SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय का मूल्य वल्मीक का निर्माण घोडा-थोडा व्यय-संचय करने का न गणयनि दुखन सुखम" कार्यशील मनस्वी दुखों. परिणाम है। इस रहस्य को जानकर बुद्धिमान अपने सुखों की परवाह नहीं करता। उन्हें तो अपने कार्य की महोगत्र का उपयोग दान, प्रध्ययन तथा सत्कों में करते न रहती हैहैं। "प्रस्तं वजन रविनित्य-मायुरादाय गच्छति"- ___ "दिनं वा रात्रि प्रखरतपनो पाहिमचिः इवता हुमा सूर्य प्रतिदिन प्राणिमात्र की प्रायु का प्रश कुशाना बीपिर्वा मुलनव दुर्गाकुर-पमः लेकर जाता है। एतावता ज्ञानवान् वह है जो प्रजर. सुदूरं पावना बसतिरिति नानाकुलपियो अमर बुद्धि रख कर विद्योपार्जन करता है, घनाजंन मे नजायन्ते कर्मस्वविरत निमग्ना हि सुषियः॥" लगा है किन्तु मृत्यु किसी भी क्षण भाकर कण्ठावरोध कर "दिन है अथवा रात्रि, सूर्य का प्रखरताप है अथवा सकती है, यह विचार कर धर्म का प्रति क्षण प्राचरण शीतल इन्दुरश्मियां, मार्ग मे कुषों (वभों) की बीपि है करता है। हितोपदेश में विष्णु शर्मा की उक्ति है कि अथवा कोमल दूर्वाकुर ? मन्तव्य समीप है या दूर? इस 'परामरवत् प्राज्ञो विधामपच चिन्तयेत् । प्रकार की प्राकुलता उत्पन्न करने वाली बुद्धि कार्य में गृहीत इव केशेषु भरपना बर्नमाचरेत् ॥" दत्तावधान सुधीजनों को खिन्न नही कर सकती। उनके -मित्रलाभ पास एक तुलादण्ड (तराज) है जिसके रात्रि और दिन वास्तव में मग्रह क्षण-क्षरण का ही किया जाता है। दो पल्ले हैं। उनमे एक मोर क्षण तथा दूसरी मोर कार्य एक साथ कलश नहीं भरता और एक प्रहार मे पर्वत समलित हो रहे हैं। ऐसा नही होता कि क्षण घरे धरे नही टूटने निरन्तर बिना श्रान्त हुए उद्यम मे लगे रहने पर्युषित हो जाए और कार्य क्षण रहित होकर मूल्पवित से ही सम्पदामों की प्राप्ति हो सकती है। हो उठे। जैन दर्शन में समय नाम प्रात्मा का है। इस समय "कबीनों ने माया, मुकुट पहनाया नियति ने को ही जानना मनुष्य भा का सर्वोतम फल है। अनि- झुकाया सम्मानस्तिमितशिर पन्या प्रकृति ने पदों में भी "मात्मा वारे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तभ्यो लगाया मारेको तिलक उनके कालभट ने निदिष्यासितपः" कहकर मात्मा को ही परम श्रेष कहा जिन्होंने पधान्त अमित दुलराया समयको।" है। "समयसार" अन्य की रचना करते समय प्राचार्य -सूक्ति सुधाकर कुन्द कुन्द ने "नम ममय माराय" लिखा है। टीकाकार "कवीन्द्र उनका यशोगान करते हैं, नियति उन्हे अमनचन्द्र सूरि ने व्यायामात्र से "परमविशुद्धि रूम" मुकूट पहनाती है, प्रकृति भी उनके सम्मान मे नतशिर हो फल की प्राप्ति बताई है । "मम परमविशुद्धिः- झुक जाती है, और काल मा सुमट उनके मस्तक पर भवतु समयसार ब्याख्ययैवानुभूते"। इस प्रकार ससार तिलक लगाता है, जो प्रश्रान्त होकर समय को दुमगते बन्धन से मुक्ति समयवेदिता से ही सम्भाव्य है। हैं, प्यार करते हैं।" मुनि महाराज अभीक्षण-ज्ञानोपयोग द्वारा समय की ही "विजेता दुर्गाचा प्रथमगणनीयः सुकृतिनाम् जानते है । अयमेव हि कालोऽसौ पूबमासीदनागत." प्रणेता शास्त्राणां नवमिति बमोऽथ सुषियाम् -यही वह काल है, सुवेला है जो पूर्व में कभी नहीं प्राप्त स्वयं लेता नानाभवजनितकर्माभिधमहा-- हमा था-ऐमा मानने वालो ने प्रगति के पचाग नहीं रिपूणा जात नविभव संख्यान निणः।" देवे, यात्रामों के मूहूनों की प्रतीक्षा नहीं की और अपने -सुधाशतकम् प्रयत्नो को, उत्साह से व्यतिरिक्त किसी बन्धन में नही "वह कठिनतानो पर विजय प्राप्त कर लेता है, बांधा। क्या सूर्योदय के समय किसी दिन भद्रा नही होती, पुण्यवानो में प्रथम गणनीय हो जाता है, शास्त्री के निर्माण परिवयोग नही पाता। परन्तु इनके प्राने पर भी रवि के में मामयं पा जाता है तथा पण्डिन मभानो में नूतन मंगन-अभिमान कभी सकते है क्या। "मनस्वी कार्यार्थी मूक्तियाँ कहने में दक्ष हो जाता है। अनेक जन्मो से माय
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy