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तलधर में प्राप्त १६० जिन प्रतिमाएँ
श्री मगरचन्द नाहटा
जिन प्रतिमानों का निर्माण कब मे हुमा-यह काफी पुराना होना चाहिये। गुप्तकाल.की कुछ सुन्दर निश्चयपूर्वक बतलाना कठिन है। क्योकि प्राचीन जैन- प्रतिमाएं मिलती हैं पर अधिकांश प्रतिमाएं मध्यकाल की मागमों में नदीश्वर द्वीप एवं स्वर्ग विमान प्रादि मे जिन- ही मिलती है। प्रतिमाएं होने का उल्लेख मिलता है और उन्हें शाश्वत मध्यप्रदेश में जैन पुरातत्व बहुत अधिक बिखरा पड़ा माना गया है । इस अपेक्षा से तो जिन-प्रतिमा के निर्माण है। गुप्तकाल से लेकर १६वीं शताब्दी के बीच की हजारों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन सिद्ध होती है। पर भारत जैन-प्रतिमाएं व भनेक मन्दिर माज भी प्राप्त हैं। उनमें में अब तक जितनी भी प्रतिमाएं प्राप्त हुई है वे मौर्यकाल से अधिकांश मन्दिर मूर्तिये खडित व भग्न-रूप में ही हमें से पहले की नही है यद्यपि खारवेल के शिलालेख से नद- मिलती है। देवगढ़ का जैन शिल्प तो विशेष रूप से काल मे भी जिन-प्रतिमाएँ पूजी जाती थीं; ज्ञात होता है उल्लेखनीय है । ११वी शताब्दी से १६वी शताब्दी के बीच अनेक स्थानो की चमत्कारी मूर्तियों के सम्बन्ध मे जो जैनधर्म का मध्यप्रदेश में बड़ा भारी प्रभाव रहा है। प्रवाद प्रचलित है और पूर्ववर्ती ग्रन्थों में जो उल्लेख महाराजा भोज और नरवर्म प्रादि बहुत से नपतिगण मिलते हैं उनसे तो ऐसा लगता है कि भगवान ऋषभदेव जैनाचायों से प्रभावित थे। अनेक स्थानों की जैन मूर्तियाँ के समय से ही जिनमूर्ति स्थापित होने लगीं। भगवान इधर कुछ वर्षों में ही जैनों और पुरातत्व विभाग की ऋषभदेव के पुत्र भरत ने प्रष्टापद पर्वत-जहाँ भगवान उपेक्षा से खडित हो गई हैं। अभी-अभी नरवर के एक ऋषभदेव का निर्वाण हमा था, एक जिनालय का निर्माण तलघर से प्राप्त १६० जिन-प्रतिमानों की जानकारी किया था। भगवान ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र बाहुबलि ने "मध्यप्रदेश संदेश" के ता. १९ मार्च ६६ के प्रक में भी छपस्थकाल में, भगवान ऋषभदेव उनकी राजधानी प्रकाशित हुई है। श्री कुरेशिया के "जिला पुरातत्व के पास या बाहर पधारे थे और बाहुबलि बड़े ठाट-बाट संग्रहालय, शिवपुरी" नामक लेख से विदित होता है कि के साथ दूसरे दिन जब ऋषभदेव को वन्दन करने के लिए वे प्रतिमाएं अभी शिवपुरी में स्थापित नवीन संग्रहालय उस स्थान पर पहुंचे तब तक भगवान अन्यत्र विहार कर में रखी हुई हैं। १३वी से १६वी शताब्दी के लेख उन चके थे इसलिए बाहुबलि को देरी से पाने के कारण प्रतिमानो पर खुदे हुए हैं। प्रतिमा लेखों की पूरी नकल भगवान के दर्शन न हो सके, इसका बड़ा खेद रहा । जहाँ मिलने से सम्भव है जैन इतिहास की कुछ अज्ञात बातें भगवान ऋषभदेव के पद-चिह्न उन्हे दिखाई दिये वहाँ प्रकाश मे पायेंगी। उनकी पादुकाएं स्थापित की गई—ऐसा भी प्रवाद है। "मध्यप्रदेश सन्देश" में नरवर से प्राप्त १६० जिनवर्तमान में प्राप्त कई मूर्तियों के सम्बन्ध में यह कहा प्रतिमानों सम्बन्धी जानकारी इस प्रकार हैजाता है कि वे भगवान पार्श्वनाथ, नेमिनाथ मादि प्राचीन "नरवर में एक तलघर था जिसमें १६० जिन-प्रतितीथंकरों के समय की हैं। पर उन मूर्तियों पर कोई लेख माएँ सुरक्षा हेतु रखी हुई थीं। ऐसा ज्ञात होता है कि नही मिलता और न पुरातत्व की दृष्टि से वे इतनी शत्रुमो के पाक्रमणों के कारण किसी जैन साधु ने मन्दिर प्राचीन सिद्ध की जा सकती है।
के तलघर मे सारी जैन प्रतिमाएँ सुरक्षा हेतु छिपा कर उपलब्ध जिन-प्रतिमामो मे मौर्यकाल की जिनप्रतिमा बन्द कर दी हों। सम्भव है कि वे व्यक्ति जिनको इन पटना म्यूजियम में है जो लोहानुपुर से प्राप्त हुई है। प्रतिमामोकी जानकारी थी, माक्रमण मे वीरगति को प्राप्त उसके बाद की तो मथुरा मादि अन्य स्थानो मे भी मिली हो गए हों और इस तलघरकी जानकारी भी उनके साथही हैं। मथुरा में सुपाश्वनाथ व पार्श्वनाथ स्तूप पाश्चात्य चली गई हो । यहाँ तक हुमा एक मकानका निर्माण इस विद्वानों की राय में भी देव-निर्मित माने जाने के कारण तलघर के ऊपर हो गया जो कि वर्तमान में भी स्थित है।