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________________ २२४ अनेकान्त है। उसके वस्तु नाम से प्रसिद्ध चौदह अधिकारों में१ प्रमाणानुगम से षट्खण्डागम के प्रथम खण्डभूत जीवस्थान पांचा अधिकार चयनलब्धि है, जिसके बीस प्राभूतों का द्रव्यप्रमाणानुगम नामक दूसरा प्रयोगद्वार में से चतुर्थ प्राभत कर्मप्रकृतिप्राभृत है। उसका दूमग निकला है । नाम वेदना-कृत्स्नप्राभृत भी है। उसमें ये चौबीस उपयुक्न बन्धन अधिकार के अन्तर्गत चार अनुयोगअधिकार है-१. कृति, २. वेदना, ३. स्पर्श, ४. कम, दारों मे चौथा जो बन्धविधान है वह चार प्रकार का है५. प्रकति, ६.बन्धन, ७. निबन्धन, ८. प्रक्रम, ६. उप- प्रकतिबन्ध, स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध और प्रदेशबन्ध । क्रम, १०. उदय, ११. मोक्ष, १२. संक्रम १३. लेश्या इनमे प्रकृतिबन्ध मूल और उत्तर के भेद से दो प्रकार का १४ लेश्याकर्म, १५. लेण्यापरिणाम, १६. सात प्रसात, है। इनमे भी उत्तर प्रकृतिबन्ध के दो भेद है-एक-एक १७. दीर्घ-हस्व. १८. भवधारणीय, १९. पुद्गलात्त (या उत्तरप्रकृतिबन्ध और प्रवोगाढप्रकृतिबन्ध । इनमे एकपुद्गलात्म), २०. निधत्त-अनिघत्त, २१. निकाचित-अनि एक उत्तरप्रकृतिबन्ध के समुत्कीर्तनादि चौबीस अनुयोगकाचित. ०२. कर्मस्थिति, २३. पश्चिम स्कन्ध और २४. द्वारी मे जो प्रथम समुत्कीर्तना अनुयोगद्वार है उससे अल्प-बहत्व३ . उपयुक्त जीवस्थान की नौ चूलिकाओं मे (पु. ६) प्रथम __इनमे से यहां छठे बन्धन अधिकार को विवक्षित ममुत्कीर्तना, द्वितीय स्थानसमुत्कीतना और तीन दण्डक निर्दिष्ट किया है। उसमे ये चार अन्तराधिकार है (तृतीय, चतुथं व पाचवी चूलिका), इस प्रकार पाच बन्ध, बन्धक, बन्धनीय और बन्धविधान४। उनमें में चलिकाएं निकली है । प्रकन में बन्धक और बन्धविधान ये दो अधिकार विवक्षित हैं। इनमे से बन्धक अधिकार में ये ग्यारह अनुयोग उपक्त एक-एक उत्तरप्रकृतिबन्ध के समुत्कीर्तनादि द्वार हैं-१. एक जीवेन स्वामित्व, २. एकजीवेन कान, चौबीम अनुयोगद्वारों मे तेईसवाँ भावानुगम है। इससे ३. एक जीवेन अन्तर, ४. नानाजीवः भगविचय, ५. द्रव्य. उक्त जीवस्थान का भावानुगम नामक सातवा अनुयोगप्रमाणानुगम, ६. क्षेत्रानुगम ७. म्पर्शनानुगम, . नानाजीव ७. स्पर्शनानगम - नाना द्वार निकला है। कालानुगम, ६. नानाजीवः अन्तरानुगम, १०. भागा- अन्वोगाढप्रकृतिबन्ध भुजगारबन्ध और प्रकतिस्थानभागानुगम और ११. अल्पबहुत्व५ । इनमे से पांचव द्रव्य- बन्ध के भेद मे दो प्रकारका है। इनमे से प्रकृतिस्थान बन्ध मे ये आठ अनुयोगद्वार हैं-सत्प्ररूपणा, द्रव्यप्रमा१. धवला पृ० १, पृ० १२३, पु. ६, पृ० २२६ । णानुगम, क्षेत्रानुगम, स्पर्शनानुगम, कालानुगम, अन्तरानु२. वेयणाकमिणपाडे नि वि तस्स बिदिय णाममत्थि । गम, भावानुगम और अल्पबहुत्वानुम । इन पाठ अनुयोगवेयणा कम्माणमुदयो, तं कमिणं णिरवसेस वणेदि; द्वारों से जीवस्थान के ये छह अनुयोगद्वार निकले हैंअदो वेयणकमिणपाडमिदि एदमवि गुणणाममेव । सत्प्ररूपणा, क्षेत्रप्ररूपणा, स्पर्शनप्ररूपणा, कालप्ररूपणा, धवला पु० १ पृ० १२४-२५ । अन्तरप्ररूपणा और अल्पबहत्वप्ररूपणा । इस प्रकार ३. अग्गेणियस्स पूवश्वस्म पचमस्स वत्थुस्स चउत्यो पूर्वोक्त द्रव्यप्रमाणानुगम और भावानुगम के साथ पाहुडो कम्मपयडी णाम । तत्थ इमाणि चउवीस अणि जीवस्थान के सत्प्ररूपणा मादि पाठो अनुयोगद्वार हो मोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति कदि वेदणाण.....। ष० ख० ४; १, ४५, (घवला) पु. ६ पृ० १३४; ६. दव्वपमाणादो दवपमाणाणगमो निग्गदो। ३०१ पृ० १२५ । धवला पु०१पृ० १२६ । ४. ज तं बंधविहाण त चउब्विह–पयडिबंधो ट्ठिदिवंधो ७. एदेसु समुक्कित्तणादो पयडिसमृक्कित्तणा द्वाणसमुक्कि अणुभागबंधो पदेमबंधो चेदि । १० ख० ५, ६, ७९६; तणा तिण्णिमहादंडया णिग्गदा । धवला पु. १, पृ० १२६; पु०९ पृ० २३३ । धवला पु० १५० १२७ । ५. धवला पु०१पृ० १२६ । ८. तेवीसदिमादो भावो णिग्गदो । धवला पु०१पृ० १२७
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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