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________________ अपभ्रश-चरित-काव्य ग० देवेन्द्रकुमार शास्त्री अपभ्रंश नव्य भारतीय मार्य भाषाओं की पुरो- थे। योन्यन्तरी भाषा जंगली बोली कही जाती थी, जो गामिनी भाषा है। बोली तथा भाषा रूप में ही नही गांव, जगल तथा वन में उत्पन्न होने वाले पशुओं की बोली साहित्य में प्रतिष्ठित हो जाने पर भी लोक जीवन से थी। सामान्यतः लोकनाट्य मे स्त्री तथा नीच जातिके लोग इसका बराबर सम्बन्ध बना रहा है। इसलिए इस भाषा प्राकृत का ही प्रयोग करते थे। इससे स्पष्ट है कि लोकका लिखा हुमा साहित्य जन-साहित्य तथा संस्कृति का परम्परा से विकसित प्राकृतो की उत्तरकालीन अवस्था पुरस्कर्ता है । यदि अपभ्रंश अहीरों, मछुमों, धीवरों मादि अपभ्रंश है; न कि अहीर मछुमा मादि को बोली। निम्न जाति के लोगों की ही बोली होती तो उनकी जातीय इसका मूल रूप माज भी वैदिक और अवेस्ता की भाषा मे प्रवृत्तियों का तथा प्राचार-विचार प्रधान विशिष्ट सस्कारो लक्षित होता है। का लेखा-जोखा अवश्य ही इस साहित्य में मिलता, परन्तु अपन श का आधकाश उपलब्ध साहित्य जन मोर उनकी रीति-नीति भाषा तथा जातीय संस्कारों की किसी __ बौद्ध साहित्य है । रासो तथा मुक्तक रचनाये ही जनेतर प्रकार की भी छाप इस साहित्य पर लक्षित नहीं होती। साहित्य की साक्ष्य के लिए प्रमाण हैं। किन्तु इसका यह यद्यपि उत्तर वैदिक काल से लोक-नाट्य का प्रचलन हो अर्थ नहीं है कि अन्य साहित्य इसमे लिखा नहीं गया। गया था, लेकिन उसमे प्राकृत भाषा का ही प्रयोग किया मेरा अनुमान है कि सभी जाति के लोगो ने सभी जाता था, क्योंकि वह जातिभाषा थी। भरतमनि ने प्रकार का साहित्य लिखा होगा, परन्तु मध्यकालीन नाट्यशास्त्र में चार प्रकार की भाषाप्रोका उल्लेख किया उथल-पुथल में अधिकतर साहित्यकाल के गर्भ मे समा गया है-प्रति भाषा, प्रार्य भाषा, जाति भाषा और योन्यन्तरी अथवा किन्ही काल-कोठरियो के अन्धकार की रक्षा करते भाषा । वस्तुतः भाषा सस्कृत ही थी। भाषामों के नाम करते उनके साथ विलीन हो गया है । कारण जो भी रहा पर प्रर्चालत अन्य बोलियां थीं। जिस भाषा मे वैदिक शब्दो हो । यह निश्चित है कि अपभ्रंश के जैन साहित्य की रक्षा की बहुलता थी, जो देव जाति की भाषा थी उसे प्रति- तथा दखभाल करन का श्रय जन भण्डारा की है। पोर भाषा कहते थे। राजा तथा शिष्ट लोगों की भाषा प्रार्य- यह साहित्य भारतवष क यह साहित्य भारतवर्ष के सभी भागो में विविध काव्यभाषा कही जाती थी। यह भाषा सवारी जा चुकी थी . रूपों में लिखा हुआ मिलता है। ५ और साहित्य मे भलीभांति प्रतिष्ठित हो चकी थी इसलिए कथा और चरितकाव्यइसे "संस्कृत" कहा जाने लगा था।जाति भाषा दो प्रकार .. कथा में जीवन की किन्हों घटनामो विशेष का माकलन कोथी-एक तो उन लोगों को भाषा थी जो मले" होता है और चरितकाव्य मे किसी महापुरुष या नायक का शब्द से व्यवहत होते थे और परे जो भारतवर्ष में रहने सम्पूर्ण जीवन वणित रहता है । नायकके समग्र जीवन का १ सस्कृत प्राकृत चैव यत्र पाठ्यं प्रयुज्यते । तथा जीवन की विभिन्न घटनामों और संघर्षों का मुख्य प्रतिभाषार्यभाषा च जातिभाषा तथव च ॥ रूप से वर्णन होने के कारण प्राचार्य प्रानन्दवर्धन ने इसे नाट्यशास्त्र, १७, २७, "सकलकथा" कहा है । और प्राचार्य हेमचन्द्र सकलकथा तथा योन्यन्तरी चैव भाषा नाट्ये प्रकीर्तिता। को ही चरितकाव्य कहते है। उदाहरण के लिए-पा. प्रतिभाषा तु देवनामार्यभाषा तु भूभुजाम् ।। २ "सकलकथेति चरितमित्यर्थः ।"-काव्यानुशासन, वही, १७, .८ ८,८ की वृत्ति।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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