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________________ चातुर्मास योग मुनि संघ के नाश होने का कोई कारण मा उपस्थित हो चाहिए। यदि किसी कारण वश उक्त समय तक न पहुंच तो ऐसी हालत में मुनिजन जहाँ वर्षायोग ग्रहण किया है सके तो भी धाममा का उल्लंघन तो कदापित उस स्थान को भी छोड़ वर्षाकाल में अन्य स्थान मे जा भी नही किया जा सकता है। उल्लघन करने पर प्राय. सकते हैं । यदि न जावें तो उनके रत्नत्रय की विराधना श्चित्त लेना होगा। होगी। यह स्थानांतर पाषाढ की पूर्णमासी से चार दिन (४) पनगारधर्मामृत मे प० माशाधर जी ने वर्षा बाद तक-श्रावण कृष्णा ४ तक किया जा सकता है। योग की समाप्ति की सिर्फ क्रियाविधि (भक्ति पाठों का इस अपेक्षा मे काल की हीनता समझनी। इस प्रकार पढा जाना) कार्तिक कृ. १४ की रात्रि के पिछले भाग टीका मे १०वा स्थिति कल्प का व्याख्यान किया है। में करना बताई है। उसके दूसरे ही दिन विहार करमा टिप्पण मे तो दो-दो महीने मे निषधका का दर्शन करना नहीं बताया है। बल्के उसके बाद भी वर्षा काल की दशवा स्थितिकल्प बताया है। ममाप्ति तक यानी कार्तिक शु०१५ तक या मास कल्प के यहाँ यह ध्यान में रखने की बात है कि-दशवे अनुमार मगमिर शु० १५ तक भी वही पर ठहरा जा पज्जो नाम के स्थिति कल्प का जो म्वरूप टिप्पण में मकता है, कारणवश इससे पहिले भी विहार किया जा बताया है। उसी से मिलता जलता स्वरूप मूलाचार की मकता है किंतु कार्तिक शु० ५ से पहिले तो कारणवा टीका में बताया है। वहाँ "निपद्यका की उपासना करना" भी विहार नही हो सकता है। विहार करने पर प्रायश्चित ऐमा स्वरूप पज्जो स्थिति कल्प का बताया है। जबकि लेना होगा। भगवती पाराधना की विजयोदया टीका में वर्षायोग के (५) महामारी मादि कारणो मे यदि वर्षाकाल में धारण करने को पज्जो-स्थितिकल्प बताया है। इस तरह स्थान छोडने की जरूरत था पडे तो श्रावण १०४ तक भगवती आराधना की टीका और मूलाचार की टीका में ही वे अन्यत्र जा सकते हैं। बाद में नही। बाद में जाने इस विषय में एक बड़ा कथन भेद पाया जाता है। पर प्रायश्चित्त लेना होगा। नीचे हम इन सब कथनों का फलितार्थ बताते है(१) पाषाढ शुक्ला १५ से कार्तिक शुक्ला १५ तक (६) चातुर्मास के अलावा हेमतादि दो-दो माम की वर्ष काल माना जातानमामो मनियोका ऋतुमों में प्रत्येक ऋतु में १ मास तक मुनियों का एक एक स्थान में रहना यह एक सामान्य नियम है। स्थान पर ठहरे रहना और १ मास तक विचरते रहना ऐमा भी विधान मूलाचार में मास कल्प के स्वरूप कथन (0) मूलाचार में लिखे मास कला के अनुसार वर्षा काल के प्रारम्भ से एक मास पूर्व और वर्षा काल की में किया है। समाप्ति से १ मास बाद तक भी अर्थात् ज्येष्ठ शुक्ला १५ (७) मूलाचार में पाष्टातिक पर्व के दिन तक से मगसिर शुक्ला १५ तक मास ६ तक भी मनिजन लगा- मुनियो को एक स्थान मे रहने के विधान का भी भाभास तार एक स्थान पर रह सकते हैं। इतना ममय शास्त्र मिलता है। रचना के लिए उपयुक्त हो सकता है। (5) जो मुनि श्रावण कृ. ४ के बाद वर्षायोग (३) वर्षा योग की स्थापना का समय प्राषाढ शुक्ला ग्रहण करते हैं और कार्तिक शु० ५ से पहिले ही वर्षायोग १४ का है। भगवती माराधना की टीका के अनुसार को समाप्त कर विहार कर जाते हैं। वे मुनि प्रायश्चित्त उसके भी पहिले प्राषाढ़ शु. १० तक मुनियों को वर्षा के योग्य माने गये हैं अर्थात् ऐसे मुनियों को इसका योग ग्रहण करने के अर्थ अपने इष्ट स्थान पर पहुंच जाना प्रायश्चिन लेना चाहिए।*
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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