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________________ अनेकात मिरसत संग तरंग निखिल जनता हित बायक। पठनीय हुए हैं। यवाड्यात पाचरण दलित भषलांछनसायक। ७. उपसंहार-मध्ययुग की भारतीय भाषामों के व्यापार जगदीश सकल कल्याण निधायक। जैन साहित्य का अध्ययन अब तक कुछ उपेक्षित-सा रहा मिहत कठिन कषाय चरण मत निर्जरनायक ॥ है। बम्बई के जैनग्रंथ रत्नाकर कार्यालय से पं० पन्नासचिबनिता ते दश तनय जे देखत चित चल्लए । लालजी बाकलीवाल और पं. नाथूरामजी प्रेमी ने कई घनसागर कृत षटचरण यह कहत अपर नहि हल्लए । वर्ष पहले हिन्दी साहित्य के कुछ अथ प्रकाशित किये थे। दुर्भाग्य से वह परमारा जारी नहीं रह सकी। वस्तुतः इसके साथ-साथ सरल शैली का भी उन्होंने यथा हिन्दी-मराठी-गुजराती आदि भाषाओं के साहित्य का स्थान प्रयोग किया है। पामो और धनसागर दोनों ने महत्त्व भी संस्कृत-प्राकृत साहित्य के समान समझा जाना भगवान के समवशरण की विस्तृत प्रशंसा की है। पामो चाहिए; क्योकि मध्ययुगीन इतिहास के लिए उनकी उपचक्रवर्ती भरत के राज्यविस्तार मे और धनसागर ने योगिता नि.सन्दिग्ध है। इस दृष्टि से प्रस्तुत काव्यों का भगवान पार्श्वनाथ के विहारक्षेत्र में भारतवर्ष के विभिन्न प्रकाशन उपयोगी सिद्ध होगा। अब तक का प्रकाशित प्रदेशों की लम्बी नामावलियां दी हैं। भरत द्वारा बाहु हिन्दी जैन साहित्य मुख्यतः प्रागरा-जयपुर क्षेत्र के बली के यहाँ भेजे गये दूत के वर्णन में पामो ने दूत के लेखकों का है। हिन्दीतर क्षेत्रों में लिखित हिन्दी काव्यों गुणों का सुन्दर वर्णन किया है। भगवान के धर्मोपदेश में के रूप में भी प्रस्तुत काव्यों का महत्त्वपूर्ण स्थान होगा। धनसागर ने विविध धर्मशास्त्रीय विपयों की सूची प्रस्तुत हमें आशा है कि शीघ्र ही हम इन दोनो काव्यों को की है । इस प्रकार के विभिन्न वर्णनों से दोनों काव्य सम्पूर्ण रूप से विद्वत् समाज के समक्ष प्रस्तुत कर सकेगे। क्रोध पर क्रोध अपकुर्वति कोपश्चेत् किन कोपाय कुप्पसि मेरा अपराध किया, वही तो मेरा शत्रु है। लोक हे भाई! जब तेरी दृष्टि किसी दुश्मन पर पड़ती है मे अपकारकर्ता ही शत्रु कहा जाता है, उस पर ही मुझे तब सहसा तेरे अन्तर मानस में रोष उभरता हमा नजर क्रोध पाया है। पर अन्तर शत्रु तो प्रात्मा का अपकार माता है, नेत्रों से रक्त की धाराएं बहने लग जाती है। करने वाला क्रोध ही है जिसने मुझे स्वरूप से विमुख भृकुटि चढ़ जाती हैं. प्रोट डसने लग जाते है अधराव में किया, मेरे धर्म अर्थ काम मे विघ्न उपस्थित किया। कम्पन बढ़ जाता है। तन मे एक प्रकार की गति होने इस अन्तर शत्रु ने ही तेरी ज्ञान निधि का अपहरण लगती है। दबले पतले इस शरीर मे भी बल बढ़ जाता किया है। बैर-विरोध को बढ़ावा दिया है, फिर भी न है, जमे कोई पिशाच तेरे शरीर के अन्दर प्रविष्ट हो उस अपकारी क्रोध पर क्रोध नहीं कर रहा है उस पर गया हो। क्रोध की प्रागः। संतप्त हुमा तू अपने अप- विजय पाने का कोई यत्न भी नहीं कर रहा, यही नेगे राधकर्ता दुश्मन को संतापित करने के लिए कचहरी के भूल है। दरवाजों को भी खटखटाने लगता है, उसे दबाने या मारने का भी यत्न करने लगता है, और मुह से अपशब्दों की ____ वस्तुत. कोव ही तेरा दुश्मन है। क्षमारूप प्रसि से बोछार छोड़ने लगता है, यह सब क्रियाएँ तेरी दुर्बलता यदि तू उसका निपात कर दे, तो फिर ससार में तेरा मोर मज्ञनना की सूचक हैं। कोई शत्रु नहीं रहेगा । सभी मित्र बन जाएंगे। उस समय पर भाई ! तूने गहराई से कभी इस पर विचार भी तुझे स्वास्मानन्द की जो सरस अनुभूति होगी, वह विवेक किया है, कि वास्तव में मेरा शत्र कौन है? जिसने मोर समता से परिपूर्ण सुख का मास्वादन करायेगी।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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