SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 119
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बनेकान्त विदित होता है कि रइबू किसी विशेष जाति अथवा Minister) कहा है। । उक्त उल्लेखों से यही प्रतीत होता माम्नाय के ही होकर नहीं रहे बल्कि गुणग्रहण की प्रवृत्ति है कि गोलालारे जाति में उत्पन्न यह परिवार धर्म, तथा हृदय की विशालता वा उदारता के कारण वे प्राम्ना- साहित्य एवं कला के कार्यों में जितना अनुराग रखता था येतर अन्य मनोपियों के भी थद्धालु रहे थे। इसी प्रकार राजनीति में उसी प्रकार की कुशल सूझ-बूझ भी। "सावयचरिउ" का प्राश्रयदाता भी मरवाल न होकर 'सावयचरिउ' का प्रणयन तोमरवंशी राजा कीतिसिंह गोलाराड कुलोत्पन्न कुशराज है। गोलाराड जाति के के समय मे हुमा । कीर्तिसिंह का परिचय देते हुए कवि ने उल्लेख ११-१२वी सदी के मूर्तिलेखों में पर्याप्त रूप से उसे कलिचक्रवत्ति,७ महीपति प्रधान, शत्रुरूपी हाथियों उपलब्ध है जिनसे प्रतीत होता है कि उस समय यह जाति के लिए सिंह के समान जैसे कई विशेषणों से विभूषित काफी सुशिक्षित विशाल एवं समृद्ध थी। मध्य प्रदेश, किया है । कीतिसिंह का कार्यकाल वि० सं० १५१०-३६ उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान में इसकी सर्वत्र धूम थी। माना गया है १० । ग्वालियर-दुर्ग की प्रगणित जैन-मूतियों बुन्देलखण्ड का एक गोलागड कुलोत्पन्न ब्यक्ति मध्यकाल के निर्माण में अपने पिता राजा डंगरसिंह के समान ही के अन्तिम चरण में कलिंगदेश मे बम ही नहीं गया था। इनका भी बड़ा भारी हाय रहा है११ । ग्वालियर दुर्ग में अपितु वहां का एक प्रमुख मत्ताधारी व्यक्ति भी बन गया १३-१४वीं सदी से अमरण-सस्कृति, साहित्य एव कला के था। उसका वंशज आज भी वहा अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान संरक्षण की तोमरवशी राजामों की परम्परा को भी राजा रखता है। वर्तमान में उक्त जाति 'गोलालारे' के नाम से कत्तिसिंह ने अक्षुण्ण रखा था। प्रसिद्ध है तथा मध्यप्रदेश एवं उतर प्रदेश के कुछ स्थानों प्रस्तुत रचना के मूल प्रेरक श्री टेक्कणिसाह थे। में छिन्न-भिन्न रूप में ही रह गई है। कवि ने स्वयं लिखा है:मूर्तिलेखों एब रइधू के उल्लेखो से यह विदित होता प्रायमचरिउ पुराण वियाणे । टक्कणिसाहुगुणेण पहाणे॥ है कि यह जाति साहित्य एवं कला को बड़ी प्रेमी थी। पंडितच्छतेणं विणतउ। करमउलेप्पिणु वियसिय बत्त। पतिशय क्षेत्र महार२ एवं ग्वालियर दुर्ग की जैनमूर्तिया पत्ता तथा "सावयचरिउ" आदि कृतिया इसके प्रत्यक्ष उदाहरण भो भो कइयणवर दुक्किय रयहर पदकात भववाहिउ सिरि। है । कवि ने अपने प्राथयदाता श्री कुशराज की पूर्व-पीढ़ियों णिसुणहि हिम्मल मणरजिय बहयण सम्बसुहायर सच्चगिरि का परिचय देते हुए उसके बड़े भाई प्रसपति साह के (सावय० ११२०१७-२०) सम्बन्ध में कहा है कि वह सघाधिप था, जिन बिम्बों की ...... । तह साबइचरिउ भणेहुन्छ । प्रतिष्ठा कराने वाला था तथा ग्वालियर दुर्ग में उसने (सावय० १॥३॥१-४) चन्द्रप्रभ जिनकी मूर्ति का निर्माण कराया था३ । कवि ने कवि ने टेक्कणिसाहु का कोई भी परिचय नही दिया पुन. प्रसपति का परिचय देते हुए उसे तत्कालीन राजा कि वे कौन एव कहां के थे? किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कीतिसिह का मंत्री भी बताया है४ एवं कुशराज कि वे एक स्वाध्यायप्रेमी एवं साहित्य रसिक सज्जनये प्रार्षिक का राज्यकुशल५ और उसके पिता श्री सेऊ शाहु को राजा दृष्टि से कुछ कमजोर होनेके कारण वे सम्भवत. सधू को डूगरसिंह का भडारी (Food and Civil Supply माश्रय न दे सके थे, मत. उन्होंने गोपगिरि के श्री कुशराज १. वही० १/३-४ २. दे.अनेकान्त १०/३-५ ३. सावय०/६२६/६-८ ४. सावय० १/४/५-६ ५. बही० १/४/8 ६. वही० ६/२५/८ ७-८. वही• १/३/१२ ९. वही०६/२५/३ १०-११. मानसिंह एवं मान कुतूहल (ग्वालियर, वि.सं. २०१०) पृ०१०
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy