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________________ बग-बीडर्शन हैं । सौगान्तिक बाहार्य की सत्ता मानकर भी उसे प्रत्यक्ष पांच स्कन्धों के समुदाय का नाम ही प्रात्मा है। इनके न मानकर अनुमेय मानते हैं । योगाचार के अनुसार शान अतिरिक्त पात्मा की कोई स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। प्रत्येक मात्र ही तत्व है और माध्यमिकों के अनुसार शून्य की पात्मा नाम रूपात्मक है। यहाँ रूप से सपाय शरीर ही प्रतिष्ठा है। इन चारों सिद्धान्तों का वर्णन निम्न के भौतिक भाग से है और नाम से तात्पर्य मानसिक श्लोक में सुन्दर रूप से किया गया है प्रवृत्तियों से है। वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान ये मुस्यो माध्यमिको विवर्तमखिलं शून्यस्य मेने जगत्, नाम के ही भेद हैं। इन पांच स्कन्धों की सन्तान (परयोगाचारमते तु सन्ति मतयस्तासां विवर्तोऽखिलः।। म्परा) बराबर चलती रहती है। प्रतः प्रात्मा के न होने मोऽस्ति क्षणिकस्त्वसावनुमितो बदति सौत्रान्तिकः, पर भी जन्म, मरग और परलोक की व्यवस्था बन जाती प्रत्यक्ष भणभगुर , सकलं वैभाषिको भावते ॥ है। पात्मा को न मानने का कारण यह है कि पात्मा यहां यह ज्ञातव्य है कि अन्य दार्शनिकों ने 'शून्य' का सद्भाव ही सब प्रनों की जड़ है। पात्मा के सद शब्द का अर्थ अभाव किया है, किन्तु माध्यमिक दर्शन के भाव में ही हंकार का उदय होता है। प्रात्मा के होने प्राचार्यों के मौलिक ग्रन्थों के अनुशीलन से शून्य शब्द का पर 'स्व' और 'पर' का विभाग होता है। इससे 'स्व' के प्रभाव रूप अर्थ सिद्ध नहीं होता है। किसी पदार्थ के लिए राग और 'पर' के लिए देष उत्पन्न होता है । और स्वरूप निर्णय के लिए अस्ति, नास्ति, उभय और अनुभव राग द्वेष के कारण अन्य समस्त दोष उत्पन्न होते हैं। इन चार कोटियों का प्रयोग संभव है। परन्तु परमार्थ कहा भी हैतत्त्व का विवेचन इन चार कोटियों से नहीं किया जा पात्मनि सति परसंशा स्वपरविभागात परिग्रहो । सकता। प्रतः अनिर्वचनीय होने के कारण परमार्थ तस्व अनयोः सम्प्रतिबन्धात् सर्वे बोषाः प्रजायन्ते ।। को शुन्य शब्द से कहा गया है। इसी बात को नागार्जुन बोधिचर्यावतारपंजिका पृ० ४६२ ने माध्यमिक कारिका में निम्न प्रकार से बतलाया है प्रतः प्रात्मा समस्त दोषों की उत्पत्ति का कारण है। मसन् नासन् न सबसन्न चाप्यनुभयात्मकम् । चतुष्कोटिविनिर्मुक्तं तस्वं माध्यमिका विदुः।। इस प्रकार सब प्रनयों की जड़ होने के कारण बौड दर्शन में मात्मा का निषेध किया गया है। यात्म व्यवस्था जैन दर्शन प्रात्मा को चैतन्य मानकर अनादि और निवारण व्यवस्थाअनन्त मानता है। मात्मा का स्वभाव अनन्तदर्शन, मात्मा का स्वभाव अनन्तदर्शन. जैन दर्शन में संसार, संसार के कारण, मोक्ष पौर अनन्त ज्ञान, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य है। संसार मोक्ष के कारणों को माना गया है। कर्मों का पालवीर अवस्था में कर्मों के द्वारा धावृत्त होने के कारण इन गुणों बन्ध संसार के कारण हैं, संवर और निर्जरा मोक्ष के का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है। किन्तु कर्मों के नाश कारण हैं । बोट दर्शन में इन्हीं चार बातों को चार पायहोने पर ये गुण अपने स्वाभाविक रूप में प्रकट हो जाते सत्य के नाम से कहा गया है। दुःख, समुदय, निरोध है। संसारी प्रात्मा कर्म के वश होकर मनुष्य गति, और मार्ग ये चार मार्यसत्य हैं। संसार दुःखरूप है। तिर्यञ्चगति, नरक गति और देव गति इन चार गतियों दुःख के कारण तृष्णा को समुदय कहते हैं । दुःखों के नाश मे भ्रमण करता रहता है और काललब्धि पाने पर क्रमशः का नाम निरोष या निर्वाण हैं। और निरोष के उपाय कर्मों का नाश करके वह भगवान् भी बन सकता है। का नाम मार्ग है । इस प्रकार दोनों दर्शनों में निर्वाण को मात्मा के विषय में बौद्ध दर्शन की मान्यता जैन माना गया है। जैन दर्शन के अनुसार कर्मों का नाश होने दर्शन से बिलकुल विपरीत है । बौद्ध दर्शन ने चित्त (ज्ञान) परमात्मा की शुद्ध अवस्था का नाम निर्वाण या मोक्ष को तो माना है किन्तु एक स्वतन्त्र पालद्रव्य को नहीं है। मोक्ष में प्रात्मा मनन्त काल तक अनन्तज्ञान, दर्शन, माना है। रूप, वेदना, संशा, संस्कार और विज्ञान इन सुख तथा वीर्य सम्पन्न रहता है। बौद्ध दर्शन के अनुसार
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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