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________________ २६८ अनेकान्त बोर यहां प्ररूपणा की गई है। इस प्रकार से यहां अन्य प्रवृत्ति होती है उसे लेश्याकर्म कहते हैं। प्रस्तुत अधिकार भवान्तर अधिकारों के द्वारा संक्रम की प्ररूपणा विस्तारसे में पृथक-पृथक कष्णादि लेश्यामों के निमित्त से होने की गई है। वाली इस प्रवृत्ति का दिग्दर्शन कराया गया है। १३. लेश्या-द्रव्य और भाव के भेद से लेश्या दो १५. लेश्यापरिणाम-कौन-सी लेण्यायें किस वृद्धि प्रकारको है। उनमें चक्षु इन्द्रिय से ग्रहण करने योग्य अथवा हानि के द्वारा किस स्वरूप से परिणमन करती हैं, जो शरीरात्मक पुद्गलस्कन्धों का वर्ण होता है उसका । इसका विवेचन प्रस्तुत अनुयोगद्वार में किया गया है। नाम द्रव्यलेश्या है। वह कृष्ण, नील, कापोत, तेज, पप जैसे-कृष्णलेश्यावाला जीव यदि सक्लेश को प्राप्त और शुक्ल के भेद से छह प्रकारकी है। होता है तो वह अन्य किसी लेश्यारूप परिणत नही होता इस प्रसंग में यहा चारों गतियों के जीवों में से किनके है। किन्तु अपने स्थान मे ही-कृष्णलेश्या में ही-प्रवकौन-सी द्रव्यलेश्या (शरीर का वर्ण) होती है, इसका स्थित रहकर अनन्तभागवृद्धि आदि के द्वारा वृद्धिगत संक्षेप से कथन करते हए यह शंका उठाई गई है कि जब होता है । इसके विपरीत यदि वह विशुद्धि को प्राप्त होता शरीररूप पुद्गलों में अनेक वर्ण उपलब्ध होते है तब है तो वह अपने स्थान में प्रवस्थित रहकर अनन्तभागअमुक जीवके यही द्रव्यलेश्या होती है, यह कैमे कहा जा हानि प्रादि के द्वारा हीनता को प्राप्त होता है तथा सकता है ? उत्तर में यह कहा गया है कि विवक्षित शरीर अनन्तगुणी हानि के साथ नीललेश्या स्वरूप से भी परिणत में अनेक वर्गों के होने पर भी एक वर्ण की प्रमुखता से होता है । इस प्रकार से यहा प्रत्येक लेश्या के प्राथय से उस प्रकार की लेश्या कही जाती है। इसी प्रसंग में विव- उसके परिणमन का विचार किया गया है। क्षित लेश्यायुक्त जीव के शरीरगत जो अन्य अनेक वर्ण १६. सात-प्रसात-इस अनुयोगद्वार मे समुत्कीर्तना, होते हैं, उनके अल्पबहुत्व का भी निर्देश किया गया है। प्रर्थपद, पदमीमांसा, स्वामित्व और अल्पबहुत्व; इन पाच जैसे-कृष्णलेश्या युक्त द्रव्यके शुक्ल गुण सबमें अल्प, हारिद्र अधिकारोंके द्वारा एकान्तसात, अनेकान्तसात, एकान्तप्रसात गुण उनसे अनन्तगुणे, लोहित गुण उनसे अनन्तगुणे, नील और अनेकान्तप्रसात इनकी प्ररूपणा की गई है । जो कर्म गुण उनसे अनन्तगुणे और काले गुण उनसे अनन्तगुणे सातास्वरूप से बांधा गया है उसका प्रक्षेत्र से रहित होकर होते हैं; इत्यादि। सातास्वरूपसे ही वेदन होना, इसका नाम एकान्तसात है और मिथ्यात्व, प्रसयम, कषाय और योगसे जनित जो इससे विपरीत अनेकान्तसात है। इसी प्रकार असातास्वजीव का संस्कार; अर्थात् मिथ्यात्वादि से अनुरंजित, जो रूप से बांधे गये कर्म का असातास्वरूप से ही वेदन होना कर्मागमन की कारणभूत योगों की प्रवृत्ति होती है, एकान्त-प्रसात और उससे विपरीत अनेकान्त-सात जानना उसका नाम भावलेश्या है। उसमे तीव्र सस्कार का नाम चाहिए । कापोतलेश्या है। तीव्रतर संस्कार का नाम नीललेश्या १७. दीर्घ-हस्व-दीर्घ और ह्रस्व मे से पृथक्और तीव्रतम सस्कार का नाम कृष्णलेश्या है। मन्द पृथक प्रत्येक प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के भेद सस्कार का नाम तेजोलेश्या, मन्दतर का नाम पालेश्या से चार-चार प्रकारका है तथा इनमें भी प्रत्येक मूल और और मन्दतम का नाम शुक्ललेश्या है। इस भावलेश्या उत्तर प्रकृति के भेद से ० दो दो प्रकारका है। इन सब में भी उक्त प्रकार से तीव-मन्दता का अल्पबहुत्व निर्दिष्ट का विचार इस अनुयोगद्वार मे बन्ध, सत्त्व और उदय की किया गया है। अपेक्षा से किया गया है। उदाहरणार्थ पाठो प्रकृतियो के १४. लेश्याकर्म-उपयुक्त कृष्णादि भावलेश्यामों बधने पर प्रकृतिदीर्घ और उनसे कम के बधने पर नोके निमित्त से जो जीव की मारण आदि क्रियाओं मे ३. धवला पु० १६ पृ० ४६०-६२ । १. धवला पु०१६ पृ० ४०८-८३ । ४. धवला पु. १६ पृ० ४६३-६७ । २. धवला पु० १६ पृ० ४८४-८६ । ५. धवला पु. १६ पु० ४६८-५०६ ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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