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________________ अनेकान्त हो, वैकुण्ठ-वासी विष्णु हो, दामोदर हो तथा परवादियों भगवान् ऋषभदेव ने मष्टापद (कैलाश) से जिस की वासना को नष्ट करने वाले हो। दिन शिव-गति प्राप्त की उस दिन समस्त साधु-संघ ने महाकवि पुष्पदन्त के उल्लिखित संस्तवन के अध्ययन दिन को उपवास तथा रात्रि को जागरण करके शिव-गति से प्रतीत होता है कि भगवान् वृषभदेव के रूप में ही प्राप्त भगवान की पाराधना की, जिसके फलस्वरूप यह शिव के त्रिमूर्ति रूप तथा बुद्ध रूप को भी समन्वित कर तिथि-रात्रि 'शिवरात्रि' के नाम से प्रसिद्ध हुई। लिया गया है । यद्यपि समन्वय क्रिया पुष्पदन्त द्वारा जैन उत्तर प्रान्तीय जैनेतर वर्ग में प्रस्तुत शिवरात्रि पर्व दृष्टि को सम्मुख रख कर की गई है । परन्तु प्रतीत होता फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को माना जाता है। उत्तर तथा है कि तत्कालीन लोक-प्रचलित शिव के एकेश्वरत्वने भी दक्षिण देशीय पंचांगों में मौलिक भेद ही इसका मूल अंशतः उनके मस्तिष्क पर अवश्य प्रभाव डाला है, पुष्प कारण है। उत्तर प्रान्त में मास का प्रारम्भ कृष्ण-पक्ष से दन्त का युग जैन-धर्म के उत्कर्ष तथा धामिक सहिष्णुता माना जाता है और दक्षिण में शुक्ल पक्ष से । प्राचीन मान्यता का युग था। खजुराहो के १००० ईस्वी के शिलालेख भी यही है । जनेतर साहित्य मे चतुर्दशी के दिन ही शिवनम्बर पाँच मे शिव का 'एकेश्वर' रूप में तथा "विष्णु' रात्रिका उल्लेख मिलता है। ईशान४ सहिता में लिखा है। 'बुद्ध' और 'जिन' का उन्ही के अवतारों के रूप में उल्लेख माधे कृष्णा चतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि । किया जाना इसी तथ्य को पुष्ट करता है। यद्यपि इससे शिव-लिगतयोद्भुतः कोटि सूर्यसमप्रभः । पूर्व पौराणिक काल में धार्मिक संघर्ष ने उग्र रूप धारण तत्काल व्यापिनी प्राहा शिवरात्रि वते तिथिः । किया और चार्वाक, कौल तथा कापालिकों के साथ बौद्ध प्रस्तुत उद्धरण मे जहाँ इस तथ्य का सकेत है कि और जैनों को भी विधर्मी माना गया । माघ-कृष्णा चतुर्दशी को ही शिवरात्रि मान्य किया जाना वषभ तया शिव-ऐक्य के अन्य साक्ष्य : चाहिये, वहाँ उसकी मान्यता मूलक ऐतिहासिक कारण का कतिपय अन्य लोक मान्य साक्ष्य भी वृषभ तथा । भी निर्देश है कि उक्त तिथि को महानिशा में कोटि-सूर्य शिव-दोनो के ऐक्य के समर्थक हैं जो निम्न प्रकार है। प्रभोपम भगवान् प्रादिदेव (वृपभनाथ), शिवगति प्राप्त शिव रात्रि तथा कैलाश : हो जाने से 'शिव' इस लिंग (चिह्न) से प्रकट हुएवैदिक मान्यता के अनुसार शिव कैलाशवासी है और अर्थात जो शिवपद प्राप्त होने से पहले 'पादिदेव' कहे उनसे सम्बन्धित शिवरात्रि पर्व का वहाँ बड़ा महत्व है। जाते थे। वे अब शिवपद प्राप्त हो जाने से 'शिव' कहजैन परम्परा के अनुसार भगवान ऋपभदेव ने सर्वज्ञ होने से के पश्चात् प्रार्यावर्त के समस्त देशों में विहार किया, भव्य उत्तर तथा दक्षिण प्रान्त को यह विभिन्नता केवल जीवोंको धामिक देशना दी और आयु के अन्त में अप्टा कृष्ण पक्ष में ही रहती है, पर शुक्ल पक्ष के सम्बन्ध में पद (कैलाश पर्वत) पहुँचे । वहाँ पहुँच कर योग दोनों ही एक मत हैं। जब उत्तर भारत मे फाल्गुन कृष्ण निरोध किया और शेष कर्मों का क्षय करके माघकृष्णा पक्ष चालू होगा तब दक्षिण भारत का वह माघ कृष्ण चतुर्दशी के दिन अक्षय शिवगति (मोक्ष) प्राप्त की। पक्ष कहा जायगा। जैन पुराणो के प्रणेता प्राय. दक्षिण १. एपिग्राफिका इण्डिका भाग १, पृ० स० १४८ भारतीय जैनाचार्य रहे है, अत: उनके द्वारा उल्लिखित २. सौर पुराण · ३८, ५४ माघ कृष्ण चतुर्दशी उत्तर भारतीय जन की फाल्गुन कृष्णा ३. माघस्स किण्हि चोद्दसि पुवण्णहे णियय जम्मणक्खत्ते। चतुर्दशी ही हो जाती है ! कालमाधवीयनागर खण्ड में (क) 'अट्ठावयम्मि उसहो प्रजुदेण समं गोज्जोमि।- प्रस्तुत मास वैषम्य का निम्न प्रकार समन्वय किया तिलोयपण्णत्ती (ख)........."घणतुहिण कणाउलि माह मासि। . सूरग्गमि कसण चउदसीहि णिवह तित्थंकरि ४. ईशान संहिता । पुरिससीहि । -महापुराण : ३, ३ ५. कालमाधवीयनागर खण्ड ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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