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वृषभदेव तथा शिव-सम्बन्धी प्राच्य मान्यताएं
माघ मासस्य शेषे या प्रथमे फाल्गणस्य च ।
प्राचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने भी प्रस्तुत कृष्णा चतुर्दशी सातु शिवरात्रिः प्रकीर्तिता।'
गंगावतरण की घटना का निम्न प्रकार चित्रण किया है ।२ अर्थात् दक्षिणात्य जन के माघ मास के शेप अथवा सिरिगिहसीसटिठ व्यंज कम्णिय सिंहासणं जामएणं । अन्तिम पक्ष की ओर उत्तर प्रान्तीय जन के फाल्गुन के जिणमभिसित्त मणा वा प्रोविण्या मत्थए गंगा ॥ प्रथम मास की कृष्णा चतुर्दशी 'शिवरात्रि' कही गई है।
__अर्थात श्रीदेवी के गह के शीर्ष पर स्थित कमल की गंगावतरण
कणिका के ऊपर सिंहासन पर विराजमान जो जटा रूप उत्तर वैदिक मान्यता के अनुसार जब गगा आकाश
मुकुट वाली जिन मूर्ति है, उसका अभिषेक करने के लिए से अवतीर्ण हुई तो दीर्घ काल तक शिवजी के जटा-जूट में
ही मानो गंगा उस मूर्ति के मस्तक पर हिमवान् पर्वत से भ्रमण करती रही और उसके पश्चात् वह भूतल पर
अवतीर्ण हुई है। अवतरित हुई, यह एक रूपक है, जिसका वास्तविक रहस्य यह है कि जब शिव अर्थात् भगवान् ऋषभदेव को त्रिशूल असर्वज्ञ दशा में जिस स्वसवित्तिरूपी ज्ञान-गगा की प्राप्ति वैदिक परम्परा में शिव को त्रिशूलधारी बतलाया हुई उसकी धारा दीर्घ काल तक उनके मस्तिष्क में प्रवा- गया है तथा त्रिशलाकित शिव मूर्तियाँ भी उपलब्ध होती हित होती रही और उनके सर्वश होने के पश्चात वही है। जैन परम्परा में भी पहन की मूर्तियों को रत्नत्रय धाग उनकी दिव्य वाणी के मार्ग में प्रकट होकर ससार (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान. सम्यक् चारित्र) के प्रतीकात्मक के उद्धार के लिए बाहर पाई तथा इस प्रकार समस्त विशूनांकित त्रिशूल मे सम्पन्न दिखलाया गया है। प्राचार्य आर्यावर्त को पवित्र एवं प्राप्लाबित कर दिया। गगा- वीरसेन ने एक गाथा में त्रिशूलाकित प्रहन्तों को नमस्कार वतरण जैन परम्परानुसार एक अन्य घटना का भी किया है३, मिन्धु उपत्यका से प्राप्त मुद्रामो पर भी ऐसे स्मारक है। वह यह है कि जैन भौगोलिक मान्यता मे योगियों की मूतियाँ अकित हैं जो दिगम्बर है । जिनके गगा नदी हिमवान पर्वत के पद्म नामक सरोवर से निक- सिर पर त्रिशल है और कायोत्सर्ग मुद्रा में ध्यानावस्थित लती है । वहाँ से निकलकर वह कुछ दूर तक तो ऊपर है। कुछ मूर्तियाँ वृषभ चिह्न से प्रकित हैं। मूर्तियों के ये ही पूर्व दिशा की ओर बहती है, फिर दक्षिण की ओर दोनो रूप महान योगी वृपभदेव से सम्बन्धित है। इसके मुडकर जहाँ भूतल पर अवतीर्ण होती है, वहाँ पर नीचे अतिरिक्त खण्डगिरि की जैन गुफापो (ईसा पूर्व द्वितीय गंगा कूट मे एक विस्तृत चबूतरे पर आदि जिनेन्द्र शताब्दी) मे तथा मथुरा के कुशानकालीन जैन प्रायागवृपभनाथ की जटा-जूट वाली अनेक वज्रमयी प्रतिमाएं पट्ट आदि में भी त्रिशूल चिह्न का उल्लेख मिलता है।। अवस्थित हैं, जिन पर हिमवान पर्वत के ऊपर से गगा
२. त्रिलोकसार . ५९०, गाथा संख्या। की धाग गिरती है। विक्रमकी चतुर्थ शताब्दी के महान्
३. तिरयण तिसूलधारिय....."धवला टीका, १,४५,४६ जैन प्राचार्य यति वृषभ ने त्रिलोकप्रज्ञप्ति में१ प्रस्तुत गंगावतरण का इस प्रकार वर्णन किया है :
४. (a) Kurtshe, list of ancient monuments 'पादि जिणप्पडिमानो ताम्रो जड-मउड-सेहरिल्लामो।
protected under Act VII of 1904 पडिमोवरिम्मि गंगा अभिसित्तमणा व सा पडदि।'
(Arch, Survey of India New imperial अर्थात् गंगाकूट के ऊपर जटारूप मुकट से शोभित
serics vol, 4) Trisula in Anant Gumpha प्रादि जिनेन्द्र (वृषभनाथ भगवान) की प्रतिमाएं हैं।
P. 273 and in Trisula Gumpha
P.280: प्रतीत होता है कि उन प्रतिमाओं का अभिषेक करने की प्रभिलाषा से ही गंगा उनके ऊपर गिरती है।
(b) Smith Jain stupa and other Antiquities
of Mathura Ayegapeta tablets Pls. IX, १. त्रिलोक प्रज्ञप्ति : ४, २३० ।
xand XII