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________________ महाकवि रइधूकृत सावयचरिउ डा० राजाराम जैन सरस्वती के जिन तप पूत वरदपुत्रो ने अपनी प्रथक मौर अनवरत साधनाओं से भारतीय वाङ्मय के उन्नयन में 'महान योगदान किया है। उनमें महाकवि रद्दधू का नाम बड़े ही गौरव के साथ लिया जाता है । प्रन्वेषणों के आधार पर उनकी पच्चीस से अधिक रचनाओं का पता चला हैं, जो प्राख्यान, चरित, धर्म, दर्शन मनोविज्ञान प्रादि विविध विषयों के साथ मध्यकालीन भारतीय संस्कृति एवं इतिहास का सुन्दर विवेचन करती है। इन्ही रचनाओं में से एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित रचना "सावयचरिउ" भी है जो सन्धिकालीन अपभ्रंश भाषा मे लिखित प्राचार एवं धर्माख्यान सम्बन्धी कृति है, जिसमे आठ कथाएं वर्णित है । कथाओंों का प्रमुख विषय सम्यक्त्व है । किसे किस प्रकार सम्यक्त्व की उपलब्धि हुई उसी के अनुभव एवं संस्मरण के रूप में पात्रों के माध्यम से लेखक ने कथाएं प्रस्तुत की है। उक्त कृति में छह सन्धियां एवं (१३+२२+२९+१६+१६+२७ इस प्रकार कुल मिलाकर) १२५ कडवक है। रचना का प्रतिलिपिकाल वि० सं० १६६४ की श्रापाढ़ कृष्णा तृतीया है। इसकी लिपि प्राचीन किन्तु पठनीय है। जीर्ण-शीर्ण होने के कारण प्रति के कुछ पृष्ठ गल गये हैं । एकाध जगह पृष्ठो के परस्पर चिपक जाने से उसके कुछ अक्षर घुमले भी हो गये हैं। कुछ पृष्ठ जैसे ८ ख, क, ३० ख, ३१ क, ३२ क, ख एवं ३३ क अनुपलब्ध है। प्रति पृष्ठ εपक्तियां तथा प्रति पक्ति लगभग 8 छोटे वडे शब्द है । वर्णमाला मे 'ख' के स्थान पर 'प' जैसे सुवण्णखुरु रूवखुरु के स्थान पर सुवर्णबर, रूवर के प्रयोग मिलते है। इसी प्रकार 'क्ख' के स्थान १. विस्तृत परिचय के लिए "मिक्षु स्मृति ग्रन्थ ' ( कलकत्ता १९६१ ) मे प्रकाशित मेरा विस्तृत निबन्ध "सन्धिकालीन प्रपत्र श-भाषा के महाकवि रघू" शीर्षक निबन्ध देखिये पृ० द्वि० स० १०० ११५ । २. नाहर संग्रहालय कलकत्ता में सुरक्षित प्रति । में रक, तथा 'क्ष' एवं 'हव' के स्थान में 'कछ' एवं 'छ' के प्रयोग उपलब्ध हैं । महाकवि रद्दधू ने 'सावयचरिउ' में अपना परिचय देते हुए अपने को भट्टारक कमलकीर्ति (वि० सं० १५०६१५१० ) का शिष्य संघवी हरिसिंह का पुत्र तथा उदयराज का पिता कहा है ३ । इससे यह स्पष्ट ही विदित होता है कि रघू भट्टारकीय परम्परा के एक सद्गृहस्थ पण्डित कवि थे । प्रसंगवश उन्होंने अपने नामके साथ "कविवर "४ प्रप्पमिद्गुण५, सकइत्तमहागुणमंडिएण६ श्रादि विशेषणों का प्रयोग किया है जिनसे कवि की साहित्यिक प्रतिभा का स्पष्ट भान हो जाता है । गार्हस्थिक समस्याओंों से जूझते हुए भी कवि का विशाल साहित्य उसके प्रपरिमित यं साहस एवं प्रगाध पाण्डित्य का प्रतीक है । कवि "सावयचरिउ" के पूर्व त्रेसठ शलाका, महापुरुष चरित गाथाबन्ध सिद्धान्तार्थसार, पुण्यःश्रवकथा मेघेश्वर चरित एवं यशोधर चरित जैसे ग्रन्थो की रचना कर चुका था७ भ्रतः "सावयचरिउ" के प्रणयन के समय तक उसकी लेखनी काफी गंज चुकी थी । महाकवि रद्दषू की लगभग १६ रचनाओंों का मैंने अध्ययन किया है, उन सभी मे उन्होंने माथुरगच्छ, पुष्करगण के भट्टारकों तथा अग्रवालों के गौरवपूर्ण कार्यों के बृहद उल्लेख किये हैं किन्तु प्रस्तुत कृति की प्रशस्ति में कवि ने मूलसंघ के प्राचार्य पद्मनन्दि तथा उनके शिष्य भट्टारक शुभचन्द्र प्रौर नन्दिसंघ सरस्वतीगच्छ के प्राचार्य जिनचन्द्र की वन्दना की है। इन उल्लेखों से ३. सावयचरिउ १२६७६ ४. सावय० १।२।१६ | ५. साबय० ६ / २४/१० *. सावय० ६/२७/७ ७. सावय० १ / ३ ८. वही० १/२
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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