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________________ मुजानमल की काव्य साधना गंगाराम गर्ग मारवाड. मेवाड और गुजरात में अधिक पाये जाने सागरकवर आदि की कथापो के रूप में धार्मिक आस्था । के कारण श्वेताम्बर जैनो की साहित्यिक भाषा यद्यपि ये कथाएँ भूले-भटके साधारण जनो को धर्म की पोर राजस्थानी और गुजराती ही अधिक रही, तथापि हिन्दी उन्मुख करने के लिए बड़ी उपयोगी है। प्रदेशों के मन्निकट होने के कारण ढूंढाड के श्वेताम्बर सुजानमल जिन भगवान् के परमभक्त है । यद्यपि जनों ने तो अपन भाव व विचारो की अभिव्यक्ति का उन्होंने सभी तीर्थकों की स्तुतियां की हैं किन्तु उनका माध्यम हिन्दी को ही बनाया। हिन्दी के विशाल जैन- श्रद्धा-भाव पाश्र्वनाथ के प्रति अधिक रहा है। इसका साहित्य में दिगम्बर की तुलना में श्वेताम्बर सम्प्रदाय के कारण है कि मुजानमल ने विष्णु, शिव, महेश, गणेश आदि जिन इने-गिने कवियो का योगदान कहा जा सकता है, सभी देवनामो की परीक्षा ले ली किन्तु पार्श्वनाथ जी के उनमे से एक सुजानमल, भी है। ममान वीतरागी, निर्विकारी, निरंजन व उद्धारक उन्हे जीवन-वृत्त-सुजानमल जयपुर नगर के प्रसिद्ध जोहरी अन्य दृष्टिगोचर नही हुमा। ताराचद यहां मवत् १८१६ वि० में उत्पन्न हए थे। मेरे प्रभु पाश्र्वनाथ दूसरो न कोई। यं सेठिया गोत्रिय प्रोसवाल वैश्य थे । सुजानमल के तीन अश्वसेन तात, वामा सुत सोई। छोटे भाई और थे-लाभचन्द, मोहनलाल और जवाहर केवल वरनाण जाके प्रगट मान होई। मल । सुजानमल के तीन विवाह हुए किन्तु उनकी किसी निरंजन, निर्विकार ध्यान, लग्यो एक मोई। भी पत्नी से पुत्र-लाभ नही हुमा । जवाहरमल इनके दजक हरिहर ब्रह्मा गणेश देख्या जग टोई.। पुत्र थे । ५० वर्ष की प्रायु में सेठ सुजानमल एक असाध्य राग द्वेष वशीभूत ममता नहीं खोई। बीमारीसे पीडित हुए। तब उन्होंने स्वस्थ हो जानेपर प्रवृज्या तारन मा तिरन बिरव नामे टक जोई। धारण करने की प्रतिज्ञा की। मौभाग्यवश सुजानमल की सुजाण सोचोप्रेम जाण प्रीत माल पिरोई ॥२॥ बीमारी शीघ्र ही समाप्त हो गई और इन्होंने पाश्विन मुजानमल जिनेन्द्र की महिमा के वर्णन का प्रयास शुक्ला १३ सवत् १९५१ को मुनिविनयचन्द्र महाराज से करते हुए भी उसको समझने में अपने को अधिक समर्थ दीक्षा ग्रहण कर लो। मुजानमाल की मृत्यु १७ वर्ष तक नहीं पातेकठोर मुनि-धर्म पालन करने के उपरान्त सवत् १९६८ को तू ही परमात्मा परम परमेश्वर, तू ही केवल नाणवर गुण भण्डारी। काम्य-माधना---मुजानमन के लगभग ४०० पद सुने तू ही जग ज्योत जोते सरु जिन वरू, जाते हैं किन्तु अभी तो उनके १६५ पद ही प्राप्त है जो जग गुरु अचिन्त्य महिमा तिहारी॥३४॥ "सुजान पद सुमन वाटिका" मे प्रकाशित है । सुजानमल अपने पाराध्य के महिमा गान की अपेक्षा सुजानमल का काव्य तीन भागो में विभाजित है-स्तुतियां, उपदेश की मन-प्रवृत्ति अपने दोषो के निरूपण मे अधिक लगी है। और चरित्र कथाएँ । प्रथम दो भागो मे कवि की भक्ति. वह कहते हैं कि मैंने अनेक पाप व अनाचार किये, दु.खभावना और नैतिक धारणाएं अभिव्यजित हैं तथा तृतीय दायी व अनर्थकारी वाणी बोली तथा कपट, छल, क्रोध, भाग में उल्लिखित सेठ भुदर्शन, शालिभद्र, स्थूलभद्र, मान. माया, लोभ, रोग प्रादि दोषों मे निरन्तर लवलीन विजयकुमार, धन्ना, अर्जुनमाली, गज सुखमाल, जम्बुकुवर रहा किन्तु कभी घोड़ा भी पश्चाताप नही हमा।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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