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________________ ११५ अनेकान ऊपर लिखा है। यही समय भगवान् महावीर के निर्वारण का मा जाता है। इसलिए वर्षायोग के निष्ठापन के धनन्तर सूर्योदय हो जाने पर वीर निर्माण क्रिया करे । उसमें सिद्धभक्ति निर्वाणमक्ति गुरुभक्ति पर शातिभक्ति करे। इसके बाद नित्यवंदना करे। आशाघर के इस कथन से प्रगट होता है कि- वर्षा - योग समाप्ति का किया विधान तो कार्तिक कृष्णा १४ की रात्रि के पिछले भाग में ही कर लिया जाता है। परम्तु उसके अनन्तर ही उस स्थान को छोड़कर अन्यत्र विहार नही किया जाता है। कम से कम कार्तिक शुक्ला ५ तक तो उसी स्थान मे रहना श्रावश्यक बनाया है। इससे पहिले तो मुनिजन कदाचित् भी वहाँ से बिहार नहीं कर सकते हैं । और अधिक से अधिक मगसिर मास की समाप्ति तक भी उस स्थान को नही छोडने को कहा है। मूलाधारासाराधिकार गाथा १८ की टीका मे दश प्रकार के श्रम कल्प का वर्णन करते हुए मास नाम के वे कल्प का कथन इस प्रकार किया है "मास योगग्रहणात् प्राड्मासमात्रमवस्थान कृत्या बर्षाका योगो ग्राह्यस्तथा योग समाप्य मासमात्रमवस्थान कर्तव्य | लोकस्थिति ज्ञापनार्थमहिसादितपरिपालनार्थ च योगात्प्रामासमात्रमवस्थान, पश्चाच्च मासमात्रमवस्थान श्रावक लोकादिसक्लेशपरिहरणाय । प्रथवा ऋतो २ मासमासमात्र स्थातव्य मासमात्रं च विहरण कर्तव्यमिति मास भ्रमणकल्पोऽथवा वर्षाकाले योगग्रहण चतुर्षु चतुर्षु मासेषु मदीश्वरकरण च मासश्रमणकल्प. ।" जिस स्थान मे वर्षायोग ग्रहण करना है उस स्थान में वर्षाकाल से एक मास पहले ही उपस्थित होकर वर्षायोग ग्रहण करना और वर्षायोग की समाप्ति हो जाने पर भी एक मास भर वही ठहरे रहना इसे मास कल्प कहते है। वहाँ के लोगो की परिस्थिति को जानने के लिए धौर महिसादि व्रतों की पालना के लिए उस स्थान में वर्षायोग से एक मारा पूर्व ही चले जाते है और । भावक लोक धाfदकों को संक्लेश न होने देने के लिए वर्षायोग की समाप्ति के बाद भी एक मास तक वहाँ ठहरे रहते है । घथवा प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास तक एक जगह ठहरे रहना और एक-एक मास तक बिहार करते रहना इसे भी मास नाम का धमरणकल्प कहते हैं अथवा वर्षाकाल मे वर्षा योग ग्रहण करना और बार-बार महीने में नंदीश्वर करना यानी घाटाहिक पर्व के दिन तक एक जगह ठहरे रहना यह भी मास श्रमगकल्प कहलाता है । भगवती श्राराधना गाथा ४२१ की मूलाराधना टीका में पं० माशाधर जी ने इस प्रकरण को विजोदया टीका से उद्धृत करते हुए निम्न प्रकार लिखा है 1 "प्रावृट्काले मासचतुष्टयमेकत्रावस्थान । स्थावर जगजीवाकुना हि तदा नितिरिति तदा भ्रमणे महान सयमः" "इतिविशत्यधिकदिवसात एकत्रावस्थानमित्यय उत्सर्गः कारणापेक्षा तु हीनमधिक वावस्थानं । सयतानामाषाढ शुक्लदम्याः प्रमृति स्थितानामुपरिष्टाच्य कार्तिक पौणिमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थान | .....एकत्रेत्युत्कृष्ट. काल । मार्यां दुर्भिक्षे ग्रामजनपदचलने वा गच्छनाशनिमितं समुपस्थिते देशातर याति । अवस्थाने सति रत्नत्रय विराधना भविष्यति इति पौर्णमास्यामाषाढयामतिऋताया प्रतिपदादिषु दिनेषु याववत्वारो दिवसा एतदपेक्ष्य होनता कालस्य । एष दशम स्थितिकल्पो व्याख्यातः टीकायां । टिप्पन के तु द्वाम्या द्वाभ्या मासाभ्या निषद्यका द्रष्टव्येति ।" ......... अर्थ- वर्षा काल मे मुनियों को चार मास तक एक जगह रहना चाहिए | क्योकि उस समय पृथ्वी स्थावरजस जीवों से व्याप्त हो जाती है इससे उस समय विहार करने से महान् प्रसंयम होता है । अतः वर्षा काल मे एक सौ बीस दिन तक मुनियों का एक स्थान मे रहना यह उत्सर्ग मार्ग है । कारण अपेक्षा से यह अवस्थान १२० दिन से हीनाधिक भी होता है। पाषाढ़ शुक्ला दशमी से लेकर कार्तिक की पूर्णमासी के बाद तीस दिन तक यानी मगसिर घुमला १५ तक (५ मास ५ दिन) मुनियों का एक स्थान मे रहना उत्कृष्ट काल कहलाता है। महामारी दुर्भिक्ष के होने पर जब लोग गांव देश को छोड़ भागने लगे अथवा १. विजयोदया टीका में इस स्थान पर ४ दिन की जगह २० दिन लिखे है । इसका कारण वहा पाठ की प्रशुद्धि मालूम पड़ती है ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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