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________________ २१४ अनेकान्त इस सम्बन्ध में उन्होंने पं० कैलाशचन्द शास्त्री द्वारा प्रष्टक, सार, समुच्चय, वर्णन, सुभाषित, चौपाई, शुभलिखित 'जैन साहित्य का इतिहास' के प्राक्कथन में जो मालिका, निशाणी, जकड़ी, व्याहलो, बधावा, विनती, पत्री, विचार प्रकट किये हैं वे निम्न प्रकार हैं : भारती, बोल, चरचा, विचार, बात, गीत, लीला, चरित्र, "जैन धर्म की परम्परा अत्यन्त प्राचीन है। 'भगवान छंद, छप्पय, भावना, विनोद, कल्प, नाटक, प्रशस्ति, महावीर' तो अन्तिम तीर्थकर थे। मिथिला प्रदेश के धमाल, चौढालिया, बत्तीसी, पच्चीसी, बावनी, सतसई, लिच्छवि गणतन्त्र से, जिसकी ऐतिहासिकता निर्विवाद सामायिक, सहस्त्रनाम, नामावली, शकुनावली, स्तवन, है, महावीर का कौटुम्बिक सम्बन्ध था । उन्होने श्रमण सम्बोधन, चौमासिया, बारहमामा, बेलि, हिंडोलणा, परम्परा को अपनी तपश्चर्या द्वारा एक नई शक्ति प्रदान चूनड़ी, बाराखडी, सज्झाय, भक्ति, बन्दना, प्रादि। इन की, जिसकी पूर्णतम परम्परा का सम्मान दिगम्बर विविध साहित्य रूपो से किसका कब प्रारम्भ हुआ और परम्परा में पाया जाता है । भगवान महावीर से पूर्व २३ किस प्रकार विम्नार और विकास हुआ यह शोध के लिए तीर्थकर और हो चुके थे। उनके नाम और जन्म वृत्तान्त रोचक विषय है। उसकी बहुमूल्य सामग्री इन मडारों में जैन साहित्य में सुरक्षित हैं। उन्ही में भगवान ऋषभदेव सुरक्षित है।" प्रथम तीर्थंकर थे जिसके कारण उन्हें आदिनाथ कहा "अपभ्रश" भापा प्राचीन हिन्दी का एक महत्वपूर्ण जाता है। जैन कला में उनका अकन घोर तपश्चर्या की मोड प्रस्तुत करती है। वह इसके लिये अमृत की बूंट के मुद्रा में मिलता है। 'ऋषभनाथ' के चरित का उल्लेख समान है। अपभ्रश के ग्रथो का अध्ययन, प्रकाशन एव श्रीमद्भागवत' में भी विस्तार से पाता है और यह सोचने अपरिशीलन अत्यावश्यक है। पं० परमानन्द जी शास्त्री पर वाध्य होना पड़ता है कि इसका कारण क्या रहा द्वारा सम्पादित "जैन ग्रन्थ प्रशस्ति मंग्रह" द्वितीय भाग के होगा । 'भागवत' मे ही इस बात का उल्लेख है कि महा. प्राक्कथन में डा० माहबने इस सम्बन्ध में अपने सुलझे हुये योगी भरत ऋषभ के शत पुत्रों में ज्येष्ठ थे और उन्ही से विचार व्यक्त किये है। उन्होंने कहा है। यह देश भारतवर्ष कहलाया। "अपभ्र श एव अपहट्ट भाषा ने जो अद्भुत स्थान येषां खलु महायोगी भरतो, ज्येष्ठ श्रेष्ठ गुण पासीत । प्राप्त किया, उमकी कुछ कल्पना जैन भडारो मे सुरक्षित येनेदं वर्ष भारतमिति, व्यपदिशन्ति ॥" भागवत ४९ साहित्य से होती है। अपभ्रंश भाषा के कुछ ही ग्रन्थ राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारो की सग्रहीत सामग्री मुद्रित होकर प्रकाश में आये है और भी सैकड़ो ग्रन्थ अभी से वे प्रत्यधिक प्रभावित थे। उनकी यह मान्यता थी कि तक भडारो मे सुरक्षित हैं एवं हिन्दी के विद्वानो द्वारा इन शास्त्र भण्डारों का व्यवस्थित रूप से शोध होना प्रकाश में पाने की बाट देख रहे हैं । अपभ्रंश साहित्य ने चाहिए। जिससे भारतीय साहित्य के विविध अगों पर हिन्दी के न केवल भाषा रूप साहित्य को समृद्ध बनाया, व्यवस्थित प्रकाश डाला जा सके। लेखक द्वारा सम्पादित अपितु उनके काव्य रूपो तथा कथानकों को भी पुष्पित राजस्थान के जैन शास्त्र भण्डारों की ग्रन्थ सूची के चार और पल्लवित किया। इन तीन तत्वो का सम्यक् अध्यापन भागों की उन्होंने मुक्तकठ से प्रशसा की थी। और चतुर्थ अभी तक नहीं हुआ है। जो हिन्दी के सर्वांगपूर्ण इतिहास भाग की तो स्वय ने भूमिका भी लिखी इस अवसर पर के लिये आवश्यक है। वस्तुतः अपभ्रंश भाषा का उत्तम जो अपने विचार व्यक्त किए है वे अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। कोष बनाने की बहुत आवश्यकता है। क्योकि प्राचीन "विकास की उन पिछली शतियों में हिन्दी साहित्य हिन्दी के सहस्त्र शब्दों की व्युत्पत्ति और अर्थ अपभ्रंश के कितने विविध साहित्य रूप थे यह भी अनुमधान के भाषा मे सुरक्षित है। इसी के साथ-साथ अपभ्रश भाषा लिये महत्वपूर्ण विषय है। इस सूची को देखते हुये उनमे कालीन समस्त साहित्य का एक विशद् इतिहास लिखे से अनेक नाम सामने आते है। जैसे स्तोत्र, पाठ, संग्रह, जाने की प्रावश्यकता अभी बनी हुई है।" कथा, रासो, रास, पूजामगल, जयमाल, प्रश्नोत्तरी, मंत्र, "जैन कला" के महत्व के सबंध में वे स्पष्टमत के
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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