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________________ नाम बड़े, दर्शन सुखकारी अमरचन्द जैन कलकत्ते में जब वीरशासन जयन्ती महोत्सव मनाया झांकी का रसास्वादन ही करने चला पाया है। परन्तु गया था, तब मैं बनारस में अध्ययन करता था। एक बाबूजी का स्नेह और कृपा सब के लिए सदा उपलब्ध छात्र की हैसियत से इस महोत्सव में सम्मिलित होने का रहती थी। उनकी परिमित बातचीत और बीच-बीच में सौभाग्य मुझे प्राप्त हुना। इस महोत्सव में प्रत्यन्त एक संयत-सी मुस्कान से सुखी प्रादमी समझता कि बाबू साधारण सा दिखाई देने वाले एक पतले-दबले व्यक्ति को जी उसके ठहाकों का साथ दे रहे हैं और दुखी को लगता प्रायः हर समय, हर मोर्चे पर सक्रिय देखा। अद्भुत कि उसके घाव पर मरहम लगाया जा रहा है। हर घंटे कार्यक्षमता, अत्यन्त स्नेहिल विनम्र व्यवहार और सरल. पर कुछ न कुछ खाने पीने का, नाश्ते या फलाहार का तम व्यक्तित्व के स्वामी इस अपरिचित व्यक्निके लिए उमी प्रबन्ध रहता और जो इममें टाल-टूल करता उसे अपने समय मन मे श्रद्धा का अकुर फूट पाया जो शीघ्र ही एक हिस्से के साथ साथ एक मीठी डांट भी खानी पड़ती। हिस्स क साथ र बड़े वृक्ष के रूप में फैल गया। परिचय के प्रयास से ज्ञात दमे के कारण वे कुछ अधिक खाते-पीते नही थे इम इमा कि यही प्ररूपात समाजसेवी बाब बोरेलालजीका कारण शायद खाने से अधिक ग्रानन्द का अनुभव खिलाने मेरे पूज्य पिता प० जगन्मोहनलालजी पर बाबूजी का मकर लत थे। अत्यन्त स्नेह रहा । स्नेह की इस धारा ने छलक-छलककर बाबूजी के चले जाने से कलकत्ता समाज का एक मुझे भी सराबोर कर लिया और जब मैं कलकत्ते मे ही बडा स्तम्भ गिर गया। यद्यपि बहुत समय से वे व्यापार पहुँच गया तो पिछले दस वर्ष तक बाबूजी का बड़ा निकट से निवृत्त होकर समाज सेवा और साहित्य, इतिहास तथा सम्पर्क प्राप्त करने का सौभाग्य मुझे मिला। पुरावृत्त की शोध मे ही मंलग्न रहते थे; पर कलकत्तं की 'सन्वेषु मैत्री" शायद उनका सबसे प्रिय प्रादर्श वाक्य व्यापारिक समाज मे भी पापको पद्वितीय सम्मान प्राप्त था। किसी भी देशी विदेशी विद्वान के प्रागमन की बात होता था। मापकी महानता का प्रमाण यही है कि करोड़ों जानकर उसका स्वागत, सत्कार और सहायता करने मे वे रुपयों के व्यापारिक विवादों में भी दोनों पक्ष पापको अग्रणी रहने थे। उनकी बैठक की महफिल सदा पावाद एकमेव पच बनाकर अपना निर्णय करा लेते थे। रहती थी और वहा इतिहास, पुरातत्व, साहित्य मादि बाबूजी स्वयं के प्रचार से सदा दूर रहे। कोई भी की चचो हमेशा चला करती थी। जब भी मैं बेलगछिया अमुविधा हो, चुपचाप स्वय सह लेगे पर दूसरे को उसका' जाता था सदैव उनके साथ किसी न किसी विद्वान को आभास तक न होने देंगे। यह मात्म गौपन उनका विशिष्ट बैठे देखता था । या तो किमी सामाजिक समस्या का गुण था । लाखों रुपयों का दान कर दिया पर कभी निराकरण हो रहा है, या इतिहास की कोई गुत्थी मुल. उमका उल्लेख भी पसन्द नही करते थे । दान को हमेशा भाई जा रही है। कोई विद्वान् प्रपनी किसी रचना का "परिग्रह के पाप का परिमार्जन" कहा करते थे। परिचय अथवा किसी नई स्थापना का औचित्य बखान उन्हें वर्णीजी महाराज पर अगाध श्रद्धा थी। वर्णीकर रहा है या फिर कोई जिज्ञासु स्नातक प्रश्नोतरों द्वारा स्मारक उनके अकेले की प्रबल प्रेरणा और अथक श्रम अपने शोध ग्रन्थ के लिए दिशा निर्देश ले रहा है। कभी का फल है । गहरी व्यस्तता में अपने पापको डुबाकर कोई अपनी पारिवारिक समस्या से उबरने के लिए सहा- रखना उनका लक्ष्य होता था तथा परचिता, परदुख यता प्राप्त कर रहा है या कोई उसके लिए भूमिका बाध कातरता और परोपकार उनका स्वभाव था। उनके रहा है। कोई अपने भाई या पुत्र के लिए नौकरी की चरणों मे विनम्र श्रद्धांजलि अर्पण करके मैं अपने पापको सिफारिश चाहता है और कोई हम लोगों की तरह इस गौरवान्वित अनुभव करता हूँ।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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