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________________ जैन साहित्य के अनन्य अनुरागी-41. वासुदेवशरण अपवाल २५३ लेखक का उनसे सर्वप्रथम सम्पर्क सन् १९४८ में पुरातत्व के सम्बन्ध में बातें होने लगी। उस समय वे हुमा जब उसने अपने प्रथम सम्पादित ग्रन्थ 'पामेर शास्त्र काफी क्षीण काय हो चुके थे लेकिन चारों पोर उनके भण्डार की ग्रन्थ सूची' सम्मत्यर्थ भेजी। इसके पश्चात् तो पुस्तकों का प्रम्बार लगा हा था और उसमें वे खोये गत १५ वर्षों में बीसों पत्रोंका पादान-प्रदान चलता रहा। रहते थे। बातचीत के प्रमग में उन्होंने कहा कि वे जितना सभी पत्रों में उनकी प्रात्मीयता एव स्नेह के दर्शन होते अधिक साहित्यिक कार्य करते हैं उतनाही अधिक पात्म संतोष थे तथा वे साहित्यिक क्षेत्र में कार्य करते रहने को बराबर उन्हें मिलता है । गत ४, ५ वर्षोंकी रूग्णावस्था में जितनी प्रोत्साहित करते रहते थे। पुस्तकों के प्रतिरिक्त जब अधिक एवं उच्चस्तर का साहित्य उन्होंने लिखा इसके कभी लेखक के द्वारा लिखा हुआ कोई खोजपूर्ण लेख पूर्व वे इतना कभी नहीं लिख सके थे। इसलिए वे कहने उन्हें पसन्द पाता तो वे तत्काल उसके सम्बन्ध मे अपना लगे कि-वे बीमारी को वरदान मानते थे। वे लिखते ही अभिमत प्रकट करते थे। रहते और कभी थकने का नाम नहीं लेते। वे सरस्वती जीवन मे दो बार उनके साक्षात्कार का भी अवसर के सच्चे उपासक थे और सरस्वती का भी उन पर पूरा मिला । प्रथम बार जयपुर मे ही स्वर्गीय पं० मोतीलाल हाथ था। जब मैंने डी. लिट.के विषय के सम्बन्ध में जी शास्त्री द्वारा स्थापित मानवाश्रम में उनसे भेंट हुई। उनसे परामर्श करना चाहा कि उन्होंने तत्काल 'जैन मूर्ति यह भेट बिना किसी पूर्व सूचना के थी इसलिए मैं . कला' पर कार्य करने के लिए कहा। जब मानवाश्रम के अध्ययन-कक्ष मे प्रविष्ट हा तो देखने ___ डा. साहब के जीवन एवं उनके साहित्य या प्रकाशित को मिला कि दो सज्जन किसी विशेष अध्ययन मे लगे लेखो मे अब तक यही कहा जाता रहा है कि वे वैदिक हए हैं। लेकिन दोनो के शरीर मे बडा अन्तर था। एक साहित्य के प्रमुख विद्वान् थे। लेकिन भारतीय सस्कृति की पोर मोतीलाल जी स्थूलकाय वाले थे जबकि डा. साहब एक शाखा जैन साहित्य एवं पुरातत्व के वे प्रशंसक कृषकाय के व्यक्ति थे । जब मैने अपना परिचय दिया तो थे इसके सम्बन्ध में किसी ने विचार नही किया है। वैसे उन्होंने तत्काल अपना कार्य बन्द कर दिया और मुझसे सब र दिया पार मुझ वे जैन साहित्य के ममान बौद्ध साहित्य के भी अनन्य बातें करने लगे। मैं उस समय श्रद्धेय ५० चैनसुखदास अनुरागी थे लेकिन लेख की प्रागे की पंक्तियो में मैं जी न्यायतीर्थ एव मेरे द्वारा सम्पादित होने वाले हिन्दी उनके जैन साहित्य एवं पुरातत्व के अनुराग एव विचारों के एक प्रादिकालिक काव्य 'प्रद्युम्न चरित' की पाण्डुलिपि पर प्रकाश डालना चाहूँगा। डा० साहब जैन माहित्य को लेकर गया था। डा० साहब ने ग्रन्थ की पाण्डुलिपि एवं संस्कृति के प्रमुख प्रशमक थे। इस दिशा मे वे हिन्दी को देखा और शीघ्र ही उनके सम्बन्ध में दो-चार प्रश्न भाषा भाषी विद्वानों से सदैव प्रागे रहे हैं और अपनी पूछ डाले । उन्होंने उस कृति को शीघ्र ही प्रकाशित कराने धर्म-निरपेक्षता का अच्छा परिचय दिया है। यद्यपि जैन का प्राग्रह किया और मैं उनका प्रार्शीवाद लेकर लौट धर्म साहित्य एवं कला पर उन्होंने कोई स्वतन्त्र कृति तो पाया। दूसरी भेट अभी वाराणसी में कोई शा वर्ष पूर्व वर्ष पूर्व नहीं लिखी लेकिन समय-समय पर प्रकाशित लेखो, हुई । मैं वाराणसी में किसी सम्मेलन में भाग लेने गया पुस्तको के प्राक्कथनों एवं सम्मतियों में जो उन्होंने अपने हना था तो उनके दर्शनों का मोह नहीं छोड सका । पौर विचार प्रकट किए हैं वे उनकी इस सस्कृति के प्रति जैन साहित्य एव संस्कृति के प्रसिद्ध विद्वान् प० कैलाशचन्द अनुराग एवं मास्था के द्योतक माने जा सकते हैं वे प्राकृत जी शास्त्री, प्रो० दरबारीलाल जी न्यायाचार्य एव प. एवं अपभ्रश साहित्य को भारतीय साहित्य का महत्वपूर्ण फूलचन्द जी शास्त्री के साथ उनके निवास स्थान पर प्रग मानते थे और उनके प्रकाशन के लिए लोगों को पहुंच गया। उनके अध्ययन-कक्ष में प्रविष्ट होने पर देखा सदैव प्रेरित किया करते थे वे जैनधर्म की प्राचीनता के कि वे अपने निजी सहायक को कुछ लिखवा रहे हैं। हम सम्बन्ध मे स्पष्ट विचार रखते थे। उनके अनुसार वैदिक लोग उन्हीं के पास बैठ गए फिर साहित्य धर्म एव भारतीय यग के प्रारम्भ से ही श्रमण संस्कृति के उल्लेख मितेल हैं।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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