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________________ पखण्डागम और शेष १८ अनुयोगद्वार २५६ प्रकृतिदीर्घ होता है। यही अवस्था सत्त्व व उदय के स्वरूप होता है। तदनुसार पुद्गलोंके वृद्धि व हानिको प्राप्त पाश्रय से भी होती है। उत्तर प्रकृतियों में भी यथायोग्य होने वाले रूप-रसादि को जो अवस्था होती है उसे भी यही क्रम जानना चाहिए। पुद्गलात्त कहा जाता है। इन सबकी प्ररूपणा प्रकृत अनु१५. भवधारणीय-पोष, मादेश और भवग्रहण के योगद्वार में की गई है। भेद से भव तीन प्रकारका है। इनमे पाठ कर्म और २०. निषत्त-अनिषत्त-जो कर्मप्रदेशाग्र न उदय में उनके निमित्त मे उत्पन्न जीव के परिणाम का नाम दिया जा सकता है और न अन्य प्रकृतिरूप परिणत कराया ग्रोधभव तथा चार गति नामकर्मों और उनके निमित्त से जा सकता है उसका नाम निधत्त है। प्रनिधत्त इसके उत्पन्न जीव के परिणाम का नाम आदेशभव है जो नार- विपरीत होता है। इनमे प्रत्येक प्रकृति प्रादि के भेद से कादि के भेद से चार प्रकारका है। जिस जीव की भुज्य- चार-चार प्रकारका है। इनका विवेचन इस अनुयोगद्वार मान आयु निर्जीर्ण हो चुकी है तथा अपूर्व प्रायु उदय में किया गया है।। को प्राप्त है उसके इस अपूर्व प्रायु के उदय के प्रथम २१. निकाचित-अनिकाचित-जो कर्मप्रदेशाग्र अपममय मे जो परिणाम होता है वह भवग्रहणभव कहलाता कर्षण, उत्कर्षण व अन्य प्रकृतिरूप परिणमण करने में है, जो 'व्यजन' नाम से प्रसिद्ध है। अथवा, पूर्व शरीर तया उदय मे देने के लिए समर्थ नहीं होता है उसे निषत्त का परित्याग करके जो उनर शरीर को ग्रहण किया और इससे विपरीत को प्रनिधत्त कहा जाता है। ये जाता है उसे भी भवग्रहणभव कहा जाता है। प्रकृत मे प्रत्येक प्रकृति प्रादि के भेद से चार प्रकारके हैं। प्रकृत यही भवग्रहण विवक्षित है। इस भव का धारण ज्ञाना- अनुयोगद्वार में इन सबका विचार किया गया है। वरणादि अन्य कर्मों को छोडकर एक मात्र इस भव २२. कर्मस्थिति-प्राचार्य नागहस्ती क्षमाश्रमण के मम्बन्धी आयु कर्म के द्वारा होता है। मतानुसार जघन्य और उत्कृष्ट स्थितियों के प्रमाण की १९. पुद्गलात्त-'पुद्गलात्त' में जो 'प्रात्त' शब्द प्ररूपणा का नाम कर्मस्थितिप्ररूपणा और प्राचार्य प्रार्यहै उसका अर्थ गहीत होता है। तदनुसार पुदगलात्त से मंक्षु क्षमाश्रमण के मतानुसार कर्मस्थिति के भीतर संचित अभिप्राय ग्रहण (प्रात्माधीन) किये गये पुद्गलों का है। कर्म के सत्त्व की प्ररूपणा का नाम कर्मस्थितिप्ररूपणा ये पुद्गल छह प्रकार में पान्माधीन किये जाते है-ग्रहण हैं। इस कर्मस्थिति की प्ररूपणा प्रकृत अनुयोगद्वार में की मे, परिणाम से, उपभोग मे, पाहार से, ममत्तोसे और २३. पश्चिमस्कन्ध-इस अनुयोगद्वार में प्रकृति, परिग्रह से । १. हाथ प्रादि के द्वाग जो दण्ड आदि पुद् स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के प्राश्रय से अन्तिम भव में गल ग्रहण किये जाते है 4 ग्रहणत प्रात्त पुद्गल है। वर्तमान जीवके ममस्त कर्मोंकी बन्धमार्गणा, उदयमार्गणा, - २ मिथ्यान्वादि परिणामो के द्वारा जो पुद्गल गृहीत उदीमार्गणा, सक्रममार्गरणा, और सत्कर्म मार्गणा इन होते है वे परिणाम से प्रात्त पुद्गल कहलाते है। ३. पांच की प्ररूपणा की जाती है, ऐमा निर्देश करके व पान आदि रूप जो पुद्गल ग्रहण किय जात ह अन्तिम भव मे सिद्ध होने वाले जीव की अन्तमुहर्त मात्र उन्हे उपभोगत. प्रात्त जानना चाहिए । ४. भोजन-पानादि मायुके शेप रहने पर जो जो क्रियाये-पावजित करण व की विधि से गहीत पुदगल पाहारत: प्रात्त पुद्गल माने केवलिसमृद्घात प्रादि अवस्थायें होती हैं उनकी प्ररूजाते है। ५ जो पुद्गल अनुराग के वश गृहीत होते है वे पणा की गई है। ममत्तीसे प्रात्त कहे जाते है । ६. जो पुद्गल अपने माधीन ३. धवला पु० १६ पृ० ५१४-१५ । होते है वे परिग्रह से प्रात्त पुद्गल है । ४. धवला पु० १६ पृ० ५१६ । अथवा प्राकृत मे 'प्रत्त' शब्द का अर्थ प्रात्मा या ५. धवला पु. १६ पृ० ५१७ । १. धवला पु० १६ पृ० ५०७-११ । ६.धवला पु०१६ पृ० ५१८ । २. धवला पु० १६ पृ० ५१२-१३ । ७. धवला पु० १६ पृ० ५१९-२१ ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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