साहित्य मे प्रायः व्यव. और अन्य पुगणो मे से कान्त हुई है। उनमे ऐसे मनेक हत नहीं है। जैन और बौद्ध साहित्य मे उसका प्रचुर स्थल है, जहा प्रान्म विद्या या मोक्ष के लिए वेदो की व्यवहार हुआ है। प्रसारता प्रकट की गई है। श्वेताश्वतर के भाष्य मे विवय साम्य-विषय वर्णन की दृष्टि से भी उपप्राचार्य शकर ने ऐमा एक प्रसंग उद्धृत किया है । बहा निपदों के कछ सिद्धान्तों का श्रमणों को सिद्धान्त धारा से भगु अपने पिता से कहता है बहुत गहरा सम्बन्ध है। "त्रयीधर्ममषधि, किपाकफलसन्निभम् । मण्डक, छान्दोग्य प्रादि उपनिपदो में ऐसे अनेक नास्ति तात सुन किञ्चिदत्र दुःख शताकुले। स्थल हैं बहा श्रमण विचारधाग का साट प्रतिबिम्ब है। तस्मान्मोमाय यतता, कवं सेव्या मया त्रयी।" जर्मन विद्वान् हर्टल ने यह प्रमाणित किया है कि मण्डूकोत्रयी धर्म प्रधर्म का ही हेतु है। यह किपाक (मेमर) पनिषद में लगभग जन मिद्धान्त जैमा वर्णन मिलता है फल के समान है। हे तात ! सैकड़ो दु.खो स पूर्ण इम और न पारिभाषिक शब्द भी वहा व्यवहृत हुए है१२ । कर्मकाण्ड मे कुछ भी मुख नही है । अतः मोक्ष के द्वारा प्रयत्न करने वाला मैं त्रयी धर्म का किस प्रकार सेवन उम प्राचीनकाल मे वेदों और उपनिपदो के भनिकर सकता हूँ। रिक्त ब्रह्मविद्या विषयक साहित्य 'श्लोक' नाम से प्रसिद्ध ___ गीता में भी यही कहा गया है कि त्रयी धर्म (वैदिक कर्म) म लगे रहने वाले सकाम पुरुष ससार मे पावा ८. मण्डूकोपनिषद् १-२, ७-१० गमन करते रहते है। यज्ञो को श्रेय मानने वाले मूढ़ १. छान्दोग्योपनिषद् ८,५,१ वृहदारण्यक २,२,९,१० १०. छान्दोग्य ७२६२-मृदिन कपायाय-शकगचार्य १. मण्डूकोपनिषद् ११३५ २. मुण्डकोपनिषद् २१५ ने इसके भाग्य मे लिखा है-मृदित कपायाय वार्ता३. मुडकोपनिसद् १७ ४. प्रश्नोपनिषद् ५७ दिरिव कषायो रागपादिपः सत्वस्य रजना ५. छान्दोग्योपनिषद् ७,१,२-३ रूपत्वात...। ६. श्वेताश्वतर पृष्ठ २३ : गीता प्रेस गोरखपुर, तृतीय ११ मण्डूकोपनिषत् ५५ संस्करण । ७. भगवदगीता ६.२१ १२. इण्डो-हरेनियन मूल ग्रंप और मंगोषन भाग ३ Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त था। द्वादशानी के विवरण में सर्वत्र यह मिलता है कि सन्तानोत्पत्ति प्रावश्यक कर्म है। इसलिए सहज ही यह प्रत्येक प्रङ्ग में सख्येक श्लोक थे२। वैदिक, जैन और प्रश्न होता है कि बृहदारण्यक में एषणा त्याग का विचार बौद्ध साहित्य से भिन्न पूर्ववर्ती श्रमण साहित्य भी विद्य- कहां से पाया? इस आधार पर यह कल्पना होती है कि मान था३ । यह असम्भव नही कि उपनिषदों का ब्रह्म- उपनिषद् का कुछ भाग धमणों की रचना है, अथवा विद्या सम्बन्धी विवरण व श्लोक साहित्य किसी पूर्ववर्ती श्रमणों और वैदिक ऋषियों का मिला-जुला प्रयत्न । ब्रह्म-विद् श्रमण परम्परा का प्राभारी हो। कुछ और अतीत में जाएँ तो कहा जा सकता है कि यह निर्ग्रन्थ परम्परा में उद्दालक, नारद, वरुण, अङ्ग क्रम म्भिक काल तथा उससे पूर्व वेदकाल में ही ऋषि (या अङ्गिरस) याज्ञवल्क मादि प्रत्येक बुद्ध हुए हैं। प्रारम्। हो गया था। अरुण, केतु और वातरशन ये उपनिषदो मे भी इनका उल्लेख है।। तीन प्रकार के ऋषि थे। उनमें वातरशन ऋषि श्रमण कही-कहीं तो विषय साम्य भी है। "जब तक लो थे, भगवान ऋषभ के शिष्य थे। वे ऊर्ध्वमन्यी (ऊर्ध्वकपणा है तब तक वित्तषणा है। जब तक वित्तषणा है रेता) हो गए हैं। उनके पास कुछ दूसरे ऋषि जिज्ञासा सब तक लोकेपणा है। साधक लोकेषणा और वित्तषणा लिए हुए पाए । उन्हें पहले ही मालूम हो गया था, प्रतः का त्याग कर गोपथ जाए, महापथ से न जाए-यह महत् वे उनके आने से पहले ही अन्तहित हो गये। योग सामर्थ्य याज्ञवल्क ऋपि ने कहा५ ।" से शरीर को मूक्ष्म बना 'कूष्माण्ड' नामक मत्र वाक्य में बृहदारण्यक के याज्ञवल्क्य कुपीतक के पुत्र कहोल से , प्रविष्ट हो गए। आने वाले ऋपिगण ने चित्त को शान्त कहते हैं-यह वही आत्मा है, जिसे जान लेने पर ब्रह्म किया और ध्यान मे देखा तो उन्हें वे वातरशन श्रमण ज्ञानी पुत्रपणा, वित्तषणा और लोकपणा से मुह फेर कर प्रत्यक्ष दीखे । वे वासरशन श्रमण से बोले- पाप क्यों ऊपर उठ जाते हैं। भिक्षा से निर्वाह कर सन्तुष्ट रहते अन्तहिन इए ?" तब उन्होने कहा-'हम आपको है। .....'जो पुत्रपणा है, वही वित्तषणा है। जो वित. नमस्कार करते हैं। आप हमारे स्थान पर पाए हैं. हम षणा है वही लोकषणा है६ । आपकी क्या परिचर्या करे।" तब पाने वाले ऋषिगण ने इसि भोमियाइ के याजवल्क्य भी एषणा-त्याग के कहा-“वातरशन ऋषि ! पाप हमें वैसा पवित्रबाद वृहदारण्यक के याज्ञवल्क्य की भाति भिक्षा से सन्तुष्ट शुद्धि का स्थान बालाएं, जिससे हम पानि हो रहने की बात कहते हैं। इस प्रकार दोनों की कथन जाएं." उन्होंने पाने वाले ऋषिगण को शुद्धि का साधन शैली में विचित्र समानता है। वैदिक विचार धारा मे बनलाया और वह ऋषिगण पापरहित हो गया । पुत्रषणा के त्याग का स्थान नहीं है। उसके अनुसार इस प्रकार से यह प्रतीत होता है कि ऋपि श्रमणो १. इंडियन हिम्टोरिकल क्वार्टरली भा० ३५० ३०७- से मिलते थे और उनसे यात्म धम का बोब लेते थे। एम. विन्टरनिट्ज ने अर्वाचीन उपनिषदों को अवै. ___३१५ (उमेशचन्द्र भट्टाचार्य का लेख) दिक माना है११ । किन्तु उक्त तथ्योसे यह प्रमाणित होता २. समवायाङ्ग सूत्र १३६-१४६, नंदीसूत्र ४५-५५ है कि प्राचीन उपनिषद् भी पूर्णतः वैदिक नही हैं। * ३. The Jainas in the history of Indian Literature By Dr Mauricc Winternitz Ph. D. ८. वादक कोप ४७३-यह शब्द ऋग्वेद १०, १३६, Page 5-"Even before there was such a २ मे मुनियो के लिए और तैत्तिरीय पारण्यक १, thing as Buddhist as Jaina Literature be sides the Brahmanic Literature. २३.२; १. २४४; २,७,१ में ऋषियो के लिए ४. उद्दालक छान्दोग्य ५, नारद छान्दोग्य ७, अङ्गिरस पाया है। नग्न साधु अभिप्रेत है, जिनका उल्लेख परवर्ती साहित्य मे बहुधा मिलता है। मुलुकं १२२ वरुण तेत्तिरेय ३३१, याज्ञवल्क्य वृहदा ९. श्रीमद्भागवत । ज्यक ३४१ ५ . इसिभासियाह १२ १०. तैत्तिरीयारण्यक प्रपाठक २ अनुवाक् पृ०१३७-१३६ ६. बहदारण्यक ३,५,१७. इसिभासिया१.१-२। ११. प्राचीन भारतीय साहित्य, पृ०१९०-१९१। Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षट्खण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार बालचन्द्र सिद्धन्त-शास्त्री [श्री प्रा. शा. जिनवाणी जीर्णोद्धार सस्था-फल- धवला टीका मे संक्षेप से कर दी है२ व उसका नाम टण द्वारा प्रकाशित षट्खण्डागम के परिशिष्ट में देने के उनके द्वारा 'सत्कर्म' रखा गया प्रतीत होता है । ये १८ उद्देश से प्रकृत निबन्ध लिखा गया था। सोलापुर रहते अनुयोगद्वार सेठ शिताबराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्योडाहए मेरे द्वाग उक्त पट्खण्डागम का प्राय: समस्त कार्य रक फण्ड द्वारा प्रकाशित धवला-युक्त षट्खण्डागम की सम्पन्न हुपा है। परन्तु जब वह कार्य समाप्तप्राय था १६ जिल्दों में से अन्तिम १५ व १६वीं जिल्दों में प्रकातब कुछ ऐसी खेदजनक परिस्थिति निमित हुई कि अन्तत. शित हो चुके हैं। उक्त १८ अनुयोगद्वारो में निवन्धन, मुझे उसमे विराम लेना पड़ा। अत यह उममे नही दिया जा सका। पूर्व किरण में दिया गया 'पट् खण्डागम-परिचय' उपलक्षित है। उस सब का त्याग साधु के लिए भी उसकी प्रस्तावना एक प्रश था ।। अनिवार्य है। इस सम्बन्ध में भगवती-पाराधना में अनेकान्त की पिछलो किरण (३, वर्ष १६, पृ २२०) निम्न गाथा उपलब्ध होती हैमे षट् वण्ड गम का परिचय कराते हुए यह लिखा जा देमामासियसुत्तं प्राचेलक्क त्ति तंख ठिदिकप्पे । चुका है कि उक्त ग्रन्थ की रचना महाकमप्रकृतिप्राभूत लुतोऽत्य आदिसद्दो जह तालालबसुनम्मि ॥११२३. के उपसहार रूप में की गई है। परन्तु उसमे महाकर्म एनदुक भवति- चेलग्रहणं परिग्रहोपप्रकृतित्राभूत के कृनि वेदनादि २४ अनुयोगद्वारो मे केवल लक्षणम्, तेन सकलग्रन्थत्याग ग्राचेलक्य-शब्दस्यार्थ प्रारम्भ के ६ अनुयोगद्वारों की ही प्ररूपणा की गई है, इति । 'तालपलंब ण कप्पदि त्ति' मूत्रे ताल-शब्दो न शेष (७-१८) निबन्धन प्रादि १८ अठारह अनुमोगद्वारों तरुविशेषवचन', कितु वनसत्येकदेशस्तरुविशेष उपकी वहां प्ररूपणा नहीं की गई। ऐसी स्थिति मे उन १८ लक्षणाय वनसतीना गृहीतम् । तथा चोक्त कप्पेअनुयोगद्वागे की प्ररूपणा के बिना प्रकृत पट्खण्डागम हरिततणोसहि-गुच्छा गुम्मा वल्ली लदा य रुक्खा य । अपूर्ण-सा रह जाता है । इस पर विशेष ध्यान देते हुए पट्- एव वणप्फदीनी तालोद्दे सेण प्रादिद्वा ।। खण्डागम के प्रमुख टीकाकार श्री प्रा. वीरमेन स्वामी ने (विजयोदया टीका) उसके अन्तिम सूत्र (५,६,७६५ पु.१४ पृ. ५६८) को देगा ठीक इसी प्रकार से भगवत भूतबलि द्वारा प्रकृत मर्शक १ मान कर उन शेप अनुयोगद्वारो की प्ररूपणा अपनी पट्खण्डागम में की गई कृति प्रादि ६ अनुयोगद्वारो १. जहा प्रकृत विषय को प्ररूपणा देशत. करके शेष की प्ररूपणा उन शेप १८ अनुयोगद्वारों को उपलक्षण सब प्ररूपणा की सूचना अन्तहित 'पादि' शब्द के भूत जानना चाहिए। द्वारा की जाती है वह देशामर्शक मूत्र कहलाता है। २. भूदबलिभडारएण जे गेदं सुत्त देसामासियभावेण जैसे स्थितिकल्प में-मुमुक्ष को कर्तव्यविधि में लिहिदं तेणेदेण मुनेश मूचिदमेस प्रहारमप्रणियोगप्राचेलक्य' सूत्र प्रवृत्त हुप्रा है। उसमें गृहीत 'चेल द्दाराण किंचि संखेवेण परूवणं कस्सामो। (वस्त्र)' शब्द से वस्त्रादि समस्त परिग्रह का ग्रहण धवला पुस्तक १५, पृ०१ अभीष्ट है। मथवा-'तालप्रलम्ब' सूत्र मे 'ताल' ३. वोच्छामि संतकम्मे पचि[जि] यस्वेण विवरण शब्द से ताल वक्ष प्रादि समस्त हरित्काय (सचित्त) सुमहत्थं ॥ संतकम्मपंजिया-धवला पु०१५, पृ० १ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रक्रम, उपक्रम और उदय इन चार अनुयोगद्वारों पर एक इस निरुक्ति के अनुसार जो जिसमें सम्बद्ध होता है, उसे अज्ञातकर्तृक पंजिका भी उपलब्ध है। यह पजिका भी निबन्धन स्वरूप से ग्रहण किया गया है। जैसे-चक्षु उक्त अनुयोगद्वारो के साथ १५वी जिल्द के अन्त मे इन्द्रिय चूंकि रूप विषय में सम्बद्ध है, अतः चक्षु का प्रकाशित की जा चुकी है। इस पंजिका मे प्रायः अल्प- निबन्धन रूप होता है३ । यद्यपि इस अनुयोगद्वार में जीवबहुत्व से सम्बद्ध कुछ विशेष प्रकरणों का ही स्पष्टीकरण पुद्गलादि छहों द्रव्यों के निबन्धन की प्ररूपणा की जाती किया गया दिखता है । पंजिका की उत्थानिका में पंजिका- है, तो भी यहां अध्यात्मविद्या का अधिकार होने से केवल कार ने लिखा है१ मूल और उतर कर्म प्रकृतियों के ही निबन्धन की प्ररूपणा महाकर्मप्रकृतिप्राभृत के कृति-वेदनादि २४ अनु- की गई है। । जैसे-ज्ञानावरण के निबन्धन की प्ररूपणा योगद्वारों में कृत्ति और वेदना अनुयोगद्वारों की वेदना करते हुए यह कहा गया है कि ज्ञानावरण सब द्रव्यों में खण्ड में; स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्धन अनुयोगद्वार के निबद्ध है, न कि सब पर्यायों मे५ । अभिप्राय इसका यह अन्तर्गत बन्ध एवं बन्धनीय अनुयोगद्वारों की वर्गणाखण्ड है कि ज्ञानावरण की पाच प्रकृतियों में केवलज्ञानावरण में; बन्धविधान की महाबन्ध में; तथा बन्धक अनुयोग का व्यापार मब द्रव्यों में है और शेष मतिज्ञानावरणादि द्वार की क्षद्रकबन्ध खण्ड में विस्तार से प्ररूपणा की गई चार प्रकृतियों का व्यापार उन द्रव्यों की समस्त पर्यायों है। इसलिए इनको छोड़कर शेप मब अठारह अनुयोग- में न होकर कुछ ही पर्यायों में होता है। हारों को प्ररूपणा सत्कर्म में की गई है। फिर भी उसके ८. प्रक्रम-'प्रक्रामति इति प्रक्रमः' इस निरुक्ति के प्रतिशय गम्भीर होने से यहाँ उसके विषम पदों के अर्थ प्रनमार यहां जो कार्मण पुदगलों का ममूह अपना कार्य का व्याख्यान पजिकाररूप से किया जाता है। उन अठारह करने में प्रकर्ष में समर्थ होता है वह विवक्षित है। इस अनुयोगद्वारों का विषय परिचय सक्षेप में इस प्रकार है- अधिकार मे अकर्म स्वरूप से स्थित जो कार्मणवर्गणास्कन्व ७. निबन्धन-निबन्धन का अर्थ कारण या निमित्त मूल-उत्तर प्रकृतियों के स्वरूप से परिणत होते हुए प्रकृति, होता है, परन्तु यहां 'निबध्यते तत् अस्मिन् इति निबन्धनम्' स्थिति और अनुभाग की विशेषता से विशेषता को प्राप्त होते हैं उनके प्रदेशों की प्ररूपणा की गई है। प्रकर्म से १. महाकम्मपयडिपाहुइस्स कदि-वेदणामो [इ] चउव्वीममणियोगहारेसु तत्य कदि-वेदणा त्ति जाणि ३. णिबधण मूलुत्तरपयडीणं णिबधणं वण्णेदि। जहा प्रणियोगद्दाराणि वेदणाखडम्मि, पुणो य [पस्स __चक्खिदिय रूवम्मिणिबद्ध, सोदिदिय सम्मि णिबद्धं, कम्म पयडि बधण ति] चत्तारिमणियोगद्दारेसु तत्थ धाणिदिय गम्मिणिबद्ध, जिभिदियं रसम्मि णिबद्ध, बध-बंधणिज्जाणमणियोगेहि सह वग्गणाखडम्मि, पासिदियं कक्खदादिपासेसु णिबद्धं; तहा इमानो पृणो बधविधाणणामाणियोगद्दारो महाबधम्मि, पुणो पयडीयो एदेमु प्रत्येसु णिबद्धामो ति रिणबधणं परूबंधगाणियोगो खुद्दाबधम्मि च सप्पवचेण परूविदाणि। वेदि, एसो भावत्यो । धवला पु. ९ पृ. २३३ । पृणो तेहितो सेसेटारसागियोगद्दाराणि संतकम्मे ४. एद णिबधणाणियोगद्दारं जदि वि छण्णं दवाणं णिसव्वाणि परविदाणि । तो वि तस्साइगभीरत्तादो बंधणं परूवेदि तो वि तमेत्थ मोत्तण कम्मणिबंधण प्रत्थविसमपदाणमत्थे थोरुत्थयेण पजियरूवेण भणि- चेव घेतब्वं, प्रज्झप्पविज्जाए अहियारादो। (सतस्सामो। सतकम्मपजिया (धवला पु. १५) पृ १। कम्म) धवला पु. १५ पृ. ३। २. जिसमे पदविभाग के साथ अर्थ का स्पष्टीकरण ५. तत्थ णाणावरण सव्वदम्वेसु णिबद्धं, णो सम्वपज्जाकिया जाता है वह पजिका कहलाती है । यथा एसु ॥१॥ धवला (संतकम्म) पु. १५ पृ ४। कारिका स्वल्पवृत्तिस्तु सूत्र सूचनकं स्मृतम् । ६. यह अनुयोगदार धवला पु. १५ पृ. १-१४ मे प्ररूटीका निरन्तरं व्याख्या पंजिका पदभंजिका ॥ पित है। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पदसण्डायम और शेष १८ अनुयोगहार २७ कर्म की उत्पत्ति कैसे होती है, इस प्रसंग को पाकर यहां भी प्राप्त होता है, उसे अनुभागमोक्ष जानना चाहिए। प्राचार्य वीरसेन ने कारण-कार्य का विस्तार से विवेचन मध.स्थिति के गलने से जो कर्मप्रदेशों की निर्जरा होती करते हुए पाप्तमीमांसा की ४१, ५९-६०, ५७ और है अथवा उनका जो अन्य प्रकृतियों में संक्रमण होता है, से १४ कारिकामों का अनुसरण करके अन्त में कयचित् इसे प्रदेशमोक्ष कहा जाता है। इन मोक्षभेदों में प्रत्येक सदादिरूप सप्तभंगी की योजना की है। के जो देशमोक्ष और सर्वमोम के भेद से दो भेद तथा . उपक्रम-इम अनुयोगद्वार मे बन्धनोपक्रमर, उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट मोक्षादि के भेदमे अन्य भी जो पार भेद उदीरणोपक्रम ३, उपशामनोरक्रमा और विपरिणामोप- होते हैं उन सभी की इस अनुयोगद्वार मे प्ररूपणा की क्रम५ ये चार अधिकार हैं। इनमें बन्धनोपक्रम में बन्धके गई है। द्वितीय समय से लेकर प्राठों को के प्रकृति, स्थिति. १२. संक्रम-सक्रम से यहा कर्मसंक्रम की विवक्षा अनुभाग और प्रदेश इनके बन्ध की प्ररूपणा की गई है। है। वह प्रकृतिमक्रम पादि के भेद से चार प्रकारका है। उदीरणोपक्रम में उन्ही चारों को उदीरणाका विचार उनमे प्रकृति जो अन्य प्रकृति रूप से परिणत होती है, किया गया है। उपशामनोपक्रम में प्रकृति प्रादि के भेद इसका नाम प्रकृतिसंक्रम है। यह प्रकृतिसक्रम मूल प्रकसे चार भेदों में विभक्त प्रशस्त और प्रशस्त उपशाम- तिया म कमा भा नहा हाता है। उत्तर प्रकतिया मम नामो का विवेचन है। तथा विपरिणामोपक्रम में उक्त दर्शनमोहनीय कभी चारित्रमोहनीयरूप और चारित्रमोहप्रकृति व स्थिति पादि को देशरूप व सकलरूप निर्जरा नीय कभी दर्शनमोहनीयका परिणत नही होती है । इसी की प्रकपणा की गई है। प्रकार चार प्रायु कर्मों में भी परस्पर सक्रमण नहीं होता। १०. उपय-इस अनुयोगद्वार में मूल और उत्तर प्रकृत उत्तरप्रकृतिसंक्रम का विवेचन यहाँ स्वामित्वादि प्रकृतियों के पाधार से स्थिति, मनभाग और प्रदेश के अधिकारों के द्वारा किया गया है। उदय का-वेदन का-विचार किया गया है। स्थितिसक्रम मूल व उत्तर प्रकृति के भेद से दो ११. मोश-मोज मे यहा कममोक्ष अभिप्रेत है। प्रकारका है। इनमे जो स्थिति अपकर्षण या उत्कर्षण वह चार प्रकार का है-प्रकृतिमोक्ष, स्थितिमोक्ष, अनु- को प्राप्त कराई जाती है पयवा अन्य प्रकृतिरूप भी परिभागमोक्ष और प्रदेशमोक्ष । इनमे प्रकृति जो निर्जरा को ण करायी जाती है, इसका नाम स्थितिसक्रम है। प्राप्त होती है अथवा अन्य प्रकृतिरूप परिणत होती है, इसी प्रकार जो अनुभाग भी अपकर्षण या उत्कर्षण को उसका नाम प्रकृतिमोक्ष है। स्थिति जो अपकर्षण, उत्कर्षण प्राप्त कराया जाता है यथवा अन्य प्रकृतिरूप संक्रान्त प्रथवा मक्रमण को प्राप्त होती है या अब स्थिति के गलने किया जाता है उसे अनुभागसक्रम जानना चाहिए। में निर्जरा को भी प्राप्त होती है, उसे स्थितिमोक्ष कहते प्रदेशपिण्ड जो अन्य प्रकृतिरूप परिगत होता है वह प्रदेशहैं । अनुभाग जो अपकर्षण, उत्कर्षण अथवा संक्रमण को संक्रम कहलाता है। यह प्रदेशसंक्रम मूल प्रकृतियों नहीं प्राप्त होता है या अध.स्थिति के गलन से निर्जरा को होता । उत्तर प्रकृतियों में होने वाला प्रदेशसक्रम उदलन------ --- - -- संक्रम, विध्यातसंक्रम, प्रवःप्रवृत्तसक्रम, गुणसंक्रम पौर १. धवला पु०१५पृ. १५-४०। सर्वसंक्रम के भेद से पांच प्रकारका है। इन पांचों की २. धवला पु०१५ पृ० ४२-४३ । ३. धवला पु०१५ पृ० ४३-२७५ । ७. इस अनुयोगहार की प्रस्मणा पवला पु०१६, पृ० ४. धवला पु. १५ पृ० २७५-१२ । २३७-३८ में देखिए। ५, पवला पु०१५ पृ० २८२-८४ । ८. देखिये धवला पु० १६ पृ० ३३६-४७ । ६. धवला पु० १५ १० २८५-३३६ मे इसकी प्ररूपणा ६.धवला पु०१६ पू०३४७-७४ । की गई है। १०.धवला पु० १६ पृ० ३७४.४०५। Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनेकान्त बोर यहां प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार से यहां अन्य प्रवृत्ति होती है उसे लेश्याकर्म कहते हैं। प्रस्तुत अधिकार भवान्तर अधिकारों के द्वारा संक्रम की प्ररूपणा विस्तारसे में पृथक-पृथक कष्णादि लेश्यामों के निमित्त से होने की गई है। वाली इस प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। १३. लेश्या-द्रव्य और भाव के भेद से लेश्या दो १५. लेश्यापरिणाम-कौन-सी लेण्यायें किस वृद्धि प्रकारको है। उनमें चक्षु इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य अथवा हानि के द्वारा किस स्वरूप से परिणमन करती हैं, जो शरीरात्मक पुद्गलस्कन्धों का वर्ण होता है उसका । इसका विवेचन प्रस्तुत अनुयोगद्वार में किया गया है। नाम द्रव्यलेश्या है। वह कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पप जैसे-कृष्णलेश्यावाला जीव यदि सक्लेश को प्राप्त और शुक्ल के भेद से छह प्रकारकी है। होता है तो वह अन्य किसी लेश्यारूप परिणत नही होता इस प्रसंग में यहा चारों गतियों के जीवों में से किनके है। किन्तु अपने स्थान मे ही-कृष्णलेश्या में ही-प्रवकौन-सी द्रव्यलेश्या (शरीर का वर्ण) होती है, इसका स्थित रहकर अनन्तभागवृद्धि आदि के द्वारा वृद्धिगत संक्षेप से कथन करते हए यह शंका उठाई गई है कि जब होता है । इसके विपरीत यदि वह विशुद्धि को प्राप्त होता शरीररूप पुद्गलों में अनेक वर्ण उपलब्ध होते है तब है तो वह अपने स्थान में प्रवस्थित रहकर अनन्तभागअमुक जीवके यही द्रव्यलेश्या होती है, यह कैमे कहा जा हानि प्रादि के द्वारा हीनता को प्राप्त होता है तथा सकता है ? उत्तर में यह कहा गया है कि विवक्षित शरीर अनन्तगुणी हानि के साथ नीललेश्या स्वरूप से भी परिणत में अनेक वर्गों के होने पर भी एक वर्ण की प्रमुखता से होता है । इस प्रकार से यहा प्रत्येक लेश्या के प्राथय से उस प्रकार की लेश्या कही जाती है। इसी प्रसंग में विव- उसके परिणमन का विचार किया गया है। क्षित लेश्यायुक्त जीव के शरीरगत जो अन्य अनेक वर्ण १६. सात-प्रसात-इस अनुयोगद्वार मे समुत्कीर्तना, होते हैं, उनके अल्पबहुत्व का भी निर्देश किया गया है। प्रर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व; इन पाच जैसे-कृष्णलेश्या युक्त द्रव्यके शुक्ल गुण सबमें अल्प, हारिद्र अधिकारोंके द्वारा एकान्तसात, अनेकान्तसात, एकान्तप्रसात गुण उनसे अनन्तगुणे, लोहित गुण उनसे अनन्तगुणे, नील और अनेकान्तप्रसात इनकी प्ररूपणा की गई है । जो कर्म गुण उनसे अनन्तगुणे और काले गुण उनसे अनन्तगुणे सातास्वरूप से बांधा गया है उसका प्रक्षेत्र से रहित होकर होते हैं; इत्यादि। सातास्वरूपसे ही वेदन होना, इसका नाम एकान्तसात है और मिथ्यात्व, प्रसयम, कषाय और योगसे जनित जो इससे विपरीत अनेकान्तसात है। इसी प्रकार असातास्वजीव का संस्कार; अर्थात् मिथ्यात्वादि से अनुरंजित, जो रूप से बांधे गये कर्म का असातास्वरूप से ही वेदन होना कर्मागमन की कारणभूत योगों की प्रवृत्ति होती है, एकान्त-प्रसात और उससे विपरीत अनेकान्त-सात जानना उसका नाम भावलेश्या है। उसमे तीव्र सस्कार का नाम चाहिए । कापोतलेश्या है। तीव्रतर संस्कार का नाम नीललेश्या १७. दीर्घ-हस्व-दीर्घ और ह्रस्व मे से पृथक्और तीव्रतम सस्कार का नाम कृष्णलेश्या है। मन्द पृथक प्रत्येक प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद सस्कार का नाम तेजोलेश्या, मन्दतर का नाम पालेश्या से चार-चार प्रकारका है तथा इनमें भी प्रत्येक मूल और और मन्दतम का नाम शुक्ललेश्या है। इस भावलेश्या उत्तर प्रकृति के भेद से ० दो दो प्रकारका है। इन सब में भी उक्त प्रकार से तीव-मन्दता का अल्पबहुत्व निर्दिष्ट का विचार इस अनुयोगद्वार मे बन्ध, सत्त्व और उदय की किया गया है। अपेक्षा से किया गया है। उदाहरणार्थ पाठो प्रकृतियो के १४. लेश्याकर्म-उपयुक्त कृष्णादि भावलेश्यामों बधने पर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कम के बधने पर नोके निमित्त से जो जीव की मारण आदि क्रियाओं मे ३. धवला पु० १६ पृ० ४६०-६२ । १. धवला पु०१६ पृ० ४०८-८३ । ४. धवला पु. १६ पृ० ४६३-६७ । २. धवला पु० १६ पृ० ४८४-८६ । ५. धवला पु. १६ पु० ४६८-५०६ । Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पखण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार २५६ प्रकृतिदीर्घ होता है। यही अवस्था सत्त्व व उदय के स्वरूप होता है। तदनुसार पुद्गलोंके वृद्धि व हानिको प्राप्त पाश्रय से भी होती है। उत्तर प्रकृतियों में भी यथायोग्य होने वाले रूप-रसादि को जो अवस्था होती है उसे भी यही क्रम जानना चाहिए। पुद्गलात्त कहा जाता है। इन सबकी प्ररूपणा प्रकृत अनु१५. भवधारणीय-पोष, मादेश और भवग्रहण के योगद्वार में की गई है। भेद से भव तीन प्रकारका है। इनमे पाठ कर्म और २०. निषत्त-अनिषत्त-जो कर्मप्रदेशाग्र न उदय में उनके निमित्त मे उत्पन्न जीव के परिणाम का नाम दिया जा सकता है और न अन्य प्रकृतिरूप परिणत कराया ग्रोधभव तथा चार गति नामकर्मों और उनके निमित्त से जा सकता है उसका नाम निधत्त है। प्रनिधत्त इसके उत्पन्न जीव के परिणाम का नाम आदेशभव है जो नार- विपरीत होता है। इनमे प्रत्येक प्रकृति प्रादि के भेद से कादि के भेद से चार प्रकारका है। जिस जीव की भुज्य- चार-चार प्रकारका है। इनका विवेचन इस अनुयोगद्वार मान आयु निर्जीर्ण हो चुकी है तथा अपूर्व प्रायु उदय में किया गया है।। को प्राप्त है उसके इस अपूर्व प्रायु के उदय के प्रथम २१. निकाचित-अनिकाचित-जो कर्मप्रदेशाग्र अपममय मे जो परिणाम होता है वह भवग्रहणभव कहलाता कर्षण, उत्कर्षण व अन्य प्रकृतिरूप परिणमण करने में है, जो 'व्यजन' नाम से प्रसिद्ध है। अथवा, पूर्व शरीर तया उदय मे देने के लिए समर्थ नहीं होता है उसे निषत्त का परित्याग करके जो उनर शरीर को ग्रहण किया और इससे विपरीत को प्रनिधत्त कहा जाता है। ये जाता है उसे भी भवग्रहणभव कहा जाता है। प्रकृत मे प्रत्येक प्रकृति प्रादि के भेद से चार प्रकारके हैं। प्रकृत यही भवग्रहण विवक्षित है। इस भव का धारण ज्ञाना- अनुयोगद्वार में इन सबका विचार किया गया है। वरणादि अन्य कर्मों को छोडकर एक मात्र इस भव २२. कर्मस्थिति-प्राचार्य नागहस्ती क्षमाश्रमण के मम्बन्धी आयु कर्म के द्वारा होता है। मतानुसार जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की १९. पुद्गलात्त-'पुद्गलात्त' में जो 'प्रात्त' शब्द प्ररूपणा का नाम कर्मस्थितिप्ररूपणा और प्राचार्य प्रार्यहै उसका अर्थ गहीत होता है। तदनुसार पुदगलात्त से मंक्षु क्षमाश्रमण के मतानुसार कर्मस्थिति के भीतर संचित अभिप्राय ग्रहण (प्रात्माधीन) किये गये पुद्गलों का है। कर्म के सत्त्व की प्ररूपणा का नाम कर्मस्थितिप्ररूपणा ये पुद्गल छह प्रकार में पान्माधीन किये जाते है-ग्रहण हैं। इस कर्मस्थिति की प्ररूपणा प्रकृत अनुयोगद्वार में की मे, परिणाम से, उपभोग मे, पाहार से, ममत्तोसे और २३. पश्चिमस्कन्ध-इस अनुयोगद्वार में प्रकृति, परिग्रह से । १. हाथ प्रादि के द्वाग जो दण्ड आदि पुद् स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के प्राश्रय से अन्तिम भव में गल ग्रहण किये जाते है 4 ग्रहणत प्रात्त पुद्गल है। वर्तमान जीवके ममस्त कर्मोंकी बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, - २ मिथ्यान्वादि परिणामो के द्वारा जो पुद्गल गृहीत उदीमार्गणा, सक्रममार्गरणा, और सत्कर्म मार्गणा इन होते है वे परिणाम से प्रात्त पुद्गल कहलाते है। ३. पांच की प्ररूपणा की जाती है, ऐमा निर्देश करके व पान आदि रूप जो पुद्गल ग्रहण किय जात ह अन्तिम भव मे सिद्ध होने वाले जीव की अन्तमुहर्त मात्र उन्हे उपभोगत. प्रात्त जानना चाहिए । ४. भोजन-पानादि मायुके शेप रहने पर जो जो क्रियाये-पावजित करण व की विधि से गहीत पुदगल पाहारत: प्रात्त पुद्गल माने केवलिसमृद्घात प्रादि अवस्थायें होती हैं उनकी प्ररूजाते है। ५ जो पुद्गल अनुराग के वश गृहीत होते है वे पणा की गई है। ममत्तीसे प्रात्त कहे जाते है । ६. जो पुद्गल अपने माधीन ३. धवला पु० १६ पृ० ५१४-१५ । होते है वे परिग्रह से प्रात्त पुद्गल है । ४. धवला पु० १६ पृ० ५१६ । अथवा प्राकृत मे 'प्रत्त' शब्द का अर्थ प्रात्मा या ५. धवला पु. १६ पृ० ५१७ । १. धवला पु० १६ पृ० ५०७-११ । ६.धवला पु०१६ पृ० ५१८ । २. धवला पु० १६ पृ० ५१२-१३ । ७. धवला पु० १६ पृ० ५१९-२१ । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त २४. अल्पबहुत्य-इस अनुयोगद्वार में नागहस्ती इसके पश्चात् वहां पूर्व प्ररूपित लेश्या मादि अनुभट्टारक सत्कर्मका अन्वेषण करते हैं, यह निर्देश करते हुए योगद्वारों के पाश्रय से क्रमशः कुछ विशेष प्ररूपणा करते उनके उपदेश को प्राचार्यपरम्परागत बतलाया गया है। हुए अन्त में यह कहा गया है कि महावाचक क्षमाधमण तद्नुसार सत्कर्म की प्ररूपणा करते हुए उसके प्रकति- इस मल्पबहुत्व अनुयोगद्वार में सत्कर्म का मार्गण करते सत्कर्म, स्थितिसत्कर्म, अनुभागसत्कर्म और प्रदेशसत्कर्म हैं। तदनुसार यहां उत्तरप्रकृतिसत्कर्म के प्राथय से इन चार भेदों का निर्देश करके उनके स्वामी प्रादि की विविध दण्डक किये गये हैं। पृथक पृथक् प्ररूपणा की गई है। १. धवला पु० १६१०५२२-६३ । समय और साधना साध्वीश्री राजीमतोजी समय साधना का मूल तो नही किन्तु मूल की सकता है कि दोनों ममय लेकर पकते है किन्तु एक पकने सहायक सामग्री अवश्य है। जो समय का मूर्ख है वह सदा के बाद खत्म होता है और एक बनता है। दरिद्र रहता है; क्योकि साधना, अभूत कलपना नही, शास्त्रीय भाषा मे स्थिति पाक ही स्थायी तथा वास्तविक धरती का स्पर्श है । स्पर्श के लिए चाहिए अह चमत्कारिक निष्पत्तियों का कारण है। क्या समय और की दुर्भय दीवार को तोड़कर स्व प्रवेश (बाहर और संकल्प को संसार की महानता उपलब्धियों का कारण भीतर) यह प्रवेश पौर निर्गमन अभ्यास-काल में समय इसी आधार पर नहीं माना गया है ? हर सफलता के मापेक्ष होता है। स्वाध्याय के बाद ध्यान होता है, किन्तु पीछे समय की शर्त है । शिशु-शरीर का जिस मन्थर गति ध्यान के बाद स्वाध्याय नहीं क्रिया से प्राचार शिथिल से विकास होता है, उसी मूक्ष्म गति से वाणी और होता है, किन्तु समय अनियत्रितता और उसके लंघन से चिन्तन मे स्फूरणा पाती है। इसके बिना न नवीनता है एक क्षण के बाद पाने वाले सुपरिणाम को कई वर्ष लग न प्राचीनता और न ह्रास के लिए विकाम है और न जाते हैं। उचित काल, विचारो की कुण्ठा, शारीरिक विकासके लिए ह्रास है। मानव जीवन को समग्र सामथ्र्यपालश्य तथा मानसिक अरुचि पर गहरा प्रभाव डालना शक्ति सम्भावनायो की साधिका काल की कृपा है। सारा है। जैनाचार्यों ने काल को स्वतन्त्र द्रव्य नही माना, चराचर जगत इसी कालचक्र की परिक्रमा किए चलता क्योंकि इसमें स्वत. प्राप्त द्रव्यत्व-नहीं है। इसकी द्रव्य है। संख्या में परिगणना 'उपकारकं द्रव्यं' इस आधार पर हुई महाबीर साधक थे। उन्होंने बारह वर्ष और तेरह है। निष्कर्ष यह हुआ कि काल हमारा उपकार करता है पक्ष तक साधना की। इस लम्बी अवधि के बाद उन्हें और अकाल अपकार । कच्ची औषधि, कच्चा पारा और अात्म साक्षात हुमा जैन पागम पाचाराग में श्रमण के कच्चा फोड़ा स्वयं मे कितना भयकर होता है। यह लिए समयण्णे और कालण्णे दो विशेषण प्रयुक्त हुए है। अनुभव प्रसिद्ध है। साधना, चैतन्य जागरण का नाम है, जिनका अर्थ है समाधि के लिए समय की पाबन्दी काल जिसे लम्बी थपथपी के बाद ही जगाया जा सकता है। शब्द समाधि के अर्थ-मे प्रयुक्त होता है। जैसे "कालस्स कच्चे फल और कच्ची साधना में इतना ही अन्तर हो कंखाए विहरेज मेहावी"-मुनि समाधि के लिए विहरण Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करे । असमय में घूमने वाले मुनि के चारित्र मे असमाधि असमाधि तथा प्रात्म-हनन होता है। वर्तमान मनोविज्ञान पैदा होती है। एक बार एक मुनि अकाल में भिक्षा लाने का सिद्धान्त यह है कि हम चेतन मन की सहायता से गया। वह बहुत घरों में घूमा किन्तु भिक्षा नहीं मिली। समय के पाबन्द नही हो सकते ; क्योंकि हमारी प्रव्यक्त वापिस जा रहा था। रास्ते में काल चारी मुनि मिला। चेतना शक्ति (प्रवचेतनमन) जैसा करवाती है, वैसा हम उसने पूछा-खाली कैसे ? भिक्षा नही मिली इधर? करते हैं । ९९ प्रतिशत कार्य इसी अव्यक्त प्रेरणा से होते उसने घृणा के स्वर में कहा-यहा भिक्षा क्या मिले? हैं। अपेक्षा है-विभिन्न सुझावो तथा स्वतः सूचना विधि यह तो भिखारियों का गाव है। इस प्रकाल चारी मूनि बहुन वार जिस समय हम उठना चाहते है, उस समय की उक्ति और अमन्तोषभरी वाणी को सुनकर वह बोला उठ नहीं सकते, क्या इसके पीछे हमारे अन्तर की कोई मुने! अपनी गल्ती से औरों को बुरा भला कहना पाप है मजबूरी नहीं बोल रही है ? मेरे विचारो के अनुसार गल्ती तुम्हारी है। मुनि ने इस प्रमग में एक शिक्षा पद महान् साधना के लिए समय का अनुशासन हमे स्वीकार भी कहा होता है क्योंकि समय की नियामकता में हम साधना के अकाले चरसि भिक्खू काल न पडिलेहसि । बन्द द्वारो को खोल सकते है। अकाल मे ज्ञान दर्शन और अप्पाणं च किलोमेसि सन्निवेस च गरहसि ॥ चारित्र का अभ्यास करना निपिद्ध है किसी जिज्ञासु मुनि भिक्षा के समय (गृहस्थ याद करे) तुम घरों मे जाया ने गुरु से पूछा-भन्ते ! यदि ज्ञान मोक्ष प्राप्ति म सहाकरो। तुम्हारा भी कार्य होगा और गृही वर्ग को भा यक हो तो उमको आराधना में प्रतिबन्ध क्यो ? गुरुतुम्हे नही मिलने में होने वाला कोश नही होगा। प्राचान शिष्य ! देह धारण के लिए ग्राहार आवश्यक है, और जैन व्याख्या ग्रन्थों में इस बात पर विशेष बल दिया है मोक्ष प्राप्ति के लिए देह-धारण पावश्यक है। किन्तु माहार कि मुनि ऐमे ग्रामो और नगरों में न रहें जहा कि स्थडिन कालए अकाल चाग बनना भगवान् ने अप्रशस्त बताया भूमि और भिक्षा के पर अधिक दूर हो । ऐसा होने से माननी है। बिहार चर्या मुनि के लिए विहिन है किन्तु वर्षावास मे "पडिम पोरिपिज्झाय' इसमे बाचा पाती है। तास्पो चलना निषिद्ध है। ऋतु बद्ध चर्या-प्रशस्त है, मुनि दिन में मुनि के लिए पारणक काल में इतनी दूर जाने और स्थान चले, किन्तु केवल तीसरे पहर म। प्रथम दो प्रहरपर भोजन लाकर खाने में बड़ो कठिनाई होती है। स्वाध्याय, ध्यान के लिए है, तथा अन्य पात्मिक विशिष्ट प्रत काल का निर्णय माधना में सबसे प्रथम करना क्रियामो के लिए। प्रथम पहर की उपयोगिता तो प्राज चाहिए। विक्षिप्त मानस नियन्त्रण नहीं चाहता। इस भी प्रतीत होती है। पता नही प्रथम प्रहर में विहार लिए कभी-कभी मन और इन्द्रियों में अधिक जकडन हो करन का यह परम्परा किम जैन मनीषी ने किस महान जानी है किन्तु जिस साधक का लक्ष्य स्वय को पाना है उद्देश्य के लिए प्रारम्भ की जिमके कुछ कट परिणाम वहा अवश्य इस प्राचीरको तोड़कर अन्दर घुमना चाहेगा। हम भा भुगतन पड़ रह है। याद उस समय तक ध्यान भेद, विज्ञान, प्रात्मबोध तथा सम्भाव, ममय की उपज परम्परा सुव्यवस्थित ढंग से चालू होती तो सा नह तो नहीं किन्तु समय के निमित्त को पाकर फलने वाली होता । संभव है कि यह विधि जिन कल्पिक मुनियों व साधना है । तत्त्वतः सकल्प नहीं फलता, फलती साधना लिए ही विहित हो, परन्तु इसका स्पर्श दूसरी परम्परा मर्वथा नहीं था, ऐमा नही जचता। प्राचीन उग्र विहा है। लम्बे समय तक अपने कर्म सकल्पो को दोहराते रहना की मर्यादा मीलों और कोमो पर नही थी। उग्र विहा ही साधना है। शास्त्रों मे अमुक क्रिया को अमुक समय का अर्थ था-सयम और तप से स्वयं को विशेष भावि' पर ही करने का विधान है। क्रिया-व्यत्यय मे प्रबोधि करते रहना । विहार चर्या का नाम ही उग्र विहार था १. यह कथन श्वेताम्बर परम्परा से सम्बन्ध रखता है। वर्तमान मुनियो की सहनन दुर्बलता, भिक्षा सुलभता तर -सम्पादक लम्बे विहारो की परम्परा से इतना महान् परिवर्तन हु ---- ---- Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ अनेकान्त है। इस प्रकार कम से कम काले-काले सभा भरे, इस मलाशय तथा मूत्राशय पर भार रहता है। शुद्ध प्राण काल समाचारी की पूर्ण पाराधना नही हो पाती । सूत्र बाय का पर्याप्त प्रात्मीकरण फिर दिन भर में नहीं किया कतांग में लिखा है-मुनि दैनिक कार्य नियत सभय जा सकता। इस प्रकार अनेक बाह्य कारण हैं, जिनका पर करे । समय बदलने से बुभुक्षा के पूर्व खाने से अजीर्ण संयमी जीवन के निर्वाह के लिए पालन करना जरूरी है। होता है तथा अधिक विलम्ब करने से बात दोष बढ़ता है। प्राध्यात्मिक दृष्टि से समय पलटने से दिन भर की धीरे-धीरे पाचक-अग्नि मन्द पड़ जाती है। क्रियाए पहले पीछे हो जाती है। पागम अथो में आवश्यक पाणं पाण काले-पानी के समय पानी पीए। बहुत क्रियाओं के (छह आवश्यक) नियमित करने का महान् जल्दी पानी पीने से प्रामाशय की क्रिया (घोल) व्यव- पुण्य फल बताया है। तीर्थकर नामकर्म प्रकृति बन्धन के स्थित नहीं होती। अधिक समय तक पानी नहीं पीने से बीस कारणों मे काल समाचारी एक कारण है। जब तक मलावरोध तथा पित्त प्रकोप हो जाता है। प्रात्मानुशासन जागृत नही, तब तक परानुशासन (समय ___वत्थं वत्थ काले-वस्त्र जीर्ण होने पर नये वस्त्रों का कठोर नियंत्रण) अपेक्षित है। सघीय व्यवस्थाएं इसी को धारण करे । अथवा-ऋतु भेद से अचेल और सचेल आधार पर जन्म लेती है। बढ़ते हुए पात्म जागरण के धर्म को स्वीकार करे। सयणं-सयण काले-जल्दी सोने प्रभाव में ये ही विधि-विधान, चेतना शील प्राणी के साथ और जल्दी जागने से ब्रह्मचर्य की साधना में बहुत सहा- जड़ता का सम्बन्ध स्थापित करते है, अतः प्रत्येक साधक यता मिलती है। भोजन करने के नियमित तीन घण्टा का यह परम लक्ष्य होना चाहिए कि मुझे जल्दी-संपिबाद सोने से वीर्य वाहिनी नाड़ियो पर दबाव कम रहता क्खए अप्पग मप्पएण-मात्मा से प्रात्मा को पहचानना है। और वीर्य के बनने और पचने में सुविधा होती है। है। यही सत्य के साक्षात् का पुनीत-प्रशस्त पथ है। इस यह क्रम रात्रि को भोजन नहीं करने वालों के लिए व्यव- पथ तक पाने के लिए समय का नियंत्रण सर्वथा मान्य स्थित चल सकता है। प्रातः देरी से उटने से शुक्राशय, होना चाहिए। मनोनियंत्रण अनेकान्तात्मार्थ प्रसवफलभारातिविनते, बचः पर्णाकोणे विपुलनयशाखा शतयुते । समुतुङ्गे सम्यक् प्रततमतिमूले प्रतिदिनं, श्रुतस्कन्धे धीमानमयतु मनोमर्कटममुम् ॥१७०॥ -प्रात्मानुशासनम् अर्थ-जो श्रुतस्कन्धरूप वृक्ष अनेक धर्मात्मक पदार्थरूप फूल एवं फलो के भार से अतिशय झुका हुआ है, वचनों रूप पत्तों से व्याप्त है, विस्तृत नयो रूप सैकड़ों शाखायो से युक्त है, उन्नत है, तथा समीचीन एव विस्तृत मतिज्ञानरूप जड़ से स्थिर है उस श्रुतस्कंधरूप वृक्ष के ऊपर बुद्धिमान साधु के लिए अपने मनरूपी बन्दर को प्रतिदिन रमाना चाहिए। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रमण संस्कृति के उद्भावक ऋषभदेव परमानन्द शास्त्री मंस्कृति शब्द अनेक अर्थों में रूढ है, उनकी यहां कर तपश्चरण करते हैं, प्रात्म-साधनों में निष्ठ, मोर विवक्षा न कर मात्र संस्कारों का सुधार, शुद्धि, सभ्यता, ज्ञानी एव विवेको बने रहते हैं, (धामयन्ति ब्राह्माभ्यन्तरं आचार-विचार और सादा रहन-सहन विवक्षित है। भारत तपश्चरन्तीति श्रमणः) जो शुभ क्रियायों में, अच्छे बुरे मे दो सस्कृतिया बहुत प्राचीन काल से प्रवाहित हो रही विचारों में, पुण्य-पापरूप परिणतियो मे तथा जीवन-मरण, हैं। दोनों का अपना अपना महत्व है ही, फिर भी दोनों सुख-दुख मे और प्रात्म-साधना से निष्पन्न परिस्थितियों में हजारों वर्षों से एक साथ रहकर भी महयोग और विरोध रागी द्वेषी नही होते प्रत्युत समभावी बने रहते है, वे को प्राप्त होती हुई भी एक दूसरे पर प्रभाव अवित किये श्रमण कहलाते है। हुए हैं। इनमें एक सस्कृति वैदिक और दूसरी प्रवैदिक जो सुमन हैं-पाप रूप जिनका मन नहीं है, स्वजनों है। वैदिक संस्कृति का नाम ब्राह्मण सस्कृति है। इस पार सामान्यज होम और सामान्यजनो मे जिनकी दृष्टि समान रहती है। जिस मस्कृति के अनुयायी ब्राह्मण जब तक ब्रह्म विद्या का अन- तरह दुख मुझे प्रिय नही है, उसी प्रकार ससार के सभी प्ठान करते हुए अपने आचार-विचागे में दृढ़ रहे तब तक जीवो को प्रिय नहीं मो मकना। जो न स्वय मारते हैं और उममे कोई विकार नहीं हुमा; किन्तु जब उनमे भोगेच्छा न दूसरों को मारने की प्रेरणा करते हैं। किन्तु मानऔर लोकेषणा प्रचुर रूप मे घर कर गई तब वे ब्रह्मविद्या अपमान में समान बने रहते है, वही सच्चे श्रमण हैं। को छोड़ कर शुष्क यज्ञादि क्रियाकाण्डों में धर्म मानने लगे, प्राचार्य कुन्दकुन्द ने लिखा है कि जो श्रमण शत्रु नब वैदिक सस्कृति का ह्रास होना लुरू हो गया। और बन्धुवर्ग मे समान वृत्ति है, सुख-दुख मे समान है, दूसरी सस्कृति अवैदिक है उसका नाम श्रमण मस्कृति निन्दा-प्रशंमा मे समान है, लोह और कांच में समान है, है। प्राकृत भापा मे इसे समन कहते है और संस्कृत में जीमन-मरण मे समान है, वह श्रमण है। जैसा कि निम्न श्रमण । समन का अर्थ समता, राग-द्वेष से रहित परम गाथा से स्पष्ट हैशान्त अवस्था का नाम समन है। अथवा शत्रु-मित्र पर समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुग्यो पसंसनिव-समो। जिसका समान भाव है ऐसा साधकयोगी समण या श्रमण समलोट्ट कचणो पुण जीविय मरणे समो समणो॥ कहलाता है। 'श्रमण' शब्द के अनेक अर्थ है, परन्तु उन (प्रव० ३.४१) सभी प्रर्थो की यहा विवक्षा नही है, किन्तु यहां उनके जो पाच समितियों, तीन गुप्तियो तथा पाच इन्द्रियों दो प्रर्थों पर विचार किया जाता है। थम धातु का अर्थ । र का निग्रह करने वाला है, कषायों को जीतने वाला है, खेद है। जो व्यक्ति परिग्रह-पिशाच का परित्याग कर दर्शन, ज्ञान, चरित्र सहित है, वही श्रमण सयत कहघर-बार से कोई नाता नही रखते, अपने शरीर से भी लाता है :निर्मोही हो जाते हैं, वन मे आत्म-साधना रूप श्रम का १-सो समणो जइ सुमणो, भावेण जइ ण होह पावमणो। आचरण करते हैं, अपनी इच्छानों पर नियंत्रण करते है, सयणे प्रजणे य समो, समो प्रमाणाऽत्रमाणेसु ॥ काय क्लेशादि होने पर भी खेदित नहीं होते, किन्तु विषय- जह मम न पिय दुक्खं जारिणय एमेव सव्वजीवाणं । कषयोंका निग्रह करते हुए इन्द्रियोका दमन करते हैं । वे श्रमण न हणइ न हणावेइय सममणई तेण सो समणो॥ कहलाते हैं अथवा जो बाह्य प्राभ्यान्तर ग्रन्थियों का त्याग -अनुयोगद्वार १५० Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनेकान्त पंच समिवो तिगतो पंचेविय सबडो जिद कवायो। 'वातरशना' मुनि का उल्लेख किया गया है, वह उक्त बंसण-णाण-समग्गो समणो सो संजयो भणियो। (३-४२) संस्कृति के संस्थापक ऋषभदेव के लिए किया गया है। ऊपर जिन श्रमणों का स्वरूप दिया गया है वे ही मुनयो वातरशनाः पिशंगा बसते मला। सच्चे थमण हैं । अनुयोगद्वार में श्रमण पांच प्रकारके बत- वातस्यानुध्राजि यान्ति यद्देवासो अविक्षत ॥ लाये गये हैं । निर्गन्य, शाक्य, तापस, गेरुय और पाजीवक उन्मादिता मौनेयेन वातां प्रातस्थिमा वयम् । इनमें अन्तर्बाह्य प्रन्थियों को दूर करने वाले विषयाशा से शरीरेस्माकं यूय मासो अभि पश्यथ । रहिन, जिन शासन के अनुयायी मुनि निर्गन्थ कहलाते हैं । (ऋग्वेद १०, १३६, २-३) सुगत (बुद्ध) के शिष्य सुगत या शाक्य कहे जाते हैं । जो अतीन्द्रियार्थ-दर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते जटा धारी हैं, वन में निवास करते हैं, वे तापसी है। हैं, जिससे वे पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं, जब वे वायु की रक्तादि वस्त्रों के धारक दण्डी लोग कहलाते है। जो गति को प्राणोपासना द्वारा धारण कर लेते हैं-रोक लेते गोशालक के मत का अनुसरण करते है वे प्राजीवक कहे हैं-तब वे अपनी तप की महिमा से दोप्यमान होकर जाते हैं। इन श्रमणों में निर्ग्रन्थ श्रमणोका दर्जा सबसे ऊचा देवता रूप को प्राप्त हो जाते हैं। सर्व लौकिक व्यवहार है, उनका त्याग और तपस्या भी कटोर होती है वे ज्ञान को छोड़कर हम मौनवृत्ति से उन्मत्तवत् (उत्कृष्ट प्रानन्द और विवेक का अनुसरण करते हैं। ऐसे सच्चे श्रमण ही श्रमण संस्कृति के प्रतीक हैं । इस श्रमण संस्कृति के प्राद्य सहित) वायु भाव को (अशरीरी ध्यान वृत्ति को) प्राप्त प्रतिष्ठापक प्रादि ब्रह्मा ऋपभदेव है जो नाभि और मरुदेवी होते है, और तुम साधारण मनुष्य हमारे बाह्य शरीरमात्र के पुत्र थे मौर जिनके शतपुत्रों मे ज्येष्ठ पुत्र भरत के नाम से को देख पाते हो, हमारे सच्चे प्राभ्यतर स्वरूप को नही, इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा है। ऐसा वे वातरसना मुनि प्रकट करते हैं। श्रमण शब्द का उल्लेख जैन साहित्य के अतिरिक्त ऋग्वेद की उक्त ऋचाओं के साथ 'केशी' की स्तुति वैदिक और बौद्ध साहित्य मे हुआ है। ऋग्वेद मे जिस की गई है । केशी का अर्थ केश वाला जटाधारी होता, १--निग्गंथ सक्क तावस गेरू प्राजीत्र पंचहा समणा। सिह भी अपनी केशर (मायाल) के कारण केशरी कहतम्मिय निग्गंथा ते जे जिणसासण भवा मुणिणो ।। लाता है। ऋग्वेद के केशी और वातरशना मुनि और सक्काय सुगम सिस्सा जे जडिला तेउ तावसा गीया। भागवत पुराण के उल्लिखित 'वातरशना श्रमण' एव उनके जे गोसाल गमयमणु जे धाड रत्तवत्था तिदंडिण्णो अधिनायक ऋषभ की साधनाओं की तुलना दृष्टव्य है। गेल्या तेण ॥ दोनों एक ही सम्प्रदाय के वाचक है जन कला में ऋपभ देव की अनेक प्राचीन मूर्तियां जटाधारी मिलती हैं। सरंति भन्नति ते उ प्राजीवा-अनुयोगद्वार अ० १५० तिलोयपणरणत्ती में लिखा है-'उस गंगा कूट के ऊपर जटा २-नाभे: पुनश्च ऋपभः ऋषभाद् भरतोऽभवत् । रूप मुकुट से मुशोभित आदि जिनेन्द्र की प्रतिमाएं हैं। उन तस्य नाम्न. त्विदं वर्ष भारत चेति कोयते ॥ प्रतिमानो का मानो अभिषेक करने के लिए ही गंगा उन -विष्णु पुराण अ० १ प्रतिमानों के कार अवतीर्ण हुई है। जैसा कि निम्न गाथा अग्नीध्र सूनोनाभेस्तु ऋषभोऽभूत सुतो द्विजः। से प्रकट है :ऋपभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्र शताद्वरः ।। ३६, मार्कण्डेय पुराण अ० ५. मावि जिणपडिमानो तानो, जडमउड सेहरिल्लायो। येषा खलु महायोगी भरतो ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुण पासीत। पडिमोवरिम्म गंगा अभिसितमणा वसा पडदि। पा येनेद वर्ष भारतमिति व्यपदिशन्ति ॥ रविषेणके पद्मचरित (३-२८८) में "वातोदृता जटाभागवत ५-६ स्तस्य रेजुरा कुलमूर्तयः।" और 'हरिवंशपुराण' (९-२०४) Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अमन संस्कृति के उद्मावक ऋषभदेव २०५ में-"सप्रलम्ब जटाभार भ्राजिष्णु." रूप से उल्लेखित रही थी, वे निश्चल होकर मौद्गलानी (मुद्गल की किया है। अपभ्रंश भाषा के सुकमाल चरिउ मे भी स्वात्मा वृत्ति) की ओर लोट पड़ी अर्थात् मुद्गल ऋषिकी निम्न रूप से उल्लेख पाया जाता है : इन्द्रियां जो स्वरूप से पराङ्मुख हो अन्य विषयों का पोर पढम जिणवर वि वि भावेण, भाग रहीं थी वे उनके योगयुक्त ज्ञानी नेता केशी वृषभ जा-मउ विहूसित विसय विष्ठ मयणारिणासणु। के धर्मोपदेश को सुनकर अन्तर्मुखी हो गई-अपने स्वरूप अमरासुर-णर-पय-चलणु, में प्रविष्ट हो गई। सत्ततच्च णवपयत्व व णयहि पयासणु । ऋग्वेद के (४, ५८, ३) सूक्त मे-"विधाबद्धो वृष. लोयालोयपयासयह जसु उप्पण्णउ गाणु । भो रोरवीति महादेवो मान विवेश" बतलाया गया है, सो पणवेप्पिणु रिसह जिणु अक्षय-सोक्ख-णिहाण। कि दर्शन ज्ञान चरित्र से) मनुबद्ध वृषभ ने घोषणा की और जटा, केश केसर एक ही अर्थ के वाचक है, "जटा वे एक महान देव के रूप में मत्या में प्रविष्ट हुए। सटा केसरयोः इति मेदिनी।" इस सब कथन पर से उक्त इस तरह वेद और भागवत तथा उपनिषदो में श्रमणों प्रर्थ की पुष्टि होती है। के तपश्चरणकी महत्ताका जो वर्णन उपलब्ध होता है, वह केशी और ऋषभ एक ही है। ऋग्वेद की एक ऋचा महत्वपूर्ण है । और उसका सम्बन्ध ऋषभदेव की तपश्चर्या मे दोनों का एक साथ उल्लेख हपा है और वह इस से है । श्रमणो ने अपनी आत्म-साधना का जो उत्कृष्टतम प्रकार है : पादर्श लोक में उपस्थित किया है तथा अहिसा की प्रतिष्ठा ककर्दवे ऋषभो युक्त प्रासी प्रबावचीत सारथिरस्य केशी. द्वारा जो प्रात्म-निर्भयता प्राप्त की, उससे श्रमण संस्कृति दुषर्युक्तस्य द्रवतः सहानस ऋच्छन्ति मा निष्पदो मदग- का गौरव सुरक्षित है। श्रमण-सस्कृति ने जो भारत को लानीम् ॥ अपूर्व देन दी है वह है अहिसा, समता और अपरिग्रह । (ऋग्वेद १०,१०२, ६) भारतीय संत-परम्परा ने इनके द्वारा ही अपने को यशस्वी बनाया है। भगवान ऋषभदेव सत-परम्परा एवं श्रमणइस सूक्त की ऋचा की प्रस्तावना में निरुक्त मे मुद संस्कृति के प्राद्य सस्थापक थे। उनको हुए बहुत काल गलस्य हृता गाव ग्रादि श्लोक उद्धृत किये गये है कि बीत गया है तो भी उनकी तपश्चर्या का महत्व और मुदगल ऋपि को गायो को चोर चुरा ले गये थे, उन्हे उनका लोक कल्याणकारी उपदेश भूमडल में अभी वर्तमान लौटाने के लिए ऋपि ने केशी ऋषभ को अपना सारथी है । वे श्रमण सस्कृति के केवल सस्थापक ही नहीं थे किन्तु बनाया, जिसके वचन मात्र से वे गौए आगे न भाग कर उन्होंने उसे उज्जीविन और पल्लवित भी किया। और पीछे की भोर लौट पड़ी। इस ऋचा का भाष्य करते हुए उनके अनुयायी तेईस तीर्थकरो ने भी उसका प्रचार एव मायणाचार्य ने केशी और वृषभ का वाच्यार्थ पृथक् बत प्रसार किया। उनमें पहिमा की पूर्ण प्रतिष्ठा थी। इसी लाया है, किन्तु प्रकारान्तर से उसे स्वीकृत भी किया है"अथवा, अस्य सारथि: सहायभूनः केशी प्रकृष्ट केशी से उनके समक्ष जाति-विरोधी जीवो का वर-विरोव भी शान्त हो जाता था। ऋषि पतजलि ने योग सूत्र में लिम्बा वृषभ अवाबचीत् भ्रशमशब्दयत्" इत्यादि । है कि-'अहिंसा प्रतिष्ठाया तत्सन्निधौ वर त्यागः ।' यह मुद्गल ऋषि के सारथी (विद्वान् नेता) केशी वृषभ उक्ति ही नहीं है किन्तु उन्होंने इसे अपने जीवन मे चरिजो शत्रुमों का विनाश करने के लिए नियुक्त थे, उनकी तार्थ किया था। ऋषभदेव का जीवन कितना महान या वाणी निकली, जिसके फलस्वरूप जो मुद्गल ऋषि की और उन्होंने श्रमण सस्कृति के लिए क्या कुछ देन दी इस गौवें (इन्द्रियां) जुते हुए दुर्धर रथ (शरीर) के साथ दौड पर फिर कभी विचार किया जायगा । Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द जैन शास्त्री अग्रवाल यह शब्द एक क्षत्रिय जाति का सूचक है। बहुत कुछ समानता होते हुए भी उनमें अपने-अपने धर्म जिसका निकास अग्रोहा या अग्रोदक जनपद से हुआ है, परक प्रवृति पाई जाती है। हां सभी अहिंसा धर्म के यह स्थान हिसार जिले में है। प्रमोदक एक प्राचीन ऐति- माननेवाले हैं। यद्यपि उपजातियों का इतिवत्त १०वी हासिक नगर था। यहा एक टीला ६० फुट ऊंचा था, शताब्दी से पूर्व का नहीं मिलता, पर लगता है कि कुछ जिसकी खुदाई सन् १९३९ या ४० में हुई थी। उसमें उपजातिया पूर्ववर्ती भी रही हों। जैन अग्रवालों में अपने प्राचीन नगर के अवशेष, और प्राचीन सिक्कों पादिका ढेर धर्म के प्रति विशेष श्रद्धा एव प्रास्था पाई जाती है। उससे प्राप्त हुपा था । २६ फुट से नीचे प्राचीन पाहत मुद्रा का उनकी धार्मिक दृढता का समर्थन होता है । अग्रवालों के नमूना, चार यूनानी सिक्के और ५१ चौखटे तांबे के जैन परम्परा सम्बन्धी उल्लेख १२वी शताब्दी तक के मेरे सिक्के भी मिले है। ताबे के सिक्कों मे सामने की मोर अवलोकन मे पाये हैं। यह जाति खूब सम्पन्न, राजमान्य 'वषम' और पीछे की मोर 'सिंह' या चैत्य वृक्ष की मूर्ति और धार्मिक रही है। ये लोग धर्मज्ञ, प्राचारनिष्ठ, अंकित है। सिक्कों के पीछे ब्राह्मी अक्षरों मे 'अगोद के दयालु और जन धन से सम्पन्न तथा शासक रहे हैं । अग्रप्रगच जनपदस' शिलालेख भी अकित हैं, जिसका अर्थ वालो का निवासस्थान अग्रोहा या हिसार के आस-पास 'प्रमोदक में प्रगच जनपद का सिक्का' होता है। अनोहे का क्षेत्र ही नही रहा है, किन्तु उनका उल्लेख उत्तरप्रदेश, का नाम अग्रोदक भी रहा है। उक्त सिक्कों पर अकित मध्यप्रदेश, राजस्थान तथा दिल्ली और उसके आस-पास वृषभ, सिंह या चैत्य वृक्ष की मूर्ति जैन मान्यता की भोर का स्थान भी रहा है। क्योंकि अग्रवालों द्वारा निर्मित सकेत करती है। मन्दिर उदयपुर, जयपुर में भी पाये जाते हैं। पणिपद (पानीपत), श्वनिपद (सोनीपत) कर्नाल, हांसी, हिसार, कहा जाता है कि अग्रोहा मे अग्रसेन नाम के एक विजनौर, मुरादावाद, नजीबाबाद, जगाधरी, अम्बाला, क्षत्रिय राजा थे। उन्हीं की सन्तान परम्परा अग्रवाल कहे सरसावा, सहारनपुर, कैराना, श्यामली, बडौत, नकुड़, जाते है । अग्रवाल शब्द के अनेक अर्थ हैं, किन्तु यहाँ उन देवबन्द, मुजफ्फरनगर, कलकत्ता, ग्वालियर, खतौली, अर्थों की विवक्षा नही हैं । यहाँ अग्र देश के रहनेवाले अर्थ आगरा, मेरठ, शाहपुर, दिल्ली, हापुड़, बुलन्दशहर, खुर्जा, ही विवक्षित है । अग्रवालों के १८ गोत्र बतलाये जाते है, कानपुर, व्यावर, पारा, ज्वालापुर, बनारस, इलाहाबाद, जिनमे गर्ग, गोयल, मित्तल, जिन्दल, सिहल या सिंगल पटना आदि अनेक नगरों में इनका निवास पाया जाता मादि नाम हैं। इनमें दो धर्मों के माननेवाले पाये जाते है। इससे इस जाति की महत्ता का सहज ही भान हो हैं। एक जैन अग्रवाल, दूसरे वैष्णव अग्रवाल । श्री लोहा जाता है। अग्रवाल जैन समाज द्वारा अनेक मन्दिरों, चार्य के उपदेश से उस समय जो जैनधर्म में दीक्षित हो मूर्तियों, विद्यासंस्थानों, प्रौषधालयों, लायबेरियों और गये थे वे जन अग्रवाल कहलाये और शेष वैष्णव । परन्तु साहित्यिक संस्थानों प्रादि का निर्माण कराया गया है। दोनों में रोटी-बेटी-व्यवहार होता है, रीति-रिवाजों मे स इनका वैभव राजामों के सदृश रहा है। ये शाही खजांची, १. एपिग्राफिका इंडिका जिल्द २ पृ० २४४ । इडियन मंत्री, सलाहकार आदि अनेक उच्च पदों पर भी नियुक्त रहे एण्टीक्वेरी भाग १५ के पृष्ठ ३४३ पर अग्रोतक हैं। शास्त्रदान में भी रुचि रही है उसीका परिणाम है कि वैश्यों का वर्णन दिया है। दिल्ली के ग्रन्थभंडारों में प्रन्थों का अध्छा संग्रह पाया Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का बन संस्कृति में योगदान २७७ जाता है। पारा का जैन सिद्धान्तभवन तो प्रसिद्ध ही है, (ततीय के प्रामात्य थे। आपने कवि श्रीधर से, जो हरिजनसाहित्य और इतिहास का प्रसिद्ध शोधसस्थान वीर- याना देश से यमुना नदी को पार कर उस समय दिल्ली में सेवा मन्दिर से सभी परिचित हैं। मेरठ, खतौली, मुज- पाये थे । साह नट्टल ने उनसे ग्रंथ बनाने की प्रेरणा की फ्फरनगर और सहारनपुर के शास्त्रभडार भी उपयोगी थी, तब कवि ने उनके अनुरोध से 'पासणाह चरिउ' नामक हैं। प्राज इस लेख द्वारा अग्रवाल जैनों की जैनधर्म और सरस-खण्ड काव्य की अपभ्रंश भाषा मे रचना वि० सं० समाज एवं साहित्य-सेवा का थोड़ा सा दिग्दर्शन मात्र ११८६ अगहन बदी अष्टमी रविवार के दिन समाप्त कराया जाता है जिससे जनसाधारण अग्रवालों के जैन- की थी। धर्म व संस्कृति में योगदान का परिज्ञान कर सके। न का पारज्ञान कर सके। नट्टल साहू ने उस समय दिल्ली में प्रादिनाथ' का ___संवत् ११८६ से पूर्व साहू नट्टल के पूर्वज पिता वगैरह एक प्रसिद्ध जैन मन्दिर भी बनवाया था, जो अत्यन्त सुन्दर योगिनीपुर (दिल्ली) के निवासी थे। इनकी जाति अग्र- था जैसा कि ग्रन्थ के निम्न वाक्यों से प्रकट है :वाल थी। नट्टल साहु के पिता साह जोजा श्रावकोचित कारावेवि णाहेय हो णिकेउ, पविइण्णु पंचवण्णं सुकेउ । धर्म कर्म मे निष्ठ थे। इनकी माता का नाम 'मेमडिय' पई पण पइट्ठ पविरइयजेम, पासहो चरित्तु पुण वि तेम ।। था, जो शीलरूपी सत् प्राभूषणों से अलकृत थी और बाधव मादिनाथ के इस मन्दिर की उन्होंने प्रतिष्ठा विधि भी जनों को सुख प्रदान करती थी। साह नल के दो ज्येष्ट की थी, उस प्रतिष्ठोत्सव का उल्लेख 'पासणाह चरित्र' की भाई और भी थे राघव और सोढल । इनमे राघव बड़ा ही पांचवी सधि क निम्न सुन्दर और रूपवान् था। उसे देखकर कामनियो का चित्त येनाराध्यविशुध्यधीरमतिना देवाधिदेवं जिन, द्रवित हो जाता था। और सोढल विद्वानो को आनन्ददायक, सत्पुण्यं समुपाजितं निजगृणेः सन्तोषिता बान्धवाः । गुरुभक्त तथा परहंत देव की स्तुति करने वाला था, उसका जैन चैत्यमकारि सुन्दरतर जैनी प्रतिष्ठां तथा, शरीर विनयरूपी पाभूषणो से अलकृत था, तथा बडा बुद्धि स श्रीमान्विवितः सदैव जयतात्पृथ्वीतले नट्टलः ॥ वान प्ररि धीर-वीर था। साह नट्टल इन सब मे लघ इससे नट्टल साहु की धार्मिक परिणति का सहजही पुण्यात्मा, सुन्दर और जन वल्लभ था। कुनरूपी कमलो का पता चल जाता है। आदिनाथ का उक्त मन्दिर कुतुबप्राकर, पापरूपी पाशु (रज) का नाशक, प्रादिनाथ तीर्थ- मीनार के पास बना हुआ था, बड़ा ही सुन्दर और कलाकर का प्रतिष्ठापक, बन्दीजनो को दान देने वाला, पर पूर्ण था, जहाँ कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद बनी हुई है, जिसे दोषों के प्रकाशन से विरक्त, रत्नत्रय से विभूपित और २७ हिन्दू मन्दिरो को तोडकर बनाने को कहा गया है। संव को दान देने मे सदा तत्पर रहता था। उस उसे ठीक रूप से निरीक्षण करने पर जैन सस्कृति के चिन्ह समय दिल्ली के जैनियो मे वह प्रमुख था. व्यसनाधिन बहतायित से मिलते है। नीचे प्रवेश स्थान के दाहिनी मोर रहित हो श्रावक के व्रतो का अनुष्ठान करता था। साहू एक स्तम्भ पर तीन दिगम्बर जैन मूतिया कित हैं । उक्त नट्टल केवल धर्मात्मा ही नहीं थे किन्तु उच्चकोटि के व्या मस्जिद के ऊपरी भागमे दोनों ओर छतके ऊपर जो गुमटी पारी भी थे । उन्होने व्यापार में अच्छा प्रर्थ सचय किया बनी हुई है। उनमे ऊपर छत के चारों किनारो के पत्थरो था और उसे दान धर्मादि कार्यों में सदा व्यय करते रहते पर जैन मूर्तियां अकित हैं। बीच में पद्मासन और प्रगलथे। उस समय उनका व्यापार प्रग, बग, कलिंग, कर्नाटक, बगल मे दो खडगासन मूर्तिया उत्कीर्ण है। उनके दोनो नेपाल, भोट पाचाल, चेदि, गौड, ठक्क, (पजाब) केरल, किनारों पर हाथी घोडा प्रादि परिकर उत्कीर्ण है और मरहट, भादानक मगध र मोर या चारो कोनो पर चार मीन युगल भी बने हुए है। जो दाईदेशों और नगरों में चल रहा था। यह व्यापारी ही नही १ सणवासि एयारह सहि, परिवाडिए वरिसह परिगएहि । थे, किन्तु राजनीति के चतुर पंडित भी थे। कुटुम्बीजन तो कसणट्ठमीहि मागहणमासि, रविवारि समाणिउ सिसिरभासि । नगर सेठ थे और पाप स्वयं तोमरवशी राजा प्रनगपाल -पासणाह चरिउ प्रशस्ति सं० पृ०४८ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० अनेकान्त बाई दोनों तरफ हैं। इससे यह स्पष्ट रूप में कहा जा दुर्लभसेन के अध्ययन के लिये प्रतिक्रमण वृत्ति को लिखाकर सकता है, कि इसमे नट्टल साहू के प्रादिनाथ मदिर के दरबार चैत्यालय के समीप मे स्थित अग्रवालान्वय के अनेक भग्नावशेष होगे। परमश्रावक सागिया (जिनके पूर्व पुरुष पाटन के निवासी दिल्ली में सं० १३२९ चैत्र वदी दशमी के दिन ग्यासु- थे, साह पाणा भार्या हलो, के पुत्र दिउप और पूना नामके द्दीन के राज्य में पंचास्तिकाय की प्रति दिल्जी मे लिखी जातीमो के पत्रों ने दरबार में गई१ । जो जयपुर में मौजूद है। पंचमी व्रत के उद्यापन के लिये सकल संघ को बुलाकर देव___सं. १३७० मे पौष शुक्ला १० गुरुवारके दिन योगिनीपुर शास्त्र गुरु की बड़ी पूजा (महामह) करके सघ की पूजा (दिल्ली) में साधु नारायण पूत्र भीम, पुत्र श्रावक देवधर सपाटाटिकेमा शास्त्रटान के प्रस्ताव मे or ने अपने पढने के लिये देवनन्दि (पूज्यपाद) की तत्त्वार्थ- पुस्तके प्रदान की, साह छाजू और उसकी पत्नी माल्हो तथा वत्ति (सर्वार्थसिद्धि) लिखवाई थी, जिसे गौडान्वय कायस्थ पत्र भीम ने पंचमी का उद्यापन किया। पस्तके पडित पंडित गंधर्व के पुत्र वाहह ने लिखा था। (देखो, उदयपुर गंधर्व के पत्र वाहडदेव ने लिखी। भंडार की प्रति) मवत् १४१६ मे भगवती पाराधना का टिप्पण पोर संवत १३९१ मे ज्येष्ठ सुधीर गुरुवार के दिन मुहम्मद द्रव्य सग्रह की टीका की प्रतियां लिखवा कर भेट की। शाह के गजकाल मे योगिनीपुर मे अग्रवाल वशी साहू विक्रम सं० १४९३ मे योगिनीपुर (दिल्ली) के महीपाल के पुत्रों ने ज्ञानावरणी कर्म के क्षयार्थ मोर भव्य समीप बादशाह फिरोजशाह तुगलक द्वारा बसाये गये जीवों के पठनार्थ महाकवि पुष्पदन्त के उत्तरपुराण की प्रति लिखवाई थी,२ जो आज भी आमेर के शास्त्र भडार फिरोजाबाद नगर मे, जो उस समय जन, धन, वापी, में सुरक्षित है। कूप, तडाग, उद्यान प्रादि से विभूषित था, उसमे अग्रवाल वशी गर्ग गोत्री साह लाखू निवास करते थे। उनकी पत्नी संवत् १३९६ की फाल्गुन शुक्ला पचमी शुक्रवार के का नाम प्रेमवती था, जो पातिवृत्यादि गुणों से अलकृत दिन योगिनीपुर (दिल्ली) मे महम्मद शाह के राज्य मे थी। उसमे दो पुत्र हुए खेतल और मदन । खेतल की काष्ठासंघ के विद्वान भट्टारक जयसेन उनके शिष्य भ. धर्मपत्नी का नाम 'सरो' था, जो सम्पत्ति सयुक्त तथा १सं० १३२९ चैत्र वुदी दशम्यां बुधवासरे अद्य ह दानशीला थी। उससे तीन पुत्र हुए फेरू, पाल्हू और योगिनीपूरे समस्त राजाबलिसमालकृत ग्यासदीन राज्ये वोधा। इन तीनो पुत्री की क्रमशः काकलेही, माल्हाही प्रत्रस्थित अग्रोतक परम श्रावक जितचरन कमल और हरिचन्दही नाम की तीन पत्निया थी। लाखू के -जैन ग्रन्थ-मूची भा० २ पृ० १४२ द्वितीय पत्र मदन की धर्मपत्नी का नाम 'रतो' था, उसमे २ संवत्सरेऽस्मिन् श्री विक्रमादित्य गताब्दाः सवत् हरधू' नाम का पुत्र उत्पन्न हया था, उसकी धर्मपत्नी १३९१ वर्षे ज्येष्ठ सुदि गुरुवासरे प्रद्य ह श्री योगिनीपुरे का नाम मन्दोदरी था। खेतल के दूसरे पुत्र पाहू के मडन समस राजावलि शिरोमुकुट माणिक्य खचित नखरश्मो जाल्हा, घिरीया और हरिश्चन्द्र नाम के चार पुत्र थे। सुरत्राण श्री महम्मदसाहि नाम्नि मही विभ्रति सति अस्मिन् इस तरह यह परिवार खुब सम्पन्न था। परिवार के सभी राज्ये योगिनीपुरस्थिता अग्रोतकान्वय नभ श्शांक सा० लोग जैनधर्म का विधिवत् पालन करते थे और प्राहार महिपाल पुत्र: जिनचरण कमल चंचरीक: सा० खेतू फेरा औषध प्रभय तथा ज्ञानादि चारों दानों मे सम्पत्ति का साढा महाराजा तृषा एतैः सा० खेतू पुत्र गल्हा माजा एतो विनिमय करते रहते थे। साह खेतल ने गिरनारि तीर्थ सा० फेरा पुत्र वीधा हेमराज एतैः धर्मकर्माणि सदोद्यम परैः क्षेत्र की यात्रा कर उसका यात्रोत्सव किया था। वह ज्ञानावरणीय कर्माक्षयाय भव्यजनाना पठनाय उत्तरपुराण अपनी पत्नी काकलेही के साथ योगिनीपुर (दिल्ली) मे पुस्तकं लिखापितं । लिखित गोडान्वय कायस्थ पंडित गंधर्व आया था। कुछ समय सुख पूर्वक व्यतीत होने पर साह पुत्र बाहड राज देवेन। -मामेर भंडार फेरू की धर्मपत्नी ने कहा कि स्वामिन् ! श्रत पञ्चमी Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन सस्कृति में योगदान २७६ का उद्यापन कराइये । इस बात को सुन कर फेक अत्यन्त हुए है जिनका राज्यकाल स. १४८१ से १५१० तक हर्षित हुए। और उन्होने मूलाचार नाम का माचार अथ रहा है । श्रत पञ्चमी के निमित्त लिखा कर मुनि धर्मकीति के उक्त भट्टारक यश कीति ने हिसार निवासी अग्रवाल लिए अपित किया। धर्मकीर्ति के दिवगत होने पर उनके वशी गर्ग गोत्री साहदिबड्ढा के अनुरोध से, जो इन्द्रिय प्रमुख शिप्य मलयकीति को जो यम, नियम में निरत विषय-विरक्त, सप्त व्यसन रहित, प्रप्ट मूलगुण धारक तथा तपस्वी थे सम्मान पूर्वक समर्पित किया। उक्त तत्त्वार्थ श्रद्धानी अष्ट अग परिपालक, ग्यारह प्रतिमा महत्त्वपूर्ण प्रशस्ति मलयकीति द्वारा लिखी गई है जो ऐति- पाराधक और बारह व्रतो का अनुष्ठापक था, वि० सं० हासिक विद्वानो के लिए उपयोगी है१। क्योकि इसके १५०० में भाद्रपद शुक्ला एकादशी के दिन? 'इंदरि' प्रारम्भ मे जो गुरु परम्परा दी गई है वह विचारणीय है। (इद्रपूर) परगना तिजारा मे जलालखा५ (शय्यद मुबा अग्रवाल वशी साहू वील्हा और धेनाही के पुत्र हेम- रिकशाह) के राज्य में समाप्त किया था । राज, जिसे बादशाह मुमारख (सैयद मुबारक शाह) ने योगिनीपुर के निवासी अग्रवाल कुल भूषण गर्ग मत्री पर प्रतिष्ठित किया था । उमने योगिनीपुर गोत्रीय साह भोजराज के ५ पुत्रो मे से ज्ञानचन्द्र के विद्वान पुत्र साधारण धावक की प्रेरणा से इल्लराज सुत (दिल्ली) मे अरहत देव का जिन चन्यालय बनवाया था महिन्दु या महाचन्द ने स. १५८७ की कार्तिक कृष्णा और भट्टारक यश:कीति मे 'पाण्डव पुगण' वि० स० पञ्चमी के दिन मुगल बादशाह बाबर के राज्य कालक १४६७ सन् १४४० मे बनवाया था३ । भट्टारक यश. में समाप्त किया था । ज्ञानचन्द्र के तीन पुत्र थे, उनमें की ति काठासंघ माथुरगच्छ और १कर गण के भट्टारक गुणकोति (तपश्चरण से जिनका शरीर क्षीग हो गया ज्यष्ठ पुत्र सारगसाहु ने सम्मेदशिखर की यात्रा की थी। था) के लघ भ्राता और पट्टधर थे। यह उस समय के ४. विक्कमरायहो ववगय कालई', मुयोग्य विद्वान और कवि थे, तथा मस्कृत, प्राकृत और महिई दिय दुमुण्ण अकालई । अपभ्रंश भाषा के अच्छे विद्वान थे। इन्होने म० १४८६ भादवि सिय एयारसि गुरुदिणे, मे विबुध श्रीधर के मस्कृत 'भविष्यदत्त चरित्र' और हउ परिपूण्णउ उग्गतहि इणे॥ -हरिवंश पुराण अपभ्रंश भापा का 'सूकमालचरित' ये दोनो ग्रन्थ लिख- ५. Tarikhi Mubarakh Shah P.211 वाये थे। इन्होने अनेक मूर्तियो की प्रतिष्ठा कराई थी। ६. इंदउ रहिएउ हउ मंपण्णउ, यह ग्वालियर के तोमरवशी शासक राजा इंगरसिंहके समय रज्जे जलालखान कय उण्णउ ।। -हरिवश पराण ७. विक्कम रायहु ववगयकाल इं, १. देखो, अनेकान्त वर्ष १३ किरण ४ मे प्रकाशित रिस-वसुमर-भुवि-अकालइ । मलयकीति और मूलाचार प्रशस्ति । कत्तिय-पढ़म-पक्खि पंचमिदिण, २. तहो णदणु णदणु हेमराउ, हुउ परिपुण्ण वि उग्गतइ इणि । जिणधम्मोवरि जसु णिच्च भाउ। -जैनग्रथ प्रशस्ति सं० पृ० ११४ सुरताण मुमारख तणई रज्जे, ८. बाबर ने सन् १५२६ ई० मे पानीपत की लड़ाई में मतितणे थिउ पिय भार कज्जे ।। दिल्ली के बादशाह इब्राहीम लोदी को पराजित और -जनपथ प्रगस्ति सं० पृ० ३६ दिवगत कर दिल्ली का राज्यशासन प्राप्त किया था, ३. विक्कमरायहो ववगय कालए, उसके बाद उसने प्रागरा पर अधिकार कर लिया था महि-सायर-गह-रिसि अकालए। और सन् १५३० (वि० स० १५८७) मे प्रागरा में कत्तिय-सिय प्रमि बुह वासर, ही उसकी मृत्यु हो गई थी। इसने केवल पाच वर्ष हुउ परिपुण्ण पढम नदीसर ॥ ही राज्य किया है। Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त और द्वितीय पुत्र साधारण ने जो गुणी और विद्वान था, मन्दिर भी आपके द्वारा बनवाये गये थे। पापकी उदारवृत्ति जिसका वैभव बढ़ा चढा था, उसने शत्रुजय की यात्रा को प्रसिद्ध है। यद्यपि उनके जीवनकाल मे मन्दिरों के सिवाय थी, जिनमन्दिर का निर्माण कराकर हस्तिनापुर की कोई महत्व के सांस्कृतिक कार्य सम्पन्न नहीं हुए, किन्तु उस यात्रार्थ संघ चलाया था। समय के अनुकूल सामाजिक और धार्मिक कार्य तो राजाहरसुखराय लाला हुकूममतराय जी हिसार के सम्पन्न हुए ही है । साधर्मी भाइयों की सेवा के अतिरिक्त पांच पुत्रों में से एक थे। दिल्ली के बादशाह ने उन्हे दीन-प्रनाथों की सेवा वे करना अपना कर्तव्य मानते थे। हिसार से बुलाया था, वे दिल्ली के प्रतिष्ठित नागरिक धार्मिक कार्यो मे उनकी अधिक रुचि थी। वे तेरह पंथ और शाही श्रेष्ठी थे, और उन्हें रहने के लिए शाही की शैली का पूरा अनुकरण करते थे। नये मन्दिर की मकान प्रदान किया गया था। हरसुखराय स्वभावतः गभीर शास्त्र-सभा में प्रति दिन प्राते थे। आपको यह शैली पौर बात बनाने की कला में अत्यन्त प्रवीण एव मिठबोला प्रसिद्ध थी, उसका अनुकरण अन्यत्र भी हमा। सहारनपुर थे। वे शाही खजाची थे, सरकारी सेवामो के उपलक्ष्य में की शैली सुगनचन्द के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होने जयपुर उन्हें तीन जागीरे, सनदे तथा सार्टीफिकेट आदि प्राप्त के विद्वान पं० मन्नालालजी से चारित्रसार की हिन्दी हए थे। पाप भरतपुर राज्य के कौसलर (Councilor) टीका का सं० १८७१ मे निर्माण कराया था३ । आपके भी थे। उन्ही के द्वारा धर्मपुरा का नया मन्दिर जो पुत्र पडित गिरधारीलाल थे, जो प्राकृत संस्कृत के अच्छे पच्चीकारी मे अनूठा है, बनवाया था। और विशाल विद्वान थे। नये मन्दिर को शास्त्र-सभा मे वे स्वय शास्त्र शास्त्र भंडार का भी संग्रह किया था मुसलमानी शासन पढने थे और जनता को उमका अर्थ बतलाते थे। उनकी काल में सरे बाजार जैन रथोत्सव निकलवाना साधारण शैली और वक्तत्व कला उच्च दर्जे की थी। वे अच्छे काम नही है। इनके पुत्र सेठ सुगनचन्द जी थे, जो भाग्य वक्ता और समाजसुधारक थे। उन्होंने दिल्ली में अग्रवाल शाली होने के साथ साथ प्रत्यन्त उदार और प्रभावशाली दिगम्बर जैन पचायत की स्थापना की थी। इनके अतिथे, वे अपने पिता के कार्यों में भी सहयोग देते थे । समाज रिक्त दिल्ली में और भी अनेक सज्जन हुए है, जिन्होंने मे तो उनकी प्रतिष्ठा थी ही, किन्तु सरकार में भी उनकी जैनधर्म, जैन सस्कृति के विकास तथा म्युनिसिपल कमेटी मान्यता कम नहीं थी। इनके समय दिल्ली पर अग्रेजी शिक्षण सस्थानों आदि मे योगदान दिया है और दे रहे सरकार का प्रभुत्व हो गया था। इन्होने चकि अग्रेजो हैं । उनमे से कुछ के नाम निम्न प्रकार है :को पार्थिक सहयोग प्रदान किया था, इस कारण भी लाला बलदेवसिंह, लाला हजारीमल जौहरी, लाला इनकी प्रतिष्ठा में चार चाद लग गये थे । लाला हरमुग्व पारमदास रायबहादुर मल्तानसिह रायसा० वजीरा सिंह राय जी ने जब हस्तिनापुर के मन्दिर का निर्माण करायार गासाहब बा० प्यारेलाल एडवोकेट, लाला मेहमिह, तब उसमे भापका पूरा सहयोग रहा। पौर मन्दिर बन ला० डिप्टीमल, ला० उल्फनराय, डा० चम्पतराय जेना, जाने के बाद उसका बड़ा दरवाजा उन्ही की सूझबूझ का यादीश्वर लाल, ला० भीकराम ग्रादि सज्जनो ने अपनी ही परिणाम है। उसे प्रःपने ही निर्माण कराया था। नई शक्त्यनमार जनतोपयोगी कार्य किये है। साथ ही सामादिल्ली जयसिंहपुरा का मन्दिर स्वय प्रापने बनवाया था, जिक और धार्मिक कार्यों में सहयोग दिया है। इस समय उसके लिये जयपुर राज्य की भोर से मापको जयसिह के ३ ता कारय थिरता तिहिपाय, सुगुनचन्द के कहे सुभाय । दीवान मंधी अथाराम की मार्फत १.बीघा जमीन प्रदान चरितसार ग्रन्थ की भाष, वचनरूप यह करी सुभाय ।। करने का पर्वाना मिला था। शहादरा और पटपड़गज के X X X X १. इनके विशेष परिचयके लिए देखे अने. वर्ष१५ कि.१ सवत् एक सात अठ एक, माघ मास सित पंचमी येक । २ देखो, अनेकान्त वर्ष १२ कि.५ मे प्रकाशित हस्तिनापुर मंगल दिन यह पूरण करी, नन्दो विरधो गुणगण भरी। का बड़ा जैन मन्दिर लेख। -चारित्रसार Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जन सस्कृति में योगदान २८१ दिल्ली मे जैन समाज की ओर से विविध धार्मिक सस्थाएं सह टोडर अलीगढ से किसी समय पाकर प्रागरा में चल रही हैं, उनमें पक्षियो का हस्पताल भी शामिल है। बस गये थे। वे भाग्यशाली, कुलदीपक और प्रत्यन्त उदार यदि उन सबके सम्बन्ध में प्रकाश डाला जाय तो एक बड़ा थे। वे गुणी, कर्तव्यपरायण और टकसाल के कार्य में ग्रन्थ बन सकता है। प्रत्यन्त दक्ष थे। और सम्भवत वे अकबर की टकसाल काष्ठामघ के भट्टारक कुमारसेन की प्राम्नाय में का कार्यभार भी सम्पन्न करते थे । साहु टोडर देवभटानिया कोल (अलीगढ़) के निवासी साह रूपचन्द थे। शास्त्र-गुरु के भक्त थे। धर्मवत्सल, विनयी, परदारविमुख, उनके पुत्र साह 'पासा' थे, जो धर्मनिष्ठ और उदारचरित दानी, कर्तव्यपरायण, परदोपभाषण मे मौन रखनेवाले, थे। इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र गर्ग था। यह जैन दयालु और धर्मफलानुरागी थे। काप्ठाराघ के विद्वान धर्म के अनुयायी थे। साह पासा की धर्मपत्नी का नाम पाडे राजमल को आगरामे इनके समीप रहने का सौभाग्य 'घोषा' था जो माध्वी, जिनचरणों में रत द्वितीय लक्ष्मी प्राप्त हुआ था । वे इनका बहुत सादर करते थे। राजमल तथा सरस्वती के ममान थी। थोपा से टोडर नामका पुत्र को वहा रह कर साहु टोडर और अकबर बादशाह को उत्पन्न हुपा था। उनकी दो स्त्रिया थी। उनमे ज्येष्ठा नजदीक से देखने का अवसर मिला था। इसीसे उन्होंने का नाम 'हरो' था और उमके गर्भ मे ऋषि (ऋपभ) अपने जम्बूस्वामित्ररित मे, जो माहु टोडरमल की प्रेरणा दास नामका पुत्र उत्पन्न हपा था। जो राज्यसभा में से स० १६३२ में रचा गया था, अकबर की खूब प्रशसा मान्य था, उसकी रूपवती साध्वी पत्नी का नाम लालमती की गई है और शराबबन्दी तथा 'जजिया कर छोड़ देने था। साह टोडरमल को लघु पत्नी का नाम सम्भमती वाला लिखा है। था, उममे दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। बडा पुत्र मोहनदास साहु टोडर अकबर के प्रिय पात्र तथा राज्य संचाजिसकी म्त्री का नाम माधुरी था और दूसरा पुत्र रूप- लन में सहयोग देने वाले मरजानी पुत्र साह गढमल और मागद था, जिमकी भार्या का नाम भाग्यवती था। कृष्णामगल चौधरी दोनों के प्रीतिपात्र तया कृष्णामगल १ माम्नाये तस्य रूयातो भुवि भरतममः पावनो चौधरी के सुयोग्य मत्री थे३। पाडे राजमल ने उनकी भूतलऽस्मिन् । केवल प्रशंसा ही नहीं की; किन्तु उनके धार्मिक कार्यों पासा सघाधिपोऽसौ कुलबलसबलस्तस्यभास्ति घोषा। का भी उल्लेख किया है, और आशीर्वाद द्वारा उनकी माध्वीथी वा द्वितीया जिनचरणरता वाचिवागीश्वरी व। मगल कामना भा प्रकट की। मानवीना मगल कामना भी प्रकट की है।। (क्रमश:) गर्भतस्या बभूव गुणगणसहितो टोडराख्यस्तु पुत्र ॥१४ । भार्या गेहे कमलवदना भागमती-भाग्यपूराः ॥१८ भार्येतस्य गुणाकरस्य विमले द्वे दान पूजारते ।। -जम्बूस्वामिपूजाप्रशस्ति, अजमेर, भंडार या ज्येष्ठा गुणपावना शशिमुखी नाम्ना हरो विश्रुता । नस्या गर्भसमुद्भवोऽस्ति नितरां योनन्दनः शान्तिधी। २ जंबू स्वामी चरित १-५६-५६, २७, २६ पृ०४-५ । मान्यो राजसभा-सुसज्जनसभा दासो ऋषीणा महान् ।।१५ ३ शाश्वत साहि जलालदीन पुरतः प्राप्त प्रतिप्ठोदयः । बल्लभा तस्य संजाता रूपरम्भा विशेषतः । श्रीमान् मगलवंश शारद शवणि विश्वोपकारोद्यतः । भर्तानुगामिनी साध्वी नाम्ना लालमती शुभा ॥१६ नाम्ना कृष्ण इति प्रसिद्धिरभवत् स-क्षात्र धर्मोन्नतेः। टोडरस्य नृपस्यवरागना लघुतरा-गुण-दान-विराजिता। तन्मात्रीश्वर टोडरोगुणयुतः सर्वाधिकारोद्यतः। विमलभापि कुसुम्भमती परा अनि पुत्रद्वयो वरनायको।१७ -ज्ञानार्णव संस्कृत टीका प्रशस्ति तेषा ज्येष्ठ सुकृत-निरतो, मोहनाख्यो विवेकी । ४ उग्रायोतक वशोत्थः श्रीपामा तनय कृती। भार्या [तस्य] सुकृत निरता, नामतो माधुरी या। वर्धता टोडरः साधू रसिकोऽत्र कथामृते ॥ कान्त्या कामो वचन-सरसो रूप रुक्मांगदोऽपि । -जंबूस्वामि चरित Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथ फागु कुन्दनलाल जैन एम. ए. भट्टारक सकलकीति १५ वी शताब्दी के सुयोग्य मदमाते वसत की बहार प्राते ही ग्रामीण जीवन मे विद्वान और धर्म प्रचारक सन्त थे। उनके सम्बन्ध में एक अद्भुत ही प्रानः की हिलोर लहराने लगती है, बहुत कुछ लिखा जा चुका है। प्रत. उस पर विराम जिसकी प्रानंदानुभूति कोई अनुभवी रसिक ही कर पाते करते हुए अनेकान्त के पाठको के लिये उनकी हैं। दिन-भर का हारा-थका किसान जब कुछ विधाति हिन्दी भाषा की एक रचना 'शान्तिनाथफाग' जिसका या मनोरजन की पावश्यकता अनुभव करता है ढोलसम्बन्ध जैनियों के १६वे तीर्थकर भगवान शान्तिनाथ के मजीरे, पखावज और झाझ की मनोमुग्यकारी थाप पर जीवन-परिचय से है। नीचे दी जा रही है, प्राशा है पाठक फागे, रसिया, बेली, धूलि मादि विभिन्न लोकसाहित्य की उसका मनन करेगे और शोध-खोज करनेवाले विद्वानो को विधानों को गागा कर मानदातिरेक 'से पुलकित हो उससे सहायता मिलेगी। उठता है । बुन्देलखंड में तो ईशुरिया की फागे विशेष रूप भ. सकलकीर्ति जी अपने समय के प्रकाड पण्डित तो से प्रसिद्ध हैं। पर ऐसे गीतों या फागों मे शृगारिकता, थे ही साथ ही लोक-प्रवृत्तियों के श्रेष्ठ अध्येता एव अनू- अश्लीलता अथवा व्यावहारिक जीवन की बाह्य दुर्बलतानों भवी थे, जो जानते थे कि संस्कृत भाषा में लिखा गया का समावेश प्रचर मात्रा में हो ही जाता है , प्रत इन्ही साहित्य जन-साधारण के मानस-पटल पर सरलता से बुराइयो पोर दुर्बलतापो को दूर करने के लिए धार्मिक अंकित नही किया जा सकता है, प्रत. जनसाधारण को नेताओं, प्राचार्यो एवं विद्वानों ने धार्मिक कथानो प्रथवा तत्त्वों को लोकसाहित्य की विभिन्न विधानों में लोकगीनो लोकभाषा मे ही लोकसाहित्य की विभिन्न विधामो मे की धुन के रूप में सुनियोजित कर लोकसाहित्य के रूप में साहित्य सर्जन करने से जनसाधारण को विशेषतया प्रभा- सत्साहित्य को सजना की। वित किया जा सकता है इसीलिए उन्होने वेली, धूलि, प्रस्तुत रचना इसी आदर्श की परिचायक है। हम फाग, रास प्रादि लोकसाहित्य की विभिन्न विधामो में रचना मे १६वे तीर्थकर तथा चक्रवर्ती भ. शान्तिनाथ स्वामी का जीवन परिचय सक्षिप्त रूप से लोकगीत की साहित्य सर्जन किया। धुन में प्रस्तुत किया गया है। यद्यपि इसकी भाषा ग्रामीण वे प्रबुद्ध पाठक जो नगरी की प्रौद्योगिकता, व्यस्तता, है फिर भी सरस एव मनोहारी है। इसमे कही कही कोलाहल एवं भडभडाहट से ऊब कर जब ग्रामों के नीरव, सस्कृत के श्लोक तथा प्राकृत की गाथाये पाई जाती है, शात एवं निश्छल वातावरण मे पहुच कर लोकजीवन बीमार वैसे सारी रचना मुख्यतया अठीयु और रासछद में रची को प्रेरित करनेवाले लोकसाहित्य तथा लोक नत्यादि में गई है। संपूर्ण रचना चार ढालों में विभाजित है, इसकी तनिक भी रुचि लेते हैं तथा लोकसाहित्य को विभिन्न __ भाषा मे गुजराती और राजस्थान को पुट स्पष्ट रूप से विषानों का रसास्वादन कर पानंद विभोर हो उठने हैं। . शान्तिनाथ फागु विख्यात नसुराषिपाचित पदो विश्वेक चुडामणि रतातीत गुणार्णवोति सुभगः श्री शांति तीर्थकरः। चक्री सर्व सुखाकरोति विमला कामारि विध्वंसक, कामः कामद एव यस्तमसमं नत्वा बुपे बहुगुणान ॥१॥ Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाथ काम २८३ अहे मावीय मास वसंत रमंतह प्रावहु रंग, महे जिणहरि पूज चडंत करत सुखेला चंग ॥१॥ अहे मिलिए सुतेवड तेवडी जेवडी साविय रंगि। महे जाईय जिणहरि मनहरि पूजकरी जिन अंगि ॥२॥ अहे वइसिय रंगिहि भंगिहि शांति जिणेसर फाग । अहे गाइहिं मिलिय पानं दिहि नादिहिं मन अनुराग ॥३॥ अहे रत्नसचय नाम पुर वर शुभ घर जिम सोहंत । अहे श्रीषेण नाम महीपति नरपति राज करत ॥४॥ प्रहे चारण पात्रह देईय लेईय गुण दातार । प्रहे आहार दान मनोहर शुभवर संचिय सार ॥४॥ गाहा-तत्तो छंडिय पाणा उत्तर कुरु भोगभूमिसु सुरुवे । जाउ प्रज्जो सुहणिहि सुपत्त दाणस्य पुणेण ॥ अहे दसविधि मुरतरु अपना नीपना भोग विसाल । अहे भोग वि दान फलेण सुहेण गमिय धणु कालु ॥१॥ अहे वस्त्राभग्ण विमडिय खडिय पल्ल त्रिआयु । अहे रोग किलेस विवज्जिन सज्जीय छडिय काय ॥२॥ गाहा-सोहम्मे सिरिणिनये दिव्वविमाण सुहाय रे तत्तो। सिरिपहदेऊ जाऊ महटिल विस्वस्वपरा ॥ पठीयु-भोगवइ भोग महत प्रपछर स्युकीडंत । नंदीसर वर ए पूजइ जिणवर ए॥१॥ अते छडिय काय अमित तेज खगराय । विजयारिधि गिरिए ऊपनउ मणहरिए ॥२॥ वहु विद्या साधेइ जिति रिपुराज करेइ । जिन गुरु पय पणमेए निशिदिन धरम रमेह ॥३॥ पछइ मजम लेवि दुहिलउ तप साधे वि । राग विणासियए सुमरण साधीयए ॥४॥ तस्मादानत संजके सुखनिधौ स्वर्गे महानिर्जरे, नाम्नाभद्रविचूलएव सुभगो ज्ञानत्रयालंकृतः। दिव्यांगो जिनचंत्यपूजनपरः स्रग्वस्त्रभूषाकितो, नंद्यावर्त विमान सत्पतिरसौ धम्मक निष्ठः शुभात् ।। अहे वीस सागर पर जीवित क्रीडित देवि मझारि । अहे समकित ज्ञान प्रलंकित संकित धर्म विचारि ॥१॥ अहे सरग विच वि अपराजित भूपति हुयउ बलभद्र । अहे जप-तप दान सुजन रजन गुणह समुद्र ॥२॥ छडिय राज विभूतीय दूतीय मुगतिहि दीख । अहे लेवि विरागइ पाचरइ सचरइ तप गुरु सीख ॥३॥ अहे मन्यासे तनु छंडिय खडिय पारनु जाल । अहे अच्युत नायक उपनऊ नीपन भोग विसाल ॥४॥ अहे अमर निकाय नमसीय ससीय गुण सुरराज । अहे जिन कल्याण भजत करत सदा मुभ काज ॥५॥ गाहा-तत्तो चविय सुरिवो वज्जायुषणाम चक्कवट्टीय । जातु गणिहि सामिय छलंड रयणाइ सिरिणाहो ॥ राम-नप सुत रमणी गजगति रमणी तरुणी सम क्रीडंत रे ॥१॥ बहु गुण सागर अवधि दिवाकर सुभकर निसि दिन पुण्य रे ॥२॥ छंडिय सब सुख पालिय जिन दिख सनमुख प्रातमध्यान रे ॥३॥ प्रणमणविधना मूकीम असुना प्राज्ञा जिनवर लेवि रे ॥४॥ गाहा-ततो पुण्य पहावं सत्तम प्रवेयकस्स सोमणसे । जातुर्दिव्य विमाणे प्रहमिदो रिद्धगण जत्तो॥ अहे वहुविह गुणगण आयर सायर मायण तीस । अहे जिरणपय कमल नमंत रमंन गयासविदीस ॥१॥ अहे तो ईहा प्रावीय ऊरनउ नीपनउ राजकुमार । अहे मेघरथो अनि सुदर मंदिर गुणगण सार ॥२॥ अहे भोग वि राज सुखेन सुभेन करत सुपुण्य । अहे सील पवास सुभूपीय सोखीय पाप ए धन्य ॥३॥ अहे काले राग विवडिय छडिय तृण जिम राज । ग्रहे मन सुदइ चारित्र धरीय कारीय प्रापण काज ॥४॥ अहे भावीय षोडश कारण साधन जिणवर नाम । अहे पर्याड तीर्थकर वाधीय शुभ परिणाम ||५|| तस्मात्सविधिना विमुच्य सुमनिः प्राणान स्वपुण्योदयात्, सजातोयहमिन्द्र एव सुभगः सर्वार्थसिद्धौ महान । दिव्यांगोति शुभाशयोति विमलाः श्रीधर्म पूजादिभाक्, बाभूषांवर भूषितोति सुकृती ज्ञानत्रयासंकृतः ।। ढालवीजी-वरदेश कुरुजागल भरतक्षेत्र हस्तिनापुर नगा धमिइ पवित्र । तहि स्वामीय विश्वसेनो नरेश त्रिह-ज्ञान-विज्ञान-वहुगुणगरेश ॥१॥ तसु ऐरादेवीय घरणि जाया महारुपलावण्य सौभाग्य काया। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अनेकान्त मुदा मास छ पहिलऊं धनद देव तिह मदिर प्रावीय नितु तहेव ॥२॥ करइ रतननी वृष्टि प्राकास रही जनं देखबइ पुण्यनऊ सुफल सही। एकहि दिन सूतीय सौषिबाला निशि पाछिली दीठी हां सुपन सोला ॥३॥ पहिलऊ गजदीठ तुंग काय वली वृषभ पेखिउ महाश्वेत भाय । सिंह लक्ष्मी विप्र फूल माल पूरउ चन्द्रमा सूरिज मछसार ॥४॥ काल सविइ सरोवर समुद्र देखिउ सिहासन देव विमान । सुपेखिउ बली नाग घर रतन नी राशि सखि धगधगात घण पगनि जाल निवारी ॥५॥ हवई सांभली प्रात भेरी निनाद देवी उठीय तिहा फल भरी मानद । ततो वहिलीय भरतार पासि जाई राजा पूछिऊ सुपनना फल जकाई॥६॥ भणई भूपति देवि तह्म धरमराज सुत होइ सइ भविजन करण काज। इहे वचने हेहिय डलइ हरषि जाया तिहां पानंदिइ पूरीय सयलकाया ॥७॥ छह देवि भावी तसुगरभ साध्यउ सविकलमस शुचिद्रव्ये दूरि कीधउ । तदा देवीय सोभीय दिव्य काया जिसी पूतलो कनक कनक रहित माया ।। गाहा-भद्दवकिण्हे पक्खे सतमि दिणि रोहिणी सुणक्खत्ते । तगम्भे उप्पण्णो देवो सवदसिद्धीदो। तिहां प्रावीइ सुरपति सुर समेत जिन करियउ गर्भ कल्याण पवित्र । अहे दिग कुमारी सवि सेव करइ जिन मायन्हइ हिय डलइ देव धरइ ॥१॥ वली मास नव रतन नी वृष्टि कोधी राणी मदिर गगन मणि धारु रंधी। ज्येष्ठ वदी चउदशि याम्य योग निशि पाछिली जाइउ जिन सुयोग ॥२॥ काव्यं-ज्ञात्वा जन्म जिनेशिनः सुरवरा घंटादि नादात्ततः, ससिहासनकंपन्नाच्च सकला स्व-स्वप्रियालंकृता । तज्जन्मोत्सवकारिणः सुकृतनो हस्त्यादि यानाश्रिताः । सानंदा महतोत्सवेन सुविबस्तत्राययुः सांगनाः ॥ मठिऊ-पइसीय प्रमवागार लईय शचीय कुमार । भरतार करतले ए मू किउ नद भरिए॥१॥ सुरपति नमसकरेवि बांह अपरि थापेवि परम महोत्सविए मेरु शिखरि धरिए ॥२॥ जोयण पाठ गंभीर मुखि जोयण विस्तीर सहस्र अठोत्तरए क्षीर समुद्र भरिए ॥३॥ पाडुकशिलसिरि लेवि कांचन कलस सवेवि जिनसिरि ढालीयए निजरीति पालीयए॥४॥ इन्द्राणी कौतुकी भरीतु भमा रुली जिनवर मंडन करत । भूहरि अगि भली करीतु भमारुली तिलकनि लाहि भरत ॥१०॥ प्रांजीय प्रजनि वे नयणं तु भमारुली गलि फूल माल घालति । माथ६ मणिमइ मुकुट धर्यतु भमारुली कानि कुडल झलकति ॥२॥ हियडइ हार उद्योत काइतु भमारुली कटि मेखला सोहति । करि वीटो ककण सोहइत्तु भमारुली पगि नेउर खलकति ॥३॥ पछला पहिरावि करीतउ भमारुली कीधीय शोभ महंत । दस प्रतिसय सह ऊपना तउ भमारुली स्वेद मलादि रहत ॥४॥ सहजिइं जिनवर सुदरु तउ भमारुली मडन करिउ अपार । तेज पुज जिमि दीपीउ तउ भमारुली यौवन न लहइ पार ॥५॥ रुप निरीक्षण जिण तणू तु भमारुली नपति अपामीय इन्द्र । सहस्रनेत्रनी पाइ करो तु भमारुली जिन शोभा जोइ इन्द्र ॥६॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शान्तिनाष फाग २८५ पचारा जिन बालकं निरुपम शुस्वा प्रणम्योज्झिति, कृत्वा जन्म महोत्सव परया भूत्या समादाय ते । सको प्राप्य पुरीं प्रवेश समता राक्षां गणं पूजनं, पित्रोः संप्रविषाय भूषणवरः प्रादु प्रभाभास्वरम् ॥ पुत्र शोभा अवलोकता ए सुणि सुन्दरे माय मनि हरिष ने माइ । माल्हंतडे माइ मनि हरिख न माइ जात महोछव तव करघउ ए सुणि सुरे सजन राणी अनइ राय ॥१॥ बली हरिषि प्रानंदिनाटक करीए सुणि सुदरे सुर गया मापणइ ठामि । देवीय जिन सेवा करइ ए सुणि सुदरे भगति रमाडइ कामि ॥२॥ जिम जिम मरुकले सुत हसहए सुणि सुदरे तिमतिम माय सतोष । अनुक्रमिई शाति जिन वावीया ए सुणि सुदरे कू परहउ हमा निरदोष ॥३॥ शीखामण विण अवतरी ए सुणि सुदरे जिन मुख विद्यावाणि । ता यौवनि प्रलंकरया ए सुणि सुदरे रूप शोभा गनी खाणि ॥४॥ ऊचीय चालीस धनुष काया सुणि सुदरे हेम वरण दीपत । पूरउ जीवीय लाख वरिष सुणि सुदरे धरम मूरति जिम भत ॥५॥ मायु चउथउ भाग सुखि गयउ ए सुणि सुदरे कुमर पद भजत । बापइ राजपट बाधोय उए सुणि सुदरे सुरवर सहित सोहत ।।६।। मंडलेसर पद भोगवह ए सुणि सुदरे तेतलो बरिष महत । चक्र रतन पछइ उपनउं ए सुरिण सुदरे नवनिधि चउदह रत्न ॥७॥ महीय छ खड साधीहउ ए सुणि सुदरे राज करत महंत । चक्रवति पद भोगवद ए सुणि मुदरे मायु नउ चउथलु भाग ।।८।। गाहा-एसो पंचम चक्को गर सुर खग गाह मिय पयकमलो। भुंजइ भोग महतो सावयषम्ममि पर लोगो । अठोऊ-अंतेउर सविचरि छणऊ सहमसुनारि भूचर खेचर ए भोगवह मन हरीए ॥१॥ गज चुरासी लाख तुगा करइ सुभाप तेतला रथ वरए जू ताहा असवरए ॥२॥ ढालबीजी-कोडि अठार तुरग माए पायदल चुरासीय कोडितु । तसुपय मणमइ मुकुट बद्ध राजा सहस वत्रीसतउ ।। तिह समदेस विभासीय ए बहुतरि सहस पुराणि तउ । पाटण च्यालीस सहस पाठ ग्राम छइछणउ कोडि तु ।। सहस नवाणउ द्रोणमुख सोल सहस खेडा जाणि तु । छपन्न अन्तरदीप हुइ चउदस सहस संवाह तु ।। सहस्र अठार संख्या म्लेच्छ राजा चक्रवति पाय पडति तउ । सोल महस गण बद्ध मुर राखइ निधि अंगरत्न तउ।४। अनुपम चामर ढालीई ए सूरिज प्रभसिरि छत्र तउ । बीजली प्रभमणि कुण्डल विए कबच अभेदी वाणितउ ।। अजितं जय घर हेममय बनु वज्र काड हवेइ तु । अपर अनेरी रिद्धि घणी प्रागमि कहीय अपार तउ ।६। पुण्य फलिईसवि भोगवइ ए सरगह करज भोग तु । इम जाणि करु धरम एक जाणिय चंचल पायु तु.७० बीणंपर भवि जीव लहइ मन वाछित फन सार तु । जे न कोवउ धरम पर पमु सम तेह नऊ मायु तु ।। डालबीबी-एकहं दिन ऐ जिनवर राज काजि दर्पण मुख जोना । तब देखिय रे छिन्निए छाह तां हंस वैराग उअनुए।१। घणु संसार रे एह प्रसार सार न दीसइ दुखिन भरयु । निनु एकलु रे पावइ जाह माय करमे जीव वाधीउ ।२। सही विषय न ए विष सम सौख्य दुक्ख भोग प्रति चचला ए। सबि इन्द्रीरे विषम ए चोर घोर नरहबिल देहडी।३। इम चितता रे जिनवर पासि प्रासि वसरि सुर प्रावीया । जिन छडीय ए तृण जिम राज प्राज पालि खिचड़ी नीकल्या ।। Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ अनेकान्त अन्ते उरी रे स्वामीय पूठि मूठिहार करती नीक ली। केए फोडइ रे कंकण भार सार बिलूरह देहडी ॥५॥ एक घोडइ रे नव सर हार पार न पामह रोवती । ए केई कूट ए पेट अपार सार पाखड धरणिइ पडइं। एके बोलइ रे मधुरी बाच साच बहिनि सुणि रडि मन हनइ । लेसिउ रे पापना दीख सीखए सरग मुगतहिं तणी ।। तेह संभली ए वचन अशोकशोक मूकी धरि तउ गई। ततो प्रावी पाए शाति जिनेसर दिशि प्रावां वनि सुरसम ।। सई लेई परे वि उपवास पारि उत्तरदिशि वह सीया । भरी पाचे हे रे मुठि उपाडि वाडिनी माला के रेडी।। सब भूपति रे महस समेत हेत जेस विदूषणतणा । तप छडी रे भूषण वस्त्र शस्त्र कषाय मन शुद्धि करी। १०॥ गाहा-जिठे किण्हे पक्खे प्रवरव्हे भरणिणाम णक्खत्ते । उड्डीय सयल परिग्गह जिण दिक्खा सह य मुक्ख वल्लहिय । गसु-उपधि विछंडीय चरण सुमडिय खडिय मोहनउ जाल रे ।। परम समाधिई रहिय अबाधिई साधीय पातम ध्यान रे ।२। ध्यान अभ्यासीय धाति कर्म नासीय पासीय वनहं मझारि रे।३। पामीय ज्ञान पर केवल नुत सुर ईसर हऊ उजग देव रे ।। "पुण्य मास चतुर्दशीवरदिने पक्षे सुशक्ले सुधीः, सन्ध्यायां विनहत्य घाति प्रकृतीन संप्राप सत्केवलं । लोकालोकपदार्थदीपकमहो मुक्त्यगना वर्पण, छाग्रस्थो न विनीय शांति जिनप. सवत्सरान षोडश" अठीऊ-समोशरण वर सार रचिउ धनद् अपार कनक रयण करि ए वार सभा भरिए । अहे मोह मिय्यात विग्वडिय दंडय पाखंडिय जाल । अहे महि मंडलि विहरत करन मुधरम विसाल ।। अहे समेदाचलि लोधउ कीघउ योग निरोध । अहे काय करम सवि छेदोय भंजीय जिनवर योध ।। गाहा–जिलें ट्ठिीय कम्मो किण्हे पक्वं च उद्दमो दिवसे । संपत्ते परम सह तच्चं सो भरणी नक्खत्ते ॥ अठोक-काल अनत अपार भोग वई शिव सुख सार । पामीय वसु गुण ए रहित सविधि गण ।१० . देव मवि आवेवि शिव कल्याण करेवि । परम भगति भरी ए तो गय निज घरी ए।। जे गाइ फागि मनि प्राणी अनुराग । तेह घरि निब निधिए संपडइ सिद्धिए ।३। यो देवेन्द्र नरेन्द्रनागपतिभिनित्य स्तुतो वंदितो, हयंततीत गुणार्णवो गुणहरः कामः सुचको जिनः । भुक्त्या दिव्य सुखं नदेव जनितं प्राप्तः सुभत्यंगना, क्रीया सविकयास्तुतः सच मया येनेनयाच्छिवं ।। इति भट्टारक श्री सकलकीति विरचिते श्री शातिनाथ फाग समाप्ता। आत्म-निरीक्षण आत्म-निरीक्षण का सकल्प जीवन को समुज्ज्वल और समुन्नत बनाने में प्रबल सहायक है। यह प्रात्मोन्नति का एक अमोघ साधन है। जब अपना दोष स्वय अपने ध्यान मे आ जाता है तब उसे त्यागने में विलम्ब नहीं होता, किन्तु जब प्रात्म-दोष निरीक्षण की दृष्टि परिपक्व हो जाती है तब राग द्वेषादि विकार भावों का परिकर स्वयं दूर होने लगता है। प्रात्मनिरीक्षण के प्रभाव में दूसरों का दोष देखना सुगम है । पर अपनी स्खलित दृष्टि पर नियन्त्रण करना कठिन है । निर्मल दर्पण में चेहरा देखने पर सुन्दरता और प्रसुन्दरता का सहज बोध हो जाता है उसी तरह मात्म निरीक्षण करने से भी पवित्रता-अपवित्रता का सहज ही भान हो जाता है। प्रत. प्रात्म-निरीक्षण प्रात्म-शुद्धि का सुगम उपाय है। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक लाख रुपये का साहित्यिक पुरस्कार महाकवि जी० शंकर कुरूप को भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रवर्तित देश की सर्वोत्कृष्ट लाख रुपये के चेक के अतिरिक्त रजत-मजूषा में एक मर्जनात्मक साहित्यिक कृति के लिए एक लाख रुपये प्रशस्ति-पत्र और पुरस्कार-प्रतीक स्वरूप 'वाग्देवी' की गशि का पुरस्कार १६ नवम्बर को मलयालम के महा- कास्य-प्रतिमा शंखध्वनि तथा मगल-तिलक के साथ कवि श्री जी. शंकर कुरुप को उनके काव्यमग्रह 'मोटक्कु- समर्पित की गयी । डेढ फुट प्राकार की यह प्रतिमा उस षल' पर समर्पित किया गया। समर्पण समारोह विज्ञान प्राचीन प्रतिमा की मूर्ति है जो ब्रिटिश म्यूजियम मे भवन नई दिल्ली में सम्पन्न हा और देश की विभिन्न मग्रहीत है और सन् १०३५ मे धाराधिपति भोज की भाषापो के प्रमुख साहित्यकार, समीक्षक नया सुबी गजधानी उज्जयिनी मे उनके सभामण्डप की शोभानागरिक सम्मिलित हुए। विशिष्टता थी जहाँ देश-भर के कवियो-विद्वानो तथा मविधान-विहित देश को चौदह भाषाम्रो की सर्वश्रेष्ठ । चिन्तको के सम्मेलन हुमा करते थे। कृति पर दिया जानेवाला यह पुरस्कार भारत का सर्वोच्च १६ नवम्बर, १९६६ को विज्ञान भवन नई दिल्ली पुरस्कार है और इस प्रकार का परस्कार समर्पण समा- मे मम्पन्न हुए इस ममारोह का सभापतित्व राजस्थान के रोह भारत में पहली बार सम्पन्न हम्रा है। मम्मानित मनीषी राज्यपाल तथा प्रवर परिषद् के अध्यक्ष डा. काव्य-कृनि 'प्रोटक्कुपल' मन् १९२० मे १९५८ के बीच सम्पूर्णानन्द ने किया। स्वागत भाषण मे श्रीमती रमा सम्पूर्णानन्द प्रकाशित साहित्य में सर्वश्रेष्ठ निर्णीत हई है. यह नि जैन ने प्रवर परिषद् के प्रथम अध्यक्ष तथा भारत के प्रवर परिपद् ने सर्वसम्मति से किया था। प्रवर परिपद् प्रथम राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद की स्मृति में श्रद्धाजलि के मदस्य है -डा. मम्पूर्णानन्द (अध्यक्ष), प्राचार्य अर्पित की, जिनके प्रेरणापूर्ण सुझाव पुरस्कार योजना के काकासाहब कालेलकर, डा. नीहार रजन रे, डा०बी० रूप-ग्रहण मे बडे महायक हुए। श्रीमती जैन ने कृतज्ञता गोपाल रेड्डी, डा० करणसिह, डा. हरेकृष्ण महताब, का भाव प्रकट करते हुए कहा कि ज्ञानपीठ द्वारा उठाये डा०बी० राघवन, डा. रंगनाथ रामचन्द्र दिवाकर, गये इस कठिन कार्य को सुखद परिणाम तक पहुँचाने का श्रीमती रमा जैन, श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन। श्रेय डा० सम्पूर्णानन्द के नेतृत्व, प्रवर परिषद् के सदस्यों तथा देश के साहित्यकारो को ही है। उन्होने बताया कि श्रीमती रमा जैन और श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन पुरस्कार देश की सास्कृतिक एकता और विचार-सामंजस्य, जा प्रदायिनी संस्था भारतीय ज्ञानपीठ के प्रतिनिधि है, जोवन के यथार्थ थे. उन्हें राजनीति तथा अन्य दुराग्रहो जिसकी सस्थापना ज्ञान की विलु'न, अनुपलच पोर ने धमिल कर दिया है। इस सन्दर्भ में प्रस्तुत पुरस्कारअप्रकाशित मामग्री के अनुसन्धान एवं प्रकाशन तथा निर्णय प्रौर यह समारोह विशेष महत्व ग्रहण कर लोकहितकारी मौलिक साहित्य के निर्माग' के उद्देश्य से लेते है। सन् १९४४ मे प्रसिद्ध उद्योगपति श्री शान्तिप्रसाद जैन समारोह की महत्वपूर्णता को डा.वी.के. नारायण के द्वारा हुई थी। श्रीमती रमा जैन भारतीय ज्ञानपीठ मेनसन, महानिदेशक प्राकाशवाणी ने विशेष रूप स की अध्यक्षा है और श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन उसके मन्त्री। "चन्द्र जन उसक मन्त्रा। रेखांकित किया। महाकवि जी के जीवन और कृतित्व पुरस्कार समर्पण समारोह में महाकवि कुरुप को एक पर प्रकाश डालते हुए उन्होंने कहा कि जिस मलयालम Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अनेकान्त भाषा को दूर दक्षिण की भाषा समझकर निरपेक्ष भाव व्यक्ति को विविधता और भाव-समग्रता प्रदान करनेवाली से लिया जाता था और जिस केरल प्रान्त को केवल उसी उपाधि के रूप में भाषा को देखनेवालों के लिए यह रूप मे समझा जाता था कि वहाँ राष्ट्रपति का शासन वैविध्य अवश्य ही एक अनुग्रह प्रतीत होगा। उन्होंने है, यहाँ तक कि जिसका उच्चारण कहीं-कही 'करेला' सस्वर कहा कि सुमित्रानन्दन पन्त, उमाशकर जोशी, तक मान लिया जाता है, वहाँ भाषा और देश का वही नजरुल इस्लाम, और जी० शंकर कुरुप एक ही भारतीय आंचल माज देशवासियो के हृदय के इतने निकट पा साहित्यिक परम्परा के विभिन्न नाद है जो समग्र रूप से गये हैं कि महाकवि कुरुप के अभिनन्दन में सब कही देश के विशाल एवं प्रगाध अन्तस्तल के भावो को प्रभिहार्दिकता ही हार्दिकता दृष्टिगोचर हो रही है। व्यक्त करते हैं। अध्यक्ष डा. सम्पूर्णानन्द ने अपने भाषण मे बताया इसके अनन्तर ही कुरुप ने अपनी "निमिषम्' शीर्षक कि कवियों और विद्वानों का समादर करने की परम्परा रचना का मूल मलयालम मे पाठ किया और श्री बच्चन भारत में प्राचीन काल से चली पाती है। परन्तु प्राज ने उसका हिन्दी रूपान्तर प्रस्तुत किया। महाकवि की तक कोई योजना ऐसी नही रही जिसमे समूचे भारत को एक और रचना 'वन्दनम् परयुक' का हिन्दी रूपातर एक इकाई मानकर किसी भारतीय साहित्य-स्रजेता को 'शतश. धन्यवाद' थी दिनकर ने सुनाया। इसी प्रकार अखिल भारतीय स्तर पर सम्मान किया जा सकता। उनकी रचना बूढा शिल्ली' का अंग्रेजी अनुवाद नैशनल इस प्रभाव की प्रति अब भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा की स्कूल प्राव ड्रामा के निदेशक श्री प्रबाहम अलकाजी गयी है। उन्होंने कहा कि मैं स्वय उन लोगो मे से हूँ द्वारा प्रस्तुत किया गया। इसी अनुक्रम में महाकवि की जिन पर पुरस्कार-योग्य सर्वोत्कृष्ट कृति के चयन का शिताण्डव' शीर्षक कविता को यामिनी कृष्णमूर्ति ने अन्तिम दायित्व था। सम्भव है किन्ही दूसरे सुयोग्य भावनृत्य के रूप में प्रस्तुत किया। निर्णायकों द्वारा किमी दूमरी पुस्तक का चयन होता, भारतीय ज्ञानपीठ के मन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्र जैन ने पर सम्बन्धित सारी कठिनाइयो और सीमानों को देखने अत्यन्त संक्षेप मे संस्था का परिचय दिया और पुरस्कार हुए हमें विश्वास है कि हमने परने कर्तव्य-पालन में पूरी विधान की रूपरेखा स्पष्ट की। ज्ञानीठ की विभिन्न निष्ठा से काम लिया है और अपने प्रयास मे हमे सफलता प्रवत्तियों का उल्लेख करते हए उन्होंने बताया कि एक भी मिली है। प्रकार से यह साहित्यिक पुरस्कार ज्ञानपीठ की प्रवृत्तियो डा० सम्म र्णानन्द के हाथो पुरस्कार ग्रहण करने के की ही स्वाभाविक परिणति है। बाद महाकवि कुरुप ने साहित्य की विभिन्न समस्यानो पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा कि जिस प्रकार इस सम्बन्ध में अधिक जानकारी की अावश्यकता हो एक रत्न की अनेक मुखिकाएं होती है उमी प्रकार ये तो पापके पत्र पाने पर स्मारिका की एक प्रति भी सेवा विभिन्न भाषाएँ एक ही भारतीय हृदय की अनेक मुखि. मे भेजी जायेगी। काएं है। राजनैतिक भविवेक के कारण भाषामो की दिल्ली, सोमवार विविधता भले ही बाधा बन रही हो, मगर प्रात्माभि २१.११.१९६६ प्राशाया ये वासाः ते दासाः सर्व लोकस्य । प्राशा द.सी जेषां तेषां दासायते लोकाः ॥ माशा के जो वास है वे सारे लोक के दास हैं। जिन्होंने अपनी प्राशा को दास बना लिया, उनके लिए सारा लोक दास है। हे पात्मन् ! यदि तू विश्व विजयी बनना चाहता है तो तृष्णा का वास कभी मत बन । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीदा १. पद्मावती पुरवाल जैन डायरेक्टरी खड १)- है। मन्दिरों की संख्याके साथ उनमे प्रतिष्टित मूर्तिलेख भी सम्पादक जुगमन्दिरदास जैन, प्रकाशक, प्रशोककुमार दे दिये जाते तो और भी अधिक अच्छा होता। साथ ही जैन कलकत्ता। पृष्ठ सख्या ६५६, छपाई सफाई गेटप पद्मावती पुरवाल जाति के शिलालेख या दान पत्रादि हों सुन्दर, मूल्य सजिल्द प्रति का १०) रुपया। तो उन्हें दे दिया जाय, तो उससे उक्त जाति के इतिवृत्त पर विशेष प्रकाश पड़ सकेगा । सभव है यह पागे के खण्ड किसी भी उपजाति की समृद्धि और अस्तित्व का । ___ मे दिया जाय। परिज्ञान करने के लिए यह आवश्यक है कि उसका इतिवृत्त सकलित किया जाय । चूंकि भारतवर्ष मे विविध डायरेक्टरी के सम्पादक मूक सेवी बाबू जगमन्दिर उपजातिया है और विविध सम्प्रदाय है। यद्यपि मानव दास जी हैं। जिन्होने डायरेक्टरी के इस महान कार्य को जाति एक ही है जो मनुष्य जाति नामकर्म के उदय से उत्साह और लगन के साथ सम्पन्न किया है। मालम ममुत्पन्न हैं। किन्तु वह मानवजाति छोटे-छोटे अनेक हिस्सों होता है उन्होंने धर्म और जातीय प्रेम से प्रापूरित हो इस मे विभाजित है। जैन समाज भी अनेक उपजातियो मे वि- महान कार्य को अपने अकेले बल पर सम्पन्न किया है। भाजित है। ये विभाग किसी समूची जैन जाति की समृद्धि इसमे उन्होने जाति की महत्ता पर चार चाद लगा दिये के लिए किए गये होगे. किन्तु वर्तमान में उनकी उतनी है। डायरेक्टरी की महत्ता भी बढ़ गई है। बाबू जगआवश्यकता प्रतीत नही होती। प्रस्तु, जैन समाज मे ८४ मन्दिरदास जी जैसे धर्म-समाज-सेवी व्यक्तियों से बड़ी उपजातियो का उल्लेख मिलता है किन्तु उनमें अधिकाश प्राशाएं है। उन्होने स्वय ही इसका व्यय भार उठाया का इतिवृत्त अज्ञात है। उन चौरासी उपजातियो में पद्मा- है । और समाज के सामने एक आदर्श उपस्थित किया वती पुरवाल भी एक उपजाति है, जो जैनधर्म का अनु- है। ष्ठान करती है। पद्मावती पुरवालों का विकास पद्मावती २. ब्रह्मचर्य दर्शन-प्रवचनकार उपाध्याय अमर नगरी वर्तमान पवाया से हुआ है जो नागराजाओं की मुनि । सम्पादक विजयमुनि । प्रकाशक सन्मति ज्ञानपीठ, राजधानी थी। पद्मावती पुरवाल वाक्य भी इसी अर्थ की प्रागग, पृष्ठ स० २४० मूल्य ३-५० । अोर सकेत करता है। मैने सन् १९५० मे इस जाति के कवि रइधू का परिचय देते हुए उसके इतिवृत्त पर भी प्रस्तुत पुस्तक तीन खण्डों में विभाजित है, प्रवचन खण्ड, सिद्धान्त खण्ड और साधन खण्ड । उक्त खण्डो की कृछ प्रकाश डाला था (अनेकान्त वर्ष १० कि० १०)। विषय सामग्री की संयोजना सुन्दर है। जहा प्रथम खण्ड जिसे बाद मे पण्डित वनवारीलाल स्याद्वादी ने ब्रह्मगुमाल मे प्राधुनिक युगीन विचार-धारा उपलब्ध है, वहा दूसरे चरित की प्रस्तावना मे लिया था, परन्तु उसका कोई खण्ड मे ब्रह्मचर्य को शरीर-विज्ञान, मनोविज्ञान धर्म और उल्लेख नहीं किया। नीतिशास्त्र एवं दर्शन से परखने का, या कहने का प्रयत्न प्रस्तुत डायरेक्टरी मे पद्मावती पुरवाल समाज को किया गया है । और साधना खण्ड में ब्रह्मचर्य की साधना सख्या १० प्रान्तो मे सैतीस हजार एकसौ पचहत्तर बतलाई जीवन में उतारने के प्रयोगात्मक और रचनात्मक उपायों गई है। डायरेक्टरी में प्रमुख व्यक्तियोके चित्र भी दिये गये का दिग्दर्शन कराया गया है। उपाध्याय मुनि श्री अमर हैं। विद्वानों और प्रमुख व्यक्तियो का परिचय भी साथ मे जी स्थावकवासी समाज के एक विचारक सन्त है, जो दिया गया है। मन्दिरों आदि की सख्या भी अलग दी गई कवि हैं, साहित्यकार हैं और मालोचक भी हैं। उन्होने Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० अनेकान्त जीवन में जो कुछ भी अनुभव किया उसे उन्होंने साहि- वांठिया । व्यवस्थापक थी जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महात्यिक रचना द्वारा मानस धरातल तक पहुँचाने का प्रयत्न सभा ३ पोर्चुगीज चर्च स्ट्रीट, कलकत्ता-१ । किया है। मुनि जी अनेक ग्रंथों के लेखक हैं, जहा वे सुधारक हैं वहां वे क्रान्तिकारी विचारक भी हैं। पुस्तक प्रस्तुत शोध-पत्र में हिन्दी अंग्रेजी और बंगला तीन सुन्दर और उपयोगी है । प्रकाशन भी सुन्दर हुआ है। भाषाओं में अन्वेषणात्मक निबन्ध प्रकाशित किये गये है, जो नन् १९६४ के २५ अक्टूबर को बीकानेर में प्राचार्य ४. प्रागम युग का जैन दर्शन-लेखक पण्डित दल तुलसी के सानिध्य मे पढे गये थे। उनमें हिन्दी भाषा के सुख मालवणिया सम्पादक विजयमुनि, प्रकाशक सम्मति १४ निबन्ध उक्त पुस्तक में प्रकाशित है। यों तो सभी ज्ञानपीठ पागरा, पृष्ठ सख्या ३५३ मूल्य ५) रुपया। निबन्ध शोध-परक है। किन्तु ३-४ निबंध बड़े ही महत्त्व पूर्ण है, और वस्तु तत्व पर ठीक प्रकाश डालते है। मुनि प्रस्तुत ग्रथ में प्रागम-ग्रन्थ की रूप-रेखा का विवेचन करते हुए प्रमेय खण्ड मे श्वेताम्बरीय जैन पागम के नथमल और नागराज आदि के निबन्ध जहा शोध परक प्राधार से प्रमेय पदार्थ का विचार किया गया है। प्रमाण हैं, वहा सास्कृतिक वस्तुतत्त्व के भी निदर्शक हैं। मुनि नथमल जी के निबन्ध मे उपनिपदो में श्रमण सस्कृति का खण्ड में ज्ञानों की प्रामाणिकता का परिचय कराया गया प्रभाव परिलक्षित है। लेख सामयिक और उपनिषदो के है । साथ ही उनकी सम्यक् असम्यक् दशा पर भी प्रकाश अध्ययन को प्रेरित करता है। मुनि नगराज जी ने तिरु. डाला गया है । और पागम में निर्दिष्ट प्रामाण्य अप्रामाण्य कुरुल की रचना के सम्बन्ध में प्रो० चक्रवर्ती के विचारो की दृष्टि का भी उल्लेख किया है। वाद-विद्या-खण्ड में को पुष्ट किया है, उससे कुन्दकुन्द के समय की पुष्टि होती प्रागमों मे वाद-विद्या का महत्व ख्यापित करते हुए कथा है। माध्वी सघ मित्रा जी का ध्वनि विज्ञान नाम का के अत्थकहा, धम्मकहा और कम्मकहा और स्थानांगमे लेख भी खोजपूर्ण है । अग्रेजी में मुनि महेन्द्रकुमार जी को वणित धर्म का के भेद-प्रभेदो की चर्चा की गई है। Reality of Soul and Matter नाम का लेख भी अनन्तर पागमोत्तर जनदर्शन का विशद विवेचन किया महत्वपूर्ण है। इस तरह से सभी लेख मननीय है। डा० गया है । अन्त के दो परिशिष्टो में दार्शनिक साहित्य का सत्यरजन वनर्जी का प्राकृत भाषा के सम्बन्ध मे जो शोध विकाम-क्रम और मलयवादि का नयचक्र इन दो विषयों पत्र पढा गया था, वह प्राकृत भाषा साहित्य पर अच्छा के विवेचन भी शामिल कर दिये गये है। प्रकाश डालता है। वह इसमें नही है। सभव है वह प० दलसुख जी से प्रायः सभी जन विद्वान परि. अलग से प्रकाशित हुआ हो। उस लेख के सम्बन्ध चित है, उन्होने प० सुखलाल जी के सानिध्य में रह कर डा० बनर्जी ने परिषद् से लौटने पर मुझे बतजो साहित्य का सम्पादनादि कार्य किया है। वह सर्व लाया था अन्त मे जैन समाज के पयो की सूची भी दी विदित ही है । आपकी यह कृति प्रागम अभ्यासियों के म त शानियों के गई है। प्राचार्य तुलसी द्वारा प्रस्थापित यह परिषद लिए विशेष उपयोगी होगी। इसके लिए लेखक और सास्कृतिक तुलनात्मक अध्ययन की और प्रेरणाप्रद होगी सम्पादक दोनों ही धन्यवाद के पात्र है। पौर भारतीय साहित्य के साथ जैन साहित्य की महत्ता का मूल्यांकन करने में भी सहयोग प्रदान कर सकेगी। ४. जैन दर्शन और संस्कृति परिषद के प्रथम मधिवेशन १९६४ में पठित शोध-पत्र, सयोजक मोहनलाल परमानन्द शास्त्री Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त K . E YE A SH R पुरस्कार विजेता महाकवि जी. शकर कुरूप साहू शान्तिप्रसाद जी जैन सस्थापक भारतीय ज्ञानपीठ - भारत श्रीमती रमाजन प्रध्यक्षा-भारतीय ज्ञानपीठ वाग्देवी की प्रतिमा की प्रति छवि Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो मे उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। सपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन उपाध्ये एम. ए. डी.लिट की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-वोज के विद्वानो के लिए अतीव उपयोगी, बडा साइज, मजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्त्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । (४) स्तुनिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी वृति, पापो के जीतने की कला, मटीक, मानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुख्तार की महत्व को प्रस्तावनादि से अलकृत सुन्दर जिल्द-महित । १०) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिमका अभी तक हिन्दी अनुवाद नहीं हृया था। मुख्तार थी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलंकृत, सजिल्द । (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ॥) (८) शासनचतुस्चिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीर्ति की १३वी शताब्दी को रचना, हिन्दी-अनुवाद महित ) (६) समीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी समन्तभद्र का गृहस्थाचार-विषयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक्त, सजिल्द। .. ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा०१ सस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व सग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो की और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलंकृत, मजिल्द । (११) ममाधितन्त्र और दृष्टोपदेश-अध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित मूल्य ४) (१२) अनित्यभावना-पा० पद्यनन्दी की महत्व की रचना, मुस्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१३) तत्वार्थसूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)--मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा हास्या में घुक्त। (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५) महावीर का सर्वोदय तीर्थ ), (५) समन्तभद्र विचार-दीपिका ॥), (६) महावीर पूजा (१६) बाहुबली पूजा--जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१७) अध्यात्म रहस्य-पाशाधर की सुन्दर कृति मुस्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति मग्रह भा २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । ५५ ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक ग्रथ-परिचय और परिशिष्टों सहित । स. पं० पग्मान्द शास्त्री । सजिल्द १२) (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ मख्या ७४० सजिद (वीर शासन-सघ प्रकाशन ५) (२०) कसायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना आज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लखे। सम्पादक पं हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़ की पक्की जिल्द । ... २०) (२१) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रजी में मनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू०६) प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित। Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है मासिक दिसम्बर १९६६ ___ मासिक Bকান (*************** ra PARAN ITA NA gar KANTARA more ." .... .. AYRI **KXXXX***KKXXXXX**Xxxxxxxx******** Xxkkkkkxxxkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkkk फरणावलि और कुण्डली सहित पद्मासन पारसनाथ को प्राकर्षक मूर्ति शान्तिनाथ मंदिर खजुराहो (११वीं शती) छायाकार-नीरज जैन समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ ३०७ विषय-सूची अनेकान्त को सहायता क्रमांक विषय पृष्ठ १. सिद्ध-स्तुति-मुनि पद्मनन्दि २६१ ११) बाबू जयप्रकाश जी जैनीलाल जी जैन २. बुद्धघोप और स्याद्वाद-डा. भागचन्द जी स्वस्तिक मेटल वर्म जगाधरी (अम्बाला) द्वारा विवाहोपएम. ए. पी-एच डी. लक्ष मे निकाले हुए दान मे से ग्यारह रुपये अनेकान्त को सूत्रधार मण्डन विरचित रूपमण्डन मे जैन भी सधन्यवाद प्राप्त हुए हैं।। मूर्ति लक्षण-अगरचन्द नाहटा २६४ । १०) मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी ने अपनी ६०वे ४. क्या द्रव्य सग्रह के कर्ता व टीकाकार सम- जन्म-जयन्ती के अवसर पर निकाले हुए दान मे मे दस कालीन नही है ?-परमानन्द जैन शास्त्री २६६ रुपया अनेकान्त को सधन्यवाद भेट किये है। ५. श्री शिरपुर पार्श्वनाथ स्वामी विनति व्यवस्थापक 'अनेकान्त' नेमचन्द्र धन्नूसा जैन वीरसेवा मन्दिर, २१ दरियागज दिल्ली मेवाड़ के पुरग्राम की एक प्रशस्तिरामवल्लभ सोमानी ३०३ शिक्षा का उद्देश्य-प्राचार्य तुलसी जैन और वैदिक अनुश्रुतियो में ऋषभ तथा भरत की भवावलि-डा० नरेन्द्र विद्यार्थी एम. ए., जिनवाणी के भक्तों से पी-एच. डी. ३०९ १. एक उपदेशी पद-कविवर द्यानतराय वीरसेवामन्दिर का पुस्तकालय अनुसन्धान से सम्बन्ध १०. रामचरित का एक तुलनात्मक अध्ययन रखता है। अनेक शोधक विद्वान अपनी थीसिस के लिये मुनि श्री विद्यानन्द जी ३१५ उपयुक्त मैटर यहा से संगृहीत करके ले जाते है। सचा११. सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक पर षट लक गण चाहते है कि वीरसेवामन्दिर की लायब्ररी को खण्डागम का प्रभाव-बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री ३२० और भी उपयोगी बनाया जाय तथा मुद्रित और प्रमुद्रित १२. अग्रवालों का जैन मस्कृति में योगदान शास्त्रो का अच्छा संग्रह किया जाय । अतः जिनवाणी के -परमानन्द शास्त्री ३२६ प्रेमियों से हमारा नम्र निवेदन है कि वे वीरसेवामन्दिर १३. कुछ पुरानी पहेलिया-डा. विद्याधर लायब्रेरी को उच्चकोटि के महत्वपूर्ण प्रकाशित एवं हस्तजोहरा पुरकर लिखित ग्रन्थ भेट भेज कर तथा भिजवा कर अनुगृहीत १४. मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी का १०वां करे। यह सस्था पुरातत्त्व और अनुसन्धान के लिए प्रसिद्ध है। जन्म-जयन्ती उत्सव-परमानन्द शास्त्री ३३३ -व्यवस्थापक अनेकान्त शोधकण-चपावती नगरी-नेमचन्द धन्नूसा ३३४ अभयचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीकृत सस्कृत वीर सेवा मन्दिर २१ दरियागंज, दिल्ली। कर्मप्रकृति-डा. गोकुलचन्द्र जैन प्राचार्य एम.ए. पी-एच. डी. १७ साहित्य-समीक्षा-परमानन्द शास्त्री २३७ अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै० सम्पादक-मण्डल डा० प्रा० ने० उपाध्ये अनेकान्त में प्रकाशित विचारो के लिए सम्पादक डा० प्रेमसागर जैन मण्डल उत्तरदायी नहीं हैं। श्री यशपाल जैन व्यवस्थापक प्रनेकान्त ___ ३३१ १ ३३५ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम् अनकान्त परमागमस्य बीजं निषिडजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष १६ किरण ५ । वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९३, वि० स० २०२३ । दिसम्बर सन् १९६६ सिद्ध-स्तुतिः सिद्धात्मा परमः परं प्रविलसद्बोधः प्रबुद्धात्मना, येनाज्ञायि स किं करोति बहभिः शास्त्रैर्वहिर्वाचकः। यस्य प्रोद्गतरोचिज्ज्वलतनुर्भानुः करस्थो भवेत, ध्वान्तध्वंस विधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान् ॥२५॥ सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सद्दर्शनाः, सर्वत्राखिल वस्तुजातविषयव्यासक्तबोधत्विषः । सर्वत्र स्फुरदुन्नतोन्नत सदा नन्दात्मका निश्चलाः, सर्वत्रय निराकुला: शिवसुखं सिद्धाः प्रयच्छन्तु नः ॥२६॥ -मुनि श्री पद्मनन्दि प्रर्ष-जिस विवेकी पुरुष ने सम्यग्ज्ञान से विभूषित केवल उत्कृष्ट सिद्ध आत्मा का परिज्ञान प्राप्त कर लिया है वह बाह्य पदार्थों का विवेचन करने वाले बहुत शास्त्रों से क्या करता है-उनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। ठीक ही है-जिसके हाथ मे किरणो के उदय से संयुक्त उज्ज्वल शरीर वाला सूर्य स्थित होता है वह क्या अन्धकार को नष्ट करने के लिए रत्ल के दीपक आदि को खोजता है-नही खोजता ॥ जो सिद्ध जीव समस्त प्रात्म प्रदेशों में कर्म बन्धन से रहित हो जाने के कारण सब पात्म प्रदेशों में व्याप्त समीचीन दर्शन से रहित हैं, जिनकी समस्त वस्तु समूह को विषय करने वाली ज्ञान ज्योति का प्रसार सर्वत्र हो रहा है जो सर्वश हो चुके हैं, जो सर्वत्र ही निश्चल एवं निराकुल हैं; ऐसे वे सिद्ध हमें मोक्ष सुख प्रदान करें ॥२५, २६॥ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुद्धघोष और स्याद्वाद डा० भागचन्द्र जैन प्राचार्य एम. ए. पी-एच. डी. प्राचार्य बुद्धघोष पालि साहित्य के युगविधायक अन्त सम्बन्धी मिथ्यादृष्टियां भी पाच भागों में विभक्त प्राचार्य कहे जाते हैं। चौथी-पाचवी शताब्दी ईसवी मे हैं-१. ऊर्ध्वमाघातनिक संजीवाद, २. ऊर्ध्वमाघातनिक इस व्यक्तित्व ने प्राचीन परम्परा के अनुमार स्वयं के मसजीवाद, ३. ऊर्ध्वमाघातनिक नैव सजीवाद नैव असज्ञी. विषय में विशेष कुछ नही लिखा। उनकी अट्ठ-कथाओं के वाद, ४. उच्छेदवाद, और ५. दृष्टधर्म निर्वाणवाद। अतिरिक्त उनके विषय में सूचनाये देने वाले कुछ और इनमें बुद्धघोष के अनुसार भगवान् महावीर (निम्गण्ठ साधन हैं-(१) महावंश की २१५-२४६ गाथाये, नातपत्त ) ने अपने परिनिर्वाण के अन्तिम समय में अपने दो (२) बुद्धघोसुत्पत्ति, (३) गन्धवस, (४) सासनवंश और शिष्यो को शाश्वतवाद और उच्छेदवादका उपदेश दिया। (५) सद्धम्म संग्रह । इनमें महावंश का भाग, जो तेर- पावसो त्वं मम अच्चयेन सस्सत इति, गण्हयेसि । हवीं शताब्दी के भिक्षु धम्मकित्ति की रचना है, इस एव द्वेपि जने एके लतिके प्रकत्वा बहु-नाना-नीहारेन विषय में अधिक प्रामाणिक कहा जा सकता है। तदनुसार उग्गण्हयेत्वा कालं प्रकासि । ते तस्स सरीरकिच्चं कत्वा बुद्धघोष का जन्म बोधि गया के समीप ब्राह्मण परिवार सन्निपतिता अञ्चं अञ्च पुच्छिसु-"कस्स" माबुसो मेहमा था। वे कुशल वेदज्ञ थे। पातञ्जलि मत पर अचरियो सारं प्रचिक्खि ? ति "सस्मत" ति । अपरो तं उनका अधिकार था। वाद-विवाद करने में भी प्रत्यत्त पटिवाहेत्वा" मह्य सार प्राचिक्खी'....."उच्छेदवाद" प्रवीण थे। एक बार जैसे ही ये बौद्ध भिक्षु रेवत द्वारा ति२। पराजित हुए कि इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और इस उद्धरण मे जहा यह पता लगता है कि बुद्धघोष उसका अध्ययन कर उसमे पारङ्गत हो गये। श्री लंका जैसे महाविद्वान ने स्याद्वाद को ठीक तरह से समझा नही, पहुँच कर उन्होंने त्रिपिटक पर अट्ठकथाये लिखीं जिनकी वहाँ यह भी समझ में आता है कि बुद्धघोष ने त्रिपिटक संख्या लगभग बीस है। पर टीकायें लिखी हैं और इसीलिए उनमे परम्परागत पचम शताब्दी के युग मे उत्तर भारत में रहने वाला। विचारधारा का प्रालेखन अवश्य होगा। ये दोनों अनुमान ब्राह्मण अथवा बौद्ध विद्वान जैनधर्म एव दर्शन के ज्ञान से त्रिपिटक के देखने से सही हो जाते है। स्याद्वाद को समअछूता रहे यह कैसे संभव था। बुद्धघोष ने भी त्रिपिटक झने मे जो भूल भगवान् बुद्ध और उनके सम-सामयिक की अट्रकथामो में जहा तहा जैनधर्म के विषय मे लिखा प्राचार्यों व शिष्यों ने की है वही भूल उत्तरकालीन है भले ही वह निष्पक्ष न हो। यह स्वाभाविक भी है। प्राचार्यों द्वारा दुहरायी जाती रही है। बुद्धघोष इसके फिर भी त्रिपिटक में आते हुए जैन विषय अट्ठकथानों मै अप त्रिपिटक मे वणित उपर्युक्त वासठ मिथ्यादृष्टियों को कुछ और स्पष्ट हो जाते हैं । विहंगम दृष्टि से देखे तो उनमें मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में वासठ मिथ्या दृष्टियो का उल्लेख पाता है। इनमे १८ मिथ्या दृष्टिया जीवन एक शाश्वतवाद, जो वस्तुविशेष को नित्य व स्थिर स्वीऔर जगत के आदि सम्बन्धी हैं और ४४ अन्त सम्बन्धी। कार करता है और दूसरा उच्छेदवाद, जो वस्तुविशेष को पादि सम्बन्धी मिथ्या दृष्टियां पांच भागों में विभाजित १. दीघनिकाय, भाग १, पृ० १२ हैं-१. शाश्वतवाद, २. नित्यता-अनित्यतावाद, ३. शान्त- २. दीघनिकाय अट्ठकथा भाग २, पृ०६०६-७; मज्झिमअनन्तवाद, ४. अमराविक्षेपवाद मौर ५. अकारणवाद । निकाय अट्टकथा-भाग २, पृ० ८३१ । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दुरपोष और स्यावाद २८३ अनित्य व अस्थिर स्वीकार करता है जहां यह सत्य है कि के सिद्धान्तों का उल्लेख करता हैजैन दर्शन ने प्रारम्भ से ही इन दोनों कोटियों को आने- १. सम्ब मे खमति। २. सब मे न समति । कान्तवाद का प्राश्रय लेकर कथञ्चित दृष्टिकोण से ३. एकच्चं मे खनति सूच्चं मे न खनति ।। समन्वय स्थापित करने का प्रयत्न किया है। वहां यह भी सत्य है कि इस प्रयत्न की-सिद्धान्त की-प्रायः सभी ये तीन भंगिया स्यावाद की प्रथम तीन भंगियों का जैनेतर दार्शनिक व सैद्धान्तिक ग्रन्थों में खूब पालोचना अनुगमन करता की गई है। हम त्रिपिटक को ही ले। भगवान बुद्ध १. स्यादस्ति । २. स्यान्नास्ति । ३. स्यादस्तिनास्ति । सच्चक ३ की मालोचना यह कह कर करते हैं कि तुम्हारा इन भंगिमों को यदि बुद्धघोष ने सूक्ष्म दृष्टि से समपूर्व कथन पश्चात् कथन से विपरीत पड़ता है और झने का प्रयत्न किया होता तो शायद उनसे इतनी बड़ी पश्चात्कथन से पूर्व कथन (न खोते सन्धियति पुरिमेण भूल न होती । स्यावाद निःसन्देह शाश्वतवाद और उच्छेदवा पच्छिम पच्छिमेण वा पुरिमं)४ । स्याद्वाद के विरोध वाद पर विचार करता है, परन्तु "कथचित्" दृष्टिकोण में यह स्वात्मविरोध (Self Chntradiction) शायद से । इस दृष्टिकोण को किसी भी जैनेतर दार्शनिक ने प्राचीनतम होगा। हृदयंगम नही किया। निग्गण्ठ नातपुत्त और चित्त गहपति के बीच हुए सवाद से भी यही बात ध्वनित होती है। चित्त गहपति __ 'स्यात्' शब्द के उपयोग के विषय में पालि त्रिपिटक नातपुत्त के कथन पर टिप्पणी करता है कि यदि आपका में कुछ भी उल्लेख नहीं मिलता। चून राहुलोवादसुत्त में पूर्वकथन सत्य है तो उत्तर-कथन असत्य है और यदि उत्तर "ते जो धातु सिया अज्झनिका सिया वहिरा" जैसे प्रसगों में उसका जो उपयोग मिलता है वह बौद्ध दार्शनिक क्षेत्र कथन सत्य है तो पूर्व कथन असत्य है-सचे पुरिमं सच्च, पच्छिमं ते मिच्छा, सचे पच्छिमं सच्च, पुरिमं ते मिच्छा५। का है। जैनदर्शन में "तिया" शब्द का प्रयोग होता था, इस विषय मे त्रिपिटक मौन है। इस मौन से "स्याद्वाद" भगवान् सुद्ध और उनके शिष्यो ने वस्तुतः स्याद्वाद का कुछ अधिक नहीं बिगड़ा। पर पञ्चम शताब्दी, जो को सही ढंग से समझने का प्रयत्न ही नहीं किया । छठवी जन और बौद्ध दोनों दर्शनो का विकास का महत्वपूर्ण शताब्दी ई० पू० के उस विसंवादिक युग में जहाँ अन्य दार्शनिको ने प्रत्येक वस्तु को ऐकान्तिक दृष्टिकोण से काल रहा है, मे उत्पन्न हुए बुद्धघोष जैसे प्राचार्य ने यह देखा वही नातपुत्त ने दृप्टवादिता को दूर कर मनो. भूल कैसे की, यही प्राश्चर्य है। इस समय तक तो कुन्दमालिन्य मिटाने का भरपूपूर प्रयत्न किया और वस्तु कुन्द, समन्तभद्र, सिद्धसेन दिवाकर जैसे धुरन्धर जैन स्वरूप को अनेकान्तिक दृष्टि से जनता के समक्ष प्रस्तुत तत्ववेत्तामों का साहित्य बुद्धघोष को सुलभ रहा ही होगा। फिर भी बुद्धघोष के रिमार्क में गभीरता का अश दिखाई किया। दीघनख परिब्बाजक, जो उच्छेदवाद का समर्थक और सञ्जय के सिद्धान्त का पोषक रहा है६, तीन प्रकार क्यों नही देता? हो सकता है कि उन्होंने त्रिपिटक की मान्यता का ही निर्देशन किया हो। यह अनुमान तब ३. सच्चक मूलत. पार्श्वनाथ सम्प्रदाय का अनुयायी था और भी सत्य बैठता है जब हम बुद्धघोष को ही त्रिपिटकके परन्तु उत्तरवाद मे वह भगवान महावीर द्वारा सुधारे मात्मा विषयक रूपी प्ररूपी आदि सिद्धान्तोंके बीच "मरूपी गये सम्प्रदाय का भक्त हो गया था। मात्मा" जैनों का सिद्धान्त है यह कहते हुए पाते है।। ४. मज्झिमनिकाय भाग १, २३२ । ५. संयुत्तनिकाय भाग ४, ८. २६८-६९। ७. मरूप समापत्ति निमित्तं पन प्रत्ता ति समापत्ति सञ्च ६. Dictionary of Pali Proper names-दीधनख च अस्स सजी गहेत्वा वा निगण्ठो प्रादयो पञ्चा शायद जैन रहा होगा। उसे और दीघतपस्सी को एक येति, विय तक्कमत्तेन एव वा, प्ररूपी धत्ता सञ्जीति माना जाय तो यह मनुमान मौरभी सही हो जाता है। नं."सुमंगल विलासिनी, पृ० ११०। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रधार मण्डन विरचित 'रूपमएडन' में जैन मूर्ति लक्षण श्री प्रगरचन्द नाहटा जैन धर्म में मूर्ति पूजा का प्रचार बहुत ही प्राचीन- भगवान ऋषभदेव का निर्वाण कैलाश पर्वत पर हमा काल से चला पा रहा है। जैन आगमों और उनके जिसकी एक-एक योजन की पाठ पेड़िया थी इसलिए उसे ग्याख्या ग्रन्थों तथा जैन कथा ग्रन्थों से तो प्रथम तीर्थकर अष्टापद तीर्थ कहा गया है। वहा भरत ने एक विशाल भगवान ऋषभदेव के समय से ही जैनधर्म में मूर्ति पूजा स्नूप या मन्दिर का निर्माण करवाया था जिसकी मूल का प्रचार सिद्ध होता है । इस मनुप्य लोक मे ही नही वेदिका मे चारों ओर २४ तीर्थकरो की प्रतिमाएं स्थापित देवलोक में भी शाश्वत जैन चैत्य व मूर्तियां है। देवों ने की गई जो कि भगवान महावीर के समय तक विद्यमान अपने स्थान पर उत्पन्न होने के अनन्तर ही अपने वहा के थी। भगवान महावीर के प्रथम पोर प्रधान गणधर जैन चैत्यों और मूर्तियों की विधिवत पूजा की इसका भी इन्द्रभूति गौतम अष्टापद तीर्थ की यात्रा करने पधारे थे विस्तृत विवरण 'राय पसेणी जीवाभिगम' प्रावि प्राचीन और तीन पेड़ियों पर तपस्या करने वाले ५०१-५०१ जैन भागमों में प्राप्त होता है। नंदीश्वर द्वीप आदि में भी मुनियो को जैन धर्म में दीक्षित कर अपना शिष्य बनाया शाश्वत जैन चैत्य एवं मूर्तियां है ही। इस भरत क्षेत्र में था। भगवान महावीर के बाद कैलाश हिम से पाच्छादित भी सर्व प्रथम भगवान ऋषभदेव जब मुनि अवस्था में हो गया भतः हिमालय कहलाने लगा। अष्टापद तीर्थ विचरते हुए अपने शक्तिशाली बाहुबलि की गजधानी उसी बर्फ में विलीन हो गया प्रतीत होता है। तक्षशिला के बाहर पधारे । बाहुबलि को प्रभु का पागमन भगवान महावीर के समय में पूर्ववर्ती जैन तीर्थकरों ज्ञात हुमा पर इस विचार से कि कल प्रातः सेना मोर के स्तूप आदि विद्यमान थे। मथुरा का देव निर्मित नगर-जनो के साथ बड़े धूमधाम से प्रभु-दर्शन करूंगा। मपाच और पार्श्वनाथ का स्तुप तो मध्यकाल में भी तत्काल ऋषभदेव के दर्शन को न जा सके। दूसरे दिन तीर्थ के रूप में बरत प्रसिद रखा है। मौभाग्य से प्रात: बाहुबलि के बहा पाने से पूर्व ही ऋषभदेव वहाँ से ककाली टीले की खुदाई में उस स्तूप के अवशेष-पायागपट्ट विहार कर गये क्योंकि वे तो सर्वया नि स्नेही थे-वीत- व लेख प्राप्त हो गये है। राग थे। जन प्रतिमायो मे तीर्थकर प्रतिमाओं का निर्माण तो बाहुबलि को जहा प्रभु ठहरे हुए थे वहाँ जाने पर काफी प्राचीन है पर अन्य देवी-देवतामों की प्रतिमायें कब जब प्रभु के बिहार कर जाने की बात मालूम हुई तो मन से बनने व पूजी जाने लगीं इसका इतिहास अन्वेषणीय है। मे वेदना का पार नहीं रहा। उन्होंने सोचा मैं कितना प्राचीन जैन आगमों में उस समय के अनेक स्थानों के हतभागी हैं कि प्रभु का प्रागमन ज्ञात कर भी तत्काल यक्षायतनों का महत्वपूर्ण उल्लेख मिलता है। जैन प्रतिदर्शनार्थ नहीं पहुँच सका। सेना और जनता के साथ मामो के लक्षण एवं निर्माण सम्बन्धी उल्लेख मध्यकाल आडम्बर से पाने की बात सोचता रहा और प्रभु तो अब के ही प्राप्त होते है। वास्तु-शास्त्र के प्राचीन जैनेतर अघों अन्यत्र जा चुके हैं। अन्त मे उमने जहाँ प्रभु कायोत्सर्ग मे भी जैन प्रतिमानों के लक्षण वणित है। मानसार, में अवस्थित हुए थे वहां उनकी चरण पादुकायें बनवा-कर अपराजित पृच्छा प्रादि जैनेतर अन्य उल्लेखनीय है। स्थापित की मोर उन्ही के दर्शन-पूजन से अपने को जैन वास्तु सार, प्रतिष्ठा कल्प, निर्वाण कलिका, भाचारकृतार्थ किया। दिनकर मादि अनेक जैन ग्रन्थों में जैन प्रतिमामों के Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रधार मण्डन विरचित 'पमहन' में नमति लक्षण लक्षण मादि बतलाये गये हैं। उन मब के माधार से श्री सम्बन्ध में और भी कई अन्य प्रकाक्षित किये है। प्रतिया बालचन्द्र जैन, क्यूरेटर, रायपुर म्युजियम का एक लेख विज्ञान' मे जैन धर्म, जैन मन्दिर जैन प्रतिमा पादि 'जैन प्रतिमा लक्षण' के नाम से 'अनेकान्त' के अगस्त ६६ सम्बन्ध में काफी महत्त्वपूर्ण प्रकाश डाला गया है। परिके अंक (वर्ष १६ किरण ३) में प्रकाशित हुया है। शिष्ट में अपराजित पच्छा के श्लोक भी उदघृत कर दिये गुजरात और राजस्थान जैन मन्दिर और मूर्तियों गये हैं। की दृष्टि मे बहुत ही उल्लेखनीय है। यहा सोमपुरा डा० द्विजेन्द्रनाथ शुक्ल का दिया हमा विवरण रूप नामक शिल्पियों की एक जाति बश-परम्पग से जैन मण्डन की अपेक्षा भी काफी विस्तृत है। इसलिए उसे मन्दिगे व मूर्तियों के निर्माण में अग्रणी रही है। अनेक ही बने मन्य स्वतन्त्र लेख मे प्रकाशित किया जायगा । वास्तव में शिलालेग्यों मे उस मन्दिर व मतियो के शिल्पियों का भी जन मन्दिर और मूर्तियो सम्बन्धी जो भी विवरण वास्त नामोल्लेख पाया जाता है। इन सत्रधारों मे १५वी शारत्र के ग्रन्थो में उपलब्ध है वह काफी अपूर्ण लगता है। शताब्दी के सूत्रधार मण्डन बहत ही उल्लेखनीय हैं जिन्होंने इनमें उल्लिखित जन प्रतिमानो के अतिरिक्त अन्य अनेक मेवाड के महाराणा कुम्भा के समय वास्तु-शास्त्र के कई प्रकार की पाषाण व पीतल की (सप्त धातु) छोटी-बड़ी महत्वपर्ण ग्रन्थों की रचना की। उसके रचित प्रामाद अनेक लियो की मूर्तिया प्राप्त है। समय-समय पर प मण्डन, राज वल्लभ देवता मति प्रकरण इनकी शैली और कला मे काफी परिवर्तन व परिवर्शन पादि ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके है। प्रामाद मण्डन का हुया है। दक्षिण भारत और उत्तर भारत के जैन मन्दिरों हिन्दी अनुवाद के साथ एक मुन्दर सस्करण प० भगवान- पर जनेनर मन्दिर-मूर्ति निर्माण कला का भी काफी दाम जैन, जयपुर ने प्रकाशित किया है। और रूप मण्डन प्रभाव पडा । कुछ विलक्षण जैन व जनेतर मूर्तियां पुराको हिम्दी अनुवाद के साथ डा. बलराम श्रीवास्तव ने तत्व अवशेषो में प्राप्त हुई हैं जिनके सम्बन्ध में वास्तुमम्पादित कर मोतीलाल बनारसीदास, वाराणसी से मन शास्त्र के ग्रन्यो मे कही उल्लेख तक नहीं मिलता। प्रत १९६४ में प्रकाशित करवाया है। रूप मण्डन का छठा यावदयकता है जैन मन्दिर व मूतियो की कला का प्राप्त अध्याय जैन मूनि गक्षणाधिकार' है । ३६ श्लोको के इम माधनो के आधार से सम्यक् अध्ययन और विवेचन किया मध्याय के सम्बन्ध मे डा. बलराम श्रीवास्तव ने भूमिका जाय । उत्तर भारत की जैन श्वेताम्बर मूर्तियों का तो मे अच्छा प्रकाश डाला है । जैन समाज की जानकारी के बडौदा के डा. उमाकान्त शाह ने बहुत विस्तृत एवं के लिए जैन मूर्ति लक्षण सम्बन्धी भमिका का प्रश यहा गम्भीर अध्ययन किया है पर अभी तक उनका विशाल नीचे दिया जा रहा है: शोर प्रबन्ध प्रकाशित नहीं हो पाया है। 'जैन पार्ट' डा. बलगम श्रीवास्तव ने रूप मण्डन के अनिम्ति नामक छोटा ग्रन्थ ही अग्रेजी में प्रकाशित हुमा है। उत्तर बहद् महिना, जैन माइकनोग्राफी, अपराजित पृच्छा, पादि दाक्षण-भारत के दि. व. मन्दिर मूतियों का के आधार से विषय को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया है। अध्ययन प्रभी किया जाना अपेक्षित है। मण्डन का देवता मूर्ति प्रकरण भी हमारे मग्रह का जैन मृति लक्षणमुनि कान्तिसागर जी को भेजा हुआ है अन्यथा उसमे पमण्डन' का छठा और मन्तिम अध्याय 'जैन मूर्ति माये हये जैन सम्बन्धी विवरण को भी यहा माथ में लक्षणाधिकार' है। मूत्रधार मण्डन के काल में गुजरात दिया जाता। और राजस्थान में जैनधर्म का बड़ा प्रभाव था और जैन जैन प्रतिमा लक्षण सम्बन्धी और एक ग्रन्थ मन मन्दिरो तथा मूतियो के निर्माण का प्रचार था। मूत्रधार १९५६ मे 'प्रतिमा विज्ञान' के नाम से हिन्दी मे प्रका- मण्डन ने जैन-प्रतिमा लक्षण का मूक्ष्म किन्तु उपयोगी शित मा था उसके लेखक डा. विजेन्द्रनाथ शुक्ल, विवरण प्रस्तुत किया है। जैन माहित्य में जिनों तथा लखनऊ विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग में है उन्होने इस तीर्थंकरों के मूर्ति लक्षणों का यत्र-तत्र विवरण मिलता है। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त चतुर्विशति तीर्थकरों की प्रतिमा के लक्षणों में स्वतः बहुत जिन प्रतिमानों पर प्रशोकदुम होना चाहिए । 'रूपमण्डन' भेद नहीं होता । 'बृहत्संहिता' में जिनों का प्रतिमाविधान (६-३४)। इस प्रकार बताया गया है : __रूपमण्डन' में चतुर्विशति तीर्घकरों की गणना की भाजानुलम्बबाहुः बीवरसार प्रशान्त मूर्तिश्च । गयी है। साथ ही उनके यक्ष और यक्षिणियों की भी बिग्वासातरूणो रूपवारच कार्योमहंता देवः। गणना है। किन्तु विशेष विवरण केवल कुछ हो का है। यह महंतों अथवा तीर्थंकरों का सामान्य विवरण है। रूपमण्डन' के अनुसार चतुर्विशति जिनों में केवल चार ही 'पमण्डन' (१४३३-३९) में महंत प्रतिमा का समग्र विशेष प्रसिद्ध है। इनके नाम, इनकी यक्षिणियां और वर्णन है। इसके अनुसार तीर्थकर की प्रतिमा के प्रावश्यक सिंहासनादि का वर्णन इस प्रकार किया गया है :तत्व इस प्रकार होंगे : जिनस्य मूतियोऽनन्ता पूजिताः सर्व सौख्यदाः। १. तीन छत्र। चतस्त्रोऽतिशययुक्तास्तासां पूज्या विशेषतः । २. तोरणयुक्त तीन रचिकाएं। श्री प्राविनायो नेमिश्च पाश्वों वीरश्चतुर्षक:। ३. अशोक दुम और पत्र। चश्वयंम्बिका पपावती सिवायकेति च ।। ४. देव दुन्दुभि । फैलाश सोमशरणं सिद्धति सदाशिवम् । ५. सुर गज सिंह से विभूषित सिंहासन । सिंहासनं धर्मचक्रमपरीन्द्रातपत्रकम् ॥ ६. प्रष्ट परिकर। . (६।२५-२७) ७. यो सिंह मादि से अलंकृत वाहिका या यक्ष । चतुर्विशति तीर्थकगे, उनके ध्वज, यक्ष, यक्षिणी पौर विष्ण, चण्डिका, वर्ण का विवरण तालिका-सख्या ३० मे स्पष्ट किया गया जिन गौरी, गणेश मादि की प्रतिमाएँ। है। तालिका-सख्या ३१ में अन्य ग्रन्थो के माधार पर रूप मण्यन' का यह विवरण मूर्तिकारों में प्रचलित के केवलवक्ष' और चामरधारिणी का भी विव. शिल्प की व्यावहारिक परम्परा के सर्वथा मेल में है। रण प्रस्तुत किया गया है.पोरण अथवा रपिका पर तेईस तीर्थकरों की प्रतिमामो के तालिका संख्या ३० बनाने का विधान मध्ययुगीन शिल्प परम्परा मे बहुमान्य ___ संख्या तीर्घकर ध्वज यक्ष बा। रपिकामों पर ब्रह्मादि हिन्दू देवताओं की मूर्तियों यक्षिणी ম को बनाने के विषय में यह कहा जाता है कि चूंकि वृष गोमुख चक्रेश्वरी ब्रह्मादि देव भी कभी चतुविशति तीर्थंकरों के उपासक थे, अजित महायक्ष अजितबला प्रतएव नियों के लिए हिन्दू-देव भी भादरणीय हैं।। सम्भव अश्व विमुख दुरितारी मभिनन्दन कपि३ यक्षेश्वर कालिका तीर्थकर प्रतिमा-विधान काँच तुम्बर महाकाली चतुर्विशति तीर्थकरों की प्रतिमानों में साम्य होने पर पद्मप्रभ रक्त प्रवज कुसुम स्यामा भी उन्हें उनके ध्वज (लांछन) वर्ण, शासन देवता, और सुपाव स्वस्तिक मातग शाता देवी (यक्ष मौर यक्षिणी), केवल वृक्ष तथा चामर पारी चन्द्रप्रभ शशी विषय भृकुटि और पामरधारीणी के माधार पर अलग-अलग समझा जा सुविध मकर जय४ सुतारिका सकता है। रूप मण्डन' में केवल वृक्ष और चामरधारिणी शीतल श्रीवत्स अशोका का विवरण नहीं है। इसकी परम्परा के अनुसार सभी ३. रूप मण्डन का पाठ स्पष्ट नहीं है। मपरा के अनु१.जी.सी. भट्टाचार्य, जैन प्राइकनोग्राफी पृ०२५.२६. सार (२२रा) कपयः है। २. बही पृ. ४-.. ४. अन्य पंधों के मनुसार रचित । सुमति Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रधार मण्डन बिरचित 'स्पडन' में न तिसक्षम सुलूम नेमि महास श्रेयांस मण्डक' यक्षेट्र मानवी १४ अनन्त पुरुषोत्तम् वासुपूज्य महिष कुमार चण्डी १५ धर्म दधिपणं पुण्डरीक विमल कर षण्मुख विदिता १६ शांति नन्दिवृक्ष पुरुषतत् अनन्त __ श्येन पाताल मकुक्षी तिलक तरू कुम्तुल धर्म वच किन्नर कंदी १८ पर ध्यत गोविन्द राजा शाति मृग गरुड़ निर्वाणी १६ मल्लि अशोक छाग गन्धर्व बाला २० मुनिसुव्रत चम्पक अजित पर नन्द्यावर्त यक्षेट्३ धारीणी २१ नमि बकुल विजय राय मल्लि घटकुबेर धरणाप्रिया २२ महावेणु उग्रसेन मुनिमुव्रत कूर्म वरुण नादरक्ता २३ पावं देवदार प्रजितराय नमि नीलोत्पल भृकुटि । गध४ २४ महावीर शाल श्रेणिक नेमि शक गोमेध अम्बिका पाश्र्व फणी पाव५ पद्मावति सूत्रधार मण्डन ने (जिन मूर्ति प्रकरण) में श्वेताम्बर महावीर सिंह मातङ्ग सिद्धायिका सम्प्रदाय की परम्परामों को ही मान्यता दी है। तीर्थकर मूतिविधान पर दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायगत तालिका संख्या ३१ परम्परामों की भिन्नता का प्रभाव है। दिगम्बर सम्प्रदाय सख्या तीर्थकर केवलवृक्ष चामरधारी या धागेणी के अनुसार मुविध, शीतल और अनन्त का लांछन या १ वृषभ न्यग्रोध भरन और बा. ध्वज क्रमश. वृश्चिक, अश्वत्थ और कृक्ष है। इसी प्रकार २ अजित मातपणं सगर चक्री सुपावं, थेयास, वासु पुज्य, विमन, अनन्त, धर्म, शाति, ३ मम्भव शाल सत्य वीर्य कुष, मल्लि और नेमिनाथ की यक्षणिया भी क्रमशः काली, ४ अभिनन्दन पियाल गौरी, गाधारी, रोटी, अनन्तमती, मानसी, महामानसी, ५ मुमनि पियाग मित्रवीर्य विजया, ब्रह्मरूपिणी, चामुण्डी और कुष्माण्डिनी है। ६ पद्मप्रभ छत्राभ यमदूती श्रेयाम और शानि के यक्ष भी दिगम्बर सम्प्रदाय के मत ७ सुपावं शिरिख धर्मवीयं से यक्षेट् पौर गमड न होकर क्रमश ईश्वर और कि ८ चन्द्रप्रभ नागकेशर दानवीर्य पुरुष है। सुविध नाम या मल्लि मधवत् राजा __'रूपमण्डन' (४) में जिनों के वर्गों का विवरण १. शीतल विल्व राजसिहारि ११ मपूर्ण और मदिग्ध है। 'अपगजित पृच्छा' (२२११५-७) तुम्बर राजा त्रिपिष्ट मे भी जिनों का वर्ण-विवरण मदोष ही है। वासुपूज्य पाटनिक दिरपिष्ट १३ विमल जम्बु स्वयम्भू शासन देवता१. 'अपरा. में गहक पाठ गडे के लिए है। 'रूपमण्डन' कुछ विशिष्ट शासन-देवनामों का वर्णन 'रूपमण्डन (६३) का पाठ खगीश है जो अशुद्ध है। में पृथक रूप से भी दिया गया है। इनके-वाहन, वर्ण, २. अन्य ग्रन्यो के अनुसार ईश्वर है। मायुध मादि का विवरण तालिका ३२ से ज्ञातव्य है। ३. अन्य ग्रन्थों के अनुसार क्षेन्द्र या यक्षेन्द्र है। तालिका-मस्या ३३ में जिनके पाट प्रतिहारी (इम, इना. ४. अपरा० का पाठ गाधारी है । जय माहेन्द्र, विजय धरणेन्द्र, पाक सुनाम, सुरदुन्दुभि) ५. इनका नाम वामन अथवा बरणेन्द्र भी है। तथा उनके पायुधों को स्पष्ट किया गया है। श्रेयाम Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९५ अनेकान्त तालिका संख्या ३२ ५ पद्मावती कुक्कुट रक्तप्रयस्वत् पत्र, पाश, अंकुश, (शासन देवता) वीजपूरक। देवता वाहन वर्ण आयुष विशेष ६ मातंग गज सित नकुल, बीजपूरक १ पावं कूर्म श्याम वीजपूरक, गजानन ७ सिद्धायिका सिंह नील पुस्तक, अभय, वाण, उरग, नाग, नकुल १ मातुलिंग २ गोमुख मबर(?) हेम वर, प्रक्ष-सूत्र, गजानन३ तालिका संख्या ३३ पाश, बीजपूरक प्रतिहार मायुध . पक्रेश्वरी ताय हेम वर, वाण, पाश, चक्र, फल, वज, अंकुश, दण्ड । शक्ति, शूल, नकुल ? इन्द्रजय फल, बज्र, प्रकुश, दण्ड। (पाठवीं भुजा का विवरण माहेन्द्र वज, वज फल, दण्ड। 'रूपमण्डन' में स्पष्ट नहीं विजय वज, वज, फल. दण्ड । है । सम्भवत: चक्रेश्वरी के धरणेन्द्र निधिहिस्त। दोनों हाथों मे चक्र है) पपक निधिहिस्त। द्वादश भुजी४ चक्रेश्वरी के सुनाभ विवरण नहीं है। पाठ हाथों में चक्र, दो में सुरदुन्दुभि वज और दो हाथों में जन सम्प्रदाय के देवताओं के चार वर्ग ज्योतिषी, मातुलिंग है। भुवनवासी, व्यन्तर वासी और विभानवासी हैं। इनमे ४ अम्बिका सिंह पीत नाग, पाश, अकुश पुत्र५ ईशान. ब्रह्मा प्रादि विमान वासी, यक्ष, व्यन्तर देव, १. अपरा० (२२११५५) के अनुसार पाश्र्व के मायुध दिक्पाल, भुवनवासी और नक्षत्रादि ज्योतिषी देवता कोटि मे हैं । 'रूपमण्डन' (६७-११) में नक्षत्र मौर राशियों धनुष, बाण, भृण्डि और मुद्गर है। की भी गणना है । जो जैन सम्प्रदाय के अनुसार ज्योतिष २. अपरा० (२२११४३) के अनुसार वृष है। देव कोटि मे पाते हैं। 'रूपमण्डन' के इस अध्याय में गोमुख के प्रसग मे 'गजानन' पाठ अशुद्ध है, किन्तु सत्ताइसों नक्षत्रों और द्वादश राशियों की गणना मात्र है, इसे वृषानन माना जा सकता है। ४. 'रूप मण्डन' में चक्रेश्वरी के दो रूप बताये गये हैं। - इनके स्वरूप का विचार नही है। -- एक तो प्रष्टभुजी (६१८) और दूसरा द्वादशभुजी पत्रेणोपास्यमाना च सुतोत्सगा तथाऽम्बिका । 'नेमि. (६।२४)। नाथ चरित' में (जैन भाइकनोग्राफी पृ० १४२) अम्बिका 'रूपमण्डन' के अनुसार अम्बिका का वर्ण पीत और के एक दाहिने हाथ मे पाम्रमजरी दूसरे मे पास तथा मायुध नाग, पाश, अंकुश और चौथे हाथ मे पुत्र बाएं एक हाथ मे पुत्र और दूसरे में अंकुश बताया गया बताया गया है । उपेन्द्र मोहन ने 'पुत्र' का उचित है। पाठ 'पत्र' बताया है। अपरा. (२२१२२२२) में ६. अपरा. (२२११२३) के अनुसार बर । अम्बिका को टिभुजी और उनका वर्ण हरा कहा गया ७. अपरा० (२२११५६) के अनुसार वर । है। इनके दोनों हाथो में एक में तो फल और दूसरा हाथ ८. अपरा० (२२३८) के अनुसार वर्ण, कनक मौर पर मुद्रा में कहा गया है। इनके साथ इनका पुत्र भी एक हाथ मे फल तथा दूसरा हाथ वर मुद्रा मे है । होना चाहिए प्रतिमा द्विभुज है। Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या द्रव्य संग्रह के कर्ता व टीकाकार समकालीन नहीं हैं ? परमानन्द जैन शास्त्री भनेकान्त के छोटेलाल जैन स्मृति प्रक १-२ मे मैंने पर पुरातन वाक्य-सूची की उस प्रस्तावनामें मुस्तार साहब अपने उस लेख मे नेमिचन्द्र सिद्धान्तदेव, ब्रह्मदेव तथा ने कहीं भी बसुनन्दि का समय वि० सं० ११५० सूचित सोमराज श्रेष्ठी को मालवा के राजा भोज के समकालीन नहीं किया। उन्होंने लिखा है कि-"उनकी इस कति बतलाया था। परन्तु यह बात पडित दरबारीलाल जी का (भाचार वृत्ति का) समय विक्रम की १२वीं शताब्दी कोठिया को नहीं रुची मोर उन्होंने अपनी द्रव्यसंग्रह की का पूर्वार्ष जान पड़ता है और यह भी हो सकता है कि प्रस्तावना मे राजा भोज के ऐतिहासिक क्रम का उल्लंघन वह ११वी शताब्दी का चतुर्थ चरण हो, क्योंकि पं. नाथूकरते हुए ब्रह्मदेव को वसुनन्दि (वि. स. ११५०) के राम जी के उल्लेखानुसार अमितगति ने भगवती पाराधना बाद का (स० ११७५) विद्वान सूचित किया है। केन्त में पाराधना की स्तुति करते हुए उसे 'श्री वसुजब कि राजा भोज का राज्य काल वि० सं० १०६७ से नन्दियोगिमहिता' लिखा है। यदि ये वसुनन्दि योगी कोई १११० तक रहा है। उसके बाद नहीं। दूसरे न होकर प्रस्तुत श्रावकाचार के कर्ता ही हों, तो ये दूसरे पापने माणिक्यनन्दि के प्रथम विद्या शिष्य "अमितगति के समकालीन भी हो सकते हैं। और १२वीं नयनन्दि को, जो 'सुदसणचरिउ' के कर्ता हैं, द्रव्यसग्रह शताब्दी के प्रथम चरण में भी उनका प्रस्तित्व बन सकता के कर्ता नेमचन्द्र को उनका शिष्य सूचित किया है है।" -(पुरातन जैन वाक्य-सूची पृ० १००) और नेमिचन्द के शिष्य वसुनन्दि हैं । वसुनन्दि का समय पाठक देखें कि इस उल्लेख में मुख्तार सा० ने कहीं वि० स० ११५० बतलाते हुए उनके उपासकाध्ययन की भी वसुनन्दि का समय वि० सं० ११५० नही बतलाया दो गाथानों का उद्धरण ब्रह्मदेव द्वारा उद्धृत किया जाना है। तब कोठिया जी ने उस पर से ११५० समय कैसे सूचित किया है। पर उन गाथानों के सम्बन्ध में कोई फलित कर लिया, यह कुछ समझ मे नही पाया। मन्वेषण नहीं किया गया कि उक्त गाथाएं वसुनन्दि की है या तीसरे 'सुदंसणचरित' के कर्ता नयनन्दि ने अपने को श्री बमुनन्दि ने कही अन्यत्र से उन्हें अपने ग्रन्थ मे मंग्रह नन्दि का शिष्य कहीं भी मूचित नहीं किया, और न श्री किया है । इसके जानने का उन्होंने कोई प्रयन्न नही नन्दि तथा नेमचन्द्र सिद्धान्तदेव का उल्लेख ही किया है। किया मालूम होता है। यदि वे वृ० द्रव्य सग्रह का प्रथम ऐसी स्थिति मे इन नयनन्दि को श्रीनन्दिका शिष्य कैसे कहा एडीसन, जो रायचन्द्र शास्त्रमाला बम्बई से छपा था, उमे जा सकता है। श्रीनन्दि नाम के कई विद्वान हो गये है। देख लेते, तो उन्हे उन गाथामो के आधार पर संभवत १. एक श्रीनन्दि वे है जो बलात्कारगण के विद्वान थे, समकालीनत्व का विरोध न करना पड़ता। अस्तु । उनके शिष्य श्रीचन्द ने वि० सं० १०७० पौर १०८० द्रव्य संग्रहकार को वसुनन्दि से २५ वर्ष पूर्ववर्ती पौर मे पपचरित संस्कृत का टिप्पण और पुराणसार अन्य ब्रह्मदेव को वसुनन्दि से २५ वर्ष बाद का विद्वान ठहरा कर की रचना की थी। उनके समकालित्व का विरोध किया है। ऐसा करते दूमरे श्रीनन्दिगणि हैं जिनकी प्रेरणा से श्री हुए उनकी दृष्टि केवल बसुनन्दि पर रही, जान पड़ती है। विजय या अपराजित सूरि ने भगवती माराधना की वसुनन्दि का समय वि० सं० ११५० मानने में मुख्तार विजयोदया टीका लिखी। सा० की पुरातन वाक्य-सूची का दरण दिया गया है। तीसरे श्रीनन्दि वे हैं जो सकलचन्द के शिष्य Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त परन्तु जब तक उनके गण-गच्छादि का ठीक पता नहीं अपने गुरु और शिष्य नेमचन्द का उल्लेख नहीं कर सकते चलता, तब तक उनमें से किस श्रीनन्दि को ग्रहण किया पे। पर उन्होंने ऐसा नहीं किया। जाय । वसुनन्दि ने स्वयं अपना और अपने गुरु वगैरह के गण-गच्छादि का कोई उल्लेख नही किया। ऐसी स्थिति में अब रही वसुनन्दि के उपासकाचार से ब्रह्मदेव द्वारा 'सुदंसणचरिउ' के कर्ता को नेमिचन्द का गुरु और उन दो गायानों के उद्धृत होने की बात, जो पापकी प्रस्तावना श्री नन्दि का शिष्य नहीं कहा जा सकता, जिनका उल्लेख का मौलिक पाधार है। वसुनन्दि श्रावकाचार में अनेक वसुनन्दि ने अपने उपासकाध्ययन में (वसुनन्दि श्रावका- गाथाएं दूसरे प्रन्यों की बिना किसी 'उक्त च' वाक्य के पाई चार में) किया है। अतः बिना किसी प्रमाण के प्रस्तुत जाती है । और एक स्थान पर तो लिखित प्रति मे 'प्रतो नयनन्दि को नेमिचन्द्र का गुरु नहीं कहा जा सकता। उस गाथा षट्कं भवसंग्रहात्' वाक्य के साथ छह गाथाएँ भाव समय मालवा में बलात्कार गण और कुन्दकुन्दान्वय प्रादि संग्रह की दी हुई हैं। ऐसी स्थिति में वे गाथाएँ बसुनन्दि को परम्परा के विद्वान थे। इससे जाना जाता है कि की निज की कृति हैं या पूर्व परम्परा के किसी ग्रन्थ सभवतः वहा दो परम्पराएँ जुदी-जुदी रही हैं। उक्त नय- पर से ली गई हैं। इसमें सन्देह नही है कि ब्रह्मदेव की मुद्रित नन्दि ने तो अपने को माणिक्यनन्दि का प्रथम विद्या वृत्ति में वे पाई जाती हैं । टीका भी उन्होंने की है। पर शिष्य सूचित किया है, श्रीनन्दि का नहीं। तब परम्परा मुझे तो वे वसुनन्दि की कृति मालूम नहीं होतीं। वे वसुकी विभिन्नता होने के कारण उनका सामजस्य कैसे बिठ- नान्द से बहुत पहले की रची गई जान पड़ती हैं। ब्रह्मलाया जा सकता है। जबकि उन्होंने अपने 'सयल विहि देव ने किसी पुरातन स्रोत से परिणामजीवमूत्त' नामक विहाणकव्व' मे अपने से पूर्ववर्ती और समसामयिक गाथा लेकर उसकी टीका बनाई है। जयसेन ने भी पचाविद्वानों का उल्लेख किया है, श्रीचन्द, प्रभाचन्द्र, श्रीकुमार, स्तिकाय की टीका में 'परिणामजीवमुत्त', गाथा को उद्धृत जिन्हें सारस्वती कुमार भी कहा है। प्राचार्य राम- कर उसकी टीका, वृहद्दव्य मग्रह की टीका के समान ही, नन्दि, रामनन्दि शिष्य बालचन्द मुनि, और हरिसिंह मुनि लिखी है, वह ज्यों की त्यों रूप मे मिलती है। का भी नामोल्लेख किया है। ऐसी स्थिति में क्या वे अन्वेषण करने पर परिणाम जीवमत्त' नाम की गाथा मूलाचार के वे अधिकार की ४८वी है। और दूसरी पौर मापनन्दि के प्रशिष्य अथवा माधनन्दि के गाथा संस्कृत टीका में नहीं है। वह अन्यत्र से उठा कर शिष्य थे। रखी गई है। चुना चे रायचन्द्र शास्त्र माला द्वारा चौथे श्रीनन्दि वे हैं, जो उग्रदित्याचार्य के गुरु प्रकाशित वहद्रव्य मंग्रह के ६५वे पेज की टिप्पणी मे थे। उग्रदित्याचार्य अपना कल्याणकारक अथ राष्ट्र- सम्पादक ने 'दुण्णिय एवं एय' गाथा के नीचे फुटनोट में कट राजा नपतग वल्लभराज के समय मे वो लिखा है कि-"यह गाथा यद्यपि सस्कृत टीका की शताब्दी में की। अत: इन श्रीनन्दि का समय भी प्रतियों में नहीं है, तथापि टीकाकार ने इसका प्राशय लगभग वही है। (कल्याण कारक २५वा अधिकार) ग्रहण किया है, और जयचद जी कृत द्रव्य सग्रह की वच पाचवेधीनन्दि बे है जिनका उल्लेख होयसल निका तथा मूल मुद्रित पुस्तक में उपलब्ध होती है, प्रतः वंश शक सं० १०४७ के पीपाल विद्यदेव वाले उपयोगी समझ कर, यहा लिख दी गई है।" इससे स्पष्ट शिलालेख में किया गया है। (श्रव०शि० ४९३ पृ० है कि ब्रह्मदेव ने अपनी टीका में इस गाथा को नहीं दिया ३९५)। था। सम्पादक प. जवाहरलाल शास्त्री ने वहां जोड़ दी छठवें श्रीनन्दि सूस्थगण के विद्वान थे और थी। और फुटनोट द्वारा उसकी सूचना भी कर दी थी। विनयनन्दि के गुरु थे किन्तु बाद के संस्करणों में उसे बिना किसी फुटनोट के (देखो जैनिज्म इन साउथ इडिया पृ० ४२९) वहां शामिल कर लिया गया है। मोर अब कोठिया जी ने Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी शिरपुर पानाव स्वामी बिनति ३.१ दोनों गापामों को बसुनन्दि की मान कर ब्रह्मदेव द्वारा है। उनसे बहुन बाद का विद्वान बतलाना संगत नहीं उदघृत बतलाया है । पर लिखित प्रति में वे नहीं हैं। जान पड़ता। ऊपर के इस सब विचार विनिमय से स्पष्ट हो जाता है कि ब्रह्मदेव ने वसुनन्दि के उपासकाचार से उक्त दोनो ऐसी स्थिति में नेमिवन्द सिद्धान्तदेव, ब्रह्मदेव पौर गाथाए नही ली, वे गाथाएं वसुनन्दि रचित भी नहीं हैं। सोमराज श्रेष्ठी के समकालिख के विरोध की जो दीवार उनमे पहनो गाथा वट्टकर के मूलाचार की है, और दूसरी खड़ी की गई थी वह धराशायी हो जाती है। उसमे कोई भी किसी प्राचीन प्रन्य की होगी। वह उनकी टीका में बल नहीं रहता। प्रतः उन तीनो का समकालिक होना नही है । पं. जवाहरलाल शास्त्री ने शामिल की है। इससे प्रसिद्ध नहीं है । मुख्तार साहब से चर्चा होने पर उन्होंने कोठियाजी ने वसुनन्दि के माधार पर जो ब्रह्मदेव का समय भी उन तीनो को समकालिक बतलाया है। विद्वानों को निर्णय करना चाहा है, वह टीक नही है। प्रतिपादेव वस्तु स्थिति पर गम्भीरता से विचार कर पूर्वापर स्थिति स० ११५० के बाद के विद्वान नहीं ठहरते। किन्तु वे भार बलवान प्रमाणो को साक्षी में ही लिखना चाहिए, उससे पूर्ववर्ती हैं। उनका समय भोजदेव के समकालीन जिससे वह प्रामाणिक माना जा सके। श्री शिरपुर पार्श्वनाथ स्वामी विनति नेमचचंद धन्नुसा जैन शिरपुर के सम्बन्ध मे अनेककाव्य रचे गये है। जिनमे खरदूषण विद्याधर धीर, जिनमुग्व विलोकन व्रत घरधीर। शिरपुर की महिमा का वर्णन किया गया है, जिनमे वहा वसतमाम प्रायो तिहा काल, क्रीडा करवाने चालो भूपाल। की मूर्ति के प्रतिशयों का भी वर्णन मिलता है। यहा ऐसे पद्मावती महित सेवे धरणीद, शिरपुर वदो पास जिनः २ ही एक ऐतिहासिक काव्य पाठकों की जानकारी के लिए लगी तणा प्रतिभा हिमग, वालुननो निपायर्या बिर। दिया जा रहा है। पूजी प्रतिमा जल लियो विधाम, गखो विब ने पनिठाम ।। इस ऐतिहासिक काव्य को मैं श्री विष्णुकुमार जी बहनकाल गमेतिहां गये, प्रतिमा एल को मुरगये। कलमकर मु० जिन्तूर (परभणी) के सौजन्य से प्रकाशित पद्मावति ॥३॥ कर रहा हूँ। उन्होने यह काव्य थी काष्ठासत्र दि. जैन येलचनगरी एलच करे राज, मन्दिर, कारजा के पुराने साचे पर से लिया था। कुष्टरोग करी पीडयो घात (वाज)। "प्रणमि सद्गुरुपाय, विश्वसेन वाराणसी ठाय । रजनी समये होये तनुक्रम, वामादेवी वर्ण सुमाम, नवकर उब शरीर पायाम ।। दा(दि)न कर उगवे होय तनु जोम ॥ श्री पाश्र्वजिनेश्वर विघ्नविनाश, दुःख देखत काल बहुत गयो, (तब) राजा एल बन गयो। कमठासूर मर्दन मोक्षनिवास । पपावती ॥४॥ पद्मावती सहित सेवे धरणीद, शिरपुर वंदो पास जिनद ॥१ क्रीडा करता लागी तृषाल, लंकानगरी रावण करे राज, चंदनखा भगिनी भरतार (ज)। बुडत च(ज) लतल देखो बटको यार । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परश पखाली जियो नीर, क्रीडा कर घर पायो वीर॥ उपजे भ्रम फिरी चितवे भूप, अंतरीक्ष देव रह्या तिहां अनूप। रखनी वि राणी चितवे इस, कोन कारण हुनो जगदीश । पद्मावती ॥१०॥ पपावती.॥५॥ महीमा बढयो महियेल बनो, अंतरिक्ष प्रभू पास सहतनो। प्रातःसमे सुंदरी पूछे तास, क्रीडा करी कवन वनमास। गजकेशरी दावानल सपं, उदधीरोग बधन सर्वाद । भोजनपान कियो किहां ठाम, पासने सह विघ्न विनास, भव भव गरण सरण जिन पास। सिंहासनका कहा कियो विश्वास ॥ पद्मावती० ॥११॥ सर्व वृतान्त पूछे भूपाल, राजाराणी चाले ततकाल । काष्ठासंघे गुण गंभीर, सूरि श्रीमूषण पट्टसुधीर । पद्मावती० ॥६॥ चंद्रकीर्ति नमित नरेश, सेवक लक्ष्मण चरण विशेष ॥ पास जिनेश्वर राखो पास, जोनीसंकट निवारो वास । गाजे थानक जल लियो विश्राम, पद्मावती० ॥१२॥ तखिन राजा पायो ते गाम । भोडे नीर पखाले तास, सकल रोग का हुवा विनास ॥ भट्टारक श्री चहकीर्ति १७वीं सदी में हुए हैं। और ते दिन राजा रह्यो तिने ठाम, किंवा राजनो तिहा विश्राम ॥ उन्होंने इस श्री अतरिक्ष पार्श्वनाथ दि. जैन अतिशय पपावती० ॥७॥ क्षेत्र की वंदना भी की थी। उनके साहित्य में तीन जगह इस क्षेत्र के वंदना का वर्णन पाता है। प्रत. उनके साथप्रातह भूप करे (धरे) सन्यास, जब ये प्रगटे देव कोई पास। साथ रहते उनके शिष्य लक्ष्मण ने यह ऐतिहासिक काव्य तबलगनी येम पनशन देह, सात व्रत हुमा भूपने तेह ॥ रचा होगा, ऐसा लगता है। इस काव्य के अस्तित्व की दिवस सातमें सुपनांतर हयो, राजा मनमें हषित भयो। सूचना प्रो. डा. विद्याधर जी जोहरापुरकर ने ई. सन् पपामती० ॥६॥ १९६० के अगस्त के मराठी सन्मति में दी है। इस क्षेत्र सरकालनो रथ करो पिस्तार, एक दिवसना गोवच्छ सार संबंधी ऐसे अनेक काव्य जगह-जगह अप्रकाशित अवस्था ले जोपि रथ चलायों भार, फिरी मत चितो राजकुमार॥ में है। वे सब प्रकाशित होने चाहिए। उनका मैं यथा तबह पाविस सहज सभाव, मनवांछित पुर तु राज लेजाव । शक्ति संग्रह कर रहा है। क्योंकि उन सबका 'श्री दि. पद्यावती० ॥॥ जैन मंतरिक्ष पार्श्वनाथ अतिशय क्षेत्र' इस तीर्थ परिचय प्रातःसमे कियो सब साज, किताब में पुन प्रकाशन करना है। अतः जहा-जहां भी जोपि रुखब रत (थ) चलामो राज । ऐतिहासिक सामग्री हो वे सब प्रकाशित करे, या हमको मनमां संखा उपजी हेव, न जानु किमु प्रावे देव ॥ सूचित करे। अनेकान्त के ग्राहक बनें 'भनेकान्त' पुराना स्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्याषियों, सेठियों, शिक्षा संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनभूत की प्रभावना में बहा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि 'भनेकान्त' के प्राहक स्वयं बनें और दूसरों को बनायें। और इस तरह बन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के पुरग्राम को एक प्रशस्ति रामवल्लभ सोमानी श्री वृद्धिचद जी दिगम्बर जैन मन्दिर जयपुर के कि पुर के पश्चात् ही सुरत्राण को बदनोर दिया गया ग्रन्थ भडार मे सग्रहीत लब्धिसार नामक एक हस्तलिखित था। पृथ्वीराज का लेख वि० सं० १५५७ पेशाब मुरी प्रन्थ को प्रशस्ति (अथ स. १३६) जो वि० सं० १५५१ शुक्रवार का नाउलाई के मन्दिर का मिला है जिसमें आषाढ सुदी १४ की है उन्लेखनीय है। इस प्रशस्ति से स्पष्टत उल्लेखित है कि वह उस समय कंभसमढ़ में पता चलता है कि मेवाड़ के पुर ग्राम में ब्रह्म चालुक्य प्रशासक था । टोडा भी पृथ्वीराज ने कुंभमगढ़ से बाकर वश के शासक सूर्यसेन का अधिकार या। यह सूर्यसेन केही दिलाया था। कौन था? इसका उल्लेख टोड़ा से प्राप्त अन्य कई लेखो टोडा पर मुसलमानों का अधिकार कबमा था? और प्रशस्तियो मे अवश्य मिलता है। यह राव सुरत्राण इस सम्बन्ध मे निश्चित तिथि देना तो कठिन है किन्तु का ही नाम होना चाहिए, जिसे टोड़ा से मुसलमानो ने इतना अवश्य सत्य है कि पूर्वी राजस्थान में १५वी निकाल दिया था और मेवाड़ मे महाराणा रायमल के शताब्दी से ही सघर्ष प्रारम्भर हो गया था। मेवाइके समय में पाकर के रहा था। इसकी पुत्री तारादेवी बडी महाराणा पोर मालवे के सुल्तान दोनों ही इसे अपनेप्रसिद्ध थी जिसका विवाह उक्त महाराला के पुत्र पृथ्वी- प्रभाव में लेना चाहते थे। कुमा के समय में यह संघर्ष राज के साथ इसी शर्त पर हुआ था कि वह टोडा से बगबर विद्यमान था। टोडा को भी कुभा ने मुसलमानों मुसलमानों को निकाल देवे। से हो जीतकर वापस सोलकियों को दिलाया था। एकमेवाड के इतिहास में राव मुरत्राण को बदनोर लिंगमाहात्म्य में इसका स्पष्टत: उल्लेख है। तोडा मंडनजागीर मे देना उल्लिखित है । उक्त ग्रंथ भडार मे वि. माहीच्च सहसा जित्वा शकंदुज्जय" उस ममय सेढवदेव म० १५५६ की एक षट्कर्मोपदेशमाला की एक प्रशस्ति अथवा सोड़ा वहाँ का शासक था। इसका उल्लेख बि. और देखने को मिली है जो भीलवाड़ा ग्राम की है। यह स. १४९२ माघ मुदि ५ को लिखी जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति में पुर मे ६ मील दूर है। इस प्रशस्ति मे गव माण या ----- -- - - ... --~-- उल्लेख है। भाण (बून्दी का हाडा) को भीलवाड़ा देते २. वि० सं० १५४१ में लिखित "गुरु गणरलाकर" समय महाराणा ने सुरत्राण को बदनोर दे दिया हो। काव्य से पता चलता है कि हाडावटी पर मालवा के अथवा इसके पूर्व भी कुछ कारणों से परिवर्तन कर दिया सुल्तान का अधिकार हो चुका था। हाडावटी हो। इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता है कि मालव देश नायक प्रजाप्रियऽहमदमुख्य मन्त्रिणा। श्रीमण्डपक्ष्माघर भूमि वामिना, मंघाधिनायेन पचंडराव मुरत्राण को बदनोर कर दिया गया था। मेवाड़ में प्रचलित कथाप्रो मे गव सुरत्राण का बदनोर से हो टोड़ा साधुना । ममसामयिक ग्रन्य प्रशस्तियों से भी इसकी पुष्टि होती है।" जीतना उल्लेखित किया है अतएव यह कहा जा सकता है वि० स० १५४६ "मुकुमान चरित्र" की प्रशस्ति १. "मंवत् १५५६ वर्षे चैत्रवदि १३ शनिवासरे पत. से पता चलता है कि बाग पर गयामुद्दीन का राज्य भी (भि)सा (?) नक्षत्र राजाधिराज श्री भाणविजय- था। जरेणा, टोंक ननवा मल्लारणा मादि से प्राप्त गज्ये श्री भोलोडा ग्रामे श्रीचंद्रप्रभ चैत्यालये-" ग्रन्थ प्रशस्तियों में वि०म० १५२८ या इससे पूर्व से राजस्थान के अन्य भंडारों की सूची भाग ३ पृ०७८ ही वहाँ इनका गग्य प्रतीत होता है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त है। टोडा से कुछ ही दूर स्थित टोंक से ११ मूर्तियों के पूर्णमल उत्पन्न हुए। टोड़ा से प्राप्त वि० सं०१६०४ के लेख वि० सं० १५१० के मिले हैं जिनमें पाश्र्वनाथ की एक बहचित५ लेख में मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह मूर्ति पर "इंगरेन्द्र" नामक शासक का उल्लेख है। या दिल्ली के बादशाह सलेमशाह और टोडा के राव सूर्य सेन तो यह स्थानीय शासक है अथवा ग्वालियर के राजा पृथ्वीराज एव रामचन्द्र का उल्लेख किया गया है। दूगर सिंह के लिए प्रयुक्त हुमा है । स्मरण रहे कि डूगर सूर्यसेन बहुत ही वृद्धावस्था में मरा प्रतीत होता है। सिंह तोमर के लेख वि. स. १५१० माघ सुदी ८ मे भी वि० स० १५६७ तक६ वह जीवित था। उसके पौत्र रामउसे "इंगरेन्द्र देव" लिखा है-[सिद्धि संवत् १५१० वर्षे चन्द्र को वि० स० १५८० में ही चाटसू जागीर में दे दी माघ सुदी-महाराजाधिराज श्री ()गरेन्द्र देव...] वि० स० १५२४ की मामेरशास्त्र भंडार में संग्रहीत गई थी। इसके समय की लिखी चाटसू घट्यावली आदि कातंत्रमाला की प्रशस्ति में टोंक में अल्लाउद्दीन नामक स्थानों की कई प्रशस्तियां देखने को मिली हैं। इनमें एक शासक का उल्लेख है, जिसकी कई प्रशस्तिया वि० स० । सबसे उल्लेखनीय वि० सं० १५८३ भाषाढ़ सुदी ३ बुध१५१५ से लेकर १५८८ वि० तक की नैनवां प्रादि स्थानो वार और वि० स० १५८४ चैत्र सुदी १४ को है जिनमे की लिखी और भी देखने को मिली हैं। टोड़ा में ही ५. "सवत् १६०४ वर्षे शाके १४६६ मिगसर वदि २ लिखी गई एक३ ग्रन्थ प्रशस्ति मे जो वि० स १५३७ दिने बद्धनीयती। प्रो० पान्हड तस्य पुत्र नराहण... फाल्गुन सुदी ६ रविवार की है यहां के शासक का नाम ..."राजाधिराज राज श्री सूर्यसेणि ॥ तस्य पुत्र राज गयासुद्दीन बणित किया है। प्रतएव इतना अवश्य निश्चित श्री पृथ्वीराज ।। तस्य पुत्र राज श्री राव रामचन्द्र है कि राव सुरत्राण को वि.सं. १५३७ के पूर्व अवश्य राज्ये वर्तमाने ॥ तस्य कुवर भ. परसराम ।। टोड़ा छोड़ देना पड़ा था और दीर्घकाल यह मेवाड़ मे पातिसाहि सेरसाह सूर । तस्य पुत्र पातिसाहि असलेरहा हो ऐसा प्रतीत होता है। मसाहि ।। को वारी वर्तमान ॥ सर्व भूयि भो षसम मांवा के मन्दिर के एक प्रकाशित शिलालेख और षोडा लाख ११ को पसमु राज श्री संग्रामदेव । तस्य टोड़ा के शिलालेखों में इस राव सूर्यसेन की वंशावली दी पुत्र उदर्यासघ देवराणो कुभलमेर राज्ये वर्तमाने..." हुई है। इसके दो रानियां थीं जिनके नाम है-सीतादेवी [मरु भारती वर्ष ५ अंक १ पृ. २०] और सोभाग्यदेवी४ । सोभाग्यदेवी से पृथ्वीराज पोर ६. सुदर्शन चरित की प्रशस्ति३. "संवत् १५३७ फाल्गुण सुदि ६ रविवारे उत्तरा "सवत् १५९७ वर्षे माघ मासे कृष्ण पक्षे द्वितीयाया नक्षत्रे...''सुरत्राण गयासुद्दीन राज्य प्रवर्तमाने टोडा तिथी बुध बासरे पुष्य नक्षत्रे श्री कुन्दकुन्दान्वये...... नगरे....." तोडागढ़ महादुर्गात् राजाधिराज सोलंकीराउ श्री [राजस्थान के जैन भंडारों की सूची भाग २ पृ. ६०८] सूर्यसेन विजयराज्ये......" ४. ब्रह्म चालुक्य वंशोद्भव सोलंकी गोत्र विस्फुरम् । [प्रशस्ति संग्रह पृ० १८६] - योवर्द्धते प्रजानन्दी सूर्यसेणः प्रतापवान् ॥१२॥ ७. करकंडु चरिउ की प्रशस्तितस्यराजाधिराज देस्त्रे (स्त्रियो) च विचक्षणे। "संवत् १५८१ वर्षे चैत्र वदि ६ गुरु वासरे घटयावर्तते च तयो मध्ये पूर्वा शीतास्ययास्मृता ॥१६॥ वली नाम नगरे राउ श्री रामचंद्र राज्य प्रवर्तमाने" द्वितीया च जिताख्याता नाम्नी सोभागदे-च। [उक्त पृ०६६] तत्पुत्री चवरी जातोकुलगुण विशारदो ॥१४॥ चन्द्रप्रभचरित की प्रशस्तिप्रथमे पृथ्वीराजो द्वितीय पूर्णमलवाक् । "संवत् १५८३ वर्षे प्राषाढ़ सुदि ३ पुष्य नक्षत्रे राणा शोभन्ते एनराजन् पुत्र पौत्रादि संयुतः ॥१५॥ श्री संग्रामराज्ये चम्पावती नगरे राव श्री रामचन्द्र मावा का वि० सं० १५९३ का मेख (अप्रकाशित) प्रतापे......" [उक्त पृ. ६६] Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेवाड़ के पुर ग्राम की एक प्रशस्ति राम रामचन्द्र के साथ-साथ महाराणा सांगा का भी उल्लेख शासनकाल में लिखी वि० सं० १५८१ की शानार्णव की है। स्मरण रहे वि० स० १५८४ वाली यह प्रशस्ति महा- एक ग्रंथ प्रशस्ति (यह ग्रन्थ यशोदानन्दजी के दिगम्बर जैन राणा सांगा की अब तक प्राप्त ग्रन्थ प्रशस्तियों में अन्तिम मन्दिर में संग्रहीत है) देखने को मिली है इसके कुछ प्रशस्ति है। वि० म० १५६४ की एक वरांग चरित८ की समय बाद इनके इतिहास मे कुछ व्यवधान पाता है। प्रशस्ति में जो प्राया नामक ग्राम में लिखा गया था, राव कछवानों में गृहकलह भी इसी काल में होता है। इयका सूर्यसरण और उसके पुत्र पूरणमल का उल्लेख है । सभव है लाभ उठाकर ही इन सोलंकियों ने चाटमू तक का भाग कि पावा पूरणमल को जागीर में दिया हो। सूर्यसेन का इनसे जीत लिया था। माम्बेर की एक न मूर्ति के वि० ज्येष्ठ पुत्र पृथ्वीराज या तो अपने पिता के जीवनकाल में स०१५९३ के लेख में राव सूर्यसेन को शासक वणित ही मर चुका था अथवा उसका राजत्व काल अत्यन्त प्रल्प किया है११ । लेख बहत ही अधिक अस्पष्ट है। "वि० रहा होगा, क्योकि वि० सं० १६०१ की जम्बू स्वामि सं० १५९३ के पश्चात् कुछ अक्षर पढे नहीं जाते हैं। चरित की प्रशस्ति में जो भी वधीचंद जी के मन्दिर मे और प्रम्बावती वास्तव्ये खंडेलान्वये मादि शब्द है इसका संग्रहीत है, टोडा के शासक का नाम राव रामचन्द्र अर्थ यह लिया जाना चाहिए कि अम्बावती के रहने वाले दिया है। इन मोलंकियो का कावाहो से बराबर मघर्ष रहा खंडेलवाल गोत्र के धेष्ठियों ने महाराजा "सूर्यसेणि" के गज्य में उक्त मूर्ति को प्रतिष्ठापित कराया। इस क्षेत्र में प्रतोन होता है । आमेर के कटावाहा राजा१०वीगज के वि० सं० १५९४ में बीरमदेव मेडतिया ने प्राक्रमण कर बर्द्धमान कथा का प्रशस्ति चाटसू पर अधिकार कर लिया था। इसके समय भी वि० मवत् १५८४ वर्षे चैत्र सुदि १४ शनिवारे पूर्वा सं० १५९४ माघ सुदी २ की षट्पाहुड की एक प्रशस्ति नक्षत्रे श्री चम्पावती कोटे राणा श्री श्री श्री मग्राम देखने को मिली है। इसे मालदेव ने दूसरे वर्ष ही हटा राज्ये राउ श्री रामचन्द्र राज्ये । दिया था। वि०म० १५९५ की वरांगचरित की प्रशस्ति [राज थान के जैन भडारों की सूची भाग ० ७७] मे जो सांखोण ग्राम (टोंक के पास) की है राय मालदेव यह प्रशस्ति महाराणा सागा की अब तक ज्ञात राठोड़ के शासन काल का उल्लेख किया है । इनसे प्रशस्तियो मे अन्तिम प्रशस्ति है। सोलंकियों ने शीघ्र ही क्षेत्र वापस ले लिया था। चाटसू ८ वगगन्ति की प्रशस्ति आदि क्षेत्र को शाह यालम ने मोलकियों से छीन लिया "स. १५६४ व शाके १४५६ कातिग मासे शुक्ल इसके समय१२ को लिखी वि० स० १६०२ वैशाख सुदी पक्षे दशमी दिवसे शनैश्चर वासरे घनिष्टा नक्षत्रे १० की षट्पाहुड की एक प्रशस्ति जो चाटसू में लिखी गडयोगे पावा नाम महानगरे श्री मूर्यसेणि राज्य गई थी देखने को मिली है। इस शाह मालम का अलवर प्रवर्तमाने कुवर धी पूर्णमल प्रनापे......" राज के जैन भडारों की सूची भाग ४ पृ० १६४] ११. सवत् १५६३ वर्षे-चालूक्यान्वये मोलंकी गोत्रे महाहै 'जम्बूस्वामी चरित की प्रशस्ति" राजा मूर्यसेणि नस्यराणि सीतादे द्वि० राणी सुहागदे सवन् १६०१ वर्षे ग्राषाढ़ सुदि १३ भोमवासरे टोडा तत्पुत्री महाकवर पृथ्वीराज पूर्णमल राज्य प्रवर्तमाने गढवास्तव्ये गजाधिराज राब श्री रामचन्द्र विजय अम्बावनी वास्तव्ये खंडलान्वये....." राज्ये....." [भनेकान्त वर्ष १६ पृ० २१२] १०. ज्ञानार्णव को प्रशस्ति"सवत् १५५१ वर्षे मरस्वती गल्छे-पाम्बेरगण संवत् १६०२ वर्षे वैशाख सुदि १० तिथी रविवासरे स्थानात् कूरमवशे महाराजाधिराज पृथ्वीराज राज्ये वहेलान्वये समरत गोष्ठि पंचायतन शास्त्र ज्ञानार्णवं उत्तर फाल्गुन नक्षत्रे गजाधिराज शाह मालम राज्ये लिखापितं"। चम्पावती मध्ये......" Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त केपास-पास राज्य था वि० सं० १६०० की लिखी लघु सं०१३७६ एवं १३७५ के दो दिगम्बर जैन लेख१७ संग्रहणी सूत्र की एक प्रशस्ति (जो अलवर१३ में लिखी मिले हैं जिन्हें मैंने वीरवाणी (जयपुर) में प्रकाशित कराये गई थी) छाणी गुजरात के ग्रन्थ भण्डार में संग्रहीत है। हैं जिनसे की इस तथ्य की पुष्टि होती है। प्रशस्ति में चाटसू के वि० सं० १६२३ में भारमाल कछावा ने अधि- पद्मनन्दि और शुभचंद्र का उल्लेख है। विजोलियां के एक कृत कर लिया था ऐसा उपासकाध्ययन अन्य की एक१४ लेख में इनकी वंशावली इस प्रकार दी हुई है१८प्रशस्ति से प्रकट होता है। टोड़ा की जगन्नाथ बावड़ी १. वसंतकीति, २. विशालकीति, ३. शुभकीर्ति, ईसर बाबड़ी आदि के लेखों में वहां के शासक का नाम ४. धर्मचंद्र, ५. रनकीति, ६. प्रभाचंद्र, ७. पद्मनन्दि, जगन्नाथ दिया हुआ है१५।। ८. शुभचद्र। ___ इस प्रशस्ति में दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि पाबू के दिगम्बर जैन मन्दिर की प्रतिष्ठा भी इन्हीं वि० सं० १५५१ में पुर ग्राम में दिगम्बरों की बड़ी वस्ती शुभचंद्र ने की थी। इसके शिलालेख को मैंने वीरवाणी में होना अनुमानित होता है। केन्द्रीय मेवाड़ से दिगम्बरो का सम्पादित करके प्रकाशित कराया था। इसमे "मूलसंघे प्रभाव १४वीं शताब्दी से कम हो गया था। महारावल बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे" ही वर्णित है१९ । इस तेजसिंह, समरसिंह भादि के समय से ही श्वेताम्बरो का प्रशस्ति मे दी गई वशावली नैणसी की वशावली से भिन्न प्राबल्य हो गया था. फिर भी श्वेताम्बरों के साथ-साथ है। नैणसी की दी हुई वशावली में दुर्जनशाल, हरराज दिगम्बरों का भी उल्लेख १६ इस क्षेत्र में बराबर मिलता सुरत्राण ऊदा बैरा ईसरदास राब दलपत्त राव अणदा है। मुझे हाल ही में चित्तौड़ के पास के गगारार मे वि० राव श्यामसिंह मादि नाम है किन्तु शिलालेखों और १३. "संवत् १६०० वर्षे भाद्रपद मासे शुक्लपक्षे १३ रवी प्रशस्तियों में उल्लेखित सोढा, सूर्यसेण; पृथ्वीराज, राम पातिशाह श्री साह पालम राज्ये प्रलवह महादुर्गे..." चन्द्र आदि के नाम इसमे नही होने से यह अप्रमाणिक है। [प्रशस्ति संग्रह पृ० ११० बाई अमृतलाल शाह] मूल प्रशस्ति इस प्रकार है१४. उपासकाध्ययन की प्रशस्ति "सवत् १५५१ वर्षे आषाढ सुदी १४ मंगल बासरे "संवत १६२३ वर्षे पोष वदि २ शुक्रवासरे श्रीपाश्व- ज्येष्ठा नक्षत्रे श्रीपुर नगरे श्रीब्रह्म चालुक्य बेटो श्री राजानाष चैत्यालये गढ़ चम्पावती मध्ये राजाधिराज श्री धिराज राय श्री सूर्यसेन राज्य प्रवर्तमाने श्री मूलमधे भारमल कछावा राज्ये......" [भाम्बेर शास्त्र भंडार के सौजन्य से प्राप्त १७. (१) ॐ सिद्धि ॥ संवत् १३७६ । १५. अथ संवत्सरेस्मिन श्री नपति विक्रमादित्य राज्ये (२) व मूल सधे । संवत् १६५४ वर्षे शाके १५१६ प्रवर्तमाने....."पुर (३) नंदिसघे भट्टारक श्री जय [को]त्ति देवाना" बरे....."नपतिमणिकिल जगन्नाथः स पाथोधिवत'.. एवं-(२) ......१३७५ वर्षे कात्तिक । [जगन्नाथ बावड़ी की प्रशस्ति] (३) "दि चतुर्दशी प्राते श्रीमूलसधे । "संवत् १६६१ वर्षे शाके १५२६ प्रवर्तमाने उत्तरायण (४) श्री [भीमसेन शिष्य...." भानी महामांगल्य प्रदेशे चैत्र मासे शुक्लपक्षे दशमी १८. भाकियोलोजिकल सर्वे माफ वेस्टर्न इंडिया १९०५-६ समस्त पृथ्वीपति पातिसाह श्री मकबर राज्ये टोडा पृ० ५७ । नगरेकछवाहा श्री जगन्नाथ जी राज्ये......" १९. "स्वस्ति संवत् १४९४ वर्षे वैशाख सुदि १३ गुरी [ईसर बावड़ी प्रशस्ति] श्रीमूल संगे (घ) बलात्कारगणे सरस्वती गच्छे भट्टा[मरु भारती वर्ष ५ अंक १ पृ. २०-२१] रिक पनन्दि देव तत्पढें श्रीशुभचंद्रदेव भट्टारिक श्री १६. "चित्तौड़ पौर दिगम्बर जैन सम्प्रदाय" नामक मेरा संघर्व गोव्यंदमात्री देवसी दोशी करणा जिनदास..." मेख शोष पत्रिका वर्ष १६ अंक ३-४ में प्रकाशित । [मूल लेख से Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिक्षा का उद्देश्य बलात्कार गणे सरस्वती गच्छे श्री नंदिसंघे श्री कुन्दाकुन्दा- भार्या पूना। विजय श्री भार्या पुत्र जिणदास भार्या चार्यान्वये भ. श्री पमनन्दि देवाः तत्पट्टे श्री शुभचंद्रदेवाः जोणदे । तत्पुत्र साह गांगा साह सांगा साह सहसा साह तत् शिष्य मुनि लक्ष्मीचंद्र: खंडेलवालान्वये श्री शाहगोत्रे चोड़ा । सहसा पुत्र पासा समाप्तमिदं लब्धिसारभिधानं निज साह काल्हा भार्या रानादे तत्पुत्र साह बीझा साह माधव ज्ञानावरणी कर्मक्षयायं मुनि लक्ष्मीचन्द्राय पाठनाना साह लाला साह डुगा। बीमा भार्या विजय श्री द्वितीय लिखापितं, लिखितं गोगा ब्राह्मण गौड ज्ञातीय-" शिक्षा का उद्देश्य प्राचार्य श्री तुलसी विद्यार्थी जीवन अन्य जीवनों की रीढ है। जब तक कर रहे हैं, पर अपने भापकी पोर वे नहीं देखते । यदि वह सम्पन्न और समुन्नत नहीं होगा, देश, समाज और अपने पापको न सुधार कर संसार को सुधारने का प्रयास राष्ट्र उन्नति नहीं कर सकता। आज की शिक्षा-पद्धति किया जायेगा तो न संसार सुधरेगा पोर न सुधारक ही। भारतीयता के अनुकूल नहीं है। उसमे परिवर्तन की पाव- पहले व्यक्ति स्वयं उठे, फिर पडोस, समाज और राष्ट्र श्यकता है। जन-नेता ऐसा अनुभव करते है, फिर भी वे को उठाये । सुधार धर्म से सम्भव है। माज का बुद्धिवाद शिक्षा-पद्धति में परिवर्तन नहीं कर पाते। उनके सामने मार्ग शब्द से चिढ़ता है। इसमें सिर्फ उसका ही दोष नहीं कठिनाइयां हो सकती है, पर बिना ऐसा किये विद्यार्थियो पर दोष उनका है जिन्होंने धर्म को सही रूप से सामने का जीवन उन्नत नही हो सकता तथा उसके विना समाज नही रखा है। शब्द से चिढ़ है तो छोड़िए उसे । माप और राष्ट्र भी उन्नत नही हो सकता। यह भारतीय सत्य और अहिंसा को जीवन में स्थान दीजिए, यही धर्म जीवन जो अध्यात्म-प्रधान है, उसमे भौतिकता घर करती है। धर्म वह चीज है जो व्यक्ति-व्यक्ति के जीवन का जा रही है । जन-जीवन मे प्राध्यात्मिकता पानी चाहिए। विकास करता है। धर्म में लिंग, रग और वर्ण का भेद भाव नहीं है। वह धर्म स्थान की ही चीज नहीं है, जीवन माज की शिक्षा का लक्ष्य गलत है। विद्यार्थी पढ़ते की भी चीज है, जो जीवन के कण-कण मे पानी चाहिए। है-किस लिए? आगे जीवन में अधिकाधिक धन कमा जीवन में प्रतिपल उसके प्रति जागरूक रहना होगा। सके और भौतिक सुख-सुविधाये पा सके । यह तो मूल मे बन्धुनो! मापने प्राजादी के युद्ध लड़े। वह ध्वंस ही भूल हो रही है । वह विद्या जो मानव को मानव ही का जमाना था। मापने विदेशी हकूमत का ज्यादा से नही किन्तु मुक्त बनाने वाली थी, जो उसे दुख-दुविधामों ज्यादा नुकमान किया, पर आज तो पापकी सरकार है। से मुक्त कर शाश्वत सुख दिलाने वाली थी, आज धन विद्यार्थी यदि अब भी ध्वंस-लीलाये करते है तो यह दूसरों मौर आजीविका का साधन मात्र रह गई है। यह भूल का नुकमान नहीं, उनका अपना नुकसान है। माज मापकी विद्याथियो की नहीं, धन को बड़ा मानने वालों की है। परीक्षा की बेला है, निर्माण का समय है । अपनी वीरता ला विद्याथी क्या कर ! जब कि देश के कणधार का परिचय दीजिए । माज अनैतिकता बढ़ रही है। उससे भी इस इसी दृष्टि से देखते हैं। जब तक धन को महत्व जब लड़ना होगा। उसे खत्म करना होगा। हिंसा और दिया जाता रहेगा, तब तक यह समस्या सुलझेगी नहीं। लड़ाई-वर्गों से नही, नैतिकता का प्रसार करके अनैतिकता आज कहा जाता है-पतन हो रहा है, नैतिकता पर काबू करना होगा। प्रात्म-निर्माण के इस काम में गिरती जा रही है। लोग संसार को उठाने का प्रयास प्रापका हाथ रहा तो मैं समझंगा, माप सच्चे वीर हैं। Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और वैदिक अनुश्रुतियों में ऋषभ तथा भरतकी भवावलि ० नरेन्द्र विद्यार्थी साहित्यार्य, एम. ए. पो-एच. डी. प्रस्तुत प्रबन्ध में ऋषभ देव तथा भरत की पूर्व भवा ऋषभदेव की भवावलि वलियों का तुलनात्मक अध्ययन होगा जिसमे यह स्पष्ट दोनों परम्परामों के अनुसार ऋषभदेव की भवावलि किया जावेगा कि दोनों पिता-पुत्र ने कहाँ, किस स्थिति ___ इस प्रकार है :मे, किस प्रकार भोगों की इच्छा के साथ धर्म का बीज दिगम्बर परम्परा श्वेताम्बर परम्परा बोया जिसके सदाचार रूपी वृक्ष मे सद्गति के सुफल १. जयवर्मा १. घन सार्थवाह (धनभव सेठ) फले । धर्म एक वृक्ष है, अर्थ उसका फल है और काम .. महाबल विद्याधर २. युगलिया उसके फलों का रस है । धर्म, अर्थ और काम यह त्रिवर्ग ३. ललिताङ्ग देव ३. सौधर्मलोक में उत्पत्ति कहलाते हैं जिसकी प्राप्ति का मूल कारण धर्म है। धर्म ४. राजा बजजघ ४. महाविदेह क्षेत्र में महाबल से ही अर्थ, काम और स्वर्ग की प्राप्ति होती है। धर्म ही ५. भोगभूमि का मार्य ५. ललिताङ्ग देव मर्थ और काम की उत्पत्ति का स्थान है। धर्म का इच्छुक ६. श्रीधर देव ६. वाजघ समस्त इष्ट पदार्थों का इच्छुक होता है तथा वह अपने ___७. राजा सुविधि ७. उत्तर कुरु मे युगलिया अनकल धन, सुख, सम्पत्ति आदि को प्राप्त भी करता है। ८. अच्युतेन्द्र ८. सौधर्म स्वर्ग में देव विज्ञ जन धर्म को कामधेनु, चिन्तामणि रत्न, कल्पवृक्ष ह. राजा वचनाभि १. जीवानन्द वैद्य तथा प्रक्षयनिधि कहते हैं। न केवल ऐहिक संकट; पार- १०. अहमिन्द्र १०. अच्युत स्वर्ग मे देव लौकिक संकटों से भी धर्म ही बचाता है। नरक निगो- ११. ऋषभदेव ११. वज्रनाभ चक्रवर्ती . दाधिकेदःखों से बचा कर अन्त में अविनाशी मुख-मोक्ष (महापुराणके आधार पर) १२. उत्तर विमान मे देव की प्राप्ति भी धर्म के द्वारा ही होती है। इसी परम १३. ऋषभ देव पावन धर्म के भव-भव में साथी होने के कारण सम्यक्त्वी (त्रिषष्ठि शलाका पुरुषचरित के प्राधार पर) धर्मात्मा ऋषभदेव तथा उनके सुपुत्र चक्रवर्ती भरत प्राज प्रथमभव जयवर्माभी विश्ववन्ध हैं। जम्बू द्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र स्थित सिंहपुर के ऋषभदेव अपने १० भवों के बाद ग्यारहवें भव में राजा श्रीषेण के द्वारा छोटे पुत्र श्री वर्मा को राज्य दिये भगवान ऋषभदेव बनेर और भरत अपने नवयें भव मे जाने तथा जयवर्मा जो कि बड़ा पुत्र था; उपेक्षा किये चक्रवर्ती भरत बने३। जाने के कारण जयवर्मा को एक बडा प्राघात लगा। श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार ऋषभदेव १३वें भव "एक ही पिता के दो पुत्रों में इतना बडा अन्तर? धिक में भगवान ऋषभदेव बने। है लघु पुत्र स्नेह ! और प्रियना का व्यामोह !! वास्त. १. महापुराण पर्व १३१-३७ विक सुख प्रात्मशान्ति में है और पात्म-शान्ति प्रात्म २. वही ४७।३५७-३५६, विस्तृत वर्णन पर्व ४ से १२ कल्याण है।" इस विवेक के ज्ञान ने जयवर्मा को विरागी बना दिया ! अपने पापकर्मोदय की निन्दा करते हुए ३. वही ४६।२६३-२६४ उन्होंने दैगम्बरी दीक्षा ग्रहण कर तपस्या करने लगे। ४. त्रिषष्ठि शलाका पुरुष परित पर्व १ सर्ग १-२॥ परन्तु "भागामी भव में विद्याधरों के भोगोपभोग प्राप्त तक। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेन और वैविक अनुभूतियों में ऋषभ तथा भरत की भवावलि हों।" इस भावना के समय ही भयङ्कर सर्प-दंश१ से श्वेताम्बर सम्प्रदाय में महाबल चौथाभव माना गया परलोक वासी हो गये। इस निदान का फल उन्हें मिला। है। दूसराभव महाबल तीसराभव ललिताङ्गदेवपूर्व भव के निदान जनित संस्कार के कारण महाबल अतिशय तप के मनोहर फलस्वरूप महाबल का जीव विद्याधर हुए। अपने पिता अतिबल के दीक्षा ग्रहण कर सातिशय विभूतिशाली स्वर्ग में ललिताङ्ग देव हुमा । लेने पर बलशाली महाबल ने राज्य भार संभाला। वह अपने किये हुए पुण्य कर्म के उदय से मन्द मन्द मुस्कान देव और पुरुषार्थ दोनों से सम्पन्न थे। उनके धर्म, अर्थ, हास्य और विलास प्रादि के द्वारा स्पष्ट चेष्टा करने वाली काम परस्पर में प्रवाधित थे, वहिरङ्ग शत्रुनों पर जैसे स्वयंप्रभा मादि अनेक देवाङ्गनामों तथा अनेक स्वर्गीय राजनीति से विजय प्राप्त की थी वैसे ही अन्तरङ्ग शत्रुओं विभूतियों के समागम से चिरकाल तक अपनी इच्छानुसार पर-काम, क्रोध, मद, मात्सर्य, लोभ और मोह पर भी धर्म उदार और उत्कृष्ट दिव्य भोग भोगता रहा४। एक दिन नीति से विजय प्राप्त की थी। राजा महाबल के राज्य पायु का अवसान सूचक मन्दार माला मुरझा गई। रज में 'अन्याय' का शक ही मिट गया था, प्रजा को भय तथा मे भङ्ग पड़ गया। ललिता देव को स्वर्ग से व्युत होने क्षोभ कभी स्वप्न में भी नही होते थे। जिसे भागे चल का पाघात तो लगा परन्तु सामानिक जाति के देवों के कर तीर्थर की महनीय विभूति प्राप्त होने वाली थी द्वारा समझाये जाने पर धैर्य धारण कर उसने धर्म में ऐसा वह महाबल राजा मेरु पर्वत पर इन्द्र के समान बुद्धि लगायी और पन्द्रह दिन तक समस्त लोक के जिन विजयार्थी पर्वत पर चिरकाल तक क्रीड़ा करता रहा। चैत्यालयों की पूजा की। तत्पश्चात् अच्युत स्वर्ग की स्वय बुद्ध मन्त्री के प्रश्न के उत्तर मे अवधि ज्ञानी जिन प्रतिमानो की पूजा करता हुमा वह भायु के अन्त में मुनि मादित्यगति ने महाबल को भव्यात्मा तथा दसर्व वहीं सावधान चित्त होकर चैत्य वृक्ष के नीचे बैठ गया भव में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र मे युग के प्रारम्भ मे तथा वही निर्भय हो हाथ जोड़कर उच्च स्वर से नमस्कार ऐश्वर्यवान ऋषभदेव तीर्थङ्कर होना बतलाया। मुनि के मन्त्र का ठीक-ठीक उच्चारण करता हुमा अदृश्यता को कथनानुसार महाबल ने भावी तीर्थङ्करत्व की प्राप्ति प्राप्त हो गया। उसकी प्राणप्रिया स्वयंप्रभा भी अपने तथा अतिशय क्षीण घायु के सूचक दो-शुभ और अशुभ वियोग के शेष दिन धर्मध्यान पूर्वक व्यतीत करते करते स्वप्न भी देखे। जिनका उक्त फल मुनिराज के बताये चल बमी। अनुसार स्वय बुद्ध मन्त्री मे ज्ञात कर समाधि मरण की ओर अपना चित्त लगाया। अपना समस्त राज्य पुत्र को चतुर्थभव-राजा वनजंघदेकर स्वयं निश्चिन्त होकर माराधना रूपी नाव पर चढ ललिताङ्ग देव स्वर्ग से चलकर विदेह क्षेत्र स्थित कर संसार सागर को पार करने लगा। तप रूपी अग्नि उत्पलखेट नगर मे राजा वजावाहु के वज्रजप नाम का मे सतप्त स्वर्ण की तरह विशुद्ध हुमा । महाबल परिषहो पुत्र हुमा । पौर ललिताङ्ग देव की प्रियपत्नी स्वयप्रभा को सहन करते हुए पञ्चपरमेष्ठी का ध्यान करने लगा। वज्रजंघ के मामा की लड़की धीमती हुई। दोनों ही जैसे तपः पूत महाबल ने ध्यानरूपी तेज के द्वारा मोहरूपी ललिताङ्गकी पर्याय में सुन्दर इस भव में भी वैसे ही अन्धकार को नष्ट कर शुद्ध प्रात्म-स्वरूप को भावना सुन्दर थे। दोनों के हृदय में पूर्व जन्म का प्रेम सागर करते हुए स्वयम्बुद्ध मन्त्री के समक्ष प्राणो का त्याग कर अपरिचितता के बाध में बंधा था परन्तु श्रीमती को जैसे दिया। ही एक दिन आकाश में जाते हए विद्याधरों को देखकर १. महापुराण पर्व श२०३-२०६ अपने पूर्वमव के पति की स्मृति जागी प्रेमसागर अपनी २. वही ११५६, ६०, ५, ६६ से १८ ४. वही श२६७, २६३ ३. वही ५५१९७-२०१, २२०, २२६, २३०, २४१-२४८ ५. वही ६।२, २३ से २५ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त उत्ताल तरंगों से उलित हो! पुत्री की विह्वल अवस्था मजदूत किवाड़ हैं, धर्मरूपी वृक्ष की स्थिर जड़ है, स्वर्ग एवं करुणाजनक स्थिति का अवधिज्ञान से परिज्ञान कर और मोक्ष रूपी घर का द्वार है और शीलरूपी रत्नहार उसे समझाया। पण्डिताधाय ने श्रीमती के पूर्वभव का के मध्य में लगा हुमा श्रेष्ठ रत्न है।" परिचायक चित्रपट लेकर जिन चैत्यालय में जाकर वन सम्यग्दर्शन के विषय में मुनिराज के दिव्योपदेश जंध का पता लगा लिया और चित्रपट देख कर वनजंघ भी अपने पूर्वभव का स्मरण कर अत्यन्त प्रेम विह्वल हो से प्रभावित होकर इस दम्पति-मार्य तथा आर्या ने सम्यग्गया। अन्ततोगत्वा दो विछुड़े प्रेमी हृदयों का मिलन हो दर्शन को धारण किया। गया । श्रीमती के पिता चक्रवर्ती बच्चदन्त ने वजजघ के छठाभव-श्रीधर देवपिता वनवाहु द्वारा अपने पुत्र के लिए कन्यारत्न (श्री जीवन में मंगहीत सम्यग्दर्शन की पूजी ने अन्त मती) की याचना का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। शुभ ममय तक अक्षय निधि का काम दिया। इसी से वह मुहु त में दोनों का विवाह हो गया। विवाह के अनन्तर आगामी भव में श्रीधर देव हए । आगामी काल में दोनों का गृहस्थ जीवन भोगोपभोग मे व्यतीत होता था तीर्थदूर होने वाले इस श्रीधर देव ने अनेक विध परन्तु धर्म को भी उन्होंने सदा निवाहा। भगवान की स्वर्गीय सुखों का उपभोग किया५ । एक दिन अवधिज्ञान पूजा तथा दान उनके सत्कर्म थे । दमधर तथा सागरसेन से श्रीप्रभ पर्वत पर अपने गुरु प्रीतिङ्कर मुनिराज का नाम के दो मुनिराजों को पुण्डरीकिणी नगरी की यात्रा मागमन जानकर वहां जाकर उनकी पूजा की। अपने के समय मार्ग मे पाहार दान देकर उन्होने अपने जन्म प्रश्न के उत्तर में अपने दुष्कर्मी मन्त्रियों का नरक निगोद को सफल माना था। मे जीवन यापन ज्ञातकर धर्म और अधर्म के अन्तर को पांचवां भव-उत्तर कुरु में प्रायं श्रीधर देव की आत्मा सोचने लगी। मुनिराज ने नरक इस पात्र दान के प्रभाव से आगे चलकर वह उत्तर तथा निगोद के भयानक दु.खों का वर्णन करते हुए कुरु मे मार्य हुए। एक चारण ऋद्धिधारी मुनि (जो कि धर्म का महत्व बतलाया। "धर्म ही दुःखो से रक्षा करता महाबल की पर्याय में उनके स्वयंबुद्ध नामक मन्त्री थे) है, मुख को विस्तृत करता है और कर्मों के क्षय से उत्पन्न वहां पाये और उन्होने अपने पूर्वभव का परिचय देते हए होने वाले मोक्ष सुख को देता है। इसी से चक्रवर्ती, गणउन्हें सम्यक्त्व ग्रहण करने का उपदेश दिया। धर, तीर्थङ्कर तथा सिद्ध पद प्राप्त होता है। धर्म ही सम्यकदर्शन का स्वरूप बतलाते हुए मुनिराज ने जीवों का बन्धु, मित्र तथा गुरु है। इसलिए हे देव ! कहा-"वीतराग सर्वशदेव, प्राप्तोपज मागम और जीवादि स्वर्ग और मोक्ष के देने वाले धर्म में ही अपना मन पदार्थों का बड़ी निष्ठा से श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कह- लगा।" प्राचार्य श्री के धर्मोपदेश से श्रीधर देव प्रतिलाता है । जीवादि सात तत्वों का तीन मूढता रहित गय धर्म प्रेम को प्राप्त हुआ। अपने इस धर्म लाभ से पाठ अंग सहित यथार्थ श्रदान करना सम्यग दर्शन कह- उमने अपने महाबल काल के मिथ्यात्वी मन्त्री-शतबुद्धि लाता है। इसलिए हे आर्य ! पदार्थ के ठीक-ठीक । को नरक में जाकर समझाया। सम्यक्त्व ग्रहण कराया स्वरूप का दर्शन करने वाले सम्यग्दर्शन को ही न धर्म जिससे वह वहा से निकल कर चक्रवर्ती का राजपत्र हमा का सर्वस्व समझ । उस सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो चुकने पर तदनन्तर पुनः श्रीधर के उपदेश से दैगम्बर दीक्षा ग्रहण संसार में ऐमा कोई मुख नहीं रहता जो जीवों को प्राप्त कर तपश्चर्या के प्रभाव से स्वर्ग में ब्रह्मन्द्र हमा७ । नहीं होता हो। यह सम्यग्दर्शन मोक्षरूपी महल की ४. महापुराण पर्व ।।१२६ से १३२ । पहली सीढ़ी है, नरकादि दुर्गतियों के द्वार को रोकने वाले ५. वही १९५ १. महापुराण पर्व ६ से ८ तक। ६. वही १०११०७-१०९ २-३. वही १२१-१२२ । ७. वही ११११०-११० Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन और बंदिक नतियों में ऋषभ तवा भरत की भवावलि सातवां भव-राजा सुविषि मवमा भव-सम्राट् वचमाभिश्रीधर देव स्वर्ग से च्युत होकर पूर्व विदेह क्षेत्र स्वर्ग से चय कर अच्युतेन्द्र अपने अन्तिम धामिक स्थित सुसीमानगर के राजा का पुत्र सुविधि हुप्रा । शरीर सस्कारों के कारण पूर्व विदेह क्षेत्र स्थित पुण्डरीकिणी मे मुन्दर सुविधि धर्म के प्रान्तरिक सौन्दर्य से भी अलंकृत नगरी में बजसेन राजा के घर वजनाभि नाम का पुष था। बड़े होने पर जितेन्द्रिय राजकुमार मुविधि ने यौवन हमा। बड़े होने पर सौन्दर्यशाली राजकुमार ने शास्त्र के प्रारम्भ समय में ही आन्तरिक शत्रु-काम, क्रोध, रूपी सम्पत्ति का अच्छी तरह अध्ययन किया था इसलिए लोम, मोह, मद और मात्सर्य पर विजय प्राप्त कर ली काम ज्वर का प्रकोप बढ़ाने वाले यौवन के प्रारम्भ समय थी। अपने मामा अभय घोष चक्रवर्ती की सुपुत्री मनो- मे भी उसे मद उत्पन्न नहीं हुमा था। धर्म, अर्थ, काम ग्मा के साथ विवाह कर गृहस्थ धर्मका परिपालन किया। तीनों पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, महान् फलों को इन्ही सदगहस्थ के घर श्रीमती के जीव-स्वयंप्रभ देव ने देने वाली. लक्ष्मी का पाकर्षण करने में समर्थ राजस्वर्ग से च्युत होकर केशव नामक पुत्र के रूप में जन्म विद्यानों को पढने के कारण वह लक्ष्मी तथा सरस्वती लिया। बचजघ पर्याय मे जो प्राणप्यारी स्त्री थी वही का सङ्गम स्थल तो था ही राज्याभिषेक के समय से इन अब पुत्र था ! पुत्र के व्यामोह से गृह त्याग तो नहीं कर दोनों सखियों के साथ राजलक्ष्मी का सस्नेह मिलन स्थल सका परन्तु श्रावक के उत्कृष्ट पद में स्थित रह कर भी बहो गया। राज्य करते. प्रजा का न्याय नीति से कठिन तप तपता रहा । गृहस्थो के बारह व्रत पालते हुए पालन करते एक ओर उसके मन को जीत लिया था तो राजर्षि सुविधि ने चिरकाल तक थेष्ठ मोक्षमार्ग की उपा दूसरी पोर चक्ररत्न से समस्त पृथ्वी को जीत लिया था। सना की। तदनन्तर जीवन के अन्त में परिग्रह रहित चिरकाल के बाद बुद्धिमान तथा विशाल प्रभ्युदय के दिगम्बर दीक्षा धारण कर उत्कृष्ट मोक्षमार्ग की पारा धारक चक्रवर्ती वजनाभि ने शिवलक्ष्मी प्रदायक रत्नत्रय धना कर ममाधि मरण पूर्वक शरीर छोड़ा जिससे अच्युत को-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चरित्र रूप निधि स्वर्ग में इन्द्र हुए। को-अपने पिता तीर्थकर वज़सेन से पैतृक सम्पत्तिपाठवांभव-अच्युतेन्द्र गज्यलक्ष्मी की तरह प्राप्त किया और उन्ही के चरणों अत्यन्त सुन्दर तथा श्रेष्ठ शरीर को धारण करने में उसे जीर्ण तृणवत् त्याग भी दिया ! जिन हाथों नेवाला यह अच्युतेन्द्र प्राने स्वर्ग में उत्पन्न भोगों को "तू बड़ा मारी चक्रवर्ती हो" यह पाशीर्वाद देते हुए शिर भोगता रहा । इसको दिव्य विभूतियां-देवाङ्गनाएं, पर राजमुकुट बाधा था वही हाथ दीक्षा के समय वह अप्सगएं तथा विविध सेनाएं उसके पूर्वोपाजित पुण्य के राजमुकुट ही नही शिर के बाल उखाड फैकने (केश परिणाम स्वरूप थी। चिरकाल तक भोगे जाने वाले लुञ्चन करने) तक का सकेत कर रहे थे। सम्राट् पौर भोगो का भी अवसान पा गया, अच्युतेन्द्र की प्रायु की। तीर्थकर, चक्रवर्ती और तपम्वी का यही तो अन्तर या। ममाप्ति सूचक कल्पवृक्ष कुसमों को माला मुरझा गई ! परन्तु धैर्यशाली अच्युतेन्द्र को अन्य साधारण देवों की महाव्रत, समिति, गुप्ति भोर सम्यक्त्व के धारक, तरह कोई दुख नहीं हुया। उसने अपनी शेष प्रायु भग- उत्कृष्ट तपस्वा, धार वीर प्रशम मूति, शुद्धात्मतत्त्व क वद्भक्ति, जिनेन्द्र पूजा प्रादि शुभ कर्मों को प्रधानता देते चिन्तक वजनाभि मुनिराज ने अपने पिता तीर्थकर बज्रसेन के निकट तीर्थङ्कर पद प्राप्ति मे सहायक कारण-सोमह हए व्यतीत की। कारण भावनामों का चिन्तवन किया। १. महापुराण पर्व १०११२१,२२,४१,४३,४५,५६,६८ से "परिग्रह पोट उतार सबलीनों बारित पन्य। ७० तक। निज स्वभाव में घिर भये वजानामि निय॥" २. महापुराण पर्व १०॥ ३. वही १२-६ ४. वही १२१८, ६, ३४, ५८, ६१, १२, ६८। Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सोलह कारण भावनामों का चिरकाल तक चिन्त- जो सारी पृथ्वी को पवित्र करती थी। वह सब के लिए वन करने के अनन्तर तीर्थङ्कर नामक महापुण्य प्रकृति सेव्य था। उसमें यश रूपी वृक्ष के उदारता गम्भीरता का बन्ध किया । उग्र तपश्चरण द्वारा कर्मरूपी शत्रुओं का और धीरज रूपी उत्तम बीज को समृद्धि का साकार पुज्य, विनाश करते हुए वजनाभि मुनिराज ने सिद्धपद की प्राप्ति धनी, गुणी और यशस्वी सेठ के नौकर भी उसकी उदा. की कामना से धर्मध्यान में लवलीन होकर पृथकत्व रता से धनी थे४। गांव के लोग तपा धर्मघोष प्राचार्य वितर्क नामक शुक्लष्यान को पूर्ण कर उत्कृष्ट समाधि के साथ उसकी वसन्तपुर की यात्रा उसकी सहृदयता का को प्राप्त हुए । अन्त में उपशान्त मोह नामक ग्यारहवें परिचायक है। इसी यात्रा में धर्मघोष प्राचार्य मादि मुणस्थान मे प्राण छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में महमिन्द्र हुए। मुनि संघ की सेवा के उपलक्ष्य में उन्हें मोक्ष वृक्ष के बीज बसा भव-महमिन के समान सम्यक्त्व प्राप्त हुमा५ । पूर्वोपाजित पुण्य, धर्म के प्रभाव से सर्वार्थ सिद्धि श्रीधर्म घोष प्राचार्य ने धर्मोपदेश देते हए सेठ से विमान में दोष, धातु और मल के स्पर्श से रहित सुन्दर कहा-"धर्म उत्कृष्ट मंगल है, स्वर्ग और मोक्ष को देने मक्षगों से युक्त, पूर्ण यौवन को प्राप्त, स्वभाव से ही वाला है । और संसार रूपी वन को पार करने में रास्ता सर्वाङ्ग सुन्दर महमिन्द्र अमृत पिण्ड के द्वारा ही बनाया दिखाने वाला है। धर्म माता की तरह पोषण करता है, सा, चांदनी से घिरे पूर्ण चन्द्रमा सा, गंगा तट के बाल पिता की तरह रक्षा करता है, मित्र की तरह प्रसन्न के ढेर पर बैठे तरुण राजहस सा, उदयाचल पर स्थित करता है, बन्धु की तरह स्नेह रखता है। गुरु की तरह सूर्योदय सा अथवा स्वर्गलोक के एक शिखामणि सा उजले गुरणों मे ऊची जगह चढ़ाता है और स्वामी की साक्षात् धवल पुण्यराशि के समान शोभायमान हुमा था। तरह बात प्रतिष्ठित बनाता है। धर्म सुखों का बड़ा भगवद्भक्ति, जिनेन्द्र पूजा, तत्वचर्चा और जिनेन्द्र- महत्व है, शत्रुओं के संकट में कवच है सरदी से पैदा हई गुण स्तवन, चिन्तवन उसकी दिनचर्या के प्रमुख अंग को जड़ता को मिटाने में धूप है, और पाप के मर्म को जानने स्वर्गीय भोगोपभोग की समस्त सामग्री उसके समक्ष झाड वाला है। धर्म से जीव राजा बनता है। बलदेव होता है, कर फंक जाने वाले कडा के ढेर के समान तुच्छ थी। अर्द्धचक्री (वासुदेव) होता है, चक्रवर्ती होता है। देव इसलिए महमिन्द्र होते पर भी अहमिन्द्र पने का अभिमान और इन्द्र होता है, वेयक और अनुत्तर विमान (नामके उसे नहीं था। स्वगों) मे अहमिन्द्र होता है और धर्म से ही तीर्थङ्कर चिरकाल तक वास्तविक सुख भोगने के अनन्तर होता है । अपने सर्वार्थसिद्धि विमान मे रहने की मायु पूर्ण करने धर्म परायण सम्यक्त्वी धन सेठ का जीव दूसरे भव पर महमिन्द्र स्वर्गलोक से पृथ्वी तल पर अवतार लेने म मुनि को दान देने के प्रभाव से उत्तर कुरु क्षेत्र में सन्मुख हुमा३। युगलिया रूप मे जन्मा। वहा कल्पवृक्षों से इच्छित पदार्थों श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार विदेह क्षेत्र स्थित की प्राप्ति के कारण सदा सुख ही सुख रहता है । इसलिए धनसेठ का जीव स्वर्ग की तरह विपय सुख का अनुभव प्रतिष्ठित नगर में प्रथम भव मे ऋषभदेव का जीवधर करने लगा। सेठ था । नदियों के प्राश्रय समुद्र की तरह वह धन तथा युगलिया की प्रायु पूर्ण कर धनसेठ का जीव पूर्वभव यश का माश्रय चन्द्रमा की शीतल सुखद चादनी की तरह के दान के फल से सौधर्म देवलोक में देवता हुमा । उसके द्रव्य का संदुपयोग सार्वजनीन सुख के लिए था। पन सेठ रूपी पर्वत से सदाचार रूपी नदी बहती थी। ४. त्रिपष्ठि शलाका पुरुषचरित पर्व १, सर्ग ११३५.४। ५. , , सर्ग १२१४३ । १. महापुराण पर्व १११७६,८२,८४,११०,१११ , सर्ग १२१४६-१५१ २. वही १२३ से १३२, १३४ से १४३ । त्रिषष्ठि शलाका पूरुषचरित पर्व १, सर्ग १।२२६, ३. वही १२१ २३७, २३८ । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन और वैविक अनभूतियों में ऋषभ तवा भरत की भवावलि इसके बाद महाबल के भव से श्रीधर देव पर्यन्त इस प्रकार दोनों अनुश्रुतियों में स्वीकृत भगवान भवावली दिगम्बर परम्परा के अनुसार है। जीवानन्द ऋषभदेव के पूर्वभव उनकी उन पर्यायों के परिचायक वैद्य की पर्याय में भी ऋषभदेव का वर्णन बड़ा हृदयग्राही हैं जहां उन्होंने इस तीर्थर पर्याय के मूल कारण सम्यहै। विदेह क्षेत्र स्थित क्षिति-प्रतिष्ठित नगर में सुविधि क्त्व के बीज को बोया है। वैद्य के पुत्र के रूप में जीवानन्द अष्टांग मायुर्वेद का ज्ञाता श्रीमद्भागवत् पुराण के अनुसार तो भगवान् था। हाथियों में जैसे ऐरावत और नवग्रहों में जैसे सूरज विष्णai विष्णु ही स्वयं ऋषभ रूप में अवतरित हुए थे। यही अग्रणी (मुख्य) होता है वैसे ही सभी वैद्यों में वह ज्ञान-विह विष्णुपुराण भी कहता है। तथा शिवपुराण के अनुवान् मोर निद्रौप विद्याओं का जानने वाला अग्रणी सार शिव जी ने अपना वा ऋषभावतार ग्रहण किया हुप्रा। उसे एक दिन एक कोढ़ी साधु का पता लगा था। इस प्रकार जैन तथा वैदिक अनुश्रुतियों के अनुसार जिसकी बड़ी प्रयत्न से चिकित्सा की। अपने अन्य मित्रों ऋषभ देव की सभी पूर्व पर्याय प्रशस्त थीं। के साथ मेरु शिखर के समान एक जिन मन्दिर बन भरत को भवावलि वाया३। समय प्राने पर जब वैराग्य हुमा तब अन्य ऋषभ देव के ज्येष्ठ सुपुत्र भरत चक्रवर्ती के पूर्वभवों मित्रों के साथ जिन दीक्षा ले ली४ । मोह राजा के चार का वर्णन उन्ही के भाई वृषभमेन गणधर ने किया है। मेनांगों के समान चार कपायो को उन्होने क्षमादिक उनके कथनानुसार वह पहले भव में प्रतिगृढ नामक शास्त्रों में जीता। फिर उन्होंने द्रव्य से और भाव से राजा, दूसरे भव मे नारकी, तीसरे भव में शार्दल, चतुर्थ मलेखना करके कर्मरूपी पर्वत का नाश करने मे वजू के भव में दिवाकर प्रेमदेव, पञ्चम भव में मतिवर, छठवें समान अनशन व्रत ग्रहण किया। और अन्त मे पञ्च भव में प्रहमिन्द्र, सातवें भव में सुबाह, आठवें भव में परमेष्ठी का स्मरण करते हुए अपने शरीर का त्याग महमिन्द्र और नौवें भव में छह खण्ड पृथ्वी के भाखण्ड किया५ । पालन कर्ता भरत चक्रवर्ती हुए। इसके अनन्तर शेष भवावलि दिगम्बर परम्परा के ऋषभदेव की भवावलि में ऐसा कोई भब नहीं जहां अनुसार है। प्रारम्भ से पन्त तक मख्या की विषमता के भरत की भवावलि की तरह प्रतिगद्ध राजा मोर नारकी कारण दिगम्बर परम्पग की अपेक्षा श्वेताम्बर परम्परा का भव भी उन्हें भोगना पडा हो! स्वीकृत भवावलि में क्रम की भी विषमता है। जैसे पूर्व विदेह क्षेत्र स्थित प्रभाकरी नामक नगरो के दिगम्बर परम्परा में स्वीकृत २, ३, ४, ५, ६, ८, ६ राजा के रूप में प्रतिगृध्र अत्यन्त विषयी और बहु परितथा १०वां भव श्वेताम्बर परम्परा मे ४, ५, ६, ७, ८, ग्रही था। इसी कारण उमें अगले भव में नारकी के दुःखों ६, १०, ११, १२वा भव है। इस क्रम के अनुसार को भोगना पड़ा। प्रभाकरी नगरी के समीप एक पर्वत दिगम्बर परम्परा में वणित ऋषभदेव का सातवां पर बहुत सा धन गाड रखा था जिसमे मोह के कारण भव-राजा सुविधि, श्वेताम्बर परम्परा में नौवाभव नरक से निकल कर उसी पर्वत पर व्याघ्र हुमा। परन्तु सुविधि वैद्य के पुत्र जीवानन्द का भव है। व्याघ्र होने पर भी उसे एक मात्म कल्याण का अवसर मिला। पिहतास्रव मुनि के दर्शन से उसे अपने दुःखद पूर्व १. त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित पर्व १, सर्ग १७१६, जन्मों का स्मरण हो उठा जिससे वह तुरन्त ही शान्त हो ७२६, ७३०। २. वही पर्व १, सर्ग ११७३४-७७७ ॥ ६. श्रीमद्भागवत स्कध ५५०३। ३. वही पर्व १, सगं १७९ । ७. विष्णुपुराण स्कघ २ अ. १०२७ । ४. वही पर्व १ सगं ११७८१ । ८. शिवपुराण शतरुद्र सहिता प. ४४७ । ५. वही पर्व १, सर्ग २७८६-७८८ । ९. महापुराण पर्व ३३६३-६४ । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त atr गया और परिग्रह तथा कषाय को त्याग कर समाधि मरण धारण कर लिया। अठारह दिन तक निराहार रह कर विषय कथायों पर विजय प्राप्त करके, शरीर से भी ममत्व छोड़कर समाधि मरण पूर्वक शरीर छोड़ा घर द्वितीय स्वर्ग में दिवाकर नाम का देव हुधा । जो कभी वारकी थारकों के असीम दुखों का भाजन था वही स्वर्ग में देव या स्वर्गीय सुखों का स्वामी या प और धर्म में, पाप और पुण्य में यही तो प्राकृतिक अन्तर है। बस यहीं से अभ्युत्थान प्रारम्भ हुआ और कानन का केवारी नरकेवारी-वर्ती भरत बना ! ऋषभदेव की वज्रनाभि पर्याय में भरत का जीव उनका (वजूनाभि का) सगा भाई (सुबाहु ) था ! उस समय इनके पिता राजा वज्रसेन चक्रवर्ती थे, तीर्थङ्कर थे ! ऐसा लगता है कि ऋषभ देव को सतत विरागी प्रवृत्ति के कारण उन्हें अपने पिता से तीसरे भव मे तीर्थङ्कर और प्रतिद्ध राजा की परिग्रही अभिलाषा के कारण भारत को अपने पिता से चक्रवर्तित्व पद पाने का शुभा वसा साकार हुआ था ! वजुनाभि तथा उनके भाई सुबाहु आगामी भव में भी सर्वार्थसिद्धिके ग्रहमिन्द्र के रूप में साथ-साथ रहे ! और आगे चल कर एक पिता बना तो दूसरा उसी का पुत्र ! वज्रनाभि सर्वार्थसिद्धि से चयकर नाभिराय कुलकर के घर ऋषभदेव हुए और उनका भाई सुबाहु सर्वार्थसिद्धि से चयकर उन्हीं ऋषभदेव के पुत्र चक्रवर्ती भरत हुए । वैदिक अनुश्रुतियों के अनुसार भरत की दो उत्तर पर्यायों का भी वर्णन मिलता है । (१) अपने पुत्र को राज्य देकर जब वह पुलहाश्रम मे रहते थे तब एक मातृ वियोगी मृग शिशु को उन्होंने पुत्रवत् पाला और उससे राग हो जाने के कारण उन्हें हरिण मृग की पर्याय लेनी पड़ी। ( २ ) इस पर्याय से शरीर छोड़ने के बाद उन्हें ब्राह्मण के घर जन्म लेना पड़ा तब उन्हें मुक्ति (मोक्ष) की प्राप्ति हुई । उक्त भवावलि के अध्ययन से यह स्पष्ट हो जाता है कि पिता पुत्रके उन पूर्वभवों की घटनाओं में उनके चरण किस प्रकार उन्नति की ओर अग्रसर होते रहे हैं। एक उपदेशी पद कविवर यानतराम भाई जानो पुद्गल न्यारा रे ॥ क्षोर नीर जड़ चेतन जानो, बालु पखान जीव करम को एक जानतो, भाइयो श्री ● वितारा रे । भेद ज्ञान न राम रूप न भाप रहे विचारा रे । गणधारा है। इस संसार दु:ख सागर में, तोहि भ्रमावन हारा है। ग्यारह अग पढ़े सब पूरब, कहा भयो सुवटा की नाई, भवि उपदेश मुकति पहुँचाये, ज्यों मलाह पर पार उतारं प्राप वार का जिनके वचन ज्ञान परगासं, हिरदं मोह ज्यों मसालची घौर दिखावे, आप जात अंधियारा रे । बात सुने पातक मन नासं, अपना मल न भारा रे । बांदी पर पद मलमल धोवं, अपनी सुध न संभारा रे । ताको कहा इलाज कीजिये, बूढ़ा अम्बुधि धारा । जाप जप्यो बहु ताप तप्यो, पर कारज एक न सारा रे तेरे घट प्रन्तर विम्मूरति चेतन पद उजियारा रे । साहिल तासों नि भावं, 'खान' सहि भव पारा रे । 1 निहारा है। संसारा रे । वारा रे । प्रपारा रे । Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचरित का एक तुलनात्मक अध्ययन मुनि श्री विद्यानन्द मिनिधी विद्यानन्द जी अपना पर्याप्त समय ध्यान और अध्ययन में व्यतीत करते हैं।पापको नबीन और खोजपूर्ण प्रकाशित पुस्तकों के अध्ययन करने की बड़ी अभिलाषा रहता है। अध्ययन करते समय उसमें से उपयोगी पौर महत्व की बातों को नोट कर लेते हैं । प्रस्तुत लेख मुनिजी के रामायण सम्बन्धी विशेष अध्ययन के परिणाम स्वरूप राम का जो तुलनात्मक लेख लिया गया है वह पठनीय है । सभी पाप ऋषभदेव के सम्बन्ध में विशेष मनसन्धान कर रहे हैं और साथ ही श्रमण, वात्य और दूसरे ऐतिहासिक शम्बों के प्राचीन स्रोतों के सम्बन्ध में भी विचार कर रहे हैं। -सम्पादक] १ श्रीरामचन्द्र जी का मंगलस्मरण भारतीय पार्य वृद्धि, निर्मल यशः प्राप्ति और पाप नाश ये तीन फल जनता का प्राण है। श्री राम कोटि कोटि भारतीयों के महापुरुषों के यशःकचन से समूसन्न निरूपित किये हैं। उपास्य हैं। वह मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। उत्तम श्लोक कह तुलसीदास कहते हैं कि श्रीरघुनाथ का चरित पार कर उनका स्मरण किया जाता है क्योंकि उनकी कीर्ति विभूतिमय है और मेरी बुद्धि संसारमें पासक्त (सामान्य) उत्तम है।'पउम चरित' के रचयिता कवि विमलसूरि पोर है४ । महर्षि वाल्मीकि ने रामचरित का विस्तार शतकोटि रविषणाचार्य एवं स्वयम्भूने श्रीरामकथा को भगवान् महा- श्लोक-परिमाण बताया है जिसका एक-एक अक्षर महान् वीर द्वारा इन्द्रभूति प्राचार्य (गणधर) को उपदेश की हुई पातकों का विनाशक है५ । अध्यात्म रामायण में ब्रह्माजी बताया है। इन्द्रभूति ने मुधर्माचार्य को, सुधर्माचार्य ने ने नारद मुनि को बताया है कि श्रीराम के माहात्म्य को प्रभव को और प्रभव ने कीर्तिघर को परम्परा से श्रीराम समग्र रूप से वणित नहीं किया जा सकता। इसलिए कथा प्रदान की है। स्वल्प रूप में ही मैं तुम्हें यह पावन रामचरित्र सुनाऊंगा। लोक में पुराण तथा काव्यकारों ने इसी परम्परा इसे बानकर तत्क्षण ही लोक को चित्तशुद्धि प्राप्त होती प्राप्त कथानक को ग्रहण कर अपनी कीतिलता को है। वैष्णवों की माम्नाय परम्परागत सूक्ति है कि पुष्पित-पल्लवित किया है । पद्मपुराणकार रविषेणाचार्य 'श्रीरामपादाम्बुजदीर्घनौका' ही अपार भवार्णव से पार ने कहा है कि गुणावली की अनन्तता के पात्र, उदार करने में सक्षम है। श्रीरामचन्द्रजी का चरित अज्ञात वेष्टावान् श्रीरामचन्द्र के सुन्दर चरित का वर्णन केवल इतिहास युग से अद्यावधि परः सहस्र कवियों, प्राचार्यों श्रुतकेवली ही कर सकते हैं। प्राचार्य ने विज्ञान की पौर महषियों ने स्वस्वप्रतिभानु रूप लिखा है। 'राम नाम १. (क) 'वड्डमाण मुखकुहरविणिग्गय । रामकहाणए एह को कल्पतरु कलि कल्याण निवास'-रामनाम कल्पवृक्ष कमागय । पच्छउं इंदभूइ पायरियं । पुणु धम्मेण ३. 'वदि ब्रजति विज्ञानं यशश्चरति निर्मलम् । गुणालंकारिएं। पुणु रविसेणायरिय पसाएं। बुद्धिए। नए प्रयाति दुरितं दूरं महापुरुषकीर्तनात।' -१२४ प्रवाहिय कइराएं। -पउमचरित ११४१-०२. , ". ४. 'कह रघुपति के चरित प्रपारा। कह मम बुद्धि निरत (ख) 'वर्द्धमानजिनेन्द्रोक्तः सोऽयमों गणेश्वरम् । इन्द्र संसारा। -रामचरितमानस, बाल० ११५ भूति परिप्राप्तः सुधर्म धारीणीभवम् । प्रभवं क्रमतः ५. 'चरित रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् । कीति ततोऽनुत्तरवाग्मिनम् । लिखितं तस्य सम्प्राप्य एककमक्षरं पुमा महापातकनाशनम् ।'-वा० रामा० खेयंत्लोऽयमुद्गतः ॥' पद्मपुराण प्रथमपर्व ४१.४२ . २६. तत् ते किंचित् प्रवक्ष्यामि कृत्स्नं वक्तुं न शक्यते । २. 'अनन्तगुणगेहस्य तस्योदारविचेष्टिनः । यज्ज्ञात्वा तरक्षणाल्लोकश्चित्तशुटिमवाप्नुयात् ॥' गदितुं चरितं शक्तः केवलं श्रुतकेवली।' -०१७ अध्यात्म रामायण माहात्म्य,७ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० अनेकान्त है। कलियुग में यह कल्याण का निवास स्थान है-यह महर्षि ने कैकेयी के लिए 'यशस्विनी' शब्द का प्रयोग भक्तकवि सन्त तुलसीदास की सूक्ति है। संस्कृत, प्राकृत, किया है । वास्तव में श्रीरामचरित की समीक्षा की जाए मपश, प्रादेशिक और प्राचीन-पर्वाचीन हिन्दी भाषा तो उसका लोकोत्तर वैभव उनकी वन यात्रा में निहित है। में व्यापक रूपेण श्रीराम कथा को प्रश्रय प्राप्त उनके वन गमन से भरत का भ्रात प्रेम, लक्ष्मण की भक्ति हमा है। तुलसीदासजी के समक्ष 'रामचरित मानस' सीता की एकनिष्ठ पतिव्रता सिडि, दुर्जय रावण का पतन, लिखते समय लोक में प्रचलित विविध राम-काव्य थे, श्रीराम का अद्भुत पराक्रम-सभी प्रकरण यशस्वी करने जिन्हें लक्ष्य कर उन्होंने 'नानापुराण निगमागम सम्मत यद् के कारण बनते हैं । इस कष्ट परम्परा ने यशः पुष्पों की रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि'- तथा 'जे प्राकृत माला श्रीराम के कण्ठ मे पहनाई, यह चिरसुखद परिणाम कवि परम सयाने । भाषां जिन्ह हरिचरित बखाने । भये कैकेयी प्रदत्त है। जे महहिं जे होहिहहिं प्रागे। प्रनऊ सबहिं कपट सब ३. श्रीराम का जीवन चरित कठिनाइयों, संघर्षों त्यागे।' इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण तथा विनय गभित और श्रीरता-वीरता की अनुपम गाथा है । वह लोकविश्रुत सूक्तियां लिखी हैं । माधुनिक कवियो में मैथिलीशरणजी इक्ष्वाकु कुल के मुकुट मरिण हैं। अपने चरित से उन्होंने गुप्त ने 'साकेत' महाकाव्य में लिखा है सम्पूर्ण पूर्वापर पीढ़ियों को कीतिकलश प्रदान किये हैं । 'राम! तुम्हारा चरित स्वय ही काम्य है, परन्तु इन सब के लिए उन्हें जीवन पर्यन्त शर शय्या पर कोई कवि बन जाय, सहज संभाव्य है।' बिछोना लगाना पड़ा। जिस समय उनके राज्याभिषेक की -साकेत, प्र. सगं. योजना चल रही थी, कोने में खड़ा हुमा अदृष्ट (भाग्य) मुसकुरा रहा था । अतः प्रात काल ही राज्यासन के स्थान वस्तुतः गुप्तजी की उक्ति प्रतिशयोक्ति नहीं है। कुछ तनहा है। कुछ पर उन्हें घोर वन स्थान देखना पडा२ । मुकुट, छत्र, ऐसे लोग होते हैं जिनके नामकारण के लिए यथोचित यथाचित चामर बल्कल और जटा मे बदल गये। पतिपरायणा शब्द नहीं मिलते और कुछ ऐसे होते हैं जिनके 'सहस्रनाम' मीता के साथ चलने काठ किया। श्रीराम के निषेध लिखने पर भी प्रतिरिक्त नाम लोक जिह्वानों पर निर्मित किये जाने पर जदोंने सविनय अवज्ञा प्रान्दोलन छेड होते रहते हैं। एक में नाम समाते नहीं, एक नाम में दिया। उन्होंने कहा कि पति का अनुगमन करना नारी का समाता नहीं। महापुरुषों के चरित उन्हें एक से अधिक धर्म और मैं अपने धर्म का त्याग नहीं कर सकती। नाम प्रदान करते रहते हैं। अनन्मगुण विभूषित को ही क्योकि समुद्र में, अरण्य में, शत्रु समूह मे, विषम स्थितियो 'बुद्धवीर जिन हरिहर ब्रह्मा या उसको स्वाधीन कहो। सोमबार प्रत. यदि पाप मझे स्वेच्छा से भक्ति भाव से प्रेरित हो यह चित्त उसी मे लीन रहो।' रहा। नहीं ले चलेंगे तो मै आपके प्रागे मागे कुश कण्टकों को र इस प्रकार की नानाभिधान रत्नावली से अभिहित किया - जाता है। नाम उनकी गरिमा के एक देश को प्रशस्ति तो पनि १. 'रामो मातरमासाद्य विवर्णा शोककशिताम् । र दे सकते हैं किन्तु सीमा नहीं हो सकते । वे उनके विशेषण जग्राह प्रणतः पादो मनो मातुः प्रहर्षयन् ।। तो बन सकते हैं, विरामचिह्न नहीं। अभिवाद्य सुमित्रां च कैकेयीं च यशस्विनीम्। स मातृश्चतत. सर्वाः पुरोहित मुपागमत् ॥' २. श्रीरामचन्द्र अयोध्या नरेश 'दशरथ के ज्येष्ठ -वा० रामा० युत० ७॥३३-३४ । पुत्र हैं । भरत, लक्ष्मण पौर शत्रुधन उनके लघु भ्राता २. 'प्रातभवामि वसुधाधिपचक्रवर्ती, हैं। कौसल्या को श्रीराम की माता होने का गौरव सोऽहं ब्रजामि विपिने जटिलस्तपस्त्री।'प्राप्त है तथापि श्रीराम की विनय भक्ति अपनी विमा- ३. 'हे ममुहे विसमे प्ररणे जसे थले सतुसमूहमध्ये । तामों के साथ भी अपूर्व है। वनवास से लोटने पर उन्होंने कहंचिजीवा पडिया यजंति लंघति धम्मेतिह याव पाव ।। जब कैकेयी की चरण वन्दना की, उस समय वाल्मीकि -सीमाचरियं Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचरितका एकतुलनात्मक अध्ययन बुहारती हुई-पापका पथ प्रशस्त करती हई चलूंगी१। ६. मेघनाद भीम पराक्रमी था। उसने लक्ष्मण को परन्तु श्रीराम सुख-दुख मे सम भाव रखने वाले महासत्त्व बक्षस्थल पर शक्तिबाण मारा था। लक्ष्मण के चौड़े बक्ष हैं। राज्याभिषेक समाचार से उन्हें प्रसन्नता नहीं हुई पर उसका छाला पड़ गया था। बन से वापस पाने पर और वनगमन से विषाद नहीं हुमा। श्रीतुलसीदास ने जब माता ने उस छाले के विषय में पूछा तो यह जानकर लिखा है-ऐसा समता भाव रखने वाली श्रीराम को उन्हें बहुत कष्ट हुमा कि शक्तिबाण से मेरा पुत्र मूच्छित निश्चयनिष्ठा मुझे मगल प्रदान करे। हो गया था परन्तु लक्ष्मण ने कुछ और ही कहा। वह ४. श्रीलक्ष्मण सर्वत्र रामचन्द्रजी के अनुगामी हैं। बोले४ हे माता! मैं तो इस विषय में बहुत स्वल्प श्रीराम के बिना उनकी स्थिति पानी से पृथक् किये हुए जानता है। विशेष तो श्रीराम जानते हैं। क्योंकि वेदना मत्स्य के समान है। वह रात्रिदिन अनिद्रायोग साधकर तो उन्हें ही हई, मुझे तो यह व्रणमात्र हुमा है। इन श्रीराम सीता के 'प्रहरी होकर चतुर्दश वर्ष पर्यन्त अनि- शब्दों में जो विश्वास, भक्ति तथा निष्ठा है, वह अपूर्व है। मीलित वीरासन से बैठे रहे। अपने सम्पूण वनवास समय ७. भगवान श्रीराम कृतज्ञशिरोमणि हैं । हनुमान मे वह मेघनाद का शक्ति बाण लगने के समय मूछित और के उपकारों का स्मरण कर पुलकित हो उठते है। हे होने पर ही अल्प समय निद्राधीन से हुए अन्यथा पहनिश " कपे ! तुम्हारे एक-एक उपकार के विनिमय में मैं अपने जागते रहे । बन जाते समय लक्ष्मण की माता ने कहा था प्राण ही भेंट कर सकता हूँ। इस पर भी तुम्हारे उपकार कि हे पुत्र ! तुम श्रीराम को दशरथ के समान, सीता को मुझ पर शेष रह जायेंगे। मैं चाहता हूँ कि यह ऋण मुक मेरे समान, वनभूमि को अयोध्या समझ कर सुख पूर्वक पर बना रहे। क्योंकि विपत्तियों में ही उपकार को अपने ज्येष्ठ भ्राता का अनुगमन करो। और रात दिन लौटाया जा सकता है । तुम पर कभी विपत्ति न पाए। मेवा करते हुए लक्ष्मण ने श्रीराम सीता को पर्णकुटी बना ८. लक्ष्मण सीता को माता-समान मानते हैं। उनकी कर दी, फल मूल दिये, नदियों का स्वच्छ जल पात्र में । दृष्टि सदा जानकी के चरणों तक सीमित है । जब श्रीराम भर कर लाये और धनुर्वाण लेकर जब श्रीराम-सीता सोये उन्हें सीता द्वारा फेंके हुए प्राभूषणों का परिचय पूछते हैं हुए होते, वीरासन लगाकर पहरा दिया-सेवकधर्म को तो यह सत्य सामने पाता है। लक्ष्मण कहते हैं हे राम! मनोयोग से निबाहा । मैं सीत के बाहुनों के आभूषण नहीं जानता, मैं उनके ५. श्रीराम का लक्ष्मण पर प्रत्यधिक स्नेह था। कुण्डलों को भी नहीं पहचान सकता। मैं तो चरणों के जब लक्ष्मण मेघनाद के शनिबाण से पीडित होकर नूपुरों को जानता हूँ जो नित्य प्रणाम के समय मुझे दिखाई मूछित हो गये तब वह शोक से व्याकुल होकर कहने लगे। देते थे६ । शील और विनय का कितना उज्ज्वल उदाहरण स्त्रिगां सर्वत्र मिल जाती हैं, मित्र स्थान-स्थान पर प्राप्त - है। ये प्रादर्श ही भारत की सांस्कृतिक निधि के रत्न हैं। हो जाते है किन्तु वह स्थान ससार मे कही नहीं, जहां खोया हमा सहोदर भाई मिल सकता हो। 'मिलहि न ४. 'ईशन्मात्रमह वेदमि विशेषं वेत्ति राषवः । जगत सहोदर भ्राता'३ वेदना रामचन्द्रस्य केवलं व्रणिनो वयम् ॥' ५. 'एककस्योपकारस्य प्राणान दास्यामि ते कपे। १. 'यदि त्वं प्रस्थितो दुर्ग वनमद्यैव राघव ! शेषस्येहोपकारस्य भवाम ऋणिनो वयम् ॥ अग्रतस्ते गमिष्यामि मृनती कुशकण्टकान् ॥' मदंगे जीर्णतां यातु यत्त्वयोपकृतं कपे ! न्या. रामा० २।११।६ २. 'प्रसन्नतां या न गताऽभिषेकतस्तथा न मम्ले बनवासःखतः नरः प्रत्युपकाराणामापत्स्वायाति पात्रताम् ॥' मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य सा सदाऽस्तु मे मंजुलमंगलप्रदा।' वा० रामायण -तुलसी, रामचरित. ६. 'नाहं जानामि केयूरे नैव जानामि कुण्डले । ३. 'देशे देशे कलत्राणि देशे देशे च बान्धवाः । नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात् ॥' तंतु देशं न पश्यामि यत्र भ्राता सहोदरः ॥'बारामा. -बा. रामायण Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ९. रावण विजय के पश्चात् अब भगवती सीता के ने कभी मनसे भी रावण को नहीं चाहा३।' प्रथम दर्शन होते हैं तब लक्ष्मण दौड़ कर उनके चरण १२. सती का धैर्य रावण के बन्धन में ही दिखाई स्पर्श करते हैं । बिनय से शिर नवाकर सम्मुख खड़े हो दिया हो, ऐसी बात नहीं है। यह धैर्य उनकी अक्षुण्ण जाते हैं। सीता उस इन्द्र समान रूपगुण सम्पन्न पुत्रस्नेह सम्पत्ति है। सेनापति कृतान्तवक्त्र जब सीता को घोर के अधिकारी देवर को देखती है और प्रालिंगन करती वन में छोड़ देता है तब भी वह श्रीराम पर किसी प्रकार है। उस समय उनकी प्रांखो मे मांसू छलछला उठते हैं१ । का प्रारोप नहीं लगाती। क्योकि 'स्वामीच्छा प्रतिकूलत्व १०. सीता ने रावण के बन्धनगृह में ११ दिन अन्न कुलजानां कुतो भवेत्'-कुलीन स्त्रियों में पति के विरुद्ध जल ग्रहण नही किया । हनुमान् द्वारा पति के कुशल समा भावना का उदय होता ही नहीं। 'एक हि धर्म, एक बत चार जानने पर ही पारणा की। पयपुराण मे वर्णन है नेमा, कायवचन मन पतिपद प्रेमा' यह उनका स्वभाव कि उन्होंने दिवा भोजन लिया, रात्रि भोजन प्रशंसनीय होता है। उस समय सीता को धर्म रक्षा का ही स्मरण नहीं माना। रहा । कृतान्तवक्त्र के साथ सन्देश भेजते हुए उन्होंने यही ११. जिस प्रकार श्रीराम का जीवन अनेक कष्ट कहा-हे महापुरुष! पिता के समान प्रजा का पालन परम्परामो की श्रृंखला है वैसे ही सीता को भी अनेक करना । मरे परित्याग का शोक न करना । संसार असार संकटो की अग्नि से निकलना पड़ा है। अयोध्या की राज है, सम्यग्दर्शन ही सार है। मत. किसी प्रभव्य के दुर्वाद वधू होकर वह वन मे गई, वहां रावण से हरी गई पति से मेरे समान उसे न छोड़ देना। मेरे ज्ञात-मज्ञात दोषो से वियुक्त होकर ऋर-घोर राक्षसियो के बीच रहना पड़ा। को क्षमा करना४।' धोर वन मे असहाय खड़ी होकर रावण-वध के पश्चात् श्रीराम ने उन्हें अग्नि-परीक्षा के ऐसा शान्त, स्थिर वचन कोई देवी सदृश नारी हो कह लिए कहा । पग्नि-परीक्षा के पश्चात् भी लोक-निन्दा की सकती है। संसार के राग कारणों के वशीभूत स्त्रियों के पात्र बनी। पुनः सगर्भा का श्रीराम ने परित्याग कर। मुख से निकलनेवाली शब्दावली तो आजकल प्राय. न्यायादिया और वन मे अनेक कष्ट उठाने पड़े । अत्यन्त गरिमा लयों में उपस्थित 'तलाक' चाहनेवालों की प्रार्थनामो में मयी, मगलमयी महाकुलीन देवी को कितना कष्ट सहन पढ़ी जा सकती है। परन्तु सीता सती ही नहीं, महासती करना पडा। सीता के इस अपराजित धैर्य की विरुदावली हैं। पति के उत्कर्ष में सहयोग करना उनका धर्म है । वर्णन करते हुए रविषेणाचार्य लिखते हैं-'अहो! पति- वह सम्पत्ति और विपत्ति में अविचल एकरूप है। इसी परायणा सीता का धर्य अनुपम है। इसका गाम्भीर्य लिए माज भी उनका नाम लेकर स्त्रिया पाशीर्वाद प्रदान क्षोभरहित है, महो! इसके शीलवत की मनोजता श्लाघ- करती हैं। सती का धैय हिमालय होता है, वह अल्पताप नीय है। व्रत-पालन में निष्कम्पता प्रशंसनीय है। इसको से पिघल कर प्रवाह के साथ मिलना नहीं जानता। मानसिक-मात्मिक बल उच्च कोटि का है। इस सुचरित्रा ३. अहो! निरुपमं धैर्य सीताया साधुचेतसः । महो! गाम्भीर्यमक्षोभ महो! शीलेमनोज्ञता १. 'सम्भ्रान्तो लक्ष्मणस्तावद् वैदेह्याश्चरणद्वयम् । महो! नु व्रतनष्कम्प्यमहो! सत्वं समुन्नतम् अभिवाद्य पुरस्तस्थी विनयानतविग्रहः ॥ मनसापि ययानेष्टो रावणः शुद्धवृत्तया ।' पुरन्दरसमच्छायं दृष्ट्वा चक्रधर तदा । पपपुराण ७६।५६-५७ प्रसान्वितेक्षणा साध्वी जानकी परिषस्वजे॥' ४. 'सदा रक्ष प्रजां सम्यक् पितेव न्यायवत्सलः ।' -पद्मपुराण ७९५८-५९ 'भव्यास्तद् दर्शनं सम्यगाराधयितुमिहंसि ।। २. 'रविरश्मि कृतोद्योतं सुपवित्रं मनोहरम् । 'न कथंचित् त्वया त्याज्यं नितान्तं तद्धि दुर्लभम ।' पुण्यवर्धनमारोग्यं दिवामुक्तं प्रशस्यते ॥' 'मयाऽविनयमीशं! त्वं समस्तं क्षन्तुमर्हसि ॥ -पपुराण ५३३१४१ -पपुराण ९७।१८, २०, २२, २३ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रामचरित का एक तुलनात्मक अध्ययन १३. श्रीराम का चरित्र शिष्टपालन और मशिष्ट थे। समय पर वर्षा होती थी, पवन का सुखस्पर्श संचार निग्रह के लिए प्रादर्शभूत है। रावण के साथ उनका युद्ध था, भीषण प्राधियां नहीं चलती थी, लोग अपने-अपने धर्म प्रशिष्टनिग्रह के लिए है। 'मरणान्तानि वैराणि' कोई मे प्रवृत्त हो पौर सन्तुष्ट रहते थे। मिथ्या भाषण नहीं महापुरुष ही कह सकता है। यदि राम पत्नीहरण को करते थे और धर्मपरायण थे। प्रात्महत्या कोई नहीं सहन कर लेते तो पार्यजाति के इतिहास की कलंकमषी करता था । को युग-युगान्तर भी प्रक्षालित नहीं कर पाते । श्रीराम ने १६. संसार में राज्यसंचालन के लिए दण्डव्यवस्था भावपार्यों का मुख उन्नत कर दिया। 'विजयदशमी' पर्व श्यक होतो है। दण्ड लगाये बिना ध्वजाका वस्त्र भी मनाने का सौभाग्य प्रदान किया, यह पर्व राम के अद्भुत स्फुरित नहीं होता । न्यायदण्ड भय से प्रजा नियम-संहिपगक्रम का स्मरण दिलाता है। साथ ही निर्देश करता तानों का पालन करती है परन्तु धर्म शासन के बिना है कि शत्रु चाहे कितना ही बलवान हो, अपने अपमान नियमों का निर्धारण भी नही किया जा सकता। नियमों का प्रतिशोध मानशील को लेना ही चाहिये । जो न्याय के की रचना, न्याय का पाधार धर्म होता है। जिस राष्ट्र पथ पर चलता है उसकी सहायता वानरभालू भी करते है से धर्म बहिष्कृत हो जाता है, वहां की श्रीसमृद्धि क्षीण और अन्याय के मार्ग पर चलनेवाले को सगे बन्धु भी होती जाती है। धर्म रक्षा से ही मानवता की भावना को छोड जाते है।। यही हेतु था कि रावण को विभीषण न जीवन मिलता है, मर्यादानों की स्थापना होती है। छोड़ दिया। १७. 'रामो विग्रहवान् धर्मः' वाल्मीकि महर्षि ने १४. श्रीराम सत्य ही राजशिरोमणि है, प्रजावत्सल श्रीराम को धर्म कहा है 'साक्षात् धर्म इवापरः' वह साक्षात् हैं। 'राजा प्रकृतिरजनात्' राजा वह होता है जो प्रजा धर्म ही हैं। प्राचीन भारत मे स्तेति करने योग्य कोई है का रजन करे। श्रीराम इस नियम के परिपालक है। तो वह मर्म अथवा धर्मात्मा है । जब-जब उत्तम लेखकों ने इसमें बाधा मानेपर वह परममाध्वी सीता का तत्क्षण उनकी प्रशंशा करने को गुणचयन किया है तो उनमे धर्म परित्याग कर देते है। क्योंकि राजकुल की प्रकीति- के दर्शन किये हैं। कालिमा प्रजा को लगती है। कीर्ति का प्रसार भले ही १८. राम वीतराग हैं। वह योगवासिष्ठ मे कहते विलम्ब से हो परन्तु अयश का विस्तार सद्यः होता है। हैं-'मैं राम नामाकित कोई व्यक्ति नहीं। विषयों मे चन्द्रमा की ज्योत्स्ना दर से दिखाई देती है किन्तु कालिमा मेरा अनुराग नही। मैं तो शान्तभाव से प्रात्मरूप होकर को लोग तुरन्त देख लेते है। श्रीराम ने लक्षमण को अपनी प्रात्मा मे जिन भगवानके समान रहना चाहता हूँ।' बताया कि 'सूखे ईन्धन के ढेर मे लगी हई अग्निके समान - २. न पर्यदेवन् विधवा न च व्यालकृतं भवम् । यह अपयश प्रजा में व्याप्त नही हो, वैसा यत्न मैं करना न व्याषिजं भयं चासीद राम राज्य प्रशासति । चाहता है। क्योंकि जिसकी दिशाए प्रकीति वह्नि मे जल निर्दस्युरभवल्लोको नानर्थ कश्चिदस्पृशत् । रही हैं उनका जीवन किस कामका? 'प्रजनीय यशोधनम्' न च स्म वृद्धा बालानां प्रेतकार्याणि कुर्वते ।। यही मनस्वियों का जीवनवत होता है। सर्व मुदितमेवासीत् सर्वो धर्मपरोऽभवत् । १५. श्रीराम का राज्य धर्मराज्य है। प्रधर्म के लिए राममेवानुपश्यन्तो नाभ्यहिंसन् परस्परम् ॥ वहां कोई स्थान नहीं। वाल्मीकि ने लिखा है कि 'राम नित्यमूला नित्यफलास्तरवस्त्र पुष्पिताः । राज्य में स्त्रियां विधवा नहीं होती थी, हिंसकों का भय कामवर्षी च पर्जन्य. सुखस्पर्शश्च मारुत.।। प्रजा मे नहीं था, रोग से प्रजा मुक्त थी। किसीको अनर्थ सर्व लक्षणसम्पन्ना. सर्व धर्मपरायणाःस्पर्श नही करता था, वृद्धजन बालकों का प्रेतकाय नही (वाल्मीकि रामायण, युद्धकाण्ड ७५।२६-३५) करते थे। वृक्ष नित्यफल देते थे और पुष्पों से लदे रहते ३. नाहं रामो न मे वाञ्छा भावेष्वपि न मे मनः । १. 'यान्ति न्यायप्रवृत्तस्य तिर्यचोऽपि सहायताम् । शान्त प्रासितुमिच्छामि रवात्मनीव जिनो यथा ॥' प्रपन्यानं तु गच्छन्तं सोदरोऽपि विमुञ्चति ।' -योगवाशिष्ठ १५८ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धि भोर तत्त्वार्थवार्तिक पर षट्खएडागम का प्रभाव बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री जैन सम्प्रदाय में तस्वार्थसूत्र एक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है। सिद्धि वृत्ति में जो सत् व संख्या प्रादि का विस्तृत विवेचन वह प्रमाण मे प्रल्प होने पर भी प्रर्थतः महान है। उसका पाया जाता है उसका प्राधार प्रकृत षट्खण्डागम ही रहा महत्त्व इसीसे जाना जाता है कि उमके ऊपर दिगम्बर और है। इसके प्रथम खण्डभूत जीवस्थान मे उपयुक्त सत-संख्या ज्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायो मे अनेक विस्तृत टीकायें रची प्रादि की प्ररूपणा पृथक्-पृथक् सत्प्ररूपणा व द्रव्यप्रमाणागई हैं। उन टीकामों में प्रा० पूज्यपाद विरचित सर्वार्थ- नुगम प्रादि पाठ अनुयोगद्वारों के द्वारा विस्तार से की सिद्धि पौर प्रकलंकदेव विरचित तत्त्वार्थवातिक प्रतिशय गई है। प्रा. पूज्यपाद ने इन्हीं अनुयोगद्वारों से लेकर प्रसिद्ध है। तस्वार्थ सूत्र चुकि मोक्षमार्ग में प्रवृत कराने प्रपनी सर्वार्थसिद्धि वृत्ति मे उक्त सत्-मंख्या प्रादि का के उद्देश से रचा गया है, प्रतएव उसमें मुक्ति में प्रयो- निरूपण किया है । यह वर्णन प्राय षट्खण्डागम के सूत्रों जनीभूत जीवादि सात तत्त्व ही १० अध्यायों मे चचित का छायानुवाद मात्र है । यथाहुए हैं। मूल सूत्रग्रन्थ के अनुमार उसपर लिखी गई उप १ सत्प्ररूपणा युक्त दोनो टीकामों में भी मुख्यतया उन्हीं तत्त्वों का षट्खण्डागम पु.१- सतपरूवणदाए दुविहो णिद्दे सो विस्तार के साथ विचार किया गया है। पर यथाप्रसग मोघेण प्रादेसेण य ।। प्रोघेण प्रत्थि मिच्छाइट्ठी ॥६॥ वहा अन्य विषयो की भी चर्चा की गई है। इन विषयों के सासणसम्माइठी ॥१०॥ इत्यादि । विवरण मे वहां यथास्थान कुछ विषयों के स्पष्टीकरण के सर्वार्थ सिद्धि-तत्र सत्प्ररूपणा द्विविधा सामान्येन लिये भगवन्त पुष्पदन्त व भूतबलि विरचित षट्खण्डागम विशेषेण२ च । सामान्येन च अस्ति मिथ्यादृष्टि: सासादनको माधार बनाया गया है। सम्यग्दृष्टिरित्येवमादि । पृ०३१ उक्त षट्खण्डागम महाकर्म-प्रकृति प्राभूत का उपसंहार षटखण्डागम में जहां प्रत्येक गुणस्थान का उल्लेख है, यह सुप्रसिद्ध है। तदनुसार उममें कर्म और उससे पृथक-पृथक् सूत्र के द्वारा (९ मे २३) किया गया है वहा सम्बद्ध जीवों की ही प्ररूपणा की गई है। यद्यपि उसके राणुगमो भावाणुगमो अप्पाबहुगाणुगमो चेदि । ऊपर उपलब्ध प्रा. वीरसेन विरचित विशालकाय धवला ष. ख पु. १ पृ. ५३.५५ टीका में यथाप्रसग अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का व्याख्यान ___ यहां यह विशेष ध्यान देने योग्य है कि गुणस्थानो किया गया है, पर मूल ग्रन्थ में कर्म का ही प्रमुखता से के लिए षट्खण्डागम मे जिस प्रकार 'जीवसमास' वर्णन है। शब्द व्यवहुत हुआ है (सूत्र ५) उसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि सर्वार्थ सिद्धि मे भी उक्त गुणस्थानों के लिए 'जीवतत्त्वार्थसूत्र में जो 'सत्-संख्या-क्षेत्र-स्पर्शन-कालान्तर समास' शब्द का ही उपयोग किया गया है। जैसेभावाल्पबहुत्वैश्च'१ मूत्र (१-८) उपलब्ध है उसकी सर्वार्थ एतेषामेव जीवसमासानां निरूपणार्थ चतुर्दश १. एदेसि चेव चोहसण्ह जीवसमासाण परवणदाए मार्गणास्थानानि ज्ञेयानि। स. सि. (भा. ज्ञानपीठ) तत्थ इमाणि पट्ट प्रणियोगद्दाराणि णादव्याणि भवंति ॥५॥ तं जहा ॥६॥ सतपरूषणा दग्वपमाणा. २. पोधेन सामान्येनाभेदेन प्ररूपणमेकः, अपरः मादेशेन णुगमो खेत्ताणुगमो फोसणाणुगमो कालाणुगमो प्रत- भेदेन विशेषेण प्ररूपणमिति । धवला पु. १ पृ. १६० Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्षसिद्धि और तत्वार्यवातिक पर बट्समागम का प्रभाव ३२१ सर्वार्थसिद्धिकार ने 'सासादनसम्यग्दृष्टिरित्येवमादि' कह वा त्रयो वा उत्कर्षेण चतुःपञ्चाशत् । स्वकालेन समु. कर सक्षेप से एक ही वाक्य में उनका उल्लेख कर दिता संख्येयाः । चत्वारः क्षपका प्रयागकेवलिनएच प्रवेशेन दिया है। एको वानी वा त्रयो वा उत्कर्षेणाष्टोत्तरसख्याः । स्वष ख. पु. १-पादेसेरण गदियाणवादेण प्रथि कालेन समुदिता सख्येगा । सयोगकेवलिनः प्रवेशेन एको णिरयगदी तिरिक्खगदी मणस्सगदी देवगदी सिनगदी वा द्वो वा त्रयो वा उत्कर्षणाष्टोत्तरशतसहस्रपृथक्त्वचेदि ॥२४॥णेरड्या च उदाणेसु पत्थि मिच्छाइटी सासण- मल्या। सम्माइट्ठी सम्मामिच्छा इट्टी प्रसंजदसम्माइट्टि ति ॥२५॥ यहां षट्खण्डागम मे द्रव्यप्रमाण के साथ साथ क्षेत्र तिरिक्खा पंचसु ठाणेसु प्रत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी काल और भाव की अपेक्षा भी मिध्यादृष्टि जीवों की सम्मामिच्छाइट्ठी प्रसजदसम्माइट्ठी सजदासजदा त्ति ॥२६॥ संख्या निर्दिष्ट की गई है। परन्तु गणित की क्लिष्टता से स. सि पृ. ३१-विसेसेण गत्यनुवादेन नरकगती सर्वार्थसिद्धिकार ने उसकी उपेक्षा की है। इसीलिए सूत्र सर्वासु पृथिवीषु माद्यानि चत्वारि गुणस्थानानि सन्ति। ३.४ और ५ का उपयोग सर्वार्थसिद्धि में नहीं हपा है। तियंग्गतो तान्येव सयतासयतस्थानाधिकानि । इसके अतिरिक्त षट्खण्डागम में जहां पृच्छा (प्रश्न) पूवक सख्या का निर्देश हुमा है वहां सर्वार्थसिद्धि में पृच्छा २ द्रव्यप्रमाणानुगम न करके संक्षेप में ही उस संख्या का उल्लेख किया प. खं. पु ३-दन्वपमाणाणुगमेण दुविहो णिई सो गया है। मोघेण मादेसेण य ॥१॥ मोघेण मिच्छाइट्ठी दवपमाणेण क्षेत्रानुगम केवडिया? अणंता ॥२॥... सासणसम्माइटिप्पडि जाव सजदासजदा त्ति दवपमाणेण केवडिया ? पलिदोव- ष. खं. पु. ४-खेत्ताणुगमेण दुविहो णिद्दे सो मोघेण भस्स असखेज्जविभागो।.......॥६॥ पमत्तसंजदा दव- प्रादेसेण य ॥१॥ मोघेण मिच्छाइट्टी केवडिखेत । सबपम.णेण केवडिया ? कोडिपुधत्त ॥७॥ अप्पमत्तसजदा लोगे ।।२।। सासणसम्माइटिप्पडि जाव प्रजोगिकेवलि त्ति दव्वपमाणेण केवडिया? सखेज्जा ।।८।। चदुण्हमुवसामगा केवरिखते ? लोगस्स प्रसखेज्जदिभागे ॥३॥ सजोगकेवली दव्वपमाणेण केवडिया ? पवेसेग्ग एक्को वा दो वा तिणि केवडिखेत्ते? लोगस्स मसंखेज्जदिमागे प्रसखेज्जेसु वा भागेसु वा उक्कस्सेण चउवणं | पडुच्च सखेज्जा ॥१०॥ सव्वलोगे वा ॥४॥ प्रादेसेण गदियाणुवादेण णिरयगदीए चदुण्हं खवा प्रजोगिकेवली दवपमाणेण केवडिया? पवे. णेरइएसु मिच्छाइटिप्पाहुडि जाव असजदसम्माइट्टि त्ति सेण एक्को वा दो वा तिण्णि वा उक्कस्सेण अठुत्तरसद केवडिखेत्ते ? लोगस्स प्रसंखेज्जविभागे ॥५॥ एव सत्तसु ॥११॥ अद्ध पडुच्च सखेज्जा ॥१२॥ सजोगिकेवली दव- पुढवीसु णेरड्या ॥६॥ पमाणंण केवडिया? पवेसेण एक्को वा दो वा तिणि वास. सि.प्र.४१-क्षेत्रमुच्यते । तद्विविध सामान्येन उक्कस्सेण अठुत्तरसद ॥१३॥ अद्ध पडुच्च सदसहस्स- विशेषेण च । सामान्येन तावत् मिथ्यादृष्टीनां सर्वलोकः । पुषत्तं । १४॥ सासादनसम्यग्दृष्टयादीनामयोगकेवल्यन्तानां लोकस्यास. सि. पृ. ३४-सख्याप्ररूपणोच्यते । सा द्विविधा संख्येयभागः । सयोगकेवलिना लोकस्यासंख्येयभागोऽसंख्येया सामान्येन विशेषेण च । सामान्येन तावत् जीवा मिथ्या- भागाः सर्वलोको वा। विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगती दृष्टयोऽनन्तानन्ताः । सासादनसम्यग्दृष्टयः सम्पमिथ्या- सर्वासु पृथिवीषु नारकाणां चतुर्ष गुणस्थानेषु लोकस्यादृष्टयोऽसयतसम्यग्दृष्टय. सयतासंयताश्च पल्योपमासंख्येय- संख्येयभाग. । भागप्रमिताः । प्रमत्तसयता: कोटिपृथक्त्वसंख्याः । पृथक्त्व. द्रव्यप्रमाण के समान इस क्षेत्रप्रमाण में भी सर्वार्षमित्यागमसंज्ञा तिसृणां कोटीनामुपरि नवानामषः । अप्रमत्त- सिद्धिकार ने पूर्व में पृच्छा को न उठाकर षट्खण्डागम के संपताः संख्येयाः । चत्वार उपशमका प्रवेशेन एको वा दो अनुसार प्रथमत: प्रोष (सामान्य) से और तत्पश्चात् Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त तिर पादेश (विशेष) की अपेक्षा क्रम से गत्यादि १४ मार्ग ८ अल्पबहुत्वानुगम णामों का पाश्रय लेकर उनमें यथासम्भव गुणस्थानों के प्रादेसेण गदियाणुवादेण रिणरयगदीए रइएसु सव्वअनुसार जीवों के क्षेत्र की प्ररूपणा की है। त्योवा सासणसम्माइट्टी ॥२७॥ सम्मामिच्छादिट्ठी संखेज्ज४ स्पर्शनानुगम गुणा ॥२८॥ अमंजदसम्मादिट्टी प्रसखेज्जगुणा ॥२६॥ सम्मामिच्छाइटि-प्रसजवसम्माइट्ठीहि केवडियं खेत्तं मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥३०॥ ष० खं० पु०५ पृ० पोसिदं? लोगस्स प्रसखेज्जदिमागो ॥५॥ पट्ठ चोदम २६१-६२ भागा वा देसूणा ॥६॥ ष. ख पृ. ४ पृ. १६६ विशेषेण गत्यनुवादेन नरकगती सर्वासु पृथिवीष नारसम्यग्मिध्यादृष्टयसंयतसम्यग्दृष्टिभिर्लोकस्यासंख्येय. केषु सर्वतः स्तोका सासादनसम्यग्दृष्टयः । सम्यग्थ्यिादृष्टयः भागः प्रष्टौ वा चतुर्दशभागा देशोनाः । स. सि. पृ. ४६. संख्येयगुणा: । असंयनसम्यग्दष्टयोऽसंख्येयगुणा । मिथ्या५ कालानुगम दृष्टयो ऽसंख्येयगुणाः । स० सि० पृ० ८८ सासणसम्माइट्ठी केवचिर कालादो हति? णाणा- यहां मत्-सख्या ग्रादि उन आठ अनुयोगद्वारों के कुछ जीवं पडुच्च जहण्णण एगसमग्रो ॥५॥ उक्कस्सेण पलि. थोड़ेसे उदाहण दिये गये हैं। वैसे इम सूत्र (सत्-सख्यादोवमस्म प्रमंखेज्जदिभागो ॥६॥ एगजीव पडुच्च जहण्णण क्षेत्र ॥1) की सर्वार्थ सिद्धि में की गई समस्त व्याख्या एगसमपो ।।७।। उक्कस्सेण छ प्रावलियानो ॥८॥ ही प्रायः षट्खण्डागम के सूत्रों के अनुवादरूप है । ष.ख.पु.४पृ. ३३०-४२. इसी प्रकार त० सू० अध्याय २ के 'मम्यक्त्व चारित्रे' सामादनमम्यग्दृष्टेन नाजीवापेक्षया जघन्येनैक: मूत्र का व्याख्यान भी प्राय: षट्खण्डागम के सूत्रों का ममयः । उत्कर्षेण पल्योपमासंख्येयभाग. । एकजीवं प्रति अनुवाद है। जघन्येनक: समयः । उत्कर्षेण षडावलिकाः । स.सि. तस्वार्थवातिक 'मन्तरानुगम श्रीमद्-भट्टालंकदेव विरचित तत्त्वार्थवार्तिक मे सर्वार्थतिरिक्खगदीए तिरिक्खेसु मिच्छादिट्ठीणमतरं केव सिद्धि के अधिकाश वाक्यों को प्रायः सर्वत्र वार्तिकों के रूप चिरं कालादो होदि? णाणाजीव पडुच्च णत्थि अन्तर, मे आत्मसात् किया गया है। पा० पूज्यपाद के समान प्रा० णिरंतर ॥३५॥ एगजीव पडुच्च जहण्णण प्रतोमुहुत्त ।॥३॥ प्रकलकदेव के सामने भी षट्खण्डागम रहा है व उन्होने उक्कस्सेण तिण्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥३७॥ मासण उमका पर्याप्त उपयोग भी प्रस्तुत ग्रंथ में किया है। उदासम्माइटिप्पडि जाव सजदासजदा ति मोघं ॥३॥ हरण के रूप में त० सू० के द्वितीय अध्याय के 'सम्यक्त्व. १० ख० पु. ५१०३१-३३ चारित्र' मूत्र की व्याख्या में जो प्रथमोपशम सम्यक्त्व की तियंग्गतो तिरचा मिथ्यादृष्टेनानाजीवापेक्षया नास्त्य- उत्सात्त का विधान ह वह षट्खण्डागम के जीवस्थान मनोमामाजवीण खण्ड की सम्यक्त्वोत्पत्ति नामक पाठवीं चूलिका के सूत्रों पल्योपमानि देशोनानि । सासादनसम्यग्दृष्ट्यादीना चता का अनुवाद जैसा है। यथासामान्योक्तमन्तरम् । स०सि० पृ०६८ व० सं० (पु०६ पृ० २०३ मादि)-एवदिकालदिदि एहि कम्मेहि सम्मत्तं ग लहदि ॥१॥ एदेसि चेव कम्माणं भाशनगम हावे अंतोकोडाकोडिदिदि बंधदि तावे पढमसम्मत्तं लभदि अमजदसम्माइट्टि ति को भावो? उवसमिमो वा ॥३॥ सो पुरण पंचिदियो सण्णी मिच्छाइट्ठी पज्जत्तमो खइनोवा खग्रोवसमिनो वा भावो ॥५॥ १० ख० पु०५ पृ० १९६ १. इसकी समानता मागे तत्त्वार्थवातिक के उल्लेख में असंयतसम्यग्दृष्टिरिति प्रौपशमिको वा क्षायिको वा देखिए, कारण कि सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवातिक भायोपशमिको वा भावः । स०सि० पृ.८४-८५ का वह सन्दर्भ प्रायः शब्दशः समान है। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वार्थसिद्धि और तत्वार्यवातिक पर बदसण्डागम का प्रभाव सम्वविसुखोएदेसि चेव कम्माणं जाधे मंतोकोडाकोडि- गति, मनुष्यगति और देवगति मे यथासम्भव उक्त पर्याप्त दिदि ठवेदि संखेज्जेहि सागरोवमसहस्सेहि उणियं ताधे प्रादि अवस्थामों का पृथक्-पृथक् उल्लेख किया है। वहां पढमसम्मत्तमुपादेदि ॥५॥ प्रारम्भ में 'काललब्ध्यादिप्रत्यानपेक्ष्य तासां प्रकृतीनामुप_____त० वा० १, पृ० १०४.-उत्कृष्टस्थितिकेषु कर्मसु शमो भवति' यह जो निर्देश किया था उसमें काललब्धि जघन्यस्थितिकेषु च प्रथमसम्यक्त्वलाभो न भवति? के साथ प्रयुक्त 'मादि' शब्द से जातिस्मरणादि कारणों अन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितिकेषु कर्मसु बन्धमापद्य- को ग्रहण करते हुए उनकी भी सम्भावना पृथक्-पृथक मानेषु, विशुद्धिपरिणामवशात् सत्कर्मसु च तत: संख्येय- नारकादि चारों ही गतियों में व्यक्त कर दी है। यथासागरोपमसहस्रोनायामन्तःकोटिकोटिसागरोपमस्थितो स्थापितेषु प्रथमसम्यक्त्वयोग्यो भवति । xxxस पुन तत्र नारकाः प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयन्तः पर्याप्तकाः भव्यः पचेन्द्रियः संज्ञी मिथ्यादृष्टि: पर्याप्तकः सर्वविशुद्धः उत्पादयन्ति, नापर्याप्तकाः। पर्याप्तकाश्चान्तमुहर्तस्योपरि प्रथमसम्यक्त्वमुत्पादयति । उत्पादयन्ति, नाधस्तात् । एवं सप्तसु पृथिवीषु । तत्रोपरि ष० ख० (पु.६)-पढमसम्मत्तमुप्पादेतो अंतोमुहु तिसृषु पृथिवीषु नारकास्त्रिभिः कारणः सम्यक्त्वमुपजनतमोहट्टोदि ।।६॥ पोहोट्ट दूण मिच्छत्तं तिण्णिभागं करेदि यन्ति-केचिज्जाति स्मृत्वा, केचिद् धर्म श्रुत्वा, केचिद् सम्मत्तं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥७॥ दंसणमोहणीयं कम्म वेदनाभिभूताः । त० वा० १, पृ० १०५ उवसामेदि ॥८॥ उवसातो कम्हि उवसामेदि ? किन्तु षट्खण्डागम में उनका स्पष्टीकरण गतिविशेष चदुसु वि गदीसु उवसामेदि । चदुसु वि गदीसु के अनुसार वहां न करके मागे नववीं चूलिका के प्रारम्भ उवसामेतो पंचिदिएसु उवसामेदि, णो एइंदिय-विय में १ से ४२ सूत्रों द्वारा किया गया है । उन्हीं का यह उपलिदिएसु । पचिदिएसु उवसातो सण्णीसु उवसामेदि, णो युक्त छायानुवाद तत्त्वार्थवार्तिक में उपलब्ध होता है। असण्णीसु । सण्णीसु उवसातो गम्भोवक्कंतिएसु उवसा यथामेदि, णो सम्मुच्छिमेसु । गडभोवक्कतिएसु उवसातो रइया मिच्छाइट्ठी पढमसम्मत्तमुप्पादेति ॥१॥ उप्पा. पज्जत्तएसु उवसामेदि, णो उपज्जत्तएसु । पज्जत्तएसु देता कम्हि उप्पादेति ? ॥२॥ पज्जत एसु उप्पादेति, णो उवसामेंतो सखेज्जवासाउगेसु वि उवसामेदि असखेज्ज अप्पज्जत्तएसु ॥३॥ पज्जत्तएसु उप्पादेंता अंतोमुहत्तप्पहडि वासाउगेसु वि | पृ० २३०-२३८ जाव तप्पाप्रोग्गंतोमुहत्तं उपरिमुष्पादेति, णो हेढा ॥४॥ त० वा० १, पृ. १०४-५-उत्पादयन्नसो मन्त एवं सत्तमु पुढवीसु णेरइया ॥५॥ रइया मिच्छाइट्ठी मुहर्तमपवर्तयति, अपवयं च मिथ्यात्वकर्म विधा विभजते । कदिहि कारणेहि पढमसम्मत्तमुप्पा-ति ? ॥६॥ तीहि -सम्यक्त्वं मिथ्यात्वं सम्यमिथ्यात्वं चेति । दर्शनमोह- कारणहि पढमसम्ममुप्पादेति ॥७॥ केई जाइस्सरा, नीयं कर्मोपशमयन् क्वोपशमयति ? चतसृषु गतिषु । केई सोऊण, केइं वेदणाहिभूदा ॥८॥१० ख० पु. ६ पृ०४१८-२२ ऊपर षट्खण्डागम के सूत्र में यह निर्देश किया त. सू० के सूत्र ३-६ की व्याख्या में तत्त्वार्थवातिकगया है कि दर्शनमोहनीय कर्म का उपशम करने वाला कार ने, नारकी जीव नरकों में किस गुण-स्थान के साथ जीव उसे चारों ही गतियों में करता है। विशेष यह कि प्रवेश करते हैं व वहां से किस गुणस्थान के साथ निकलते उसे पंचेन्द्रिय, संज्ञी, गर्भज और पर्याप्त होना चाहिए हैं, इसकी प्ररूपणा की है (पृ० १६८) । वह भी षट्एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय, असंजी, संमूर्छन जन्मवाला और अपर्याप्तक जीव उस दर्शनमोह के उपशान्त करने में समर्थ १ इन कारणों की प्ररूपणा सर्वार्थसिद्धि में भी सूत्र नहीं होता। १,७ की टीका में साधन का स्पष्टीकरण करते हुए पर तत्वार्थवार्तिक में प्रागे 'चदुसु वि गदीसु उवसामेदि' ठीक इसी प्रकार से उन्हीं शब्दों में की गई है। इसका स्पष्टीकरण करते हुए क्रमशः नरकगति, तियंच (देखिए पृ. २६) Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सन्डागम का शब्दशः अनुवाद है । यथा यह कथन षट्खण्डागम की इसी चूलिका के सूत्र प्रथमायामुत्पद्यमाना नारकाः मिथ्यात्वेनाधिगताः २०३-२२० का अनुसरण करता है। (पु. ६ पु. ४८४ कचिन्मिध्यात्वेन नियन्ति। मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित से ४९२) जैसेसासादनसम्यक्त्वेन निर्यान्ति । मिथ्यात्वेनाधिगताः केचित् अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइया गिरयादो गैरइया सम्यक्त्वेन निर्यान्ति। केचित् सम्यक्त्वेनाधिगताः सम्य- उध्वट्टिदसमाणा कदि गदीनो पागच्छंति ? ॥२०॥ पत्वेनैव निर्यान्ति क्षायिकसम्यग्दष्टयपेक्षया । द्वितीया- एक्कं चेव तिरिक्खगदिमागच्छति ॥४॥ तिरिक्खेसु दिषु पंचसु नारका मिथ्यात्वेनाधिगताः केचिन्मिथ्यात्वेन उववण्णल्लया तिरिक्खा छण्णो उप्पाएंति-पाभिणिबोहिनियन्ति ।..."इत्यादि। यणाणं णो उप्पाएंति, सुदणाणं णो उप्पाएंति, प्रोहिणाणं इस सन्दर्भ का मिलान षट्खण्डागम (पु० ६, पृ० णो उप्पाएंति, सम्मामिच्छत्तं जो उप्पाएंति, सम्मत्तं णो उप्पाएंति, संजमासंजमं णो उप्पाएंति ॥२०५॥ ४३७ मादि) के इन सूत्रों से कीजिए त० सू०९-१ की व्याख्या में संवर तत्त्व का व्याणेरड्या मिच्छेतेण अधिगदा केई मिच्छत्तण णीति ख्यान करते हुए तत्त्वार्थवातिक में कहा गया है कि जिस के मिच्छत्तण अधिगदा सासणसम्मत्तेण णीति जिस कर्म का जो कारण (मास्रव) है उसके प्रभाव में ४ा केई मिच्छत्तण अधिगदा सम्मत्तेण णीति ॥४६॥ उस उस कर्म का संवर होता है। इसको और स्पष्ट सम्मतेण अधिगदा सम्मत्तेण चेव णीति ॥४७॥ एवं करते हुए वहां मिथ्यात्व, अविरति (असंयम), प्रमाद, पढमाए पुढवीए रइया ॥४८॥ बिदियाए जाव छट्ठीए कषाय और योग के प्रभाव में जिन जिन कर्मों का संवर पुढवीए गैरइया मिच्छत्तेण अधिगदा केई मिच्छत्तण होता है उनका क्रम से नामनिर्देश किया गया है। इस [णीति] ॥४६॥ इत्यादि । कथन का आधार षट्खण्डागम का तृतीय खण्ड बन्धस्वाउसके मागे इसी सूत्र की व्याख्या में तत्त्वार्थवातिक मित्वविचय रहा है। यथामें जो नारकी जीवों की अन्य गति में जाने की प्ररूपणा तद्यथा-निद्रानिद्रा-प्रचलाप्रचला-स्त्यानगुढघनन्तानुकी है (जैसे-षड्भ्य उपरिपृथिवीभ्यो नारका मिथ्यात्व- बन्धिक्रोध-मान-माया-लोभ-स्त्रीवेद-तिर्यगायुस्तिर्यग्गति-चतु. सासादनसम्यक्त्वाभ्यामुद्वतिता तिर्यङ्मनुष्यगती प्राया संस्थान-चतु संहनन -तिर्यग्गतिप्रायोग्यानुपूर्योद्योताप्रशस्तन्ति ।....."इत्यादि) वह षट्खण्डागम की प्रकृत चूलिका के विहायोगति-दुर्भग - दुःस्वरानादेय-नीचैर्गोत्रसंज्ञकानां पंच७६ से १.० (पु० ६ पृ. ४६-५४) सूत्रों के अनुवादरूप विशतिप्रकृतीनाम् अनन्तानुबन्धिकषायोदयकृतासंयमहै। जैसे-जेरइयमिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी णिरयादो प्रधानासवाणां एकेन्द्रियादयः सासादनसम्यग्दृष्टचन्ता बन्धउम्वदिवसमाणा कदि गदीमो मागच्छंति ? ॥७६॥ दो काः। तदभावे तासामुत्तरत्र संवरः । त० वा०पृ.५९. गदीमो मागच्छंति तिरिक्खगदि चेव मणुस्सगदि चेव इसका मिलान षट्खण्डागम के इन दो सूत्रों से ॥७७॥..."एवं छसु उवरिमासु पुढवीसु रहया ॥१२॥ तत्पश्चात् तत्त्वार्थवार्तिक में इसी सूत्र की व्याख्या में णिद्दाणिहा-पयलापयला-धीरागिदि-अणंताणुबंधिकोहयह बतलाया है कि उन उन गतियों में पाकर वे नारकी माण-माया-लोभ - इत्यिवेद-तिरिक्खाउ-तिरिक्खगइ-चउसंजीव किन किन गुणों को प्राप्त कर सकते हैं। जैसे- ठाण - चउसंडण-तिरिक्खगइपामोग्गाणुपुग्वि-उज्जोव-पप्प सप्तभ्यां नारका मिथ्यादृष्टयो नरकेम्य उतिता सत्यविहायगइ-दुभग-दुस्सर-प्ररणादेज्ज-णीचागोदाणं को बंधोर एकामेव तिर्यग्गतिमायान्ति । तिर्यवायाता: पचेन्द्रिय को प्रबंधो? ॥७॥ मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी बंधा। गर्भज-पर्याप्तक-संख्येयवर्षायुःषत्पद्यन्ते, नेतरेषु । तत्र घो- खातो . एदे बंधा, मवसेसा प्रबंधा ॥८॥ ष० ख० पु. एद बघा, १० त्पन्नाः सर्वे मति-श्रुतावधि-सम्यक्त्व-सम्यमिथ्यात्व. ३०-३१ । संयमासंयमान नोत्पादयन्ति । इत्यादि । पृ० १६५-६६। १. बंधो बंधगो त्ति मणिदं होदि । धवला पृ० ५ पृ०७॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर्वासिद्धि और तरवावातिक पर बदसण्डागम का प्रभाव ३२५ त० सू० में चूंकि कर्मबन्ध के कारण मिथ्यादर्शन, गम के रूप में षट्खण्डागम-जीवस्थान के सत्प्ररूपअविरति, प्रमाद, कषाय मौर योग निर्दिष्ट किये गये हैं णादि ८ मनुयोगहारों में प्रथम सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वार का (सूत्र -१), प्रतएव उसकी टीका में वार्तिककार ने स्वयं नामोल्लेख भी किया है । (त. वा० १३० १२७) । मानवनिरोषस्वरूप संवर का उसी क्रम से उल्लेख किया एवं हि समयोऽवस्थितः, सत्प्ररूपणायां कायानुवादेहै। परन्तु कर्मप्रधान षट्खण्डागम में ज्ञानावरणादि के सा नाम द्वीन्द्रियादारभ्य मा प्रयोगकेवलिनः। क्रम से उनके साथ बंधनेवाली पन्यान्य प्रकृतियों का उसी क्रम से उल्लेख किया गया है। यह सूत्र षट्खण्डागम की सत्प्ररूपणा (पु. १. २७५) में इस प्रकार हैइसी प्रकार सूत्र ६-७ की व्याख्या में तत्त्वार्थवातिक तसकाइया बीइंदियप्पडि जाव प्रजोगिकेबलि कार के द्वारा जो मार्गणास्थान और गुणस्थानों की चर्चा त्ति ॥४॥ की गई है उसके प्राधार भी षट्खण्डागम के सत्प्ररूपणा दूसरा उल्लेख सूत्र २-४६ (पृ. १५३ पंक्ति २५-२७) प्रादि अनुयोगद्वार रहे हैं। में शंकाकार के मुख से इस प्रकार कराया गया हैषट्खण्डागम-सत्प्ररूपणा का नामोल्लेख तत्त्वार्थवातिक सूत्र २,१२,४-५ के व्याख्यान में शंकाकार माह चोदकः-जीवस्थाने योगभङ्ग सप्तविधकाय योगस्वामिप्ररूपणायाम् "मौदारिककाययोगः प्रौदारिकके द्वारा स्थावर जीवों के स्थानशील माने जाने पर वायु मिश्रकाययोगश्च तिर्यङ्मनुष्याणाम्, वैक्रियिककाययोगो कायिक और तेजस्कायिक जीवों के प्रस्थावरत्व का प्रसंग वैक्रियिकमिश्रकाययोगश्च देव-नारकाणाम् उक्तः", इह प्राप्त होता था। इस पर शंकाकार ने जब उसे अभीष्ट मानने की आशंका की तब उत्तर में तत्त्वार्थवातिककार ने तिर्यङ्मनुष्याणामपीत्युक्यते; तदिदमार्षविरुवमिति । उसकी भागमार्थविषयक अज्ञानता प्रगट करते हुए परमा उक्त सूत्र षट्खण्डागम-जीवस्थान के अन्तर्गत सत्प्ररूपणा में इस प्रकार पाया जाता है१. देखिये षट्खण्डागम पु० ८ सूत्र ५, ७, ९, ११, १३, मोरालियकायजोगो मोरालियमिस्सकायजोगो तिरि. १५ प्रादि। बख-मणुस्साणं ॥५७॥ वे उब्वियकायजोगो बेउब्वियमिस्स२. इसका कुछ निर्देश श्री पं० दरबारीलाल जी न्याया- कायजोगो देव-णेरड्याणां ॥ पु० ११० २९५-९६ चार्य ने अनेकान्त वर्ष ८ किरण २ में "संजद पद के इस प्रकार प्राचार्य पूज्यपाद के समान श्रीमद् भट्टासम्बन्ध में प्रकलंकदेव का महत्त्वपूर्ण अभिमत" कलंक देव ने भी अपनी अपनी व्याख्या में षट्खण्डागम के शीर्षक में भी किया है। अनेक प्रकरणों का यथास्थान प्राश्रय लिया है। क्या तुम महान् बनना चाहते हो? क्या तू महान् बनना चाहता है । यदि हां, तो अपनी माशा लतामों पर नियन्त्रण रख, उन्हे वे लगाम अश्व के समान मागे न बढ़ने दे। मानव की महत्ता इच्छामों के दमन में है, गुलाम बनने में नहीं। एक दिन भायेगा, जब तेरी इच्छाएँ ही तेरी मृत्यु का कारण बनेंगी। हम सबको अपने हाथ की पांचों अंगुलियों की तरह रहना चाहिए, हाथ की अगुलियां सब एकसी नही होती, कोई छोटी, कोई बड़ी, किन्तु जब हम हाथ से किसी वस्तु को उठाते हैं तब हमें पांचों ही अंगुलियां इकट्ठी होकर सहयोग देती हैं। -विनोबा Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का जैन संस्कृति में योगदान परमानन्द जैन शास्त्री साह टोडर के तीन पुत्रों का ऊपर नामोल्लेख किया में बहुत भारी धन व्यय किया। पोर ५०१ स्तूपों का गया है। उनमें प्रथम पुत्र ऋषभदास अपने पिता के एक समूह और तेरह स्तूपों का दूसरा। इस तरह कुल समान ही धर्मनिष्ठ, जिनवाणी भक्त और गुणी था। ५१४ स्तूपों का निर्माण कराया। इन स्तूपों के पास ही साह टोडर ने भागरा में एक जिन मन्दिर का निर्माण १२ द्वारपाल मादि की स्थापना की। इनकी प्रतिष्ठा का कराया था, जिसका उल्लेख कविवर भगवतीदास अग्रवाल __ कार्य वि० सं० १६३० (ई० सन् १५७३) में द्वादशी मे री मन बुधवार के दिन प्रात.६ घड़ी व्यतीत होने पर सूरि मन्त्र १५९४ मे रची जाने वाली 'प्रगलपुर जिनवन्दना' नाम पूर्वक किया३ । उस समय साहु टोडर ने वहां चतुविध की कृति में किया है। इससे स्पष्ट है कि साह टोडर ने संघ को आमन्त्रि किया था। और सभी ने साह टोडर उक्त मन्दिर सं०१६५१ से पूर्व ही बनाया था। उनके को शुभाशीर्वाद दिया था। तथा संवत १६३२ में कवि उस मन्दिर में उस समय प्रात्म-साधिका हमीरी बाई राजमल जी से जंबू स्वामिचरित की रचना करवाई थी नाम की एक ब्रह्मचारिणी रहती थी, जिसका तपश्चरण और भी अन्वेषण करने पर साह टोडर के धार्मिक कार्यों से शरीर क्षीण हो रहा था और जो सम्मेदशिखर की का परिचय मिल सकता है । यात्रा करके वापिस पाई थी। साह टोडर के ज्येष्ठ पुत्र रिषीदास या ऋषभदास मथुरा के ५१४ स्तुपों को जीर्णोद्धार कार्य भी अपने पिता के समान ही राजमान्य तथा धर्म कर्म में एक समय साह टोडर सिद्ध-क्षेत्र की यात्रा करने निरत था । उसकी जिनवाणी पर बड़ी श्रद्धा थी। उसने अपने पढ़ने या सुनने के लिए ज्ञानार्णव की संस्कृत टीका मथुरा गए थे। वहां उन्होंने मध्य में बना हुमा जम्बू तात्कालिक विद्वान प० नयविलास से बनवाई थी। पं० स्वामी का स्तूप देखा, और उसके चरणों में विद्युच्चर नयविलास जी संस्कृत के सुयोग्य विद्वान थे, और मागरा मुनि का स्तूप भी देखा । तथा पास-पास बने हुए मन्य में ही रहते थे। उस समय प्रागरा में अनेक विद्वान, साधुनों के स्तूप भी देखे, जिनकी संख्या कहीं पांच कही भट्टारक और श्रेष्ठिजनों का प्रावास था, जो निरन्तर माठ, कही दश और कहीं २० थी। साह टोडर ने उनकी अपने धर्म का अनुष्ठान करते हुए जीवन-यापन करते थे। जीर्ण-शीर्ण दशा देखी, जिससे उन्हें बहुत दुख हुमा और उस समय आगरा में ४८ जैन मन्दिर थे जिनमें श्रावकगण तत्काल ही उनके समुदार की भावना बलवती हो उठी। धर्म का अनुष्ठान करते थे। फलतः उन्होंने शुभ दिन, शुभ लग्न में उनके समुद्धार का पांडे राजमल ने साहु टोडर के ज्येष्ठ पुत्र ऋषभदास कार्य प्रारम्भ कर दिया। साहु टोडर ने इस पुनीत कार्य के लिए ऋषभोल्लास ग्रंथ४ के निर्माण करने का विचार १. देखो, जंबूस्वामिचरित ७३ से ७७ श्लोक पृ०६, राजा T ETaarti २. टोटरसाहु करायो जिनहर रहइ हमीरी बाई हो, स्तूपानां तत्समीपे च द्वादश कारिकादिकम् ॥ तपलंकृत वपु मतिकृश काया जात शिखरि कर माई हो। संवत्सरे गताब्दानां शतानां षोडशं क्रमात् । जात शिखरि करि प्राई वातिका तिहिं थल पूजकराई, शुद्धस्त्रिश......साधिकं दधति स्फुटम् ॥ बंद्यो देव जिनेश जगतपति मस्तकु मेइणि लाई॥ -जंबू स्वामिचरित ११८, ११९ पृ० १३ -देखो, जैन संदेश शोघांक भा० २३ पृ० १९१ ४. देखो, भनेकान्त वर्ष १४ फिरण ३-४१० ११३ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अग्रवालों का न संतति में योगदान किया था; किन्तु उनके दिवंगत हो जाने से वह कार्य पूर्ण अन्य की प्राधन्त प्रशस्ति में साह तोसर के वंश का न हो सका। और उसे पुनः पञ्चाध्यायी के नाम से रचने विस्तृत परिचय कराया गया है। जिसमें उनके परिवार का उपक्रम किया; किन्तु वे उसेभी पूर्ण नहीं कर सके और द्वारा सम्पन्न होने वाले धार्मिक कार्यों का भी परिषय मध्य में ही काल कवलित हो गये। साहु टोडर ने जैन कराय गया है। संस्कृति के लिए जो कुछ किया वह अनुकरणीय है । इस इस वंश में पूर्व प्रख्यात साहु नरपति के पुत्र वोल्हा तरह साहु टोडर और उनके परिवार में जैनधर्म की साह थे, जो पापरहित पौर जिनधर्म के धारक थे, जिनका प्रास्था के साथ जैन संस्कृति का प्रचार होता रहा। दिल्ली के बादशाह फीरोजशाह तुगलक ने सम्मान किया उन्होंने जैन संस्कृति के लिए शक्तिभर योगदान दिया। था। उनके पुत्र थे, बाधूसाह और उनके दिवराज । पौर जिस तरह से भी बना जन संस्कृति के उद्धार में इस तरह इस वंश में अनेक महापुरुष हुए। उनमें जाल्हे अपने कर्तव्य का विवेक के साथ पालन किया। ऋषभ साहु हुए, उनके दो युगल पुत्र हुए, प्रथम पुत्र सहजपाल दास के बाद उनके अन्य भाइयों द्वारा होने वाले कार्यों और दूसरा तेजू या तेजा। सहजपाल की पत्नी का नाम का कोई लेखा-जोखा नहीं मिलता, जिससे उस पर कुछ झाझेही था । सहजपाल ने व्यापार में प्रचुर द्रव्य मर्जन प्रकाश डाला जा सके। किया, उसने जिननाथको प्रतिष्ठा कराई और दानादि कार्यों विक्रम की १५वी १६वी शताब्दी में अग्रवालों द्वारा में उसका यथायोग्य विनिमय किया। उसके छः पुत्र थेजैन संस्कृति के प्रसार में क्या कुछ योगदान हुआ उसका सहदेव, छीतमु, खेमद, डाला, चील्हा और तोसउ । सहदेव कुछ संकेत इस प्रकार है : की तीन पत्नी थी, धामाही, जिनदासही, कुमारपालही । अग्रवालों ने मन्दिर और मूर्ति निर्माण प्रादि द्वारा उसके तीन पुत्र थे ममल, बच्छराज, और साभूणा। जहां जिन देव की भक्ति को प्रोत्साहन दिया वहां श्रुत- दूसरे पुत्र छीतम के भी छह पुत्र थे-वीरदेव, हेमाह या भक्तिवश जिनवाणी के प्रसार के लिए अनेक ग्रन्थों का हेमचन्द, लरदिउ, रूपा या रूपचन्दौर जाला। रूपा ने निर्माण भी कराया और अनेक ग्रन्थ प्रतिलिपि करवा कर गिरनार की यात्रा के लिए संघ निकाला और उसका सब जैन मन्दिरों, भट्रारकों, विद्वानों पोर मुनियों को भेट भार वहन किया। थोल्हा साह के तीन पुत्र हुए-पहकिये । अकेले कवि रइधू ने अग्रवाल श्रेष्ठिजनों से प्रेरित । राज, हरिराज पौर जगसीह । पौर तोसउ के दो पुत्र थे होकर १०-१५ अथों की रचना की है। अन्य जैसवाल या खेल्हा भौर गुणसेण । खेल्हा का विवाह कुरुक्षेत्र के जैन गोलालारीय जाति के प्रेरणास्वरूप रचे गये प्रन्थ धर्मानुरागी सेठिया वश के श्री सहजासाहु के पुत्र तेजा इनसे भिन्न हैं । उनके नाम इस प्रकार है : साह की जालपा नामक पत्नी से उत्पन्न खीमी नाम की सम्मइ जिनचरिउ, सुकौशल चरिउ, पासणाह परिउ, पुत्री से हुमा था। उसके कोई सन्तान न थी पतएव बलहद्द चरिउ, मेहेसर चरिउ, सम्मत्त गुणनिधान उन्होंने अपने भाई के पुत्र को गोद ले लिया था और रिटुणेमि चरिउ, जसहर चरिउ, सिद्धान्तार्थसार, वित्तसार गृहस्थी का सब भार उसे सौप कर मुनि यशः कीर्ति के पुण्णासव कहाकोस और सिरीपाल चरिउ ये सब ग्रन्थ प्रप पास अणुव्रत धारण कर लिए। भ्रंश भाषा में रचे गये हैं। इनमें से कुछ अन्य निर्मापक अग्रवाल श्रावकों का परिचय नीचे दिया जाता है:- १. सम्माणिउ जो पेरोजसाहि, तुहगुण को वण्णणि सबक ___ हिसार निवासी अग्रवाल कुलावतंश गोयल गोत्रीय प्राहि । -सम्मइ जिनचरित प्रशस्ति साहु सहजपाल के पुत्र और संघाधिप साह सहदेव के २. कवि रइधू परिचय के लिए देखो जैन ग्रंथ प्रशस्ति लघु भ्राता साह तोतउ की प्रेरणा से कवि ने 'सम्मइ संग्रह भाग २ पृ.१०३। जिनचरिउ' ग्रन्थ, जिसमें जैनियों के अन्तिम तीर्थकर ३. सहजा साहहिं पमुह जि रवण्णु, भगवान महावीर का जीवन-अंकित है, बनाया है। इस भायर चउक्क जुउ पुणु वि पण्णु । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त खेल्हा धर्मनिष्ठ, दान-पूजादि गृही षट्कर्मों का पौर विमल चित्त का धारक था। ब्रह्मचारी खेल्हा ने संपालक, पौर देव-शास्त्र गुरु का भक्त था। सम्पत्तिशाली तोसउ साह के लिए 'सम्मइ जिनचरिउ' बनाने के लिए होते हुए खेल्हा प्रात्म-साधना का इच्छुक था खेल्हा ने भट्टारक यशः कीति से कवि रइधू को प्रेरित कराया था; अपनी चित्तवृत्ति वैराग्य और ज्ञान की प्रतिष्ठा करते हुए क्योकि वह समझता था कि संभव है कवि मेरी प्रार्थना ग्यारह प्रतिमा का धारक उत्कृष्ट श्रावक बन गया तब स्वीकार न करें। अतः यशः कीर्ति से अनुमति दिलवाना उसने ग्वालियर में चन्द्रप्रभु की विशाल मूर्ति का निर्माण उचित ही था, जिससे कवि को इंकार करने का अवसर कराया था। उसे गृहस्थाश्रम में रस नहीं पाता था। ही न मिले। इन्हीं ब्रह्मचारी खेल्हा के अनुरोध से कवि कई कारणों से वह घर रूपी कारागह से अपना उद्धार ने 'णेमिणाहचरिउ' (हरिवंशपुराण) की रचना साहू माहा करना चाहता था। यद्यपि माता-पितादि पारिवारकजनों के पुत्र लोणा साह के लिए कराई थी। से उसका कोई विरोध भी प्रतीत नहीं होता, वह तो मात्महित को सर्वोपरि मानता था, इसीलिए हिसार से साहू तोसउ की धार्मिक परिणति का वर्णन करते ग्वालियर के तात्कालिक भद्रारको और विद्वानों के सनिध्य हुए कवि ने लिखा है कि साहू तोसउ जिन चरणों का में रह कर पात्म-साधना के साथ जिनवाणी के उद्धार में भक्त, पचेन्द्रियों के भोगों से विरक्त, दान देने में तत्पर, अपना समय व्यतीत करता था। इसीलिए वह सांसारिक । पाप से शकित भयभीत और सदा तत्त्व चिन्तन में बेह-भोगों से विरक्त श्रावक के द्वादशवतों का अनुष्ठायक निरत रहता था। उसकी लक्ष्मी दुखीजनों के भरणसिरिसेट्टि वंश उप्पण्णु धम्मु, पोषण मे काम पाती थी और वाणी श्रुत का अवधारण तेजा साहू जि णामें पसण्णु । करती थी। मस्तक जिनेन्द्र को नमस्कार करने में प्रवृत्त बहु पिय जालपहिय वण्णणीय, होता था, वह शुभमती था, उसके सम्भाषण में कोई दोष परिवार-भत्त सीलेण सोय । न होता था, चित्त तत्त्वों के विचार में लीन था और तहिं गम्भ उवण्णा सुव सपुण्णि, दोनों हाथ जिन-पूजा-विधि से सन्तुष्ट रहते थे। जैसाकि राजस पालु ढाकर जि तिणि । सम्मइ जिन चरिउ की दूसरी तीसरी संधि के प्रारंभ के तुरिया वि पुत्तिजा पुण्णमुत्ति, निम्न पद्यों से स्पष्ट हैशिच जि विरइय जिणणाह-भत्ति । जो णिचं जिण-पाय-कंजभसलो जो णिच्च बाणे रखो। स्लीमी णामा वरसील यत्ति, जो पंचेविय-भोय-भाव-विरदो जो चितए संहिदी। को कह वण्णई तहं गुणह कित्ति । जो संसार-महोहि-पातन-भिवो जो पावदो संकियो। सा परिणिय तेण गुणायरेण, बहु काले जं ते सायरेण । एसो णदउ तोसडो गुण जुदो सत्तत्य वेई चिरं ॥२ गियर भायर गंदण गुण णिउत्त, लच्छी जस्स दुही जणाण भरणे वाणी सुयं पारणे । मागेप्पिणु गिहिउ कमलवत्त । सीसं सन्नई कारणे सुभमई दोसं ण संभाषणे । हेमाणामें परिवार-भत्तु, तहो घरहो भार देप्पिणु विरत्तु चित्त तच्च-वियारणे करजयं पूया-विहि संबदं । __x x x सोऽयं तोसउ साहु एत्य षवलो सं पवनो भूयले ॥३॥ जस कित्ति मुर्णिदहु गविवि पाय, कवि रइधू ने साहू तोसउ के लिए सन्मति चरित्र की अणुवय धारिय ते विगय-माय । रचना ग्वालियर के तोमरवंशी राजा डूगरसिह के राज्यजैन ग्रंथ प्रशस्ति स०पृ०६९-७० काल में की थी। डूंगरसिंह का राज्यकाल वि० सं० १. ससिपह जिणेवस्स पडिमा विशुद्धस्स, १४८१ से १५१० तक रहा। काराविया मई जि गोवायले तुग। -जैन ग्रंप प्रशस्ति सं०पृ०६३ २. देखो, हरिवंशपुराण प्रशस्ति वही पृ. ८८-८९ परिमावि . राविया Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रणवालों का जन संस्कृति में योगदान २२९ ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साह प्राणा के पुत्र भी वे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति माने जाते थे। उन्होंने वहां रणमल के लिए कवि रइधू ने राजा डूंगरसिंह के राज्य मादिनाथ भगवान की एक विशाल प्रतिमा का, जो ग्यारह काल में संवत् १४९६ में चार संध्यात्मक सुकोशल चरित हाथ ऊंची अत्यन्त चनोज्ञ एवं कलात्मक थी निर्माण की रचना की। कराया था। मूर्ति इतनी सुन्दर भौर चित्ताकर्षक थी कि साहू खेमचन्द योगिनीपुर (दिल्ली) के निवासी थे। दर्शकजन उसे देखते नहीं अघाते थे। उसके विमल दर्शन इनकी जाति अग्रवाल और गोत्र साण्डिल था। इनके से चित्त प्रसन्न हो जाता था। उस सातिसयी मूर्ति का पिता का नाम पजणसाहु और माता का नाम बील्हा देवी प्रतिष्ठामहोत्सव करने के लिये जब सेठ कमलसिंह ने तथा धर्म पत्नी का नाम धनदेवी था। उससे चार पुत्र राजा डूंगरसिंह से निवेदन किया तब राजा ने स्वीकृति हुए थे-सहसराज, पहराज, रघुपति और होलिवम्म। देते हुए कहा कि यह उत्तम कार्य अवश्य कीजिये। इस इनमें सहसराज ने गिरनार की यात्रा का सघ चलाया कार्य में तुम जो मांगोगे सो मैं दूंगा और राणा ने पान था। साहू खेमचन्द सप्त व्यसन रहित और देव-शास्त्र. का बीड़ा देकर उनका सन्मान किया। पश्चात् उस मूर्ति गुरु के भक्त थे। इनके अनुरोध से कवि ने पार्श्वनाथ का प्रतिष्ठा कार्य सम्पन्न हुमा और यह प्रतिष्ठा कार्य चरित्र की रचना ग्वालियर नरेश डुगर सिंह के राज्य- संवत् १४९२ से पूर्व होना चाहिये; क्योंकि उक्त संवत काल में स. १४८६ से पूर्व की है। क्योंकि सं० १४९६ मे बने ग्रन्थ में उसका उल्लेख है और साह कमलसिंह के में रचे जाने वाले सुकोशल चरित में पार्श्वनाथ चरित्र का अनुरोध से कवि रइधूने सम्यक्त्व गुणनिधान नाम का उल्लेख है। इस ग्रन्थ की प्रशस्ति में उस समय के ग्वालि- ग्रन्थ सवत् १४९२ मे बनाकर समाप्त किया था। यर की स्थिति का दिग्दर्शन कराते हुए वहा के जैन समाज साह खेमसिंह ने रइधू कवि से मेघेश्वर चरित्र (जय की धार्मिक और सामाजिक परिणति का मार्मिक विवेचन कुमार सुलोचना चरित) का निर्माण कराया था। अन्य किया है । उससे ग्वालियर के तात्कालिक इतिहास पर की प्राद्यन्त प्रशस्तियों में खेमसिंह के परिवार का विस्तृत अच्छा प्रकाश पड़ता है। परिचय अंकित है। बलहह चरिउ (राम लक्ष्मण चरित्र) ग्वालियर दिल्ली के अग्रवाल कुलभूषण साहू नेमिदास साहू निवासी अग्रवाल वंशी साहु बाटू के सुपुत्र साहु हरसी के तोस के चार पुत्रों में सबसे ज्येष्ठ थे। बड़े ही धर्मात्मा अनुरोध से बनाया था। साहु हरसी धर्मनिष्ठ, जिन उदार और श्रावकोचित पट्कर्मों का पालन करते थे। शासन के भक्त, और कषायों को क्षीण करनेवाले थे। मागम और पुराण ग्रन्थों के पठन-पाठन में समर्थ, जिन शास्त्र स्वाध्य, पात्रदान, दया और परोपकार प्रादि षट्पूजा और सुपात्रदान में तत्पर, तथा रात्रि और दिन में कार्यों में प्रवृत्ति करते थे। उनका चित्त समुदार था और कायोत्सर्ग मे स्थित होकर आत्मध्यान द्वारा स्व-पर के लोक में उनकी धार्मिकता सुजनता का सहज ही भाभास भेदविज्ञान का अनुभव करनेवाले थे। तपश्चरण से उनका हो जाता है। उन्होंने चन्दवाड़ में व्यापार द्वारा अच्छा शरीर क्षीण हो गया था। प्रात्म-विकास करना ही द्रव्य अजित किया था। और जिनेन्द्र भक्ति से प्रेरित हो उनका एकमात्र लक्ष्य था। ग्रन्थ प्रशस्ति में माह हरसी के स्ति में माहु हरसी के १. प्रतापरुद्र नृपराज विधुतपरिवार का विस्तृत परिचय दिया गया है। इस ग्रन्थ की स्त्रिकाल देवार्चन वंचिता शुभा, रचना हरिवंश पुराण के बाद की गई है। जैनोक्त शास्त्रामृतापान शुदधी: गोपाचलवासी अग्रवालकुलभूषण साहु खेमसिंह के चिर क्षिती नन्दतु नेमिदासः ॥३॥ सुपुत्र साह कमलसिंह एक धर्मनिष्ठ उदार सज्जन थे। सत्कवि गुणानुरागी श्रेयान्निव पात्रदान विधिदक्षः । गज्य में प्रापकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। राजा डूंगरसिंह तोसउ कुल नभचन्द्रो नन्दतु नित्यमेव नेमिदासास्यः।।४ उनका बड़ा सम्मान करता था। उस समय जैन समाज में -पुण्यानव कथा कोष प्रशस्ति Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त उन्होंने विद्रुम (मुंगा) रत्नों और पाषाण प्रादि की अनेक कब तक रहा यह भभी अन्वेषणीय है। साहू नेमिदास की जिन मूर्तियों का निर्माण कराया था और मन्दिर बनवा प्रेरणा से कवि रइधू ने पुण्यास्रव कथाकोष की रचना की कर उसकी प्रतिष्ठादि का कार्य भी सम्पन्न किया था। थी। ग्रंथ में सम्यक्त्व, देवपूजा, भक्ति और पुण्य को यह चन्द्रवार के चौहान वंशी राजा रामचन्द्र के पुत्र रुद्र बढ़ाने वाली रोचक कथाएं दी हुई हैं। जिनसे सम्यक्त्व प्रताप से सम्मानित १। संभवत: १४६८ में वहां रामचन्द्र प्रादि की महत्ता पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। राज्य कर रहे थे। उसके बाद सं. १४७५ के मास-पास विक्रम की १६वीं शताब्दी में रोहतक निवासी प्रमप्रतापरुद्र ने राज्यभार संभाला होगा। यह राजा प्रतापी वाल वंशी चौधरी देवराज थे। जो धर्मनिष्ठ और पौर न्यायी था। इसके शासन में प्रजा सुखी थी। चन्द्रवाड़ श्रावक के ब्रतों का अनुष्ठान करते थे। आपने जिनभक्ति उस समय व्यापार का केन्द्र बना हुमा था। वहां का व्यापार से प्रेरित हो जैसवाल कवि माणिकराज से अमरसेन यमुना नदी में बड़ी बड़ी नौकामों द्वारा होता था, याता- चरित की रचना रोहतक के पार्श्वनाथ मन्दिर में संवत् यात भी नौकानों द्वारा होता था। उस समय नगर सम्पन्न १५७५ में कराई थी। और जन धन से परिपूर्ण था। सं० १५०६ की उसके ग्वालियर निवासी अग्रवाल वंशी साहू वाटू के चतुर्थ राज्य की एक प्रतिष्ठित मूति कुरावली के जैन मन्दिर में पुत्र हरिसीसाह के अनुरोध से कवि रइधू ने श्रीपाल विराजमान है । इसके पश्चात् उनका राज्य वहां मौर चरित की रचना की थी। ग्रंथ की पाद्यन्त प्रशस्ति में १. णिव पयावरुद्द सम्माणिउ। हरिसी साहु के परिवार का अच्छा परिचय दिया गया है। -जैन ग्रंथ प्रशस्ति संग्रह म०२ सं० १९१०-११ में प्रागरा में धर्मपाल नाम के एक २. अमरकीति के षट्कर्मोपदेश ग्रंथ की लिपि प्रशस्ति, धर्मात्मा एवं सम्पन्न सेठ रहते थे। उनकी जाति अग्रवाल नागौर भंडार। और धर्म जैन था। वे जैन सिद्धान्त के अच्छे विद्वान और ३. सं० १५०: ज्येष्ठ सुदी 'शुक्र चन्द्रपाट दुर्गे पुरे व्याकरण शास्त्र के पाठी थे। यह उस समय मोती कटरा चौहान वंशे राजाधिराज श्रीरामचन्द्रदेव युवराज के मन्दिर में शास्त्र प्रवचन करते थे। इन्हीं दिमों साधर्मी श्री प्रतापचन्द्रदेव राज्य प्रवर्तमाने श्रीकाष्ठा संघे भाई रायमल्ल घागरा गये थे और उनके प्रवचनों में माथुरान्वये पुष्करगणे प्राचार्य श्री हेमकीतिदेव तत्पट शामिल हुए थे। उनसे तत्वचर्या भी हुई थी। इनके भ. श्रीकमलकीतिदेव । पं० प्राचार्य रघु नामधेय प्रवचनों में उस समय सौ-दो सौ साधर्मी भाई शामिल तदाम्नाये अग्रोतकान्वये वासिल गोत्रे साह त्योंधर होते थे। और प्रवचन सुनकर उनका मन प्रमुदित होता भार्या द्वौ पुत्री द्वौ सा. महराज नामानौ त्योंधर था। कुछ दिनों के बाद रायमल्ल जी जयपुर वापिस भार्या श्रीपातयो तयोः पुत्राश्चत्वारः संघाधिपति आ गये। उन्होंने अपने परिचय में उसका उल्लेख किया गजाधर, मोल्हण जलकू रतू नाम्नः संधाधिपति गजे है। भार्या रायश्री गांगो नाम्ने संघाधिपति मोल्हण इस तरह अन्वेषण करने पर अग्रवाल जैन समाज भार्या सोमश्री पुत्र तोहक, संघाधिपति जलक भार्या द्वारा सम्पन्न होने वाले कार्यों का अन्वेषण करने पर महाश्री तयोः पुत्रौ कुलचन्द्र मेघचन्द्रो, संघपति रत अनेक व्यक्तियों के कार्य प्राप्त हो सकते हैं। अनेक मनभार्या प्रभयश्री । साधु त्योंधर पुत्र महाराज भायाँ वाल जन वाल जनों ने कांग्रेस में रह कर सेवा कार्य किया है, जेलों मवनधी पुत्री द्वौ। माणिक भार्या शिवदे......संघ- की यातनाएं भोगी हैं। फिर भी देश-सेवा से मुख नहीं पति जयपाल भार्या मुगापते। संघाधिपति गजाधर मोड़ा। धर्म, समाज और राष्ट्र की सेवा करना जैनों का संघा० भोला प्रमुख शान्तिनाथ बिम्ब प्रतिष्ठापितं परम कर्तव्य रहा है, जिसका कुछ संकेत मागे किया प्रणमितं च। जायगा। (क्रमशः) -प्राचीन जैन लेख संग्रह बाबू कामता प्रसाद ४. देखो, वीरवाणी वर्ष १मंक २ पृ० ८। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पुरानी पहेलियां डा० विद्याधर जोहरापुरकर मत्रहवी शताब्दी के कवि ज्ञानसागर के बारे में नारि एक नर एक एक नपुंसक मिल कर। भनेकान्त मे एकाधिक बार चर्चा हो चुकी है। वे काष्ठा- पुत्र नपुंसक हुनो सा जनकू सो सुनकर ॥ सघ नन्दीतटगच्छ के भट्टारक श्रीभूषण के शिष्य थे। दृढ मुद्रा बलवंत नवि हिंडो ते पालो। उनकी कई स्फुट रचनामो का संग्रह हमारे संग्रह की एक द्रव्य कोडिमें रहे गढ मंदिर रखवालो ।। हस्तलिखित पोथी में है। इन में से सपाष्टक शीर्षक चतुर विचक्षण कामिनी तास बंप छोड़े निखिल । रचना कुछ समय पहले अनेकान्त (दिसम्बर १९६४) मे ब्रह्मज्ञानसागर वदति अब विचारोभर सकल ॥३॥ जैन संघ के छ: प्रग' शीर्षक लेख मे हमने प्रकाशित की थी। इस लेख में इसी हस्तलिखित पोथी का एक और नरथी नर उतपन्न चरण पकीने छेचो। अंश दिया जा रहा है। पोथी मे इसका शीर्षक 'हरिप्रालि डरतो जल में पेठ मंगो भंग भयो । कवित्तानि' दिया हुआ है। इसमें छप्पय छन्द के १८ पद्य तस घर में एक नार तेन नपुंसक जायो। है। यद्यपि इसमें कई शब्द गुजराती के है तथापि पुरानी तेहथें नारि सुजाणि नारिय पुरुष कहायो। हिन्दी के क्षेत्र मे वे अपरिचित नही हैं। प्रत्येक पद्य में काजी मुल्ला राय मुनि षट्दर्शन जन कर परे। एक पहेली है जिसका उत्तर पद्य के बाद बता दिया गया सुजन विचक्षण अर्थवो ब्रह्मज्ञान इम उच्चरे ॥४॥ है। इस मनोरजक रचना का मूल पाठ मागे दिया जा कागल रहा है। एक प्रचेतन नारि तास सिर चार बताणो । अथ हरिप्रालि कवित्तानि लिल्यते॥ नवरगी गुणबार भुजा चार तस जाणो॥ एक अचेतन पुरुष नाम वो अक्षर कहिये। पेहरे वस्त्र सुरंग सोभागी धरि चंगह। काया तो तस एक सीस केइ लाज लहिये । सवि जन सुखकार पाय तस चार उतंगह। खाय गयो पायाल उच गगने जइ अडियो । बह मंदिर निवसे सवा पर बरणे चाले सही। पर उपकारां काज सूर सुभटांसू लडिमो॥ चतुर लोक सवि अर्थवो ब्रह्म ज्ञानसागर कही ॥५॥ हारे नहि जो सिर धणी ववन तास विहसे नही। पलंगडी कहता जन इम उच्चरे सो यह अर्थ लाभे कही ॥१॥ श्यामल वर्ण शरीर जाति नपुंसक जाणो । कोट दुक्ला सहे जब बहुत तब नारीपण ठाणो॥ नर नारी बोउ लडत उतपन्नी एक नारी। नित सेवे नारीमाहि नर उपरीना से। हस्त पाय सिर रहित नहि हलकी नहि भारी॥ भोगी योगी सब लोक राय रंक घरि पेसे। रोता राखे बाल राजसभा जइबसे। देश देशांतर संघरे पुर पुर घरिपरि सही। मुखविन वचन ववंत गीत गाम विच पेसे। प्रर्य करो नर चतुर भविब्रह्म शानसागर कही॥६॥ मुसयें नारी नौकसे तब निश्चय अवतार तस । मर्थ विचारो चतुर नर ब्रह्मज्ञान कहे बचन रस ।२।। गरपी नर गुणवंत ते नर नपुंसक जायो। चावडी नारितने संयोग तेन मारिपन पायो। Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त नरनारीके योग सो बहुगुण दिखलावे। पंचरंग तस काय भविक लोक मन भावे ॥ निकट बसे बोले नही कब नीची का सिर रहे। सकल संघ विचार करीब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥७॥ नवकरवाली पुरुष एक दिन जीव हाय पाय सिर नहि तस । वर्ण पंच तस काय रहत महनिशि सो परवस ॥ जल संयोग होय जलसं प्रीति न भावे । छेवन भेवन सहे मनमा रीस न मावे॥ राजसभामं च देशविदेशे संचरे। बाणे पन बोले नही ब्रह्मशान इम उच्रे men मुख विण गावे गीत पुच्छ लंबो तस पेसो। कबहों रहे भूपीठ कवहाँ गगनांगण देखो। प्रचड पेट बीसे सदा गुणवती कौतुक करे। बह्म ज्ञानसागर कहे अर्थ ते जगमें जस बरे ॥१२॥ गुडी नारि मनोपम एक प्रीति पुरुषसू मंडे। मुनिवर जंगम जेह प्रीति तहसू छडे । वंकासू प्रति वंक समासु सम बड राखे। सकल पुरुष श्रृंगार तास महिमा सवि भाषे। सवि जनकू प्रति बल्लही रंगे रसपूरित सदा। जणे गढते जहवसी ब्रह्म ज्ञान बोले मुदा ॥१॥ पगडी एक पुरुष अद्भुत रंग तस पंच बसाणे। चाले मृगपति चाल व्याघ्र प्रासन पण जाणे॥ गावत राग वेस नेत्र नीला तस बोऊ। जल पल तास निवास परत सबुरी सोऊ ।। नग्न रूप निशिदिन रहत धूप ठंड परिषह सहे। कवण पुरुष निश्चय करो ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥६॥ पुरुष एक निर्जीव तस सिर नारी चारह । तस सिर पुष्प विशाख परिमल रहित विचारह ॥ घुपे नवि सुकाय भ्रमर न पासे पाये। घर घर ते निवसंत राज भेट नवि ल्यावे॥ ते वाडीमा नवि नीपजे देवार्चन नवि प्राणिये। ब्रह्म ज्ञानसागर वदति कवण फूल बखाणिये ॥१४॥ मेंढक रवी एक प्रचेतन नारि रंग तस पंचे परसिद्धी। के जग गुणियण लोक तेन नित निजकर लिखी॥ क्षण नारी के संग क्षण नर उपरि बसे । क्षण अनि बसे कान क्षण निज मंदिर पेसे॥ हस्त पाय बीसे नही जीभ बोय मुख श्यामहे । नगर लोक सविअर्थवो ब्रह्म ज्ञानसागर कहे ॥१०॥ लेखनी लंबू पांगल पाठ गुंफामाहि चलाये। इपिर ये तस बदन कर परिजोर हलावे। घसे वार वश बीस पंत लाल तस पावे। घाले तब निर्दोष पुरुष परम सुख पावे ॥ घोवत प्रति शुचि होय सवि कीषा विन चाले नही। सदा विचारो मानवी ब्रह्म ज्ञानसागर कही॥११॥ दांतण एक नारि निर्जीव रंग तस पंज बखाणे । हस्त पाय सिर रहित सींग पण दो तस जाणे॥ नार एक निर्जीव उभय पुरुष तस जाणो। नाम प्रगट सस एक देह दस बोय बखाणो॥ खावे अन्न अनंत नहि दुर्बल नहि माती। न गमे नरसंयोग महिला जनसं राती॥ तस पेट एक सुंदरि रहे मुल प्रगट एक जाणिये । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति ते कवण नाव पामिये ॥१५॥ चांकी शिवरूपी सकुमाल बदन तस कृष्ण बखाणो। अमृत बरत अनंत शशि वर पणमत जाणो । पालत सकल जगत्र वस्त्र पेहरत नाना पर । तजत सकल सना हरण वेला नर सुखवर ॥ संसारी पर प्रति घणा नाम प्रसिद्ध सुर नर लहे। कवण पुरुष ते जाणिये ब्रह्मज्ञानसागर कहे ॥१६॥ कुचमंडल एक प्रवेतन नार गौर वर्ण अति सुन्दर। कटि विन पहरे वस्त्र प्रांश नविकञ्चल मंदिर। Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुछ पुरानी पहेलियां पविन फिरे विदेश मुख विन कथा बसाणे। सकल शास्त्र भंडार पढत श्लोक नवि जाणे॥ भविक जीवने जागवे सुपुरुषनी संगति करे। कवण नारि ते अर्थवो ब्रह्मज्ञान इम उच्चरे ॥१७॥ पोषी श्यामल वर्ण शरीर नहि कोयल नहि मधुकर। शुंडा दर प्रचंड नहि गणपति नहि गयवर ॥ बलपूरित नित रहत नहि सरवर नहि जलबर। हस्त पाय सिर रहित पेट मोटो प्रति सुखकर ॥ बचन वदत प्रति प्रेम को यज्ञोपवीत ऊपर परत । ब्रह्म ज्ञानसागर वदति एह अर्थ को नर करता मोट इति श्री हरिपालि कवित्तानि समाप्त ।। मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी का ६०वां जन्मजयंती उत्सव एटा में सानन्द सम्पन्न मगसिर शुक्ल एकादशी शुक्रवार ता. २३ दिसम्बर को समन्तभद्रोदित जिन शासन के प्रचार में दे देने का १९६६ को मुख्तार श्री की १०वीं जन्म-जयन्ती के उत्सव निश्चय किया। जिसकी योजना बाद में प्रकट की मे मुझे उपस्थित होने और समागत श्रद्धांजलियों एव जावेगी। उसका एक ट्रस्ट बनाने का भी विचार व्यक्त शुभकामनायो प्रादि के पत्रों को देखने तथा सुनाने का किया। इसके अतिरिक्त उक्त अवसर पर ५०१) रुपये सौभाग्य प्राप्त हुआ। उत्सव डा. ज्योतिप्रसाद जी एम. का दान, जैन मन्दिरों, तीर्थक्षेत्रों, संस्थानों, गोपालदास ए. एल. एल. बी. पी. एच. डी लखनऊ की अध्यक्षता मे बैरयास्मृति ग्रंथ,सूखाग्रस्त क्षेत्र और गोहत्याबन्दी प्रान्दोप्रागत तथा स्थानीय विद्वानो के भाषणादि पूर्वक सानन्द लन की सहायतार्थ प्रदान किये है। जिसमे १०) रुपये धर्मशाला में सम्पन्न हुआ। एटा की दिगम्बर जैन समाज अनेकान्त को भी सधन्यवाद प्राप्त हुए हैं । अन्त में श्रद्धालु के मंत्री मुशीलचन्द जी ने अभिनन्दन पत्र पढ़ कर सुनाया जनो ने विविध पुष्प मालाभों से मुख्तार साहब का पौर फ्रेम मे जडा हुमा अभिनन्दन पत्र भेंट किया। देश सत्कार किया। के गण्यमान विद्वानों एवं प्रतिष्ठित सज्जनों के श्रद्धांजलि जाल इसमे कोई सन्देह नहीं कि इस साहित्य तपस्वी का पत्र और तार पाये थे जिनकी सख्या १०० के लगभग थी। सार्वजनिक अभिनन्दन होना चाहिए। समाज के नतामा श्रद्धाजलि पत्रों में मुख्तार सा० के दोघं जीवन की कामना, को चाहिए कि वे विवेक से काम लें। और इस वयोवृद्ध उनका सार्वजनिक अभिनन्दन करने की प्रेरणा और कुछ विद्वान को अभिनन्दन अथ भेंट कर उनका उचित मे मुस्तार श्री की निःस्वार्थ सेवाग्रो का गुण कीर्तन सत्कार करें। समाज को साहित्य-सेवियों का सत्कार किया गया था। मुनि श्री विद्यानन्द जी का प्राशीर्वादा करना परम कर्तव्य है । प्राशा है समाज उनके उपकारों त्मक पत्र भी मिला था। के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करेगी। मुख्तार साहब ने समन्तभद्र स्मारक की ढाई लाख अन्त मे डा.श्रीचन्दजी ने उपस्थित जनता को धन्यवाद वाली योजना के सम्बन्ध में समाज की भोर से कोई प्रयल देते हए लडडमों की एक-एक थेली भेंट कर उत्सव को होता न देख कर अपनी संकल्पित २५ हजार की रकम पौर भी मधुर बना दिया। -परमानन्द शास्त्री Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोध-कण चंपावती नगरी नमचंद धन्नूसा जैन अंदाजा ४ माह हुए मुझे एक मराठी टाइप किया ___ "मोम् नमः श्रीवासुपूज्य स्वामीने" हमा कागद मिला है। मैं उस पर अधिक प्रकाश डालने अति प्राचीन (चतुर्थ) काल में गोदावरी नदी के के लिए खूब प्रयत्नशील रहा हूँ। मगर अाज तक मैं कुछ दक्षिण में तीन योजन (१२ कोस) दूरी पर बिंदु सुधा भी जान न सका। यह कागद बीड (मराठवाडे का एक नदी के किनारे चंपावती (बीड, निजाम इलाका) में जिला है) में मन्दिर जी की हस्तलिखित पोथी में अलग कलिकंदन नाम का एक सार्वभौम राजा हो गया। वह प्राप्त हमा है। उस पर लिखा है :-'संस्कृत प्रति पर जान जैन या पड़ोस के कुछ राजा उसके मांडलिक थे। उस से प्रतिलिपि १ याने इस कागद का मूल प्राधार संस्कृत कलिकंदन राजा ने प्रधान के हाथ से चीन के मुलक से भाषा का कोई लेख है। वह माज तक प्राप्त नहीं हुमा । अनन्त द्रव्य खर्च कर भगवान श्री वासुपूज्य स्वामी की हो सकता है वह कागद वहां के किसी हस्तलिखित पोथी अतिशय सुन्दर ऐसी मूर्ति मंगाई, फिर अमरावती के राजमें होगा। ऐसी पोथियों का वहां एक संदूक भरा हुमा है। वाड़े मुजब मनोहर मंदिर बना कर उसमें उस मूर्ति की इस कागद पर से इतना तो सुनिश्चित हुमा कि, बीडा स्थापना की। इस समारंभ के लिए अनेक देशों से लोग का प्राचीन नाम चंपावती नगरी है। और वहां के कलि इकट्ठा हुए थे, उनके लिए ५ योजन (२० कोस) को कंदन नाम के जैन राजा ने जो किला बांधा है वह भाज जगह अपूर्ण पड़ी थी। भी है तथा इसो किले में प्राप्त हुयी एक संगमरमर की सफेद पाषाण की अंदाजा २' ऊंची थी १००८ वासुपूज्य ___इस समय कुल सड़सठ राजा पाये थे, इनमें कुछ भगवान की प्रतिमा वहां के जिन मंदिर मे मूलनायक के माडलिक और कुछ मित्र थे। इन राजाओं ने भगवान के सामने १ लक्ष मोहर का नजराना किया, इससे भगवान रूप में विराजमान है। यह किला अभी किन्ही मुसलमान के लिए सुवर्ण का सिंहासन बनाया गया। फकीरों का वसति स्थान हुमा है। और वहा जिनमदिर के कुछ स्तंभ मादि विखरे हुए हैं। पास में एक मसजिद इस मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा किसी उद्यान में हुई थी और बड़े वाद्यों के ठाट मे गांव में लाकर किले में से का कुछ भाग है। इस पत्र पर से वह कलिकंदन राजा बहुत प्राचीन होगा, ऐसा लगता है, मगर वह मूलनायक जिनमंदिर मे सुवर्ण सिंहासन पर स्थापना की गई। आमश्रीवासपूज्य स्वामी के दर्शन करने पर ऐसा लगता है वह त्रित लोगों का सत्कार राजा कलिकदन ने अच्छी तरह से मूर्ति ज्यादा से ज्यादा १०-११वी सदी की होगी। वहा किया था। काले पाषाण के एक प्राचीन मूर्ति पर तेलगू मे लेख कुछ ही काल बाद इस कलिकदन राजा के वंशजों अंकित है उसमें एक राजा और उसके मां का नाम दिया पर किसी यवन राजा ने हमला किया। समय देख कर है। उस लेख का यदि पूरा वाचन हो तो इस नगरी के उस राजा ने इस मूर्ति को किले के किसी तलघर में यथा राजा कलिकंदन के जैन इतिहास पर अधिक प्रकाश स्थापित कर ऊपर मिट्टी डालकर देश त्याग किया। पड़ सकता है। वह लेख इस प्रकार है : तब से यहां यवनों की सत्ता चालू हो गई। उसके "भूल संस्कृत से प्रति नक्कल भी बहुत काल बाद किसी यवन राजा ने किले में धन के Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शोष-कण: चंपावती नगरी ३३५ लिए खुदाई का काम किया। तब तलघर मे यह मूर्ति वीतरागी सुलक्षण वाली है। इसके दर्शन से शोक, मोह, निकली। यह वार्ता ज्ञात होते ही वहां के कोटयाधीश क्षुधा, तृषा नष्ट होकर धर्मात्मा मानद सागर में डूब माहु मदाशिव राव राघोजी रणदि ने राजा से यह मूर्ति जाते हैं। चालीस लक्ष रुपया देकर मोल ली। और उस सदाशिव इस पर से वहां के किले में अभी भी जिनमदिर होने सेठ ने प्राज जहां मदिर है उसके उत्तर बाजू की गली मे की शंका पाती है। स्थानीय लोग किसी चंपावती देवी का सुन्दर मदिर बनाया, प्रतिष्ठा के लिए विशालकीति के वह स्थान बता कर उस देवी मे इस नगरी का नाम मठ के पंडित देवेन्द्र को बुलाया गया। उन्होंने दक्षिणाभि चंपावती पडा होगा। ऐमा बताते हैं। इस किले में सरमुख उस मंदिर को अयोग्य जान कर वह घरमशाला बना कारी तौर पर उत्खनन की पावश्यकता है। प्रयत्न करने दी। बाजार में के बड़े बाडे मे मदिर बना कर शाली पर भी बीड जिले का गजेटियर मुझे देखने को नहीं वाहन शके १५४० माघ शुक्ल सप्तमी को यथा विधि मिला। अगर मिलता तो कुछ अधिक प्रकाश जरूर वहा मूति की स्थापना की। इस समय भी बड़ा जन पड़ता। मैं प्राशा करता है, इतिहास संशोधक इसके लिए समुदाय एकत्रित हुमा था। प्रयत्न करेगे। जिन भाइयों ने मुझे यह मराठी कागद सफेद पाषाण की यह मूर्ति शुक्ल ध्यान युक्त परम भेट दिया उनका मैं प्राभारी हैं। प्रस्तु । अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत संस्कृत कर्मप्रकृति डा० गोकुलचन्द्र जैन प्राचार्य, एम. ए. पी-एच. डो... कन्नड प्रान्तीय ताडपत्रीय ग्रन्थसूची में अभयचन्द्र तीन भेद दिये गये हैं। जमके बाद द्रव्यकर्म के प्रकृति, सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत कर्मप्रकृति की सात पाण्डुलिपियो का स्थिति, अनुभाग और प्रदेश ये चार भेद बताये हैं। परिचय दिया गया है। किसी भी पाण्डुलिपि पर लेखन प्रकृति के मूल प्रकृनि, उत्तरप्रकृति और उत्तरोत्तरप्रकृति, काल नहीं है। सभी की लिपि कन्नड है और भाषा ये तीन भंद है । मूल प्रकृति ज्ञानावरणीय प्रादि के भेद से संस्कृत । पाठ प्रकार की है और उत्तर प्रकृति के एक सौ पड़तायह एक लघु किन्तु महत्वपूर्ण कृति है। इसमें मग्ल लीस भेद हैं । अभयचन्द्र ने बहुत ही सन्तुलित शब्दो में संस्कृत गद्य में सक्षेप में जैन कर्मसिद्धान्त का प्रतिपादन इन सबका परिचय दिया है। उनरोनर प्रकृति बन्ध के किया गया है। पहली बार मैंने इसका सम्पादन और विषय में कहा गया है कि इसे वचन द्वारा करना कठिन हिन्दी अनुवाद किया है । विषय के प्राधार पर मैंने पूरी है। इसके बाद स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बन्ध का कृति को छोटे-छोटे दो मौ बत्तीस वाक्य खण्डों में विभा- वर्णन है। जित किया है। कृति का प्रारम्भ एक अनुष्टुप मगल पद्य इसके पश्चात् मक्षेप मे भावकर्म और नोकर्म के विषय से होता है तथा अन्त भी एक अनुष्टुप पद्य के द्वारा ही में एक-एक वाक्य मे कह कर पागे संसारी और मक्त किया गया है। जीव का स्वरूप तथा जीव के ऋमिक विकास की प्रक्रिया प्रारम्भ में कर्म के द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकमं ये से सम्बन्धित पांच प्रकार की लब्धियां तथा चौदह गण. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त स्थानों का वर्णन किया गया है। रावन्दूर के एक शिलालेख (शक १३०६) में श्रुतविषय के अतिरिक्त भाषा का लालित्य और शैली मुनि को अभयचन्द्र का शिष्य बताया गया है। की प्रवाहमयता के कारण प्रस्तुत कृति का महत्व और भारंगी के एक शिलालेख में कहा गया है कि राय अधिक बढ़ जाता है। साधारण संस्कृत का जानकार व्यक्ति भी अभयचन्द्र की इस कृति से जैन कर्मसिद्धान्त राजगुरु मण्डलाचार्य महावाद वादीश्वर रायवादि पिताकी पर्याप्त जानकारी प्राप्त कर सकता है। मह प्रभयचन्द्र सिद्धान्तदेव का पुराना (ज्येष्ठ) शिष्य बुल्ल गौड था, जिसका पुत्र गोप गोड नागर खण्ड का कर्मप्रकृति के प्रारम्भ या अन्त मे अभयचन्द्र ने अपने शासक था। नागर खण्ड कर्णाटक देश में था। विषय में विशेष जानकारी नहीं दी। अन्त में केवल इतना लिखा है बुल्ल गौड के समाधिमरण का उल्लेख भारगी के "कृतिरियम् अभयचन्द्र सिद्धान्तकतिनः।" एक अन्य शिलालेख मे है, जिसमें कहा गया है कि बुल्ल या बुल्लुप को यह अवसर अभयचन्द्र की कृपा से प्राप्त अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के विषय मे कई शिला हा था। लेखों से जानकारी मिलती है। मूल संघ, देशिय गण, पुस्तक गच्छ, कोण्डकुन्दान्वय की इगलेश्वरी शाखा के हम्मच के एक शिलालेख मे अभयचन्द्र को चैत्यवासी श्री समुदाय में माघनन्दि भट्टारक हुए। उनके नेमिचन्द्र भट्टारक तथा प्रभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती ये दो शिष्य थे। अभयचन्द्र के समाधिमरण से सम्बन्धित उपयुक्त अभयचन्द्र बालचन्द्र पंडित के श्रुतगुरु थे। शिलालेख में कहा गया है कि वह छन्द, न्याय, निघण्टु, शब्द, समय, अलंकार, भूचक्र, प्रमाणशास्त्र प्रादि के हलेबीड के एक संस्कृत और कन्नड मिश्रित शिलालेख मे अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के समाधिमरण का प्रकाण्ड पण्डित थे। इसी तरह श्रुतमुमि ने परमागम सार (१२६३ शक) के अन्त में अपना परिचय देते हुए लिखा उल्लेख है-यह लेख शक संवत् १२०१-१२७६ ईस्वी का है। हलेबीडर के ही एक अन्य शिलालेख मे अभयचन्द्र के प्रिय शिष्य बालचन्द्र के समाधि मरण का उल्लेख सद्दागम-परमागम-तक्कागम-णिरवसेसवेवीह । है । यह लेख शक सवत् ११९७, सन् १२७४ ई. का है। विजिद सयलग्णवादी जयउ चिरं प्रभयसूरि सिद्धति ।। इससे भी प्रभचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के व्यक्तित्व पर इन दोनों अभिलेखों से अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती प्रकाश पड़ता है। का समय ईसा की तेरहवी शती प्रमाणित होता है। वे - -- - संभवतया १३वी शती के प्रारम्भ मे हुए और ७६ वर्ष लेख ५८४ . तक जीवित रहे। 8. F.C.VII, Sorab ti, No. 317 १. E.C.V., Belur ti, No. 133 जैन शिलालेख संग्रह ५. E.B.VIII, Sorab ti No. 330 जैन शिलालेख भाग ३, लेख ५२४ संग्रह भाग ३, लेख ६४६ २. Lod No. 131, 132 जैन शिलालेख संग्रह भाग ३, ६. E.C.VIII, Nagar ti, No. 46 जैन शिलालेख लेख ५१५ संग्रह भाग ३, लेख ६६७ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीदा १. द्रव्य संग्रह-नेमिचन्द सिद्धान्तदेव, वनिका व उनके काव्यों पर अच्छा विवेचन किया है। और उनमें पद्यानुवादकर्ता पं. जयचन्द जी छावड़ा, सम्पादक प. वणित विषयों की मालोचना भी की है। और अपभ्रंश दरबारीलाल जी कोठिया, प्रकाशक श्री गणेशप्रसाद वर्णी काव्यों में पाये जाने वाले रस, अलंकार एवं छन्द योजना जैन प्रथमाला, वाराणसी पृ० १५६ मूल्य २ रुपये ५० पर भी अपने विचार व्यक्त किये हैं। उनमें चर्चित पैसा। प्रकृति चित्रण, समाज और संस्कृति तथा दार्शनिक प्रस्तुत कृति का प्रकाशन वर्णी ग्रंथमाला से किया मन्तव्यों पर भी विचार किया है। इस तरह प्रस्तुत । पुस्तक पठनीय है और सम्पादक ने उसे स्वा. पुस्तक अपभ्रंश माहित्य का अच्छा दिग्दर्शन कराती है। ध्याय प्रेमियों के अतिरिक्त विद्यार्थियों के लिए भी उप- और विधानों लिया, योगी बनाने का प्रयत्न किया है। इसमें द्रव्य संग्रह के है। यह निबन्ध डा. हीरालाल जी एम. ए. डी. लिट लघु और वह दोनों रूपों को सानुवाद दिया गया है। जबलपा को fam. पौर प्रथम परिशिष्ट में सस्कृत भी हिन्दी व्याख्या के साथ विद्वान हैं। डा. साहब से समाज को माशा करनी चाहिए दे दी है, जिससे विद्यार्थियों को उसके हार्द को समझने- पिय ने मौलिक सोनी या समझाने में सहायता मिलेगी। सम्पादक ने अपनी प्रस्ता- संस्कृति के मौलिक तत्त्वो का विश्लेषण करेंगे, जिससे वना में उसके कर्तृत्व भादि पर विस्तृत प्रकाश डाला जन साधारण उसके मूल्य को प्रांक सके । भारतीय ज्ञानहै। इस पुस्तक प्रकाशन के साथ कोठिया जी ने प्रयत्न पीठ का यह सुन्दर प्रकाशन बहुन ही उपयोगी है। द्वारा वर्णी ग्रन्थमाला को उज्जीवित करने का भी प्रयत्न किया है, उससे दो ग्रंथों का प्रकाशन भी हो चुका है, और ३. कविवर बनारसीवाम-लेखक डा. रवीन्द्रग्रंथ भी छपने वाले हैं। इससे माशा की जा सकती है कुमार जन प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी। पु० सख्या कि भविष्य मे यह ग्रन्थमाला कुछ ठोस और नये प्रकाशन ३५२ मूल्य सजिल्द प्रति का १०) रुपया। करने में समर्थ हो सकेगी। इसके लिए ग्रन्थमाला के प्रस्तुत ग्रन्थ एक शोध-प्रबन्ध है, जिस पर लेखक को मंत्री और मम्पादक धन्यवाद के पात्र हैं। ममाज को आगरा विश्व विद्यालय से पी. एच. डी. की डिगरी मिली चाहिए कि वह ग्रन्थमाला को पार्थिक सहयोग प्रदान करे है। ग्रन्थ में सात अध्याय है, जिनमे कविवर बनारसीदास जिससे वह अपनी प्रगति में समर्थ हो सके। के व्यक्तित्व और कृतित्व पर विचार किया गया है। २. अपभ्रंश भाषा और साहित्य-डा. देवेन्द्रकुमार शोधक दृष्टि में किया गया यह प्रयल जहा कवि के जैन एम. ए. पी-एच. डी., प्रकाशक, भारतीय ज्ञानपीठ जीवन को उजागर करता है वहा उनके व्यक्तित्व और काशी, पृष्ट मस्या ३४८ मूल्य सजिल्द प्रतिका १०) रु.। कृतित्व पर समीक्षक दृष्टि में प्रकाश भी डालता है। प्रस्तुत प्रन्थ एक शोध-पूर्ण प्रबन्ध है जिस पर लेखक कविवर बनारसीदास १७वी शताब्दी के एक प्रतिमा को पी एच डी की डिग्री मिली है। इसमे अपभ्रंश भाषा सम्पन्न कवि थे और हिन्दी के प्रात्म-चरित के प्रथम और उसके साहित्य पर प्रकाश डाला गया है। प्रन्थ में लेखक हैं, जिसमे अपने ५५ वर्ष के जीवन की अच्छी और ग्यारह अधिकार हैं। जिनमें अपभ्रंश भाषा का स्वरूप बुरी सभी घटनामों का सुन्दर पद्यों में अंकन किया गया तथा व्याकरण दिया है। पश्चात् राजनीति पर भी है। ऐसा चरित ग्रंथ हिन्दी में दूसरा अवलोकन मे नही प्रकाश डाला है। इसके बाद अपभ्रंश के कुछ कवि और पाया है। समयसार के अध्यन के कारण कवि का जीवन Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त अध्यात्म में परिणत हो गया था। उनकी नाटक समयसार के जैन दर्शन के बाद प्रस्तुत जैन न्याय ग्रंथ छात्रो के का कविता कितनी प्राजल, भावगहन और वस्तुतत्त्व का लिए विशेष उपयोगी होगा। खास कर जैन न्याय के विशदता से विवेचन करने की क्षमता को लिए हुए है। प्राथमिक अध्येताओं के लिए तो प्रस्तुत पुस्तक मार्ग उसके पढ़ते ही 'हिय के फाटक खुलते हैं' कहावत चरितार्थ प्रदर्शन का काम करेगी ही। प्रथ में प्रमाण, प्रमाण के होती है। यह पद्यानुवाद पांडे राजमल जी को कलश भेद, और परोक्ष प्रमाण प्रादि का सुन्दर विवेचन दिया टोका का ऋणी है जिसके अन्तरमन से कवि संस्कृत पद्यो हुअा है। और अन्त में श्रुत के दो उपयोग और दृष्टान्ताके हार्द को स्पष्ट करने में समर्थ हो सका है। कवि की भास का भी विवेचन किया गया है। इस तरह जैन दर्शन अन्य सभी रचनाए सुन्दर और भावपूर्ण हैं। लेखक ने सम्बन्धी समस्त उपयोगी सामग्री का चयन यथा स्थान इस ग्रंथ में उनकी विस्तृत चर्चा की है । यद्यपि रचनाओं किया है। पर भी विशद प्रकाश प्रावश्यक था। परन्तु अन्य ऐसी उपयोगी पुस्तक प्रकाशन के लिए लेखक और की मर्यादा समय एव सामर्थ्य को देखते हुए वह उचित ही भारतीय ज्ञानपीठ दोनों ही धन्यवाद के पात्र है। है। भारतीय ज्ञानपीठ का यह प्रकाशन उसके अनुरूप हुमा है। और इसके लिए वे धन्यवाद के पात्र है। ५. सोलह कारण भावना-लेखक महात्मा भगवान दीन, प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ, काशी। मूल्य दो ४. जैन न्याय-लेखक पं० कैलाश चन्द शास्त्री, रुपया। प्रकाशक भारतीय ज्ञानपीठ काशी। पृष्ठ सख्या ३६५ मूल्य सजिल्द प्रति का ९ रुपया। महात्मा भगवानदीन अपने समय के सुयोग्य कार्य कर्ता, और विचारक विद्वान थे। वे प्राचीन से प्राचीन प्रस्तुत ग्रंथ मे जैन न्याय या जैन दर्शन का विचार । और परम्परागत विषय को भी नई दृष्टि से देखते और किया गया है। ग्रंथ की पृष्ठभूमि (प्रस्तावना) मे जैन सोचते थे। उनके विचारो मे तर्क का संमिश्रण रहता है दार्शनिक विद्वानों के सम्बन्ध मे प्रकाश डालते हुए उनकी तो भी विचार मौलिक प्रतीत होते हैं। उनकी लेखनी रचनात्रों के चचित विषय का भी विचार किया गया है। मजी हुई और सरल है। लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक मे पाज लेखक ने प्रस्तुत पुस्तक के निर्माण में अच्छा श्रम किया की दिशा में सोलह कारण भावनाओं का विवेचन किया है। जैन न्याय के सम्बन्ध में लिखा गया दर्शन साहित्य है। किन्तु उनकी भावावबोधक शब्दावलि मे 'नेता बनने का यह एक महत्वपूर्ण सन्दर्भ अथ है। इसमे जैन न्याय के , के उपाय' अलौकिक है; क्योंकि जिन मार्ग में इन भाव. इतिहास के विकास क्रम के साथ-साथ उसके मान्य प्रथों नामों का सम्यक् चिन्तन करने वाला व्यक्ति तीर्थकरत्व के आधार पर प्रामाणिक विवेचन किया है। भाषा भी को प्राप्त होता है। पुस्तक नई विचारधारा को लिए प्रौढ है और अपने विचारों के प्रकट प्रदर्शन करने में हुए है। मतएव जैन संस्कृति के प्रेमी जिज्ञासुमो को उमे सावधानी से काम लिया है, यद्यपि भारतीय दर्शनों पर अवश्य पढ़ना चाहिए। अनेक पुस्तके लिखी गई है किन्तु जैन दर्शन पर ऐसी पुस्तको का निर्माण कम ही हुआ है । डा. महेन्द्रकुमार जी -परमानन्द जैन शास्त्री जिस तरह लोलते या उबलते हुए पानी में पुरुष को अपना मुख दिखाई नहीं देता उसी तरह कोष से सराबोर शरीर में, उसकी ललाई तथा उसते हुए मोठों वाली प्राकृति में प्रात्म-स्वरूप दिखलाई महीं पड़ता। मात्म-स्वरूप को जानने के लिए मानव का चित्त शान्त और निर्मल होना चाहिए, तभी उसे मात्मवर्शन पौर मारमबोध हो सकेगा, अन्यथा नहीं। मानन्द Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रवण बेल्गोल और दक्षिण के अन्य जैन तीर्थ नाम की पुस्तक जो खोजपूर्ण ढग से लिखी गई है। उसमे दक्षिण भारत के प्राय सभी तीथों का ऐतिहासिक परिचय कराया गया है । साथ ही अन्य तीर्थों का भी परिचय निहित है। यह वीर सेवामन्दिर का सुन्दर प्रकाशन है। उसमें बाहुबली का सुन्दर चित्र भी दिया गया है। प्रत्येक यात्री के लिए वह पुस्तक पढने योग्य है । इस पुस्तक की ५०० के लगभग प्रतियां वीर-सेवा-मन्दिर मे मौजूद है। मूल्य १) रुपया है। किन्तु सभी यात्रियो को जो श्रवण बेल्गोल की यात्रा को जाने वाले है। उन्हे वह पुस्तक ७५ पैसे मे दी जायगी। पोस्टेज अलग होगा । यात्रियो को मगा कर उसे अवश्य पढना चाहिए। व्यवस्थापक वीरसेवामन्दिर १ दरियागज, बिल्ली वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्रकुमार जैन, ट्रस्ट, श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन सरावगी एण्ड सस, कलकत्ता ५० ) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा. हरख चन्द जी जैन, रांचा २५१) श्री अमरचन्द जी जैन (पहाडचा), कलकत्ता २५१) श्री स० मि० धन्यकुमार जी जन, कटनी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, मैसर्स मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन स्वस्तिक मेटल वर्क्स, जगाधरी २५०) श्री मोतीलाल होराचन्द गांधी, उस्मानाबाद २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता २५) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल, कलकत्ता २५०) श्री बी० आर० सी० जन, कलकत्ता २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १५.) श्री बजरगलाल जी चन्द्रकुमार जी, कलकत्ता । १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता १५.) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता ) , कस्तूरचन्द जी प्रानन्दीलाल जी कलकत्सा १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सगवगी, कलकत्ता १५०) ,, प्रतापमल जी मदन माल पांड्या, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्म जो सरावगी, कलकत्ता १५०) , सुरेन्द्रनाथ जो नरेन्द्रनाथ जा कलकत्ता १० ) , मारवाडी दि. जैन समाज, व्यावर १०१) , दिगम्बर जैन समाज, केकड़ी ०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई न० २ १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागज रिल्ली १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल १०१) , शान्ति प्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, नई दिल्ली १०१) , सेठ जगन्नाथजी पाण्डवा अमरीतलया १०१) , सेठ भगवानदास शोभाराम जी सागर (म०प्र०) १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता १००) , बद्रीप्रसाद जी प्रात्मागम जी, पटना १००) , रूपचन्दजी जेन, कलकत्ता १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोग्या इन्दौर Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R.N. 10591/62 ___सभी ग्रन्थ पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-प्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिग्रन्थो में उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है । सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची । संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से अलंकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी. लिट् की भूमिका (Introduction) से भूषित है, शोध-खोज के विद्वानो के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा--श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,प्राप्तों की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक ___सुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य प दरबारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) स्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेषणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित । (४) स्तुतिविद्या-स्वामी समन्तभद्र की अनोखी कृति, पापों के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगल किशोर मुख्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से अलंकृत सुन्दर जिल्द-सहित । (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड–पचाध्यायीकार कवि राजमल की सुन्दर प्राध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्त्यनुशासन-तत्वज्ञान से परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हुमा था। मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से अलकृत, सजिल्द । (७) श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुवादादि सहित। ॥) (८) शामनचतुस्त्रिशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदन कीति की १३वी शताब्दी की रचना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (8) ममीचीन धर्मशास्त्र-स्वामी ममन्तभद्र का गृहस्था वार-विषयक अत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाष्य और गवेपणात्मक प्रस्तावना से युक, सजिल्द । (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा० १ मस्कृत और प्राकृत के १७१ अप्रकाशित ग्रन्थों की प्रशस्तियों का मगलाचरण सहित अपूर्व मग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो की और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहास-विषयक साहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, मजिल्द । (११) समाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित मूल्य ४) (१२) अनित्यभावना-पा० पद्मनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार श्री के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१३) तत्वार्थसूत्र--(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार श्री के हिन्दी अनुवाद तथा व्याख्या से युक्त। (१४) श्रवणबेलगोल और दक्षिण के अन्य जनतीर्थ । (१५) महावीर का मर्वोदय तीर्थ ), (५) समन्तभद्र विचार-दीपिका ॥), (६) महावीर पूजा (१८) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१७) अध्यात्म रहस्य-पं पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुवाद सहित । (१८) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा २ अपभ्रंश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियों का महत्वपूर्ण संग्रह । ५५ ग्रन्थकारों के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय पोर परिशिष्टो सहित । सं.पं० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२) (१९) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिद (वीर शासन-संघ प्रकाशन ५) (२०) कमायपाहुड सुत्त--मूलग्रन्थ की रचना प्राज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणपराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूर्णिसूत्र लिखे ६ सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टों और हिन्दो अनुवाद के साथ बड़े साइज के १००० से भी अधिक पृष्ठों में। पुष्ट कागज और कपड़ की पक्की जिल्द । ... २०) (२१) Reality मा० पूज्यपाद की सर्वार्थ सिद्धि का अंग्रजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्की जिल्द मू०६) प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिंटिंग हाउस, दरियागंज, दिल्ली से मुद्रित । Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे मासिक फर्वरो१९६७ अनेकान्त ************************** ************************************ ************************** malai N ********** श्री बाहुबली की सातिशय ५७ फीट ऊँची विशाल मूर्ति, श्रवणबेलगोल ************************** समन्तभद्राश्रम (वीर-सेवा-मन्दिर) का मुखपत्र Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ विषय-सूची सुवर्ण जयन्ती उत्सव-इन्दौर क्रमांक विषय पृष्ठ जंबरीवाग के एक विशाल पाडाल में इस स्वर्णजयन्ती १. सरस्वती-स्तदनम् --मुनि पद्मनन्दी ३३९ | समारोह का आयोजन किया गया था। लगभग २००० २. पतियान दाई (एक गुप्तकालीन जैन मन्दिर व्यक्ति सम्मलित हुए। अनेक सन्देश प्राप्त हुवे, अनेक गोपीलाल 'प्रमर' ३४० गणमान्य जैन जेनेतर सज्जन पधारे थे, सर सेठ भागचन्द्र ३ हिन्दी जैन कवि और काव्य जी सोनी भी थे। ठीक १०-१५ पर समारोह के अध्यक्ष - [डा. प्रेमसागर जैन ३४७ माननीय श्री के. सी रेड्डी महोदय, राज्यपाल मध्य प्रदेश ४. समय का मूल्य -[मुनि श्री विद्यानन्द ३५६ पधारे । उनकी पत्नी भी सम्मिलित हुई। ५. जैन चम्पू काव्यों का अध्ययन दानशीला कचनवाई श्राविकाश्रम की छात्राओं द्वारा [मगरचन्द नाहटा ३६७ ६. पार्वाभ्युदय काव्यम : एक विश्लेषण | मंगलगान के पश्चात ट्रस्ट के अध्यक्ष तथा स्वागताध्यक्ष श्री ग.व. सेठ राजकुमार सिंह जी ने स्वागत भाषण [प्रो० पुण्कर शर्मा एम. ए. ३७२ ७. आनन्द श्रमणोपासक-[बालचन्द सिद्धान्त शा. ३७६ पढ़ा । पश्चात् मंत्री जी ने संस्थानों का संक्षित ८. साहित्य-समीक्षा-[डा० प्रेममागर विवरण सुनाया। श्री भैयालाल जी बडी, पं. करमलकर ३८३ ६. अनेकान्त के १९वे वर्ष की विषय-सूचा जी शास्त्री, एवं पन्नालाल जी ने इन सस्थानो की बहुमुखी सेवायो की सगहना की। पश्चात् श्री पारस रानी जैन ने जैनमहिला समाज, इन्दौर की भोर से श्रीमती सम्पादक-मण्डल कचन बाई साहिबा को अर्पित मानपत्र सुनाया, मानपत्र डा० प्रा० ने० उपाध्ये एक चांदी के कस्केट में रखकर श्रीमती रेड्डी द्वारा श्री डा०प्रेमसागर जैन सेठानी साहिबा को भेट किया गया। श्री यशपाल जैन ___ स्थानीय व बाहर की लगभग २० सस्थानों द्वारा सेठानी जी को पुष्पहार समर्पित किये गये। श्री सेठानी साहिबा ने इस सम्मान के प्रति आभार प्रदर्शित किया। भाव विभोर वाणी में उन्होने कहा कि वह सम्मान वास्तव मे अनेकान्त को सहायता स्व० सर सेठ सा० का ही है जिन्होंने समाज के सामने ११) लाला सुदर्शनलाल जी जैन जसवन्तनगर एक पादर्श जीवन उपस्थित किया है। उन्होने यह पाशा (इटावा) । चि. शशिभूपण के विवाहोपलक्ष मे निकाले भी व्यक्त की कि उनके पुत्र, पौत्र, वधुएं ग्रादि स्व० सेठ हुए दान में से अनेकान्त के लिए ग्यारह रुपया सधन्यवाद | साहिब क | साहिब के जीवन को सामने रखकर उनके पादर्श व प्राप्त हुए। उनकी कीति को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए प्रादर्श व्यवस्थापक 'अनेकान्त' जीवन यापन करेंगे। वीग्सेवा मन्दिर, २१ दरियागज दिल्ली | फिर बिजली का बटन दबाकर माननीय राज्यपाल महोदन ने स्व० सर सेठ हुकमचन्द जी एवं दानशीला सेठानी कंचनबाई की जंबरीवाग उद्यान में स्थापित प्रस्तर अनेकान्त का वार्षिक मूल्य ६) रुपया प्रतिमाओं का अनावरण किया। तथा माननीय राज्यपाल एक किरण का मूल्य १ रुपया २५ पै० ने जबरीवाग मे स्थित स्व. सर सेठ साहिब की ममाधि अनेकान्त में प्रकाशित विचारों के लिए सम्पावक पर पुष्पहार चढ़ाया । उनका अध्यक्षीय भाषण अंग्रेजी में महल उत्तरदायी नहीं हैं। हुपा, जिसका अनुवाद श्रीमती अग्रवाल ने किया। व्यवस्थापक अनेकान्त [शेष टा. के तीसरे पेज पर] Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रोम् महम अनेकान्त . परमागमस्य बीजं निषिद्धनात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसितानां विरोषमयनं नमाम्यनेकान्सम् ॥ वर्ष १६ किरण ६ । । वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण सवत् २४६३, वि० स० २०२३ सन् १९६७ सरस्वति-स्तवनम् जयत्यशेषामरमौलिलालितं सरस्वतित्वत्पद्पजद्वयम् । हृदि स्थितं यज्जनजाड्यनाशनं रजोविमुक्त श्रयतीत्यपूर्वताम् ॥१॥ अपेक्षते यन्न दिनं न यामिनी न चान्तरं नैव बहिश्च भारति। न ताप कृज्जाड्यकरं न तन्महः स्तुवे भवत्याः सकल प्रकाशकम् ॥२॥ -मुनिश्री पचनन्दि अर्थ-हे सरस्वती! जो तेरे दोनों चरण-कमल हृदय में स्थित होकर लोगो की जड़ता (प्रज्ञानता) को नष्ट करने वाले तथा रज (पापरूप धूलि) से रहित होते हुए उस जड़ और धूलि युक्त कमल की अपेक्षा अपूर्व ना (विशेषता) को प्राप्त होते हैं वे तेरे दोनों चरण-कमल समस्त देवों के मुकुटों से स्पर्शित होते हुए जयवन्त होवे ॥ हे मरस्वती । जो तेग तेज न दिन की अपेक्षा करता है और न रात्रि की भी अपेक्षा करता है, न प्रभ्यन्तर की अपेक्षा करता है और न बाह्य की भी अपेक्षा करता है, तथा न सन्ताप को करता है और न जड़ता को भी करता है; उस समस्त पदार्थों को प्रकाशित करने वाले तेरे तेज की मैं स्तुति करता हूँ ।। ___ भावार्ष-सरस्वती का तंत्र मूर्य और चन्द्रमा से भी अधिक श्रेष्ट है; क्योंकि सूर्य, चन्द्र तेज दिन एवं रात्रि की अपेक्षा करने के साथ सन्ताप और जड़ता (शीतलता) को भी करते हैं। और जहा वे बाह्य मयं के ही प्रकाशक हैं । वहां सरस्वती का तेज दिन और रात्रि की अपेक्षा न करते हुए मन्तस्तत्व को प्रकाशित करता है। Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतियान दाई एक गुप्तकालीन जैन मन्दिर गोपीलाल अमर पतौरा ग्राम महाराज सर्वनाथ के सं० १९७° और २१४ 10 के दो११ मध्यप्रदेश में, सतनासे दक्षिणपूर्व में लगभग १० मील कांस्य-अभिलेखों में पृष्ठपुरिका देवी का नाम पाया है. और उचहरा से उत्तर-पश्चिम में लगभग १० मील पर इससे भी सर कनिंघम के मत की पुष्टि होती है जैसाकि पतौरा नाम का एक साधारण ग्राम है। प्राचीन पृष्टपुर आगे कहा जाएगा,१२ सर कनिंघम प्रस्तुत मन्दिरमें प्राप्त माज पतौरा हो गया प्रतीत होता है। समुद्रगुप्त की प्रयाग मूर्ति को भी पृष्टपुरिका देवी की मानते हैं ।१३ प्रशस्तिर में पिष्टपुर (पष्टपुरक)का उल्लेख है।३ सर ए मन्दिर की स्थिति और प्राकार प्रकार कनिधमने उसे पृष्टपुरी ही, पढ़ा था जिसके पश्चात् ही पतौरा से पूर्व में चार मील पर, सतना से दक्षिणउस प्रशस्ति में, उनके अनुसार महेन्द्रगिरिक, उद्यारक और पश्चिम में छह मील पर और उचहरा से उत्तर में पाठ स्वामिदत्त का उल्लेख है।४ यदि सर कनिधम का यह मील पर सिन्दुरिया नाम की एक पहाड़ी है। इसी पहाड़ी पाठ प्रामाणिक मान लिया जाय तो हम न केवल पृष्टपुरी पर एक छोटा सा टोला है जिस पर एक लघुकाय मन्दिर से पतौरा का ही, बल्कि महेन्द्र गिरिक से महियार५ का खण्ड स्थित है । इस मन्दिर को 'पतियान दाई'१४ या और उद्यारक से उचहरा का भी समीकरण कर सकेंगे। 'डबरी की मढ़िया१५ कहते हैं। गुप्त यूग के महाराज संक्षोभ के सं २०६के एक और यह उत्तरमुख मन्दिरखण्ड बाहर से साढ़े छह फूट समचतुष्कोण और सीढी से सात फुट ऊंचा है। भीतर से १. इसका उच्चारण सर. ए. कनिंघम ने पिथावरा इसकी लम्बाई साढे चार फुट, चौड़ाई साढ़े पांच फुट और (Pithaora) किया है। ऊचाई छह फुट है। समूचे मन्दिर को सात फुट आठ इंच २.मी. पाई. पाई., जिल्द ३, अभिलेख सं. १, पृ.१ १. सी. पाई. माई., जिल्द ३, अभिलेख सं. २८,पृ.१२६, फलक १। फलक १८। ३. ......'कोसलक महेन्द्रमहाकान्तारकव्याघ्रराजकरल- १०. वही, अभिलेख स. ३१, पृ.१३५, फलक २०॥ कमण्टराजपष्टपरकमहेन्द्रगिरिकोटट्ररकस्वामित्सरण्ड- ११. (अ) 'भगवत्याः पिष्टपरिक (1) देव्याः खण्डफटपल्लकदमन"....' प्रतिसंस्कारकरणाय...।' ११. (ब) ......'तेनापि मानपुरे कातिकदेवकुल (') ४. ए. पार., ए. एस. माई., चिल्द , पृ.१०॥ भगवत्याः पिष्टपुरिकादेव्याः पूजानिमित्तम्.....।' ५. वही, पृष्ठ ३३ और भागे। १२. देखिये मागे टिप्पणी ३३॥ ६. वही, पृष्ठ ५ और मागे। १३. ए. पार., ए. एस., जिल्द ६, पृ ३१॥ मी. पाई.माई., जि. ३ अभिलेख सं. २५ पृ. ११२, १४. सर कनिंघम इसका उच्चारण 'पतनी देवी फलक १५ बी (द्वितीय)। (Pataini Devi) करते हैं। देखिये वही। ......"तमेव स्व () गसोपानपंक्तिमारोपयता १५. दो टेकड़ियों के बीच स्थित होने से इसे यह नाम भगवत्याः पिष्टपुर्याः कार्तिकदेवकुले....।' मिला बताते हैं। Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतियान बाई: एक गुप्तकालीन बन मन्दिर लम्बे, मात फुट चार इच चौड़े और पाठ इंच मोटे एक की सपाट छत और सामने का मण्डप, बिना किसी ही पत्थर से ढका गया है जिसने इस मन्दिर को सुरक्षित परिवर्तन के मन्दिरों में भी बनाया जाने लगा, जिसका रखने और सुन्दरता बनाने मे महत्त्वपूर्ण योगदान किया स्पष्ट प्राभास हमें इस मन्दिर में दृष्टिगत होता है। है। प्रवेशद्वार १६ की ऊचाई साढे तीन फुट और चौडाई दूसरो विशेषता यह है कि इसके प्रवेश द्वार की चौखट का दो फुट है। ऊपरी भाग इतना लम्बा है कि वह द्वार पक्षों की सीमा प्रारम्भ मे इसके सामने एक मण्डप था, जिसके दो से प्रागे बढ़ गया है । मन्दिर स्थापत्य की यह विशेषता, स्तम्भ मन्दिर के उत्तरी कोणो से सटे थे और शेष दो यद्यपि बाद में भी कायम रही, फिर भी मिश्र के मन्दिरो उनमे कुछ प्रागे स्थित थे। मण्डप की सामग्री मन्दिर के और उदयगिरि तथा नासिक की गुफापों में भी स्पष्ट प्रामपाम स्पष्ट रूप से उपलब्ध नही है तथापि उसके पलब्ध नहीं है तथापि उसक रूप से देखी जा सकती है। यह विशेषता निस्सन्देह रूपसे अस्तित्व में सन्देह नहीं किया जा मकता, क्योकि जैसा कि प्रारम्भ में प्रचलित लकड़ी की चौखट से ग्रहण की गई है, चित्र १७ से स्पष्ट है, प्रवेश द्वार के ऊपर दो कड़ियों जिसमें ऊपरी भाग की लम्बाई एक जरूरत की चीज यो, (बडेरो) को काटकर दीवाल के समतल कर दिया गया और उसका प्रतिरूप होने की वास्तविकता से यह स्पष्ट है जो इस मण्डप का आधार थी। होता है कि भारत में और अन्यत्र भी लकड़ी प्राचीनतर इम मन्दिर को धराशायी करने को कुछ प्राततायियों निर्माण से ही पत्थर का मूल्यवान् स्थापत्य उद्भूत हुमा ने इमकी पिछली दीवान के कोणो के, लगभग एक फुट था ।१६ इस मन्दिर की तीसरी विशेषता है उसके द्वार की ऊचाई पर कुछ पत्थर निकालने की चेष्टा की थी, पक्षो पर गगा-यमुना का मकन । गुप्त-पूर्व काल से ही पर मफल होने से पूर्व ही आततायियो को भाग जाना यह विशेषता मन्दिर स्थापत्य में स्थान पा लेती है और पड़ा। पास के ग्राम के लोग या तो बनाने में असमर्थ थे बहत बाद तक चलती रहती है। पोथी विशेषता यह है या वे यह बताना नहीं चाहते थे कि यह चेष्टा किसने की कि इसकी कारनिस चारो मोर बनायी गई। यही बात था।'१८ साची और तिगोवा के मन्दिरो में परिलक्षित होती है, मन्दिर का निर्माणकाल इसलिए मैं दृढ़तापूर्वक, इस मन्दिर का निर्माण गुप्तकाल यह मन्दिर प्रारम्भिक गुप्तकालीन स्थापत्य का एक मे हुमा मानता हूँ।२० सुन्दर उदाहरण है। उस समय के मन्दिरों में पाये जाने यद्यपि पतियानदाई मन्दिर मे कोई अभिलेख उपलब्ध वाले मभी लक्षण इस मन्दिर में पाये जाते है। इसकी नही हुपा है२१ तथापि उसे गुप्तकाल का एक सुन्दर छन गुफा मन्दिरों की भाति सपाट है और उस पर किमी उदाहरण मानने में कोई आपत्ति नहीं रह जाती, उदयप्रकार की शिखर नही है। यह विशेषता इम मन्दिर को गिरि की गुफापों और एरन तथा बिलसर के मन्दिरों की बहन प्राचीन सिद्ध करती है। स्थापत्य का क्षेत्र जब ठीक यह शैली है जिसमें प्राप्त अभिलेख उन्हें गुप्तकालीन गुफापो से मन्दिर तक विस्तृत हुप्रा होगा तब उसका स्वरूप गुफाओं से बहुत अधिक समान रहा होगा । गुफाओं सिद्ध करने में पूर्णत समर्थ है । १६. इसका विस्तृन विवरण, इमी लेख मे प्रागे प्रस्नत १६. वही, पृ.४३ । किया जा रहा है। २०. वही पृ. ३२ । १७. इसके छायाकार श्रीनीरज जैन, सतना है जिनसे यह २१. इस मन्दिर मे जो मूर्ति प्राप्त हुई थी उसपर उसकी माभार प्राप्त किया गया है। साथ का रेखाचित्र परिकर मूर्तियों के नाम उत्कीर्ण हैं जिनकी लिपि गुप्तोत्तर भी देखिये जिसमें मण्डप का अनुमानत: रेखांकन काल की है पर जैसा कि प्रागे लिखा जा रहा है, इस किया गया है। मूर्ति का सम्बन्ध इस मन्दिर के निर्माण काल से जरा भी १८. ए. पार., ए. एस. पाई. जिल्द ६, पृ. ३२-३३ । नही है। Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रवेशद्वार और गर्भगृह गर्भगृह में पूर्व-पश्चिम दीवालों को छूती हुई एक प्रवेशद्वार के दायें द्वारपक्ष पर गंगा का और बायें साधारण वेदी है। इस पर मब कोई प्रतिमा नहीं है पर द्वार पक्ष पर यमुना का अंकन है। प्रत्येक देवी की ऊचाई सर कनिंघम ने वहाँ एक अत्यन्त महत्वपूर्ण पोर विशाल सवा फुट है। गंगा का वाहन मकर मोर यमुना का वाहन प्रतिमा देखी थी२५ जिसे अब प्रयाग-नगर-सभा के सम. कम दिखाये गये हैं। दोनों के एक हाथ में कलश और हालय में देखा जा सकता है।२६ दसरे मे चमर हैं। इनके शरीर का त्रिभंग इस सयम के प्रतिमा का नाम साथ उभारा गया है कि उसकी प्रतिकृति करने में खजु इस प्रतिमा को क्या नाम दिया जाय, यह विशेष रूप राहों का कलाकार भी असफल रहा प्रतीत होता है। से विचारणीय है। स्थानीय जनता इसे इस मन्दिर के दोनों के प्राभूषण विशेष सुन्दर बन पड़े है । गगा के पार्श्व नाम पर 'पतियान दाई' नाम देती है ।२७ सर कनिंघम ने मे यक्ष की एक भामण्डल सहित चतुर्भुज मूर्ति अंकित है इसे 'पतनी देवी' लिखा है २८ और उसका समीकरण जिसका प्रथम हाथ खण्डित है और शेष मे क्रमशः गदा महाराज संक्षोभ के एक२६ और महाराज सर्वनाथ के नाग और श्वान दिखाये गये हैं। इसी प्रकार यमुना के दो३० कांस्य-अभिलेखों में उल्लिखित 'पिष्टपुरिका देवी' पार्श्व में भी एक भामण्डल सहित चतुर्भुज यक्षमूर्ति है। से किया है ।३१ पर यह समीकरण न तो पुरातत्त्व की इसका भी प्रथम हाथ प्रशतः खण्डित है जिसके शेष भाग दृष्टि से सभव है३२ और न भाषा शास्त्र की दृष्टि से३३ । में किसी जानवर की रस्सी अब भी देखी जा सकती है। श्री नीरज जैन का अनुमान भी, इस प्रतिमा के नाम के शेष तीन हाथों में क्रमश: गदा, कमल और नाग अंकित है संबन्ध मे उल्लेखनीय है; 'देवी अम्बिका के पासन पर गंगा और यमुनाके शिरोभाग से द्वार की बगवरी तक सीधे पाषाण पर साधारण बेलबूटे अकित है और चौखट के भा एक पक्ति का लेख है जो अस्पष्ट है। मुनि कान्तिऊपरी भाग पर दोनों ओर फणावलि सहित पार्श्वनाथ की भी ब्राह्मण-देवियां कहने को भूल की है। देखिये, तथा मध्य में प्रादिनाथ की प्रतिमा उत्कीर्ण की गई है। ये ए. मार., ए. एस पाई., जिल्द ६, पृ. ३२ । तीनों प्रतिमाएं पद्मासन में हैं और प्रत्येक की ऊचाई पांच २५. वही, पृ. ३१ और प्रागे। इच है। प्रवेशद्वार पर, गर्भगृह की ही भांति अप्सरामों और २६. इस प्रतिमा के स्थानान्तरित किये जाने की तथा सुन्दरियों प्रादि के अंकन के प्रभाव से स्पष्ट है कि उस कथा के लिए देखिये, अनेकान्त (अगस्त ६३), समय तक कलाकार की छेनी पर सयम का पहरा था। वर्ष १६, किरण ३, पृ० १६ इसके अतिरिक्त सर कनिंघम ने यहाँ एक शिव-पार्वती २७. यह भी सभव है कि प्रतिमा के नाम पर यह नाम की प्रतिमा भी अंकित देखी थी२२ जो अब वहाँ उपलब्ध मन्दिर को मिला हो, जैसा कि प्रायः सर्वत्र होता है। नही है। पर यह निश्चित है कि प्रतिमा शिव-पार्वती की न २८. ए. पार., ए, एस. आई, जिल्द ६, पृ० ३१ । होकर धरणेन्द्र-पद्मावती की थी, क्योंकि उन दोनों प्रकार २६. देखिए, पीछे टिप्पणी ७ पौर ८ । की प्रतिमाओं में कई दृष्टियों से समानता होती २३ और ३०. देखिए, पीछे टिप्पणी , १० और ११ । सर कनिंघम के समय तक जन प्रतिमाशास्त्र प्राय. प्रप्रका ३१. ए., पार , ए, एस, माई, जिल्द १, . ३२ । शित थे अतः उनका यह भ्रम माश्चर्यजनक नहीं।२४ ३२. क्योंकि इन दोनों महाराजों की इष्ट देवी पृष्टपुरिका २२. ए. पार. ए. एस. आई., जिल्द ६, पृ. ३२। पतौरा में नहीं, बल्कि खोह के मास-पास किसी २३. देवगढ में धरणेन्द्र-पद्मावती की सैकड़ो प्रतिमाएँ मन्दिर मे थी। देखिए, उक्त तीनों कांस्य अभिलेखों देखी जा सकती हैं जिन्हें सहसा कोई साधारण के सम्बन्ध में, सी. पाई. माई., जिल्द तीन में पुरापुरातत्त्वज्ञ शिव-पार्वती की प्रतिमा समझ बैठताहै। तात्विक टिप्पणियां। २४. यह सर कनिंघम का भ्रम ही था क्योंकि उन्होंने ३३. 'पिष्टपुरिका' शब्द किसी भी नियम से 'पतियान' या अनलिखित अम्बिकामूर्ति की पाश्र्ववर्ती मूर्तियों को पतनी' शब्द का रूप नहीं ले सकता। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतियान दाई : एक गुप्तकालीन जैन मन्दिर सागर ने इसे रामदास और पद्मावती पढ़ कर यह अनुमान का विग्रह होकर बहुव्रीहि समास होता है। प्रतः पतियाम' लगाया था कि मूर्ति का प्रतिष्ठापक कोई रामदास नामक शब्द अपभ्रश का या तव शब्द नही; बल्कि मूल या व्यक्ति था जिसका निवासस्थान पद्मावती रहा होगा। तत्सम ही शब्द है। और 'दाई' शब्द 'धात्री', 'दायी' मेरे अनुमान से रामदास की पत्नी का नाम पद्मावती या 'देवी' मे से किमी का भी अपभ्रंश या तद्भव रूप हो होना चाहिए, जिसका बनवाया यह मन्दिर पद्मावती मकता है। मन्दिर के नाम से विख्यात हया होगा तथा यही नाम छोड़ कर शेष सभी ब्राह्मणो के घर जल गये। बेघर कालान्तर में प्रबोध ग्रामीणों द्वाग "पतियान दाई" हो गह्मणो ने इसे अग्निला का महत्त्व माना जिनके गया होगा३४ । इस अनुमान में प्रथम आपत्ति तो यह है प्राग्रह मे मोमगर्मा उमे मगम्मान लेने चला पर कि वह एक अस्पष्ट लेख और उसके अनिश्चित पाठ पर अग्निना ने उसे आता देखा तो समझी कि यह मुझे प्राधारित है, और दूमगे आपत्ति यह है कि पद्मावनी अधिक कष्ट देगा। अत वह अपने पुत्रो के साथ शब्द का अपभ्रंश प या मुग्वसुख के लिए गढ़ा गया रूप पर्वत की चोटी मे कूद कर मर गई और तीर्थर "पदमावई" या 'पउमावई' हो सकता है, 'पतियान' या । नेमिनाथ की यक्षी हुई। उम यक्षी का नाम पाम्रादेवी 'पतियानदाई' नही। या अम्बिका हुमा, क्योंकि आम्रवृक्ष से उसका एक इम प्रतिमा का वास्तविक और मौलिक नाम पनि विशेष प्रकार का नाता जुड़ चुका था, इसीलिए यान दाई' ही है। इसमें पतियान' शब्द मे पति (मिह के उमकी प्रतिमा मे उसके ऊपर आम का वृक्ष और रूप में है) यान (वाहन) जिसका ऐमी३५, इस प्रकार उसके एक हाथ में पाम का गुच्छा दिखाया जाता है। ३४. अनेकान्त, (अगस्त '६३), वर्ष १६, किरण ३ पृ. वह अपने एक पुत्र को गोद मे और दूसरे को साथ १०३ । में लेकर पर्वत से कूदी थी इसीलिए उसकी प्रतिमा ३५. इस प्रतिमा-फरक में अनेक प्रतिमाए हैं जिनमे में एक बालक उपकी गोद मे और एक बालक उसके विशालतम और मुख्यतम है अम्बिका की। यह देवी पात्र में दिखाया जाता है। उसे मरी हुई देख कर अपने पूर्व जन्म में एक ब्राह्मणी थी और उसका उमका पति सोमगर्मा भी व्याकुल होकर मर गया वाहन सिंह अपने पूर्व जन्म में उसका पति था। पौर सिह बना और उनके वाहन के रूप मे उसकी इसकी कथा अत्यन्त मार्मिक और मनोरंजक है। सेवा करने लगा। इसीलिए अम्बिका की प्रतिमा में बाइसवे तीर्थकर नेमिनाथ के समय गिरिनगर में एक वाहन (यान) के रूप में सिंह दिवाया जाता है। मोमशर्मा ब्राह्मण रहता था। उसने पितृश्राद्ध के यह कथा कुछ-कुछ भिन्न रूपों में श्वेताम्बर और ममय ब्राह्मणों को निमन्त्रित किया परन्तु उमकी दिगम्बर ग्रन्थों में उपलब्ध है। देखिएपत्नी अग्निला ने ब्राह्मणों से पूर्व ही एक जैन मुनि (१) पुण्याथव कथाकोप में यक्षी कथा, को माहार करा दिया जिस पर क्रुद्ध होकर ब्राह्मण (२) वादिचन्द्र का अम्बिका कथासार, भोजन किये बिना ही चले गये। इस पर भी क्रुद्ध (३) प्रभावक चरित में विजयसिंह मूरिचरित, होकर सोमशर्मा ने अग्निला को घर से निकाल दिया (४) पुरातन प्रबन्ध संग्रह में देव्या. प्रबन्ध पौर और वह अपने पुत्रों शुभंकर और प्रभंकर के साथ (५) अम्बिका से संबन्धित विभिन्न लेखों के लिए देखिए ऊर्जयन्त पर्वत पर रहने लगी। उसके पुत्र भूग्व से टिप्पणी ४२ तथा व्याकुल हुए तो उसके पुण्य प्रभाव से एक आम का (६) अम्बिका की प्रतिमा के लक्षणों के लिए देखिए वृक्ष बेमौसम ही पुष्जित-फलित हो उठा। उसने उन टिप्पणी ४० तथा फलों से अपने पुत्रों की भूख शान्त की। उधर गिरि- (७) अम्बिका-प्रतिमानों के विभिन्न रूपों के लिए नगर में, संयोगवश प्राग लगी और अग्निला का घर देखिए टिप्पणी ४१। Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अनेकान्त प्रतिमा का माकार-प्रकार से अधिक पूर्व मध्यकाल की प्रतीत होती है। इस पर इस प्रतिमा और उसके सपूर्ण परिकर की रचना यक्षियों के नामों की लिपि मध्यकाल से पूर्व की नही प्रतः सवा तीन फुट चौड़े और पौने छ: फुट ऊँचे शिलाफलक ये नाम या तो प्रतिमा के निर्माणकाल में ही उत्कीर्ण किये पर हई है इस फलक पर अम्बिका के अतिरिक्त शेष २३ गये होगे या उसके कुछ पश्चात उत्कीर्ण किये गये हो शासन देविया यक्षिया, १३ तीर्थकर३६, नवग्रह, अम्बिका सकते है । पर यह निस्सन्देह रूप से निश्चित है कि इस के दोनों पुत्र शुभंकर और प्रभंकर, एक भक्त युगल और प्रतिमा का निर्माण इस मन्दिर के निर्माण के कम से कम दो सेविकाएं, इस प्रकार कुल मिल कर ५२ व्यक्तियों की तीन सौ वर्ष पश्चात् हपा था। इस संबन्ध मे सर कनिघम प्रतिमाएं हैं जिनमें जैसा कि कहा जा चुका है, विशालतम के शब्द पर्याप्त होंगे, 'अभिलेखों (यक्षी नामों के उत्कीर्ण पौर मुख्यतम अम्बिका की है। इसी अम्बिका के एक किये जाने के प्रारम्भिक काल से भी बहुत पहले का यह विशेषण 'पतियान' के रूप में ही इस प्रतिमा और इस मन्दिर प्रतीत होता है। इसलिए निस्सन्देह, यह सभव है मन्दिर को नाम प्राप्त हुए हैं। इन प्रतिमानी के प्रति कि मृति की स्थापना के काफी समय के बाद नाम उत्कीण रिक्त, अम्बिका का वाहन सिंह भी अपने स्थान पर किये गये हों। पर मेरा विश्वास इस ओर अधिक है कि अकित है और फलक के पाश्वं मे गज, अश्व तथा मकर कि प्रस्तुत प्रतिमा भी उमी काल की है जिस काल के आदि की प्राकृतिया भी सजा की दृष्टि से दोनो ओर अभिलेख है और वह (प्रति अभिलेख है और वह (प्रतिमा) इम मन्दिर में स्थापित अकित की गई हैं। की गई थी जो काफी लम्बे समय से खाली पड़ा रहा जंन पुरातत्त्व की दृष्टि से, प्रतिमा शास्त्रीय लक्षणों था।'३६ की साङ्गोपाङ्ग अभिव्यक्ति से और मनोहारी सौन्दर्य के अम्बिका मतिकारण यह मूर्ति भव्य और अनुपम बन पड़ी है। चतुविशति शिलाफलक के बीचोबीच, शिला के कुछ भाग को पट्ट तो देवगढ़ आदि में सैकड़ों की संख्या मे उपलब्ध है उकेर कर और कुछ भाग को कोर कर अम्बिका ४० की पर उनमे से किसी एक पर भी एक-दो से अधिक शासन खड़ी हुई, साढे तीन फुट लम्बी चतुर्भुज४१ मूति४२ देवियों का अंकन उपलब्ध नहीं होता जबकि इस पर एक साप३७ चीबीसों शासन देविया अपने-अपने उपास्य ३६. ए. पार., ए. एस. पाई., जिल्द , पृ. ३२ । तीर्थकर और नाम के साथ अंकित की गई हैं। मुनि ४०. (म) सव्यकाङघ्रय पप्रियंकरसुतं प्रीत्ये करे बिभ्रती कान्तिमागर के शब्दों में इसका परिकर न केवल जैन दिव्याघ्रस्तबक शुभकराश्लिष्टान्यहस्ताङ्गुलिम् । शिल्प-स्थापत्य कला का समुज्ज्वल प्रतीक है, अपितु भार. सिंहे भत'चरे स्थितां हरितभामाम्रदुमच्छायगा। तीय देवी-मूति-कला की दृष्टि से भी अनुपम है३० । बन्दारु दशकार्मुकोच्छयजिनं देवीमिहाम्बा यजे॥' पाशाधर, पण्डित: प्रतिष्ठासारोद्धार, प्र० ३, श्लोक १७६ प्रतिमा निर्माण काल ४०. (ब) 'हरिद्वर्णा सिंहसंस्था द्विभुजा च फलम् वरम् । यह प्रतिमा कला की दृष्टि से मध्यकाल या अधिक पुत्रेणोपास्यमाना च सुतोत्सङ्गा तथाम्बिका ।।' ३६. इस शिलाफलक के खण्डित अश पर शेष ११ तीर्थदूरो शुक्ल डी. एन., वास्तुशास्त्र, भाग २, पृ० २७३ की प्रतिमाएं भी अवश्य थी, क्योंकि उनकी १३ की अपराजितपृच्छा से उद्धृत)। संख्या का कोई अर्थ नहीं, और चौबीसों पक्षी- ४१. इसके अतिरिक्त, इस देवी की द्विभुज, षड्भुज, मष्टमूर्तियों का अस्तित्व भी यही सिद्ध करता है कि भुज द्वादशभुज मादि मूर्तियां भी देवगढ़ प्रादि स्थानों तीर्थङ्कर-मूर्तिया भी चौबीस ही थी। पर उपलब्ध होती हैं। ३७. देवगढ में मन्दिर-सख्या १२ के बहिर्भाग पर चौबीसों .२. अम्बिका की विभिन्न मूर्तियों के विवरण के लिए शासन देवियों का उनके नामों के साथ अंकन है । देखिए : ३८. खण्डहरों का वैभव, पृ० २५०-५२ । (१) शाह यू. पी. : माइकनोग्राफी पॉफ दि जैन गॉडेस Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पतियान बाई: एक गुप्तकालीन जैन मन्दिर ३४५ निर्मित की गई है। चारों हाथ खण्डित हैं। शरीर पर पांच प्राधार दिखायी देते है। यहां प्राप्रमजरी का अंकन अनेक ग्राभूषण हैं। मस्तक पर मणिजटित मुकुट है और रहा होगा जो अम्बिका की मूर्ति का एक प्रावश्यक लक्षण अलंकृत केशों के तीन जूई ऊपर और तीन पीछे गूंथे गये है। हाथों के अतिरिक्त मूर्ति की नाक भी खण्डित है। अकित हैं। कटि से पैरों तक का भाग सूक्ष्म वस्त्र से तीर्थकर-मूर्तियांपाच्छादित बताया गया है। तथा हाथों पर से उत्तरीय के फलक के सबसे ऊपरी भाग पर, मध्य में अम्बिका छोर दोनों ओर लटकते दिखाये गये हैं। नीचे पैरो के के पाराध्य बाइसवें तीर्थङ्कर नेमिनाथ की प्रतिमा है पास उसका वाहन सिंह ३ अंकित था जो अब खण्डित हो जिसके पासन के नीचे शव का चिन्ह है। इस प्रतिमा के गया है पर उसके ऊपर या उसके समीप बैठा हुमा दोनो पोर एक-एक कायोत्सर्गासन मे और एक-एक अम्बिका का पुत्र प्रभंकर४४ अब भी देखा जा सकता है। पद्यामन में तथा अम्बिका के पापर्व की खड़ी पंक्तियों में बड़ा पुत्र शुभंकर४५ उसका संभवतः हाथ पकड़े हुए दूसरे दोनों पोर गज, मश्व मौर मकर की प्राकृतियों के नीचे पार्श्व में खड़ा है। पैरों के नीचे दोनों प्रोर सेविकाए, चार-चार कायोत्सर्गासन प्रतिमाएं हैं जिन पर चिन्हों का बीच में मूति प्रतिष्टापक भक्त युगल और उसके भी दोनों अभाव है। इस फलक पर, इस प्रकार १३ ही तीर्थकरपोर नवग्रहों४६ का अंकन है। ऊपर भामण्डल का कटाव मूर्तियां विद्यमान है पर जैसा कि कहा जा चुका है, क्षेप कमल की पंखुरियों के आकार से मिलता-जुलता होने से ग्यारह मूर्तिया भी अवश्य रही होंगी जो अब खण्डित हो अति मुन्दर बन पड़ा है। भामण्डल के ऊपर जिस प्रतीक चुकी हैं। का अकन था वह पूर्णतः खण्डित हो चुका है, केवल उसके। शासनदेवी-मूर्तियांअम्बिका . जरनल माफ दि यूनिवसिटी पॉफ बाम्बे, इस फलक पर चौबीसों शासन देवियों की प्रतिमाएं भाग १ खण्ड २. उत्कीर्ण की गई हैं; मध्य में मुख्य मूति के रूप में एक (२) जैन, कामताप्रसाद . शासनदेवी अम्बिका और (अविका की), नीचे सिंहासन के पावं मे दोनों मोर दो उसकी मान्यता का रहस्य : जैनसिद्धान्तभास्कर दो, मुख्य मूर्ति के दोनो पाश्वों मे बड़ी पक्तियों में सात (दि. '५४), वर्ष २१, किरण १, पृ. २८ । सात और मुख्य मूर्ति के ऊपर (तीर्थङ्कर मूर्तियो के नीचे) (३) नाहटा, अगरचन्द्र वादीचन्द्र रचित अम्बिका कथा पाच । ये सभी देवियां प्राय' खड़ी और चतुर्भुज हैं, अपनेमार : अनेकान्त (अक्टूबर-नवंबर '५४), वर्ष १३, अपने प्रायुषों से मज्जित हैं और अधिकाश के नीचे उनके किरण ४.५, पृ०१०७)। वाहन भी अंकित हैं। पाश्र्व की दोनों पक्तियों में बायी ४३. कुछ अम्बिका मूर्तियों मे सिंह मासन के रूप में और ओर की देवियों का दाया और दायी भोर की देवियों का कुछ में वह पार्श्व मे खड़ा दिखाया जाता है और बाया पर वण्डित है। सभी देवियां विविध माभूषणों से कुछ में वह अनुपस्थित भी रहता है। अलकृत दिखायी गई है और उनकी भाव-भंगिमा अत्यन्त ४४. यह कभी गोद में और कभी पार्श्व में खड़ा या बैठा भव्य बन पड़ी है। दिखाया जाता है। ___ इन सभी शासन दवियो के आसन पर उनके नाम ४५. यह कभी खड़ा या बैठा दिखाया जाता है और कभी अंकित हैं, जिन्हे सर कनिघम ने इस प्रकार पढ़ा था४७: अनुपस्थित भी रहता है। ऊपर को पांच, बहुरूपिणी, चामुण्डा, पदुमावती, विजया, ४६. जैन स्थापत्य और शिल्प में नवग्रहों का अंकन एक सरासती; बायी पंक्ति में सात-अपराजित, महामानुसी, परम्परागत तथ्य है। इसे हम देवगढ़ खजुराहो मादि प्राचीन स्थानों के अतिरिक्त सागर (बुधुव्या का दि० ४७. ए. पार., ए. एस. आई., जिल्द १, पृ. ३१॥ जैन मन्दिर, बड़ा बाजार) जैसे नवीन स्थान पर भी ४८. यह भी सभव है कि सर कनिंघम ने ही इन्हें पढ़ने में पाते हैं। त्रुटियां की हों। Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ अनेकान्त अनन्तमती, गान्धारी, महामानसी, जालमालिनी, मानुजी; ४. मूर्तियां या तो क्रमश अंकित नहीं की गई हैं दायी पंक्ति में सात-जया, मनन्तमती, वैराता, गौरी, या उनके नाम यथास्थान उत्कीर्ण नहीं किये गये हैं। क्योकि काली, महाकाली, विजंसकला; नीने की चार के नाम या उनका क्रम उपर्युक्त तीनों ग्रंथोंकी नामावली से भिन्न है। तो वे पढ़ नहीं सके है या उन्होंने लिखे नहीं हैं । इन नामों इसके अतिरिक्त श्री नीरज जैन ने भी इन नामों के के माधार पर हम कुछ निष्कर्ष निकालते हैं : संबन्ध में कुछ उल्लेखनीय निष्कर्ष निकाले है,५२ जिन्हें १. उन्हें उत्कीर्ण करने या कराने वाला व्यक्ति यहा उद्धृत किया जाता है :अधिक शिक्षित नही था क्योंकि उसने भाषा सबन्धी अनेक १. प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ की यक्षी चक्रेश्वरी शोचनीय त्रुटियां की हैं।८। को प्रजापति लिखा गया है। यह शब्द प्रायः कुंभकार के २. अनन्तमती का नाम दो बार उत्कीर्ण किया लिए प्रयुक्त होने से चक्र गक भी कहा जाता है और चक्रे. गया है अत: यह स्पष्ट है कि कोई एक नाम, प्रमादवश श्वरी का समानार्थक प्रतीत होता है। छोड़ दिया गया है। २. तीसरे नीथकुर सभवनाथ की शासनदेवी प्रज्ञप्ति ३. यह नामावलि तिलोयपण्णत्ति४६, अपराजित- को बुधदात्री के नाम से दर्शाया गया है। यह भी ममाना. पृच्छा५० और प्रतिष्ठा सारोबार५१ की नामावली से कुछ क नाम है। भिन्न है। ३. पांचवे तीर्थङ्कर सुमतिनाथ की यक्षिणी को ४६. 'जक्खीओ [१] चक्केस्सरि-[२] रोहिणी- पुरुपदत्ता के स्थान पर मानुजा सज्ञा दी गई है जो पर्याय [३] पण्णत्ति-[४] वसिखलया। वाची ही है। [५] वज्जकुसाय [१] अप्पदिचक्केसरि ४. अठारहवे तीर्थङ्कर अरनाथ की यक्षी तारावती [७] पुरिसदत्ता य ।। को विजया लिखा है। श्री रामचन्द्रन ने इस देवी का नाम [ मणवेगा [8] कालीमो तह [१०] जाला- अजिता लिखा है जो विजया से अधिक साम्य रखता है। मालिणी [११] महाकाली। ५. अन्तिम तीयंकर भगवान महावीर की शासन[१२] गउरी [१३] गधारीमो [१४ वेरोटो देवी सिद्धायिका का इम फलक पर सरस्वती नाम स [१५] सोलसा प्रणतमदी ।। स्मरण किया गया है। [१६] माणसि-[१७] महमाणसिया [१८] जया य ६-७. दूसरे तीर्थ र अजितनाथ की रोहिणी का [१६-२०] विजयापराजिदाओ य । नाम इस फलक पर नहीं दिया गया है, परन्तु चौदहवे [२१] बहरूपिणि-[२२] कुभुडी [२३] पउमा तीर्थङ्कर की दवी अनन्तमती का नाम दो स्थानों पर [२४] शिवयिणीमो य ॥' माया है। स्पष्ट हो यह मनाड़ी कलाकार के प्रमाद से तिलायपण्णत्ती, भाग १, महाधिकार ४, गाथा माया ज्ञात हाता है। ५०. 'चतुर्विशतिरुच्यन्ते क्रमाच्छासनदेविकाः ।। [१६] महामनसी च [१७] जया [१८] विजया [१] चक्रेश्वरी [२] रोहिणी च [३] प्रज्ञा [१६] चापराजिता। [v] बचशृखला। [२०] बहरूपा च [२१.२२] चामुण्डाम्बिका [५] नरदत्ता [६] मनोवेगा [७] कालिका [२३] पावती तथा ।। [+] ज्वालमालिका॥ [२४] सिद्धायिकेतु देव्यस्तु चतुर्विशतिरहताम् ।' [6] महाकाली [१०] मानवी च [११] गौरी शुक्ल, डी. एन. : वास्तुशास्त्र, भाग २, पृ. २७१-७२ [१२] गान्धारिका तथा । (पर उद्धृत)। [१३] विराटा तारिका [१४] चवानन्तमतिर च ५१... [१५] मानसी। ५२. अनेकान्त, (अगस्त '६३), वर्ष १३,मक ३, पृष्ठ १०१ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जैन कवि और काव्य (वि० सं० १८००-१६५०) डा०प्रेमसागर जैन मेरे प्रथ-'हिन्दी जैन भक्ति काव्य और कवि, में १. लाला हरयशराय मध्यकालीन हिन्दी के ६० जैन भक्त कवियों के जीवन हिन्दी के जैन कवि साधु थे या व्यापारी। उन्होंने पौर कृतित्व का निरूपण है । उनके भावपक्ष और कला को कुछ लिखा-स्वान्तः सुखाय था। उसे माजीविका का पक्ष पर विचार है, हिन्दी निर्गुण तथा सगुणमार्गी कवियों माध्यम नहीं बनाया। इसी कारण दरबारी कवि बनने से तुलना है और हिन्दी जैन भक्ति काव्य की प्रवृत्तियों से बचे रहे । उनका काम्य भी नायिकामों के नख-शिख का प्राकलन है। यह मेरा शोध प्रबन्ध था और इसके वर्णन में न डूब सका। यह जन कवियो की मानी-जानी द्वारा मैं हिन्दी विद्वानो के समक्ष एक नई दृष्टि और एक विशेषता थी। नया अध्याय रख सका हैं, ऐसा उन्होंने स्वीकार कविवर हरयशराय भी ऐसे ही एक कवि थे। उनका किया है। जन्म लाहौर के समीप कसूर नाम के कस्बे में हुमा था। इस 'प्रबन्ध' का समय निर्धारित था। मैंने उसमें राज्य शान्तिपूर्ण था। प्रतिदिन नये नये उपद्रव होते रहते सीमित रह कर ही कार्य किया। समय-वि०स: १४०० इनका परिणाम कहिए या सजा सबसे अधिक व्यापारी से १८०० तक था। शोध के लिए इतना समय पधिक ही वर्ग को भोगनी पड़ती थी। उन्हें धन और गहने जमीन में है। मैंने उसे पूरा किया। ग्रंथ की भूमिका में मैंने स्वीकार गाडने पडते, मोटा-मोटा पहनना पडता और घर के द्वार किया है कि हिन्दी काव्य का निर्माण वि० सं० ११० से बन्द रखने होते या वहाँ से अन्यत्र भाग जाना पड़ता। प्रारम्भ हुमा एक जैन कवि के द्वारा । वह सतत चलता हरयशराय के पिता ने सब कुछ किया। प्रधिक-से-अधिक रहा । जैन कवि लिखते रहे। उन्होंने जो कुछ लिखा, विपतियां झेलकर टिके रहे। किन्तु दुलंध्य भी कही लाषा उसमें भक्ति का अंश अवश्य था-थोड़ा या बहुत । प्रतः जाता है । अन्त में, कसूर छोड़कर दूसरी जगह जाना ही मध्यकाल में वि० सं०१००० से १६०० तक जैन भक्ति पड़ा। वह स्थान नूतन कसूर नाम से प्रसिद्ध हुमा । अवश्य धारा चलती रही। उस पूरे का परिचय, विश्लेषण और ही कसर रहने वाले अपना जन्मस्थान विस्मृत न कर सके प्राकलन अवश्य है। मैंने शोध ग्रंथ की 'भूमिका' और होंगे. इसी कारण ऐसा इमा । स्थानगत मोह प्रबल होता 'परिशिष्ट' में इसके ठोस संकेत दिये थे। विश्वास था कि है। हरयशराय ने बचपन से ही विपत्तियाँ देखीं। उनका इस अवशिष्ट कार्य को कोई अन्य अनुसन्धित्सु पूरा करेगा मर्म बिंध गया होगा। कविता के तारों में हलन-चलन हुई किन्तु ऐसा न हो सका । मेरे पास अनेक शोधक आते हैं- होगी। उपादान शक्ति पी ही। समय पर फूट पड़ी तो पी. एच. डी. की अभिलाषा में। सभी आसान विषय अजवा ही क्या । कवित्व का यही इतिहास है। चाहते है। एक कवि या ग्रंथ की पाकांक्षा करते हैं। हरयशराय श्वेताम्बर जैन थे। पोसवाल जाति और वास्तविक शोध कार्य को अंगीकार करने में हिचकते हैं। गोत्र गान्धी । किन्तु उनके काव्य से स्पष्ट है कि वे जाति उन्हें डिग्री से प्रेम है शोध से नही । तो यह कार्य में स्वयं और सम्प्रदाय से कहीं ऊपर थे। उनका हृदय शुद्ध था, पूरा करूंगा, इसी विचार से यह लेखमाला प्रारम्भ कर निष्पक्ष और तरल । उन्होंने कभी किसी बन्धन को सहेजा रहा हूँ। क्रमशः चलेगी। पूरी हो ऐसा चाहता हूँ। नहीं। फिर वे जाति के घेरे में बंधने वाले जीव भी नहीं Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ अनेकान्त थे। उनका काव्य मुक्त गंगा सा पावन रहा । अनुभूतियाँ धर्म पर प्राधत है, वैसे ही रायचन्द्र का सीताचरित और तरंगों-सी उठीं और एक लचक के साथ अभिव्यक्त हो लालचन्द का लब्धोदय का पडिनीचरित जैनधर्मसे सम्बपड़ती। व्यापारी होते हुए भी उनकी अभिव्यक्ति संस्कृत- धित है। जैसे मुरसागर वैष्णवभक्ति से प्रोतप्रोत है वैसे ही निष्ठ, मंजी, निखरी होती। स्पष्ट था कि स्वत: अध्ययन भूधरदास. द्यानतराय, देवाब्रह्म प्रादि के पदों में जनभक्ति के बलपर हो या शिक्षा के आधार पर, उन्हें संस्कृत और का स्वर प्रबल है, किन्तु इतने मात्र से एक पक्ष को तो प्राकृत भाषानों का अच्छा ज्ञान था। प्रारम्भिक भाग- साहित्य की कोटि मे गिना जाय और दूसरे को निष्कासन दौड़ के मध्य विधिवत शिक्षा तो क्या मिली होगी, हो मिले उचित नही है। सकता है कि घर के सुसंस्कृत अध्ययनशील वातावरण का लाला हरयशराय ने देवाधिदेव रचना, देववाणी और उन पर प्रभाव हो। उनकी शिक्षा-दीक्षा के सम्बन्ध में साधु गुणमाला का निर्माण किया था। पहली मे ८४५, कोई प्रमाण नहीं मिलता। हिन्दी के अनेक जैन कवि । दूसरी में ५५६ और तीसरी मे १२४ छन्द हैं। इनमें ऐसे हुए हैं जिन्होंने घर पर रह कर ही प्रारम्भिक शिक्षा दोहा, कवित्त, सवैय्या छप्पय, दुमल और मरहटा आदि पाई फिर मन्दिरों में प्रतिदिन के स्वाध्याय और प्राध्यात्मिक गोष्ठियों में सतत सम्मिलित होते रहने से विद्वान छन्दों का प्रयोग हुआ है। ये तीनों कृतियां भक्ति से सम्बन्धित हैं। पाराध्य हैं तथा कवि बने । हरयशराय भी इसी भांति जैन अथ पढ़ जिनेन्द्र प्रभु जो नितान्त वीतरागी हैं। उन्हें किसी वस्तु कर और शास्त्र प्रवचन सुन-सुनकर सस्कृत-प्राकृत भाषामो की चाह नहीं, उनमे से राग-द्वेष निकल गये हैं। वे सर्व के जानकार हो गये हों तो आश्चर्य नहीं है । कुछ भी हो, ज्ञाता और सर्वदृष्टा हैं, किन्तु कर्ता नहीं। जैनभक्त उनकी शब्द शक्ति अपार थी। उस पर अधिकार था। अनुभूति को शब्द चित्रवत उतार दे, यही काव्य की यह जानता है कि उसका माराध्य कुछ भी देने में समर्थ सहजता है। वह उनमें थी। नहीं है, फिर भी वह उसकी भक्ति करता है, केवल इस लिए कि उसके अपने भाव वीगगता की पोर उन्मुख कवि हरयशराय का रचनाकाल सुनिश्चित रूप से होगे। इसके अतिरिक्त उमकी कोई अभिलाषा नौं होती। ईसा की १६ वीं शती का प्रारम्भ माना जाना चाहिये । उसकी भक्ति नितांत अहेतुक थी, अकारणिक थी। वह उनकी देवाधिदेव रचना वि० सं० १८६० में और साधु अपने पाराध्य के केवल पात्मिक गुणों पर ही रीझा है। गुणमाला १८६४ में पूर्ण हुई। इसका तात्पर्य है कि उनका जन्म ईसा की १८ वीं शती के अन्तिम पाद मे इन्ही गुणों के बल पर उसका पाराध्य विश्व में व्याप्त है और अव्याप्त भी। वह समूचे विश्व को देखने की सामर्थ हुना होगा । यह गौरव की बात है कि पंजाबी होते हुए रखता है, इसलिए व्यापक है, किन्तु स्वयं "विनानन्द' होने भी उन्होंने काव्य-सृजन हिन्दी में किया। इतना सच है कि उनके काव्य पर पंजाबी और राजस्थानी का प्रभाव है। के कारण उनमे नितांत भिन्न भी है। उसमे विश्व का भाषा में प्रवाह और गतिशीलता है। अनुप्रास, उपमा, व्यापकाव्यापकत्व भाव है। वह उसकी अनेकांत परम्पराके उत्प्रेक्षा तथा दृष्टान्त प्रादि अलंकारों की छटा सहज और __ अनुकूल ही है। स्वाभाविक है। उनकी परिगणना हिन्दी साहित्य के मंजे "सर्व को देख रहे संभ व्यापक कवियों में होनी ही चाहिये। जैन कवियो के द्वारा रचित सर्व तें भिन्न विवानन्द नामी। हिन्दी साहित्य का भावपक्ष उत्तम है तो बाह्यपक्ष भी लोकमलोक विलोक लयो प्रभु परिमाजित है। उसमे रसधार है तो प्रलंकार-निष्ठता भी। श्री जिनराज महापद कामी। फिर भी ऐसे जैन उपदेश और प्रचार-प्रधान कह कर प्रातम के गुण साप वि भुवि अस्वीकार किया जाता है। जैसे, रामचरितमानस वैष्णव सेवक बंदत है हचि पामी।" (देवाधिदेव रचना-पद २६ वां) १. देखिये दोनों ग्रन्थों की अन्तिम प्रशस्ति । जो भव-पीड़ को नष्ट कर चुका, भव से जिसका Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्बी बन कवि और काव्य सम्बन्ध नहीं, जो भव के मुख्य गुण राग-द्वेष मुक्त है, वह लोकन छन्द में उकेरा है। साथ में यमकालंकार की छटा भव पर करुणा करे और उसके सहारे जीव संसार से तर कवि के काव्य-नैपुण्य की प्रतीक है। इन्द्र के साथ कुमारी जाये, एक विचार का विषय है। यह सच है कि कर्तस्व देवांगनाएँ हैं। उनका रूप-यौवन अनुपम है। देवकुमारों के नितान्त प्रभाव में जिनेन्द्र करुणा क्या; कुछ भी कर के साथ वे ऐसे शोभा दे रही हैं, जैसे वस्त्र पर प्राभूषण सकने में समर्थ नहीं है। किन्तु फिर भी उनसे एक ऐसी दमकते हैं। दोनों साथ-साथ नाना कौतुक रचते हैं, खेल प्रेरणा मिलती है, जिससे यह जीव स्वत: संसार से तर खेलते हैं। उनके चित्त जिनेन्द्र की भक्ति से स्फुरायमाण जाता है। भव-पीड़ा को नष्ट करने की उपादान शक्ति होकर मानन्दोलसित हैंउस में मौजूद है, उसी से वह तरता है। कोई किसी को "कुमारी सुकुमार मार रत जिम पढभूषण मोदमई। तारता नहीं-भगवान भी नही। किन्तु जो तर चुके हैं खेले मिल खेलखेल कौतुक के कौतुक विष नर लोक भई। या तरने के पथ पर अग्रगामी हैं, उनसे प्रेरणा तो मिलती नरसिंहपुर पूर संखोत्तम उत्तम झालर भरितुरी।। ही है । इसी को सब कुछ मान कर जैन भक्त भक्ति-भरे सुरगण उलसंत शांत समके चित्त चित्त मो जिणवर भक्ति गीतों का सृजन करता है। उसकी रचनामो का बाह्य रूप फुरी॥५॥ अजैन भक्तों की कृतियों के समान ही होता है। किन्तु गंधर्व गाते है, नटदेव नाचते है। घटा-से घणघोर पृष्ठभूमि में सैद्धान्तिक भाव-धारा का मोड़ भिन्न होता ध्वनि निकलती है। ढोलक ढमक रही है। पैरों मे पड़े है । जो इसे नहीं समझता वह जैन भक्ति को भी नहीं घंघरू छन-छन कर बज रहे है। यहा कवि का शब्द. समझता । लाला हरयशराय ने लिखा है कि- लालित्य ध्वनियों को भी साकार करने में समर्थ प्रमाणित पाप तरे बहु तारत हैं प्रभु, श्री जिनदेव जिनव सुजाने। हुमा है। ऐसा प्रती। होता है कि कवि का शब्दो पर सेवक बंदत है कर जोर, करो मुझ पार क्यानिष दाने१॥ एकाधिकार था। वह दृश्य देखिएइसका अर्थ स्पष्ट है-सुजान श्री जिनदेव स्वयं तरे और "गावे गंधर्व सर्वस्वरपूरण पूरण विष गुणग्राम करें। दूसरों को भी तारा । सेवक हाथ जोड़ कर वन्दना करता नाचे नटदेव देवचरण रच रच नाटक मटरूप पर। है कि हे दयानिधि ! मुझे भी पार कर दो। ऐसा प्रतीत घंटा घनघोर घोर घटर विखढोलकवर ढोलरमै । होता है जैसे भक्त की वन्दना से दया-द्रवित हो श्री जै छगतकत बन छनछिन छिन प्रभूषगदेवनमै।६०॥" जिनेन्द्रदेव उसे भव-समूद्र से पार लगा देंगे। यदि ऐसा देवगणों ने भाति-भाति के नाटक और स्वांगों की हमा तो जैन सिद्धान्त के विरुद्ध होगा। वह हो नहीं रचना की। राग रागनियो मे सधा उनका गायन भी सकता। जिनेन्द्रदेव ऐसा कर नहीं सकते। उनके साथ भक्ति-पूर्ण था । उसमे लय-तान भी और भाव विभोरता 'कृ' धातु का सम्बन्ध ही नहीं है। किन्तु उनसे प्रेरणा भी। रास, नाटक, स्वांग, गायन, वादन और नृत्य-भक्ति ऐसी मिलती है कि जैन भक्त स्वतः पार होने के प्रयास के प्रमुख अंग रहे हैं। जैन परम्परा ने उसे भली भांति में लग जाता है। यति वह स्वतः के प्रयत्न से तर अपनायी। आज से नहीं, बहुत पहले से । उसे लेकर जायेगा; किन्तु प्रेरणा तो जिनेन्द्र से मिली, इसी कारण मध्यकाल में विकृति पाई, बढ़ चली, किन्तु कुछ प्राचार्यों वह उनके प्रति कृतज्ञ है। और इसी करण स्वतः की के सुदृढ़ प्रतिरोध से वह गतिहीन हो गई। मैंने अपने प्रथ उपादान शक्ति का फल भी उनके चरणों की कृपा मानता 'जैन भक्तिकाव्य की पृष्ठभूमि' में इन मगों का तारतमिक है। ये गीत इसी भावधारा की देन होते हैं। इतिहास देने का स्वल्प प्रयास किया है। वैसे केवल इनको कवि मे चित्रांकन की प्रभूतपूर्व क्षमता है। भगवान लेकर ही एक पृथक अन्य की रचना हो सकती है। यहा जिनेन्द्रदेव समवशरण में विराजे हैं और इन्द्र सदलबल लाला रयशराय ने एक पद्य मे उसका उल्लेख किया हैउनके दर्शनार्थ पा रहा है। कवि ने उसका चित्र सिंहाव. 'बत्तीसो भात भांत भांतन के नाटक स्वांग मनप करें। प्रजोत aa १. देवाधिदेव रचना, ४४वा पद्य । गावे समराग रागिनी संयुत संयुत मुरछा ग्राम पर । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५० अनेकान्त बेजिन चित्र चित्रनानाविध नानाविध सुररिखिये। और शायद इसीलिए किसी कवि ने 'कवि कौन है' को जिनवर सर्व सर्ववर्ती प्रभु अपना विषय नहीं बनाया। किन्तु लाला हरयशराब ने प्रभु समाधि विर चित्त भये ॥६॥" इसका उत्तर दिया है। लालाजी भक्त कवि थे, अत: देवरचना लालाजी के हृदय की देन है। वह भक्ति भक्ति के परिप्रेक्ष्य में ही उनका उत्तर है। इस परिप्रेक्ष्यता का तो निदर्शन ही है। जिनराज को केवलज्ञान हमा तो के होते हुए भी उनकी मान्यता सर्वांगीण है। उनका उसके 'महोछव' में सम्मिलित होने के लिए करोड़ों सुर. कथन है कि कवि वह है जिसकी वाणी महात्मा-साधुनों बन्द चल पड़े। हवय मानन्द से उमगे पड़ रहे थे। कोई का गुणानुवाद गाये बिना न रहे। महात्मा का पर्व है हँस रहा था, कोई सिंहनाद कर रहा था, कोई गरज रहा महान प.त्मा का धनी । महान प्रात्मा वह है जो संसार था। कोई एक-दूसरे से मिल कर मुसुकुरा उठा तो किसी के पावागमन से छूट गई हो, चिरन्तन शाश्वत सुख मेहास-विलास में ही पित्त लगाया । इस मांति महोत्सव का अनुभव करने लगी हो अथवा उस पथ पर चल ही का रंग तब पर सवार था। अभी बिमराज के दर्शन हुए पड़ी हो। कवि वह ही है जो उसके गुणों में विभोर हो नहीं थे, किन्तु जैसे बाताबरण एक अदृश्य शक्ति से रस- फूट पड़े। लाला जी ने अपनी यह मान्यता दृष्टान्तालंकार भीना हो उठा था। जब कोई प्रात्मा परमात्मा बनती है के मध्य ऐसी सजायी है कि 'कवि' साक्षात् हो उठा हैतो सृष्टि के जड़ और चेतन सभी पुलकित हो उठते है। "जिम केतक बलके महिके, अलिके चित्तके मटके बहिके। नता भर जाती है और एक अनिर्वचनीय सुख व्याप्त मधुके इतके, बनके, सरके, पिक केम चुके विनके लबके। हो उठता है। देवगण उसी दिव्य शक्ति के तार में बधे घनके घटके स्वरके सुमके, किम केकि चुके नृतके लटके। चले जा रहे हैं खगके रमके किवके तुटिके, कवि केम चुके स्तबके कथके।"१ "केवल ज्ञान प्रकास भयो सम इनामहा महिमा हितमाए। होह विनीत लगे चरणों कर जोर टिके चित भक्ति भराए॥ इसका अर्थ है कि जिस प्रकार केवड़े की पत्तियों की न पियूष सुपर्म कथा सुख-दायक श्री विनराज सुनाए। महक में भौरा बैठे बगैर नहीं रहता, जैसे वसन्त ऋतु में जीब-अजीव पवारण निश्चित, बन के बीच प्राम की मञ्जरी को खाकर कोयल के लोक-प्रलोक के भेवबमाए ॥१३॥" बगर नहीं रहती, जैसे मेघों की गर्जन सुन कर मयूर कवि कौन है ? अर्थात् कविको परिभाषा क्या है ? प्रमत्त नृत्य के बिना नहीं रहता और जैसे व यु के वेग वान प्रवाह में ध्वजा हिले बिना नही रहती, ठीक वैसे ही या कवि किसे कहते है ? काव्य के क्षेत्र में एक प्रारम्भिक महात्मामो का गुणगान किए बिना कवि की वाणी भी और महत्वपूर्ण प्रश्न है । इसका साहित्यशास्त्र के अनेकानेक भाचार्यों ने अपने अपने ढंग से उत्तर दिया है। वे नही रुकती। फूट पड़ती है। उसके शक्ति-सम्पन्न वेग को प्राचार्य कवि नहीं थे, केवल प्राचार्य थे। उन्होने काव्य वह रोक नहीं पाता। यदि शैले के शब्दों में कहें तो उसका हार्ट 'माउट बर्स्ट' हो जाता है । महान पात्मामो सिद्धान्तों का प्रणयन किया था किन्तु स्वयं कविता नही के गुणों पर रीझ कर जिसका दिल नहीं फटा वह भी की थी। वे अधुरे थे। काव्य सिद्धान्तों को बांध में नहीं कोई कवि है। मम्मट के शब्दों में उसे सदय होना ही बाधा जा सकता है । न उस परतन्त्रता को उसने कभी चाहिए। लाला जी ने उसी को कवित्वमयी भाषा मे सहेजा। जब-जब उसमें बंधा, एक अस्वाभाविकता से घिर गया है। स्थायी नहीं हो सका। प्राचार्यों का प्रयास जो देह ऊपर से दिखाई देती है, वह जीव नहीं है । सदैव एकांगी रहा । यही कारण है कि 'कवि कौन' का जीव तो 'मातम राम' है। वह अखण्ड है, अबाधित है उत्तर कभी सर्वांगीण नहीं हो सका । 'खग की भाषा खग ही जाने' की भाति 'कवि की भाषा कवि ही जाने ठीक मोर ज्ञान का भण्डार है। उसका रूप चिदानन्द है। है । पहले के कवि साहित्यशास्त्र की बात नहीं करते थे। १. माधुगुणमाला, १०वा पद्य । Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी गरिमौर काव्य साधु महात्मा सदैव ऐसा सोचा करता है। इसी कारण न ईश्वर हो, न नि:स्व हो, न तरुण हो, न वृद्ध हो। वह समता में विश्वास कर पाता है। वह न तो अपना इन सबसे परे हो, ऊपर हो, मूत्ति-विहीन हो, अमन हो, सन्मान और पूजन चाहता है और न अन्य के द्वारा की प्रनिन्द्रिय हो, परमानन्द स्वभाव हो, नित्य हो, निरन्जन गई अपनी निन्दा का बुरा मानता है। वह बन्दन पोर हो, जो कर्मों से छुटकारा पाकर ज्ञान-मय बन गया हो, विन्दा दोनों में सम्भाव रखता है। उसका मोह न इस जो चिन्मय हो, त्रिभुवन जिसकी बन्दना करता हो। लोक में होता है और न परलोक में। यहां परलोक का इसी प्रातमराम को ब्रह्म कहते है। हरिभद्राष्टक में लिखा अर्थ है-स्वर्गलोक । जैन परम्परा में १६ स्वर्ग माने गये है, "प्रतीन्द्रिय परं ब्रह्म विशुद्धानुभवं बिना । शास्ण-युक्ति हैं। सच्चा साधु स्वर्ग का वैभव और सुख सम्पन्न जीवन शतेनापि, न गम्यं यद् बुधा जगु.३ ।" अर्थात् ब्रह्म, भी नहीं चाहता। वह तो 'पातमराम' के महारस को प्रतीन्द्रिय होता है और विशुद्ध अनुभव के बिना उसकी चाहता है। ऐसा अनिर्वचनीय और शाश्वत प्रानन्द जो प्राप्ति सम्भव नहीं है। जैन श्रुतियों में प्रसिद्ध है, "परं कभी न घटे न बढ़े न मिटे, न बने, न मरे न जीवे । सब सत्यज्ञानमनन्तं ब्रह्म४।" लाला हरयशराय इस समूची से ऊपर हो । जो इसे पा लेता है, उसके वन्दन की बात परम्परा मे खरे उतरते हैं। उन्होंने साधुगुणमाला में परम्परा मे खरे उतरते हैं। लाला हरयशराय ने कही है लिखा है"है घट प्रातमराम महारस, "मातमराम अनप प्रमुरत, पादिप्रनावि अनन्त विलासी। ते मुनि बन्दि मिटे भव फेरी।"१ चेतन अङ्गमभङ्ग चिदानन्द, रंग न रूपमई गुणराशी। जिस 'पातमराम' मे महारस है, उसका स्वरूप भी व्यापक ज्ञायक नत्य विराजत, लाला जी ने प्रस्तुत किया है। उनका कथन है कि सो पिर ध्यानविर्ष अविनाशी ॥६॥" 'पातमराम' अनूप है, प्रमूत्तिक है, प्रादि अन्त रहित है, प्रात्मा के लिए 'राम' शब्द का प्रयोग मध्यकालीन अनन्त में विलास करने वाला है। वह अभङ्ग है, चिदा- है। लाला हरयशराय से पूर्व हिन्दी के प्रसिद्ध कवि नन्द है। उसके न रूप है, न रग। वह व्यापक, ज्ञायक बनारसीदास, भगवतीदास, भैय्या', द्यानतराय, देवाब्रह्म, पौर चिरन्तन है। नाश तो उसका कभी होता ही नहीं, जगतराम, मनराम, ने प्रात्मा के लिए 'राम' शब्द का अर्थात् अविनाशी है। प्रात्मा का यह स्वरूप जैन सिद्धान्त प्रयोग किया है। अपभ्रश के कवि निरञ्जन, चिदानन्द, निष्कल, निर्गुण, ब्रह्म और शिव कहते रहे। मुनि राम के अनुरूप ही है। महाकवि योगीन्दु ने 'परमात्म प्रकाश' सिंह ने पाहुड दोहा में केवल एक स्थान पर 'राम' शब्द मे पातमराम को निरञ्जन कहा। उन्होंने लिखा है का प्रयोग किया है। प्राचीन जैन पारम्परिक काव्य में "जिसके न वर्ण होता है, न गन्ध, न शब्द, न स्पर्श, न 'ब्रह्म' और 'निरञ्जन' शब्द अधिक देखने को मिलते हैं। जन्म और न मरण, वह निरञ्जन कहलाता है३।" पर हिन्दी में निर्गुण पंय के कबीर ने 'राम' को ही अपना मात्मप्रकाश में ही एक दूसरे स्थान पर उन्होंने स्पष्ट आराध्य बनाया; किन्तु वे दशरथ-पुत्र नहीं थे। अर्थात्. किया है कि परमात्मा को हरि, हर, ब्रह्मा, बुद्ध जो चाहे उन्होने निर्गुण ब्रह्म को राम कहा। उनकी रचनामों में सो कहो, किन्तु परमात्मा तभी है, जब वह परम प्रात्मा स्थान-स्थान पर 'राम' शब्द देखने को मिलता है। उनके हो। और परम प्रात्मा वह है जो न गौर हो, न कृष्ण लिए यह सहज स्वाभाविक हो सका। वे रामानन्द के हो, न मूक्ष्म हो, न स्थूल हो, न पण्डित हो, न मूर्ख हो, १. परमात्मप्रकाश, १२९६, ९१, पृ० ६०,९४| १. वही, ६३वे पद्य को अन्तिम पक्ति । २. वही, १११३१, २०१८, पृ० ३७, १४७ । २. माधुगुणमाला, ६३वा पद्य । ३. अभिधान राजेन्द्रकोश, पञ्चमो भाग, बंभ शब्द ३. परमात्म प्रकाश, १३१६, पृ० २७ । पृ० १२५६ । ४. परमात्म प्रकाश, २१२००, पृ० ३३७ । ४. देखिए वही। - ---- ---- -- -- Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त शिष्य थे। वहां से उन्हें राम मिला। नाथपथियों और प्रर्यालङ्कारों में लालाजी को सबसे अधिक प्रिय था सूफियों से प्रदृष्ट ब्रह्म । दोनों मिल गये तो ब्रह्म राम हो दृष्टान्तालङ्कार। प्रभीष्ट कथ्य को स्पष्ट करने के लिए गया। मैं जहां तक समझ सका हूँ, हिन्दी काव्य को दृष्टान्त उसके अन्तः तक को खोलते चले जायं, तभी 'पातम' के लिए राम शब्द कबीर ने दिया। कबीर के उनकी सफलता है। ऐसा वह ही कवि कर पाता है बाद राम शब्द का इस अर्थ मे मधिक प्रयोग हुना, इतना जिसकी दृष्टि व्यापक और पकड़ पैनी होती हो। लाला भर मेरा तात्पर्य है। जैन प्राध्यात्मिक कृतियों (हिन्दी) हरयशराय ऐसे ही कवि थे। बनारसीदास के बाद मुझे में भी राम शब्द कबीर के बाद ही अधिक देखने को वह ही मुझे इसे क्षेत्र में सिद्धहस्त प्रतीत हुए। जहां लाला मिलता है। किसका किस पर प्रभाव था, यह एक पृथक जी के दृष्टान्त अधिकाश तया प्रकृति के बीच से लाए गये खोज का विषय है। यहां तो इतना ही पर्याप्त है कि वहां बनारसीदास ने व्यावहारिक जीवन को अधिक लाला हरयशराय ने 'राम' शब्द का खुल कर प्रयोग टटोला । यह हो दोनो मे अन्तर था, वैसे दोनों के दृष्टान्त किया। उनकी दृष्टि में कबीर न होंगे, यह सत्य है, किन्तु अपने लक्ष्य पर फिट बैठे है। और ऐसा करने में कोई उनके पहले जैन हिन्दी के कवियों की एक लम्बी परम्परा कठिनता नहीं हुई। सब कुछ सहज स्वाभाविक ढग से थी, जिसमें प्रात्मा को राम कहा गया था। लाला जी ने हा। वे प्रयत्न-पूर्वक नही लाये गये । इसी कारण उनमे उसे वहां से ही लिया होगा, यह ठीक है। सहज सौन्दर्य है । एक उदाहरण देखिए___शब्दामबारों में 'यमक' और 'अनुप्रास' लाला जी "कोन गिर्ने घन बूंदन को, बन पत्र पयोधि तरंग बनावे। को प्रियतम हैं। उनकी छटा से शुष्क सैद्धान्तिक बात भी कौन गिनें कर लि सों, उरबी, गिर मेहको तोल दिखाये। ललित हो उठी है। वर्णनात्मक प्रसंग भी चमक उठे है। कौन तरे भुजसों रतनाकर, अम्बर में उड़ अन्त सुनावे । देवलोक, देवगण, समोशरण प्रादि का पौराणिक वर्णन भी श्रीगणसागर साधु अगाध, कहां कवि अपनी बृद्धि लगाये।" कर उनकी लेखनी में पाकर कवित्व बन गया है। साथ ही x x x x कठिनता भी माई है, किन्तु संगीत की लय और कविता "चन्द्र कि चाह चकोर चहै, दिननाथको कोक उड़ीक रहे हैं। के प्रवाह ने उन्हें केशव की भांति 'कठिन काव्य का प्रेत' न विर्ष बछरी हित पारत, बालक मात को मेल चहे हैं। बनने से बचाया है। फिर भी इतना मानना होगा कि रीत मालति सों लपटाय रहे अलि, चातक मेघ सों मोद लहे हैं। काल की अलङ्कार-प्रियता का उन पर जबर्दस्त प्रभाव है। साधु महामुनिके पग को हित सेवक चित्त प्रपार गहे हैं ।"२ जैन हिन्दी का अन्य भक्ति काव्य ऐसा अलङ्कार-मय नही है, उसकी भक्ति सहज है तो अभिव्यक्ति भी प्रासान है। इस दृष्टि से वह हिन्दी के भक्तिकाव्य जैसा ही है। लाला पारसदास का जन्म जयपुर में हुआ था। उन्होंने हरयशराय ने अपने काव्य को समय के प्रभाव से बचाया, जान सूर्योदय नाटक की वचनिका में अपना परिचय दिया किन्तु उसकी अभिव्यक्ति नही बचा सके। समय प्रबल है। उस समय जैपुर 'सवाई जैपुर' के नाम से प्रसिद्ध था। होता है और लेखक या कवि को किसी-न-किसी रूप मे उसका दूसरा नाम 'ढुढाहड' भी था । वास्तव मे 'बढाहर्ड' प्रभावित करता ही है। अनुप्रास के लिए कठिन बनाये एक देश था और जयपुर उसका मुख्य नगर । उसके एक गए एक पद्य को देखिए, जिसमें साधू-भक्ति है, किन्तु भाग मे 'ढुढाहडी' भाषा चलती थी। जयपुर में भी दुरूहता के बोझ से बोझिल उसके बोलने वालो की पर्याप्त संख्या थी। कुछ कवियों "तियके सुतके मितके बनके, नरके न चुके न उके छलके। ने उस नगर को ही 'दुढाहड' देश लिखा है। दुढाहडी सुरके नरके सुलके लजके, पटके न टिके शिवके पलके। भाषा मे अच्छे स हित्य की रचना हुई। ५० टोडरमल जिनके तपके बलके झलके, झषके तुलुके हटके टलके। को कृतियो में उसके निखरे हुए रूप के दर्शन होते हैं। तिनके पगके ढिगके तनके, सुरके शिरके मणिके झलके१॥" उस समय जयपुर में ६ हजार जैन मौर ९४ हजार १. साधु गुणमाला, ७७वा पद्य । २. साधु गुणमाला, पद्य क्रमशः ११६, ११५ । Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जन कवि और काव्य अन्य जातियो के घर थे। अर्थात् एक लाख घर की समय पर हई। उनमें 'उपदेश-पच्चीसी' पर रचना 'भाबादी थी। अतः जन-सख्या एक लाख से अधिक ही काल-वि० सं० १८६७, ज्येष्ठ शुक्ला १५ दिया हमा होगी। ऐसा भग हुमा नगर था। अवश्य ही इसका है। इससे इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि उनका कारण वहां का सुशामन होगा, साधारण जनता अपने निर्माण कार्य वि० सं० १९६७ से १९२० तक प्रामाणिक संरक्षण की चिन्ता से निश्चिन्त होगी और प्राधिक दशा रूप से चलता रहा । 'पारस विलास' के बाद भी उनकी सुन्दर होगी। पारसदास के अनुमार' जयपुर के महाराजा गति रुकी नहीं। यह उनके कथन से ही सिद्ध है। उन्होंने रामसिंह थे। वे न्याय-पूर्वक राज्य करते थे। प्रजा के लिम्बा है-"उनीसे अरु बीस के साल पछै जे कोन । ते शुभ कर्म का उदय था। वह 'खुस्याल' थी, अर्थात् धन- याके वारे रहे वांची मुनो प्रवीन ॥" प्रत. अनुमान किया धान्य से पूर्ण थी। कोई कमी नही थी। जा सकता है कि उनका जन्म १९वीं शताब्दी के तीसरे जयपुर मे १०. जैन चैत्यालय थे। उनमे एक शान्ति- पाद के प्रारम्भ में हुमा होगा। इनके पिता पं. नन्दलाल जिनेश का मन्दिर 'बड़े मन्दिर' के नाम से प्रसिद्ध था। के सहपाठी थे। मूलाचार की ५१६ गापामों की बनिका वहां तेरापंथ' की अध्यात्म सैनी चलती थी। अर्थात् वहा लिखने के उपरान्त पं० नन्दलाल का स्वर्गवास हो गया प्रतिदिन एक गोष्ठी होती थी, उसमे मध्यात्म-चर्चा पोर था, तब उस कार्य को ऋपभदास जी ने ही पूरा किया पठन-पाठन ही प्रमुख था। गोष्ठी मे 'नाटक-त्रय' सदेव था। उसकी प्रशस्ति उन्ही ने लिखी, जिसमे नन्दलाल पी पड़े जाने थे। उनके अतिरिक्त और किसी ग्रन्थ का को उनके पिता जयचन्द छाबडा के समान ही व्युत्पन्न पाठन नही होता था। नाटक-त्रय पाज भी अध्यात्म के बताया है। किन्तु मूलाचार की अवशिष्ट वनिका से प्राण है। यह क्रम प्रात: और सध्या दोनों समय चलता सिद्ध है कि ऋषभास जी भी उन्हीं के समान विज्ञान था। परिणाम यह ना कि सभी श्रोता तत्वज्ञान के थे। नन्दलाल और ऋपभदास दोनो ने एक साथ अपचन्द जानकार हो गये। पारसदास भी उनमे एक थे। कुछ जी से विद्या ग्रहण की थी। दोनो समकालीन थे। दोनों लगन विशेष थी, प्रतः अच्छा ज्ञान हो गया। यहा तक का रचना-काल १९वी शताब्दी का ततीय पौर चतुर्थ कि अब शास्त्र वे ही पढ़ने लगे और सब सुनते थे। पारस पाद मुनिश्चित है। प्रतः पारसदास का समय चतुर्ष पाद दास के दो भाई मानचन्द और दौलतराम भी जैनशास्त्रो के अन्त से प्रारम्भ होना स्वाभाविक लगता है। के मर्मज्ञ थे। उनका नाम विख्यात था। सभी भाई जैन पारम विलास' इतना प्रसिद्ध हमा कि पारसदास के र बन सक, क्याकि उनक पिता जीवन काल में ही सर्व साधारण के बीच इसका पठनऋषभदास जी स्वय विद्वान थे और अपने पुत्रो की शिक्षा-पाठन होने लगा। उसकी अनेक हस्तलिखित प्रतिया दीक्षा उन्होंने स्वय की। वे सजग रहे और उनके पुत्र मिलती हैं। उनमें दो को मैंने देखा है। एक दिन व्युत्पन्न बन सके। पन्चायती मन्दिर बड़ौत के शास्त्र भण्डार में है और उनमे पारसदास विद्वान बने मौर कवि भी। उन्होने दूमरी जयपुर के किसी भन्डार मे मैंने देखी थी। इस 'पारस विलास' की रचना की। यह वि. स. १९१९-२० __समय बडीन की प्रति मेरे सामने है। इसमें ८x१३ इञ्च के लगभग पूर्ण हुमा२। इसमे उनकी रची हुई 'पन्त की के १०४ पन्ने हैं। लिखाई स्वच्छ, सुन्दर और शुद्ध है। पीठिका' के अतिरिक्त ४. मुक्तक रचनाएँ है। उन सब का नाम और सन-संवत प्रादि-प्रत मे कही की रचना एक ही समय मे नही हो गई थी, अपितु समय नही दिया है। बुहारी हिन्दी होते हुए भी लिपि में कोई १. इम परिषय के लिए देखिए पारसविलास', दि.जैन प्रवद्धि नही है। अवश्य ही, लिपिकर्ता उपर का होना पञ्चायती मन्दिर, बड़ौत की हस्तलिखित प्रति, चाहिए। ऐसा लगता है कि यह प्रति पारसदास बी के अन्तिम पीठिका, पृ.१०४। जीवनकाल में लिखी गई हो। यह तो सुनिश्चित है कि २. देखिए वही। लिपिकार कोई न था। Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ अनेकान्त जिस समय पारसदास का जयपुर मे जन्म हुमा, वहां ही नही । हिन्दी को प्राय व नकाएँ ऐसी ही थी । उन्हे का वातावरण टीकामों, वृत्तियों, भाष्यो और वचनिकामों यदि हम प्राधा अनुवाद मूल ग्रन्थ का और भाषा संस्कृत का था। प. बंशीधर, टोडरमल, जयचन्द छाबड़ा, नन्द- वृत्ति का कहें तो ठीक ही होगा। कम-से-कम उनसे लाल, ऋषभदास, रामचन्द आदि इसी क्षेत्र के ख्यातिप्राप्त वचनिकाकार के अपने बहु अध्ययन, बहु श्रुतता, बहु व्यक्ति थे। टीका और वचनिकाएं ढुढारी हिन्दी में लिखी अनुसन्धान और बहु तुलनात्मक दृष्टिकोण की छाप तो जाती थी। दोनों में एक ज्ञात अन्तर था। टीका में मूल नहीं पडती । संस्कृत वृत्तियों की तुलना में वे अधकचरीअन्य के विचार और शब्दों का अनुवाद-भर होता था। सी दिखाई देती हैं। टीकाकार अपनी प्रोर से कुछ घटाने या बढ़ाने को स्वतन्त्र इस सन्दर्भ में जब हम पारसदास का प्राकलन नही था । वचनिका में अनुवाद तो होता ही था, साथ में , • करते है तो कहना होगा कि वे विद्वान नही कवि थे। विश्लेषग भी रहता था। वहा वचनिकाकार अपना मत उनका 'व्याख्याकार' नहीं, अपितु अनुभूति वाला जीव भी स्थापित कर सकता था। प्रबल था। अत: उन्होंने केवल ज्ञानसूर्योदय नाटक और हिन्दी की वनिका संस्कृत मे 'वत्ति' नाम से अभि- 'चविंशतिका' को वनिका रची। एक रूपक है, दूसरी हित होती थी। रूप विधान दोनो का एक था, केवल भक्ति की मुक्तक कृति । दोनों में कवि मुखर है। पहला भाषा का अन्तर था। ब्रह्मदेव ने 'बृहद्रव्य संग्रह' की गद्य में है और दूसरी पद्य में। हिन्दी का प्राचीन गद्य संस्कृत में वृत्ति लिखी है। वह अध्यात्म-परक है, जबकि जन ग्रन्थों को टीकाओं और वनिकायों में ही मिलता द्रव्यसंग्रह द्रव्यानुयोग का ग्रन्थ है। ब्रह्मदेव ने उसे स्पष्ट है। इस दष्टि से वह हिन्दी साहित्य को एक महती देन रूप से प्रध्यात्मशास्त्र कहा है। द्रव्यसंग्रह की गाथाएँ है। पारसदास की ज्ञानसूर्योदय नाटक की वचनिका इसी माघार-भर हैं, बाकी सब कुछ ब्रह्मदेव का अपना है। रूप में महत्त्वपूर्ण है । वैसे, नाटक या काव्य की वचनिका ब्रह्मदेव की वृत्ति ने मून ग्रन्थ को नये ढाचे मे ढाला है। में वचनिकाकार के लिए अपना देने को कुछ नहीं होता। उसे एक पृथक स्वतन्त्र अन्य कहना चाहिए। पेंनीसवीं वह मलग्रन्थ की अनुभूति को अपनी भाषा में ठीक वैसा गाथा पर उनका ५० पृष्ठों का व्याख्यान ही पृथक ग्रन्थ ही उतार दे,यही बहत कुछ है । यदि उससे यत्किञ्चित् कहलाने का अधिकारी है। वे मूल ग्रन्थ का अनुवाद भी विचलित हुए बिना अपना रंग गहरा भर सका तो वह करते-करते उसमें अपने अध्ययन और उससे सृजित बहुत-बहुत कुछ है। बनारसीदास के नाटक समयसार ने मान्यतामों को भी रक्खे बिना नहीं रहते थे। वे मूल अपना मौलिक अस्तित्व बनाया है। किन्तु बनारसीदास ग्रन्थकार पर छा जाते थे। उन्होंने जैन साहित्य को बहुत और पारसदास के मूलाधार ग्रन्थों मे अन्तर है। बनारसीकुछ दिया है। किन्तु, हिन्दी के वच निकाकार ऐसे दास ने प्राचार्य कुन्दकुन्द के समयसार और उस पर व्यक्तित्व को न पा सके। उनमें एक-दो तो हए, अधिकाश प्रमतचन्द्र की टीका को अपना प्राधार बनाया। दोनो संस्कृत वृत्तियों पर आधृत होकर रह गये। उनका पृथक् दर्शन के अन्य थे। उन्हें अनुभूति-परक बनाने मात्र से अस्तित्व भी मूर्धन्य न हो सका। 10 जयचन्द छावड़ा की नाटक समयसार की सत्ता स्वतन्त्र हो गई। वह साहित्य 'बृहद्रव्यसंग्रह' की वचनिका का मूलाधार ब्रह्मदेव की को कोटि में परिगणित हुमा । पारसदास ने जिसे आधार संस्कृत वृत्ति ही है। यदि दोनों की तुलना की जाय तो बनाया वह पहले से ही साहित्य का ग्रन्थ था। अतः उसकी कहना होगा कि कहा ब्रह्मदेव और कहां जयचन्द । मेरी अनुभूति के रंग को और अधिक गाढ़ा करने से ही पारसदृष्टि में यदि पं० जयचन्द छावड़ा ब्रह्मदेव की वृत्ति का दास पृषक सत्ता पा सकते थे। किन्तु वे ऐसा न कर शब्दश: अनुवाद कर जाते तो वह भी हिन्दी साहित्य को सके । उनका हिन्दी गद्य प्रसाद गुण-युक्त है, किन्तु अनुएक बड़ी देन होती। उन्होने ब्रह्मदेव को प्राधार बनाया भूति में अपेक्षाकृत घनत्त्व न पा सका, जो वादिराज के और उनको भी पूरा न उतार सके, अपना तो कुछ दिया पथक अस्तित्व के लिए अनिवार्य था। वादिराज जैसे Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्वी बन कवि और काव्य साहित्यकार को पार कर जाना पारमदास ही नहीं किसी किन्तु उनकी ग्रिफ्त से उबरे कतिपय ऐसे साहित्यकार भी भी वचनिकाकार के लिए प्रासान नही था। फिर भी थे जो 'मौलिक' लिख रहे थे। उनमें ब्रह्मरायमल्ल, रायउनका हिन्दी अनुवाद परिमार्जित, प्रासान मोर मूलभाव चन्द, पं० दौलतराम, महाराम, टोडरमल मादि स्यातिको पूर्णरूप से सहेज कर चला है। इतना ही बहुत है प्राप्त थे। उन्होने हिन्दी में लिखा और जो कुछ लिखा एक दृष्टान्त देखिए वह उत्तमकोटि का काव्य था। केवल जैन-परक होने से "ताही समै विलास हलकारो प्रवेस करत भयो, राजा ही उसे साहित्य की कोटि से पृथक नहीं किया जा सकता। मोह की द्वारपाली जो लीलावती ताय कहत भयो है जैसे वैष्णव काव्य की गणना 'साहित्य' में होती है, वैसे लीलावती! माया मोक भेज्यो है, सो राजा मोह कू ही इसकी होनी चाहिए। पारसदास भी उन्हीं मौलिक प्ररज करि, सो लीलावती भी विलास को प्रागमन सुणि रचनाकारों मे थे। उनके भाव सुन्दर थे तो अभिव्यक्ति मोह राजा के निकट जाय नमस्कार करि अरज करत भी परिमाजित । उनकी एक कृति है-'प्रष्टोत्तरशतक' । भयी हे देव ! विलोम प्रायो है। राजा सुणि करि हरष इसमे १०० पद्य है। जिनदेव की भक्ति में समर्पित । सहित उठचौ रु लीलावती कू कहत भयो सीघ्र ही जिन सब कुछ हैं। अलख, निरञ्जन तो हैं ही, ब्रह्मा, विलास के मेजि। ऐमा हकुम सुणि करि द्वारपाली विलास विष्ण, महेश और बुद्ध भी हैं। सब सीमाए उनमे समाकर कू कहत भयो पाहु राजकुल मे राजा यादि करे है।।" निःसीम बन गई है। सकीर्णतामों की मेहें टूट गई हैं। यहा माया ने अपने हलकारे विलास के द्वारा एक वे सबके ऊपर नहीं, सब रूप है। उन्होने सबको मिटाया संदेश गजा मोह के पास भेजा है। हलकारा राजद्वार नहीं, मिलाया है। वे प्रविरोधी है। इस सब के साथ पर पहुँचा और प्रवेश की पाना चाही। उसी का वर्णन अनुप्रास की छटा है, शब्दों मे लय है, वाक्यो में गति है। है। 'चतविशतिका' की वचनिका भी ऐसी ही है। उस सुगन्धि है तो उससे उठती लहरे भी हैमें विविध राग-गगनियो से समन्वित पदो का निर्माण "मलष निरंजन प्रकल प्रमानं प्रगम मरूपी लोक प्रमानं । किया गया है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि उसमे त ही देव सुदेव प्रदेवं सुरपति नरपति षगपति एवं ॥३॥ मलस्तति' की अपेक्षा गहरा रंग भरा जा सका है। हाँ, असम ब्सिम सम सुसम समानी ज्ञानी मानी ध्यानी दानी। इतना अवश्य है कि अनुभूति की कापी ठीक हुई है। ब्रह्मा विष्णु बुद्ध सुषषानी तू संकर शिव अमृत वानी ।। शब्दो का अनुवाद मरल है, अनुभूति का कठिन । पारम- सकर तुही रमाकर तुही तू नयन प्रभू जगसारं । दास ने इतना काम किया है। उसका एक पद है- तुही कलपतर काम सुषेनं तु ही चितामणि सोल्यनिषानं ॥६ "ग्रहो पास जिन राग दास मोहे प्रपनो जानि उबारो, वचनातीत गुणी गुणकन्द सील सिरोमणि नयनानन्द । मेरी निज निधि कर्म ठगन हैं इनको संग निवारो ! तत्त्वभूत तपरूप प्रमद तुम अविनासी हो जिनसम्बं ।११।" विषय चाह बसि करिक मोकू ध्यान छुड़ावत थारो, 'ब्रह्मबत्तीसी' पारसदास की एक समर्थ रचना है। इन संग दुष सहे बह दिन सं रूप न जाण्यो थारो, इसमे ३५ छन्द हैं जो चार ढालों में लिखे गये हैं । इसका अब तुम भक्ति बहु निसि वासुर ज्यों होवे सुरझारो, मुख्य स्वर है कि प्रात्मा ही ब्रह्म है, कर्म सथा नोकर्म पर जब लू मैं शिव-वास न पावं तब लूं चावू इनते, हैं, पृथक हैं। गोरा काला रग पुद्गल का है, प्रात्मा गलि छहाय बयानिषि तारक विरब तुम्हारी ॥"२ का नहीं । प्रात्मा रंग-हीन है। उसका स्वभाव यह युग टीकामो और वनिकामो का प्रवक्ष्य था, दर्शन-ज्ञान है। यह जीव इस बात को समझता नहीं। १. ज्ञान मूर्योदय नाटक की वचनिका, पारसविलाम, वह कर्मों के वणभूत होकर संसार को अपना घर मान बड़ौत वाली हस्तलिखित प्रति, पृ० ४५ । बैठता है। उमे विदित नहीं कि उसका पर उसी में २ चतुर्विशनिका की वचनिका, पारसविलास, बड़ोतवाली मौजूद है और वह अपने घर में ही रहता है। न तो उसमें हस्तलिखित प्रति, पृ. कोई पर प्रविष्ट हो सकता है और न पर में वह जा Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सकता है। वह स्वयं ब्रह्म है अपने अन्दर ही रहता है। जिसका रूप ज्ञायक परमात्मा का हो, जो तीन लोक का ब्रह्म कोई दूसरा नहीं है । अतः उसका जंगल, मन्दिर भूप हो और उसे संसार में भटकना पड़े, इससे अधिक और मस्जिद में ढूंढना भी व्यर्थ है। इसी को बनारसीदास दुखद घटना क्या होगी। पारसदास ने लिखा हैने लिखा है कि तू कस्तूरी मृग की भांति अपने भीतर "नायक परमातम तथा चेतन तेरो रूप। बसी अपनी सुवास से परिचित नही है और वन में इधर चेतो या संसार ते तीन लोक के भूप॥"६ उघर ढ़ता फिरता है। उनसे पूर्व महात्मा मानन्द पारसदास की 'बारहखड़ी' नाम की कृति भी सामर्थ्यतिलक ने 'पाणंदा' में माना था "अठसठि तीरथ परि वान है, उसमें १२ पद्य है। हीरानन्द जी के अनुरोध से भमइ, मूढा मरहिं भमंतु । अप्पा बिन्दु न जाणही, पाणंदा उन्होंने इसकी रचना की थी। बारहखडी के प्रत्येक प्रक्षर घट महि देउ प्रणतु ॥"३ यहा पारसदास का कथन है पर एक-एक पद्य की रचना कर कृति को पूर्ण करना जैन "ठाकुर ठाठ करो निज घर में क्यों पर द्वार मिहारो।। कवियों की प्राचीन परम्परा है। बारहखडी का सम्बन्ध पर सब जड़ है तू चिन्मरति सुवरूप निहारो॥"४ लोकभाषा की वर्णमाला से है और जैन शैक्षिक पद्धति में यह जीव नही जानता कि वह स्वयं परमात्म रूप है। लोकभाषा का अध्ययन अनिवार्य था। प्रतः उसे सबसे इस न जानने के कारण ही उसे ससार मे भटकना पडता अधिक प्रश्रय जैन आचार्यों ने दिया। स्वयम्भू के 'पउमहै। यदि वह स्वयं अपने को जान जाये तो शरीर की चरिउ' मे एक जगह वट वृक्ष का रूपक आया है, उसमे साज-संभाल की भोर से उनका मन हट जाए। उसे वट रूपी उपाध्याय विविध पक्षियो को कक्का, फिक्की, विदित हो जाये कि वह शरीर से जुदा है, शरीर का कुक्क, केक्कई, कोक्क उ प्रादि पढ़ा रहा है । यह तो एक पालना-पोषना व्यर्थ है। यह अवसर फिर न मिलेगा। प्रन्थ का एक उदाहरण है। अनेक जैन कवियों ने अपनी न जाने फिर मनुष्य-भव मिला न मिला। प्रत. अब तो मृक्तक रचनायो मे बारहखडी के प्रत्येक वर्ण पर भी चेत ही जाना चाहिए। यदि अब चूका तो संसार में भट काव्य-रचना कर उसके प्रति अपना अनन्य भाव दिखाया कने के अतिरिक्त और कुछ न रह जायेगा५ । वह चेतन है। उनमें अजयराज पाटणी की 'कक्काबत्तीसी', कवि १ गोरो कालो रंग रगीली पुद्गल तणो जी प्रभाव, अमरविजय की 'अक्षरबत्तीसी', सिवजी की 'कक्काबत्तीसी' मातम के नहिं रग है जी दरसन ज्ञान स्वभाव । कवि चेतन की 'अध्यात्म बारहखड़ी', सूरत की 'जैन घर तेरो तो माय है जी तू घर ही के माय, बारहखड़ी' और कवि दत्त की 'बारहखड़ी' प्रसिद्ध है। तो मैं पर नहिं प्राय है जी तू पर मैं नहिं जाय, इमी पक्ति मे पारसदास भी आ जाते है। उनकी रचना रे भाई तू निज ब्रह्म विचारि॥ अध्यात्म परक है। मौलिक है, शैलो के अतिरिक्त सब ब्रह्मबत्तोसी, पद्य ३, ४ ॥ कुछ अपना है। उन्होने पूर्व कवियो के भावो की नकल ज्यों मृगनाभि सुबास सौ ढढत वन दौरे । नही की है। अजयराज की 'कक्काबत्तीसी' में पाण्डे रूपत्यौं तुझमे तेरा धनी तू खोजत पौरे ।। चन्द के 'परमार्थी गीत' के अनेक स्थल हू-बहू है। एक करता मरता भोगता, घट सो घट माही। उदाहरण देखिएज्ञान बिना सद्गुरु बिना, तू समुझत नही ॥ दवा निज दरसन बिना जिय, देखिए बनारसीविलास । जप तप सब निरथ रं लाल । ३. देखिए 'माणदा' की हस्तलिखित प्रति, आमेर शास्त्र कण बिन तुस ज्यों फटक ते जिय, भण्डार, जयपुर, पद सख्या ३१ । ४. ब्रह्मछत्तीसी, १२वा पद्य, पारसविलास, बड़ोतवाला ६. वही, १९वां पद्य, पृ.१०। प्रति, पु०५। ५ उपदेश पच्चीसी, ११, १७, २८ पद्यों का भाव, वही, ७. अपभ्र श भाषा और साहित्य डा. देवेन्द्रकुमार जैन पृ० १०॥ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृ० २७७ । Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हिन्दी जन कवि और काम्य माव कछु न हाय रे लाल ॥१॥ हमें भी अपना बाह्य रूप दिखाई देता है, वह हमारा मजयराज पाटणी अपना नहीं, जो हमारा नाम है वह हमारा नही, जो हम चेतन चित सो परिचय बिना, जप तप सर्व निरत्य। दिखाई देते हैं वह हम नहीं। यह चेतन उसको सही कन बिन तुस जिमि फटक ते भाव कछु न हत्त्व।। मानता है, यही उसकी भूल है३। पारसदास का कथन -पाण्डे रूपचन्द हैपारसदास की 'बारहखडी' में कोई पद्य ऐसा नही है। "पित मात सुता सत जी भगुर बिजुरीबत जी। उनमे नवीनता तो है ही अजयराज की अपेक्षा लालित्य जामिज करि मान्यो, सो मौत न अपनो जी ।। भी अधिक है । अध्यात्मवादी दोनों थे। किन्तु पारसदास रामा और कामा जी, बन गृह मभिरामा जी। अधिक खरे प्रतीत होते हैं । बारहखड़ी के दो पद्य हैं१ परक्अपनाय वृक्षा, यूंही भागियो जी॥ गगा गरम्योर गरम्यो त फिर, तन प्रसुचि पावन जी, प्रध-पंजरावन जी। या विषया माय नाय नांय लषं रे, यामै पुरष राचन, ज्ञानी न रमं जो॥" भातमरूप ज्ञानी, जीव येथिर ना छ रे, यह पात्मा ही परमात्मा है। परमात्मा भात्मा से भारी लार नाना दुष मैं साथ सहाय करगो रे, भिन्न नहीं है। दोनों एक हैं। माया मे फंसने के कारण अध्यात्म भूप ज्ञानी।। यह जीव अपनी पृथक् सत्ता मानता है। यही पावागमन उठा ठाकुर रेत तिहूँ लोक को का कारण है। इसी को द्वैत भाव कहते हैं। जब तक भल्यौ निज रूप परवसि होय करे अढतबाद न जन्मेगा भात्मा में परमात्मभाव न जाग बड्यो भवकूप ज्ञानी जीव दे बोध्याडोरं । सकेगा । ससार के दुखों को सुख मान कर यह जीव यहा घेतरपाल जो पूज्या बहु रूप नाहि लष्यो छरे। ही भ्रमता रहेगा। कबीर ने कहा-"प्रक भरे भरि मातमभूप ज्ञानी जीव ।। भटिया, मन मे नाहीं धीर। कहै कबीर ते क्यू मिल, 'कबीर ग्रन्थावली' में 'मन को चेतावणी' एक अग जब लगि दोइ सरीर ॥"४ यहा 'जब लगि दोइ सरीर' है। उसमे मन को चेतावनी दी गई है कि तू मसार के का अर्थ त भाव ही है। जब प्रात्मा में-से दूत भाव सुख-भोगो मे क्यो राच रहा है। ये भोग झठे है. लालच निकल जाता है, तब वह परमात्म-मुख का अनुभव कर मात्र है। जैन कवि द्यानतराय ने भी कबीर की भांति ही उठता है। फिर वह स्वय पाशिक हो जाता है और स्वय लिखा, "युवती तन धन सुत मित परिजन, गज तुग्ग रथ माशूक, खुद गुरु हो जाता है और खुद शिष्य और खुद चाव रे । यह ससार मुपन को माया, प्राख मीचि दिग्व ही ध्येय होता है और खुद ही ध्याता । पारमदास ने इम राव रे ॥"२ अर्थात् वे भी ससार की चकाचौध को। अद्वत को अंकित किया है५'सुपन की माया' मानते है । पारसदास की एक रचना है "मैं ही प्रासिक और मैं भूपा, मैं गुरु ज्ञान सिम्बावेगा। 'चेतनमीप' । उसमे लिखा है कि यह चेनन जिन्हे अपना मैं ही सिष्य सीब मैं ही, फुनि नय प्रमाण न कहावेगा ।। मान रहा है वे "विजुरीवत्' भगुर है । इसके अतिरिक्त वे मैं ही ध्याता ध्यान ध्येय मै ही, धर्मी धर्मन कहावेगा। अपने नही पर है। उनमे रमने से अपना हित नहीं होगा। यों प्रदतभाव भय बाब, पारस तब सुख पावंगा ।।" अपना हित तो यह मानने मे है कि मसार का जो रूप यह जीव माया के लिए अपना जीवन बिता देता है। दिखाई देता है, वह एक झलक-भर है, वास्तविकता नहीं। ३. चेतनसीप, पारस विलास, वही प्रति, पद ७-८, १. बारहखडी-३, १२ पद्य, पारस विलास, पृ० ११, प्रति वही। ४. परचा को अंग, २५वी मावी, कबीर ग्रन्थावली, डा. २. द्यानत पद संग्रह, कलकत्ता, 'अहंत सुमर मन बावरे' श्यामसुन्दरदास-सम्पादित, का. ना प्र. सभा, काशी। पद की तीसरी-चौथी पत्तियां । ५ पद पहला, पारसविलारा, प्रति वही, पृ०७३। Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ अनेकान्त माया जड़ है और यह चेतन । माया यहा ही रह जायेगी टूट गया-व्ययं चला गया। ऋषभदेव डिगने वाले नही मौर चेतन चला जायेगा । माया के पीछे लगन के कारण थे, उन्होंने क्रोध से नहीं, अपितु अपनी ध्यानाग्नि से उसे ही उसे संसार मे घूमना पड़ता है, अन्यथा संसार से जला दिया । यह प्रमाणित कैसे हो तो पारसदास का उनका कोई सम्बन्ध नही है। माया एक जबर्दस्त काम कथन है कि भगवान के श्यामकेश ही इसका सबूत है। करती है कि चेतन को अपनी असलियत मालूम नहीं होने उनकी दृष्टि मे जलते हुए प्रनग के धूम्र से उनके केश देती। यदि उसे मालूम हो जाये, तो चेतन खुद हट जाये काले पड़ गये हैं३ । पौर माया भी फिर उसे अपना मुंह दिखाने मे शरमावे। "हृदय तिष्ठना ध्यान अगिनि करि जाल्यो तुम सर्वग। वह फिर दिखायेगी ही नहीं। जैन और प्रजन अनेक प्रनंग ताकी धूम रूप ये मान श्याम केश हैं उत्तम प्रग॥" कवियों ने चेतन को माया से सावधान किया है। किन्तु पारसदास एक सामर्थ्यवान कवि थे। उन्होने धर्म को बात उसकी समझ मे नही पाती। पाण्डं रूपचन्द ने तो कवित्व की अनुभूतियों में ढाला। दूसरे शब्दों में धर्म को एक जगह खीझ कर लिखा-"चेतन अचरज भारी यह, अनुभूति परक बनाया। बिना कवि-हृदय के यह असम्भव मेरे जिय पाव, अमृत वचन हितकारी सतगुरु तुमहि है। कोई उपदेष्टा ऐसा नही कर सकता उनका काव्य पढ़ावै । सतगुरु तुमहिं पढ़ा और तुम हूँ ही ज्ञानी, तबहूँ जैनधर्म का उपदेश नही था, उसमे काव्यत्व था, तुमहिं नहिं प्रावै चेतन तत्त्व कहानी ।"१ अर्थात् बात रस था। चेतन समझ नहीं पाता, जबकि वह स्वय ज्ञानरूप है और आध्यात्मिक रचनाओं के साथ-साथ पूजा और जयसमझाने वाला भी ज्ञानी है। पारसदास ने भी उसे मालामो के निर्माण में भी पारसदास की अधिकाधिक समझाया२ रुचि थी। इसमे उनका मन रमा। उन्होने पार्श्वनाथ जी "माये कौन गति से मोर जावोगे कहांयी, की पूजा, देवसिद्धि पूजा, देवसिद्धि पूजा बृहत्पाठ, जम्बूतुम माया नहिं लार लग रहेगी इहांयी। स्वामी की पूजा, चमत्कार जिनपजा, रतनत्रय पूजा, चेतन अनुभव विचारि बेखौ उर मायौं, सोलहकारण की जयमाला, दशलाक्षण की जयमाला, मुबह वृथा भ्रमो माया के तायौं।" रतनत्रय की जयमाला, पोडशकारण मत्र की जयमाला की पारसदास उत्प्रेक्षा के उकेरने में निपुण थे। कही- रचना की। सभी मे भक्ति है और कवित्व पूजा-साहित्य कहीं तो उनकी निराली छटा है। उन्होने ऋषभदेव-स्तोत्र भक्ति का महत्त्वपूर्ण अंग है। कवि द्यानतराय इस क्षेत्र का निर्माण किया था। ऋषभदेव अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत के प्रसिद्ध कवि थे। उनके मार्ग को पारसदास ने प्रशस्त को राज्य-पाट देकर वन में तप करने चले गये। वहा किया है। ध्यान मे लीन होकर वे जिन बने। जिन का अर्थ है इनके अतिरिक्त उन्होंने द्वादशाग दर्शनपाठ, तीन जीतने वाला । अर्थात् उन्होने इन्द्रियो को, मन को, माया लोक त्यालय की बदना, सुमति बत्तीसी, राजुलबत्तीसी, को, मोह को जीत लिया। सबसे बड़ा होता है मोह और कुगुरुनिषेध पच्चीसी, सम्यक्त्व बहत्तरी दर्शनपाठ, हस्तिनाउसका शक्ति-सम्पन्न सनानी होता है अनग । तपियो को पुर पाठ, रावण विभीषण रास अरहन्त भवित पाठ, मनग बहुत परेशान करता है। उनके ध्यान को विचलित सरस्वती अष्टक, भारती, बारह भावना, चौबीसी पद, करने के लिए नामा उपाय रचता रहता है। शकर को चौबीसी तीर्थङ्कर स्तुति, ऋषभदेव स्तोत्र, तेरहपंथ स्तुति, क्रोध आया तो उन्होने तो उसे भस्म ही कर डाला। पद आदि का निर्माण किया। उनकी कृतियां धार्मिक है विश्वामित्र डिग गये तो उनका दस हजार वर्ष का तप और साहित्यिक भी। यह ही उनकी विशेषता है। १. देखिए परमार्थ जकड़ी मग्रह, पण्डे रूपचन्द, जैन ग्रन्थ रत्नाकर कार्यालय, बम्बई। ३. ऋषभदेव स्तोत्र, वां पद्य, पारसविलास, प्रति वही, २. पद, दूसरा, पारसविलास, प्रति वही, पृ०७३ । पृ० ७८। (क्रमशः) Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का मूल्य मुनि श्री विद्यानन्द 'कालातिपातमात्रेण कर्तव्यं हि विनश्यति। अथवा तस्कर तो रात्रि के तिमिर मे किसी का कण्ठ -क्षत्र चूड़ामणि ११७ ग्रहण करते हैं परन्तु काल तो निर्भय होकर विश्व के प्रत्येक वस्तु का अपना पृथक् मूल्य होता है। संसार घाट-बाट देखता घूमता है। उसे न करुणा है, न भय । मे कोई वस्तु नही । काल का सूक्ष्मतम क्षण भाग ही क्षण 'सर्वम यस्य वशादगात् स्मृतिपथ कालाय तस्मै नम.' जिसकी क्षण संयुक्त होकर मिनट, होरा दिनों में परिणत होता है। सत्ता के समक्ष सब कुछ स्मृति शेष रह जाती है. उस ये दिन मास, ऋतु प्रयन, वर्ष और युगों में परिवर्तन होते महा काल को नमस्कार है। किसी विज्ञ सूक्तिकार ने कहा जाते है । काल की यह सूक्ष्म और स्थूल गतिक्रिया है। है-'प्रत्यायान्ति गता पुनर्नदिवसा कालो जगद्भक्षक' काल क्षण भाग पर अभी वर्तमान की सत्ता का बोध गये हए दिन वापस नहीं लौटते, यह काल ससार भक्षक कराता है। और दूसरे ही क्षण प्रतीत हो जाता है। यह है। कालेन कीलित सर्वम्'-मसार के यावत् पदार्थ काल इसका प्रविच्छिन्न कम है, जिसमे कभी व्यापात नही से कीलित हैं । कोई ऐसी वस्तु नही जिये कालस्पर्श नहीं होता। वर्तमान के मुक्त गर्भ से अतीत और भोग्य गर्भ से करता हो। जैसे माला के पुष्पों में से सूत्र निकलता है, भविष्यत काल की उत्पत्ति होती है। समय के इस सूक्ष्म वैसे ही काल ममस्त जड चेतन को विद्ध कर स्थित रहता रूप को जानने वालों ने मनुष्य को चेतावनी दी है कि है। जन्म और मरण के स्मृतिपत्र समयाकन से जाने जाते वह रुपये-पैसे के समान ही, बल्कि उममे भी अधिक है। दिन और रात्रि समय का चक्कर लगाते है। समय सावधानी से समय का हिसाब रक्खे । उन्होने लिखा है- मे ऋतुप्रो का आगमन और वर्षों की गणना सम्भव होती 'क्षण वित्तं क्षणं चित्तं भणं जीवति मानवः है। "कालेन बलिरिन्द्र कृत' कालेन व्यवरोपित."-काल यमस्य करुणा नास्ति धर्मस्यत्वरिता गतिः॥' ने बलि को इन्द्र बनाया और काल ने ही उसे हटा दिया। वित्त क्षण मे नष्ट हो जाता है, चित्त की स्थिति 'समय एवं करोति बलाबलम्' बलवान् तथा निर्बल समय क्षण भर मे बदल जाती है और मनुष्य का जीवन दीप के ही पर्याय हैं । सूर्य प्रात.काल बलसमृद्ध होता है, उसके क्षण मे बुझ जाता है। काल को कही करुणा नहीं है। यह बलवान होते हैं और सायकाल अस्तवेला में ही बलधर्म की गति क्षिप्रगामिनी है। अर्थात् धर्म काल पर वान् मुहर्त क्षितिज के गर्त मे डूब जाते है। प्राचीन आरूढ होकर धार्मिक का अनुगमन करता है। और राजवशो का इतिहास समय के बलाबल का इतिवृत्त है। क्योकि जीवन क्षण बुबुद् है, धर्म सचय से दीर्घ सूत्रता जो समय के इस रहस्य को जान लेता है, वह समय का नहीं करनी चाहिये । यहाँ शतायु जीने वाले मनुष्य को मित्र हो जाता है। उसके कानो में समय शंखध्वनि करता क्षण जीबी बताया है उसका यही आशय है कि जीवित रहता है कि जागो, उठो और अपने भूतिको म (कल्याणव्यक्ति के परमाणु स्कन्धो में प्रतिक्षण जन्म-मरण की कारी कार्यों में) जुट जामो-"उत्थातव्य जागृतव्य प्रक्रिया सचार कर रही है। जीवन के सौ वर्ष भले रहे, योक्तव्य भूति-कमंसु । भविप्त्येवेति मन. कृत्वा सततपरन्तु मृत्यु का तो क्षण ही पाता है। जो प्रांधी के उन्मत्त मध्यर्थ.।" कार्य सिद्धि अवश्य होगी, ऐमा विश्वास रखते स्पर्श से दीपक के समान प्राणों का देह से अपहरण कर हुए व्यथा का परित्याग करो। क्योकि "अनिदः श्रियो ले जाता है। वह क्षण कभी भी पा सकता है। दस्यु मूलम" लक्ष्मी का मूल खिन्नता है। जो विघ्न-बाधानों Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त से खिन्न होकर कार्य मे विरत हो गया उसे सिद्धि नहीं चरण एवरेस्ट के शिखर पर पहुँच जाते हैं। जो एक मिलती। क्योंकि चरण के महत्व को नही ममझना वह गति की समग्रता "मालसाः प्राप्नुवन्त्यर्थान् न च शश्वत् प्रतीक्षिणः। नही पा सकता। न च लोक खाडीता न क्लीबा न च मायिनः ॥" ममय चिन्तामणि है, कामधेनु है, वांछित धन है। ___ जो प्रालसी है, नमक है, मायाचारी है, लोग क्या उससे कुछ भी मांगो, पा जानोगे। समय श्रमाग्नि मे तप कहेंगे-ऐसे विचारमूढ होकर कर्तव्य कर्म से विमुख हैं, कर सुवर्ण बन जाता है, अवसर की सीपी में गर्भ-धारण तथा जो निरन्तर प्रतीक्षा करते रहते हैं कि अभी अच्छा कर मुक्ताफल हो जाता है, दुरधिगम समुद्र को मथकर नहीं प्राया, जब पाएगा तब अमुक कार्य करूँगा, इत्यादि रत्नराशि निकाल लाता है। संमार में जो कुछ किया विषम चिन्तन करने वाले कभी सफल नहीं होते, उनके गया है तथा किया जा सकता है वह समय द्वारा ही पास अनुकूल समय कभी नही पाता। वे अवसर का मुख सम्भव है। यदि समय नही है तो कार्य नही हो सकता। उसी प्रकार देखने को तरसते रहते हैं जैसे बन्ध्या पुत्र कार्य मिद्धि के लिए बड़े-बड़े उपकरण सहायक नहीं होते, प्राप्ति को। क्योकि अवसर स्वय तो किसी-किसी भाग्य- उसके लिए समय लगाना आवश्यक होता है, जो समय शाली के पूर्वोपाजित पुण्य से प्राप्त होता है अन्यथा उसे पर चक गया उसे सिद्धि के राजपथ से हटना पड़ता है। पुरषार्थी स्वयं पागे बढ कर पकड लाते हैं। किसी अग्रंज एक मिनट विलम्ब से पहुँचने पर गाड़ी चौबीस घण्टो के लेखक ने लिखा है कि ममय का मिर पीछ में गजा है। लिा निकल जाएगी और घण्टे भर पूर्व जाकर बैठने से यदि कोई उमको मामने पाने पर स्वागत कर ले तो वह कर लता वह समय का दुरुपयोग होगा। प्रत: जिस कार्य के लिए जो उमी का मित्र होकर साथ देने के लिए प्रस्तुत हो जाता समय निश्चित है, वही ममय उसे दो। कोई प्रात.काल है किन्तु यदि कोई स्वागत के उस दुर्लभ प्रवसर को चूक का भोजन सन्ध्यावेला मे नहीं लेता, परन्तु ध्यान सामाजाए तो समय लौट कर चल देता है, क्योकि वह गजा है, यिक, स्वाध्याय के लिए वेला के प्रतिक्रमण को दोष दृष्टि पीछे में उसे कोई पकड नही मकता । इस लिए कुछ लोग से नही देखना । परन्तु क्रियाए तो समयपात्र मे ही क्षण-क्षण को मूल्यवान् बनाकर सम्पन्नता के शिखग पर शोभित होती हैं। कार्यकलापो का कोई न कोई समय जा पहुँचे और दूसरे घटे और दिवम गिनते हुए सीढिया मनात निश्चित होता है . "काले पाठ स्तवो ध्यानं शास्त्र चिन्ता चढने का अनुकूल मुहूर्त देखते गर्त से अपना उद्धार नही गुगै नति.' इसमें पाठ, स्तवन् ध्यान, स्वाध्याय तथा गुरु कर सके। किमी ने उचित ही पराम दिया है कि- भवित सबको समय पर करना उचित कहा है। "न हि तमको जमिन कटारे 'चलती हुई चिउंटी भी मौ योजन जा पहुँचती है और न अत्यायुष मत्रमस्ति-पायु बीत जाने पर कोई यज्ञ नही चलने पर महापराक्रमी गरुड पक्षो एक पद भी नही पहुँच किया जा सकत', सब प्राफिस, कार्यालय, दूकान, बाजार, पाता।' - रेलपथ, वायुयान माकाशवाणी अपने अपने निर्धारित "गच्छन् पिपीलि को याति योजनानां शतान्यपि । समय पर क्रियाशील होते हैं। ग्राहक को यदि विश्वास अगच्छन् बनतेयोऽपि पवमेकं न गच्छति ।" न हो कि अमुक दूकान अमुक समय पर खुली मिलती है सिद्ध है कि क्रियामिद्धि का निवाम पूरुषार्थ मे है, तो वह वहां नहीं जाता। विश्वास तथा अभिगमन का समय के माथ चलने में है न कि समय की प्रतीक्षा करते प्राधार समय पर वशता है । मूर्य, चन्द्र समय से बधे है। रहने में। चीनी कहावत है कि "हजार मील लम्बी यात्रा जीवन की प्रशस्ति नियमो मे हैं, अनियम से व्यभिचार एक कदम से प्रारम्भ होती है।"-हजार मील चलने के दोष उत्पन्न होते हैं। इसी हेतु से सस्कृत मे समय का लिए उठा हुमा प्रथम चरण उस मार्ग की दूरी को प्रतिपद प्रर्थ शपथ भी है, पण भी है और वेला भी है। समय न्यून करता जाता है। एक और एक दम बढाते-बढाते मानो, क्रियमाण कार्यों के साथ अनुबन्ध है, शपथ है। जो गन्तव्य समीप प्राता जाता है और साहसी प्रारोही के कार्य समय पर हो गया, वह प्रशसित हो गया। यदि Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का मूल्य ३६१ १-तारीख का समाचार-पत्र २ अथवा ३ को प्रकाशित हो लौटाने पर चुक जाता है किन्तु समय का मूल्य प्रायु लेकर तो समय निकल जाने से वह पर्युषित (बासी) हो नि:शेष कर देता है। प्रत. 'श्व.कार्यमद्य कुर्वीत्' प्राने वाले जाएगा और उसे पाठक नही पढ़ेगे। वेला का मनतिक्रम कल का कार्य प्राज ही समाप्त कर लेना बुद्धिमान् का मूल्यवान् होने के लिए प्रावश्यक है। एक घूट पानी के लक्षण है। क्योंकि 'विचारयति नो काल. कृतमस्य न वा लिए तरसकर मरने वाले के शव पर सहस्र कलशों का कृतम्'-काल यह नहीं विचारता कि अभी किसी ने पानी उलीचना जैसे व्यर्थ है वैसे समय चले जाने पर कार्य समाप्त कर लिया है कि नहीं। उसका प्रागमन किया जाने वाला पुरुषार्थ भी फलशून्य हो जाता है। सर्प प्रकित और स्पर्श करुणारहित होता है वह सहज ही निकल जाने पर उसको रेखा को पीटना, सूख जाने पर अपना कार्य करने मे दक्ष है। राजामो का कोष, बीरो कूप से जल की प्राशा रखना, लटे हुए धनिक से याचना का बाहुबल, विद्वान् की विद्या, नारी के हाव-भाव, कृपण करना, वर्षाकाल बीतने पर खेत मे बीज वपन करना- का हाहाकार, वैद्य की प्रौषधिया, मित्रो के आश्वासन, ये अवसरहत व्यक्तियो के खेद का सवर्धन करने वाले है। प्रिया का बाहुपाश, पुत्रो की सेवा-परिचर्या किसी मे वह जो समय का मूल्य रखता है, समय उसका सम्मान सामर्थ्य नही जो काल को द्रवित कर दे । राजा-रंक सभी करता है और जो समय खो देता है वह समय स खो सभी की जीवनमणिया काल की मुट्ठी मे धूलिकण होकर जाता है। समय के साथ खेलने वालो से समय भी खेलता समायी है। काल ने राम को बनवास दिया, श्रीकृष्ण को है किन्तु समय की समय धूप (पातप) के साथ लगी हुई साधारण व्याध के बाण से विद्ध किया, सती शिरोमणि छाया को देखकर जो प्रकाश का ममय रहते उपयोग कर सीता को परपुरुषगृह वासिनी बनाया-इसके क्रीड़ा लेते है, उन्हें अन्धकार घिरने पर प्राकृतित्व प्रभाव और कौतुको का अन्त नही । धनिक, निधन वीर-कायर, उदयअपनी अस्तित्व समाप्ति का भय नहीं रहता। किसी अस्त सब समय छन्द है। 'समय एवं करोति बलाबलम्'नीतिकार ने लिखा है बल और अचल समय के सापेक्ष धर्म हैं । जिसने समय के "ब्राह्म समापयेत् पूर्वाम् पूर्वाह्न चापतिकम, इस रहस्य को जान लिया, वह जीवन का मूल्य पा गया। एव कुर्वन्नरो नित्यं सुनिद्रा समश्नुते।" ससार जिनके कृतित्वो का फल भोवता है, ऋणी है नित्यमनणशायी स्यान्नित्यं दानोद्यतक्रमः । उन दार्शनिको, विद्वानो, वैज्ञानिको के पास उतने ही घण्टेनित्यमासन्जितं भार लघकुर्यादतन्द्रित ।" मिनिट और अहोरात्र थे, जितने अन्य लोक मामा-यो के -नीतिसुधाकर पास होते हैं। उन पर कृपा करते हुए समय ने अपने पाप 'प्रातः काल ब्राह्म महतं मे दिन के पूर्वाध का कार्य को लघ अथवा बृहत् नही बनाया । न राते होटी हुई और समाप्त कर ले और पूर्वाह्न मे सन्ध्यान्त कार्यों को निबटा न दिवस बढ-वही चौबीस घण्टी का अहोरात्र । किन्तु ले। ऐसा करने वाला मनुष्य रात्रि में सुख पूर्वक शयन उन्होंने इतने ही समय मे विलक्षण कार्य किये, रेल चलाइ, करता है। मनुष्य को प्रतिदिन ऋण रहित होकर सोना वायुयान उडाए, शीत ताप को नियत्रित किया, समुद्रो की चाहिए और दिनचर्या में किसी से लेने के स्थान पर किसी छाती पर यान तेराए और गुरुत्वाकर्षण को निद्रित कर को देने का उपक्रम अधिकतर करना चाहिए। जो कार्य चन्द्र तक पहुँचने का मार्ग प्रशस्त किया। उनकी पलका भार प्राज मा गया है उसे थान्तिरहित होकर नित्य ही पर स्वप्न बसते थे और निद्रा दूर खड़ी शयन का मार्ग लघु (हल्का) करने का अभ्यास करना श्रेयस्कर है।' देखती थक जाती थी। भोजन की थाली प्रतीक्षा म क्योकि प्राज का कार्य यदि कल पर छोड़ दिया तो कल पर्वपित होती रहती थी और रात्रि-दिन अपनी गति पर का कार्य परसों पर छोड़ना पड़ेगा। इस प्रकार समयधन प्राते-जाते रहते थे । न उन्हे प्रानी सुधि थी और न पारऋण में बदल जाएगा और दैनिकचर्या गतिदिवस के ऋण वारो की। उनके चिन्तन किसी शोध में खोय रहते थे चुकाने में ही समाप्त करनी होगी। मुद्रा का ऋण मुद्रा और प्रांखे अपनी कल्पना को साकार करने में लगी रहती Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त थीं । अर्जुन के लक्ष्य समान उनके ममक्ष सम्पूर्ण वृक्ष, को कहा-हनुमान जी ने उत्तर दिया, मुझे आज ही पल्लव और चिड़िया नहीं, केवल चिड़िया की मांख होती लंका पहुँचना है अतः मार्ग मे क्षण काल भी विश्राम नहीं थी, जिसे वह देखते थे। जब और लोग निशीथोत्तर ले सकता । 'न स्थातव्यमिहन्तरा' (वा. रामायण)। ऐसे प्रवहमान शीतल पवन का सुखस्पर्श लेते सोये रहते हैं। अथक पुरुषार्थी ही गन्तव्यों की श्री से परिणीत होते हैं। कुछ कर गुजरने की धुन रखने वालों की नींद उड जाती प्राचार्य सोमदेव ने लिखा है-"धर्मश्रुतधनानां प्रतिदिनं है। 'सूमा-पालक-चूका'-गली में सब्जी बेचने वाले से लवोऽपि सगह्यमाणो भवति समुद्रादप्यधिक" धर्म, शास्त्र भी उन्हें प्रबोध के स्वर सुनायी देते हैं, वे इनका अर्थ तथा धन का प्रतिदिन लवमंग्रह भी एक दिन सागर के करते हैं, 'सोया पलभर तो चूका' और उसी क्षण उठकर समान प्रचुर-पुष्कल हो जाता है। अकर्मण्य तथा समय कार्य में लग जाते हैं। उन्हे जगाने के लिए, कर्त्तव्य पथ को न पहचानने वाले मनुष्य मांसवृक्ष हैं, जो अपने ही पर पारूढ़ करने के लिए बडे २ शख फूंकने की, प्रबोध- स्थान पर खडे-खडे वसन्त की बहारों को पुकारते रहते पाठावली पढाने की पावश्यकता नही होती, उनका सचेत हैं। किन्तु धीमन् पुरुष प्रतिदिन अपने कार्यों की मानसअन्तर्मन ही प्रेरणा देता है। राजहस को मानसरोवर का दैनन्दिनी रखते है। वे प्रतिसायम् लिखते हैं कि पाज का मार्ग स्वय परिचित होता है तथा पवनवेग चलने वाले दिन कैसा बीता। रहट के समान गत्रि-दिवस के कूप प्रश्व चाबूक की मार खाने का स्वभाव नहीं रखते। में बता-निकलता मनुष्य यह तो सोचे कि मैं रिक्त है महात्मवों का मनोबल, उत्साह और अषित धैर्य ही कि भग। उन्हें सिद्धियो के समीप ले जाता है। उन्हें प्रतिक्षण किसी 'प्रत्यहं पर्यवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः । न किसी क्षेत्र से प्रामत्रण अाह्वान मिलते रहते है कि किन्नु मे पशुभिस्तुल्य किन्नु सत्पुरुषस्तथा ।।" पाइये, यह कार्य प्रपूर्ण है यह कार्यक्षेत्र अनदेखा है, ये जिसने स्वयं अपना पर्यालोचन करना सीख लिया, पवितया प्रजानी है है-पापका प्रप्रतिहत उत्माह इन्हे उमे अनुशासन की आवश्यकता नही। उठते हुए सूर्य के पूर्ण करेगा, देखेगा तथा जानेगा। समयमन्द व्यक्तियो के साथ जो उठ खडा होकर उद्यमायं नही चल देता, उसे सामने गत-दिन अनेक प्रायोजन, कार्य सिद्धियां होती मौभाग्यो की उषा के दर्शन नही मिलते । सूर्य की सहस्रों रहती है परन्तु वे उन्हे पहचान नहीं पाते, उन्हे देख नहीं किरण घर-घर में प्रवेश कर जगत् को शय्या त्याग करने सकते। और सोचते रहते है कि 'कब प्रभात होगा। के लिए करती हैं परन्तु जिस करम (ऊट) को कंटक ही कमल खिलेगा और सम्पुट में बन्द भंवग उड़ने का मार्ग पसन्द हैं वह प्रभात की हरी दूब दूसरो के लिए छोड कर पायेगा'-परन्तु गजराज प्राकर उस प्रतीक्षक के पाशा मोया रहता है। इसी हेतु मे कहा गया है --जो सोता है कमल को तोड देता है, पंगे से कुचल डालता है। प्राण वह खाता है। 'चरैवेति चरैवेति'-ममय गतिशील है, भ्रमर देह कमल को छोड कर उड़ जाता है। गत भर चलते रहो, चलते रहो, नही तो पीछे रह जानोगे। सूर्य के स्वप्नो को चिन्तन चिता की राख बन कर उड़ पूर्व से उड कर पश्चिम पहुँच चुका होगा और तुम अभी (बिखर) जाती है। किसी नीति धुरन्धर ने प्रबोध दिया। घर से निकलने की तैयारी कर रहे होगे। निकलतेहै कि निकलते रात्रि हो जाएगी तो मार्ग की पगडंडी जीवन से "करिष्यामि करिष्यामि करिष्यामीति चिन्तया । भटक कर श्मशान की मोर मुड जाएगी। प्रत्तः समय के मरिष्यामि मरिष्यामि मरिष्यामीति विस्मृतम् ॥" कदम दबाते चलो समय की प्रांख मापते बढो, काल को जीवन भर सोचते बैठे रहे कि अमुक कार्य कल कर अकेला मत छोडो उसे अपने साथ रक्खो नहीं तो धात लूंगा, कर लूंगा, कर लूंगा परन्तु कल मर जाऊगा, यह एक करेगा। 'सूर्योदये चास्नमिते शयान विमुपति श्रीरपि बार भी नहीं सोचा। श्री हनुमान जी जब समुद्र लघन कर चक्रपाणिम्'-जो सूर्योदय और सूर्यास्त समय में सोता रहे थे तब मैनाक पर्वत ने उन्हें थोड़ी देर विश्राम करने रहता है, उसे लक्ष्मी छोड़ कर चली जाती है। 'दीर्घ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का मूल्य सूत्री विनश्यति'-पालसी नष्ट हो जाता है। किसी ने मानते हैं। वह श्रेष्ठ पुरुष महामुनि शुकदेव के समान कोई बालक भी हो सकता है और सत्तर वर्षीय वृद्ध भी "टिक टिक करती घड़ी सभी को मानो यह सिखलाती है। नहीं हो सकता । इस मान्यता के लिए बालक हो अथवा करना है सो जल्दी करलो, घड़ी बीतती जाती है।" वृद्ध, वही पात्र होगा जिसने समय का सतत साहचर्य मनोmara ने वाले लोग इसी भाषा में किया है। जिमने एक-एक रवि के उदयास्तों में समय की वार्तालाप किया करते हैं। 'एक दुकानदार के पास एक बहुमूल्य सम्पदा को नहीं देखा, उसके पास यदि घनग्राहक ने कहा-इस पेंसिल को कितने मून्य में बेचोगे? वैभव का अतिभार भी हो तो उसकी दरिद्रता मे किसे दूकानदार ने उत्तर दिया एक रुपये में। ग्राहक ने कुछ सन्देह हो सकता है ? शतवार्षिक प्रायः प्राप्त कर जिसने सोचकर पुनः पुछा-माप कम से कम कितने में देंगे? समय का पर्याप्त लाभ नहीं लिया, उसने मानो, चलनी मे दूकानदार ने कहा-अब सवा रुपये में। ग्राहक बोला अमृत भरने की चेष्टा की, विरल प्रजलि मे गोरस पान मज़ाक छोडिए, इसकी सही कीमत ले लीजिए । दूकानदार ने किया और नेत्रो को मीलित रख कर अन्धचेष्टा की। घडी देखते हुए कहा-माप जितनी बार मोल भाव करते किसी नीतिकार की सूक्ति है कि 'जो बिन प्रयोजन हए मेरा समय लेते रहेगे, पेंसिल का मूल्य बढ़ता जाएगा।' उन्मार्ग मे एक कोने का व्यय भी नहीं करता और समय को व्यर्थ न खोने वाले व्यक्ति ही मागे बढ़ते हैं। सुवर्णमुद्रा के समान उनका सचय किया करता है, समय श्री उन्ही का वरण करती है जो काटो पर पथ पार करते पाने पर वह कोटि मुद्रायो का व्यय करे तो भी लक्ष्मी है । गुदगुदे गद्दो का कोमल स्पर्श चाहने वालो की चौखट की उस पर कृपावती बनी रहती हैपर खडी दरिद्रता प्रवेश के क्षण देखती रहती है। "य: काकिणीमप्यपथ प्रपन्नां समाहरेन्निष्कसहनतुल्याम । "समय महापन क्रियाशीलका समय ज्ञानधन यत्तियों का, कालेन कोटिष्वपि मुक्तहस्त त राजसिंह न जहाति लक्ष्मी समय सवा मुल्यांकन करता कृतियों और प्रकृतियों का।" -सुभाषित -वैदर्भी महाकाव्य वस्तुत: मनुष्य को स्मरण रखना चाहिए कि काल को जिन्होने स्वतश्मथुप्रो और वार्धक्यजनित कुब्जता मे पुरुषार्थ से ही जीता जा सकता है और विद्या को विनम्र ममय की दीर्घता को देखा है वे उसके बाहरी स्थूल द्रष्टा होकर प्राप्त किया जाता है। पौरषेण जयेत काल विद्या है; क्योकि 'न तेना वृद्धो भवति येनास्य पलित शिर:'- विनय सम्पदा'-क्योंकि प्रायु का कोई विश्वास नहीं। इस बात मे कि शिर के बाल श्वेत हो गये हैं, कोई वृद्ध जिन श्वासों के तन्तु ही अदृश्य है, उन्हें बाध रखने का (मान्य) नही हो जाता। तुषार को प्रोढ़ कर सभी उपाय क्या है ? वे तो किसी भी क्षण अलभ्य हो सकते पत्थर हिमालय नहीं बन जाते । वृद्ध वही हो पायेना हैं। इस महत्त्व को हृदयंगम करने वालो ने ही अनुभव जिसने समय का अध्ययन, मनन, चिन्तनादि मे सदुपयोग किया है किकिया है। अन्यथा बालबापल्य की सीमा से जिनका मानस "प्रायः क्षणलवमानं न लभ्यते हेम कोटिभिः क्वापि। बहिर्भूत नहीं है, उन वय.प्राप्त (पक्व अवस्था वाले) तद् गच्छति सर्वमृषतः काधिकाऽस्त्यतो हानि.॥" लोगो को ज्ञानवृद्धों से ऊपर मानना होगा। इस दृष्टि म महो ! मायु प्रतिमूल्य है, मूल्य से परे है। संमार वद्धत्व की वास्तविक स्थिति पाने के लिए केवल वय. को विपणी मे सर्वस्व मिल सकता है, परन्तु प्रायु नही सापेक्ष होना आवश्यक नहीं, ज्ञानोपासना, तत्त्वाधिगम मिल सकती। कोई वैद्य, डाक्टर, हकीम इसकी वृद्धि का तथा माचार वैशिष्ट्य अपेक्षित है। "यद् यदाचरति श्रेष्ट उपाय नहीं जानता। 'सुर, प्रसुर खगाधिप जेते मृग ज्यों स्तनदेवेतरो जनः। स यत् प्रमाणं कुरुते लोक स्तदुनु हरि काल दलेते। मणि मंत्र तन्त्र बहु होई मरते न बचावे वर्तते।' ममाज मे श्रेष्ठ पूरुष के प्राचरण का मामान्य जन कोई। -(छह ढाला, दौलतराम) कोटि स्वर्ण देकर मनुकरण करते हैं और उसके द्वारा प्रमाणित को प्रमाण भी आयु का क्षण नहीं खरीदा जा सकता । यह अमूल्य Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनेकान्त है। यदि इसे यों ही गंवा दिया तो इससे बढ़कर हानि महान् व्यक्ति वह उदार होते हैं। वे इस संसार में क्या हो सकती है। विपुल यश, धन, वैभव, बल मादि उपाजित करते है तथा कदाचित् नदी का प्रवाह लौट सकता है, पतझर के दोनों हाथों उसे संसार को दान में देते हैं। किन्तु समयपश्चात् वसन्त का पुनरागमन हो सकता है, घटी यत्र को दान मे वे बहुत कुपण होते है। सामान्य लोग हंसी-ठट्ठे शलाका (सूई) बारह घण्टे के अनन्तर पुनः उसी प्रक मे, मनो-विनोद मे, चलचित्र दर्शन-मादि में समय को पर लौट पा सकती है. पुनः पुनः उसी पूर्व क्षितिज पर जिस प्रकार अपव्यय के गर्त मे डालते है, उसे वे सोच भी सूर्य का प्रत्यावर्तन हो सकता है किन्तु गया हुमा समय नहीं सकते। मणिबन्ध (कलाई) पर बधी हुई घड़ी से अतिक्रान्तमुहूर्त फिर नहीं लौटता । 'प्रत्यायान्ति गता. अधिक वे हृदय में स्पन्द करती हुई प्राणपटिका की टिकपुनर्नदिवसा. ।' पवनवेग अश्व और लोकान्तरगाही टिक पर अधिक सावधान रहते है क्योकि उसकी गति विमान उसकी क्षिप्रता का अनुधावन नही कर सकते। समाप्त होने पर फिर "चाची" नहीं दी जा सकती। उसकी गति भी उपमा क्षिप्रगामी प्राधी से नहीं दी जा "विन्दुभिः पूर्यते घट."-"बंद-बूद जल भरहिं तड़ागा"सकती, उसके महत्त्व को अतोल मणिरत्नो की सम्पदा से के उदाहरण को वे क्षण-क्षण बचाकर चरितार्थ करते हैं। नहीं आंका जा सकता। वह अपने माप में सर्वोत्तम है, ऐसे लोग चौराहे पर नहीं देखे जा सकते, उन्हे थियेटरअनुपम प्रतितीय है। ससार की समस्त वस्तुमो का सिनेमाहाम की भीड़ में नही पाया जा सकता। वे किसी मूल्यांकन समय करता है । एक समय साधु भिक्षा के लिए ताम्बुलिक की हाट पर पान की गिलौरिया कपोल गह्वरो प्रबलित पाणि होता है और एक समय वही पाशीर्वाद मे दबाये नहीं दिखतं । उनका इन्द्र तो समय के साथ की मुद्रा में वरदानो की वृष्टि करता है। समय पर वर- चलता है। वे रात दिन समय मन्दिर की घटिया बजाते, सने वाला मेघ कृषि को स्फीन करता है और समयाति- समय मातृका के क्षण-पत्र पलटते, काल देव की स्मित क्रमण पर बही उसके विनाश का कारण हो जाता है। पारा में नहाते अपने को कृतार्थ करते है। क्योंकि, जो ठरे लोह पर धनों की चोट व्यर्थ है। समय की ध्वजा को अपनी श्वासवायु से ऊपर लहराता मनुष्य के अध्ययन, अर्थोपार्जन, श्रम तथा विश्राम है, उसे कृतज्ञ होकर समय कीर्ति प्रदान करता है। समय सभी के लिए एक ममय निश्चित होता है। यह जीवन के साथ मित्रता रखने वालो ने यहा दोनो हाथों रत्न समय में विभक्त है। व्यर्थ समय खोने वालो को समय उछाने, मणिवर्षा की, सुख लूटा, मानन्द बाटा और जोते अग्नि में जलाकर भस्म कर देता है। सूर्य को उदयरथ पर हुए उत्तम लोको का पाथेय साथ ले गये "मायुगच्छति माम देख कर ममार अपने समय की निश्चिति करता पश्यत प्रतिदिनं याति भय योवन" प्रतिक्षण मायु समाप्ति है क्योकि वह वेनापनि है, समय के सकेत की सुइया को पार जा रही है। यौवन बीत कर वार्धक्य मा रहा उमकी रश्मियों में गतिशील है। सत्य है, जो धून के है। इसे समझाने को नीतिकार कहते हैंधनी है, लगन के पक्के और साहस के भण्डार है, ध्रव "अजनस्य अयं दृष्टवा बल्मीकस्य च संचयम् । सूची (कम्पास) के समान समय उनका मुख देखता रहता प्रवन्ध्यं विवसं कुर्याद बानाध्ययनकर्मभिः।" है। किन्तु जो मालसी हैं, समय, उनके ऊपर से उगते सूर्य कज्जल की डिबिया में से बहुत स्वल्पपरिमाण में, के समान निकल जाता है और ऐसे दीर्घ सूत्री व्यक्ति जब अलि के प्रमभाग पर लेकर उसे पासों में लगाया जाता कछ करने के बांधन बाँधते हैं तब तक जीवन की सन्ध्या पर इस पल्पमात्रा में लेते लेते एक दिन कज्जल की घिर जाती है और मृत्यु के महातिमिर मे वे मिट जाते हैं। रिबिया रिक्त हो जाती है । इसी प्रकार पीटे वल्मीक का इसलिए रात्रि की काली चादर फैलने से पूर्व सारे काम निर्माण करते है पीर पृथ्वी मे बिल बनाकर एक-एक कण निबटा डाले,कही ऐसा न हो कि एक दिन के लिए छोड़ा मुंह में भर कर बाहर रखते जाते हैं, बोरे समय में यहाँ इमा काम किसी दूसरे जन्म के लिए शेष रह जाए। मिट्टी कार हो जाता है। यह कज्जल की समाप्ति और Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय का मूल्य वल्मीक का निर्माण घोडा-थोडा व्यय-संचय करने का न गणयनि दुखन सुखम" कार्यशील मनस्वी दुखों. परिणाम है। इस रहस्य को जानकर बुद्धिमान अपने सुखों की परवाह नहीं करता। उन्हें तो अपने कार्य की महोगत्र का उपयोग दान, प्रध्ययन तथा सत्कों में करते न रहती हैहैं। "प्रस्तं वजन रविनित्य-मायुरादाय गच्छति"- ___ "दिनं वा रात्रि प्रखरतपनो पाहिमचिः इवता हुमा सूर्य प्रतिदिन प्राणिमात्र की प्रायु का प्रश कुशाना बीपिर्वा मुलनव दुर्गाकुर-पमः लेकर जाता है। एतावता ज्ञानवान् वह है जो प्रजर. सुदूरं पावना बसतिरिति नानाकुलपियो अमर बुद्धि रख कर विद्योपार्जन करता है, घनाजंन मे नजायन्ते कर्मस्वविरत निमग्ना हि सुषियः॥" लगा है किन्तु मृत्यु किसी भी क्षण भाकर कण्ठावरोध कर "दिन है अथवा रात्रि, सूर्य का प्रखरताप है अथवा सकती है, यह विचार कर धर्म का प्रति क्षण प्राचरण शीतल इन्दुरश्मियां, मार्ग मे कुषों (वभों) की बीपि है करता है। हितोपदेश में विष्णु शर्मा की उक्ति है कि अथवा कोमल दूर्वाकुर ? मन्तव्य समीप है या दूर? इस 'परामरवत् प्राज्ञो विधामपच चिन्तयेत् । प्रकार की प्राकुलता उत्पन्न करने वाली बुद्धि कार्य में गृहीत इव केशेषु भरपना बर्नमाचरेत् ॥" दत्तावधान सुधीजनों को खिन्न नही कर सकती। उनके -मित्रलाभ पास एक तुलादण्ड (तराज) है जिसके रात्रि और दिन वास्तव में मग्रह क्षण-क्षरण का ही किया जाता है। दो पल्ले हैं। उनमे एक मोर क्षण तथा दूसरी मोर कार्य एक साथ कलश नहीं भरता और एक प्रहार मे पर्वत समलित हो रहे हैं। ऐसा नही होता कि क्षण घरे धरे नही टूटने निरन्तर बिना श्रान्त हुए उद्यम मे लगे रहने पर्युषित हो जाए और कार्य क्षण रहित होकर मूल्पवित से ही सम्पदामों की प्राप्ति हो सकती है। हो उठे। जैन दर्शन में समय नाम प्रात्मा का है। इस समय "कबीनों ने माया, मुकुट पहनाया नियति ने को ही जानना मनुष्य भा का सर्वोतम फल है। अनि- झुकाया सम्मानस्तिमितशिर पन्या प्रकृति ने पदों में भी "मात्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तभ्यो लगाया मारेको तिलक उनके कालभट ने निदिष्यासितपः" कहकर मात्मा को ही परम श्रेष कहा जिन्होंने पधान्त अमित दुलराया समयको।" है। "समयसार" अन्य की रचना करते समय प्राचार्य -सूक्ति सुधाकर कुन्द कुन्द ने "नम ममय माराय" लिखा है। टीकाकार "कवीन्द्र उनका यशोगान करते हैं, नियति उन्हे अमनचन्द्र सूरि ने व्यायामात्र से "परमविशुद्धि रूम" मुकूट पहनाती है, प्रकृति भी उनके सम्मान मे नतशिर हो फल की प्राप्ति बताई है । "मम परमविशुद्धिः- झुक जाती है, और काल मा सुमट उनके मस्तक पर भवतु समयसार ब्याख्ययैवानुभूते"। इस प्रकार ससार तिलक लगाता है, जो प्रश्रान्त होकर समय को दुमगते बन्धन से मुक्ति समयवेदिता से ही सम्भाव्य है। हैं, प्यार करते हैं।" मुनि महाराज अभीक्षण-ज्ञानोपयोग द्वारा समय की ही "विजेता दुर्गाचा प्रथमगणनीयः सुकृतिनाम् जानते है । अयमेव हि कालोऽसौ पूबमासीदनागत." प्रणेता शास्त्राणां नवमिति बमोऽथ सुषियाम् -यही वह काल है, सुवेला है जो पूर्व में कभी नहीं प्राप्त स्वयं लेता नानाभवजनितकर्माभिधमहा-- हमा था-ऐमा मानने वालो ने प्रगति के पचाग नहीं रिपूणा जात नविभव संख्यान निणः।" देवे, यात्रामों के मूहूनों की प्रतीक्षा नहीं की और अपने -सुधाशतकम् प्रयत्नो को, उत्साह से व्यतिरिक्त किसी बन्धन में नही "वह कठिनतानो पर विजय प्राप्त कर लेता है, बांधा। क्या सूर्योदय के समय किसी दिन भद्रा नही होती, पुण्यवानो में प्रथम गणनीय हो जाता है, शास्त्री के निर्माण परिवयोग नही पाता। परन्तु इनके प्राने पर भी रवि के में मामयं पा जाता है तथा पण्डिन मभानो में नूतन मंगन-अभिमान कभी सकते है क्या। "मनस्वी कार्यार्थी मूक्तियाँ कहने में दक्ष हो जाता है। अनेक जन्मो से माय Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त लगे कर्म शत्रुओं का क्षय करने में सक्षम हो जाता है जो मूल्यांकन करने से उन्नति के उच्च शिखरों का स्पर्श क्षण क्षण के मूल्य को पहचानने में निपुण होता है ।" सुनिश्चित है। उठो, समय को पहचानो। जीवन का यह समय काम दुघा धेनु है, इसकी सेवा से मन चाहा प्रत्येक क्षण मंगलमय है, उसे क्रियाबहुल कर सुखी जीवन वरदान मिल सकता है। एक-एक ईंट रखने से महान् की प्राधार शिला रक्खो। भवन का निर्माण यदि सम्भव है तो एक एक क्षण का नरभव की विफलता सन्त कुमुदचन्द मैं तो नर भव वादि गमायो॥ न कियो तप जप व्रत विधि सुन्दर, करम भलो न कमायो ॥१॥ विकट लोभते कफ्ट कूट करि, निपट विर्ष लपटायो। विटल कुटिज शठ संगत बैठो, साधु निकट विघटायो । कृपण भयो कछु दान न दीनी, विन विन बाम मिलायो। जब जोवन जंजाल पच्चो तब, परतिरिया चित लायो ॥३॥ अंत समै कोउ संग न पावत, झूठहिं पाप लगायो। 'कुमुवचन्द्र' कहे चक परी मोह, प्रभुपद जस नहि गायो ॥४॥ 'अनेकान्त' के स्वामित्व तथा अन्य व्योरे के विषय में प्रकाशन का स्थान वीर-सेवा-मन्दिर भवन, २१ दरियागंज, दिल्ली प्रकाशन की अवधि द्विमासिक मुद्रक का नाम प्रेमचन्द राष्ट्रीयता भारतीय पता २१, दरियागज, दिल्ली प्रकाशक का नाम प्रेमचन्द, मन्त्री वीर-सेवा-मन्दिर राष्ट्रीयता भारतीय २१, दरियागंज, दिल्ली सम्पादक का नाम डा. प्रा. ने. उपाध्याये एम. ए. डी. लिट्, कोल्हापुर डा०प्रेमसागर, बडीत यशपाल जैन, दिल्ली गष्ट्रीयता भारतीय पता मार्फत वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली स्वामिनी संस्था वीर-सेवा-मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली मैं, प्रेमचन्द घोषित करता है कि उपरोक्त विवरण मेरी जानकारी और विश्वास के अनुसार सही है। १५-२-६७ ब.प्रेमचन्द (प्रेमचन्द) पता Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन चम्पू काव्यों का अध्ययन प्रगरचन्द नाहटा जैन साहित्य बात विशाल और वैविध्यपूर्ण है। रचनामो का संग्रह-सम्पादन और नई रचनामो का भाषा और विषय की विविधता होने के साथ-साथ उसकी निर्माण करते हैं । वे जिम किसी को प्रेरणा देकर या सप अपनी ऐसी कई विशेषताएं हैं जिससे भारतीय साहित्य मे से रुपया इकट्रा कर जहां-कही से ग्रन्थ प्रकाशित कर देते ही नहीं विश्व साहित्य मे उसका उल्लेखनीय स्थान हो हैं। बहुत से ग्रन्थ तो अपने परिचित प्रादि को मुफ्त सकता है पर खेद है जैन विद्वानो एवं समाज ने अपने वितरण कर दिये जाते हैं। बहुत-से यों ही कहीं पडे साहित्य का महत्त्व सर्व विदित होने का यथोचित प्रयत्न रहते हैं, बहत थोडे से ही बिक पाते है। उपयुक्त विद्वानों नही किया। सैकड़ों नही हजारो महत्वपूर्ण रचनाएं प्रभी जिज्ञासूमों, पत्र सम्पादकों, ग्रन्थालयो तक वे पहुंच ही अप्रकाशित पढी है और जो हजारो ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं नहीं पाते। न उन ग्रन्थों की समालोचना ही प्रकाशित उनका प्रचार भी बहुत सीमित रहा। इसलिए जनेतरो होती है न विजारन ही। इस स्थिति में लाखों रुपये के की बात तो दूर जैन विद्वानो तक को अपने कौन से ग्रन्थ खर्च द्वारा जो लाभ जैन एवं अन्य समाज को मिलना कहा से प्रकाशित हए है इसकी जानकारी तक नहीं है तो चाहिए उसका शताश भी नहीं मिल पाता। उसके अध्ययन एव मूल्याकन का तो प्रश्न ही नहीं उठता। यह बहुत हर्ष की बात है कि इधर हिन्दी में शोधबीच मे कुछ महीने पूर्व मुझे एक दिगम्बर जैन विद्वान् । कार्य बहुत तेजी से प्रागे बढ़ रहा है। सहस्त्राविक शोधका पत्र मिला कि श्वेताम्बर दिगम्बर समस्त प्रकाशित प्रबन्ध विविध विषयक लिखे जा चके हैं-शताधिक तो जैन ग्रन्थो की कोई सूची तक हम प्रकाशित नही कर प्रकाशित भी हो चुके है। इन शोध प्रबन्धों मे यथा प्रसंग सके। श्वेताम्बर मुद्रित ग्रन्थो की एक महत्त्वपूर्ण सूची जैन साहित्य एवं दर्शन का भी कुछ उल्लेख होता है। करीब ४०-५० वर्ष पूर्व स्व. श्री बुद्धिसागर सूरिजी यद्यपि उनमे बहन-सी भल-भ्रान्तिया भी हो जाती है। ने प्राध्यात्म ज्ञान प्रसारक मण्डल से प्रकाशित करवाई नमासिपल होने से या प्रगत समय पर थी। उसके अनेक वषो बाद श्री पन्नालाल जन के प्रयत्न श्रम के अभाव में शोध प्रबन्ध के लेखक मूल जैन प्रन्यों से प्रकाशित ग्रन्थो की एक सूची प्रकाशित हुई पर ये दोनो को कम ही पढ़ते हैं, दूसरों के किये हुए उल्लेखों से अपना ही प्रयत्न बहुत ही अधूरे हैं। प्रतिवर्ष सैकड़ो छोटे-मोटे काम निकाल लेते हैं। फिर भी कुछ शोध प्रबन्धों मे जनग्रन्थ इधर-उधर से प्रकाशित होते है उनकी जानकारी प्रयत्न पूर्वक जैन प्रन्थो को प्राप्त कर उनके अध्ययन एव प्राप्त करना बहुत ही कठिन है। क्योंकि न कोई ऐसा मूल्याकन का प्रयत्न किया जाता है। पर खेद की बात है बडा ग्रन्थालय है जिसमे सब अन्थों का प्रयत्नपूर्वक संग्रह किyिai मोध प्रबन्ध जैन विद्वानों या पठकों किया जाय, न कोई ऐसा प्रकाशनालय है जिसके द्वारा जिज्ञासपों के प्रवलोकन में नहीं पाते, इसलिए जनधम, एक ही जगह से सैकड़ो पुस्तके प्रकाशित होती हो। न हा दर्शन, इतिहास, साहित्य, कला एवं संस्कृति के मबन्ध मे कोई ऐसा पुस्तक-विक्रेता ही है जो समस्त प्रकाशित जन किन-किन जैनेतर विधान लेखकों ने अपने किन किन ग्रन्थो ग्रन्थो का क्रय एवं विक्रय करता हो। जैन समाज के में क्या-क्या लिखा है उसको जानकारी प्रायः जैन ममाज लाखों रुपये प्रतिवर्ष प्रन्थ प्रकाशन मे खर्च होते है। पर के मामने नही पा पाती। शोध प्रबन्ध अधिक पूल्य वाले न कोई ग्रन्थ का स्तर होता है और न प्रचार ही। अधि- होते हैं इसलिए उन्हें कोई जैन विद्वान् तो क्या बड़े-बड़े कांश साधु-साध्वी और कुछ विद्वान् एवं धावक पुरानी जैन ग्रन्थालय व पुस्तकालय भी नहीं खरीद पाते। Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त सौभाग्य से मुझे अधिकाधिक ग्रन्थों के अवलोकन का करवाया जाकर प्रकाशन भी शीघ्रातिशीघ्र करवाना सुमवसर मिलता रहता है। इसमें सबसे प्रधान कारण तो चाहिए। मेरी अपनी साहित्याभिरुचि है कि कोई भी अच्छा ग्रन्थ जैन साहित्य सम्बन्धी शोध प्रबन्ध भी कई अच्छेकही से भी प्रकाशित हुमा मुझे मालूम पड जाय तो जब अच्छे लिखे गये हैं पर उनमे बहत से प्रकाशित नहीं हो तक उसे प्राप्त कर पढ़ न लूं, तब तक एक बेचैनी-सी पाये। कुछ प्रग्रेजी मे, कुछ हिन्दी में निकले है उनकी अनुभव करता हूँ। शताधिक पत्र-पत्रिकाए मेरे 'अभय भी सूची पूरी प्रकाशित नही हुई। मैंने इस सबन्ध में जैन ग्रन्थालय' में प्राती हैं और जो नही पाती वे जहां पहले भी एक लेख प्रकाशित किया था कि जैन साहित्य कहीं भी माती हो मालूम होने पर उन्हे प्रयत्न पूर्वक संबधी किसने, किस विषय पर, किस विश्वविद्यालय के ममा कर या जाकर पढ़ लेता हूँ और उनसे जो नये प्रका- अन्तर्गत शोध प्रबंध लिखे या लिखे जा रहे हैं। उन उन शनों की जानकारी प्राप्त होती है, उन ग्रन्थो को मे से कौन-कौन से व कहा-कहा से प्रकाशित हुए हैं इसकी स्वयं मगाकर या अन्य ग्रन्थालयो से मगाकर सरसरी पूरी जानकारी जैन पत्रों में प्रकाशित की जाय। कोई तौर से अवलोकन कर ही लेता है। इसी के फलस्वरूप एक जैन शोध संस्थान इस कार्य में प्रयत्नशील हो कि पचासों शोध प्रबधादि के सम्बन्ध मे मेरे लेख प्रकाशित प्रति वर्ष सभी विश्व विद्यालयों से शोधकार्यों की जानहो चुके है। सम्भवत. उनमे से अन्य किमी जैन विद्वान ने कारी प्राप्त कर जैन सम्बन्धी जानकारी प्रकाशित करता २.४ ग्रन्थ ही क्वचित् देखे हों। बड़े-बड़े पुस्तक-विक्रनगमों रहे। साथ ही स्वतन्त्र रूप मे जैन सम्बन्धी न भी लिखा के सूचीपत्र भी मैं मगाता रहता है जिससे मेरी जानकारी हो पर प्रासंगिक रूप में भी अन्य शोध प्रबन्धो में जैन अद्यतन रह सके, और जो कुछ लिखू उसमे कुछ न कुछ मंबधी जो भी लिखा गया हो उसका सक्षिप्त विवरण ही नवीनता, मौलिकता और अज्ञात तथ्यो की जानकारी प्रकाशित किया जाता रहे। समावेशित हो सके। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के डा. छविनाथ त्रिपाठी का __ मंस्कृत भाषा भारत की एक बहुत प्रसिद्ध एव वैज्ञा- एक शोध प्रबन्ध 'चम्पू काव्य का मालोचनात्मक एव निक भाषा है। उसमें सर्वाधिक साहित्य-निर्माण हुमा है। ऐतिहासिक अध्ययन' नामक ग्रन्थ चौखम्बा विद्या भवन सभी प्रान्तों में प्रान्तीय भाषामों के साथ सस्कृत में भी बनाग्म से सन् १९६५ मे प्रकाशित हुमा है। प्रागरा लिखा व पढ़ा जाता रहा है। अनेक विषयो एव अनेक विश्वविद्यालय से लेखक को इस प्रबन्ध पर पी. एच. डी. पोलियो की लक्षाधिक छोटी-बड़ी रचनाए सस्कृत भाषा की डिग्री प्राप्त हुई है। अन्य वास्तव मे ही बडी खोज मे अभिवृद्धि में अधिकाधिक सहयोग रहा है। जैन एवं परिश्रम से लिखा गया है। प्रकाशित और अप्रकाशित संस्कृत साहित्य का इतिहास' गुजराती में प्रो. हीरालाल २४५ चम्पू काव्यों का उसमे उल्लेख मिलता है। लेखक रसिकलाल कापड़िया, सूरत ने कई भागो में लिखा है। ने प्रस्तावना मे लिखा है कि "सस्कृत के प्राचार्यों ने गद्यजिसका प्रथम भाग कई वर्ष पूर्व प्रकाशित हुआ था। पद्यमय काव्य को चम्पू की मजा दी है। प्रध्याप्ति और दूसरा भाग भी काफी छप चुका है। यद्यपि उनके लिखित प्रति व्याप्ति-दोष से रहिन चम्प की परिभाषा निम्नइतिहास में अनेक रचनाए मा नही पाई, फिर भी बहत लिखित श्लोको मे दी गई हैबड़ी जानकारी इस ग्रन्थ के पूरे प्रकाशित होने पर मिल "गद्य पद्यमयं श्रव्यं सबन्ध बहुणितम् । ही जायेगी। हिन्दी और अग्रेजी मे भी ऐसे ग्रन्थ प्रकाशित शालं कृत रसः सितं, चम्पुकाव्यमुदाहृतं ।." होने ही चाहिए । पाश्र्वनाथ जैन विद्याश्रम, वाराणसी की चम्पू काव्य धारा का ४०० वर्षों का इतिहास शिलाजैन साहित्य के इतिहास के प्रकाशन की योजना में एक- लेखों की गोद में छिपा है। समास बाहल्यता प्रौर एक विषय के समस्त जैन साहित्य का परिचायक ग्रन्थ अलङ्करण की प्रवृत्ति से युक्त मिश्र शैली का सर्वोत्कृष्ट तैयार करवाया जा रहा है। इस काम को और तेजी से उदाहरण हरिसेण की 'प्रयाग प्रशस्ति' है । २०वी शताब्दी Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन चम्पू काम्यों का अध्ययन के मध्य में ही चम्पू काव्यो का ग्रन्थात्मक सृजन प्रारम्भ नहीं है। यहाँ केवल इस रचना का साहित्यिक मूल्यांकन हुमा। मिश्र शैली के विकास के अन्वेषण मे दक्षिण भार- मात्र किया गया है। वह अपने युग के सामाजिक व तीय भाषामो में उपलब्ध इसके रूपों का सांकेतिक उल्लेख सांस्कृतिक परिवेश, चिन्तन और निष्ठामो को भी व्यक्त किया गया है। करता है।" इस शोध प्रबन्ध में २४५ चम्म् काव्यों का उल्लेख जहां तक जैन चम्पू काव्यों का प्रश्न है इस ग्रन्थ मे किया गया है जिनमे मे ७४ चम्पू काव्य तो विविध ६ ग्रन्थो का उल्लेख है। इनमे से "समरादित्य कथा" स्थानों से प्रकाशित भी हो चुके है। इस शोध प्रबन्ध मे को तो लेखक ने देखा ही नही प्रतीत होता, क्योंकि उसके १०२ चम्पू काव्यो का कुछ विस्तृत पलोचनात्मक परिचय कर्ता का नाम प्रज्ञात लिखा है और ग्रन्थ को अप्रकाशित दिया गया है । वर्ण्य वस्तु और मूल श्रोतो के अन्वेषण से बतलाया है-यह दोनो ही बाते सही नहीं है। यदि जो तथ्य सामने आये है उनसे ज्ञात होता है कि रामायण समरादित्य कथा चम्पू काव्य है तो वह कहा प्राप्त है या पर ३६, महाभारत पर २७, भागवत पर ४५, शिव- उमे चम्पू मानने का प्राधार क्या है ? इसका उल्लेख तो पुराण पर १७, अन्य पुराणों पर २३, जन पुराणों पर लेखक को करना ही चाहिए था। मेरे ख्याल से तो सम६, ऐतिहासिक और सामान्य व्यक्तियों के चरित्रो पर ४८ रादित्य कथा चम्पू काव्य नहीं है। अन्य ५ जैन चम्मू तथा यात्रा वृत्तों पर १३ चम्पू काव्य लिखे गये है। दिगम्बर विद्वानो के रचित हैं यथास्थानीय देवतामों के चरित या उनके महोत्सवों पर २५, १. जीवधर चम्प--हरिचन्द्र प्राधार, उत्तर पुगण तथा विचारात्मक या काल्पनिक कथा पर प्राश्रित ५ २. पुरुदेव चम्पू-अरहदाम, प्राधार प्रादिपुराण चम्पू काव्य हैं। ३. , , -जिनदास शास्त्री, उत्तर पुगण प्रथम चम्पू काव्य 'नल चम्पू' है+। १५वी शताब्दी ४. भरतेश्वराभ्युदय-प्राशाधर, प्रादिपुगण तक केवल २० चम्प काव्य उपलब्ध होते है। शेष बाद के ५. यशस्तिलक चम्पू-सोमदेव मूरि, उत्तर पुराण २५० वर्षों में लिखे गये है। कुछ कवि राज्याश्रित हैं। इन पाचो मे से भी जिनदास शास्त्री का पुरुदेव कुछ विविध मठो, मन्दिरो या सामन्तों से मबधित है। चम्पू का कोई विवरण नही दिया गया। प्राशाधर का पौगणिक चम्प काव्यो की मख्या सबसे अधिक है, उसके भरतेश्वराभ्यदय चम्प भी अप्रकाशित होने से त्रिपाठीबाद चरित चम्पू का पहला स्थान है। चम्पू काव्य के स्मतिशास्त्र की भूमिका के आधार से ही इसका उल्लेख निर्माण मे भक्ति आन्दोलन और दरबारी वातावरण ने किया गया है। मेरी राय मे यह काव्य है चम्पू नही । प्रभावकारी शक्तियो के रूप में कार्य किया है। १६वी और शेप तीनो चम्पू प्रकाशित होने से उन्ही का परिचय शताब्दी के बाद के भक्ति परक चम्पू काव्यो मे भी दिया गया है। इनमे से यशस्तिलक चम्पू का तो विशिष्ट अंगार और विलासता के उत्तान चित्र प्राप्त होते है। अध्ययन एक स्वतन्त्र अध्याय के रूप में अन्त के १६५ से शेव चम्पू काव्य इससे बचे हुए है। उत्तर भारत में केवल ३५६ पृष्ठो मे किया गया है। प्रत. उमको छोड कर ४६ चम्पू काव्यों की रचना हई है शेष दक्षिण भारत मे अन्य दो चम्पयो के विवेचन का प्रावश्यक प्रश यहा दिया लिखे गये है। जा रहा है। __ अन्त मे एक लोकप्रिय और अत्यन्त महत्त्वपूर्ण चम्पू ग्रन्थ के पृष्ठ 8 में लिखा गया है कि "संस्कृत की काव्य यशस्तिलक का विस्तृत मालोचनात्मक परिचय तत्सम पदावली से सम्पन्न तमिल भाषा की एक शैली प्रस्तुत किया गया है। इसका उद्देश्य इस भ्रान्ति का + जिनरल कोश में इसे काव्य बनलाया है। मोना निराकरण है कि चम्पू काव्यो की अपनी कोई विशेषता गिर के दि० भट्टारकीय भडार में इसकी प्रति बत. + प्राकृत कुवलयमाला उद्योतन सूरिरचित ही भारत का लाई गई है अत: देख कर निर्णय कर लेना मावप्राचीन चम्पू काव्य है। पावश्यक है। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त मणिप्रवाल के रूप में विकसित हुई। मणिप्रवाल के प्रयोग प्रार्द्रदेव और माता का नाम रथ्यादेवी था। इनका समय का क्षेत्र कन्नड़ और मलयालम भाषामों तक विस्तत अनिश्चित है, किन्तु ई०१०. से लेकर ११०० तक के हुप्रा । इसके परिणाम स्वरूप इन तीनो भाषामों का मध्य ये विद्यमान थे। हर्षचरित के प्रारम्भ में बाण भट्ट संस्कृत से अधिक सानिध्य रहा। शैवों, वैष्णवों एवं जैन ने भट्टार हरिचन्द्र का उल्लेख किया है। कवियों द्वारा तमिल में सभी भाषामों से पहले अपने- पदबन्धोज्जवलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः । अपने सिद्धान्तों एवं विश्वासों के माधार पर काव्य रच- भट्टार हरिचन्द्रस्य गचव धो नुपायते ॥ नाएं हुई । 'जैन चम्पू काव्यों के लिए तो निश्चित रूप से कर्पूर मजरी की प्रथम जवनिका मे नंदिनंद के पूर्व तमिल कृतिया प्रेरणा का स्तोत्र रही।" हरिचन्द्र का उल्लेख हुमा है । बाण भट्ट का समय सातवीं यशश्तिलक, जीवंधर और पुरुदेव चम्प का संक्षिप्त सदी का मध्य भाग है, अत: यह भट्टार हरिचन्द्र कोई विवरण इम प्रकार है अन्य गद्यलेग्वक हैं। यशस्तिलक चम्पू-इस चम्पू काव्य के रचयिता ___इम चम्पू काव्य का मूल स्तोत्र भी गुणभद्र का उत्तर सुप्रसिद्ध जैन कवि श्री सोमदेव या सोमप्रभ मूरि हैं। यह पुराण है। यह कथा सुधर्मा के द्वारा सम्राट् श्रेणिक को चालुक्य राज अरिकेशरिन् (द्वितीय) के बड़े पुत्र द्वाग संरक्षित कवि थे। राष्ट्रकूट के राजा कृष्ण राजदेव के र सुनाई गई थी। समकालिक होने के कारण, सोमदेव ने इस चम्पू काव्य या कथा भूतधात्रीशं श्रेणिक प्रति वणिता। सुधर्मगणनाथेन हां वक्तुं प्रयतामहे की रचना लगभग ६५६ ई. के आस-पास की। जैनो ॥१०॥ मदीयवाणीरमणी चरितार्था चिरावभूत । का उत्तर पुराण इमका मूल्य उत्स (स्रोत) है। इसमे वन जीवन्धरं देवं या भावनिज नायकम् ।१॥११॥ प्रवन्ती के राजा यशोधर का चरित जैन सिद्धान्तो को लक्ष्य बना कर वर्णित है। कथा का अधिकाश काल्पनिक यशस्तिलक, पृरुदेव प्रादि अन्य जैन चम्पू काव्यों की पुनर्जन्म के विश्वास पर आधारित है। प्रथम चार तरह ही इसमें भी प्रारम्भ मे जिनम्तुति है। इस चम्प प्राश्वासो मे कया अविच्छिन्न गति से प्रागे बढती हैं। काव्य में कुल ग्यारह लम्भ हैंइस कृति द्वारा सोमदेव के गहन अध्ययन, प्रगाढ़-पाडित्य, (१) सरस्वती लम्म, (२) गोविन्दालम्भ (३) भाषा पर स्वच्छन्द प्रभुत्व एव काव्य क्षेत्र मे उनकी नये- गन्धर्वदत्तालम्भ, (४) गुणमालालम्भ, (५) पद्मालम्भ, नये प्रयोगो की पभिरुचि का परिचय मिलता है। सोम- (१) क्षेमधीलम्भ. (७) कनकमालालम्भ, (6) विमलादेव ने कई अन्य कवियो के नामोल्लेख सहित, उनकी लम्भ, (६) सुरम जरीलम्भ, (१०) लक्ष्मणालम्भ, मुक्तक कृतियो को इस चम्पू काव्य में उद्धृत किया है। (११) मुक्तिलम्भ । इस चम्पू काव्य पर श्रुतसागर सूरि की मुन्दर व्याख्या स्थान स्थान पर जैन सिद्धान्तानुसार धर्मोपदेश है। है। (विशेष विवरण स्वतंत्र है अध्याय में है)। माघ और वाक्पतिराज का प्रभाव भी प्रत्यक्ष दिखाई जीवन्धर चम्पू-हरिचन्द्र ने इस चम्पू काव्य की पड़ता है। धार्मिक भावना की कवित्वपूर्ण अभिव्यक्ति का रचना की है। कीथ ने इस हरिचन्द्र को ही 'धर्म शर्मा- यह चम्पू काव्य सुन्दर उदाहरण है। हिन्दू पुराणो की भ्युदय' काव्य का प्रणेता भी माना है, जिसमे पन्द्रहवे तरह कथा का महत्त्व भी अकित किया गया है। तीर्थकर धर्मनाथ जी का चरित वर्णित है। जीवन्धर चम्पू चम्पू काव्य को विशुद्ध परम्परा के अनुमार, कथा की रचना भी, राजा सत्यंधर और विजया के पुत्र जन की गति-शीलता गद्य-पद्य दोनों में समान रूप से दिखाई राजकुमार जीवन्धर के चरित को लेकर ही की गई है। पडती है । गद्य काव्य की तरह ही विशेषण-सयुत-समस्त यदि इन दोनो काव्यो के प्रणेता हरिचन्द्र एक ही हैं, तो पदावली दिखाई पड़ती है। ये नोमक वंश में उत्पन्न कायस्थ थे। इनके पिता का नाम पद्य भाग मे भी यशस्तिलक की तरह एकरूपता नही Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन चम्पू काग्यों का अध्ययन ३७१ है। कही तो अलकृत छन्द मात्र के ही दर्शन होते है। अपनी कविता के विषय मे स्वयं पहंदास ने कहा है हेतूप्रेक्षा से सम्पन्न उक्ति वैचित्र्य का एक सुन्दर उदा- कि वह कोमल-चारू-शब्द-निचय से सम्पन्न है। भगवान् की भक्तिरूपी बीज से, इस कविता लता का उद्भव यत्सौपानवलोक्य निर्जरपतिक निनिमेषोऽभवत् । हुमा है। विविध व्रत इसके पल्लव एव भनेक पलंकार यस्या वीक्ष्य सरोजशोभि परिखां गंगा विषादं गता। इसके पुष्प-गुच्छ है। ऋषभ कल्पवृक्ष से लिपटी यह यत्रत्यानि जिनालयानि कलयन् मेरुः स्वकार्तस्वरं। कविता-लता व्यग्य की श्री से सुशोभित हैस्वीचके च बलद्विषं सुरपुरी यां वीक्ष्य शोकाकुला ॥१॥१४॥ जातेयं कवितालता भगवतो भक्तयाण्यशीजेन मे, कथा का उपसंहार करते हुए हरिचन्द्र का यह निम्न- चंचकोमल चारुशम्बनिचयः पत्र: प्रकामोन्जवला। लिखित श्लोक, केवल तथ्य का वर्णन मात्र करता है। वृत्तः पल्लविता तत: कुसुमितालंकारविधित्तिभिः, गद्य-पद्य के समन्वित मानन्द को हरिचन्द्र ने अज्ञात सम्प्राप्ता वृषभेशकल्पतरू व्यंग्यधिया पर्वते ॥१२ यौवना वय. सन्धिप्राप्त नायिका-प्रदत्त मानन्द के समकक्ष गद्य काव्य की भांति अनुप्रासमयी-समस्त-पदावलीरखा है । इस चम्पू काव्य का मुख्य उद्देश्य, जीवन्धर के संपृक्त भाषा में नगरी वर्णन से इसका मारम्भ हुमा हैचरित के माध्यम से जैन धर्म के सिद्धान्तों का प्रतिपादन अथ विशालवीचिमालाविक्षिप्तविविध मौक्तिकपुत्रएव उसे लोकप्रिय बनाने का प्रयास करना था। प्रन्त के संजातमरालिकाभ्रमसमागतदढालिंगन मंगलतरंगित..." दो श्लोक भरत-वाक्य है, जिनमें कवि ने जैनतम एव रजताचलस्योत्तर श्रेण्यामलकाभिधानापुरी परिवर्तिता ।। अपनी सरस तथा अलंकृत वाणी के स्थान रूप से चिर स्तबक । जीवि होने की कामना प्रकट की है। कथा के उपसंहार में अहिंसा के प्रभाव का वर्णन पुरुदेव चम्पू-पण्डित प्रवर पाशाधर के शिष्य महत् किया गया है। और श्रोतामों की सर्व जीव दया की पोर या अहंदास की यह रचना जैन सन्त पुरुदेव का जीवन- उन्मुखता प्रदर्शित की गई है। वृत्त प्रस्तुत करती है। प्राशाधर के शिष्य होने के कारण इस ग्रन्थ के पृ० १४७ (२५४) मे अज्ञात कर्तृक प्रहदास का समय भी १३वी शताब्दी का उत्तरार्ध ही है। 'जैनाचार्य विजय' नामक चम्पू का उल्लेख है। डी. सी. इनकी अन्य रचनाए है-मुनि सुव्रत काव्य एवं भव्यजन २६/६७४६ मद्रास लायब्रेरी के इस ग्रन्थ का अध्ययन कंठाभरण। प्रावश्यक है। प्रादिपुराण, उत्तरपुगण एव मुनि सुवतपुराण में पृ० २०० मे यशोधरचरित सम्बन्धी जैन ग्रन्थों की पुरुदेव का चरित वणित है। यह कथा पहले गौतम नामक मूची दी है उसमें कई अन्यकारों के नाम गलत हैं। क्षमा गणभृत् ने श्रेणिक नामक राजा को सुनाई थी। कल्याणादि के तो प्रकाशित हो चुके हैं। इस सम्बन्ध में श्रीमद गौतमनामधेयगणभूत् प्रोवाच या निर्मला । मेरा खोजपूर्ण लेख दृष्टव्य है। यशस्तिलक सम्बन्धी २-३ स्यातनिकभूभते जिनपतेराबस्य रम्या कथाम् ॥ महत्त्वपूर्ण स्वतत्र अध्ययन भी प्रकाशित हो चुके हैं। इस तो भक्तव चिकीर्षतो मम कृतिश्चम्पूप्रबन्धात्मिका। प्रन्थ का ६१ पृष्ठों का विशिष्ट अध्ययन भी पठनीय है। बेलातीतकुतूहलाय विदुषामाकल्पमाकल्पताम् ।१-१६॥ चम्पू मण्हनादि-कई श्वे. जैन चम्पू काव्यों का अन्य जैन चम्पू काव्यो के सदृश्य ही इसमे भी जिन- इस अन्य में उल्लेख तक नहीं है उस सम्बन्ध में फिर कभी वन्दना है। स्वतंत्र रूप से प्रकाश डाला जायगा। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्र्वाभ्युदय काव्यम् : एक विश्लेषण प्रो० पुण्कर शर्मा एम. ए. मेघदूत की अनुकृति पर प्रचलित दूतकाव्य-परम्परा मरुभूति (पार्श्वनाथ तीर्थकर) छोटा भाई। कमठ दुश्चरित्र मे श्री जिनसेनाचार्य के चतुः सर्गात्मक "पाश्र्वाभ्युदय- था। उसने मरुभूति की सुन्दरी पत्नी वसुन्धरा पर कुदृष्टि काव्यम्" का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। प्रथ के अन्त में डाली तो उसकी शिकायत राजा अरविन्दराज तक पहुंची। दिए गए काव्यावतरण से पता चलता है कि बकापुर के अरविन्दराज ने कमठ की भर्त्सना की और उसे नगर से राजा अमोघवर्ष ने श्री जिनसेनाचार्य को गुरु बनाया था। निकाल दिया। बाद में मरुभूति सहज प्रेम के कारण उसे एक बार उसकी राजसभा मे कालिदास और उन्होंने ढढने निकला। उस समय वह धूर्त कमठ सिन्धु नदी के उपस्थित विद्वानों के प्रति अनादर प्रगट करते हुए मेघदूत तट पर तपस्वी के छद्य रूप में बैठा हा दिखाई दिया। पढ़कर सुनाया। तब विनयसेन नामक एक सहपाठी के मरुभूति ने उसे प्रणाम किया, किन्तु धूर्त तपस्वी ने अपना कहने पर श्री जिनसेनाचार्य ने उठकर कहा कि यह तो मंह फेर लिया। इसके बाद संभवत उसने मरुभूति की एक प्राचीनतर काव्य की चोरी है। इस पर उन्हें वह हत्या भी कर डाली। इसी मरुभूति ने पाश्र्वनाथ के रूप प्राचीनतर काव्य लाकर दिखाने को कहा गया तो उन्होंने मे दुबारा जन्म लिया था और कमठ का जन्म अबुवाह के एक सप्ताह का समय मागा। इस बीच उन्होने "पाश्व- रूप में हया था। अंबूवाह या शबर दैत्य (?) को तीर्थकर भ्युदय काव्य" लिख डाला और राजसभा मे सुना भी के दर्शन से पूर्वजन्म की स्मृति हो पाई तो उसने तीर्थकर दिया। बाद में रहस्योद्घाटन करके कालिदास को सम्मान को यद्ध के लिए चुनौती दी। तीर्थकर के मौनधारण को भी दिलाया। उसने कायरता मानकर कहा कि वे मेघ बनकर अलकापुरी इससे लेखक ने स्वय को कालिदास का समकालीन जायें और उसकी पत्नी को, जो कि पूर्वजन्म मे वसुन्धरा सिद्ध करने का प्रयत्न किया है, किन्तु पाठक को इसमे थी, उसका सन्देश सुना पाये। इसके बाद भी तीर्थकर भ्रान्त होने की आवश्यकता नहीं है। वस्तुत: लेखक ने मोन रहे, किन्तु उस देस्य ने उन्हे अलकापुरी जाने का स्वकीय कृति द्वारा महाकवि कालिदास मे प्रतियोगिता मार्ग बताना शुरू कर दिया। बीच-बीच मे उन्हे मार करनी चाही है। ऐसा प्रयत्न अन्य दूतकाव्य-लेखको ने भी डालने की धमकी भी देता रहा। सदेश-कार्य समझा देने किया है । किन्तु यह एक सर्वविदित तथ्य है कि "अनुकृति । के बाद भी उसने पार्श्वनाथ को चुप देखा तो उसने एक तो प्रसादन (चापलसी) का एक उपाय मात्र है", पर्वत-खण्ड उन पर गिराना चाहा। उस समय नागराज पार्वाभ्युदयकाव्य में भी मेघदूत का अनुकरण किया गया और उसकी पत्नी भी वहाँ मा गये थे। नागराज ने है और संभवतः इसमे मौलिकता का भी कुछ अंश है। तीर्थकर की स्तुति करते हुए दैत्य को क्षमा कर देने की तीथकर प्रार्थना की। उस समय तीर्थकर को कैवल्य-प्राप्ति हो कथानक-धनपति कुबेर का सेवक अबुवाह अपने चुकी थी। दैत्य ने भी अपनी भूल स्वीकार करके क्षमाकाम में प्रमाद करने के कारण एक वर्ष के लिए अलकापुरी याचना की और उसे मुक्ति मिल गई। से निष्कासित कर दिया गया था। एक बार उसने तीर्थकर पार्श्वनाथ को अपने विमान में स्थित देखा तो इस कथानक में पूर्वजन्म एवं पुनर्जन्म के अस्पष्ट से उसे पूर्वजन्म की स्मृति से क्रोध हो पाया। पूर्वजन्म मे ये प्रसङ्ग हैं। टिप्पणियों की सहायता के बिना इन्हें समझना दोनों सगे भाई थे। कमठ (प्रबुवाह) बड़ा भाई था और कठिन ही है। प्रबुवाह और शंबर दैत्य का ऐकात्म्य भी Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाश्र्वान्युक्य काम्यम् : एक विश्लेषण प्रत तक अस्पष्ट ही बना रहता है। यह भी पता नहीं एक ओर तो कमठ दैत्य के हृदय में प्रतिशोध की चलता कि अंबुवाह को स्वकीय प्रमाद के कारण कहाँ तीव्र ज्वाला प्रज्वलित है तथा दूसरी ओर वह पार्श्वनाथ निष्कासित किया गया था, किन्तु अनुमान यही होता है को भाई कहकर पुकारता है। गले मिलने के लिए उनका कि रामगिरि पर पाश्रम बनाकर रहता था। कथानक मे पाहान भी करता है, जिससे कि लोग उन दोनों के युद्ध के विकल्प के रूप मे सदेश-वहन की याचना मौलिक भ्रात प्रेम की प्रशंसा कर सकें .कल्पना कही जा सकती है। किन्तु सदेश-वहन की चर्चा "पश्चात्तापाद् व्युपरतिमहो मम्यपि प्रीतिमेहि के मध्य युद्ध की धमकी अस्वाभाविक ही प्रतीत होती है। भ्रातः प्रौढ प्रणयपुलको मा निगृह स्वदोभ्या॑म् । हां, इससे दैत्य की दुर्बुद्धि स्पष्टतः प्रतिपादित हुई है। तते स्निग्धे मयकि जनिता इलाघनीया जनः स्तात् इसके अतिरिक्त प्रारभ से अंत तक तीर्थकर पार्श्वनाथ का स्नेह व्यक्तिपिचरविरहजं मुञ्चतो पापमुष्णम् ॥" मौन-धारण विस्मयोत्पादक है। काव्य के अंतिम स्थल को पढ लेने के बाद ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह दैत्य किन्तु दूसरे ही क्षण वह दैत्य उन्हे यमराज के किसी पूजा-गृह में पाश्र्वनाथ के किसी चित्र के सम्मुख वक्त्रविवर मे भेजने और साथ ही यमराजपुरी का मार्ग ही सब कुछ कह सुन रहा है। बताने के लिए प्रस्तुत दिखाई देता है। यह जानकर तो इस काव्य में अलकापुरी का वही मार्ग बताया गया बहुत विस्मय होता है कि वह यमपुरी का मार्ग बताना है, जो मेघदूत मे वणित है। नगरो, नदियों और पर्वतो भूलकर अपनी प्रेयसी को सदेश भिजवाने के लिए प्रलकाका वही चिरपरिचित वर्णन और वही काव्य-शैली अप- पुरी का मार्ग बताने लगता है। तीर्थकर को सदेशवाहक नाई गई है । इस काव्य के प्रत्येक पद्य मे मेघदूत की एक बनने के लिए मेघ का रूप धारण करने का परामर्श दिया या दो पक्तियों का प्राश्रयण है, जिससे कि मेघदूत मे गया है, जिससे कि वे दैत्य की प्राकृति एवं वर्ण का अनु. वणित विषय वस्तु को बहुत विशद एवं विस्तृत स्वरूप करण कर सके । तीर्थकर द्वारा मेघ रूप धारण करने का प्रदान किया जा सका है। कई बार तो ऐसा प्रतीत होता यह कारण अधिक सगत प्रतीत नही होताहै, मानो यह काव्य मेघदूत की एक पद्यात्मक टीका ही "मय्यामुक्तस्फुरितकवचे नीलमेघायमाने है। किन्तु जहां जहा पूर्वजन्म की शत्रुता और तज्जन्य मन्ये युक्त मनुकृतये वारिवाहायितं ते। प्रतिशोध-भावना अभिव्यक्ति हुई है, वहां कवि की मौलि- मेघीभूतो बज लघु ततः पातशकाकुलाभिः कता स्वीकार करनी पड़ती है। युद्ध मे वीरगति प्राप्त दृष्टोत्साहश्चकितवाकितं मुग्धसिमाजमाभिः॥" होने पर स्वर्ग की अप्सगये स्वागतार्थ पातुर होगी, यह प्रलोभन किसी भी सामान्य मानव के लिए कम नही पाश्वनाथ को 'रो मत' (१-५६) यह कहना कृतिहोता । सभवतः इसी दृष्टि से वह दैत्य अपने पूर्व-शत्रु को कार की तरलता का ही मूचक माना जाएगा। खड्ग का कहता है . एक प्रहार किसी प्रकार सह लेने से तीर्थकर का श्यामल "जेतुं शक्तो यदि च समरे मामभोक प्रहृत्य तन प्रवहमान रक्तधारा में नहाकर अधिक कान्तिमान __ स्वर्गस्त्रीणामभयसुभगं भावुकत्वं निरस्यन् । हो जाएगा यह अनुरोध कवि की परिहासात्मक वृत्ति का पृथ्ख्या भक्त्या चिरमिह वहन राजयुद्धति सदि द्योतक है। सन्तप्तानां त्वमसि शरणं तत्पयोदप्रियायाः ।।" १-२५ यात्रा-वर्णन मे मुरत एवं निबुवन-क्रिया का अत्यधिक "याचे वेवं मसिहतिभिः प्राप्य मृत्यु निकारान् वर्णन है। इसी प्रकार वारांगनामों के वर्णन में भी अत्यन्त मुक्तो वीरश्रियमनुभवन् स्वर्गलोकेऽसरोभि.। उदारता से काम लिया गया है। इस विषय में वे नवं वाक्यं यदि तव ततः प्रेष्यतामेव्य तूष्णी कालिदास से कई कदम मागे बढ़े है । गुप्ताङ्गों के प्रति सदेशं मे हर धनपतिकोषविश्लेषितस्य ॥ १.२६ प्रत्यक्ष ध्यानाकर्षण में भी उन्होने कृपणता प्रदर्शित नहीं Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त की है। उदाहरणतयाः बहुलता), रसोद्रेक तथा पूर्व कामोत्तेजना का चित्रण "सियानं सुरतरसिकं प्रान्तपर्यस्तवीणं" (१-६६) किया गया है:"बारस्त्रीमा निबनरति प्रेक्षमाणस्वमेनाम्" (१.१४) बनरात प्रक्षमाजस्वमेनाम्' (१.१४) "तामुत्फुल्लप्रततलतिकागृहपर्यन्तवेशां "सिखस्त्रीणां रतिपरिमलर्वासितापित्यकान्तम्" (१-६८) कामावस्यामिति बहरसां दर्शयन्ती निषछ । "सस्तस्रग्भिनिषुवनविषो कीरतां दम्पतीनाम्" (.-१००) प्रस्थानं ते कपमपि सखे लम्बमानस्य भावि "स्वर्गस्त्रीणां निघुवनलताह सम्भोगदेशान्" (८०) शातास्वादो विवृतजघना को विहातुं समर्थः॥” (२-२८) "घुनां कामप्रसवभवनं हारि नाभेरषस्तात्" (:-११३) एक पद्य में स्कन्द को जिन-पूजा करने का इच्छुक कवि केवल सौन्दर्य-द्रष्टा ही नहीं है। उसे कुरूपता बताया गया है, किन्तु इसके साथ ही शिव तथा उमा के को सही रूप में प्रस्तुत करने में कोई हिचक नहीं है। वह द्वारा स्कन्द के चरणों की पूजा करवाने में परम्परा-विरोध तो विकट दांतों वाली, दीर्घ नासिका युक्त, शिला से काटे दिखाई देता है। यह कहने की भी आवश्यकता नहीं है शिथिल नाखूनों वाली और घोड़े के से मुह वाली स्त्रियों कि यह उक्ति हिन्दू-धर्म के सर्वथा विपरीत है। की भोर दृष्टिपात करने का अनुरोध भी करता है देवगिरि पर्वत के बाद चर्मण्वती, सिन्धु व सीता रम्यभोणीविकटवशनाः प्रोधिनी वीर्षघोणाः । मादि नदियो तथा ब्रह्मावर्त, कुरु प्रदेश, सारस्वत भूमि पीनीत जस्तनतटभराग्मन्दमन्दं प्रयान्तीः । एवं कनखल आदि प्रदेशों को पार करके गगा-तट पर प्रावक्षुण्ण प्रशिथिलनरवा वाजिवक्त्राः प्रपश्ये पहुँचने का निर्देश दिया गया है। इसके मागे हिमालय स्तस्मिन् स्थित्वा वनचरवषभक्तकुब्जे मुहूर्तम् । पर्वत का वर्णन करते समय उसे मेघों से अनुल्लंघनीय पर्वत १७३ बताया है। प्रतः हिमगिरि के निकटवर्ती क्रोञ्चरन्ध्र से पग्ध मरण्यों में मेघागमन से पूर्व अर्थात् वर्षा हुए बिना होकर आगे बढ़ने के लिए परामर्श दिया गया है। अलकापृथ्वी का सुरक्षित होना सभव नहीं है। मतः इस प्राधार पुरी के वर्णन मे छोटे-छोटे क्रीड़ा पर्वतों और रम्य प्रासादो पर मेघ की मासन्नता का मनमान असहज ही कहा का उल्लेख उपलब्ध है। वहाँ की सुन्दरियो की मनोहर जाएगा। इसी प्रकार मेघों को देखे बिना मयरों का प्राकृति को देखकर लज्जावनत लक्ष्मी द्वारा अपने बाल नृत्यरत होना भी प्रस्वाभाविक ही प्रतीत होता है नोचने तथा प्रलको का विसर्जन करना विचित्र कल्पना "स्वामासनं सपदि परिका मातुमहन्त्यकाले का परिचायक हैश्रुत्वा केकाध्वनिमनुवनं के किनामुन्मवानाम् । "दृष्ट्वा यस्याः प्रकृति चतुरामाकृति सुन्दरीणां बर्हो नटितमपि प्रेक्ष्य तेषां सलील लोक्येऽपि प्रथमगणनामीयुषां जातलज्जा। बग्पारण्येष्वधिकसुरभि गन्धमाघ्राय गोयाः।" मन्ये लक्ष्मीः सपदि विसृजेदेव संलुच्य केशान् (१-५३) हस्ते लीलाकमलमलके बालकुन्वानुविधम् ॥"(२-१०५) इस काव्य के द्वितीय सर्ग में जहाँ मेघदूत की दो अलकापुरी मे अबुवाह की पत्नी, जो कि पूर्व-जन्म पंक्तियों के आधार पर पद्य-रचना की गई है, उसमें कवि- मे वसुन्धरा थी, को विरहाकुल बताते समय उसके सौन्दर्य कल्पना के लिए अधिक स्वतन्त्रता नही है। उदाहरणतया का चित्रण किया गया है२५वें पद्य में गंभीरा नामक नदी के नाम की दो बार "तस्याः पीनस्तनतटभरात्सामिनम्राप्रभागा उक्ति द्रष्टव्य है। किन्तु कालिदास की "ज्ञातास्वादो निश्वासोष्णप्रदवितमुखाम्भोजकान्तिविरुक्षा। विवृत अघना को विहातुं समर्थ." इस प्रसिद्ध पंक्ति में चिन्तावेशात्तनुरपचिता सालसापाङ्गवीक्षा निहित भाव-सप्रेषणीयता को अधिक विशद बनाया गया जातामन्ये शिशिरमथिता पधिनीवान्यरूपा ॥ (३-२५) है। इससे सम्बद्ध पद्य मे गंभीरा नदी के प्रतीक से नायिका अनेक पद्यों में उसके द्वारा पूर्वजन्म के पति (वसुभूति) की जंधामों के नग्न होने से प्रफुल्ल लता-प्रदेश (रोम- का स्मरण तथा पुन. उसकी प्राप्ति की काशा प्रदर्शित की Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाइर्वाभ्युदय काम्यम् : एक विश्लेषण २७५ गई है, जैसा कि "त्वां ध्यायंत्या." (३:२७), "माधि मात्र में प्रत्यधिक उपलब्ध है। त्वत्तः" (३-३४), "त्वत्संप्राप्त्य" (३-३६), "त्वामुद्दीश्य" रसों की दृष्टि से वीर और शृङ्गार के अतिरिक्त (३-३८), "ध्यायं ध्यायं त्वदुपगमनं" (३-३९) तथा भयानक रस का भी चित्रण किया गया है, जैसे कि "त्वामजन स्मरन्तीम्" (३.४२) प्रादि से स्पष्ट है। अमरावती नगरी के निकटवर्ती महाकाल नामक भरण्य दत्य तो वस्तुतः निर्लज्जतापूर्वक यह भी कह देता है कि में वृधों द्वारा रचित अंधकार के प्राधिक्य से दिन में भी वह (मेषरूप तीर्थकर) उस सुन्दरी का भोग करने के प्रेतगोष्ठियों की योजना की गई हैलिए अवश्य जाए। किसी पति के मुह से इस प्रकार का "अष्टुं वाञ्छा यदि च भवति प्रेतगोष्ठी विचित्रां कथन प्रशोभन ही कहा जाएगा तिष्ठातिष्ठन्नुपरि निपत गृध्रबद्धान्धकारे। "मत्प्रामाण्यावसुभिरसने निश्चितात्मा त्वमेनां बोषामन्येप्यहनि मितरां प्रेतगोष्ठीतिरावेभोक्तुं याया धनवनगरी तत्प्रमाणाय सज्जे।" (३-५७) रप्यन्यस्मिजलधर महाकालमासाथ काले॥" इस काव्य के अंतिम सर्ग (चतुर्थ) में वह दैत्य संदेश श्रावण के बाद पुनः क्रुद्ध हो उठता है, क्योंकि तीर्थकर से प्रेतशवो के सामीप्य, उलूक ध्वनि तथा शृगाली-हदन उसे कोई उत्तर नहीं मिलता। वह अपने यशस्वी खड्ग प्रादि से इस भरण्य की भयानकता में और भी वृद्धि की का नाम लेकर उन्हें धमकाता है, किन्तु उन्हें युद्ध के लिए गई है, किन्तु भयानक-रस के तुरंत बाद ही शृङ्गार-रस अनुथत देखकर कायर होने का आरोप भी लगाता है। की योजना रस-चर्वणा में व्याघात उत्पन्न करती है। वैसे बाद में उन्हे विचलित करने के लिए माया-बल से वसुन्धरा जिन-मन्दिरों में सायंकालीन पूजा के पश्चात् संगीत को उपस्थित सा करता है और उसके तथा कथित प्रणय उत्पन्न करने वाली सुकण्ठी (मधुर गायिका) एवं मन्दावचनों को सुनाता भी है। इस पर भी दैत्य को जब कोई गामिती माया कीया . उत्तर नही मिलता तो वह पार्श्वनाथ के मस्तक पर पर्वत- सेलकालीन समाज मे ज्यामी की महत्वपर्ण स्थिति का खण्ड गिराना चाहता है और तभी तीर्थकर को कंवल्य पता पता चलता है। प्राप्त हो जाता है। वह दैत्य भी क्षमा याचना करके इस प्रकार पार्वाभ्युदय काव्य मे पार्श्वनाथ के कैवल्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। प्राप्त करने का चित्रण जैन-दर्शन के अनुसार भव्यन्त इस काव्य की भाषा सामान्यत. उच्च स्तर की है। सशक्त एव सफल हो पाया है। मेघदूत की अनुकृति होने शब्दालंकारों का इसमे प्राधान्य है। यमक अलंकार के पर भी इसमे मौलिकता एक दो लघु उदाहरण भी मिलते है, किन्तु अर्थालङ्कारों विषय-वस्तु के अनुकूल भाषा के प्रयोग में भी कहीं शिथि. का प्रयोग अत्यन्त न्यून मात्रा मे हुमा है । श्लेषालकार लता नही पाई है। वस्तुत. अनावश्यक चमत्कार के लिए तो अप्रयुक्त सा रहा है । वैसे अप्रचलित शब्दों का बाहुल्य कोई दुराग्रह न दिखाने तथा सहज कल्पना को प्राधार स्पष्ट है। उदाहरणतया सिसिधुषि, मन्दसानाः, पेपीयस्व, बनाने के कारण यह काव्य प्रत्यन्त सुन्दर बन पड़ा है। धुनी, कलाराक, तितपसिषवः, जिगलिषु, एवं प्रातीप्य संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि जैन-धर्म के प्रचार जैसे प्रयोग उल्लेखनीय है। सन्नन्त प्रयोग भी अत्यधिक की दिशा में कवि का यह प्रयास सर्वथा स्तुत्य है। * अनेकान्त के ग्राहक बनें 'अनेकान्त' पुराना ख्यातिप्राप्त शोष-पत्र है। अनेक विद्वानों और समाज के प्रतिष्ठित व्यक्तियों का अभिमत है कि वह निरन्तर प्रकाशित होता रहे। ऐसा तभी हो सकता है जब उसमें घाटा न हो और इसके लिए प्राहक संख्या का बढ़ाना अनिवार्य है। हम विद्वानों, प्रोफेसरों, विद्यार्थियों, सेठियों, शिक्षा-संस्थानों, संस्कृत विद्यालयों, कालेजों और जनश्रुत की प्रभावमा में श्रद्धा रखने वालों से निवेदन करते हैं कि 'अनेकान्त'के ग्राहक स्वयं बने और दूसरों को बनावें । और इस तरह जैन संस्कृति के प्रचार एवं प्रसार में सहयोग प्रदान करें। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकवत-विधानका अनुष्ठाता आनन्द श्रमणोपासक बालचन्द्र सिद्धान्त-शास्त्री प्राध्यात्मिक विद्वान् श्री प्राचार्य अमृतचन्द्र ने पुरुष से समझाये जाने पर भी जब धर्मकांक्षी श्रोता उसके परिशब्द से चेतन मात्मा का उल्लेख कर उसका स्वरूप स्पर्श- पालन मे अपनी असमर्थता व्यक्त करता है तब ही उसे रस-गन्ध-वर्ण से रहित (प्रमूर्तिक), गुण व पर्यायों से श्रावक-व्रतविधान का उपदेश देना चाहिए। सहित तथा उत्पाद-व्यय-प्रीव्य से युक्त बतलाया है। यहा एक उदाहरण ऐसे ही सद्गृहस्थ का-मानन्द मनादि परम्परा से प्रवर्तमान ज्ञान की विविध अवस्थामों श्रमणोपासक का-दिया जाता है जिसने भगवान महावीर में परिणमन करने वाले उक्त प्रात्मा को उन्होंने अपने ही के समक्ष मुनिधर्म के परिपालन-विषयक अपनी असमर्थता परिणामों का कर्ता व भोक्ता बतलाया है। वह जब अन्य प्रगट कर गुहिधर्म को धारण किया था। उसका वृत्त समस्त अवस्थामों से रहित होकर स्थिर चैतन्य अवस्था श्वे. 'उवासग-दसामो' में उपलब्ध होता है। तदनुसार को प्राप्त कर लेता है तब वह अपने प्रभीष्ट प्रयोजन को यहां कुछ संक्षेप से लिखा जाता हैसिड कर लेने के कारण कृतकृत्य हो जाता है१ । यद्यपि प्रानन्द गृहपति वाणिजग्राम नगर का रहने वाला वह स्वभावतः कर्मकृत समस्त भावों के साथ तन्मय नहीं था। इस नगर का स्वामी (राजा) उस समय जितशत्रु हो रहा है, फिर भी अज्ञानी बहिरात्मा जीवों को वह उन था। प्रानन्द गहपति की पत्नी का नाम शिवनन्दा था। कर्मकृत भावों से युक्त-सा दिखता है। यही विपरीत वह बहत धनाढय-बारह करोड़ हिरण्य (सुवर्णमुद्राः बुद्धि (अविवेक) उनके ससार परिभ्रमण का कारण हो विशेष) का अधिपति-था। उसकी चार हिरण्यकोटि रही है। इस विपरीत अभिप्राय को छोड़कर-सम्यग्दृष्टि तो निधान में प्रयुक्त थी-भाण्डागार के रूप में सुरक्षित बनकर अपने प्रात्मस्वरूप का निश्चय करके-सम्य- थी, चार हिरण्यकोटि वद्धि में प्रयुक्त थी-व्यापारादि में शानी होकर-फिर उससे विचलित नहीं होना-उसीमें काम पा रही थी-तथा चार हिरण्यकोटि प्रविस्तर मे लीम रहना; यही (रत्नत्रय) पुरुषार्थसिद्धि का-प्रात्म प्रयुक्त थीं-स्थावर-जंगम सम्पत्ति मे व्यवहृत थीं। उसके प्रयोजन (परमपद-प्राप्ति) का-उपाय है३ । पास १०-१० हजार गायों के चार व्रज थे। नगर में मागे चलकर उक्त अमृतचन्द्र सूरि ने उस अल्पबुद्धि । उसकी बड़ी प्रतिष्ठा थी। अनेक राजा आदि महाजन उपवेशक को दण्ड का पात्र बतलाया है जो प्रथमतः मुनि- अपने अभिलषित कार्य के विषय मे उससे मत्रणा किया धर्म का उपदेशन करके गृहस्थधर्म का उपदेश करता है। करते थे। इसका अभिप्राय यह है कि हित-उपदेशक को सर्वप्रथम एक समय उस वाणिजग्राम नगर के बाहिर उत्तरमुनिधर्म का ही उपदेश करना चाहिए, पर अनेक प्रकार पूर्व (प्राग्नेय कोण) दिशा मे अवस्थित दूतिपलाश नामक १. पु. सि. ९-११ चैत्य में श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण हुआ। २. वही १४ उनकी पयुपासना के लिए परिषद् गई। कोणिक (अंगिक३. वही १५ पुत्र) के समान जितशत्रु राजा भी गया। इस वृत्त को ४. यो यतिधर्ममकथयन्नुपदिशति गृहस्थधर्ममल्पमतिः। ५. बहुशः समस्तविति प्रदर्शिता यो न गृह्णाति । तस्य भगवत्प्रवचने प्रदर्शितं निग्रहस्थानम् ।। पु. मि. १८ तस्यैकदेशविरतिः कथनीयानेन बीजेन । पु. सि. १७ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानन्द भमणोपासक प्रवमत कर प्रानन्द गृहपति भी गया। उसने तीन प्रदक्षिणा प्रकार से-मन-वचन-काय से न करूंगा और न करा. देकर वंदनापूर्वक श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार ऊगा" इस प्रकार से प्रत्याख्यान किया। इसी क्रम से किया। भगवान् ने मानन्द गृहपति और अतिशय महती उसने स्थूल मृषावाद और स्थूल प्रदत्तादान का भी प्रत्यापरिषद् को धर्मकथा कही। परिषद् वापिस चली गई, ख्यान क्यिा। तत्पश्चात् "एक शिवनन्दा भार्या को छोड़ राजा जितशत्रु भी चला गया। कर अन्य सब स्त्रियों के साथ मैथुनविधि का प्रत्याख्यान पश्चात् प्रानन्द गृहपति श्रमण महावीर के पास धर्म करता हैं। इस प्रकार से स्वदारसन्तोषता का प्रमाण को सुनकर अतिशय सन्तुष्ट होता हुआ इस प्रकार बोला- किया। हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मुझे श्रद्धा है, मैं निर्ग्रन्थ तत्पश्चात् इच्छाविधि (परिग्रह) का प्रमाण करते प्रवचन को जानता हूँ, और उसके विषय मे मुझे रुचि भी हुए उसने हिरण्य-मुवर्णविधि, चतुष्पदविधि, क्षेत्र-वास्तुहै। वह यथार्थ व सत्य है । वह मुझे इच्छित, प्रतीच्छित- विधि, शकट (गाडी प्रादि) विधि और वाहनविधि का विशेषरूप से इच्छित-और इच्छित-प्रतीच्छित है। परन्तु प्रत्याख्यान किया३।। भगवन् ! आपके धर्मोपदेश को सुनकर जिस प्रकार कितने तत्पश्चात् उपभोग-परिभोगविधि का प्रत्याख्यान ही राजा प्रादि प्रापके समक्ष दीक्षित होकर गृहवास से करते हए उसने उल्लणिया-गमछा व तोलिया मादि, पानगारिक अवस्था को प्राप्त हुए है इस प्रकार में दीक्षित दन्तवन (दातीन) विधि, फलविधि, अभ्यंगविधि (मालिश होकर सन्यास लेने के लिए समर्थ नही हूँ। अतएव में मादि), उबटनविधि, स्नानविधि, वस्त्रविधि, विलेपनपापके समक्ष पाच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत स्वरूप विधि, पुष्पविधि, प्राभरणविधि और धूपनविषि का प्रत्याबारह प्रकार के गहिधर्म को स्वीकार करूंगा। पाप इसमें स्थान किया। प्रतिबन्ध न करे। भोजनविधि का प्रमाण करते हुए उसने पेयविधि, इस प्रकार प्रार्थना करने के पश्चात् मानन्द गृहपति भक्ष्यविधि, प्रोदनविधि, सूप (दाल) विधि, घृतविधि, ने श्रमण भगवान् महावीरके समक्ष प्रथमत स्थूल प्राणाति शाकविधि, माधुर (मधुर-रसयुक्त वस्तु) विधि, जेमनविधि पात (हिंसा) का "मैं यावज्जीवन दो प्रकार तीन और मुखवास (सुपाड़ी-इलायची मादि) का प्रत्याख्यान १. तए ण से पाणदे गाहावई समणस्म भगवनो महा- किया५ । पश्चात् उसने अपध्यानाचरित, प्रमादाचरित, वीरस्स अन्तिए धम्म सोच्चा णिसम्म हट-तुट्ठ जाव हिनप्रदान और पापोपदेश; इन चार अनर्थदण्डों का एवं वयासी-"सदहामि णं भन्ते निग्गन्थ पावयण, प्रत्याख्यान किया। पत्तियामि ण भन्ते निग्गन्थ पावयण, रोएमि णं भन्ते इस बीच श्रमण महावीर उस पानन्द गृहपति को निग्गन्थं पावयण, एवमेय भन्ते, तहमेय भन्ते, अवि- सम्बोधित करते हुए इस प्रकार बोले-इस प्रकार की तहमेय भन्ते, इच्छियमेयं भन्ते, पडिच्छियमेय भन्ते, प्रत्याख्यानविधि ठीक है। साथ ही श्रमणोपासक को इच्छिय-पडिच्छियमेय भन्ते, से जहेय तुम्भे वयह त्ति जीवाजीव तत्त्वो को जानकर अतिक्रमणीय से रहित होते कट्ट जहा ण देवाणुप्पियाणं मन्तिए बहवे राईसर- 1 २. तए णं से प्राणन्दे गाहावई समणस्स भगवनो महा. तलवर-माइबिय-कोडुम्बिय- सेटि-सत्थवाहप्पभिइया वीरस्स अन्तिए तप्पढमयाए धूलगं पाणाइवाय पच्च. मुण्डा भवित्ता भगारामो प्रणगारिय पब्वइया, नो क्खाइ-"जावज्जीवाए दुविहं तिविहेणं न करेमिन खलु ग्रह तहा संचाएमि मुण्डे जाव पव्वइत्तए। प्रह कारवेमि मणसा वचसा कायसा"। णं देवाणुप्पियाणं मन्तिए पञ्चाणुब्वइयं सत्तसिक्खा उवासगदसामो १,१३. वइय दुवालसविहं गिहिधम्म पडिबज्जिस्सामि ।" ३. उवा...१८-२१ महासुहं देवाणुप्पिया, मा पडिबन्धं करेह । ४. उवा० १, २२-३२ उवासगदसामो १, १२ ५. उवा० १,३३-४२ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७८ अनेकान्त हए सम्यक्त्व के शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, परपाषण्ड- रहूँगा३ । प्रशंसा और परपाषण्डसंस्तव; इन पांच प्रतिचारो को इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उपयुक्त श्रावकधर्म जान लेना चाहिए व तदुप माचरण नहीं करना चाहिए। को ग्रहण किया व फिर कुछ प्रश्न पूछे तथा तत्व को इसी प्रकार स्थूलप्राणातिपातविरमण, स्थूलमृषावाद- ग्रहण किया। पश्चात् उसने श्रमण भगवान् महावीर की विरमण, स्थूलप्रदत्तादानविरमण, स्वदारसन्तोष, इच्छा- तीन वार वंदना की और तब उनके पास से-उस दूति. परिमाण, दिग्वत, भोजन व कर्म की अपेक्षा दो प्रकार के पलाश चैत्य से-निकल कर जैसे पाया था वैसे ही उपभोग-परिभोग से सम्बद्ध (५+१५), अनर्थदण्डविरमण, वाणिजग्राम नगर में स्थित अपने घर पर आ गया। सामायिक, देशावकाशिक, पौषधोपवास, अतिथिसंविभाग आकर वह शिवनन्दा पत्नीसे इस प्रकार बोला-मैंने श्रमण और अपश्चिम मारणान्तिक संलेखना-जोषणाराधना; भगवान महावीर के पास में धर्म को सुना, जो मुझे इन सबके अतिचारों को जान लेना चाहिए और तद्रूप अभीष्ट व रुचिकर हुआ। इससे तुम भी जामो और आचरण नहीं करना चाहिए। धमण भगवान् महावीर की वंदना एवं पर्युपासना करो इस प्रकार श्रमण भगवान् महावीर के द्वारा नामो तथा उनके पास में पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत रूप ल्लेख के साथ निर्दिष्ट २ उन सब प्रतिचारों को जानकर बारह प्रकार के श्रावकधर्म को ग्रहण करो। मानन्द श्रमणोपासकके द्वारा इस प्रकार कहने पर उस मानन्द गृहपति ने उनके समक्ष पांच अणुव्रत और सात शिक्षाक्त स्वरूप बारह प्रकार के श्रावकधर्म को शिवनन्दा को बहुत हर्ष हुमा। उसने उसी समय कौटुस्वीकार किया। तत्पश्चात् वह श्रमण भगवान महावीर म्बिक पुरुष को बुलाया और शीघ्र भगवान् महावीर की पर्युपासनार्थ चलने को कहा व वहाँ पहुँचकर उनकी को वंदनापूर्वक नमस्कार करता हमा उनसे इस प्रकार पर्युपासना की। बोला-माज से मैं अन्यतीथिक, अन्यतीथिक देवता और तब वहाँ श्रमण भगवान् महावीर ने उस शिवनन्दा अन्यतीथिकपरिगृहीत (अन्य साधु आदि); इनको वंदना के लिए धर्म का निरूपण किया। इस प्रकार उसने उनके व नमस्कार नहीं करूगा। पहिले बिना कहे अथवा कहने पास धर्म को सुनकर सहर्ष गहि-धर्म को स्वीकार किया। पर भी मैं उनको प्रशन, पान, खादिम और स्वादिम भोजन न दूंगा। राजाज्ञा, गणका प्राग्रह, बलाभियोग, ३. तए णं से गाहावई समणस्स भगवग्रो महावीरस्स देवताभियोग और वृत्तिकान्तार(?);ये उसके अपवाद होगे। अन्तिए पञ्चाणुष्वइय सत्तसिक्खावइयं दुवालसविहं निर्गन्थ श्रमणों को प्रासुक व एषणीय (ग्रहण योग्य) सावयधम्म पडिवज्जइ, रत्ता समणं भगव महावीर प्रशन-पानादि, वस्त्र कम्बल-प्रतिग्रह (पात्र), पादपोंछन वन्दइनमसइ, २त्ता एवं वयासी-नो खलु मे भन्ते, (रजोहरण) तथा पीठफलक-शय्या-संस्तारक से दान देता कप्पइ प्रज्जपभिई अन्नउत्थिए वा अन्नउत्थियदेवयाणि वा अन्नउत्थियपरिग्गहियाणि वा वन्दित्तए वा नमंसित्तए वा, पुग्विं प्रणालत्तेणं पालवित्तए वा १. इह खलु "माणन्दा" इ समणे भगवं महावीरे प्राणन्दं संलवित्तए वा, तेसि असणं वा पाणं वा खाइयं वा समणोवासगं एवं वयासी-एवं खलु, प्राणन्दा, सम साइम वा दाउ वा अणुप्पदाउं वा, नन्नत्थ रायाभिणोवासएणं अभिगयजीवाजीवेणं जाव प्रण इक्कम प्रोगेणं गणाभिमोगेणं बलाभियोगेणं देवयाभिमोणिज्जेणं सम्मत्तस्स पञ्च मइयारा पेयाला जाणि गेणं गुरुनिग्गहेणं वित्तिकन्तारेणं । कप्पह मे समणे यव्या, न समायरियच्वा । त जहा-सङ्का, कंखा, निम्गन्थे फासुएणं एसणिज्जेणं असण-पाण-खाइमविइगिच्या, परपासण्डपसंसा, परपासण्डसथवे । साइमेणं वत्थ-कम्बल-पडिग्गह-पायपुञ्छणं पीढफलगउवा.१,४४ सिज्जा-संथारएणं मोसहभेसज्जेणं च पडिलाभे२. वही. १, ४५-५७ माणस्स विहरित्तए"। उवा. १,५८ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ माना अमलोपासक' ३७९ तत्पश्चात् उसी धार्मिक यान (रथ प्रादि सवारी) पर पुत्र ! इस वाणिजमाम नगरमें जैसे अनेक राजेश्वर मादिने मारत होकर वह जिस दिशा से आई थी उसी दिशासे धार्मिक अनुष्ठान किया है वैसे ही मैं भी उसका अनुष्ठान वापिस चली गई। निर्द्वन्द्व होकर करना चाहता है। इसलिए अब तुम्हें अपने गौतम गणधर श्रमण भगवान महावीरको नमस्कार कुटम्बका पालम्बन स्थापित कर-तुम्हें अपना सब उत्तरकर इस प्रकार बोले-भगवन् ! मानन्द श्रमणोपासक दायित्व सम्हलाकर-मैं धर्मका परिपालन करूंगा।" पापके पास अनगार-दीक्षा लेने में समर्थ था। तब उस मानन्द श्रमणोपासकके ज्येष्ठ पुत्रने भी इस पर भगवान् महावीर बोले-गौतम ! यह कहना 'तथास्तु' कहकर उसे स्वीकार कर लिया। योग्य नहीं है। पानन्द श्रमणोपासक बहुत वर्ष तक श्रमणो तत्पश्चात् मानन्द श्रमणोपासक उसीके मित्रादिके पासक पर्याय को प्राप्त होकर सौधर्म कल्पके भीतर अरु समक्ष उसे कौटुम्बिक उत्तरदायित्वके पदपर प्रतिष्ठित णाम विमानमें देवरूप में उत्पन्न होगा। वहाँ चार पल्यो करके इस प्रकार बोला-“हे देवानुप्रिय-भद्र ! अबसे पम प्रमाण स्थिति है, यही स्थिति प्रानन्द श्रमणोपासक तुम बहुतसे कार्योमे-किसी भी कार्य के विषयमें-मुझे की कही गई है। नहीं पूछना पोर न उत्तरको अपेक्षा रखना, साथ ही मेरे तत्पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर वहाँ से अन्यत्र लिन 7 लिये किसी प्रकार का भोजन भी नहीं बनवाना।" विहार कर गये। उघर प्रानन्द गृहपति श्रमणोपासक होकर और जीव इसके पश्चात् मानन्द श्रमणोपासक ज्येष्ठ पुत्र, मित्रअजीव को जानकर दान देता हुमा रहने लगा। इसी प्रकार मण्डली एवं जातिबन्धुनों से पूछकर अपने घरसे बाहर उसकी भार्या शिवनन्दा भी श्रमणोपासिका होकर दान देती निकल पड़ा। वह उस वाणिजग्राम नगरके मध्य में से हुई स्थित हुई। निकलकर जिधर कोल्लाक संनिवेश (ग्राम), शातकुल इस प्रकार शीलव्रत, गुणवत, विरमण-रागादिविरति, पोर पोषधशाला थी उधर जाता हसा उस पौषधशालामें प्रत्याख्यान-नमस्कार सहित मादि-और पौषधोपवास; पहुंचा व उसे प्रमाजित कर-साफ-सुथरा करके उसने इन व्रतों से अपने को भावित करते हुए उस प्रानन्द मल-मूत्र के स्थान का निरीक्षण किया। तत्पश्चात् डाभ श्रमणोपासकके १४ वर्ष बीत गये। पन्द्रहवें वर्षके मध्यमें का विस्तर विछाकर व उस पर भारुढ़ होकर वह पौषधो. किसी समय रात्रिके पिछले भागमें धर्मजागरण करते हुए पवासके साथ श्रमण भगवान् महावीरके पास स्वीकृत धर्ममनमें विचार पाया कि यहाँ वाणिजग्राम मे बहुत-से राजे- प्रज्ञप्तिका परिपालन करता हुमा स्थित हो गया। श्वर प्रादि है, निजका कुटुम्ब भी है, इन सबका मैं माधार तत्पश्चात् मानन्द श्रमणोपासकने उपासकप्रतिमामों हूँ-ये सब मेरा सम्मान करते व जब तब अनुमति चाहते को स्वीकार किया। उनमें से उसने सर्वप्रथम पहली हैं । इस पपंचमे रहते हुए श्रमण भगवान् महावीरके पास उपासकप्रतिमा पर मारूढ़ होकर उसका यथासूत्र, यथाग्रहण किये गये धर्मका निश्चिन्ततया पालन नही हो सकता कल्प, यथामार्ग और यथातत्त्व कायसे स्पर्श किया, पालन है। इसलिये मैं कल जेष्ठ पुत्रको कुटम्ब का प्राधार बना किया, शुद्ध किया और पार किया-समाप्त किया। कर उससे व मित्र जनोंसे पूछकर उनकी अनुमति लेकर- फिर वह यथाक्रमसे दूसरी, तीसरी, चौथी, पांचवी, कोल्लाक संनिवेशमें स्थित पौषधशालाका प्रतिलेखन कर- छठी, सातवीं, पाठवीं, नौवीं, दसवीं और ग्यारहवी; इन स्वच्छ करके-वहाँ रहते हुए उक्त धर्मका निश्चिन्ततासे उपासकप्रतिमामों को प्राप्त करके उनका परिपालन करने परिपालन करूंगा। लगा। ऐसा विचार कर उसने मित्रादिकोंको भोजन कराकर इन उपासकप्रतिमामो के नामोंका निर्देश और उनके व पुष्पमालामों प्रादिसे मादर-सत्कार करके उनके समक्ष परिपालन की विधिका यद्यपि यहाँ (उवासग-वसामों में) ज्येष्ठ पुत्रको बुलाया और उससे इस प्रकार बोला-“हे उल्लेख नहीं किया गया है, फिर भी अन्यत्र-समवायांग Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३० .बनेकान्त मादिमें उनके नाम आदि उपलब्ध होते हैं, जो इस व्रतोंका पालन करना । इसका परिपालनकाल दो मास है। प्रकार है तृतीय-पूर्व दो प्रतिमानों के साथ सावद्ययोगका १. दानश्रावक २. कृतव्रतकर्म ३. सामायिककृत परित्याग और निरवद्ययोगका आसेवन । इसके परिपालन पिवासनिरत ५. दिवा ब्रह्मचारी रात्रिपरिमाण का काल तीन मास प्रमाण है। कृत ६. दिवापि रात्रौ अपि ब्रह्मचारी, प्रस्नायी, विकट चतुर्थ-पोषधका अर्थ पाहार का परित्याग मादि है। मोजी,मौलिकृत ७. सचित्तपरिजात ८. प्रारम्भपरिज्ञात ६. पूर्व तीन प्रतिमानों के साथ प्रष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या प्रेष्यपरिज्ञात १०. उद्दिष्टभक्तपरिज्ञात और ११. श्रमण व पौर्णमासी; इन पर्वोमे चतुर्विध माहार के परित्यागादिभूत। रूप उपवासके साथ अवस्थित रहना । इसका परिपालनइन उपासकप्रतिमानोंका स्वरूप इस प्रकार है काल चार मास है। प्रथम-अणुव्रत व गुणवतोंसे रहित होकर निरतिचार पंचम-अष्टमी प्रादि पर्व दिनों मे एकरात्रिकप्रतिमासम्यग्दर्शनका पाराधन करना । इसका परिपालनकाल एक कारी-रात्रि कायोत्सर्ग करने वाला-होकर शेष दिनों मास मात्र है। में दिन में ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए रात्रि में विषयद्वितीय-पूर्व (प्रथम) प्रतिमाके साथ अणुव्रतादिरूप १२ भोग का प्रमाण करना। इसका परिपालनकाल पाँच १. एक्कारस उवासगपडिमामो ५० त०-दसणसावए मास है। इसके पूर्व की चार प्रतिमानो का परिपालन १ कयन्वयकम्मे २ सामाइयकडे ३ पोसहोववासनिरए करना अनिवार्य है। ४ दिया बंभयारी रत्तिपरिमाणकडे ५ दिवा वि षष्ठ-दिन व रात्रि दोनों में ही ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना, रामो वि बंभयारी प्रसिणाई वियडभोई मोलिकडे ६ ३. तथा पंचमी प्रतिमायामष्टम्यादिषु पर्वस्वेकरात्रिकसचितपरिणाए ७ प्रारंभपरिणाए ८ पेसपरिणाए प्रतिमाकारी भवति, एतदर्थ च मूत्रमधिकृतसूत्रउद्दिभत्तपरिणाए १० समणभूए ११ प्रावि भवइ पुस्तकेषु न दृश्यते, दशादिषु पुनरूपलभ्यते इति समणाउसो । समवायाग सूत्र ११. पृ० १८-१९ तदर्थम् उपदर्शितः, तथा शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारी, इन प्रतिमानों का स्वरूप 'गुरुगुण-निशत्-षट् 'रत्तीति रात्री किम् ? प्रत पाह-परिमाणम्त्रिशिकाकुलक' की गाथा १३ की स्वोपज्ञ वृत्ति मे स्त्रीणा तभीगानां वा प्रमाणम्-कृत येन स परिमाणकुछ गाथाम्रो को उद्धृत कर दिया गया है। उनमें कृत इति। अयमत्र भावो दर्शन-व्रत-सामायिकाप्टप्रथम गाथा इस प्रकार है म्यादिपौषधोपेतस्य पर्वस्वेकरात्रिकप्रतिमाकारिणः, दसण वय सामाइय पोसह पडिमा प्रबंभ सच्चिने । शेषदिनेषु दिवा ब्रह्मचारिणो रात्रावब्रह्मपरिमाणकतो. प्रारंभ पेस उद्दिट्ट वज्जए समणभूए य ॥ ऽस्नानस्यारात्रिभोजिन प्रबद्धकच्छस्य पञ्चमासान (इसका प्रथम चरण प्राचार्य कुन्दकुन्दके चारित्र- यावत् पंचमी प्रतिमा भवतीति । उक्तं चप्राभूत की गाथा २१ से मिलता हुआ है।) प्रदुमी-च उद्दसीसु पडिमं ठाएगराईय ।। 30 अन्तिम श्लोक इस प्रकार है प्रसिणाण-वियडभोई मलियडो दिवसबंभयारीय। नाममित्तमिमं वृत्त किचिमित्तं सरूवनो। रति परिमाणकडो पडिमावज्जेसु दियहेसु ॥ त्ति । उवासगपडिमाणं च विसेसो सुय-सायरे ॥ समवायांगसूत्र ११ (अभयदेव वृत्ति) गु० गु०प० त्रि० पृ० ४०-४१ ('अबकच्छ' से क्या अभिप्राय रहा है, यह समझ २. यह ध्यान रहे कि यहाँ इन प्रतिमानों का स्वरूप में नही पाया, वैसे 'कच्छा' शब्द का अर्थ लंगोट श्वेताम्बर प्रन्यों के प्राधार से निर्दिष्ट किया जा रहा होता है, पर उसके बाधने का निषेध करना अप्राहै, जो तुलनात्मक अध्ययन के लिए उपयोगी प्रमा- संगिक-सा दिखता है। सम्भव है शिर पर पगड़ी प्रादि णित हो सकता है। न बांधने का अभिप्राय रहा हो।) Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मानन्ध मणोपासक ३०१ स्नान नहीं करनार, प्रकाश मे-दिन में भोजन करना वधर्मोपासक श्रमण भगवान् महावीर जिन सुहत्यीऔर प्रबद्धपरिधानकच्छ रहना । इसका परिपालनकाल शुभार्थी (अथवा गन्धहस्ती-अपनी गन्ध से इतर हाषियों छह मास मात्र है तथा पूर्व पांच प्रतिमानों का परिपालन को भगा देने वाले हाथी के समान) स्वतन्त्रता से विहार अनिवार्य है। कर रहे हैं. तब तक मुझे कल प्रातःकाल में अपश्चिम सप्तम-सचेतन पाहार का उसकी जानकारी के मारणान्तिक सलेखना को ग्रहण कर उसका पाराधन साथ परित्याग । अभिप्राय यह कि पूर्व छह प्रतिमाओं का करते हुए भोजन-पान का प्रत्याख्यान करके काम (मृत्यु) परिपालन करते हुए सात मास तक प्रासुक माहार का की पाकांक्षा न करते हुए प्रवस्थित रहना योग्य है।" इस ग्रहण करना, यह सातवी प्रतिमा है। विचार के अनुसार उसने संलेखना का माराधन प्रारम्भ अष्टमी-पूर्वोक्त सात प्रतिमानों का परिपालन करते कर दिया। हुए पाठ मास तक पृथिवीकायिकादि के उपमर्दन स्व- तत्पश्चात् किसी समय शुभ अध्यवसान, शुभ परि. रूप प्रारम्भ का तद्विषयक जानकारी के साथ परित्याग णाम, विशद्धि को प्राप्त होने वाली लेश्यामों मोर तदाकरना । वरणीय कर्मों के क्षयोपशम से उस मानन्द श्रमणोपासक नवमी-पर्व पाठ प्रतिमानो का परिपालन करते हुए के प्रवधिज्ञान प्रादुर्भत हपा। उसके प्रभाव से वह पूर्व में नौ मास तक दूसरे सेवकादिकोके द्वारा प्रारम्भ न लवण समद के भीतर तक पांच सौ योजन प्रमाण क्षेत्र कराना। को जानने देखने लगा, इसी प्रकार दक्षिण और पश्चिम दसवी-पूर्व नौ प्रतिमानो का परिपालन करते हुए दिशा में भी लवण समुद्र के भीतर तक पांच-पांच सौ प्राधाकर्मयुक्त भोजन का परित्याग करके शिर का उस्तरे योजन प्रमाण ही क्षेत्र को जानने-देखने लगा। उत्तर से मुण्डन कराना व चोटी रखना । कुछ गृहसमूह के मध्य दिशा मे वह उससे क्षुद्र हिमवान् वर्षधर पर्वत तक जानता मे यदि किसी ने पूछा और उसकी जानकारी हो तो देखता था। ऊपर वह सौधर्म कल्प तक जानता देखता 'जानता हूँ' कहना, अन्यथा 'नहीं जानता हूँ यही कहना। था। नीचे इस रत्नप्रभा पृथिवी के चौरासी हजार वर्ष इसका परिपालनकाल दस मास प्रमाण है। प्रमाण मायुस्थिति वाले लोलुपाच्युत नरक तक जानता ग्यारहवीं-श्रमण का अर्थ निर्ग्रन्थ साधु होता है, देखता था। मत. साधु के समान अनुष्ठान करना, यह श्रमणभूत नाम उसी समय श्रमण भगवान् महावीर का पदार्पण की ग्यारहवी प्रतिमा है। हुमा। परिषद प्रायी और वापिस चली गई। पूर्वोक्त विधि से उस कठोर तपःकर्म का प्राचरण उस समय धमण भगवान् महावीर के ज्येष्ठ शिष्य करने के कारण मानन्द धमणोपासक का शरीर मूख गया इन्द्रभूति अनगार (गृहविमुक्त मुनि)-जिनका गोत्र था, वह कृश धमनियो (सिरामओ) से सन्तप्त हो रहा था। गौतम था, जो सात हाथ ऊचे थे, समचतुरस्रसस्थान व इस बीच किसी समय उस मानन्द श्रमणोपासक के वज्रर्षभनाराचसंहनन से सुशोभित थे, गौरवर्ण थे; उपपूर्व रात्रि मे धर्मजागरण करते हुए यह विचार उदित तप. दीप्ततप, घोरतप, महातप, उदार, घोरतपस्वी एवं हुमा-"इस प्रकार यद्यपि शुष्क धमनियो से मैं सन्तप्त घोरब्रह्मचारी प्रादि अनेक ऋद्धियो से सम्पन्न थे; जो हैं, फिर भी मुझमे उत्थान, कर्म, बल, बीर्य, पौरुष-पराक्रम शरीर को छोड़ चके थे-जिनका उससे ममत्वभाव नष्ट तथा श्रद्धा, धैर्य एवं सवेग विद्यमान है। इसलिए जब होबका था. जिन्होंने विस्तीर्ण तेजोलेश्या को मक्षिप्त तक यह सब सामग्री बनी हुई है तथा जब तक धर्माचार्य कर दिया था-ऐसे वे महपि बेला (दो उपवास) रूप १. प्रस्नायी स्नानपरिवर्जकः । क्वचित् पठचते-'मनि- विच्छेद रहित तपःकर्म व संयम से अपने को सुसंस्कृत कर साइति' न निशायामत्तीत्यनिशादी। सम० अभयदेववृत्ति ११. उस समय वे भगवान गौतम बला की पारणा के Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ भनेकान्त समय प्रथम पौरुषी-पुरुष प्रमाण छायोपलक्षित काल गौतम-हे मानन्द ! गृहस्थ के अवधिज्ञान तो (पहर)-में स्वाध्याय, दूसरी में ध्यान तथा तीसरी उत्पन्न होता है. पर उसके वह इतने दूरवर्ती क्षेत्र को पौरुषी में भाजन-वस्त्रादि का निरीक्षण कर रहे थे। वे विषय करने वाला सम्भव नहीं है। इसलिए हे मानन्द ! जिधर श्रमण भगवान् महावीर विराजमान थे उधर पाये तुम इस स्थानकी मालोचना करो व तप:कर्म (प्रायश्चित्त) मौर भगवान् को नमस्कारपूर्वक इस प्रकार बोले-हे भगवन् ! यदि पापकी अनुज्ञा हो तो में पारणा क समय मानन्द्र-भगवन् ! क्या जिनागम में समीचीन, तत्त्व, भिक्षाचर्या के लिए वाणिजग्राम नगर में जाना चाहता हूँ। तथ्य और सद्भूत भावों के लिए भी मालोचना व तपःकर्म तत्पश्चात् भगवान् की अनुज्ञा प्राप्त कर ईर्यासमिति का निर्देश है? मादि भागमोक्त विधि से उधर गये । वे जब आवश्यकता- गौतम-ऐसा तो नहीं है। नुसार अन्न-पान को ग्रहण कर वापिस कोल्लाक संनिवेश प्रानन्द-यदि भगवन् ! ऐसे समीचीन भावों की की पोर मा रहे थे तब मार्ग में उन्होंने बहुत जनो के मुह जिनागम में मालोचना व तपःकर्म नहीं है तो माप ही से "श्रमण भगवान महावीर का शिष्य मानन्द नामक इस स्थान की मालोचना व तपःकर्म स्वीकार करें। श्रमणोपासक पौषधशाला में अपश्चिम मारणान्तिक संले- प्रानन्द श्रमणोपासक के इस प्रकार कहने पर भगवान खना का अनुष्ठान कर रहा है।" यह सुना, उसे सुनकर गौतम शंका, कांक्षा व विचिकित्सा से युक्त होते हुए उनके मन में प्रानन्द श्रमणोपासक को देखने का विचार प्रानन्द के पास से निकल कर श्रमण भगवान के पास उदितहमा। तदनुसार वे उसके पास पौषधशाला की पहँचे और तब वहां उन्होंने गमनागमन का प्रतिक्रमण एवं मोर गये। एषण-अन्वेषण की मालोचना कर लाया हुमा अन्न-जल गौतम को प्राते हुए देख कर मानन्द श्रमणोपासक भगवान् को दिखलाया। तत्पश्चात् उन्हें नमस्कार कर को बहुत हर्ष हुमा, तब उसने उन्हें हृदय से वदना व इस प्रकार बोले-"हे भगवन् ! मैं आपकी अनुज्ञा पाकर नमस्कार किया। फिर वह उनसे इस प्रकार बोला- भिक्षा के लिए गया था, इस प्रकार सर वृत्तान्त कहते "भगवन ! मैं इस महान् अनुष्ठान के कारण धमनियों से हुए उन्होंने कहा कि प्रानन्द श्रमणोपासक के उक्त कथन संतप्त है, प्रतएव मैं आपके पास पाकर शिर से तीन वार से मैं स्वयं शंकित हा हूँ, प्रतः पाप कहिए कि उक्त परणों की वंदना करने के लिए समर्थ नहीं हूँ, प्रतः कृपा स्थान को मालोचना व प्रायश्चित्त मानन्द श्रमणोपासक कर माप स्वयं ही यहां पधारें जिससे मैं माप महानुभाव करे या मैं करूं । के चरणों की शिर से तीन वार वंदना व नमस्कार कर इस पर भगवान् महावीर बोले कि हे गौतम ! उक्त सकू।" स्थान की मालोचना व प्रायश्चित्त तुम स्वयं करो और तदनुसार गौतम उस मानन्द श्रमणोपासक के पास इसके लिए मानन्द से क्षमा करावो३।। गये। तब वह उनके चरणों की तीन बार शिर से वंदना तदनुसार गौतम ने 'तथा' कहकर विनीतभाव से इसे कर इस प्रकार बोला-"गृहस्थ को गह के मध्य में रहते स्वीकार करते हुए उक्त स्थान की मालोचना व प्रायहए अवधिज्ञान उत्पन्न हो सकता है ?" श्चित्त किया तथा प्रानन्द श्रमणोपासक से क्षमा गौतम हो सकता है। करायी। मानन्द-यदि गृहस्थ के वह हो सकता है तो मुझे इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर वहां से अन्य भी वह उत्पन्न हुआ है । उसके द्वारा मैं पूर्व, पश्चिम एवं प्रदेश के लिए विहार कर गये। [शेष पृ. ३८६ पर] दक्षिण में लवण समुद्र के भीतर तक पांच-पांच सौ योजन; में लवण समुद्रक मातर तक पाचपाप सामाजना २. उवा. १,८-८५ इसके क्रमसे नीचे लोलुपाच्युत नरक तक जानता देखता है। १. उवा. १,८१. ४. वही १,८७ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-समीक्षा -१९६६, पृS में कवियित्रो भोर कर देने जिपरत चरित-डा० माताप्रसाद गुप्त व डा. कस्तुर भाविक ढंग से हुमा है। प्रेम और उस पर जड़ा वीर रस चन्द कासलीवाल जापित, महावीर भवन, जयपुर से सिसकी ढलान शान्ति की पोर। इस अन्य की देन है। प्रकाशित, पृष्ठ-२५२, मूल्य-५ रु०, सन्-जनवरी १९६६। यह सच है कि जयपुर के भण्डारों में हिन्दी भाषा के ऐसे कुछ वर्ष पूर्व पाटोदी के मन्दिर (जयपुर) के इस्त. अनेक रत्न पड़े हुए है। उनका सम्पादन और प्रकाशन लिखित ग्रन्थों की सची बनाते समय झकासलीवाल महावीर भवन से हो रहा है, इससे केवल जैन वाङ्मय को 'जिणदत्तचरित' की एक प्रति प्राप्त हुई थी। इसके ही नहीं, अपितु हिन्दी साहित्य भी कृतार्थ हैं। इस ग्रन्थ रचयिता कवि रल्ह ने इस चरित का निर्माण वि० सं० की छपाई, कागज, परिशिष्ट, भूमिका, मूलपन्य पौर १३५४, भादवा सुदि ५, गुरुवार के दिन पूरा किया था। उसका अनुवाद सब कुछ डा. कस्तूरचन्द जी की कर्मठता वह हिन्दी का प्रादि काल था। इस ग्रन्थ की भाषा भी लगनशील लगनशीलता और साधना का प्रतीक है। वे धन्यवाद के प्राचीन हिन्दी है। भाषा विज्ञान की दृष्टि से उसका पात्रह। महत्व है। हिन्दी भाषा के उद्भव और विकास का , चम्पा शतक-चम्पादेवी-विरचित, डा. कस्तूरचन्द विद्यार्थी उसका सही मूल्यांकन कर सकेगा। यह सच है। कासलीवाल सम्पादित, प्रकाशाक-महावीर भवन, जयपुर, यदि उस दृष्टि से ग्रन्थ का संकेतात्म का माकलन भूमिका सन्-१९६६, पृष्ठ-१२४, मूल्य-२ रु.। के साथ दे दिया जाता, तो वह पूरी हो जाती। डा. इस लघुकाय पुस्तक में कवियित्री चम्पादेवी के १०१ माताप्रसाद गुप्त के सम्पादक होने के कारण हम यह पदो का सकलन है। सभी पद भक्ति में विभोर कर देने उम्मेद करते थे। वाले है। उनमें सहज स्वाभाविकता है। चम्पादेवी जिणदत्त की कथा जैन परम्परा में सदैव लोकप्रिय साहित्यकार थी और न साहित्य-निर्माण की दृष्टि से इन रही है। शायद इसी कारण प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रश, पदों की रचना की गई। चम्पादेवी एक भयंकर रोग में हिन्दी के अनेक कवियो ने उसे अपनी अनुभूति का विषय प्रस्त हुई तो मुनि वादिराज की भाति उन्होंने महन्तबनाया। रल्ह ने लाखू (लक्ष्मण) के जिस "जिनदत्त भक्ति का प्राश्रय लिया। एक दिन रोग की वेबमा से चरिउ' को अपना भाधार माना है, वह लोक के बीच प्रपीड़ित वे जमीन प्रर-पट्टी सिसक रही थी कि उनके अत्यधिक प्रिय था। रल्ह की कथा वंसी नही मिली। मुख से.पहला पद-"पड़ी.मझधार मेरी नैयामारोगे लाखू की कथा की अनेक प्रतियां मिलती हैं। मच्छा होता तो क्या होगा, निःसृत हो पड़ा। शनैः शन: रोग अचम कि ग्रन्थ के परिशिष्ट में उसे भी मूल रूप में रख दिया हो गया, किन्तु भक्ति उभरती गई। यह भाव इस रचना जाता। वैसे, भूमिका में डा० कासलीवाल ने जिणदत्त का मूलाधार है। कृति भक्ति-पूर्ण है। लोकप्रिय इतनी की कथा को लेकर बने सभी काव्यों का खोजपूर्ण इतिहास कि उसकी भनेक प्रतियां मिलती है। स्वाभाविकता ऐसी दिया है। इसमे उन्हें परिश्रम करना पड़ा होगा। शोध कि माज भी मन तृप्त होता है। उन्होंने इसकी रचना की दृष्टि से वह एक ठोस सामग्री है। पूरी भूमिका ही ६६ वर्ष की उम्र में की। प्रतः भक्ति की महजता को शोध निबन्ध है। जैन ग्रन्थों की भूमिकामों को ऐसा होना स्थान था। वह मिला। ही पड़ता है। डा० कासलीवाल की भूमिका ने पुस्तक के महत्व डा. कासलीवाल ने इस प्रन्थ का विभिन्न दृष्टियों को और भी बढ़ा दिया है। उसमें कवियित्री का जीवनसे महत्त्व प्रतिपादित किया है। एक दृष्टि और है, प्रेम परिचय है तथा काव्य पाकलन भी । पदों का वर्गीकरण है को अक मे समेट कर वीर रस के परिपाक का इसका और तदनुसार उनके महत्त्व का प्रतिपादन । यह मावश्यक अपना ढंग है। अर्थात् इस काल की अन्य वीर रसात्मक था। एक महिला कवि की इस रचना का मुष्ठ प्रकाशन कृतियों से पृथक् है। खूबी है कि अवसान शान्तरम मे कर महावीर भवन जयपुर और उसके मन्त्री धन्यवादाह कर दिया है। कथामक के प्रबन्ध निर्वाह मे वह स्वा- है। -डा०प्रेमसागर जैन Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के उन्नीसवें वर्ष की विषय-सूची १ अग्रवालों का बैन संस्कृति में योगदान २३ ऋषभ स्तोत्रम्-मुनि पमनन्दि -परमानन्द शास्त्री २७६, ३२६ २५ क्या द्रव्य संग्रह के कर्ता व टीकाकार सम२ अचलपुर के राजा श्रीपाल ईल-नेमचन्द कालीन नहीं हैं ?-परमानन्द जैन शास्त्री २६९ धन्नूसा जैन १०५ २५ कल्याण मित्र-डामादिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये ८ ३ प्रन्तिम तीव्र इच्छाएं-डा.प्रेमसागर २३ २६ कुछ पुरानी पहेलियां-डा. विद्याधर ४ अनासक्त कर्मयोगी-पं० कलाशचन्द जैन १० जोहरा पुरकर ५ अनेकान्त पौर वीरसेवामन्दिर के प्रेमी बा. २७ क्रोध पर क्रोध-परमानन्द जैन १०० छोटेलालजी-जुगलकिशोर मुख्तार १८१ २८ खजुराहो का घण्टइ मन्दिर-गोपीलाल अमर २२९ अपभ्रंश चरित काव्य-डा0 देवेन्द्रकुमार २६ गंधावल और जैन मूर्तियां-एस. पी. गुप्ता ७. अभयचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकृत संस्कृत और की. एन. शर्मा १२९ कर्मप्रकृति-डा. गोकुलचन्द्र जैन ३० चंपावती नगरी-नेमचन्द धन्नसा जैन ३२४ एम.ए. पी-एच. डी. २५ ३१ चातुर्मास योग-मिलापचन्द जी कटारिया ११७ अभिनन्दन पत्र १९५-१९६ सहर चरिउ की एक कलात्मक सचित्र पाश्रम पत्तन ही केशोराय पट्टन है पाण्डुलिपि-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल ५१ डा० दशरथ शर्मा ७. ३३ जिनवर स्तवनम्-मुनि पचनन्दि २०३ १. पाचार्य सकलकीति और उनकी हिन्दी सेवा ३४ जीवन संगिनी की समाधि पर संकल्प के सुमन . पं.कुन्दनलाल जैन १२४ -स्व. बाबू जी की हायरी का एक पृष्ठ ३६ ११ माधुनिक विज्ञान और जैनदर्शन-पदमचन्द जैन १७३ ३५ जैन कथा साहित्य की विशेषताएं-डा. नरेन्द्र १२ उदार मना स्व.बाबू छोटेलालजी-40 वंशी भानावत पर शास्त्री ३६ जैन चम्पू काव्यों का अध्ययन-अगरचन्द १३ उनकी अपूर्व सेवाएं-पन्नालाल अग्रवाल १४ उनके मानवीय गुण-प्रक्षयकुमार जैन नाहटा १५ उपनिषदों पर श्रमण संस्कृति का प्रभाव ३७ जैन और वैदिक अनुश्रुतियों में ऋषभ तथा भरत मुनि श्री नथमल की भवावलि-डा. नरेन्द्र विद्यार्थी ३०९ २६२ १६ एक प्रकेला मादमी-मुनि कान्तिसागर ३४ ३८ जनदर्शन पोर निःशस्त्रीकरण-साध्वी श्री १७ एक अविस्मरणीय व्यक्तित्व-भंवरलाल नाहटा २७ मंजुला १८ एक निष्ठावान साधक-जनेन्द्रकुमार जैन १७ ३९ जनदर्शन और वेदान्त-मुनि श्री नथमल १६७ १९ एक लाख रुपये का साहित्यिक पुरस्कार..... २८७ ४. जैन प्रतिमा लक्षण-बालचन्द्र जैन एम. ए. २०४ २० एक संस्मरण-डा. ज्योतिप्रसाद जैन १९. ५ जैन बौद्ध दर्शन-प्रो. उदयचन्द जैन १५५ २१ एलिबपुर के राजा एल (ईल) और राजा ४२ जैन मूर्तिकला का प्रारम्भिक स्वरूपपरिकेशरी-40 नेमचन्द धन्नूसा जैन २१६ रमेशचन्द शर्मा १४२ २२ ऐसे उपकारी व्यक्ति को श्रद्धा सहित प्रणाम ४३ जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-डा. वासुदेव (कविता)-कल्याणकुमार 'शशि' ३६ शरण अग्रवाल-डा. कस्तूरचन्द कासलीवाल २५२ Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के उन्नीसवें वर्ष की विषय-सूची नाहटा ॥ मान तपस्वी गुणिजनानुरागी-रतनलाल ६४ मध्य भारत का जन पुरातस्व-परमानन्द कटारिया २१ शास्त्री ४५ तलघर में प्राप्त १६० प्रतिमाएँ-श्री प्रगरचन्द महाकवि रइधकृत सावयचरिउ-स. राजा राम जैन ४६ तिरुकुरल (तमिलवेद) : एक जैन रचना-- ६६ मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी का ९०वा मुनि श्री नगराज २४६ जन्म-जयन्ती उत्सव-परमानन्द शास्त्री १२३ ४, तीन दिन का प्रातिथ्य-डा. नेमिचन्द शास्त्री ४५ ६७ मूक जन सेवक बाबू बी-प्रमुखाल प्रेमी ३१ ४८ दिल्ली शासकों के समय पर नया प्रकाश- ६८ मूक सेवक-प्रो. मागचन्द जैन .१६ हीरालाल सिद्धान्त शास्त्री ६६ मेवाड़ के पुरग्राम की एक प्रशस्ति-रामवल्लभ ४६ द्रव्य संग्रह के कर्ता और टीकाकार के समय पर सोमानी विचार-परमानन्द जैन शास्त्री ७० राजघाट की जैन प्रतिमाएँ-नीरज जैन ४६ ५० देश और समाज के गौरव-डा. कस्तूरचन्द ७१ राजस्थान का जैन पुरातत्त्व--डा. कैलाशचन्द्र कासलीवाल ५१ दो मंस्मरण-स्वतंत्र जन ७२ रामचरित का एक तुलनात्मक अध्ययन५२ धर्मचक्र सम्बन्धी जैन परम्परा-डा. ज्योति मुनि श्री विद्यानन्द जी प्रसाद जैन १३४ ५३ धर्म और विज्ञान का सम्बन्ध-गोपीलाल ७३ वयाना जैन समाज को बाबू जी का योगदान'अमर' १२२ कपूरचन्द नरपत्येला ५४ धर्म प्रेमी बा. छोटेलाल जी-विशनचन्द जैन १९७ ७४ विचारवान एक सहृदय व्यक्ति (एक मंस्मरण) ५५ धर्म और संस्कृति के अनन्य प्रेमी-१० के. -पन्नालाल साहित्यचार्य १८८ भुजबली शास्त्री ७५ विदर्भ के दो हिन्दी काव्य-डा० विद्याधर जोहरापुरकर ५६ धुवेला मंग्रहालय के जैन मूति-लेख-बालचन्द ७६ विनम्र सिद्धांजलि-कपूरचन्द वरैया एम. ए, २४ ७७ वीरनन्दी और उनका चन्द्रप्रभ चरित्र५७ नाम बड़े दर्शन सुखकारी-अमरचन्द जैन १७ अमृतलाल शास्त्री ५८ निर्वाणकाण्ड की निम्न गाथा पर विचार ७८ वे क्या नही थे-श्री नीरज जैन १० दीपचन्द पाण्डया ७६ वे महान् थे-प्रकाश हितपी शाo ५६ पुरानी यादें-डा. गोकुलचन्द जैन ८० व्यक्तित्व के धनी-यशपाल जैन -६० प्राकृत वैयाकरणों की पाश्चात्य शाखा का ८१ वृषभदेव तथा शिव सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं.. विहंगावलोकन-डा. सत्यरंग्न बनर्जी .१७५ डा० राजकुमार जैन ६१ बंगाल का गुप्तकालीन जैन ताम्रशासन-स्व., ८२ शान्तिनाथ फागु-कुन्दन लाल जैन एम. ए..२८२ बाबू छोटेलाल जैन ८३ शिक्षा का उद्देश्य प्राचार्य तुलसी २०७ ६२ बुद्धघोष और स्याद्वाद-डा भागचन्द जैन ५४ श्रद्धाञ्जलि-प्रेमचन्द जैन एम. ए. पी-एच. डी. २९२ ८५ श्रद्धाजलि (कविता)-अनूपचन्द जैन न्यायतीर्ष ४ ६३ बौद्ध साहित्य में जैनधर्म-प्रो. डा० भाग- ८६ श्रमण संस्कृति के उद्भावक ऋषभदेवचन्द जैन एम. ए. पी. एच. डी. परमानन्द शास्त्री २७३ १२ २६ २६२ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ८७ श्रावक व्रत विधान का अनुष्ठाता: १०. साहित्य समीक्षा-परमानन्द सा. २०१०२८६,३३७ पानन्द श्रमणोपासकबालचन्द सि. शा. ४७६ १०१साहित्य-समीक्षा-डा.प्रेमसागर ३०० ८८ श्री शिरपुर पाश्र्वनाथ स्वामी विनति १०२ सिड-स्तुति-मुनि पपनन्दि २६१ , नेमचन्द्र धन्नूसा जैन १०३ सुजानमल की काव्य-साधना-गंगाराम गर्ग १२० ८६ षट्खण्डागम-परिचय-बालचन्द सि. शास्त्री २२० १०४ सूरदास और हिन्दी का जैन पद काव्य (एक १. बसण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार तुलनात्मक विश्लेषण)-डा.प्रेमसागर २३३ बालबन्द सिवान्तशास्त्री २७५ सच्चा जन-डा.दशरथ शर्मा १०५ सूत्रधार मण्डन विरचित रूपमण्डन में न १२ संतुलन-अपना व्यवहार-मुनिश्री कन्हैयालाल ५० मूर्ति लक्षण-अगरचन्द नाहटा २६४ ६३ संस्कृत के जैन प्रबन्ध-काव्यों में प्रतिपादित १०६ स्थायी सुख और शान्ति का उपाय-६० ठाकुर . शिक्षा पद्धति-डा० नेमीचन्द शास्त्री दास न ६४ संस्मरण-40 हीरालाल सि. शास्त्री र १०७ स्यावाद का व्यावहारिक जीवन में उपयोग१५ समय पीर साधना-साध्वी श्री राजमती २७ पं.चैनसुखदास न्यायतीर्थ ९६ समय का मूल्य-मुनिश्री विद्यानन्द ३५६ १०८ स्व. बाबू छोटेलाल जी का वंश वृक्ष१७ सम्यग्दृष्टि का स्तवन-बनारसीदास १ थी नीरज जैन १८ सर्वार्थसिद्धि और तत्त्वार्थवार्तिक पर षट् १०६ स्व-स्वरूप में रम २३३ खण्डागम का प्रभाव-बालचन्द सिद्धान्तशास्त्री ३२० ११.हिन्दी जैन कवि और काव्य-डा. प्रेमसागर ९सरस्वति-स्तवनम्-मुनि श्री पद्मनन्दि ३३९ जैन ३४. [पृष्ठ ३८२ का शेषांश उधर मानन्द श्रमणोपासक बहत शीलवतों से अपने में-मरण को प्राप्त होकर सौधर्म कल्प के भीतर परुण को सुसंस्कृत करते हुए बीस वर्ष तक श्रमणोपासक की विमान में देव पद पाया। वह वहां से न्युन होकर महापर्याय में रहा। उसने ग्यारह प्रतिमानों का यथाविधि विदेह क्षेत्र से सिद्धि को प्राप्त करेगा। परिपालन किया और मासिक संलेखना के साथ पालो- - चना-प्रतिकमणादि करते हुए कालमास मैं-मृत्यु के समय १. वही १,६८-१० Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [टा० पेज २ कालम दो का शेपाप] इस परम्परा को प्रागे भी चलाया जावेगा। अन्त मे मा० राज्यपाल ने अपने भाषण में कहा कि पार- उन्होने रा०व० सेठ राजकुमारसिंह जी को इस अवसर पर माथिक सस्थानों के स्वर्ण जयन्ती समारोह का अवसर सम्मिलित होने का अवसर देने के लिए धन्यवाद दिया। अनोखा एवं महत्वपूर्ण है। आपने कहा कि प्रादर्श कार्य रा० ब० सेठ राजकुमारसिंह जी ने पारमाधिक सभी धनिको के लिए एक प्रेरणास्त्रोत है। धनिक लोगो मस्थानो के ट्रस्ट एव प्र. का. क. के अध्यक्ष के नाते को अपने को सम्पत्ति का सरक्षक समझकर सम्पत्ति का इस सुप्रवसर पर सस्था के समस्त कर्मचारी गणों को १५ सदुपयोग जरूरतमद व्यक्तियो की आवश्यकतामो को दिन का अतिरिक्त वेतन देने की उदार घोषणा की। पूर्ति में करना चाहिए। उन्होने सेठ राजकुमार सिंह जी के फिर मस्थानो के उपाध्यक्ष श्री महाराज बहादुरसिह भापण से निम्न प्रश पढ़कर सुनाया जी ने आगन्तुक महिलामों एवं सज्जनों का हृदय से "धर्म ने जा एक और मनुष्य के लिए प्राध्यात्मिक उन्नति का मार्ग प्रशस्त किया वहां दूसरी भोर लोक अन्त में छात्राओं द्वारा जन, गण, मन का गान हुआ कल्याण की भावना को ध्यान में रखकर जीवन मे दान व सभा की कार्यवाही समाप्त हई। इस अवसर पर मस्मरण विशेपाक, स्वागतभाषण एवं संक्षिप्त विवरण एव अपरिग्रह के महत्व का प्रतिपादन भी किया है। पापने पत्रिका व मानपत्र भी वितरित किये गये। ग्राशा व्यक्त की कि स्व. सेठ सा० के परिवार द्वारा -नेमिचन्द्र जैन सं० मंत्री वीर-सेवा-मन्दिर और "अनेकान्त" के सहायक १०००) श्री मिश्रीलाल जी धर्मचन्द जी जैन, कलकत्ता] १५०) श्री जगमोहन जी सरावगी, कलकत्ता १०००) श्री देवेन्द्र कुमार जैन, ट्रस्ट, १५०) , कस्तूरचन्द जी मानन्दीलाल जी कलकत्ता श्री साहु शीतलप्रसाद जी, कलकत्ता १५०) , कन्हैयालाल जी सीताराम, कलकत्ता ५००) श्री रामजीवन संगदगी एण्ड सस, कलकत्ता १५०) , पं० बाबूलाल जी जैन, कलकत्ता ५०.) श्री गजराज जी सरावगी, कलकत्ता १५०) , मालीराम जी सरावगी, कलकत्ता ५००) श्री नथमल जी सेठी, कलकत्ता १५०) , प्रतापमल जी मदनलाल पांड्या, कलकता ५००) श्री वैजनाथ जी धर्मचन्द जी, कलकत्ता १५०) , भागचन्द जी पाटनी, कलकत्ता ५००) श्री रतनलाल जी झांझरी, कलकत्ता १५०) , शिखरचन्द जी सरावगी, कलकत्ता २५१) श्री रा० बा० हरख बन्द जी जैन, रांची १५०) , सुरेन्द्रनाथ जी नरेन्द्रनाथ जी कलकत्ता २५१) श्री अमरर.न्द जी जैन (पहाड्या), कलकत्ता १०१) , मारवाड़ी दि० जैन समाज, व्यावर २५१) श्री स० रि० धन्यकुमार जी जैन, कटनी १०१) , विगम्बर जैन समाज, केकड़ी २५१) श्री सेठ सोहनलाल जी जैन, १०१) , सेठ चन्दूलाल कस्तूरचन्दजी, बम्बई नं०२ मैसस मुन्नालाल द्वारकादास, कलकत्ता १०१) , लाला शान्तिलाल कागजी, दरियागंज बिल्ली २५१) श्री लाला जयप्रकाश जी जैन १०१) , सेठ भंवरीलाल जी बाकलीवाल, इम्फाल स्वस्तिक मेटल धस, जगाधरी १०१) , शान्तिप्रसाद जी जैन, जैन बुक एजेन्सी, २५०) श्री मोतीलाल हीराचन्द गांधी, उस्मानाबाद नई दिल्ली २५०) श्री बन्शीवर जी जुगलकिशोर जी, कलकत्ता १०१) , सेठ जगन्मायगी पाणया झूमरीतलया २५०) श्री जुगमन्दिरदास जी जैन, कलकत्ता १०१) , सेठ-भगवानदास शोभाराम जी सागर २५०) श्री सिंघई कुन्दनलाल जी, कटनी (म.प्र.) २५०) श्री महावीरप्रसाद जी अग्रवाल. कलकत्ता १०१) , बाबू नृपेन्द्रकुमार जी जैन, कलकत्ता २५०) श्री बी. पार० सी० जन, कलकत्ता १००) बद्रीप्रसाद जी प्रात्माराम जी, पटना २५०) श्री रामस्वरूप जी नेमिचन्द्र जी, कलकत्ता १००) , रूपचन्दजी जैन, कलकत्ता १५०) श्री बजरगलाल जी चन्द्र कुमार जी, कलकत्ता १००) , जैन रत्न सेठ गुलाबचन्द जी टोंग्या १५०) श्री चम्पालाल जी सरावगी, कलकत्ता इन्दौर Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीर-सेवा-मन्दिर के उपयोगी प्रकाशन R. N. 10591/62 ____ सभी ग्राम पौने मूल्य में (१) पुरातन-जैनवाक्य-सूची-प्राकृत के प्राचीन ४६ मूल-ग्रन्थो की पद्यानुक्रमणी, जिसके साथ ४८ टीकादिन्थो में उद्धृत दूसरे पद्यो की भी अनुक्रमणी लगी हुई है। सब मिलाकर २५३५३ पद्य-वाक्यों की सूची। संपादक मुख्तार श्री जुगलकिशोर जी की गवेषणापूर्ण महत्त्व की ७० पृष्ठ की प्रस्तावना से प्रलकृत, डा० कालीदास नाग, एम. ए. डी. लिट् के प्राक्कथन (Foreword) और डा. ए. एन. उपाध्ये एम. ए. डी.लिट् की भूमिका (Introduction) से भूपित है, शोष-खोज के विद्वानो के लिए प्रतीव उपयोगी, बड़ा साइज, सजिल्द १५) (२) प्राप्त परीक्षा-श्री विद्यानन्दाचार्य की स्वोपज्ञ सटीक अपूर्व कृति,माप्तो की परीक्षा द्वारा ईश्वर-विषयक मुन्दर, विवेचन को लिए हुए, न्यायाचार्य पं दग्बारीलालजी के हिन्दी अनुवाद से युक्त, सजिल्द । ८) (३) म्वयम्भूस्तोत्र-समन्तभद्रभारती का अपूर्व ग्रन्थ, मुख्तार श्री जुगलकिशोरजी के हिन्दी अनुवाद, तथा महत्व की गवेपणापूर्ण प्रस्तावना से सुशोभित ।। (४) स्तुनिविद्या-स्वामी ममन्तभद्र की अनोखी कृति, पापो के जीतने की कला, सटीक, सानुवाद और श्री जुगलकिशोर मुस्तार की महत्व की प्रस्तावनादि से मनकृत सुन्दर जिल्द-सहित। १०) (५) अध्यात्मकमलमार्तण्ड-पचाध्यायीकार कवि राजमल की मुन्दर माध्यात्मिकरचना, हिन्दी-अनुवाद-सहित १॥) (६) युक्त्यनुशामन–तत्वज्ञान मे परिपूर्ण समन्तभद्र की असाधारण कृति, जिसका अभी तक हिन्दी अनुवाद नही हृया था। मुख्तार थी के हिन्दी अनुवाद और प्रस्तावनादि से प्राजकृत, सजिल्द । ... ॥) (७) थीपुरपार्श्वनाथस्तोत्र-प्राचार्य विद्यानन्द रचित, महत्व की स्तुति, हिन्दी अनुबादादि सहित । ॥) (८) शामनचतुस्विशिका-(तीर्थपरिचय) मुनि मदनकीति की १३वी शताब्दी की ग्चना, हिन्दी-अनुवाद सहित ) (९) समीचीन धर्मशास्त्र- स्वामी समन्त मद्रका गृहस्थावार-विपयक प्रत्युत्तम प्राचीन ग्रन्थ, मुख्तार श्रीजुगलकिशोर जी के विवेचनात्मक हिन्दी भाप्य और गवेषणात्मक प्रस्तावना से युक, सजिल्द। ... ३) (१०) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति सग्रह भा०१ सस्कृत और प्राकृन के १७१ अप्रकाशित प्रन्यो की प्रशस्तियो का मगलाचरण माहित अपूर्व सग्रह उपयोगी ११ परिशिष्टो की और पं० परमानन्द शास्त्री की इतिहाम-विपयक माहित्य परिचयात्मक प्रस्तावना मे अलकृत, सजिल्द । (११) ममाधितन्त्र और इष्टोपदेश-प्रध्यात्मकृति परमानन्द शास्त्री की हिन्दी टीका सहित मूल्य ४) (१२) प्रनित्यभावना-मा. पनन्दी की महत्व की रचना, मुख्तार थी के हिन्दी पद्यानुवाद और भावार्थ सहित ।) (१२) तत्वार्थमूत्र-(प्रभाचन्द्रीय)-मुख्तार यो के हिन्दी अनुवाद तया व्याख्या से पुक्त। (१४) श्रवणबेलगोल पौर दक्षिण के अन्य जैनतीर्थ । १) (१५) महावीर का मर्वोदय तीर्थ =), (५) समन्तभद्र विचार-दीपिका B), (६) महावीर पूजा (१६) बाहुबली पूजा-जुगलकिशोर मुख्तार कृत (१७) अध्यात्म रहस्य-प. पाशाधर की सुन्दर कृति मुख्तार जी के हिन्दी अनुव र सहित । (१५) जैनग्रन्थ-प्रशस्ति संग्रह भा २ अपभ्रश के १२२ अप्रकाशित ग्रन्थोकी प्रशस्तियो का महत्वपूर्ण सग्रह । ५५ ग्रन्थकारो के ऐतिहासिक प्रथ-परिचय और परिशिष्टो सहित । स.प० परमान्द शास्त्री । सजिल्द १२) (१६) जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश, पृष्ठ संख्या ७४० सजिल्द (वीर शासन-सघ प्रकाशन ५) (२०) कसायपाहुड सुत्त-मूलग्रन्थ की रचना माज से दो हजार वर्ष पूर्व श्री गुणधराचार्य ने की, जिस पर श्री यतिवृषभाचार्य ने पन्द्रह सौ वर्ष पूर्व छह हजार श्लोक प्रमाण चूणिसूत्र लिखे। सम्पादक प हीरालालजी सिद्धान्त शास्त्री, उपयोगी परिशिष्टो और हिन्दी अनुवाद के साथ बडे माइज के १००० से भी अधिक पाठो मे। पुष्ट कागज और कपड़े की पक्की जिल्द । .. २०) (२१) Reality मा० पूज्यपाद की मर्वार्षसिद्धि का भग्रेजी में अनुवाद बड़े प्राकार के ३०० पृष्ठ पक्को जिल्ब मू०६) प्रकाशक-प्रेमचन्द जैन, वीरसेवा मन्दिर के लिए, रूपवाणी प्रिटिंग हाउस, दरियागज, दिल्ली से मुद्रित। Page #426 -------------------------------------------------------------------------- _