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संतत बंग प्रबन्ध काव्यों में प्रतिपादित शिक्षा-पहति
४८. विद्यामत-शास्त्रज्ञान प्राप्त करना।
की जानकारी एवं पातुबह का ज्ञान । ४६. मन्त्रगत-दैहिक, दैविक और भौतिक पदार्थों ६८. बाहु युट, दण्डयुद्ध, मुष्टियुट अस्थियुर एवं को दूर करने के लिए मन्त्रविधि का परिज्ञान ।
मुखातियुद्ध की कला। ५०. रहस्यगत-जादू, टोने और टोटका का परि- ६६. सूत्रखेल, नासिकाखेल, वृत्तवेल, मेवेल एवं शान।
चमखेल प्रादि का कलात्मक परिमान । ५१. सभव-प्रसूति विज्ञान ।
७०. पत्रच्छेद, कटकम्छेद एवं प्रतरच्छेद की कला। ५२. चार--तेज गमन करने की कला ।
७१. सजीव और निर्जीव-मृत या मृततुल्य व्यक्ति ५३. प्रतिचार-रांगी की सेवा सुश्रुषा करने की को जीवित करने की कला तथा यम मादि के द्वारा कला।
मरणकला का ज्ञान । ५४. व्यूह-व्यूह रचना की कला । युद्ध करते समय ७२. शकुनरुत-पक्षियो की भावाज द्वारा शुभाशुभ सेना को कई भागो मे विभक्त कर दुर्लध्य भाग मे स्थापित
का परिज्ञान। करने की कला।
पठारह प्रकार की लिपियों की शिक्षा भी पाठ्यक्रम ५५. प्रतिव्यूह-शत्रु के द्वारा व्यूह रचना करने पर
मे सम्मिलित है। इन लिपियों के नाम निम्न प्रकार हैं:उसके प्रत्युत्तर मे प्रतिव्यूह रचने की कला ।
[१] ब्राह्मी, [२] यवनालिका, [३] दोषोरिका, ५६. स्कन्धावार निवेशन-छावनियां बसने की कला,
[४] खरोष्ट्रिका, [५] खरशाविका, [६] प्रहरात्रिता, मेना को रसद आदि भेजने का प्रबन्ध कहाँ और कैसे
[७] उच्चतरिका, [+] अक्षरपृष्टिका, [१] भोगवतिका, करना चाहिए, आदि का परिज्ञान ।
[१०] वेनतिका, [११] निलविका, [१२] अलिपि,
[१३] गणितलिपि, [१४] गान्धर्वलिपि, [१५] प्रादर्श५७. नगरनिवेशन-नगर बसाने की कला।
लिपि, [१६] माहेश्वरीलिपि, [१७] दामिलिपि और ५८. स्कन्धवारमान-छावनी के प्रमाण-लम्बाई,
[१०] बोलिन्दिलिपि । चौड़ाई एव अन्य विषयक मान की जानकारी।
__शास्त्र अध्ययन में वेदवेदाङ्ग, न्याय, सांस्य के साथ ५६. नगरमान-नगर का प्रमाण जानने की कला।
जैनवाङ्मय का अध्ययन भी लिया जाता था। पारर्वनाथ६०. वास्तुमान-भवन प्रासाद और गृह के प्रमाण को जानने की कला ।
चरित मे बताया गया है कि भूताचल पर जो तापस पाश्रम
था, उसमे वेदवेदाङ्ग का अध्ययन कराया जाता था। ६१. वास्तुनिवेशन-भवन, प्रासाद और गृह बनाने
"द्विज छात्र जिस समय अपने वेदों का अध्ययन समाप्त की कला।
कर चुकते हैं, तो उन्हें वहाँ के पिंजरो में बैठे हुए होता ६२. इध्वस्त्र-बाण प्रयोग करने की कला ।
और मैना उनकी बोली का कर्णप्रिय मिष्ठ भाषा मे मनु६३. सहप्रवाद-असिशास्त्र का परिज्ञान । ६४. अश्वशिक्षा-प्रश्व को शिक्षा देने की कला
वाद करते सुनायी पड़ते हैं।"१ प्रद्युम्नचरित के "वेदनानाप्रकार की चालें सिखलाना।
विद'षडङ्गमन्त्रार्थ", (प्र. ९।२०३) से भी उक्त तथ्य पुष्ट
होता है। ६५ हस्तिशिक्षा-हाथी को शिक्षित करने की कला।
___ "सुधीरधीयन् परमागम" (पाश्व.४४०) द्वारा ६६. धनुर्वेद-धनुविद्या की जानकारी। ६७. हिरण्वाद (हिरण्यपाक)-चांदी के विविध
परमागम-द्वादशाङ्ग जैन वाङ्मय के अध्ययन पर प्रकाश प्रयोग और उसके रूपों को जानने की कला ।
पड़ता है। सामान्यतः शिक्षा का पाठ्यक्रम कला पौर सुवर्णवाद (सुवर्णपाक)-सोने के विविध प्रयोग और १. द्विजैरहस्याध्ययनस्य पश्चादनन्तर पंजरवासितानाम् । उसको जानने की कला।
यत्रानुवादः शुकशारिकाणामाकर्ण्यते कर्णरसायनश्रीः । मणिवाद (मणिपाक)-मणि सम्बन्धी विविध प्रयोगों
पार्व. २७७