SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अचलपुर के राजा श्रीपाल ईल नेमचन्द पन्नूसा जैन न्यायतीर्थ अनेकान्त की गत ८-९ किरणो में अन्तरिक्ष पार्श्वनाथ ग्वालश्रीपुर तथा एलिचपूर (अचलपुर) के राजा श्रीपाल ईल ताको है कछु माजउपाय, योनीबमयों हिनाय। (एल) के बारे मे विवरण प्रसिद्ध हुए है । श्रीपुर पार्श्व- सो सब प्रगट बतामो हाल, तुम हो मुनिवर बीमवाल।। नाथ की प्रसिद्धि अनेक साहित्यिक उल्लेखों से ज्ञात होती मुनिहै। वैमे ईल राजा के बारे में कम ही साहित्यिक उल्लेख मिथ्यामति पार्य नहीं कोय, ताको देहबोभावकही। उपलब्ध हैं जिनसे उसके जीवन पर पूरा प्रकाश नही खालपडता । अगस्त १९६४ के अनेकान्त में ईल राजा के पहले मुहि अपनो कर लेब, ता पोछे भुमिवर करे। जीवन पर थोड़ा प्रकाश डालने की मैंने चेष्टा की तब मुनि ने उसको प्रष्ट मुल गुणों का उपदेश दिया थी। पौर वहाँ उल्लेख भी किया था कि श्रीभक्तामर मौर श्रावक की सब किया उसे समझा दी। और श्री यत्र-मत्र-कथाकोष के पृ. ६५ तथा ११७ पर श्लोक भक्तामरणी के ३०४ ३१वें काव्य तथा विधि समझा न०३९ तथा ३९ की जो कथा दी है उस पर से भी ईल दिया और कहाराजा के जीवन पर थोडा प्रकाश पड़ सकता है । देखिए डिा प्रकाश पड़ सकता ह । दालए- जाह बन्छ यह जपो तुरन्त, शासन प्रासुक एकंत । गोपाल ग्वाल को संक्षिप्त कपा-वच्छ देश में रक्त वस्त्र माल बाल, बोषिक प्राठोत्तर ला॥ श्रीपुर नाम का नगर था, वहाँ राजा रिपुपाल रहते थे, मौन सहित माशा दगम्यान, मनवचकाय विविध परवान। उनके चार गनियां थी। उनके यहा एक ग्वाल रहता पिरचितराणि विसरिमतिकाय, था, एक दिन वह ग्वाल जगल में गया और उसको परम बीसबीसे पदियो चितलाय ॥ बीतगगी मुनि महाराज के दर्शन हुए। ग्वाल ने महात्मा ग्वाल मुनिराज को नमस्कार करके चल दिया जी की बडी भक्ति-भाव से वैय्यावृत्ति की और दारिद्र और उनकी बताई हुई विधि के अनुसार पाराधना प्रारम्भ तथा दुःख का प्रकाशन करते हुए कहने लगा कर दी, जिसके प्रभाव से देवी ने प्रगट होकर कहाका सम्बन्ध कौमुदी महोत्सव के साथ होने के कारण जो मेरे शोध-प्रबन्ध का एक प्रश है । यहाँ उसका एक "समत्त कउमुई" एव ग्रन्थ मे कौमुदी महोत्सव का वर्णन मक्षिप्त रूप ही प्रस्तुत किया है। "मनेकान्त" के पृष्ठों की होने के कारण कौमुईकहा, (कौमुदी कथा) इस प्रकार ये सीमा का ध्यान रखते हुए यहाँ मूल उढरण एवं संवर्भ नाम उपयुक्त ही हैं। फिर भी इस ग्रन्थ की अधिकांश मादि भी नही दिये जा सके किन्तु वे मेरे पास सुरक्षित हैं। पुष्पिकानो में "सावयचरिउ" का नामोल्लेख ही मिलता है, समय पाने पर उनका सदुपयोग हो सकेगा । इतना अवश्य प्रतः इसका प्रमुख नाम "सावयचरित" कहा जाता है। ही कहा जा सकता है कि यदि कोई प्रकाधन संस्था इस जबकि कवि ने अपने अन्य ग्रन्थों से उसे "समत्त कउम्ह" ग्रन्थ को प्रकाशित कर सके तो महाकवि रहधू के प्रति एव "कठमुइ कह पबन्धु" के नाम से ही स्मृति किया है। उमकी एक रचनात्मक श्रद्धांजलि उपलब्ध धावक चरितो 'मावयचरिउ" का अन्यत्र कही भी उल्लेख नही। की कड़ियो में एक नवीन कड़ी का संगठन एवं साहित्य इस प्रकार उक्त रचना कई दृष्टियों से बड़ी ही महत्व- जगत को समृद्ध बनाने में उसका योगदान अभूतपूर्व सिद्ध पूर्ण है। मैंने इसका यथाशक्य विस्तृत अध्ययन किया है। होगा।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy