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________________ अनेकान्त चतुर्विशति तीर्थकरों की प्रतिमा के लक्षणों में स्वतः बहुत जिन प्रतिमानों पर प्रशोकदुम होना चाहिए । 'रूपमण्डन' भेद नहीं होता । 'बृहत्संहिता' में जिनों का प्रतिमाविधान (६-३४)। इस प्रकार बताया गया है : __रूपमण्डन' में चतुर्विशति तीर्घकरों की गणना की भाजानुलम्बबाहुः बीवरसार प्रशान्त मूर्तिश्च । गयी है। साथ ही उनके यक्ष और यक्षिणियों की भी बिग्वासातरूणो रूपवारच कार्योमहंता देवः। गणना है। किन्तु विशेष विवरण केवल कुछ हो का है। यह महंतों अथवा तीर्थंकरों का सामान्य विवरण है। रूपमण्डन' के अनुसार चतुर्विशति जिनों में केवल चार ही 'पमण्डन' (१४३३-३९) में महंत प्रतिमा का समग्र विशेष प्रसिद्ध है। इनके नाम, इनकी यक्षिणियां और वर्णन है। इसके अनुसार तीर्थकर की प्रतिमा के प्रावश्यक सिंहासनादि का वर्णन इस प्रकार किया गया है :तत्व इस प्रकार होंगे : जिनस्य मूतियोऽनन्ता पूजिताः सर्व सौख्यदाः। १. तीन छत्र। चतस्त्रोऽतिशययुक्तास्तासां पूज्या विशेषतः । २. तोरणयुक्त तीन रचिकाएं। श्री प्राविनायो नेमिश्च पाश्वों वीरश्चतुर्षक:। ३. अशोक दुम और पत्र। चश्वयंम्बिका पपावती सिवायकेति च ।। ४. देव दुन्दुभि । फैलाश सोमशरणं सिद्धति सदाशिवम् । ५. सुर गज सिंह से विभूषित सिंहासन । सिंहासनं धर्मचक्रमपरीन्द्रातपत्रकम् ॥ ६. प्रष्ट परिकर। . (६।२५-२७) ७. यो सिंह मादि से अलंकृत वाहिका या यक्ष । चतुर्विशति तीर्थकगे, उनके ध्वज, यक्ष, यक्षिणी पौर विष्ण, चण्डिका, वर्ण का विवरण तालिका-सख्या ३० मे स्पष्ट किया गया जिन गौरी, गणेश मादि की प्रतिमाएँ। है। तालिका-सख्या ३१ में अन्य ग्रन्थो के माधार पर रूप मण्यन' का यह विवरण मूर्तिकारों में प्रचलित के केवलवक्ष' और चामरधारिणी का भी विव. शिल्प की व्यावहारिक परम्परा के सर्वथा मेल में है। रण प्रस्तुत किया गया है.पोरण अथवा रपिका पर तेईस तीर्थकरों की प्रतिमामो के तालिका संख्या ३० बनाने का विधान मध्ययुगीन शिल्प परम्परा मे बहुमान्य ___ संख्या तीर्घकर ध्वज यक्ष बा। रपिकामों पर ब्रह्मादि हिन्दू देवताओं की मूर्तियों यक्षिणी ম को बनाने के विषय में यह कहा जाता है कि चूंकि वृष गोमुख चक्रेश्वरी ब्रह्मादि देव भी कभी चतुविशति तीर्थंकरों के उपासक थे, अजित महायक्ष अजितबला प्रतएव नियों के लिए हिन्दू-देव भी भादरणीय हैं।। सम्भव अश्व विमुख दुरितारी मभिनन्दन कपि३ यक्षेश्वर कालिका तीर्थकर प्रतिमा-विधान काँच तुम्बर महाकाली चतुर्विशति तीर्थकरों की प्रतिमानों में साम्य होने पर पद्मप्रभ रक्त प्रवज कुसुम स्यामा भी उन्हें उनके ध्वज (लांछन) वर्ण, शासन देवता, और सुपाव स्वस्तिक मातग शाता देवी (यक्ष मौर यक्षिणी), केवल वृक्ष तथा चामर पारी चन्द्रप्रभ शशी विषय भृकुटि और पामरधारीणी के माधार पर अलग-अलग समझा जा सुविध मकर जय४ सुतारिका सकता है। रूप मण्डन' में केवल वृक्ष और चामरधारिणी शीतल श्रीवत्स अशोका का विवरण नहीं है। इसकी परम्परा के अनुसार सभी ३. रूप मण्डन का पाठ स्पष्ट नहीं है। मपरा के अनु१.जी.सी. भट्टाचार्य, जैन प्राइकनोग्राफी पृ०२५.२६. सार (२२रा) कपयः है। २. बही पृ. ४-.. ४. अन्य पंधों के मनुसार रचित । सुमति
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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