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________________ प्रोम् महम् अनकान्त परमागमस्य बीजं निषिडजात्यन्धसिन्धुरविधानम् । सकलनयविलसिताना विरोषमयनं नमाम्यनेकान्तम् ॥ वर्ष १६ किरण ५ । वीर-सेवा-मन्दिर, २१ दरियागंज, दिल्ली-६ वीर निर्वाण संवत् २४९३, वि० स० २०२३ । दिसम्बर सन् १९६६ सिद्ध-स्तुतिः सिद्धात्मा परमः परं प्रविलसद्बोधः प्रबुद्धात्मना, येनाज्ञायि स किं करोति बहभिः शास्त्रैर्वहिर्वाचकः। यस्य प्रोद्गतरोचिज्ज्वलतनुर्भानुः करस्थो भवेत, ध्वान्तध्वंस विधौ स किं मृगयते रत्नप्रदीपादिकान् ॥२५॥ सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सद्दर्शनाः, सर्वत्राखिल वस्तुजातविषयव्यासक्तबोधत्विषः । सर्वत्र स्फुरदुन्नतोन्नत सदा नन्दात्मका निश्चलाः, सर्वत्रय निराकुला: शिवसुखं सिद्धाः प्रयच्छन्तु नः ॥२६॥ -मुनि श्री पद्मनन्दि प्रर्ष-जिस विवेकी पुरुष ने सम्यग्ज्ञान से विभूषित केवल उत्कृष्ट सिद्ध आत्मा का परिज्ञान प्राप्त कर लिया है वह बाह्य पदार्थों का विवेचन करने वाले बहुत शास्त्रों से क्या करता है-उनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता। ठीक ही है-जिसके हाथ मे किरणो के उदय से संयुक्त उज्ज्वल शरीर वाला सूर्य स्थित होता है वह क्या अन्धकार को नष्ट करने के लिए रत्ल के दीपक आदि को खोजता है-नही खोजता ॥ जो सिद्ध जीव समस्त प्रात्म प्रदेशों में कर्म बन्धन से रहित हो जाने के कारण सब पात्म प्रदेशों में व्याप्त समीचीन दर्शन से रहित हैं, जिनकी समस्त वस्तु समूह को विषय करने वाली ज्ञान ज्योति का प्रसार सर्वत्र हो रहा है जो सर्वश हो चुके हैं, जो सर्वत्र ही निश्चल एवं निराकुल हैं; ऐसे वे सिद्ध हमें मोक्ष सुख प्रदान करें ॥२५, २६॥
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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