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________________ अनेकान्त विज्ञान में परिसमाप्त था। "कलाकलाप सकल समग्रहीत् मे शून्य होते हैं। कुशाग्रबुद्धिः कुशली स लीलमा" (शान्सिनाथचरित ९।२५६ विधा और विद्वान को महिमा से भी उक्त तथ्य की पुष्टि होती है। जो विद्वान हैं और जिसने शस्त्र एव शास्त्र की शिक्षा अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा के सम्बन्ध में बताया गया है२ प्राप्त की है वह लोकद्वय पूज्य है। विद्याधन मर्वोत्तम है-- कि राजकुमारों को [१] चक्र, [२] धनुष, [३] बज्र, विद्याहि विद्यमाने यं वितीर्णापि प्रकृष्यते । [४] खड्ग, [५] क्षुरिका, [६] तोमर, [७] कुन्त, नकृष्यते च चौराद्यः पुण्यत्येवमनीषितम् ॥ त्रिशूल, [८] शक्ति, ]] परशु, [१०] मक्षिका, [११] शत्र. २०२५ भल्लि, [१२] भिन्दिपाल, [१३] मुष्टि, [१४] लुण्ठि, दिद्याधन का प्रभाव अचिन्न्य है । व्यय करने पर भी [१५] शंख, [१६] पाश [१७] पदिश, [१८] ऋष्टि. इमकी वृद्धि ही होती है । चोर तथा बन्धु प्रादि के द्वारा 1181 कणय, [२०] कम्पन, [२१] हल, [२२मुसल, यह धन छीना नहीं जा सकता और इच्छा पूर्ति करने में [२३] गुलिका, [२४] कर्तरि, [२५] करपत्र, [२६] तलवार, [२७] कुद्दाल, [२८] दुस्फोट, [२६] गोकणि, बैदुष्येण हि वश्यत्वं वैभवं सदुपास्यता। [३०] डाह, ]३१] डच्चूस, [३२] मुग्दर, [३३] गदा, सदस्यतालभक्तेन विद्वान्सर्वत्र पूज्यते। [३४] धन, [३५] करपत्र मोर [३६] करवालिका क्षत्र०२२२६ भुगाली की शिक्षा अपेक्षित थी। राजकुमारो को अश्व विद्वाना मे मनुष्य को कुलीनता, धनसम्पत्ति, मान्यता संचालन, पागम, युद्धनीति एवं राजनीति की शिक्षा प्राव और सम्यक्त्व आदि ही प्राप्त नही होते, किन्तु मर्वत्र श्यक थी। उनको साम, दाम, दण्ड, भेद, नीति की भी ममादर भी प्राप्त होता है। शिक्षा दी जाती थी। काव्यो के प्राय. समस्त राजपुत्र, राजनीति और रणनीति में प्रवीण परिलक्षित होते हैं। वपश्चित्यं हि जीवानामाजीवितमनिन्दितम् । शिक्षा का वास्तविक लक्ष्य "हेयोपादेयविज्ञान नोचेद अपवर्गऽपि मार्गोऽय-मदः क्षीरमिवौषधम् ।। व्यर्थः श्रम श्रुतो" (क्षत्रचडामणि २।४४) हेयोगदेयज्ञान क्षत्र० २।२७ कर्तव्य-प्रकर्तव्य की जानकारी प्राप्त करना है, यदि यो- विद्वत्ता मनुष्य के लिए जीवन पर्यन्त प्रतिष्ठाजनक पादेय हिनाहितकारी वस्तुप्रो को ग्रहण करना और छोडना होती है और जिस प्रकार दूध पौष्टिक होने के साथ-साथ यह ज्ञान प्राप्त न हुआ तो शिक्षा प्राप्त करने में किया प्रौषधिरूप भी है, उमी प्रकार विद्वता भी लौकिक प्रयोजन गया परिश्रम व्यथं है। पाठ्यक्रम में अनेक विषयो के रहने माधक होती हुई मोक्ष का कारण बनती है । पर भी व्याकरण जान मावश्यक माना गया है । कवि नारी शिक्षा धनजय ने अपने दिमन्धान काव्य में लिखा है-- पदमानन्द काव्य में वर्णित ऋषभदेव आख्यान में पबप्रयोगे निपुणं विनामे सन्यो विसर्गे च कृतावधानम् ।। बताया गया है कि पुत्रो के ममान ही ऋपभदेव न ब्राह्मी सर्वेष शास्त्रंए जितश्रम तच्चापेऽपि न व्याकरण मुमोच ।। और सुन्दरी नाम को अपना कन्यानो को शिक्षा दी थी। क्षत्रचुडामरिण में पाया है कि गुणमाला ने जीवन्धर के शाद और धानुप्रो के प्रयोग में निपुणता, पवण-वकरण, सान्च तथा विमगं करने में न चूकने वाला पाम प्रेम-पत्र भेजा था तथा प्रत्युत्तर मे जीवन्धर ने भी समस्त शास्त्री के परिश्रमपूर्वक मध्येता व्यक्ति भी व्याकरण प्रेमपत्र लिखा था, जिसे पढकर वह बहुत प्रमन्न हुई थी३ । के अध्ययन के प्रभाव मे विषय और भाषा दोनो के ज्ञान शान्तिनाथचरित मे वणित मत्यकि की पुत्री सत्यभामा भी १. पद्मानन्द ४१२२ ३. ममुदे गुणमालापि, दृष्टवा पत्रेण पत्रिणम् । २. अश्वशिक्षागमाभ्यास कुशल तं महीपतिम्- बर्द्धमान स्वस्यव मफलो यत्न' प्रीतये हि विशेषतः ।। कवि विरचित, वगगचरित, ५२८ . क्षत्र.४१४३ पिता
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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