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________________ ८० अनेकान्त डा० रोठ ने इस त्रिशूल चिह्न तथा मोहनजोदडो की मुद्रानों पर अंकित त्रिशूल में श्रात्यन्तिक सादृश्य दिखलाया है । ब्राह्मी लिपि तथा माहेश्वर सूत्र जैसी कि जैन मान्यता है तथा पहले हमने महापुराण को पाँचवीं सन्धि में देखा कि भगवान ऋषभदेव ने अपने पुत्र भरत आदि को सम्पूर्ण कलाओं में पारंगत किया और अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपिविद्या ( अक्षर विद्या) तथा सुन्दरी को श्रंकविद्या सिखलाई। भारत की प्राचीन लिपि ब्राह्मी लिपि है। जैन परम्परा में तथा उपनिषद् में भी भगवान ऋषभदेव को श्रादि ब्रह्मा कहा गया है१ । अतः ब्रह्मा से ग्राई हुई लिपि ब्राह्मी कहलाई जा सकती है २ तथा बी से सम्बन्धित लिपि का नाम भी ब्राह्मी हो सकता है। दूसरी ओर पाणिनि ने अ इ उ ण् आदि सूत्रों (सूत्र बड वर्णमाला) को 'माहेश्वर' बतलाया है, जिसका अर्थ है महेश्वर से प्राये हुए वैदिक परम्परा में जहाँ शिव को महेश्वर कहा गया है४, वहाँ जैन परम्परा मे भगवान ऋषभदेव ही महेश्वर अथवा ब्रह्मा (प्रजापति) है। इस १. ब्रह्मदेवाना प्रथम संवभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता । ...... मुण्डकोपनिषद. १, १ २. ब्रह्मणभागता (ब्रह्मा ने भाई हुई इस चर्च में व्याकरण शास्त्र द्वारा ब्रह्मी शब्द की निष्पत्ति होती है। ३. इति माहेश्वराणि सूत्राण्यणादि सज्ञार्थानि । सिद्धान्तकौमुदी, प्र० सं० २ ४. अथर्ववेद १६, ४२, ४, १९, ४३ सूक्त यजुर्वेद ४०, ४६ ऋग्वेद ४, १८ प्रकार वृषभदेव द्वारा ब्राह्मी पुत्री को सिखाई गई प्राह्मी लिपि की अक्षर विद्या तथा माहेश्वर सूत्रबद्ध वर्णमाला दोनों में जहाँ स्वरूपतः ऐक्य है, वहाँ यह ऐक्य ही दोनों के प्रवर्तक सम्बन्धी ऐक्य को इङ्गित करता है । वृषभ (बैल) का योग वैदिक परम्परा में शिव का वाहन वृषभ (बैल) बतलाया गया है । जैन मान्यतानुसार भगवान् वृषभदेव का चिह्न बैल है । गर्भ में अवतरित होने के समय इनकी माता मरुदेवी ने स्वप्न में एक वरिष्ठ वृषभ को अपने मुख- कमल में प्रवेश करते हुए देखा था । अतः इनका नाम वृषभ रक्खा गया। सिन्धु घाटी मे प्राप्त वृषभांकित मूर्तियुक्त मुद्राएँ तथा वैदिक युक्तियाँ भी वृषभाकित वृषभ देव के अस्तित्व की समर्थक है। इस प्रकार वृषभ का योग भी शिव तथा वृषभदेव के ऐक्य को संपुष्ट करता है । भगवान वृषभदेव तथा शिव दोनों का जटाजूटयुक्त ५ तथा कपर्दी रूप चित्रण भी इनके ऐक्य का समर्थक है । भगवान वृषभदेव के दीक्षा लेने के पश्चात् तथा ग्राहार लेने के पूर्व एक वर्ष के साथक-जीवन में उनके देश बहुत बढ़ गये६ । फलतः उनके इस तपस्वी जीवन की स्मृति मे ही जटाजूटयुक्त मूर्तियों का निर्माण प्रचलित हुया । ५. वत्ती सुवएस मुणीसरहं कुडिला उंचिकेसं । महापुराण ३७, १७ तथा यजुर्वेद १६, ५६ ६. संस्कार विरहात् केशा 'जटी 'भूतास्तदा विभो' नून तेऽपि तम. क्लेश मनुसोढ तथा स्थिताः । मुनेर्मून्धिजटा दूरं प्रससुः पवनोद्धता, ध्यानाग्निनेव तप्तस्य जीवस्वर्णस्य कालिका । आदि पुराण: १८, ७५-७६
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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