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________________ अनेकान्त और बीरसेवामग्घिर के प्रेमी श्री बाबू छोटलालासी १५० बार मुझसे उत्तराधिकार लेकर फिर पाप चाहे जिसको करने के लिए बहुत लालायित थे, परन्तु नही पा सके सौरें या अपना उत्तराधिकारी बनावे, मैं तो प्रापको और न ही कुछ कर सके। अभिनन्दन ग्रन्थ जो पापके सौंप कर निश्चित हो जाना चाहता हूँ।" लिए तैयार हो रहा था उसे भी पाप नहीं ले सके। यह सब प्रलंध्यशक्ति भवितव्यता का ही कोई विधान जान इसके पहले भी मैंने दो तीन बार प्रापको उत्तरा- पड़ता है। निःसंदेह भाप समाज की एक बड़ी विभूति धिकार संभालने के लिए लिखा तथा प्रेरणा की है । एक थे, नि.स्वार्थ सेवाभावी तथा प्रसिद्धि से दूर रहने वाले बार तो मैंने ट्रस्ट कर देने से पहले यहाँ तक भी लिख एक परोपकारी सज्जन थे। कलकत्ता महोत्सव के अवसर दिया कि पाप पुत्र के नाते मेरी निजी सपत्ति का भी पर मापने अपना शेष जीवन वीरशासन की सेवा के लिए उत्तराधिकार सभाले, जिसे मैं अपने जीवन मे ही आपके अर्पण किया था। वीरशासन को अवतरित हुए ढाई सुपुर्द कर देना चाहता हूँ। ऐसा होने पर मैं अपने निज हजार वर्ष हो जाने की यादगार में पाप विपुलाचल पर की कोई चीज साथ न लेकर जो वस्त्र पहने हुए हँगा एक कीर्तिस्तम्भ की स्थापना करना चाहते थे, जिसके उन्ही के साथ अकेला घर से बाहर चला जाऊंगा । परन्तु लिए महोत्सव के अवसर पर वहां उत्तम संगमरमर पर आपने मेरे किसी भी लिखने तथा प्रेरणा पर कोई ध्यान उत्तकीर्ण हुए एक स्मृति-पट्टक (Memorial Tablet) नही दिया और माप मेरा उत्तराधिकार प्राप्त किये बिना की योजना की गई थी; परन्तु रोगाक्रान्त हो जाने के ही स्वर्ग सिधार गये हैं, यह एक बड़े ही दु.ख तथा खेद कारण वे अपनी उस इच्छा को पूरा नहीं कर सके । का विषय है । आपके इस वियोग से मुझे कष्ट का पहु- हार्दिक भावना है कि परलोक मे मापको सुखशान्ति की चना स्वाभाविक है । वीरसेवा मन्दिर तथा अनेकान्त को प्राप्ति होवे और आप अपनी शुभ इच्छामो तथा समाज जो भी क्षति पहुँची है उसकी शीघ्र पूर्ति होना कठिन है। एव जिन शासन की सेवा-भावनाओं को अगले जन्म में पाप कई वर्ष से दिल्ली पाने और सस्था की सुव्यवस्था पूरा करने में समर्थ होवे। (एटा १५ जून १९६६) एक निष्ठावान साधक जेनेन्द्रकुमार जैन स्वर्गीय बा. छोटेलालजी के सम्पर्क में पहली बार तभी से अनुभव करता पाया हूँ। वह भी अपनी पोर से जब मैं प्राया तब उनकी अवस्था ३० के लगभग थी। मेरे लिए अभिभावक तुल्य रहे है। यह तो मेरा ही मैं बालक ही था और माता जी के साथ तीर्थ दर्शन करता दुर्भाग्य था कि जनों के सामाजिक जीवन से बिछड़ता-सा हुमा पहली मर्तबा कलकना पहुंचा था। उस समय भी चला गया। किन्तु बाबू छोटेलाल जी का कृपा भाव मुझ बाबूजी जैन समाज के नेता की तरह माने जाते थे। पर सदा बना रहा। प्रारम्भ में तो मैं कलकत्ता प्रवास सार्वजनिक सेवा कार्यों में उनकी लगन थी। और इस का अवसर माने पर उनके पास ठहरा भी था, उनका हृदयप्रकार के लगभग सभी प्रवृत्तियो मे उनका योग रहता वत्सल था उदार था । और उनकी सहायता मूक और था। शायद ही कोई संस्था हो जिसमे उनका सहारा न गुप्त हुमा करती थी। जैन सस्कृति और पुरातत्व मे उन्हे हो। मैं याद कर सकता हूँ कि माता जी को कलकत्ता में गहरी हाच थी। और तत् सम्बन्धी परिचय मोर बोध उनका विशेष अवलम्बन प्राप्त हुआ था, उस समय माता भी गहरा भौर विस्तृत था । वह बड़ी लगन और धुन के जी दिल्ली में जैन महिला थम नामक संस्था स्थापित प्रादमी थे, और जो मन में उठता उसको पूरा करके ही कर चुकी थी । अपने प्रति उनका अनुराग और अनुग्रह छोड़ते थे।
SR No.538019
Book TitleAnekant 1966 Book 19 Ank 01 to 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorA N Upadhye
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1966
Total Pages426
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size23 MB
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