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________________ बुद्धघोष और स्याद्वाद डा० भागचन्द्र जैन प्राचार्य एम. ए. पी-एच. डी. प्राचार्य बुद्धघोष पालि साहित्य के युगविधायक अन्त सम्बन्धी मिथ्यादृष्टियां भी पाच भागों में विभक्त प्राचार्य कहे जाते हैं। चौथी-पाचवी शताब्दी ईसवी मे हैं-१. ऊर्ध्वमाघातनिक संजीवाद, २. ऊर्ध्वमाघातनिक इस व्यक्तित्व ने प्राचीन परम्परा के अनुमार स्वयं के मसजीवाद, ३. ऊर्ध्वमाघातनिक नैव सजीवाद नैव असज्ञी. विषय में विशेष कुछ नही लिखा। उनकी अट्ठ-कथाओं के वाद, ४. उच्छेदवाद, और ५. दृष्टधर्म निर्वाणवाद। अतिरिक्त उनके विषय में सूचनाये देने वाले कुछ और इनमें बुद्धघोष के अनुसार भगवान् महावीर (निम्गण्ठ साधन हैं-(१) महावंश की २१५-२४६ गाथाये, नातपत्त ) ने अपने परिनिर्वाण के अन्तिम समय में अपने दो (२) बुद्धघोसुत्पत्ति, (३) गन्धवस, (४) सासनवंश और शिष्यो को शाश्वतवाद और उच्छेदवादका उपदेश दिया। (५) सद्धम्म संग्रह । इनमें महावंश का भाग, जो तेर- पावसो त्वं मम अच्चयेन सस्सत इति, गण्हयेसि । हवीं शताब्दी के भिक्षु धम्मकित्ति की रचना है, इस एव द्वेपि जने एके लतिके प्रकत्वा बहु-नाना-नीहारेन विषय में अधिक प्रामाणिक कहा जा सकता है। तदनुसार उग्गण्हयेत्वा कालं प्रकासि । ते तस्स सरीरकिच्चं कत्वा बुद्धघोष का जन्म बोधि गया के समीप ब्राह्मण परिवार सन्निपतिता अञ्चं अञ्च पुच्छिसु-"कस्स" माबुसो मेहमा था। वे कुशल वेदज्ञ थे। पातञ्जलि मत पर अचरियो सारं प्रचिक्खि ? ति "सस्मत" ति । अपरो तं उनका अधिकार था। वाद-विवाद करने में भी प्रत्यत्त पटिवाहेत्वा" मह्य सार प्राचिक्खी'....."उच्छेदवाद" प्रवीण थे। एक बार जैसे ही ये बौद्ध भिक्षु रेवत द्वारा ति२। पराजित हुए कि इन्होंने बौद्ध धर्म ग्रहण कर लिया और इस उद्धरण मे जहा यह पता लगता है कि बुद्धघोष उसका अध्ययन कर उसमे पारङ्गत हो गये। श्री लंका जैसे महाविद्वान ने स्याद्वाद को ठीक तरह से समझा नही, पहुँच कर उन्होंने त्रिपिटक पर अट्ठकथाये लिखीं जिनकी वहाँ यह भी समझ में आता है कि बुद्धघोष ने त्रिपिटक संख्या लगभग बीस है। पर टीकायें लिखी हैं और इसीलिए उनमे परम्परागत पचम शताब्दी के युग मे उत्तर भारत में रहने वाला। विचारधारा का प्रालेखन अवश्य होगा। ये दोनों अनुमान ब्राह्मण अथवा बौद्ध विद्वान जैनधर्म एव दर्शन के ज्ञान से त्रिपिटक के देखने से सही हो जाते है। स्याद्वाद को समअछूता रहे यह कैसे संभव था। बुद्धघोष ने भी त्रिपिटक झने मे जो भूल भगवान् बुद्ध और उनके सम-सामयिक की अट्रकथामो में जहा तहा जैनधर्म के विषय मे लिखा प्राचार्यों व शिष्यों ने की है वही भूल उत्तरकालीन है भले ही वह निष्पक्ष न हो। यह स्वाभाविक भी है। प्राचार्यों द्वारा दुहरायी जाती रही है। बुद्धघोष इसके फिर भी त्रिपिटक में आते हुए जैन विषय अट्ठकथानों मै अप त्रिपिटक मे वणित उपर्युक्त वासठ मिथ्यादृष्टियों को कुछ और स्पष्ट हो जाते हैं । विहंगम दृष्टि से देखे तो उनमें मुख्यतः दो सम्प्रदाय हैं दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में वासठ मिथ्या दृष्टियो का उल्लेख पाता है। इनमे १८ मिथ्या दृष्टिया जीवन एक शाश्वतवाद, जो वस्तुविशेष को नित्य व स्थिर स्वीऔर जगत के आदि सम्बन्धी हैं और ४४ अन्त सम्बन्धी। कार करता है और दूसरा उच्छेदवाद, जो वस्तुविशेष को पादि सम्बन्धी मिथ्या दृष्टियां पांच भागों में विभाजित १. दीघनिकाय, भाग १, पृ० १२ हैं-१. शाश्वतवाद, २. नित्यता-अनित्यतावाद, ३. शान्त- २. दीघनिकाय अट्ठकथा भाग २, पृ०६०६-७; मज्झिमअनन्तवाद, ४. अमराविक्षेपवाद मौर ५. अकारणवाद । निकाय अट्टकथा-भाग २, पृ० ८३१ ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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