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________________ २१२ अनेकान्त भी था कि प्राचार्य कुन्द-कुन्द ने यह ग्रन्थ वल्लुवर को रही है । अपेक्षा है, इस सम्बन्ध में अन्वेषण कार्य चाल प्रसारार्थ सौंपा था और वे इसका प्रचार करते थे। प्रतः रहे। यह ठीक है कि एतद् विषयक बहुत सारी शून्यताएँ सर्वसाधारण ने इन्हें ही इसका रचयिता माना। ऐसा तमिल की जैन परम्परा भर देती है, पर अपेक्षा है, उन भो सम्भव है कि प्राचार्य कुन्द-कुन्द इस ग्रन्थ को सर्वमान्य शून्यतामों को ऐतिहासिक प्रमाणों से और भर देने की। बनाये रखने के लिए अपना नाम इसके साथ जोड़ना नहीं प्रो० ए० चक्रवर्ती ने इस दिशा में बहुत प्रयत्न किया है। चाहते थे, जैसे कि उन्होंने अपने देव का नाम भी सीधे पर अपने प्रतिपादन मे कुछ एक सहारे उन्होंने ऐसे भी रूप में ग्रंथ के साथ नहीं जोड़ा। रचयिता का नाम गौण लिए हैं, जो शोध के क्षेत्र में बड़े लचीले ठहरते हैं । जैसे रहे तो प्रसार का नाम रचयिता के रूप में किसी भी ग्रंथ तिरुकुरल के धर्म, अर्थ, काम प्रादि आधारों की कुन्दके साथ सहज रूप में ही जुड़ जाता है। कुन्द के अन्य प्रथों में वर्णित चत्तारि मगलं के पाठ से पुष्टि करना । हमे जैनेतर जगत के सामने वे ही प्रमाण उपसंहार रखने चाहिए जो विषय पर सीधा प्रकाश डालते हों। ___ 'तिरुकुरल' काव्य माज दो सहस्र वर्षों के पश्चात् भी खीच-तान कर लाये गये प्रमाण विषय को बल न देकर एक नीति ग्रंथ के रूप मे समाजके लिए बहुत उपयोगी है। प्रत्युत निबंल बना देते हैं । अाग्रहहीन शोध ही लेखक की समग्र जैन समाज के लिए यह गौरव का विषय होना कसौटी है। शोध का सम्बन्ध सत्य से है, न कि सम्प्रदाय चाहिए कि एक जैन-रचना पंचम वेद के रूप में पूजी जा से । जैनसाहित्यके अनन्य अनुरागी-डा. वासुदेवशरण अग्रवाल डा० कस्तूरचन्द कासलीवाल डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के निधन के समाचार अग्रवाल साहब उच्चकोटि के लेखक थे। कलम के जब रेडियो पर सुने तो हृदय को गहरा प्राधात लगा वे धनी थे। पुरातत्व एवं कला के वे प्रारम्भ से ही प्रेमी और ऐसा अनुभव हुप्रा जैसे कोई घनिष्ठ परिजन से सदा थे। वे देश के सबसे अधिक समाहत विश्व विद्यालय के के लिए विछोह हो गया हो। वास्तव मे डा. अग्रवाल की चित्रणीय प्राचार्य थे और अपने ज्ञान को विद्यार्थियों मे मृत्यु का समाचार लेखक को ही नही किन्तु प्रत्येक मुक्त हस्त से वितरित करते रहते थे। वाराणसी माने से भारतीय संस्कृति एव कला प्रेमी के लिए दुखप्रद रहा पूर्व राष्ट्रीय सग्रालय मथुरा, लखनऊ एव देहली के सचाहोगा। उनसे अभी देश की संस्कृति के गूढ एवं अज्ञात लक थे। इस अवधि में डा० साहब ने भारतीय पुरातत्व तथ्यों पर प्रकाश डाले जाने की बहुत पाशाएं थीं। वे एव कला का गहरा अध्ययन किया और उनके गूढ तथ्यों वेद, उपनिषद् एवं भारतीय प्राचीनतम साहित्य के अधि- का पता लगाने मे सफलता प्राप्त की । वेद एवं उपनिषदों कारी विद्वान् माने गये थे। इधर १०-१२ वर्षों में उनके का अध्ययन उन्होंने जयपुर के प्रसिद्ध वेदशास्त्री स्वर्गीय जितने भी निबन्ध प्रकाशित हुए उन सब में उनके अगाध प. मोतीलाल जी शास्त्री के साथ बैठ कर किया। वे ज्ञान का दर्शन होता था। उन्होंने अपनी लेखनी द्वारा अपने जीवन के अन्त तक प्राचार्य एवं विद्यार्थी दोनों ही भारतीय संस्कृति के ऐसे तथ्यों का उद्घाटन किया जो रहे और भारतीय साहित्य एवं सस्कृति की प्रत्येक शाखा उनके पूर्व प्रज्ञात माने जाते थे। का अध्ययन करते रहे।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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