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________________ पुर्वला सग्रहालय के बन मूर्ति-लेख २०५ के पादपीठ पर उत्कीर्ण है। लेख की भाषा संस्कृत है । लेख क्रमांक लेख का माधा भाग पद्य में और माधा भाग गद्य में है। चौथा लेख आदिनाथ की काले पाषाण की पद्मासन पूर्व भाग में केवल दो छन्द हैं। लेख की लिपि नागरी स्थित प्रतिमा (५१४४७ से० मी०, संग्रहालय क्रमांक है। विशेषता यह है कि तीन स्थानों पर श् के बदले स् ७) के पादपीठ पर उत्कीर्ण है। पहले के लेखों के समान का प्रयोग हुमा है और र के बाद पाने वाले व्यञ्जन को इस लेख की भाषा तथा लिपि क्रमश. संस्कृत भौर नागरी द्वित्व किया गया है। प्रथम श्लोक में बताया गया है कि है। पूरा लेख गद्य में है। लेख से विदित होता है कि गोलापूर्वकुल में स्वयंभू हुमा जिसके स्वामी और देव जाहुल का बेटा माल्हण इस प्रतिमा का प्रतिष्ठाता था। स्वामी नामक दो बेटे थे। दूसरे श्लोक में देवस्वामी के उसका गोत्र कोंचे जान पड़ता है लेख की दूसरी पक्ति शुभचन्द्र और उदयचन्द्र नामक दो बेटो का उल्लेख है और में रूपा नामक स्त्री का उल्लेख है जो संभवत: पाहण कहा गया है कि देवस्वामी और उसके बेटों ने शान्तिनाथ की पत्नी थी। लेख वि० सवत् १२०३ में लिखा गया की प्रतिमा की प्रतिष्ठा कराई। लेख की तीसरी पक्ति मे था । मूल लेख इस प्रकार हैदुम्बर अन्वय के जिनचन्द्र के पौत्र और हरिश्चन्द्र के पुत्र १. सिद्ध संवतु (त्) १२०३ कोंचे जाहुल तस्य सुत लक्ष्मीषर द्वारा प्रतिमा की सदा पूजा किये जाने का काम कोंचे माल्हण नित्य प्रणमति [it] उल्लेख है। लेख के अन्त मे मवनवमदेव के राज्यकाल का तथा संवत् १२०३ फाल्गुन सुदि नवमी सोमवार का २. रूपानी (नि)त्य प्रणमती (ति) [1] उल्लेख है। यह मदनवा चंदेलवंशी राजा था। लेख मतिलेख क्रमांक ५ का पाठ नीचे दिया जा रहा है। यह लेख महत्वपूर्ण है क्योंकि इस लेख में परवाड़ १. सिद्ध गोलापून्विये साधुः स्वयंभूधर्मवत्सल । कुल का उल्लेख हा जबकि उपयुक्त अन्य लेख गोलापूर्व तत्सुतौ स्वामिनामा च देवस्वामिगृणान्वितः ॥ [१] कुल से सबंधित है। प्रतिमा का पादपीठ खण्डित हो देवस्वामि जाने से लेख अपूर्ण है। तीर्थकर के चिन्ह युक्त भाग के २. सुतौ श्रेष्ठो सु (शु)मचद्रोदयचद्रक. (को)। भी खण्डित हो जाने से यह पता नहीं लगता कि प्रतिमा कारित च जगन्नाथं शान्तिनाथो जिनोतम ॥ ]RI+] किन तीर्थकर की है। बचा हा लेख नीचे इस प्रकार धम्मसे (शे) पि १४ । ३. तथा दुम्बरान्वये सावुजिनचंद्रतत्पुत्रहरिम्चन्द्र] १. सिद्ध परवाकूले जात. साधु श्री ती...'' तत्सुतलक्ष्मीधर श्री सा (शा) न्तिनाथ प्रणमति सरा. इस प्रकार धुबेला सग्रहालय के ये मूर्तिलेख सिद्ध (दा)। करते हैं कि ईस्वी सन् की १२वीं शती में बुन्देलखण्ड ४. लक्ष्मीधरस्य धर्म संधिज श्रीमन्मदनवर्मदेव- और विशेषकर छतरपुर जिले मे जैनो की गोलापूर्व पौर राज्ये सवत् १२०३ फा० सुदि सोमे। परवाड़ जातिया विद्यमान थी। देखो, जिस पादमी ने अपने घर में ढेर को ढेर दौलत जमा कर रखी है, मगर उसे उपयोग में नहीं लाता उसमें और मुर्दे में कोई फर्क नहीं है क्योंकि वह उससे कोई लाभ नहीं उठाता है। X X उस धनवान मनुष्य की मुसीबत कि जिसने दान देकर अपने बजाने को खाली कर डाला है, और कुछ नहीं केवल जल बरसाने वाले बादलों के खाली हो जाने के समान है-यह स्थिति अधिक समय तक रहेगी। मिलवेद
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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